चन्द्रिकाराहुल गांधी ने अपनी एक नयी और रोमांचकारी तदबीर खोज निकाली है. यह महज उनकी सनसनी खेज यात्रायें ही नही है बल्कि उनके सम्बोधन की जो अन्तर्वस्तु है वह कई बार संसदीय संरचना के दायरे से बाहर और उसके खारिजनामे के साथ आती है. जब वे आदिवासियों के बीच में जाते हैं जहाँ आदिवासी विद्रोह तीव्र गति से चल रहे हैं तो आदिवासी विद्रोहों व उसकी उपलब्धियों को ही लोकतंत्र की जीत के रूप में इंगित कर रहे होते हैं. जबकि यह स्पष्ट है कि महाराष्ट्र के गड़चिरौली के जंगलों में चल रहे आंदोलन या उड़ीसा के नियमगिरी में चल रहे आंदोलनों को कौन नेतृत्व दे रहा है और देश के प्रधानमंत्री उन्हीं को सबसे बड़े आंतरिक खतरे के रूप में चिन्हित कर रहे हैं.
हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में राहुल गांधी ने जनता के रूप में परिभाषित की जाने वाली जनता की इस कोरी और धुंधली तस्वीर को ही व्याख्यायित कर दिया. जिसमे आम आदमी का अर्थ वह है जिसका व्यवस्था से सम्पर्क नहीं है, नियमगिरि का वह आदिवासी बालक जिससे उसकी जमीन छीन ली गयी और न्याय नहीं मिला. इससे पहले भी अपने उड़ीसा दौरे या फिर झारखण्ड दौरे पर राहुल गांधी बदले हुए शब्दों के साथ यह बात कह चुके हैं. महाराष्ट्र के अपने हाल में आयोजित तीन दिवसीय दौरे पर जब वे गड़चिरौली पहुंचे तो उन्होंने पूरे राजनीतिक तंत्र को ही सड़ा हुआ घोषित कर दिया. कांग्रेस महासचिव ने यहाँ तक कहा कि हमें व्यवस्था बदलनी होगी. दरअसल संसदीय ढांचे को मजबूत करने वाली पार्टी के महासचिव के इस तरह के बयान आज समय की जरूरत बन गये हैं.
राहुल गांधी को पता है कि देश में आज परिस्थितियाँ १९४७ से इस हद तक बदल गयी हैं कि आज लोग व्यवस्था के सुधारवादी नारे पर उनके साथ नहीं आने वाले. यह आम जन की उस नब्ज को टटोल कर बोलना है जिसको समझते हुए आदिवासीयों ने दशकों पहले ही जंगलों में विद्रोह शुरु कर दिये थे. जहाँ बार-बार के उलट फेर से जन आकांक्षायें और अपेक्षायें खत्म हो चुकी थी.
राजनीति में अलग-अलग जुबानों की अपनी अहमियत है और उसके मायने भी. इस बिना पर देश की सभी पार्टियों का एक आमजन है जिसे पार्टी के नेता अपने बड़े-बड़े अधिवेशनों और रैलियों में अक्सर सम्बोधित करते रहते हैं और जनता के दुखों से दुखी होने व लोगों की समस्याओं के हल ढूढ़ कर उसे सुधारने का अलाप करते रहते हैं. जिसे वे इस रूप में प्रचारित करते हैं कि इन सबका समाधान अंततः उनकी पार्टी राजनीति में ही समाहित है. हर पार्टी के पास जन समस्याओं को हल करने का कोई न कोई फार्मूला मौजूद होता है. जिसके सहारे वह जनाधार तैयार करने में सक्षम हो पाती हैं. इस बिना पर सभी संसदीय पार्टीयों के सामने एक ही समस्या होती है कि वह बहुमत में नहीं आ पाती. ऐसा बहुमत जहाँ वह संवैधानिक फेर बदल में सक्षम हो सके. यदि क्षेत्रीय या राज्य स्तर पर बहुमत मिल भी गया तो केन्द्र सरकार के साथ तालमेल की दिक्कतें हैं. जन को सम्बोधित करते हुए बड़ी सहजता के साथ उनके और जनता के बीच की दूरियां शब्दों में भी उतर आती हैं. मसलन उनका एक शीर्ष अवस्था में खड़े होकर जनता को समझाइस देना और जन को अबूझ समझना. इस समझाइस देने में ही नेतृत्व जब जन के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह स्तरीकृत होता है. जहाँ वे इहलामिक तरीके से लोगों को उन्हीं समस्याओं से अवगत करा रहे होते हैं जिसे लोग अपनी जिंदगियों में झेल रहे हैं. वे उन्हें वाकिफ करवा रहे होते हैं कि कैसे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. घोटाले अब करोड़ों में नहीं बल्कि हजार करोड़ में क्यों होने लगे हैं. इन सबके साथ उनकी फरमाइसें होती हैं कि इसे दूर करने के लिये उनकी पार्टियों से जुड़ जाना चाहिये. इस रूप में एक तंत्र की भ्रष्टता को विपक्षी पार्टी की राजनीति से जोड़ दिया जाता है.
