29 अगस्त 2009

आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें


डिक्टेटर का समापन भाषण
चार्ली चैप्लिन
चार्ली चैप्लिन ने लोगों को ऎसे दौर में हसना सिखाया जब दुनिया विश्वयुद्ध और फासीवाद के दौर में जी रही थी. ग्रेट डिक्टेटर फिल्म १९४० में बनी जिसमे चर्ली चैप्लिन ने हिटलर की भूमिका निभाते हुए एक भाषण दिया था. वह भाषण ऎसा लगता है मानों तब से दुनिया ठहरी हुई हो, बस चार्ली चैप्लिन हमारे बीच से गायब हो गये हों.

मुझे खेद है लेकिन मैं शासक नहीं बनना चाहता. ये मेरा काम नहीं है. किसी पर भी राज करना या किसी को भी जीतना नहीं चाहता. मैं तो किसी की मदद करना चाहूंगा- अगर हो सके तो- यहूदियों की, गैर यहूदियों की- काले लोगों की- गोरे लोगों की.
हम सब लोग एक दूसरे लोगों की मदद करना चाहते हैं. मानव होते ही ऎसे हैं. हम एक दूसरे की खुशी के साथ जीना चाहते हैं- एक दूसरे की तकलीफों के साथ नहीं. हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं करना चाहते. इस संसार में सभी के लिये स्थान है और हमारी यह समृद्ध धरती सभी के लिये अन्न-जल जुटा सकती है.
जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गये हैं. लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है- दुनिया में नफ़रत की दीवारें खडी कर दी हैं- लालच ने हमे ज़हालत में, खून खराबे के फंदे में फसा दिया है. हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है. हमने मशीने बनायी, मशीनों ने हमे बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी माँगें और बढ़ती चली गयीं. हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोडा है; हमारी चतुराई ने हमे कठोर और बेरहम बना दिया. हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं. हमे बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज्यादा जरूरत है, इन गुणों के बिना जीवन हिंसक हो जायेगा.
हवाई जहाज और रेडियो हमें आपस में एक दूसरे के निकट लाये हैं. इन्हीं चीजों की प्रकृति आज चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- इन्सान में अच्छई हो- चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है- पूरी दुनिया में भाईचारा हो, हम सबमे एकता हो. यहाँ तक कि इस समय भी मेरी आवाज़ पूरी दुनिया में लाखों करोणों लोगों तक पहुँच रही है- लाखों करोडों हताश पुरुष, स्त्रियाँ, और छोटे-छोटे बच्चे- उस तंत्र के शिकार लोग, जो आदमी को क्रूर और अत्याचारी बना देता है और निर्दोष इंसानों को सींखचों के पीछे डाल देता है; जिन लोगों तक मेरी आवाज़ पहुँच रही है- मैं उनसे कहता हूँ- “निराश हों’. जो मुसीबत हम पर पडी है, वह कुछ नहीं, लालच का गुज़र जाने वाला दौर है. इंसान की नफ़रत हमेशा नहीं रहेगी, तानाशाह मौत के हवाले होंगे और जो ताकत उन्होंने जनता से हथियायी है, जनता के पास वापिस पहुँच जायेगी और जब तक इंसान मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी खत्म नहीं होगी.
सिपाहियों! अपने आपको इन वहशियों के हाथों में पड़ने दो- ये आपसे घृणा करते हैं- आपको गुलाम बनाते हैं- जो आपकी जिंदगी के फैसले करते हैं- आपको बताते हैं कि आपको क्या करना चाहिये, क्या सोचना चाहिये और क्या महसूस करना चाहिये! जो आपसे मसक्कत करवाते हैं- आपको भूखा रखते हैं- आपके साथ मवेसियों का सा बरताव करते हैं और आपको तोपों के चारे की तरह इश्तेमाल करते हैं- अपने आपको इन अप्राकृतिक मनुष्यों, मशीनी मानवों के हाथों गुलाम मत बनने दो, जिनके दिमाग मशीनी हैं और जिनके दिल मशीनी हैं! आप मशीनें नहीं हैं! आप इंसान हैं! आपके दिल में मानवाता के प्यार का सगर हिलोरें ले रहा है. घृणा मत करो! सिर्फ़ वही घृणा करते हैं जिन्हें प्यार नहीं मिलता- प्यार पाने वाले और अप्राकृतिक!!
सिपाहियों! गुलामी के लिये मत लडो! आज़ादी के लिये लडो! सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में यह लिखा है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है- सिर्फ़ एक आदमी के भीतर नहीं, नही आदमियों के किसी समूह में ही अपितु सभी मनुष्यों में ईश्वर वास करता है! आप में! आप में, आप सब व्यक्तियों के पास ताकत है- मशीने बनाने की ताकत. खुशियाँ पैदा करने की ताकत! आप, आप लोगों में इस जीवन को शानदार रोमांचक गतिविधि में बदलने की ताकत है. तो- लोकतंत्र के नाम पर- आइये, हम ताकत का इस्तेमाल करें- आइये, हम सब एक हो जायें. आइये हम सब एक नयी दुनिया के लिये संघर्ष करें. एक ऎसी बेहतरीन दुनिया, जहाँ सभी व्यक्तियों को काम करने का मौका मिलेगा. इस नयी दुनिया में युवा वर्ग को भविष्य और वृद्धों को सुरक्षा मिलेगी.
इन्हीं चीजों का वायदा करके वहशियों ने ताकत हथिया ली है. लेकिन वे झूठ बोलते हैं! वे उस वायदे को पूरा नहीं करते. वे कभी करेंगे भी नहीं! तानाशाह अपने आपको आज़ाद कर लेते हैं लेकिन लोगों को गुलाम बना देते हैं. आइये- दुनिया को आज़ाद कराने के लिये लडें- राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़ डालें- लालच को ख़्त्म कर डालें, नफ़रत को दफन करें और असहनशक्ति को कुचल दें. आइये हम तर्क की दुनिया के लिये संघर्ष करें- एक ऎसी दुनिया के लिये, जहाँ पर विज्ञान और प्रगति इन सबको खुशियों की तरफ ले जायेगी, लोकतंत्र के नाम पर आइए, हम एकजुट हो जायें!
हान्नाह! क्या आप मुझे सुन रही हैं?
आप जहाँ कहीं भी हैं, मेरी तरफ देखें! देखें, हन्नाह! बादल बढ़ रहे हैं! उनमे सूर्य झाँक रहा है! हम इस अंधेरे में से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं! हम एक नयी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं- अधिक दयालु दुनिया, जहाँ आदमी अपनी लालच से ऊपर उठ जायेगा, अपनी नफ़रत और अपनी पाशविकता को त्याग देगा. देखो हन्नाह! मनुष्य की आत्मा को पंख दे दिये गये हैं और अंततः ऎसा समय ही गया है जब वह आकाश में उड़ना शुरु कर रहा है. वह इंद्रधनुष में उड़ने जा रहा है. वह आशा के आलोक में उड़ रहा है. देखो हन्नाह! देखो!’

