एक ‘अयोग्य छात्र’ के नोट्स
उर्मिलेश |
(उर्मिलेश ने यह लेख मूलत: समयांतर के नए अंक में लिखा है। ब्लॉग पर शीर्षक और लेख, दोनों ही असंपादित तौर पर पाठकों से सामने हम रख रहे हैं। पहले लगा दो-तीन भागों में इसे ब्लॉग पर लगाया जाए, लेकिन आखिर में इतने लंबे लेख को एकसाथ ही ब्लॉग पर प्रकाशित करने की जुर्रत कर रहा हूं। पढ़ने वाले लंबा भी पढ़ लेंगे: मॉडरेटर)
पिछले दिनों एक किताब आई है-‘जेएनयू में नामवर सिंह।’ इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है। संपादन किया
है- जेएनयू की पूर्व छात्रा सुमन केशरी ने, जो
अब एक वरिष्ठ अधिकारी व कवयित्री हैं। किताब की योजना जब बन रही थी तो राजकमल
प्रकाशन के संचालक अशोक माहेश्वरी और सुमन ने इस किताब के लिए मुझसे भी लेख मांगा।
उस वक्त, मैं लिख नहीं सका। नामवर जी के संदर्भ
में जेएनयू दिनों के अनुभवों को मैं लिखना तो चाहता था पर मुझे लगा, यह एक अभिनंदनात्मक ग्रंथ होगा और उसमें लेख
देकर मैं अपने अनुभवों की प्रस्तुति के साथ शायद न्याय नहीं कर सकूंगा। हालांकि
किताब छपकर आई तो मुझे अच्छा लगा कि सुमन का संचयन कुल मिलाकर ठीक-ठाक है, उसमें सिर्फ अभिनंदन ही नहीं है।
निस्संदेह, डा. नामवर सिंह एक प्रभावशाली वक्ता और समकालीन
हिन्दी समाज एवं उसकी सांस्कृतिक राजनीति में दबदबा रखने वाले प्रतिभाशाली बौद्धिक
व्यक्तित्व हैं। वह समय-समय पर अपनी टिप्पणियों और फैसलों से विवाद भी पैदा करते
रहते हैं। जैसे हाल ही में उन्होंने आरक्षण जैसी संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ
टिप्पणी करके सबको स्तब्ध कर दिया। प्रगतिशील लेखक संघ की 75 वीं वर्षगांठ पर लखनऊ
में आयोजित एक विशेष समारोह में 8 अक्तूबर, 2011
को उन्होंने कहा, ‘आरक्षण के चलते
दलित तो हैसियतदार हो गए हैं लेकिन बाम्हन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने की नौबत
आ गई है।‘(दैनिक ‘हिन्दुस्तान’, 9 और 10 अक्तूबर, 2011, लखनऊ
संस्करण)। अपने समय के एक बड़े ‘प्रगतिशील’ लेखक-आलोचक-शिक्षक की इस टिप्पणी पर समारोह में
बैठे लेखक-प्रतिनिधि हैरत में रह गए। कइयों ने लिखकर इसका प्रतिवाद किया। (‘शुक्रवार’, 28
अक्तूबर-3 नवम्बर, 2011 अंक, दिल्ली)।
पुस्तक में नामवर जी के व्यक्तित्व के
कई पहलुओं को कमोबेश कवर किया गया है। पर कुछेक पहलू छूट गए हैं। उनके एक छात्र
(अयोग्य ही सही)और हिन्दी का एक अदना सा पत्रकार होने के नाते मेरे मन में हमेशा
एक सवाल कुलबुलाता रहा है, ‘नामवर सिंह ने
इतने लंबे समय तक देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र की
अध्यक्षता की, उसका मार्गदर्शन किया, इसके बावजूद यह केंद्र (उनके कार्यकाल के दौर
में)देश में भारतीय भाषाओं के साहित्य व भाषा के अध्ययन-अध्यापन और शोध क्षेत्र
में कोई वैसा बड़ा योगदान क्यों नहीं कर सका, जिसकी
इससे अपेक्षा की गई थी!
अपने लंबे कार्यकाल के बावजूद वह इसे सही अर्थों में
भारतीय भाषाओं का केंद्र क्यों नहीं बना सके?’ चूंकि
इस विषय पर मेरा कोई विशद अध्ययन और शोध नहीं है, इसलिए
सवाल का कोई ठोस जवाब भी नहीं दे सकता। लेकिन केंद्र के छात्र के तौर पर तकरीबन
चार-सवा चार साल जेएनयू में रहने का मौका मिला, उसके
नाते यहां सिर्फ अपने कुछ अनुभव बांट सकता हूं।
आज इस लेख के जरिए मैं जेएनयू में अपने
जीवन के भी सबसे अहम और निर्णायक समय को याद कर रहा हूं। लेकिन यह कोई मेरी निजी
कहानी नहीं है। भारत के शैक्षणिक जगत, खासकर
उच्च शिक्षा संस्थानों में ऐसी असंख्य कहानियां भरी पड़ी हैं। मेरे विश्लेषण से
किसी को असहमति हो सकती है पर तथ्यों और उससे जुड़े घटनाक्रमों से नहीं। यह सिर्फ
मेरा, नामवर जी या जेएनयू के ‘प्रगतिकामी’ हिन्दी
प्राध्यापकों-प्रोफेसरों का ही सच नहीं है, संपूर्ण
हिन्दी क्षेत्र में व्याप्त बड़े बौद्धिक सांस्कृतिक संकट,
कथनी-करनी के भेद, हमारे शैक्षणिक
जीवन, खासकर विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों
के हिन्दी विभागों की बौद्धिक-वैचारिक दरिद्रता का भी सच है। कुछेक को मेरी यह
टिप्पणी गैर-जरूरी या अप्रिय भी लग सकती है। ऐसे लोगों से मैं क्षमाप्रार्थी हूं।
पर मुझे लगा, हिन्दी विभागों, हिन्दी विद्वानों और हम जैसे छात्रों का यह सच
सामने आना चाहिए।
शुरुआत जेएनयू में अपने एडमिशन से करता
हूं। बात सन 1978 की है। मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एमए(अंतिम
वर्ष) की परीक्षा दी। प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी के नंबर थे। फाइनल में भी प्रथम
श्रेणी आने की उम्मीद तो थी पर अपनी पोजिशन को लेकर आश्वस्त नहीं था। अपने
विश्वविद्यालय में उन दिनों पीएच.डी. के लिए सिर्फ एक ही यूजीसी फेलोशिप थी। पहली
पोजिशन वाले को ही फेलोशिप मिल सकती थी। डा. रघुवंश के रिटायर होने के बाद विभाग
में डा. जगदीश गुप्त का ‘राज’ चल रहा था। वह मुझे पसंद नहीं करते थे। शायद
मेरी दो बातें उन्हें नागवार गुजरती रही हों-एक, विश्वविद्यालय
की वामपंथी छात्र-राजनीति में मेरी सक्रियता और दूसरी, डा.