देश की राजनीतिक पार्टियों में नेतृत्व के लिये अब अहम सवाल बन गया है कि कैसे वह अन्य नेतृत्व से जन के सामने अपने को भिन्न तौर पर प्रदर्शित कर सके. समस्याओं को किस तौर पर रखे कि लोगों को वह भिन्नता दिखे जो किसी अन्य पार्टी में नहीं है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर स्थितियाँ ये हैं कि एक या दो पार्टी का वर्चस्व बना हुआ है. ऐसे में हर बार इस बरकरारी को बचाये रखने के लिये यह जरूरी हो जाता है कि किस तरह के नये हथियार को आजमाया जाय कि यह स्थिरता कायम रह सके या इसे बढ़ाया जा सके.
दरअसल, अपने छवि निर्माण की कोशिशों में राहुल गांधी ने देश में जो यात्रायें और लोगों के बीच जाकर अल्प मुलाकातें की यह उसका परिणाम है कि वे आम आदमी की एक ऐसी छवि बना पाये जो महज कुछ समस्याओं से ही नहीं जूझ रहा है बल्कि वह इस सम्पूर्ण संरचना में व्यवस्था का मारा हुआ है. ऐसे में उसकी लड़ाईयां देश के अलग-अलग हिस्सों में भले ही स्थानीय समस्याओं के साथ दिखाई पड़ रही हों पर मूलतः उसके जड़ में एक ऐसी व्यवस्था है जो उसके भोजन से लेकर न्याय तक में ठोकर मार रही है. चाहे वह छत्तीसगढ़, लालगढ़, सिंगूर हो या नियमगिरी और गड़चिरौली. व्यवस्था से कटे हुए ये क्षेत्र अपनी मूलभूत जरूरतों के लिये प्रतिरोध और लड़ाईयों के साथ उभर रहे हैं. संसदीय संरचना के साथ इनको जोड़ना आज किसी भी पार्टी के लिये सबसे बड़ी चुनौती है.
हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में राहुल गांधी ने जनता के रूप में परिभाषित की जाने वाली जनता की इस कोरी और धुंधली तस्वीर को ही व्याख्यायित कर दिया. जिसमे आम आदमी का अर्थ वह है जिसका व्यवस्था से सम्पर्क नहीं है, नियमगिरि का वह आदिवासी बालक जिससे उसकी जमीन छीन ली गयी और न्याय नहीं मिला. इससे पहले भी अपने उड़ीसा दौरे या फिर झारखण्ड दौरे पर राहुल गांधी बदले हुए शब्दों के साथ यह बात कह चुके हैं. महाराष्ट्र के अपने हाल में आयोजित तीन दिवसीय दौरे पर जब वे गड़चिरौली पहुंचे तो उन्होंने पूरे राजनीतिक तंत्र को ही सड़ा हुआ घोषित कर दिया. कांग्रेस महासचिव ने यहाँ तक कहा कि हमें व्यवस्था बदलनी होगी. दरअसल संसदीय ढांचे को मजबूत करने वाली पार्टी के महासचिव के इस तरह के बयान आज समय की जरूरत बन गये हैं.
राहुल गांधी को पता है कि देश में आज परिस्थितियाँ १९४७ से इस हद तक बदल गयी हैं कि आज लोग व्यवस्था के सुधारवादी नारे पर उनके साथ नहीं आने वाले. यह आम जन की उस नब्ज को टटोल कर बोलना है जिसको समझते हुए आदिवासीयों ने दशकों पहले ही जंगलों में विद्रोह शुरु कर दिये थे. जहाँ बार-बार के उलट फेर से जन आकांक्षायें और अपेक्षायें खत्म हो चुकी थी.