26 अगस्त 2009

जन जागरण से जनयुद्ध तक

महाराष्ट्र के गृहमंत्री जयंत पाटिल ने आदिवासी बटालियन बनाने की घोषणा कर दी है. २१ अगस्त को उन्हीं के हांथों १११ एकड़ जमीन पर एक प्रशिक्षण सिविर का उदघाटन भी किया जा चुका है. इस आदिवासी बटालियन में स्थानीय आदिवासियों की भर्ती को प्राथमिकता दी जायेगी. माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में व्यय करने के लिये राज्य ने अलग से १३०० करोण रूपये का पैकेज भी दिया जिससे पुलिस कर्मीयों को बेहतर सुविधा मुहैया करायी जायेगी व उन्हें अतिरिक्त पैसे भी दिये जायेंगे.
इन ढेर सारी घोषणाओं के बीच एक बात जो अघोषित रह गयी वह यह है कि राज्य सरकार को अभी आदिवासी बटालियन बनाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है. अब तक आदिवासी पुलिस भर्ती की मापदंड से बाहर क्यों रह गये थे. पर सरकार को आज वे कौन सी विशेषतायें आदिवासियों में दिखने लगीं कि वह अलग से बटालियन बनाने को तैयार हो गयी. निश्चित तौर पर आदिवासियों ने अपने हक हुकूक की लडाई को जिस तौर पर लडा है जिसके आगे पुलिस बल कई बार मात खा चुकी है. सरकार आदिवासियों के इसी जुझारूपन व तेवर को आदिवासी बटालियन बनाकर खरीदना चाहती है और उन्हीं के हाथों उन्हीं के सीने पर गोली चलवाना चाहती है.
देश के अधिकांस हिस्सों में अपने जंगल व जमीन को बचाने के लिये आदिवासियों ने जो विद्रोह किया या जो संघर्ष चलाये उसके खिलाफ उन्हीं के बीच से आदिवासी समाज के लोगों को खडा करना, यह पहला प्रयोग नहीं है इसके पहले भी आदिवासियों से आदिवासियों को लडाने के कई तरीके अपनाये जा चुके हैं. राज्य व स्थानीयता के लिहाज से भले ही उनके स्वरूप को बदल दिया गया हो.
छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडुम का पूरा अभियान इसी तर्ज पर तैयार किया गया जिसमे टाटा और एस्सार को जमीन दिये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासियों को खत्म करने के लिये उन्हीं के समाज के लोगों को १५०० रूपये देकर एस.पी.ओज. के रूप में भर्ती किया गया. यह भर्ती की प्रक्रिया पुलिस में भर्ती होने वाले मापदण्डों को तोड़ कर की गयी. जिसमे १३ वर्ष के बच्चों तक को सम्मलित किया गया और उनके हाँथ में ३०३ के हथियार पकडा दिये गये और आदिवासी बनाम आदिवासी युद्ध, शांति अभियान के नाम पर चलाया गया. जिसमे हजारों की संख्या में आदिवासियों की तबाही हुई. सलवा जुडुम अब पूरी तरह से उजागर हो चुका है और सुप्रीम कोर्ट इसकी निंदा कर चुकी है अतः आदिवासी बटालियन का बनना एक नये स्वरूप में महाराष्ट्र राज्य के अंदर एक वैध्यता प्रदान करेगा.
आदिवासी बटालियन बनने के और भी कई गंभीर संकेत है. एक तो जंगल और खदानों को लूटे जाने के विरुद्ध आदिवासी संघर्षों को रोकने के लिये व उन्हें उनकी जमीन से बेदख़ल करने के लिये जिस पुलिस बल का प्रयोग किया जाता था वे गैर आदिवासी होते थे व किसी अन्य वर्ग से होते थे. संघर्षों में कई बार इन्हें जान तक गवानी पड़ती थी. अब आदिवासी बटालियन बनने से सरकार एक ही तीर से कई निशाने साधने के फिराक में है जिसमे दोनों तरफ से मौत आदिवासियों की ही होनी है, वह भी स्थानीय आदिवासी. यानि एक ऎसे युद्ध की पृष्ठभूमी तैयार हो रही है जहाँ हार जीत की परवाह नहीं करनी है. मकसद दोनों तरफ से पूरे हो रहे हैं एक विद्रोही समाज को ख़त्म करने के, जंगल से जंगलवासियों के सफाये के.
स्थानीय आदिवासियों को भर्ती करने के पीछे कारण यह भी है कि अलग-अलग राज्यों से आये अर्धसैनिक बलों को वहाँ के स्थानों से परिचित होने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था स्थानीय आदिवासियों के साथ वे कठिनाईयां नहीं रह जायेंगी, पुलिस को अब गुप्त माध्यमों से इलाके का पता लगाने की जरूरत नहीं पडेगी बल्कि स्थानीय आदिवासी जिन्हें बटालियन में शामिल किया जायेगा वह वहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ रहेगा. पिछले कुछ दशकों में जब भी इस तरह के प्रयोग किये गये हैं एक बडा प्रचार तंत्र इस रूप में भी खडा किया जाता रहा है कि आदिवासी जागरूक हो गये हैं और अपने ऊपर हो रहे माओवादियों के जुल्म के खिलाफ खडे हो रहे हैं. जबकि यह आदिवासियों को आपस में लडाकर उन्हें खत्म करने का एक और तरीका भर है.
खनिज संसाधनों की मिल्कियत से भरे जंगलों को निजी हांथों में सौंपा जा रहा है जिस वजह से वहाँ के लोगों में आक्रोश व संघर्ष तेज होना लाजमी है जिस स्थिति को सरकार पहले पहचान रही है. अतः ऎसे पूरे समाज को खत्म करने व वहाँ से विस्थापित करने की मुहिम का एक हिस्सा है जो अपने संसाधनों पर निजी कब्जेदारी नहीं करने दे रहा है.
माओवाद से निपटने की पिछले तीस वर्षों में सरकार की जो कोशिश रही है उसमे कई तरीके अख़्तियार किये गये हैं. आदिवासी इलाकों में जनजागरण जैसे अभियान चलाये गये जो बाद में विफल साबित हुए. नये शस्त्रों से सेना व पुलिस को लैस किया गया ताकि इन्हें मार कर निपटा जा सके पर इसका उल्टा यह हुआ कि जो हथियार माओवादियों के पास नहीं थे पुलिस से छीनकर माओवादी भी उन हथियारों से अपने को मजबूत बनाने में सक्षम हुए. जिलों का विभाजन किया गया छोटे-छोटे जिले व थाने निर्मित किये गये ताकि सघन स्तर पर कार्यवाहियों को अंजाम दिया जा सके पर अंततः देखा जाय तो माओवादियों का जो क्षेत्र था उसमे विस्तार होता गया. सरकार एक तरफ तो माओवाद को आर्थिक सामाजिक समस्या के रूप में देखती है पर दूसरी तरफ हाल ही में इसे एक आतंकवादी संगठन के रूप में भी घोषित किया जा चुका है. क्या आतंकवाद आर्थिक सामाजिक समस्या की पैदाइस है?
अब जिस तरह का प्रयोग सरकार करने जा रही है वह एक तरह का जन युद्ध है शायद इस शदी को इस जनयुद्ध के भयानक खामियाजे भुगतने पडें। जो आदिवासी एकता को खंडित करने या महज़ आदिवासियों की आपसी लडाई के रूप में ही नहीं होंगे बल्कि आदिवासी समाज में जो विद्रोह का तेवर है, लडाकेपन की जो क्षमता है आदिवासी बटालियन उस तेवर से अलग नहीं लडेगी. सरकार के द्वारा चलाये जा रहे इस युद्ध में आदिवासी मारे जायेंगे और एक आदिम समाज आपसी लडाई में खत्म हो जायेगा या बच जायेगा.
चन्द्रिका