रघुवंश और दूधनाथ सिंह आदि जैसे शिक्षकों से मेरी बौद्धिक-वैचारिक निकटता।
फेलोशिप
के बगैर पीएच.डी. करना मेरे लिए बिल्कुल संभव नहीं था। मेरी पारिवारिक स्थिति बहुत
खराब थी। ऐसे में मित्रों ने सलाह दी कि इलाहाबाद के अलावा मुझे जेएनयू में भी
एडमिशन की कोशिश करनी चाहिए। वहां फेलोशिप भी ज्यादा हैं, इसलिए एडमिशन मिल गया तो फेलोशिप पाने
की संभावना भी ज्यादा रहेगी। मित्रों की सलाह पर जेएनयू में एडमिशन के लिए ‘आल इंडिया टेस्ट’ में
बैठा। रिजल्ट आया तो पता चला, मैंने सन 1978
बैच में टाप किया है। यूजीसी फेलोशिप मिलना तय। लेकिन अभी तक एमए अंतिम वर्ष का
मेरा रिजल्ट नहीं आया था।
सन 1975-77 के दौर में इमर्जेन्सी-विरोधी आंदोलनों का
हमारे कैम्पस पर भी प्रभाव पड़ा था। परीक्षाएं विलम्ब से हुई थीं, इसलिए रिजल्ट में भी देरी हो रही थी। जेएनयू
प्रवेश परीक्षा नियमावली के तहत एमए फाइनल का रिजल्ट आए बगैर भी कोई अभ्यर्थी
प्रवेश पा सकता था। लेकिन एडमिशन के बाद एक निश्चित अवधि के अंदर उसे अपना रिजल्ट जमा करना होता
था। जेएनयू में एम.फिल. की पढ़ाई-लिखाई शुरू हो गई। मेरे नाम यूजीसी की फेलोशिप भी
घोषित हो चुकी थी। भारतीय भाषा केंद्र के उस बैच में जिन अन्य लोगों को फेलोशिप
मिली, उनमें रवि श्रीवास्तव, अरुण प्रकाश मिश्र आदि प्रमुख थे। यह सभी मित्र
आज किसी न किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष हैं।
दर्शनशास्त्र में शोध कर रहे गोरख
पांडे का कमरा(संभवतः 356, झेलम होस्टल)
मेरा पहला पड़ाव बना। अभी होस्टल नहीं मिला था। वह जितने तेजस्वी दार्शनिक थे, उतने ही सृजनशील कवि और गीतकार थे। फकीराना ढंग
से रहते थे। किसी बात की परवाह नहीं करते थे। पूरे जेएनयू में अपने किस्म के अकेले
छात्र थे, बिल्कुल फकीर-वामपंथी। उनकी सारी ‘प्राइवेट-प्रापर्टी’ छोटे
से तख्त पर बिछे मैले गद्दे के नीचे फैली रहती थी। चाय पीने या कहीं बाहर जाना
होता था तो वह गद्दा हटाते और तख्त पर बिखरे रूपयों में कुछ रकम निकाल कर चल देते
थे। पांडे जी के जरिए ही जेएनयू स्थित रेडिकल स्टूडेंड्स सेंटर(आरएससी) के
छात्रों-कार्यकर्ताओं से परिचय हुआ। आरएससी एक ढीला-ढाला संगठन था, उसमे कार्यकर्ता कम, बुद्दिजीवी
ज्यादा थे। पर काफी पढ़े लिखे थे।
उनके कमरों में मार्क्स,
लेनिन, स्टालिन, माओ, चे
और कास्ट्रो के अलावा क्रिस्टोफर काडवेल, रेमंड
विलियम्स, राल फाक्स, गुन्नार
मिरडल, ज्यां पाल सात्र, सिमोन, राल्फ
मिलीबैंड, समीर अमीन, रजनी
पामदत्त, रोमिला थाफर और इरफान हबीब आदि की
किताबें भरी रहती थीं। इनमें कुछ हमारे सीनियर थे और कुछ समकक्ष। जल्दी ही इनसे मैत्री हो गई। इनमें ज्यादातर को मेरे
बारे में मालूम था कि इलाहाबाद में मैं एसएफआई से और बाद के दिनों में पीएसए नामक
स्वतंत्र किस्म के वामपंथी छात्र संगठन से जुड़ा था। बाद के दिनों में यही पीएसए
प्रगतिशील छात्र संगठन(पीएसओ) बना। इलाहाबाद के अलावा जेएनयू और दिल्ली
विश्वविद्यालय में भी यह सक्रिय रहा। पीएसओ से मेरी सम्बद्धता के बावजूद जेएनयू
स्थित एसएफआई के दो-तीन नेताओं से मेरा सम्बन्धी अपेक्षाकृत ठीकठाक था।
इनमें
प्रवीर पुरकायस्थ प्रमुख थे। वह अपने इलाहाबाद के ‘सीनियर’ थे। अपना कमरा मिलने के बाद मैं गोरख के झेलम
वाले कमरे से ब्रह्मपुत्र(पूर्वांचल) होस्टल चला गया। लेकिन मुलाकात हमेशा होती
रहती थीं। कैम्पस में वह मेरे लिए एक बड़े भाई की तरह थे। पर उनकी कुछ समस्याएं भी
थीं। निशात कैसर उनके समकक्ष और मैं बहुत जूनियर था। पर कैंपस में सिर्फ हम दोनों
ही किसी बात पर उन्हें डांट-फटकार सकते थे। अनेक मौकों पर वह हमारी बात मान भी
जाते थे।
केंद्र में एमफिल कक्षाओं और सेमिनार
पेपर आदि का दौर शुरू हो चुका था। डा. नामवर सिंह को केंद्र का चेयरमैन पाकर हम
जैसे दूर-दराज से आए छात्र गौरवान्वित महसूस करते थे। उन्हें पहले भी(इलाहाबाद और
बनारस में) देखा-सुना था। पर यहां तो वह साक्षात् हमारे प्रोफेसर के रूप में सामने
थे। निस्संदेह, वह बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। साहित्यिक
आलोचना और साहित्येतिहास जैसे विषयों पर उन्हें सुनना एक अनुभव था। इलाहाबाद में
मेरे लिए सबसे आदरणीय अध्यापक डा. रघुवंश थे और सबसे अच्छे व दोस्ताना अध्यापक
दूधनाथ सिंह। मेरी नजर में पहला एक आदर्शवादी-मानववादी था तो दूसरा सृजनशील
यथार्थवादी। पर जेएनयू में डा. नामवर सिंह को सुनने के बाद लगा कि हिन्दी और
साहित्येतिहास के मामले में वह ज्ञान के सागर हैं। यूरोपीय साहित्य आदि की भी उनकी
जानकारी बहुत पुख्ता है। पर उनके व्यक्तित्व का एक पहलू मुझे बहुत परेशान करता था।
वह रहन-सहन और आचरण-व्यवहार में किसी सामंत(फ्यूडल) की तरह नजर आते थे।
केंद्र के
कुछेक छात्र उनका पैर छूते थे। कुछ छात्र तो उनके घर के रोजमर्रे के कामकाज में
जुटे रहते थे। वह जब चलते, कुछ छात्र और नए
शिक्षक उनके पीछे-पीछे चलने लगते। कुछ लोग उनकी बिगड़ी चीजें बनवाने में लगते तो
कुछेक ऐसे भी थे, जो नियमित रूप से कैम्पस स्थित उनके
फ्लैट जाकर गुरुवर का आशीर्वाद ले आया करते थे। हमारे एक मित्र सुरेश शर्मा ने तो
बाकायदा लेख लिखकर बताया है कि नामवर
जी की एक खास घड़ी जब खराब हुई तो उसे
बनवाने में उन्होंने दिल्ली की खाक छान मारी पर नामवर जी ने सुयोग्य होने के
बावजूद जामिया सहित कई जगहों पर हुई नियुक्तियों में उनकी कोई मदद नहीं की। उनसे
काफी जूनियर और योग्यता में नीचे के लोगों की नियुक्तियां करा दीं(अभी कुछ ही
दिनों पहले पता चला कि उक्त लेख के छपने के कुछ समय बाद सुरेश जी (इस समय उनकी उम्र
57-58 से कम नहीं होगी) वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हो गए। संयोगवश, नामवर जी ही विश्वविद्यालय के चांसलर हैं। अगर
उनकी पहल पर सुरेश जी नियुक्त हुए तो इसे ‘गुरुवर’ का प्रशंसनीय प्रायश्चित कहा जा सकता है। लेकिन
विश्वविद्यालय के विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक उनकी नियुक्ति की पहल कुलपति वीएन
राय की ओर से हुई।
अपने नामवर जी की तरह इलाहाबाद के डा.