राजनीति में अलग-अलग जुबानों की अपनी अहमियत है और उसके मायने भी. इस बिना पर देश की सभी पार्टियों का एक आमजन है जिसे पार्टी के नेता अपने बड़े-बड़े अधिवेशनों और रैलियों में अक्सर सम्बोधित करते रहते हैं और जनता के दुखों से दुखी होने व लोगों की समस्याओं के हल ढूढ़ कर उसे सुधारने का अलाप करते रहते हैं. जिसे वे इस रूप में प्रचारित करते हैं कि इन सबका समाधान अंततः उनकी पार्टी राजनीति में ही समाहित है. हर पार्टी के पास जन समस्याओं को हल करने का कोई न कोई फार्मूला मौजूद होता है. जिसके सहारे वह जनाधार तैयार करने में सक्षम हो पाती हैं. इस बिना पर सभी संसदीय पार्टीयों के सामने एक ही समस्या होती है कि वह बहुमत में नहीं आ पाती. ऐसा बहुमत जहाँ वह संवैधानिक फेर बदल में सक्षम हो सके. यदि क्षेत्रीय या राज्य स्तर पर बहुमत मिल भी गया तो केन्द्र सरकार के साथ तालमेल की दिक्कतें हैं. जन को सम्बोधित करते हुए बड़ी सहजता के साथ उनके और जनता के बीच की दूरियां शब्दों में भी उतर आती हैं. मसलन उनका एक शीर्ष अवस्था में खड़े होकर जनता को समझाइस देना और जन को अबूझ समझना. इस समझाइस देने में ही नेतृत्व जब जन के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है तो वह स्तरीकृत होता है. जहाँ वे इहलामिक तरीके से लोगों को उन्हीं समस्याओं से अवगत करा रहे होते हैं जिसे लोग अपनी जिंदगियों में झेल रहे हैं. वे उन्हें वाकिफ करवा रहे होते हैं कि कैसे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. घोटाले अब करोड़ों में नहीं बल्कि हजार करोड़ में क्यों होने लगे हैं. इन सबके साथ उनकी फरमाइसें होती हैं कि इसे दूर करने के लिये उनकी पार्टियों से जुड़ जाना चाहिये. इस रूप में एक तंत्र की भ्रष्टता को विपक्षी पार्टी की राजनीति से जोड़ दिया जाता है.
देश की राजनीतिक पार्टियों में नेतृत्व के लिये अब अहम सवाल बन गया है कि कैसे वह अन्य नेतृत्व से जन के सामने अपने को भिन्न तौर पर प्रदर्शित कर सके. समस्याओं को किस तौर पर रखे कि लोगों को वह भिन्नता दिखे जो किसी अन्य पार्टी में नहीं है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर स्थितियाँ ये हैं कि एक या दो पार्टी का वर्चस्व बना हुआ है. ऐसे में हर बार इस बरकरारी को बचाये रखने के लिये यह जरूरी हो जाता है कि किस तरह के नये हथियार को आजमाया जाय कि यह स्थिरता कायम रह सके या इसे बढ़ाया जा सके.
दरअसल, अपने छवि निर्माण की कोशिशों में राहुल गांधी ने देश में जो यात्रायें और लोगों के बीच जाकर अल्प मुलाकातें की यह उसका परिणाम है कि वे आम आदमी की एक ऐसी छवि बना पाये जो महज कुछ समस्याओं से ही नहीं जूझ रहा है बल्कि वह इस सम्पूर्ण संरचना में व्यवस्था का मारा हुआ है. ऐसे में उसकी लड़ाईयां देश के अलग-अलग हिस्सों में भले ही स्थानीय समस्याओं के साथ दिखाई पड़ रही हों पर मूलतः उसके जड़ में एक ऐसी व्यवस्था है जो उसके भोजन से लेकर न्याय तक में ठोकर मार रही है. चाहे वह छत्तीसगढ़, लालगढ़, सिंगूर हो या नियमगिरी और गड़चिरौली. व्यवस्था से कटे हुए ये क्षेत्र अपनी मूलभूत जरूरतों के लिये प्रतिरोध और लड़ाईयों के साथ उभर रहे हैं. संसदीय संरचना के साथ इनको जोड़ना आज किसी भी पार्टी के लिये सबसे बड़ी चुनौती है.
अच्छा विश्लेषण। वैसे भी व्यवस्था बदले बगैर अब किसी सुधार की किरण दूर दूर तक नजर नहीं आती।
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा और रोचक। सिलसिलेवार पढ़ता चला गया। राहुल गाँधी की कलाई पकड़ मस्त नब्ज़ टटोला है। जिस व्यवस्था के सार्थक विकल्प के लिए युवा राजनीतिज्ञ लोगों के बीच ‘कैम्पेन’ कर रहे हैं, भ्रष्ट्नों का पता जनता को बोलकर नोट करा रहे हैं, लोगों को उसके खिलाफ जागरूक कर रहे हैं; क्या उसमें उनकी पार्टी का हाथ आकंठ नहीं डूबी है? अगर, हाँ तो सबसे पहले इस हाथ का इलाज जरूरी है। व्यवस्थागत प्रताड़नाआंे से निपटने या उबरने के लिए प्रथमतः उस सनातनी पार्टी को सत्ताच्यूत करना होगा, जिसने भारतीय युवाओं को अभी तक सर्वाधिक बरगलाया है। या फिर राहुल गाँधी ज्यादा से ज्यादा युवाओं को टिकट बाँटकर युवा-भारत के निर्माण की राह प्रशस्त करें। अधिकाधिक युवाओं को राजनीति में लाने के पैराकार राहुल गांधी अगर आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव में टिकट बँटवारे का यह ‘मॉडल’ नहीं उतारते तो समझिए यूपी चुनाव में उनकी पार्टी की खटिया खड़ा होना तय है। क्योंकि जनता के भीतर भरा हुआ रोष-आक्रोश प्रचंड है।
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन प्रसाद, शोध-छात्र, प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता), बीएचयू