24 अगस्त 2009

कश्मीर में मीडिया

शेवंती निनन
अनुवाद: सत्यम कुमार सिंह
शांति अहिंसा विभाग महात्मा गाधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय
मीडिया और कश्मीर के बीच एक अलग तरह का रिश्ता है शायद देश में कोई ऐसा राज्य नही है जिसने कश्मीर जितना राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय कवरेज प्राप्त किया हो और शायद ही दिल्ली को छोड़ कर जनसंख्या अनुपात में मीडिया की इतनी मौजूदगी हो। मगर फिर भी इस राज्य के विकास से संदर्भित सच्चाई को मालूम करना बिल्कुल ही मुश्किल बना हुआ है। क्योंकि यहाॅ सत्य के कई संस्करण हमेशा बने रहते हैं।
देश के अन्य हिस्सों में कश्मीर भले ही सामान्यतः की तरफ लौटता नजर आता हो, शायद ऐसा इसलिए भी क्योंकि वहाॅ अब लगातार चुनाव हो रहे है। लेकिन सैन्यीकरण अब भी बहुत ज्यादा है। वहाॅ जो लोग रहतें हैं वो लगातार बने इस तनाव को महसूस कर सकतें हैं। वहाॅ जाकर ही इसे भली भाॅती देखा जा सकता है। कोई भी छोटी सी घटना अशांति की चिंगारी के लिए काफी होती है। फिलहाल कश्मीरी जनता और मिलिटेंट पत्रकार भारतीय राज्य के सार्मथ के प्रति कम ही चिंतित हैं। कश्मीर पर रिपोर्टिंग करते वक़्त भारतीय पत्रकार इसको नज़र अंदाज कर देते हैं। उनकी रिर्पोटिंग में राष्ट्रवाद का रंग भर जाता है। जब कोई कश्मीरी संवाददाता किसी भारतीय अख़बार अथवा भारतीय पत्रिका के लिए स्टोरी फाइल करता है तो वो इस बात से बिल्कुल आश्वस्त नही रहता कि ख़़बर वैसी ही छपेगी जैसे उसने लिखी/लिखा था। वे जो इन रिर्पोटों को डेस्क या उच्च स्तर पर संपादित करते है, राष्ट्र विरोधी समझ कर कुछ अंशों को हटा देतें हैं। कश्मीरी पत्रकार विशेष सुविधाप्राप्त और अभिशप्त दोनों ही है। पश्चिमी दुनियाॅ के फेलोशिप और प्रतिभागी के रुप में इन युवा पत्रकारांे को खोजा जाता है। यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका के किसी भी काॅनफ्लििक्ट् मीटिंग के आयोजन में आयोजक कश्मीर के प्रतिभागी को शामिल करने के लिए आतुर रहतें हैं। वही दूसरी तरफ जो कश्मीर में रहकर राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय व स्थानीय रिर्पोटिंग करतें है उन्हे बमुश्किल ही विरोधी विषयों पर लिखने की स्वतंत्रता रहती है। पत्रकारिता में प्रवेश करने के समय से ही उनका पेशे में काॅनफ्लििक्ट् कवरेज होता है। वो आपको बतायेंगें की ‘‘किसी अन्य विषयों पर रिर्पोटिंग कैसे होती है’’ ये हम भूल चूके हैं।
ये लेख बतायेगा की कश्मीर में मीडिया किस तरह से एक परिवेक्षक न होकर कर्ता की भूमिका अदा कर रहा है।
जम्मू और कश्मीर में जो एक बात समान है वो है एक समृद्धि मीडिया की उपस्थिति। अस्सी लाख की आबादी वाले इस राज्य में मीडिया की उपस्थिति महत्वपूर्ण है। श्रीनगर में दैनिक अखबारों की संख्या 71 और जम्मू में लगभग 61 है। इनमें से ज्यादातर चार पृष्ठीय ब्लैक एण्ड व्हाइट चित्र वाले कहे जा सकतें है। और जम्मू में चार पृष्ठीय खेलकूद के रंगीन अखबार भी हैं। कम उद्योग वाले इस राज्य में मीडिया एक रहस्यमयी तौर पर बढता उद्योग है। यहाॅ मीडिया में कोई मंदी नही है। इस साल के प्रारम्भ मंे ही साप्ताहिक अखबार ‘‘कश्मीर लाइफ’’ को लांच किया गया, उर्दू दैनिक ‘‘रायजिंग कश्मीर’’ आने को है, और ऐसा ही कश्मीर टाइम्स के उर्दू संस्करण के साथ है। एक हिंदी और अंग्रजी का अखबार भी जम्मू में प्रकाशित होने जा रहा है।
संवाददाताओं और संपादकों से एक-एक बातचीत आपको बतायेगी की कैसे एक ठीक-ठाक संपादक और रिर्पोटर (जो आसानी से नही मिलते) वाले अखबार भी केवल अपने पृष्ठीय क़ीमत और विज्ञापन से अकेले ही लाभ देने वाले है। विज्ञापन की आमद उद्योग के बजाय रिटेल आउटलेट से ज्यादा है और कुछ प्रमुख प्रकाशकों तक ही पहुॅचता है। राज्य सरकार का कुल सालाना विज्ञापन बजट 5 करोड़ का है, जो कुछ बढ भी सकता है परन्तु फिर भी ये 378 प्रकाशकों के इस व्यवसाय को बनाये रखने के लिए फिलहाल पर्याप्त नही है। डीएवीपी विज्ञापन जो केंद्र सरकार के द्वारा दिया जाता है सरकुलेशन के आधार पर राज्य के बहुत ही कम प्रकाशकों को मिलता है। तो फिर विशिष्ट कहानियों के साथ विज्ञापन और बैंक लोन से कश्मीर की मीडिया को रहस्यमयी आर्थिक मदद कौन करता है़? सत्ता के कई प्रतिष्ठान जिसमें राज्य सरकार और इंटीलीजेंस एजेंसियाॅ शामिल हैं सोचती है की जम्मू एण्ड कश्मीर बैंक और मिलिटेंट्स से अब जबकि आज क्षेत्रीय अखबारों को उतना फंड नही मिल पाता जितना उन्हे पहले मिल जाता था। जैसाकि आप संर्घष के पहले ही दिन से आप यह पायेंगंे कि यहाॅ संघर्ष मीडिया के लिए एक बहुत बडा प्रोत्साहन रहा है। 1990 के पहले तक यहाॅ उर्दू के केवल तीन प्रकाशक थे जिसमें कांग्रेस का ‘‘खि़दमत’’ भी शामिल है। द कश्मीर टाइम्स अंग्रेजी का एक मात्र अखबार जम्मू के बाहर से प्रकाशित होता था। आज अखबारों की संख्या अलग ही कहानी कहती है।
कुछ मायनों में पत्रकारों के लिए यह एक आरामदायक जगह है। सरकारी अर्पाटमेंट प्रेस काॅलोनी कई प्रकाशकों को कार्यालय के लिए जगह उपलब्ध कराती हैं। उद्यमशीलता के लिए बेहतर है। यहाॅ तक की एक एनडीटीवी का संवाददाता मंत्री का बॅगला हथियाया हुआ है। ये एक ऐसी जगह भी है जहाॅ श्रमजीवी पत्रकार मीडिया मालिक है। कम से कम दिल्ली प्रेस के 3 प्रतिनिधी खुद का प्रकाशन रखतें है। हालांकि इनका नाम सूचीबद्ध नही है। संर्घष के इस धधकते केंद्र के चलते यहाॅ से कई पत्रकार विश्वव्यापी वृहद यात्रा कर चुके होते हैं। ऐसा पहले नही था जब आपको कश्मीर में पत्रकार बनने के लिए जान जोखिम में डालनी पडती थी। पर आज उत्तर पूर्व काम के लिहाज से एक खतरनाक जगह है।
जम्मू कश्मीर पत्रकारिता की मुख्य रीढ़ केएनएस, सीएनएस, यूएनएस, एपीआई, पीबीआई तथा कुछ अन्य न्यूज एजेंसिंयाॅ हैं। ये सभी मिलकर जम्मू और श्रीनगर के सभी छोटे अखबारों को दर्जनों स्टोरी मुहैया कराती है। जो इन्हे बगैर किसी रिर्पोटिंग स्टाफ के कार्य करने में सक्षम बनाती है। इन एजेंसियों की स्टोरी को कश्मीर के सभी सत्ता के केंद्र पोषित करते हैं। अगले दिन इन्ही में से कुछ स्टोरी स्टाफ बाईलाइन बनती है। राज्य, मीडिया कवरेज को आसान बनाता है। आपको बहुत सारे रिर्पोटर से नही मिलना होता है। आपको केवल ख़बर लेना है या फिर न्यूज एजेंसी से कुछ सामाग्री लीक करनी है। इनका ग्राहक बनना न केवल सस्ता है बल्कि व्यवहार में कभी-कभी ये मुफ्त भी है। उर्दू दैनिक ‘‘निदा-ए-मसरीक’’ के संम्पादक का कहना है ‘‘मैं एक एजेंसी का पिछले चार साल से उपयोग कर रहा हॅू। मैने कोई भुगतान नही किया और अभी तक उन्होने मुझसे कुछ नही पूछा। मुछे कभी एक बिल तक नही आया।’’ जाहिर है जो उनकी स्टोरी का उपयोग करतें हैं न्यूज एजेंसी को उनके भुगतान की जरुरत नही होती, संभवतः वे उन स्टोरीदाताओं से भली प्रकार प्रतिपूर्ति पा लेतें हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि कश्मीर में सत्ता के बहुत सारे केंद्र है और यह भी कि सत्य के कई संस्करण। क्षेत्रीय अखबार किसी विशेष मिलीटेंट संगठन द्वारा बंद कर दिये जाने या फिर उनसे वित्त पोषण द्वारा पहचाने जाते हैं। या फिर इससे कि वह उसको प्रतिबिंबित करता हो जो भारतीय इंटीलीजेंस उनसे करवाना चाहती है। पिछले साल के अमरनाथ भूमि हस्तांरण विवाद के अखबार और केबल टीवी कवरेज से यह स्पष्ट हो जाता है कि जम्मू के अखबार कश्मीर के अख़बार से अलग सत्य को देखते है।
एक कश्मीरी पत्रकार जो दिल्ली के अखबारों के लिए काम करता है कहता है ‘‘पैसा दोनों तरफ से आता है। अखबारों को भी पैसा दिया जाता है पहले तो बढाने चढाने के लिए अगर छेडछाड है तो उसे बलात्कार कहने के लिए आपको पैसा मिलता था.......अब स्थिति बदल चुकी है। मीडिया न केवल प्रोपोगंडा का टूल है बल्कि प्रति विद्रोह का भी साधन है। और प्रोपोगंडा करने वालों और विद्रोह करने वालों दोनो के अपने संस्करण हैं।
इस गर्मी में शोपियाॅं में एक कथित कत्ल और बलात्कार इस बात का क्लासिक उदाहरण है कि सच्चाई को अलग तरीके से कह कर उसका स्वरुप गढा जाता है। 29 मई को दो महिला अपने पारिवारिक सेब बागान से आते समय गायब हुयी और अगली सुबह वो मृत पायी गयी। बलात्कार और क़त्ल करने वाला एक संदिग्ध भी था। एक एफ आई आर काफी कुछ कहता, रिश्तेदारों ने माॅग की लेकिन उसे रजिसटर्ड नही किया गया था। जब पोस्टमार्टम से एटाप्सी हुयी तो परिणाम विरोधाभासी थे और अशंाति के कारण को सच साबित कर रहे थे। जमीनी सत्य के विभिन्न संस्करणों से कैसे रिपोर्ट तैयार किये जातें है यह दिल्ली से प्रकाशित होने वाले तीन अखबार और एक टीवी चैनल की केस स्टडी बताती है। एनडीटीवी एटाप्सी रिपोर्ट को तरजीह दे रही थी तो वही इंडियन एक्सप्रेस और मेल टुडे राज्य द्वारा बयां घटना को प्रश्न करने की तरफ झुके हुए थे। यह एक कथित बलात्कार था जबकि पुलिस की शुरुआती कोशिश इस बात पर जोर देने की थी की वो डूब कर मर गयी होगीं। द हिंदू ने इसी सिद्धांत पर भरोसा किया जबकि क्षेत्रीय अखबारों का कहना था कि डूब के मरने के लिए नदी काफी छिछली थी।
जबकि क्षेत्रीय नेता लगातार विरोध करते रहे और घटना दबने का नाम नही ले रही थी। तब एक जाॅच पडताल की टीम और एक न्यायिक आयोग ने महिलाओं के मरने की दशा की छानबीन की। इसने पुलिस के द्वारा सबूत के साथ छेड़छाड वाली एक अंतरिम रिपोर्ट सौंपी। और यह पुलिस के अपराध में शामिल होने के संदेह का कारण था।
कश्मीर के पत्रकार आपको बिल्कुल अनौपचारिकता में यह बतायेंगे की शेष भारत के टिप्पणीकारों और रिर्पोटरों के राष्ट्रवादिता से लगातार विचलित किए जाते रहे है। कश्मीर में मीडिया की स्थिति पर बात करते हुए श्रीनगर की एक बैठक में उर्दू अखबार के एक सम्पादक का कहना था ‘‘मनोवैज्ञानिक रुप से हम सभी मिलीटेंट हैं।’’ और तब जब वो स्पष्टतः कहें कि हम कश्मीरी पहले हैं। भारत के टेलीवीज़न में छोटे सुरक्षा विशेषज्ञों और भूतपूर्व राजनयिकों को अलगाव वादी राजनेताओं के विरुद्ध देखते समय साफ जाहिर होता है कि वो स्वयं को राष्ट्रीय हित के पक्ष में रख रहें है। संर्घषरत राज्य मणिपुर में इम्फाल से प्रोफेसर लोकेंद्र इस प्रवृत्ति को बेहतर तरीके से समायोजित करते हैं। मेरे साथ एक साक्षात्कार में उन्होने कहा था ‘‘मुख्य धारा की मीडिया सोचती है कि वो राष्ट्र है। वो ये नही सोचती की राष्ट्र को कौन बनाता है।’’