रघुवंश ‘मार्क्सवादी’ नहीं, पर छात्रों-शिक्षकों के प्रति नजरिए में वह
ज्यादा सहज और लोकतांत्रिक थे। दूधनाथ सिंह तो खैर वामपंथी रहे हैं। दिल्ली के
नामीगिरामी मार्क्सवादी(हिन्दी) आलोचकों-शिक्षकों के मुकाबले निजी और प्रोफेशनल
जीवन में वह भी ज्यादा सुसंगत और लोकतांत्रिक नजर आते थे। मुझे आज भी याद है। उन
दिनों मेरा एक छोटा सा सर्जिकल-आपरेशन हुआ था और मैं डायमंड जुबिली होस्टल के कमरा
नंबर 38 में लेटा रहता था। एक दिन अचानक देखा, दूधनाथ
और डा. मालती तिवारी मुझे देखने मेरे कमरे में आ गए।
ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं था, दूसरे छात्रों के साथ भी रघुवंश, दूथनाथ या मालती तिवारी जैसे शिक्षकों का
व्यवहार आमतौर पर ज्यादा मानवीय और उदार था। कम से कम वे ‘साइकोफैंसी’ को रिश्तों का आधार नहीं बनाते थे। मेरा उनसे
विधिवत परिचय एमए प्रथम वर्ष के परीक्षाफल आने के बाद ही हुआ। इसके पहले वह मुझे
ठीक से जानते भी नहीं थे। प्रथम वर्ष में जो पेपर वह पढ़ाते थे, उसमें मुझे सर्वोच्च अंक मिले थे। फिर उनसे
क्लास के बाहर भी संवाद का सिलसिला बन गया। पर जेएनयू के जनवादी माहौल के बावजूद
मुझे कम से कम भारतीय भाषा केंद्र में इस तरह के माहौल का अभाव दिखा।
नामवर जी अपने कुछ ‘खास शिष्यों’ से
ही ज्यादा संवाद करते थे। ऐसे लोगों ने गुरुदेव की सेवा का मेवा खूब खाया। इनमें
कुछ नामी विश्वविद्यालयों-संस्थानों में हैं तो कुछेक सरकारी सेवा में भी। लेकिन
हमारे सीनियर्स में कई ऐसे नाम हैं, जिन्हें
प्रतिभाशाली माना जाता था, पर गुरूदेव का
शायद उन्हें उतना समर्थन-सहयोग नहीं मिला। इनमें एक, मनमोहन
को रोहतक में अध्यापकी से संतोष करना करना पड़ा। उदय प्रकाश ने कुछ समय पूर्वोत्तर
में अध्यापकी की, फिर दिल्ली लौट आए। स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता और फिल्मनिर्माण के जरिए उन्होंने
हिन्दी रचना जगत में अपनी खास पहचान बनाई। सुभाष यादव को बिहार के किसी कालेज में
जगह मिली।
राजेंद्र शर्मा माकपा के अखबार ‘लोकलहर’ के संपादकीय विभाग से जुड़ गए। सुरेश शर्मा ने
मेरी तरह पत्रकारिता का रास्ता चुना। विजय चौधरी सृजनशील थे और एक समय नामवर जी के
करीबी भी पर बाद में पता नहीं क्या हुआ? जेएनयू से बाहर आकर वह वृत्तचित्र
निर्माण से जुड़े। चमनलाल को भी जेएनयू आने के लिए बरसों इंतजार करना पड़ा। संभवतः
वह नामवर जी के निष्प्रभावी होने के बाद ही जेएनयू में नियुक्ति पा सके। लंबे समय
तक वह पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में
पढ़ाते रहे। शुरुआती दिनों में उन्होंने बैंक की नौकरी और फिर जनसत्ता की उप
संपादकी की। हमारे समकालीन या बाद के छात्रों में जो केंद्र में समझदार या
संभावनाशील समझे जाते थे, उनमें कुलदीप
कुमार, नागेश्वर यादव,
मदन राय, जगदीश्वर
चतुर्वेदी, संजय चौहान, सुधीर
रंजन, अजय ब्रह्मात्मज जैसे कई लोग थे। पर
इनमें ज्यादातर शायद गुरुदेव को पसंद नहीं थे।
भारतीय भाषा केंद्र में हमारे दूसरे
प्रतिभाशाली अध्यापक थे-डा. मैनेजर पांडे। क्लासरूम में ‘चिचिया’ कर पढ़ाने के उनके अंदाज का हम लोग खूब मजा
लेते थे। अपने लेखन और अध्यापन के लिए वह मेहनत करते थे। डा. केदारनाथ सिंह काव्य
साहित्य ठीकठाक पढ़ाते थे। नामवर जी उन्हें पूर्वी उत्तरप्रदेश के पडरौना के एक
डिग्री कालेज से सीधे जेएनयू ले आए थे। दोनों सिंह-बंधु बाद में समधी बने। हमारी
एक अध्यापिका थीं-डा. सावित्री चंद्र शोभा। वह नामवर सिंह की अध्यक्षता वाले
भारतीय भाषा केंद्र की वाकई शोभा थीं। देश के हिन्दी विभागों के चेहरे का वह
प्रतिनिधित्व करती थीं। अगर आपका रसूख वाले लोगों से संपर्क है तो रचनात्मकता, समझ और ज्ञान के बगैर हिन्दी विभागों में
नियुक्त होना कितना आसान है, शोभा जी इसका
साक्षात उदाहरण थीं। जेएनयू में सभी बताते थे कि शोभा जी को नामवर सिंह ने ही
नियुक्त कराया। उनके पति जाने-माने इतिहासकार और यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन डा.
सतीश चंद्र के नामवर पर कई तरह के एहसान थे। स्वयं नामवर जी ने इस बारे में अपने
एक इंटरव्यू में आधा-अधूरा इसका खुलासा किया है—“ मुझे
ठीक से याद नहीं है, हिन्दी की
नियुक्ति(शोभा जी और सुधेश जी की) मेरे सेंटर में आने के बाद हुई थी या फिर मैं
विशेषज्ञ के रूप में आया था। क्योंकि जो चयन समिति हुई थी,
संभवतः मेरे मेरे आने के बाद हुई थी क्योंकि डा. नगेंद्र विशेषज्ञ थे, एक विशेषज्ञ देवेंद्र नाथ शर्मा थे और मैं
अध्यक्ष था।
रीडर और लेक्चरर की दो नियुक्तियां हुईं, जिसमें
सुधेश जी और शोभा जी आए।--------शोभा जी चूंकि यूजीसी चेयरमैन की पत्नी थीं तो
लगभग तय सा था---विनय राय से मैंने कहा कि भाई, मुसीबत
में फंस गया हूं। उन्होंने कहा, यूजीसी रूपया
देती है, चेयरमैन की बीवी को नहीं रखेंगे तो
किसको रखेंगे? किसी तरह निभाइए---बीएम चिंतामणि के
पिता जी और हमारे नागचौधरी साहब के पिता जी मित्र थे, पारिवारिक
सम्बन्ध थे। इस नाते नागचौधरी जी(जेएनयू के तत्कालीन कुलपति) ने मुझे बुलाकर
चिंतामणि जी को टेम्पोरेरी रखने की बात की। द्विवेदी जी के नाते भी चिंतामणि जी को
मैंने ले लिया।”(जेएनयू में नामवर सिंहः संपादक-सुमन
केशरी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 26-27 और 31)।
जिन लोगों ने उस दौर में जेएनयू के
भारतीय भाषा केंद्र में अध्ययन-अध्यापन किया या विभाग के बारे में जिनकी तनिक भी
जानकारी है, वे आज भी बता सकते हैं कि चिंतामणि जी
और शोभा जी की कक्षाओं में जाना या अध्ययन से जुड़े किसी विषय पर उनसे बातचीत करना
किस तरह एक दुर्दांत-दुष्कर यात्रा करने जैसा था।----इस तरह नामवर जी ने जेएनयू
जैसे एकेडेमिक एक्सलेंस वाले संस्थान में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन की आधारशिला
रखी। हां, मैनेजर पांडे के आने के बाद हालात जरूर
बदले। वह योग्य-समर्थ शिक्षक साबित हुए। जब मैने एडमिशन लिया तो हिन्दी में नामवर
जी, पांडे जी और केदार जी ही केंद्र के तीन
स्तम्भ थे। नामवर जी के सुयोग्य-संरक्षण में शोभा-चिंतामणि जी जैसी नियुक्तियां
आखिरी नहीं साबित हुईं। डीयू, जेएनयू, जामिया और इग्नू सहित भारत के अनेक
विश्वविद्यालयों में अगर आज शोभा-चिंतामणि जी जैसी प्रतिभाएं हिन्दी विभागों की
शोभा बढ़ा रही हैं तो इसमें हिन्दी के अन्य करतबी मठाधीशों के साथ अपने आदरणीय
गुरुदेव का भी कम योगदान नहीं है।
जेएनयू में मेरा सब कुछ ठीक चल रहा था।
शुरुआती झिझक के बाद मुझे अच्छा लगने लगा। वहां का माहौल,
समृद्ध पुस्तकालय, सीनियर छात्रों
की बौद्धिक तेजस्विता, बहस-मुबाहिसे का
उच्च स्तर, बड़े कुलीन या उच्च मध्यवर्गीय घरों से
आए सोशस साइसेंज या इंटरनेशनल स्टडीज के प्रतिभाशाली लड़के-लड़कियों के बीच पिछड़े
इलाकों से आए दलित व पिछड़े वर्ग के अपेक्षाकृत अभावग्रस्त जीवन के आदी रहे प्रखर
छात्रों की अच्छी-खासी संख्या, अपेक्षाकृत
सहिष्णु माहौल, सस्ता बढ़िया खाना, सात या बारह रूपए में महीने भर का डीटीसी की
बसों का रियायती पास, हर रोज
तीनमूर्ति होते हुए सप्रू हाउस (मंडी हाउस)जाने वाली जेएनयू की मुफ्त बससेवा, झेलम लान और गोदावरी के पास वाले टी-स्टाल की
शामें, रात को होने वाली छात्र-सभाएं, संगोष्ठियां और बहस-मुबाहिसे, सबकुछ मुझे अच्छा लगने लगा। अलग-अलग होस्टल में
होने के बावजूद पांडे जी, निशात कैसर, चमनलाल, मदन
राय, आनंद कुशवाहा,
कोदंड रामा रेड्डी, अशोक टंकशाला, वी मोहन रेड्डी, जे
मनोहर राव, डी रविकांत और ए चंद्रशेखर जैसे समान
सोच के मित्रों से अक्सर ही मुलाकात होती रहती थी। थोड़ी-बहुत छात्र-राजनीति की
गतिविधियां भी शुरू हो गईं।
हमारे केंद्र में पढ़ाई-लिखाई शुरू हो
गई थी। एम फिल के शुरुआती दिनों में कक्षाएं भी चलती हैं। फिर सभी छात्र सेमिनार
पेपर-टर्म पेपर की तैयारी में जुट जाते हैं और अंत में डिसर्टेशन पर काम शुरू करते
हैं। मैं नामवर जी, केदार जी और
पांडे जी की कक्षाएं या सेमिनार आदि कभी नहीं छोड़ता था। लेकिन नामवर जी के
मुकाबले पांडे जी से मेरी निकटता बढ़ रही थी। डा. शोभा की क्लास में जाना और
लगातार बैठे रहना दर्द के दरिया से गुजरने जैसा था। एक दिन मैं किसी क्लास से
निकलकर जा रहा था कि चेयरमैन आफिस के एक क्लर्क ने आकर कहा कि डा. नामवर सिंह आपको
चैम्बर में बुला रहे हैं। मैं अंदर दाखिल हुआ तो देखा कि नामवर जी के साथ केदार जी
भी वहां बैठे हुए हैं। नामवर जी ने बड़े प्यार से बैठने को कहा। पहले थोड़ी बहुत
भूमिका बांधी, ‘ आप तो स्वयं वामपंथी हो और यह जानते
हैं कि आप और हमारे जैसे लोगों के लिए जाति-बिरादरी के कोई मायने नहीं होते। पर
भारतीय समाज में सब किसी न किसी जाति में पैदा हुए हैं। आप तो ठाकुर हो न?’ मैंने कहा, ‘नहीं।’ एक शब्द का मेरा जवाब सुनकर नामवर जी और केदार
जी शांत नहीं हुए। अगला सवाल था, ‘फिर क्या जाति
है आपकी, हम यूं ही पूछे रहे हैं, इसका कोई मतलब नहीं है।’
मैंने कहा, मैं
एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुआ हूं। पर दोनों को इससे संतोष नहीं हुआ तो मुझे
अंततः अपने किसान परिवार की जाति बतानी पड़ी। आखिर गुरुओं को कब तक चकमा देता!
जाति-पड़ताल में सफल होने के बाद नामवर जी ने कहा, ‘ अच्छा, अच्छा, कोई
बात नहीं। जाइए, अपना काम करिए।’ बीच में केदार जी ने भी कुछ कहा, जो इस वक्त वह मुझे बिल्कुल याद नहीं आ रहा है।
ऐसा लगा कि दोनों गुरुदेवों का जिज्ञासु मन शांत हो चुका है। इस घटनाक्रम से मैं
स्तब्ध था। जेएनयू में अब तक किसी ने भी मेरी जाति नहीं पूछी थी। अपने बचपन में
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में लोगों को किसी अपरिचित से उसका नाम, गांव और जाति आदि पूछते देखा-सुना था। मुझे समझ
में नहीं आ रहा था कि मेरी जाति पूछकर या जानकारी लेकर किसी को क्या मिल जाएगा या
उसका कोई क्या उपयोग कर सकेगा? मैं चकित था कि
जेएनयू के दो वरिष्ठ प्रोफेसरों की अचानक मेरी जाति जानने में ऐसी क्या दिलचस्पी
हो गई!