20 अगस्त 2009

कश्मीर के चिंताजनक राजनीतिक हालात

अनिल (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के छात्र हैं)
पिछले दिनों जम्मू कश्मीर विधानसभा में जो परिदृश्‍य देखेने को मिला, उसके राजनीतिक कारणों की गहराई में जाना ज़रूरी है। विपक्ष प्रमुख महबूबा मुफ़्ती द्वारा अध्यक्ष की कुर्सी के पास आकर उनपर माइक फेंकना चरम राजनीतिक निराशा का एक नमूना मात्र है। लगभग दो महीने पहले 29 मई की रात को शोपियां में दो युवतियों के सामूहिक बलात्कार और फिर हत्या के विरोध में समूचा कश्मीर आमजन की विरोध कार्रवाइयों से सुलग उठा। लेकिन इस पूरे प्रकरण पर सत्ता पक्ष ने जिस तरह का रवैया अख़्तियार किया, वह न सिर्फ़ टाल-मटोल का था, बल्कि दोषियों को न्यायालय के दायरे से मुक्‍त रखने का भी था। ’युवा छवि’ वाले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला अपनी कार्यप्रणाली पर सवाल से जब घिर गए तभी उन्होंने इसके न्यायलयीन जांच के आदेश दिए। कश्मीर घाटी में इस घटना के दोषियों पर कठोर कार्रवाई की मांग करते हुए सरकार की ग़ैर-ज़िम्मेदार भूमिका के ख़िलाफ़ जो प्रदर्शन हुए, उसमें कई लोग मारे गए तथा कई अन्य घायल हुए। इन विरोध प्रदर्शनों को रोकने के फौज़ी अभियान के फलस्वरूप संवेदनशील कश्मीर घाटी में जान माल का भारी नुक़सान हुआ।
इन तनावपूर्ण स्थितियों के बाद भी दोषियों को बचाने की जो कोशिशें हुईं, उससे उबलती घाटी में यही संदेश गया कि सत्तापक्ष हर बार की तरह इस मामले में भी लीपापोती करने पर आमादा है। वैसे, जम्मू-कश्‍मीर राज्य में सुरक्षा बलों की ज़्यादतियों के बारे में शेष भारत को किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तक नहीं मिल पाती है। अतः बहुत स्वाभाविक है कि कश्मीर में मानवाधिकारों के भयावह उल्लंघन के बारे में हमारे यहां किसी तरह की कोई चिंता नहीं तक होती है। कश्मीरी जनता जीने तक के मूलभूत अधिकार से महरूम है. न्यायालयीन जांच में शोपियां में हुई हत्याओं के पहले बलात्कार के ठोस सबूत मिले हैं। सड़कों पर पहले जन गुस्से के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पाबंदी लगाकर और विरोधियों का दमन करके सरकार इस मसले से निजात पाना चाहती थी। लेकिन राजनीतिक संवेदनहीनता की यह हद थी कि सदन में इस मसले पर विपक्ष प्रमुख को अपनी बात कहने की अनुमति तक नहीं दी गई। इन नाज़ुक मौक़ों पर सदन का लोकतंत्र इतना संकुचित क्यों हो जाता है कि ऐसी अमानवीय घटनाओं के बारे में स्वस्थ और गंभीर बातचीत के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं?
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सेक्स स्कैंडल मामले में इस्तीफ़ा देने के ’नैतिक कर्तव्य’ की दुहाई देते हुए दोष मुक्‍त न होने तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं बने रहने का जो दावा किया है, वह कश्मीर की स्थितियों को देखते हुए अवास्तविक तथा दिखावटी ज़्यादा है। क्योंकि अगर वे वाकई ’दोष मुक्‍त’ और जनता के मुद्दों के प्रति चिंतित होते तो शोपियां मसले पर इतनी लापरवाही कभी नहीं दिखाते। फिर विपक्ष-प्रमुख द्वारा शायद मजबूरी तथा तीव्र आक्रोश में ही ऐसा तरीका अपनाया गया होगा जो जम्मू-कश्मीर विधानसभा में हंगामाख़ेज़ अस्थिरता पैदा कर सके। पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ़्ती ने पिछले कुछ महीनों में, सड़क पर कश्मीर में प्रशासनिक लीपापोती के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है और काफ़ी जनसमर्थन जुटाया है, बावजूद इसके सरकार द्वारा सदन में उन्हें न बोलने देने रवैया अलोकतांत्रिक ही नहीं, बल्कि यह तानाशाही भी है।
राजनीतिक और समाजिक स्तर की चुनौतियों की गंभीरताओं को समझने के लिए अगर सदनों में चर्चा करने का दायरा सिमटता जाएगा, तो लाख लोकतंत्र की दुहाई दी जाए, विधानसभाओं में हंगामों, मारपीट और अभद्रताओं के नज़ारे आम हो जाएंगे। वैसे देखा जाए तो संसद या विधानसभाओं के सदनों में इस तरह की गरिमाहीन घटनाएं पिछले कुछ वर्षों में काफ़ी मात्रा में हुई हैं. यह इन संस्थाओं की विश्‍वसनीयता पर एक बड़ा सवाल है। कश्मीर का मसला इन सभी मामलों से भिन्न इसलिए भी है क्योंकि ’आत्मनिर्णय के अधिकार’ की मांग करने वाली कश्मीरी जनता अब दिनोंदिन, हर तरह के दमन को झेलते हुए खुलकर सड़कों पर आ रही है। आत्मनिर्णय के अधिकार के इस लहर का असर वहां की विधानसभा में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। वहां पिछले सत्रह वर्षों में सुरक्षा बलों द्वारा किए गए अत्याचारों और उसके राजनीतिक संरक्षण का कोई हिसाब नहीं है। सत्ताधारी दल अपने अपने तरीक़ों से इन मामलों पर पानी छींटने की कोशिश करते हैं। ऐसे में यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि कश्मीरी जनता को कब तक आंसू गैस, लाठियों, गोली और बम-बारूदों के बीच जीवन गुज़ारने की यातना झेलनी पड़ेगी?