मैं इस वाकये को भुलाने की कोशिश करता
रहा। दूसरे या तीसरे दिन गोरख पांडे से जिक्र किया तो किसी विस्मय के बगैर
उन्होंने कहा, ‘अरे भाई, इसे
लेकर आप इतना परेशान क्यों हैं? नामवर जी को लेकर कोई भ्रम मत पालिए।
वह ऐसे ही हैं।‘ पर मुझे लगा----और आज भी लगता है कि
नामवर जी निजी स्वार्थवादी और गुटबाज ज्यादा हैं। जहां तक जाति-निरपेक्षता का सवाल
है, हिन्दी क्षेत्र के अनेक ‘प्रगतिकामियों’ की
तरह उनसे इसकी अपेक्षा ही क्यों की जाय! पिछले दिनों, लखनऊ
और दिल्ली में उन्होंने दलित-पिछड़ा आरक्षण के खिलाफ जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उससे भी उनके मिजाज का खुलासा होता है। लेकिन
जेएनयू में एआईएसएफ वाले उन्हें अपना ‘फ्रेंड-फिलास्फर-गाइड’ मानते थे। जेएनयू की छात्र-राजनीति में एआईएसएफ
वालों की हालत आज बहुत पतली है। एक छात्र के तौर पर मैं नामवर जी को जितना समझ
पाया, उसके आधार पर कह सकता हूं कि उन्हें दो
तरह के लोग पसंद हैं—वे, जो किसी विचार के हों या न हों, उनके चाटुकार हों, उनका
निजी कामकाज कर दें और जरूरी चीजें लाते रहें और दूसरे, वे
जो कुछ पढ़े-लिखे हों, जो उनका गुणगान
करें या उनके बौद्धिक-साहित्यिक प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ अपने लेखन या
संगोष्ठी-सेमिनार आदि में तलवारें भांज सकें।
चूंकि, मैं
उनके ‘गुट’ का
कभी हिस्सा नहीं था और इन दोनों श्रेणिय़ों में फिट नहीं बैठता था, इसलिए शायद उन्होंने मेरी जाति जानने में
दिलचस्पी दिखाई होगी। वह स्वयं भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही तो हैं, जहां गांव-कस्बों में किसी की जाति पूछना
सामान्य सी बात मानी जाती रही है। अगर नामवर जी सिर्फ भाकपावादी होते तो प्रतिबद्ध
और ईमानदार भाकपाई और समर्थ कवि डा. रामकृष्ण पांडे को जेएनयू में लेक्चरशिप मिल
जानी चाहिए थी। पर पांडे जी को वहां नौकरी नहीं मिली, उन्होंने
ताउम्र न्यूज एजेंसी ‘वार्ता’ में डेस्क पर काम किया और असमय ही दिवंगत हो
गए। कई अन्य छात्र, जो एआईएसएफ से
सम्बद्ध थे, ठीकठाक होने के बावजूद जेएनयू में
नौकरी नहीं पा सके। सिर्फ उन्हीं भाकपाई-छात्रों को उन्होंने दिल्ली या बाहर के
विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में नौकरियां दिलवाईं, जो
थोड़े-बहुत प्रभावशाली या उनके किसी काम के थे या फिर ‘चंगू-मंगू’ की तरह उनके आगे-पीछे लगे रहते थे।
केंद्र की ‘एडमिशन-लिस्ट’ देखकर
भी उनकी पसंद को समझा जा सकता है। एक उदाहरण देखिए, सन
1980 की एम फिल एडमिशन-लिस्ट में पहली से पाचवीं पोजिशन पर एक से बढ़कर एक आए। पर
कुलदीप कुमार को कुल 20 छात्रों की सूची में 14वीं पोजिशन पर रखा गया ताकि उन्हें
फेलोशिप कभी न मिल सके। वह सृजनशील थे। अंततः उन्हें जेएनयू छोड़कर जाना पड़ा। कई
साल वह जर्मन रेडियो मे रहे। अब वह ‘द
हिन्दू’ सहित देश के कई प्रमुख अखबारों में
सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर स्तम्भ लिखते हैं।
यह बताना यहां जरूरी है कि मैंने अपना
लेखन ‘उर्मिलेश’ नाम
से शुरू किया पर स्कूल रजिस्टर में मेरा नाम ‘उर्मिलेश
सिंह’ था, जो
विश्वविद्यालय के समय तक हर आधिकारिक रिकार्ड में बना रहा। मेरे पासपोर्ट में भी
यही नाम रहा है। पर मुझे विश्वविद्यालय या बाहर, हर
कोई उर्मिलेश नाम से ही पुकारता रहा है, कोई
उर्मिलेश सिंह या मिस्टर सिंह नहीं कहता रहा है। सरनेम के तौर पर यह ‘सिंह’ मेरे
नाम के साथ कैसे आ चिपका, इसकी भी एक
कहानी है। गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिले के वक्त पिता जी मुझे स्कूल लेकर गए
थे। वह अद्भुत व्यक्ति थे, गरीब, निरक्षर पर ज्ञानवान। स्कूल के हेडमास्टर संभवतः
उन दिनों ताड़ीघाट के पास के गांव मेदिनीपुर के मिसिर जी थे। वह हमारे गांव के
पिछड़े समुदाय के लोगों से बहुत चिढ़ते थे। कहा भी करते थे, ‘अबे, अहीर-गड़ेरी
पढ़ाई करके क्या करेंगे, जाकर भैंस, गाय, भेड़
चराएं!’ लेकिन गरीब किसान होने के बावजूद मेरे
पिता और मेरे परिवार की आसपास के इलाके में प्रतिष्ठा थी। पिता जी राजनीतिक रूप से
जागरूक और सक्रिय थे, गांव के
दलितों-पिछड़ों के बीच उनकी अच्छी पकड़ थी।
बड़े भाई पढ़ने में तेज थे और पूरे
क्षेत्र में हाकी के जाने-माने खिलाड़ी भी। मिसिर जी हमारे परिवार वालों को बाकी
यादवों से ज्यादा ‘सभ्य’ समझते थे। शायद , कुछ
अलगाने के लिए ही उन्होंने मेरे नाम में ‘सिंह’ सरनेम जोड़ दिया। पिता जी को भी नहीं बताया, उनसे सिर्फ यही पूछा कि बच्चे का क्या नाम रखा
है, पिता जी ने कहा, उर्मिलेश। सिर्फ मेरे नाम के साथ ही उन्होंने
खेल नहीं किया, मेरे पिता का नाम था-सरजू सिंह यादव तो
उन्होंने लिख दिया-सूर्य सिंह। नामों का संस्कृतीकरण! मेरा उर्मिलेश नामकरण भी
दिलचस्प ढंग से हुआ था। मेरे बड़े भाई जब ग्यारहवीं या बारहवीं में पढ़ते थे तो
मेरा जन्म हुआ। वह मां-पिता की पहली संतान थे और मैं आखिरी। बीच में मेरे दो-तीन
भाई-बहन हुए पर वे जिंदा नहीं रह सके। कुछ तो पैदाइश के वक्त ही मरे थे। मेरी
पैदाइश से पहले एक भाई, जिसका नाम
मुसाफिर था, कुछ बड़ा होकर मरा। उन दिनों गांव में
डाक्टर या अस्पताल आदि की सुविधा नहीं थी। उससे भी बड़ी समस्या परिवार की गरीबी
थी।
मैं जब पैदा हुआ तो बचने की उम्मीद कम थी। मां ने बचपन में बताया था कि मेरा
वजन बहुत कम था, जो भी देखता, कहता, यह भी शायद ही बचे। पर मैं बच गया। उधर, मेरे बड़े भाई साहब, इस
बार बहन पाने की उम्मीद लगाए थे पर मिल गया भाई। उन्होंने अपनी संभावित बहन का नाम
भी तय कर रखा था-उर्मिला। वह साहित्य खूब पढ़ते थे। उन दिनों मैथिलीशरण गुप्त की
किताब ‘साकेत’ पढ़
रहे थे, जिसमें उर्मिला का चरित्र बहुत उभरकर
सामने आता है। जब भाई पैदा हुआ तो उन्होंने नाम रख दिया-उर्मिलेश। स्कूल में
नामांकन के वक्त हेडमास्टर मिसिर जी की कृपा से मैं उर्मिलेश सिंह हो गया। नामांकन
के वक्त पिता जी के साथ भाई साहब होते तो शायद मिसिर जी को मेरे और पिता जी के नाम
के साथ मनमानी करने का मौका नहीं मिला होता। मेदिनीपुर वाले मिसिर जी की यही
खुराफात शायद वर्षों बाद डा. नामवर सिंह जैसे ‘दिग्गज
मार्क्सवादी आलोचक’ के ‘कन्फ्यूजन’ का
कारण बनी।
जेएनयू मे दाखिले के कुछ ही समय बाद, मुझे बैरंग इलाहाबाद लौटना पड़ा, जहां मित्रों के सहयोग से मैंने सत्र के शेष
दिन बिताए। मेरा ज्यादा वक्त अपनी निजी पढ़ाई-लिखाई और पीएसओ की गतिविधियों को
समर्पित रहा। दाखिला रद्द होने की कहानी भी कुछ कम दिलचस्प नहीं। पहले वाकये की
तरह, एक दिन अचानक नामवर जी ने मुझे अपने
चैम्बर में बुलवाया। इस बार वह अकेले थे। मैं डरते-डरते गया, इस बार पता नहीं क्या पूछेंगे? चैम्बर में दाखिल होते ही उन्होंने पूछा, उर्मिलेश जी, आपका
एमए फाइनल का रिजल्ट अभी आया कि नहीं? मैंने
कहा, नहीं सर। बस आने वाला है। उन्होंने
बताया कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन छात्रों की सूची मांगी है, जिन्होंने अब तक अपना फाइनल रिजल्ट नहीं जमा
किया है। भारतीय भाषा केंद्र से उसमें आपका नाम जा रहा है। नियमानुसार, आपका एडमिशन रद्द हो जाएगा।
मैं कुछ नहीं कर
पाऊंगा। उनके चैम्बर से उदास मन लौटा। कुछ दिनों पहले, नामवर
जी से उनके चैम्बर में हुई पिछली मुलाकात याद आने लगी। उस दिन मैं बेहद परेशान
रहा। उन दिनों बाहर से फोन आदि करके सारी जानकारी ले पाना कठिन था, इसलिए मैं अगले ही दिन मैं अपर इंडिया
एक्सप्रेस से इलाहाबाद के लिए रवाना हो गया। विभाग में सबसे मिला। रजिस्ट्रार से
भी बातचीत हुई। सबने कहा, रिजल्ट जल्दी ही
आ जाएगा। मैंने विभाग से एक परिपत्र भी ले लिया, जिसमें
लिखा था कि उर्मिलेश सिंह फाइनल के छात्र हैं और इनका परीक्षाफल आने वाला है।
कृपया इन्हें अपेक्षित सहयोग और मोहलत दी जाय। लेकिन दिल्ली में नामवर सिंह पर
इसका कोई असर नहीं पड़ा। उन्होंने मेरे एडमिशन को रद्द कराने की प्रक्रिया शुरू
करा दी। केंद्र की स्टूडेंट्स फैक्वल्टी कमेटी(एसएफसी) के कुछ छात्र-सदस्य भी
चाहते थे कि मेरा एडमिशन जल्दी रद्द हो जाय। इसके दो फायदे थे। एडमिशन के लिए ‘वेटिंग’ में
पड़े किसी एक छात्र का एडमिशन हो जाता और किसी एक एडमिशन ले चुके छात्र को मेरी
वाली यूजीसी फेलोशिप मिल जाती।
इनमें कुछेक एसएफसी सदस्य नामवर जी के पटु शिष्य
थे। कोशिश की गई कि मेरे एडमिशन रद्द किए जाने के मामले में छात्र संघ
(एसएफआई-एएसएफआई नियंत्रित) की तरफ से कोई पंगा न हो। जहां तक मुझे याद आ रहा है
कि सितम्बर के अंतिम सप्ताह से ही मेरे एडमिशन पर खतरे के बादल मंडराने लगे। कुछ
छात्र नेताओं ने प्रवीर दा के कहने पर मेरे मामले में
विश्वविद्यालय-उच्चाधिकारियों से बातचीत भी की। कुछ दिनों की मोहलत मिली लेकिन
मेरा रिजल्ट उस वक्त तक नहीं आया और जहां तक मुझे याद आ रहा है, अंततः अक्तूबर में मुझे केंद्र से
बोरिया-बिस्तर बांधने को कह दिया गया। हालांकि एडमिशन रद्द करने सम्बन्धी औपचारिक
परिपत्र नवम्बर,1978 में जारी किया गया। बाद में पता
चला कि जेएनयू के कुछ अन्य केंद्रों में भी ऐसे मामले सामने आए। रूसी अध्ययन
केंद्र में कम से कम दो छात्रों को, जिनका
रिजल्ट मेरी तरह लंबित था, उन्हें जनवरी, 79 के पहले सप्ताह तक की मोहलत दी गई। केंद्र
के छात्र रह चुके डा. कैसर शमीम ने बाद के दिनों में इस बात की पुष्टि की। वह उन
दिनों केंद्र और भाषा संकाय की कई शैक्षणिक-प्रशासनिक इकाइयों में छात्र-प्रतिनिधि
के तौर पर शामिल थे। जिनको मोहलत मिली, वे
भाग्यशाली रहे। उनका मेरी तरह एक साल बर्बाद नहीं हुआ। पर इसके लिए मैं नामवर जी
पर कोई दोषारोपण नहीं कर रहा हूं।
उन्होंने तो बस ‘नियमों
का पालन करते हुए’ मेरा एडमिशन
रद्द करा दिया।----और मोहलत पाने की उनसे अपेक्षा भी नहीं थी। कुछ ही दिनों बाद, मैं इलाहाबाद लौट आया। छात्र-राजनीति में
सक्रियता के अलावा ‘वर्तमान’ नाम से हम लोगों ने एक पत्रिका भी निकाली थी।
इसके संपादक मंडल में मेरे अलावा रामजी राय और राजेंद्र मंगज थे। कृष्ण प्रताप
सिंह(दिवंगत केपी सिंह) और विभूति नारायण राय(तब तक आईपीएस हो चुके थे) पर्दे के
पीछे से हमारी पत्रिका के प्रमुख संसाधक थे। पत्रिका का दफ्तर मेरे कमरे से चलता
था। इसके अलावा एक स्टडी सर्किल भी हम लोग चलाते थे, जिसमें
विश्वविद्यालय के छात्रों-शिक्षकों के अलावा बीच-बीच में कुछ तरक्कीपसंद वकील, पत्रकार, कवि-लेखक
और अन्य प्रोफेशनल्स भी आते रहते थे। इसके कुछेक हिस्सेदार आज देश के जाने-माने
न्यायविद्, नौकरशाह, सामाजिक-राजनीतिक
कार्यकर्ता और लेखक-कवि हैं।
अगले साल, यानी
1979 में जेएनयू में एम.फिल्.-पीएचडी के दाखिले के लिए फिर से फार्म भरा।
परीक्षाफल आया तो ज्यादा निराशा नहीं हुई। मेरा एडमिशन हो गया, इस बार कुल 20 छात्रों की सूची में तीसरी
पोजिशन थी। फेलोशिप मिलना तयशुदा था। उन दिनों भारतीय भाषा केंद्र में कम से कम
तीन या चार फेलोशिप आसानी से मिल जाती थीं। शुरू में लगा था कि पता नहीं, इस बार मेरा एडमिशन होगा कि नहीं, पर कई लोगों ने सही ही कहा कि पिछले साल के
अपने टापर को केंद्र एडमिशन से वंचित कैसे रखता? मेरा
पेपर और इंटरव्यू भी अच्छे हुए थे। एमए फाइनल का परीक्षाफल भी आ चुका था, 65.5 फीसदी अंकों के साथ इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के अपने विभाग में मेरी दूसरी पोजिशन थी। इधर, जेएनयू में तीसरी पोजिशन मिली। जहां तक मुझे
याद आ रहा है कि पहली पोजिशन इस बार पुरुषोत्तम अग्रवाल की थी। दूसरे स्थान पर