17 अगस्त 2009

जांच आरोपियों को बचाने का एक बहाना है

दिलीप (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में मीडिया के छात्र हैं)
शोपियां कांड के बारे में सीबीआई की केन्द्रीय फ़ारेंसिक प्रयोगशाला द्वारा जम्मू कश्मीर के विशेष जाँच दल को 11 अगस्त 2009 को भेजी गई रिपोर्ट से पूरे घटनाक्रम में कई नये सवाल भी खडे़ हुए हैं. पुरानी जांच साफ़ खारिज़ हो जा रही है. नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि दोनों पीड़ितों की लाशों से डीएनए जाँच के लिए जो नमूने लिए गए थे, वे उन पीड़ितों के ही खून और अंगों से मेल नहीं खाते. इस सनसनीखे़ज़ हत्याकांड के आरोप में जिन चार पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार किया गया था, हालिया रिपोर्ट के बाद वे दोषमुक्त हो जाएँगे. रिपोर्ट में कहा गया है कि युवतियों के शरीर से लिए गए नमूने में पाए गए वीर्य से इन चारों पुलिसकर्मियों के डीएनए मेल नहीं खाते.

पिछली ३० मई को शोपियां में दो युवतियों-नीलोफ़र और आशिया- के साथ हुए बलात्कार और हत्या के बाद कश्मीर के राजनीतिक हलकों के साथ- साथ इस घटना की जाँच में लगातार नाटकीय परिवर्तन देखा जा रहा है. शोपियां कांड के लिए विधानसभा में प्रश्न न पूछे दिए जाने के बाद गुस्से में महबूबा मुफ़्ती ने विधानसभा अध्यक्ष पर माइक फ़ेंकना चाहा, जिस पर काफी हंगामा मचा और तत्कालीन सरकार की जमकर आलोचना हुई. पीडीपी ने शोपियां कांड के साथ उभरे कश्मीरियों की संवेदना को अपने पक्ष में करने के लिए उमर अब्दुल्ला पर पुराने सैक्स स्कैंडल में शामिल होने का आरोप भी लगाया. जवाब में अब्दुल्ला ने नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री पद से सशर्त इस्तीफ़ा देने का ऎलान किया,वग़ैरह-वग़ैरह. लेकिन, इसके साथ-साथ पृष्टभूमि में चल रहे इस कांड की जाँच –जिस पर काफी दबाव के बाद राज्य सरकार ने एक सदस्यीय जाँच कमेटी गठित की - में लगातार नए-नए तथ्य उभरकर सामने आते गए . सरकार के विरूद्ध पूरी घाटी में प्रदर्शन भी लगातार ज़ारी रहा जिसके कारण सरकार के लिए जाँच में प्रगति दिखाना एक तरह की मज़बूरी सी बन गई . जे.के. बार एसोसिएशन द्वारा दायर जनहित याचिका के बाद मामला उच्च न्यायालय के पास चला गया, जहाँ अब सुनवाई हो रही है. तहकीका़त के क्रम में लाशों के पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर निघट शाफी ने पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि हत्या से पहले बलात्कार हुई है.

जम्मू-कश्मीर में राजसत्ता और सरकारी तंत्र पर शुरू से ही सवाल उठते रहे है जिसको तर्कों के ज़रिए न्यायोचित ठहराने ही कोशिश भी लगातार की जाती रही है. बलात्कार की पुष्टि होने के बाद सरकार के विरूद्ध जनाक्रोश और भी तेज हो गया. इस तीव्र होते आंदोलन का कारण यह था कि इसमें राज्य सरकार के ऎसे विभाग (पुलिस) के चार लोग आरोपी थे जिसको लोगों की सुरक्षा–व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है. १६ जुलाई को न्यायालय ने विशेष जाँच दल को शोपियां के एसपी जावेद मट्टो और उसके तीन सहयोगियों के खून के नमूने लेने का आदेश दिया ताकि फ़ारेंसिक विज्ञान की प्रयोगशाला में युवतियों के शरीर से जांच के लिए लाए गए दूसरे नमूने में पाए गए वीर्य के साथ डी.एन.ए. का मेल किया जा सके. इस समूची अवधि के दौरान राजनीतिक खींचतान और हरेक दूसरे दिन नए-नए वक्तव्यों का दौर चलता रहा. २२ जुलाई को न्यायमूर्ति जान कमेटी की सिफारिश को अंतत: जम्मू- कश्मीर सरकार ने स्वीकार किया जिसमें उन चारों पुलिसकर्मियों को स्पष्ट तौर पर दोषी ठहराया गया और दोनों युवतियों के साथ हुए बलात्कार की भी पुष्टि की गई . अब सवाल यह है कि २० दिनों के अंतर में ही रिपोर्ट पूरी तरह बदल कैसे गई? पहली रिपोर्ट सही थी या दूसरी रिपोर्ट सही है? क्या इसको राजनीतिक दांवपेंच के तहत परिवर्तित किया गया है? लोगों के मन में सैकड़ों सवाल उठ रहे हैं जो ऎसी हर घटना के बाद सरकारी जाँच के परस्परविरोधी फैसलों से जन्म लेते हैं, लेकिन इस घटना में रसूख का वर्चस्व का या फिर लोगों के आक्रोश को शांत करने के लिए किए गए सरकारी उपक्रम का असर साफ़ दिख रहा है. पुलवामा में पोस्टमार्टम टीम के मुख्य चिकित्सकीय पदाधिकारी गुलाम क़ादिर ने प्रश्न किया है कि जाँच नमूने को तुरंत श्रीनगर फ़ारेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला में क्यों नही भेजा गया? कार्यकारी मजिस्ट्रेट के सामने डाक्टर ने उस पार्सल को सील क्यों नहीं किया? सरकार और जांच टीम के पास इसका कोई जवाब नहीं है.
३१ मई को जब नमूने को श्रीनगर की प्रयोगशाला में जांच के लिए भेजा गया तो सील को खुली देखकर प्रयोगशाला ने जांच से इंकार कर दिया. फ़िर उस लिफ़ाफे को डा. निघाटी के घर लाया गया जहां उसको सील कर वापस फ़ारेंसिक प्रयोगशाला भेज दिया गया. नई रिपोर्ट में उस सैंपल को ही ग़लत बताया जा रहा है. जम्मू- कश्मीर सरकार की विशेष जांच दल अब दो संभावित जगहों –पुलवामा अस्पताल और श्रीनगर फ़ारेंसिक प्रयोगशाला- पर नमूनों की तलाश कर रही है, जहां फ़ेरबदल होने की आशंका है. लेकिन जितने सपाट तरीके से फ़ेरबदल या छेड़छाड़ होने की बात कही जा रही है उससे यही मालूम पड़्ता है कि यह सब अनजाने में हुआ. लेकिन क्या इसको मान लिया जाए? अगर नई रिपोर्ट को सच मानें तो स्थिति यह बनती है कि सरकार ने लोगों को तत्काल न्याय दिलवाते दिखने के लिए चारों संदिग्ध पुलिस अधिकारी को उसी तरह दोषी ठहरा दिया जैसे हरेक बम विस्फ़ोट के बाद चार मुसलमानों को पकड़ लिया जाता है, और अब स्थिति स्पष्ट होने के बाद उसको निर्दोष करार देने के लिए वातावरण तैयार करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन अब देश भर में घटना की सही तस्वीर दिखाने की मांग की जा रही है. दूसरी स्थिति में अगर वे पुलिसकर्मी सचमुच दोषी हैं और बाद की रिपोर्ट को किसी दबाव के तहत तैयार किया गया है तो हालात उससे अधिक चिंताजनक है. इससे तो सीधा संदेश जाता है कि अगर ऊँचे स्तर तक पहुँच है तो इस तरह की घटनाओं को कई बार अंजाम देने के बाद भी बचा जा सकता है. ऎसे कई मामले हाल के दिनों में देखे जा सकते हैं. संजीव नंदा और अशोक मल्होत्रा जैसे लोग इसी पहुँच का इस्तेमाल करके बचते रहे हैं या फिर सज़ा कम करवाते रहे हैं.
अब इस पूरे केस को सीबीआई को सौंपने की मांग की जा रही है जिसमें अभी कई जगह अड़ंगे हैं. लेकिन यह कोई ज़रूरी नहीं है कि सीबीआई रिपोर्ट के बाद सही- सही फ़ैसला हो ही जाएगा, क्योंकि एक मुद्दे को जब तक देश में अंतिम संभावित स्थिति तक भुना नहीं लिया जाता तब तक न्याय नहीं होता.

13 अगस्त 2009

चौहान की स्त्री विरोधी राजनीति

देवाशीष प्रसून मीडिया स्टडीज ग्रुप, दिल्ली से सम्बद्ध
मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में शादी के लिए आयीं लगभग डेढ़ सौ लड़कियों के कौमार्य परीक्षण के बाद भी जिन्हें शर्म नहीं आ रही, वे अपनी इंसानियत भूल चुके हैं। इस बात को लेकर बहुत बवाल है कि सरकार ने ऐसी धृष्टता कैसे की? हालांकि, असल में प्रश्न यह उठना चहिए था कि मुख्यमंत्री कन्यादान योजना की प्रासंगिकता क्या है? प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ इस तरह की राजा-रजवाड़ों वाली योजनाओं से लगता है कि हमारे देश की राजनीति अब तक मध्यकालीन है पर आधुनिकता का चोला ओढ़े हुए। विकास का पहिया कहीं ठहर गया है और धज्जियाँ उड़ रही हैं उन सारे मूल्यों की, जिन्हें हजारों सालों से इंसान हासिल करता रहा है। रोज अपनी नयी-नयी करतूतों से, इंसान इंसानियत से दूर और हैवानियत से वाबस्ता हुए जा रहा है। सामंती समाज अब तक कायम है और पूँजी का साम्राज्य भी बड़ी तेजी से अपनी पैठ बढ़ाते जा रहा है। सामंती समाज हर देशकाल में औरतों को उपभोग की वस्तु मानते रहा है। और पूँजीवाद ने भी अपने दो अचूक शस्त्रों - मीडिया और प्रबंधन दृ के जरिए औरत को एक बिकाऊ माल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
मुख्यमंत्री कन्यादान योजना, सरकार की कई फितूरों में से एक स्त्री-विरोधी योजना है। अव्वल तो कन्यादान राज्य का काम नहीं है। दूसरे, किसी हिन्दू रिवाज के नाम से सभी धर्मों के लिए योजना चलाना अन्य धर्मों के साथ पक्षपात करने की रणनीति लगती है। अप्रैल 2006 से शुरू मध्य प्रदेश सरकार की इस योजना का मकसद राज्य द्वारा निर्धन परिवार की बेटियों की शादी में आर्थिक सहयोग करना बताया जाता है, जबकि लड़कियों और लड़कों के बीच तरक्की की राह में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की बात होनी चाहिए थी। इस योजना को लागू करके सरकार ने खुले तौर पर यह माना कि लड़कियाँ तो महज दान की एक सामग्री है। ऐसा मानना दरअसल इस सरकार की प्रतिगामी मानसिकता है। स्त्रियों की शिक्षा, व्यवसाय और राजनीति के डगर में सहयोग की आशा पर पानी फेरते हुए सरकार उसे घर की चार-दिवारी में कैद करने की कवायद में लगी है। विकास कार्यक्रमों के बरअक्स लड़कियों की शादी करवाने में सरकार इतनी अधिक वचनबद्ध है कि मार्च 2009 तक 88,460 लड़कियों का मुख्यमंत्री के सौजन्य से दान किया जा चुका था। यह सीधे तौर पर कानूनन शादी भी नहीं है, क्योंकि इस सरकारी प्रक्रिया में अनुदान के लिए जारी आवेदन-प्रपत्र में साफ दिखता है कि आवेदक लड़का या लड़की से अलावा कोई दूसरा व्यक्ति भी हो सकता है। कहना न होगा कि इसमें वर और वधू के बीच सहमति के बिना भी जबरन शादी करवाने की गुंजाइश है। दरअसल यह उस पिछड़े सोच से पनपी साजिश है, जो लड़के-लड़कियों को स्वयं अपने जीवनसाथी चुनने की आजादी से महरूम रखती है। दहेज को जिस देश में कानूनों के मार्फत गुनाह का दर्जा दिया जा चुका था। हैरानी की बात है कि उसी देश में सरकारी हाथों से इस कुरीति को हवा देकर मध्य प्रदेश सरकार ने अपनी सभ्यता को बहुत पीछे ढकेला है। योजना के तहत नये जोड़ों को घर बसाने के लिए दहेज की तर्ज पर उपहार दिये जाते हैं, क्योंकि सरकार का मानना है कि पैसे के अभाव से ही गरीब परिवार की बेटियों की शादी में बहुत सारी दिक्कतें आती हैं। अगर सरकार के मंसूबे सही होते तो होना यह चाहिए था, कि जन जागृति कार्यक्रमों और शिक्षा के जरिए विवाह को स्त्री-पुरुष की आपसी समझ से जोड़े जाने वाले एक रिश्ते में तब्दील किया जाता। लेकिन सरकार ने अपनी सामंती सोच का परिचय देते हुए सरकारी खर्च से दहेज की इस मनहूस व्यवस्था को बरकरार रखा। हर कन्या के दान में लगभग छ हजार रुपये खर्च किए जाते हैं, जिसमें से एक हजार रुपये "आयोजको" को दिया जाता है। हो सकता है कि शायद इन आयोजकों के साथ सरकारी मशीनरी की कुछ साँठ-गाँठ हो। जनवरी 2009 से लड़के-लड़कियों को दी जाने वाली पाँच हजार की राशि बढ़ाकर साढ़े छ हजार कर दी गयी है। इस गोरखधंधे में सरकार ने जनता के खजाने से 25 करोड़ रुपये तक को फूँकने के लिए आवंटित कर रखा है। पूरे प्रकरण में एक गंभीर मसला यह है कि राज्य सरकार इन कमजर्फ कामों को बेधड़क होकर, महिला सशक्तीकरण, जनजागृति और समाज कल्याण का नाम पर करती है।
सब कुछ ऐसे ही चल रहा था। निर्विरोध। विपक्ष ने भी मजबूती से कोई विरोध दर्ज नहीं किया। पानी तब सर के ऊपर चला गया, जब हिंदुत्व की पैरोकार सरकार ने खुद को दुर्योधन और दुःशासन की जमात में खड़ा कर दिया। बीते जून आखिरी हफ्ते की बात है- राजधानी भोपाल से 600 किलोमीटर दूर शहडोल जिले में इस कौरवों की सेना ने 152 आदिवासी महिलाओं के कुँवारेपन को जाँचने की जुर्रत तक कर डाली। मर्दों के लिए ऐसी कोई जाँच नहीं थी। हो-हल्ला होने पर मुख्यमंत्री ने बहाना बनाया, कि यह कोई कुँवारेपन की जाँच नहीं थी, बल्कि बस यह पता करने की कोशिश थी कि कहीं, कोई गर्भवती औरत इस सरकारी आयोजन का गलत फायदा न उठा रही हो। यह योजना गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों, विधवाओं और परित्यक्ताओं की शादी के लिए है। गरीब परिवार की विवाह योग्य लड़कियों के साथ विधवा और परित्यक्ता का अलग से जिक्र इसलिए हुआ, क्योंकि सरकार विधवा और परित्यक्ता को सामान्य नजरों से नहीं देखती। साथ ही, तलाकशुदा को परित्यक्ता कहकर, सरकार उन्हें बेहिचक गाली भी दिये जाती है, जबकि संभव है कि लड़की ने ही खुद अपने पति को छोड़ दिया हो। मुख्य बात है कि नियमतः उपरोक्त तीनों तरह की औरत को इस योजना का लाभ मिलना चाहिए था। ध्यान देना होगा कि निर्धन, विधवा या तलाकशुदा महिला अगर गर्भवती भी है और इस योजना के तहत शादी करना चाहती है तो सरकार को क्या परेशानी है? विवाह से कौमार्य या गर्भ का कोई वैज्ञानिक रिश्ता समझ में नहीं आता। कौमार्य और गर्भ का वास्ता तो बस स्त्री-पुरुष के बीच यौन-संबंध से है। याद रहे कि आदिवासी समाज में बिन विवाह के संभोग को अनैतिक नहीं माना जाता। याने ये घटनाक्रम आदिवासियों पर हिन्दू नैतिकता लादने की ओर भी इशारा करते हैं। देखना होगा कि, पुरुष वर्चस्व ने आधुनिक समाज में भी हमेशा विवाह के जरिए ही स्त्री की यौनिकता, श्रम और बच्चे जनने की ताकत पर हमेशा अपना कब्जा जमाये रखा है। इसी परंपरा को और पुष्ट करते हुए, औरतों के कुँवारेपन या गर्भ की जाँच की गयी होगी। साफ है कि औरतों को उस माल के रूप में देखा गया, जिसे बिना इस्तेमाल किए ही उसके ग्राहकों को सुपूर्द किया जाता रहा है। यह देखने के बाद भी क्या हमारी पूरी पीढ़ी शर्मिंदा होने से बच पायेगी?