संभवतः पटना विश्वविद्यालय से आए रामानुज शर्मा रहे। पुरुषोत्तम ने जेएनयू से ही
एमए किया था और नामवर जी के प्रिय शिष्य के अलावा एएसएफआई के सक्रिय कार्यकर्ता भी
थे। पढ़ने-लिखने और बोलने में भी तेजतर्रार थे। पुरुषोत्तम पहले डीयू और फिर
जेएनयू में कई साल शिक्षण करने के बाद संघ लोकसेवा आयोग के सदस्य बने। उन्होंने
कबीर पर अच्छा काम किया। नामवर जी के प्रिय और समझदार शिष्यों में उनके अलावा कुछ
और नाम याद करना चाहें तो वीरभारत तलवार का नाम लिया जा सकता है।
वीरभारत अच्छे
रिसर्चर रहे लेकिन व्यक्ति, शिक्षक-प्रशासक, दोनों स्तर पर उन्होंने जेएनयू को निराश ही
किया। रामानुज जी मितभाषी थे और नंद किशोर नवल के करीबी थे, बातचीत में अक्सर उनका उल्लेख किया करते थे।
नवल जी संगठन और विचार के स्तर पर नामवर जी के सहयोगी और बहुत करीबी रहे। रामानुज
और मुझे एक ही होस्टल में आसपास कमरा मिला था। बाद में मुझे महानदी(मैरिड होस्टल)
मिल गया तो पत्नी के साथ रहने लगा। इसी होस्टल में दिग्विजय सिंह(अब दिवंगत), बाबूराम भट्टराई(नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री)
और हिसिला यमी, विमल और सुखदेव थोरट भी रहा करते
थे। बहरहाल, नए
सत्र में मैंने एमफिल डिसर्टेशन के लिए राहुल सांकृत्यायन पर काम करने का फैसला
किया। मेरे गाइड थे-डा. मैनेजर पांडे। फरवरी, 1982
में मुझे एमफिल एवार्ड हो गई। पीएचडी के लिए डा पांडे के ही निर्देशन में ‘प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में वैचारिक
संघर्ष(सन 1946-54)’ विषय पर काम
शुरू कर दिया था।
फेलोशिप के पैसों से हम लोगों का काम यहां आराम से चल जाता था।
कभी-कभी मां को भी मनीआर्डर से पैसे गांव भेजा करता था। पढ़ाई के साथ
छात्र-राजनीति में भी मेरी सक्रियता बढ़ चुकी थी। जेएनयू में पीएसओ का मैं संयोजक
या सचिव भी रहा। कुछ समय के लिए पीएसओ की दिल्ली राज्य कमेटी का भी पदाधिकारी था।
सन 80 या 81 में मैंने डीएसएफ(पीएसओ-आरएसएफआई का मोर्चा) के बैनर तले जेएनयू
छात्रसंघ के महासचिव पद का चुनाव भी लड़ा। एसएफआई-एआईएसएफ गठबंधन की नमिता सिन्हा
से चुनाव तो मैं हार गया पर एक नया रिकार्ड भी बना। नौ सौ या एक हजार की छात्र
संख्या वाले जेएनयू में संभवतः मुझे 289 वोट मिले। सीपीआई-सीपीएम धारा से बाहर के
स्वतंत्र वामपंथी खेमे के किसी उम्मीदवार को जेएनयू में अब तक इतना वोट कभी नहीं
मिला था।
सन 1983 की गर्मियों में जेएनयू की
पहाडियां नारों से गूंजने लगीं। डाऊन से अप कैम्पस तक, पूरा
विश्वविद्यालय पोस्टरों-बैनरों से पट चुका था। केंद्र सरकार के दबाव में
विश्वविद्यालय प्रशासन ने जेएनयू की प्रगतिशील और सामाजिक न्याय-पक्षी प्रवेश नीति
को बदलने का एलान कर दिया। छात्रों की तरफ से इसकी जबर्दस्त मुखालफत हुई। छात्रसंघ
के नेतृत्व ने शुरू में थोड़ी ना-नुकूर की पर बड़ा आंदोलन छेड़ने की छात्रों की
भावना को देखते हुए वह भी समर्थन में आ गया। जेएनयू के इतिहास में वैसा आंदोलन न
पहले कभी हुआ और न आज तक देखा गया। इसमें तीन सौ से ज्यादा छात्र तिहाड़ जेल भेज
दिए गए। इनमें नब्बे फीसदी देश के विभिन्न राज्यों से आकर जेएनयू में पढ़ रहे
प्रथम श्रेणी के प्रतिभाशाली छात्र थे। इनमें कइयों ने तो आईएएस जैसी सिविल सर्विस
परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कर ली थीं।
राजनीतिक हस्तक्षेप और बहुदलीय दबाव के बाद
प्रशासन ने छात्रों पर लंबित मामलों को बिना शर्त वापस कर लिया पर आंदोलन की
नेतृत्वकारी टीम के संभवतः 17 छात्रों को कुछ समय के लिए (एक साल से तीन साल) के
लिए कैम्पस से बाहर कर दिया गया। इनमें मैं भी शामिल था। आंदोलन छिड़ने से पहले
मैं अपनी पीएच.डी. थीसिस जमा करने की तैयारी कर रहा था। एनसीईआरटी के पास एक
टाइपिस्ट से शोध-प्रबंध के अध्यायों को क्रमवार टाइप करने को लेकर बात भी हो चुकी
थी। अब पीएचडी भी लटक गई। खाने-पीने और रहने के लाले पड़ गए। फेलोशिप से वंचित हो
चुके थे। पत्नी घर चली गईं। कुछ दिनों बाद मैं भी घर गया। लेकिन वहां क्या करता,
जल्दी ही दिल्ली लौट आया। विश्वविद्यालय के कई शिक्षकों ने हम जैसों
के हालात पर चिंता जताई। सहयोग का आमंत्रण भी दिया। लेकिन इस घटना के बाद गुरुदेव
नामवर ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि तुम क्या कर रहे हो या आगे की जिन्दगी के लिए
क्या योजना है? जेएनयू के डाउन कैम्पस के एक कर्मचारी
फ्लैट में ईश, शशिभूषण और राहुल जैसे कुछ दोस्त रह
रहे थे। मैंने भी वहीं डेरा डाला।
एक दिन अचानक विश्वविद्यालय के एक शीर्ष अधिकारी
की तरफ से मुझे उनके एक परिजन ने संदेश दिया कि आप अगर एक पंक्ति में लिख कर दे
दें कि ‘9 मई, 83
को जो कुछ हुआ, उसके लिए मुझे खेद है’ तो आपको फिर से कैम्पस में इंट्री मिल जाएगी, फेलोशिप जारी रहेगी और आप अपनी पीएच.डी. थीसिस
जमा करा सकेंगे। जिन सज्जन ने मुझे यह संदेश दिया, वह
उन दिनों राजस्थान में काम करते थे। मैंने विनम्रतापूर्वक कहा कि ऐसा मैं नहीं कर
सकता। हम लोगों ने अन्याय के विरोध में आंदोलन किया था, उस
पर खेद प्रकट करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर विश्वविद्यालय प्रशासन मेरे
परिवार की खराब आर्थिक स्थिति और मेरे कथित उज्ज्वल एकेडेमिक भविष्य के प्रति इतना
संवेदनशील है तो उसे इस तरह की कोई शर्त ही नहीं रखनी चाहिए।
कुछ समय बाद, मैं
दिल्ली में सामाजिक-राजनीतिक कामकाज करते हुए लेखन-अनुवाद आदि से अपनी आर्थिक
जरुरतें पूरा करने में जुट गया। लेकिन यह आसान नहीं था। मैं किसी पार्टी का
होलटाइमर तो था नहीं। आय या गुजारे का कोई और स्रोत भी नहीं दिख रहा था। घर चलाने
के लिए जितनी जरूरत थी, वह हिन्दी में