11 अगस्त 2009

श्री कृष्णमोहन का जन संस्कृति मंच से निष्कासन

जन संस्कृति मंच श्री कृष्णमोहन को तत्काल प्रभाव से संगठन से निष्कासित करता है. ग्यातव्य है कि ११-१२ जुलाई को सम्पन्न हुई जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव लिया गया था. प्रस्ताव में 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' की मार्फ़त 'सलवा जुडुम' जैसे जघन्य कार्य कराने वाली तथा डा. विनायकसेन जैसे मानवतावादी चिकित्सक को 'छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिटी ऎक्ट' जैसे काले कानून में फ़ंसाने, फ़र्ज़ी मूठभेड़ों तथा दूसरे मानवाधिकार के मसलों पर दुनिया भर में निंदित सरकार द्वारा वाम, जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को साज़िशाना तरीके से एक खास समय में अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की निंदा की गई थी. इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किसी भी आयोजन या पुरस्कार से कोई ऎतराज़ नहीं है. लेकिन यह कार्यक्रम तो उनकी स्मृति का भी शासकीय अपहरण था. श्री कृष्णमोहन. जो अब तक जसम की राष्ट्रीय परिषद में थे, इस कार्यक्रम में शामिल थे. उनसे उक्त प्रस्ताव की रोशनी में लिखित तौर पर स्पष्टीकरण मांगा गया था जिसका जवाब भेजने की जगह उन्होंने एक ब्लाग पर उद्दंड भाषा में संगठन पर अनर्गल बातें कहीं. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों से विचार विमर्श के उपरांत, अधिकांश की राय के अनुसार, प्रस्ताव की भावना के अनुरूप श्री कृष्णमोहन को जन संस्कृति मंच से निष्कासित किया जाता है।
http://dakhalkiduniya.blogspot.com/2009/07/blog-post_28.html
(जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ओर से के. के. पाण्डेय द्वारा जारी)

09 अगस्त 2009

फासीवाद हर बार हिटलर के नाम से नहीं आयेगा

समारोहों में सिरकत करने वाले प्रगतिशील लेखकों, क्या आप तक यह खब़र नहीं पहुंची? कि आदिवासियों की निर्मम हत्या करने वाली सरकार ने "चरणदास चोर "पर प्रतिबंध लगा दिया है. आपके समारोह में सरीक होने के परिणाम आने लगे हैं. क्या अब भी आप रमन सिंह के चरणों के दास बने रहेंगे और सरीक होने के पक्ष में तर्क देते रहेंगे?

सरकार
ने अपनी छवि के अनुकूल ही आचरण करते हुए १९७४ से खेले जा रहे हबीब तनवीर के अंतर्रष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त नाटक 'चरण दास चोर' पर शनिवार जुलाई से प्रतिबंध लगा दिया. मूलत: राजस्थानी लोककथा पर आधारित यह नाटक श्री विजयदान देथा ने लिखा था जिसका नाम था 'फ़ितरती चोर'. हबीब साहब ने इसे छ्त्तीसगढ़ी भाषा, संस्कृति, लोक नाट्य और संगीत परंपरा में ढालने के क्रम में मूल नाटक की पटकथा और अदायगी में काफ़ी परिवर्तन किये. 'चरनदास चोर' अनेक दृष्टियों से एक समकालीन क्लासिक है. एक अदना सा चोर गुरू को दिए चार वचन- कि सोने की थाली में वह खाना नहीं खाएगा, कि अपने सम्मान में हाथी पर बैठ कर जुलूस में नहीं निकलेगा, राजा नहीं बनेगा और किसी राजकुमारी से विवाह नहीं करेगा के अलावा गुरू द्वारा दिलाई गई एक और कसम कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, का पालन अंत तक करता है और इन्हीं वचनों को निभाने में उसकी जान चली जाती है. चरनदास को कानून और व्यवस्था को चकमा देने की सारी हिकमतेंती हैं. वह बड़े लोगों को चोरी का शिकार बनाता है. नाटक में चरनदास के माध्यम से सत्ता-व्यवस्था, प्रभुवर्गों और समाज के शासकवर्गीय दोहरे मानदंडों का खेल खेल मे मज़े का भंडाफ़ोड़ किया गया है.
एक
चोर व्यवस्था के मुकाबले ज़्यादा इंसाफ़पसंद, ईमानदार और सच्चा निकलता है. ज़ाहिर है कि यह नाटक लोककथा पर आधारित है, छ्त्तीसगढ़ मे चल रहे संघर्षों पर नहीं. फ़िर सत्ता को इस नाटक से कैसा खतरा महसूस होने लगा? यह नाटक तो १९७४ में पहली बार खेला गया जब छत्तीसगढ़ राज्य के गठन तक की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती थीं. छ्त्तीसगढ़ के आज के तुमुल-संघर्षों की आहटें भी नहीं थीं. नाटक जाने कितनी भाषाओं में अनुवाद कर खेला गया, देश और विदेश में खेला गया. १९७५ में श्याम बेनेगल ने इसपर फ़िल्म भी बनाई. दरअसल क्लासिक की खासियत यही है कि वह अपने ऊपरीथ्य से कहीं ज़्यादा बड़ा अर्थ संप्रेषित करती है. अपने ऊपरी कथ्य, पात्र, देश-काल को लांघ कर बिलकुल भिन्न युग-परिवेश में प्रासंगिक हो उठती है. क्यों महाभारत के तमाम द्वंद्व अलग अलग युग-परिवेश में बारंबार प्रासंगिक हो उठते हैं? फ़िर 'चरनदास चोर' तो हबीब साहब के हाथों पूरी तरह छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति में ही ढल गया. कहीं यह नाटक छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से से ही उस राजसत्ता के चरित्र को तो ध्वनित नहीं कर रहा, जो उस प्रदेश के सारे ही प्राकृतिक संसाधनों के कार्पोरेट लुटेरॊं के पक्ष में आदिवासी जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है? कहीं यह नाटक दर्शकों और पाठकों के अवचेतन में दबे व्यवस्था विरोधी मूल्यों और आकांक्षाओं को वाणी तो नहीं दे रहा? कहीं यह नाटक अपनी क्लासिकीयता के चलते एक बिलकुल अप्रत्याशित तरीके से आज के छ्त्तीसगढ़ की सता और लोक के बीच जारी संग्राम की व्यंजना तो नहीं कर करने लगा? यह सारे ही सवाल इस प्रतिबंध के साथ उठने स्वाभाविक हैं.
वे
लोग भोले हैं जो छत्तीसगढ़ सरकार की इस दलील को मान बैठे हैं कि सतनामी गुरु बालदास की आपत्तियों के मद्देनज़र यह प्रतिबंध लगाया गया. बालदास जी की आपत्तियां अगर कुछ महत्व रखती हैं, तो उनपर 'नया थियेटर' के साथियों से बातचीत भी की जा सकती थी और आपत्तियों को दूर किया जा सकता था. संस्कृतिकर्मियों और सतनामी धर्मगुरुओं की पंचायत भी बैठ सकती थी, हल निकल सकता था. लेकिन सरकार की मंशा कुछ और थी. याद आता है कि किस तरह 'दलित अकादमी' नामक एक संस्था ने कुछ साल पहले प्रेमचंद की 'रंगभूमि' की प्रतियां जलाई थीं. बाद में बहुतेरे दलित लेखकों ने इसकी निंदा करते हुए इस बात का पर्दाफ़ाश किया कि यह सब संघ संप्रदाय द्वारा प्रायोजित था. धार्मिक और जातिगत अस्मिताओं का दमन और विद्वेष के लिए इस्तेमाल संघ-भाजपा की जानी पहचानी रणनीति है. खुद सरकार और बालदास के बयानों पर ध्यान दिया जाए तो सतनामी संप्रदाय ने इस नाटक पर २००४ से पहले कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं कराई थी, जबकि नाटक १९७४ से खेला जा रहा था और बहुधा इसके अभिनेता भी सतनामी संप्रदाय से आते थे. छत्तीसगढ़ सरकार ज़बरदस्त तरीके से दुरंगी चालें खेल रही है. एक ओर तो 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' के ज़रिए मुख्यमंत्री और संस्कृतिमंत्री के साथ तमाम जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को बैठाया और दूसरी ओर महीना खत्म होते होते 'चरनदास चोर' को प्रतिबंधित कर दिया. ज़ाहिर है कि बालदास जी की चिट्ठी ' प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' से पहले की घटना है और प्रतिबंध का मन भी सरकार इस सम्मान समारोह से पहले ही बना चुकी थी. सम्मान समारोह का तात्कालिक उपयोग यह हुआ कि जिन हलकों से प्रतिबंध के विरोध की आवाज़ उठ सकती थी उन्हें इस आयोजन के ज़रिए 'डिफ़ेंसिव' पर डाल दिया गया. उन्हे सरकार ने इस स्थिति में ला छोड़ा है कि वे अगर इसका विरोध करें भी तो उस विरोध की कोई विश्वसनीयता लोगों की निगाह में रह जाए.
हबीब
साहब के नाटकों पर संघ-भाजपा का हमला कोई नया नहीं है. अपने जीते जी उन्होंने इसका बहादुरी से सामना किया था. महावीर अग्रवाल को दिये एक साक्षात्कार में हबीब साहब ने कहा, " 'नया थियेटर' की दुसरी चुनौतियों में प्रमुख है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के खिलाफ़ कलात्मक संग्राम. आप जानते हैं फ़ासिज़्म का ही दूसरा नाम है 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'. नएत्तीसगढ़ राज्य में २९ जून २००३ से २२ जुलाई २००३ तक 'पोंगवा पंडित' और 'जिन लहौर नई देख्या वो जन्मई नई' के २५ मंचन हुए........... नाटक का केवल विरोध ही नहीं हुआ, वरन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सोची समझी रणनीति के तहत हमले किए गए हैं. संस्कृति के क्षेत्र में अपनी लाठी का प्रयोग संघ परिवार समय समय पर करता रहा है. .......हमले की शुरुआत १६ अगस्त २००३ को ग्वालियर में हुई. फ़िर १८ अगस्त को होशंगाबाद में, १९ अगस्त को सिवनी में, २० अगस्त को बालाघाट और २१ अगस्त को मंदला सहित अलग अलग शहरों में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और आर.एस.एस. के लोग उपद्रव करते रहे. २४ अगस्त २००३ को भोपाल के संस्कृतिकर्मियों ने भाजपा प्रदेश कार्यालय के ठीक सामने 'पोंगवा पंडित' पर संवाद करने की कोशिश की. वहां हमारे पोस्टर्स, बैनर छीनकर आग के हवाले कर दिए गए. गाली गलौज के साथ ईंट पत्थर फेंकने का काम फ़ासीवादी ताकतों ने किया.... मैनें उन्हें बारंबार समझाने की कोशिश की कि 'पोंगवा पंडित' कोई नया नाटक नहीं है. नाटक बहुत पुराना है और पिछले ७०-७५ वर्षों से लगातार खेला जा रहा है. १९३० के आसपास छ्त्तीसगढ़ के दो ग्रामीण अभिनेताओं ने इसे सबसे पहले 'जमादारिन' के नाम से प्रस्तुत किया था." ( सापेक्ष-४७, पृष्ठ ३८-३९) क्या पता था हबीब साहब को कि उनकी मृत्यु के कुछ ही दिनों बाद कोई अपनों में से ही गोरखपुर जाकर 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के कसीदे पढ़ आएगा. 'छायानट' पत्रिका, अप्रैल,२००३ के अंक १०२ में मोनिका तनवीर ने महावीर अग्रवाल को दिए इंटरव्यू में कहा, "... १९७० में 'इंद्रलोक सभा' नाटक हमने तैयार किया तो जनसंघ के कुछ गुंडों ने हबीब पर हमला किया. और एक मुसलमान की पत्नी होने के कारण मुझे भी बहुत धमकाया गया." २६ सितम्बर, २००४ को 'दि हिंदू' को दिए एक इंटरव्यू में हबीब साहब ने एक और वाकया बयान किया है. कहा, " महज दो हफ़्ते पहले 'हरिभूमि' नामक रायपुर के एक दैनिक ने पूरे दो पन्ने 'बहादुर कलारिन' पर निकाले और मेरे खिलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाए. यह नाटक 'ईडिपल समस्या' पर आधारित एक लोक नाट्य है. हज़ारों छत्तीसगढ़ी नर=नारियों ने इसे दत्तचित्त होकर देखा, जबकि मुझे आशंका थी कि वे अगम्यागमन (इंसेस्ट) की थीम को ठीक समझेंगे कि नहीं. लेकिन भाजपा के दो सांसदों ने आपत्ति की कि मैनें यह थीम क्यों उठाई. ....मैनें कहा कि 'ईडिपल काम्पलेक्स हमारे लोक ग्यान का हिस्सा है'. .... वे बोले कि यदि ऎसा है भी, तो पूरी दुनिया में इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रुरत है? इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था."
दरअसल 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध को भाजपा सरकारों की 'सांस्कृतिक राष्ट्रवादी' मुहिम का ही हिस्सा समझा जाना चाहिए, बहाना चाहे जो लिया गया हो. किसी भी लोकतंत्र में ऎसे फ़र्ज़ी आधारों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने की इजाज़त नहीं दी जा सकती.
मैं व्यक्तिश: और अपने संगठन जन संस्कृति मंच की ओर से सभी जनपक्षधर ताकतों से अपील करुंगा कि 'चरनदास चोर' पर प्रतिबंध पर चौतरफ़ा विरोध दर्ज़ कराएंप्रणय कृष्ण