फ्रीलांसिंग से संभव नहीं दिख रही थी। मई, 83 के ‘भूचाल’ से पहले भी मैं लेक्चरशिप पाने की कोशिश करता आ
रहा था, सन 81-82 से ही लगातार रिक्तियां देखकर
आवेदन कर देता। पर कभी इंटरव्यू में छंट जाता तो कभी काल-लेटर ही नहीं आता। जहां
तक मुझे याद आ रहा है, तब मैं जेएनयू
में पीएचडी कर रहा था और एमफिल एवार्ड हो चुकी थी। एक दिन मैनेजर पांडे डाउन
कैम्पस बस स्टैंड पर मिल गए। उन्होंने पूछा, ‘ अरे
भाई, आपने कुमायूं विश्वविद्यालय में अप्लाई
किया है न!’ मैंने कहा, ‘किया
है सर।’ उन्होंने बताया कि ‘डा. नामवर सिंह ही वहां एक्सपर्ट के रूप में जा
रहे हैं।
मैने उनसे काफी कहा है कि आपको नौकरी की बहुत जरूरत हो। शुरू में तो
उन्होंने ज्यादा रूचि नहीं दिखाई पर मेरे जोर देने के बाद अब वह तैयार हो गए हैं।
आप जरूर जाइए वहां, इस बार आपकी
नौकरी हो जाएगी।‘ नैनीताल आने-जाने और रहने के खर्च आदि
का इंतजाम कर मैं इंटरव्यू देने नैनीताल चला गया। वहां गिर्दा, पीसी तिवाड़ी और प्रदीप टाम्टा जैसे मित्रों के
सहयोग से एक यूथ होस्टल में कमरा भी मिल गया था। इंटरव्यू शानदार हुआ। नामवर जी के
अलावा दक्षिण के किसी विश्वविद्यालय से कोई पांडे या शर्मा जी वहां एक्सपर्ट बनकर
आए थे। आधुनिक साहित्य में विशेषज्ञता वाले अभ्यर्थी के लिए यह पद था। इस नाते भी
मेरा पलड़ा भारी दिख रहा था। पर सारा अंदाज गलत साबित हुआ। कुछ दिनों बाद पता चला
कि कुंमायूं में भी मेरा नहीं हुआ। किसी ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति हुई, जिसका काम मध्यकालीन साहित्य पर था। इसके बाद
मैं बेहद दुखी और निराश हो गया।
सन 83 की घटना के बाद लेक्चरशिप पाने
की कोशिश एक बार फिर शुरू की। मेरे साथ के कई मित्रों को लेक्चरशिप मिल गई थी।
उनमें कई मेरिट के हिसाब से मुझसे नीचे थे। उनमें कइयों के अंदर शिक्षक बनने की
कोई बलवती इच्छा भी नहीं दिखती थी, जबकि मेरे अंदर
इलाहाबाद के दिनों से ही एक समर्थ शिक्षक बनने का सपना पलता आ रहा था। इसी सपने के
चलते मैंने सिविल सर्विसेज(आईएएस-आईपीएस) की परीक्षा में बैठने की अपने बड़े भाई
की सलाह मानने से इंकार कर उनकी नाराजगी मोल ली थी। वैसे भी मेरे वाम मन-मानस को
सरकारी सेवा में जाना गवारा नहीं था। विश्वविद्यालय से निकलने के बाद भी मुझे कुछ
समय तक लगता था कि कहीं न कहीं मुझे लेक्चरशिप मिल जाएगी। नामवर जी की ताकत से मैं
वाकिफ था। विश्वास था कि मैनेजर पांडे जरूर उन पर दबाव बनाएंगे। दिल्ली के हर
कालेज, विश्वविद्यालय,
यहां तक कि बाहर के संस्थानों के हिन्दी विभागों में स्थानीय प्रबंधन, सत्तारूढ़ राजनेताओं या नामवर जी की मंडली के
प्रोफेसरों का ही दबदबा था। मैं चारों तरफ से गोल था। सिर्फ मैनेजर पांडे ही एक थे, जो जमा-जुबानी समर्थन करते थे। मेरे सामने
अस्तित्व का संकट था। एक बच्चा भी अब परिवार से जुड़ चुका था। डाउन कैम्पस के उस
कर्मचारी फ्लैट से हटने के बाद विकासपुरी के ए ब्लाक में एक कमरे का एक सेट किराए
पर लिया। गांव से परिवार भी ले आया।
सन 1985 आते-आते मुझे लगने लगा कि अब
लेक्चरशिप के लिए ज्यादा इंतजार ठीक नहीं। मुझे विकल्प तलाशने होंगे। नियमित
रोजगार के नाम पर कुछ ठोस नहीं दिखा तो जनसत्ता, नवभारत
टाइम्स, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, प्रतिपक्ष, युवकधारा, शान-ए-सहारा, अमर उजाला, और
अमृत प्रभात जैसे पत्र-पत्रिकाओं के लिए नियमित ढंग से लिखना शुरू कर दिया। जनसत्ता, नभाटा, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, अमृत प्रभात आदि के काम से घर के किराए
की राशि निकालने की कोशिश करता, जबकि प्रतिपक्ष
के नियमित भुगतान से महीने भर के दूध का भुगतान हो जाया करता था। उन दिनों
प्रतिपक्ष के संपादक विनोद प्रसाद सिंह थे और उसका दफ्तर था, तुगलक क्रीसेंट स्थित जार्ज फर्नांडीस का
सरकारी बंगला। विनोद बाबू से मेरी मुलाकात संभवतः जेएनयू के एक मेरे मित्र अजय
कुमार ने कराई थी, जो आजकल बड़े
आयकर अधिकारी हैं। प्रतिपक्ष के आखिरी पेज पर एक कालम छपता था, फू-नुआर का बैंड। वह खाली हो गया था।
उसके लेखक
शायद पत्रिका से अलग हो गए थे। उसके बाद लगभग दो साल मैंने वह कालम लिखा, जिसका मुझे नियमित भुगतान मिल जाता था। इस दौर
में जनसत्ता के मैगजीन संपादक मंगलेश डबराल, पत्रकार
और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता आनंदस्वरूप वर्मा, प्रख्यात
कवि व पत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रो.
डी प्रेमपति, सुरेश सलिल और विनोद प्रसाद सिंह जैसे
वरिष्ठ लोगों से मुझे सहयोग-समर्थन मिला। जनसत्ता में लगातार लिखने के बावजूद
प्रभाष जोशी ने मुझे वहां नौकरी नहीं दी। शायद, उन्हें
मेरे बारे में जो सूचनाएं मिली होंगी, उससे
उन्होंने मुझे जनसत्ता में नौकरी के लायक नहीं समझा होगा। मेरी अर्जी खारिज हो गई
पर उन्हें मेरे वहां छपने से शायद कोई एतराज नहीं था। ‘खोज
खबर’, ‘खास खबर’ और ‘रविवारी जनसत्ता’ के
लिए लगातार लिखा। मेरे घर में पहला ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी सेट ‘जनसत्ता’ के
पारिश्रमिक के पैसे से ही आया।
कुछ समय मैं पीयूसीएल की दिल्ली कमेटी
में भी सक्रिय रहा। तब इंदर मोहन उसके महासचिव थे। राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष वी
एम तारकुंडे थे। बाद में गोबिन्द मुखौटी की अगुवाई में पीयूडीआर बना। बेरोजगारी और
फ्रीलांसिंग के शुरुआती दिनों में मैं विकासपुरी के बाद पुष्प विहार और लोधी रोड
कांप्लेक्स के सरकारी आवासों में किराए पर रहा। फ्रीलांसिंग के इस दौर में भी
जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, वाराणसी, इलाहाबाद, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर या जामिया जैसे विश्वविद्यालयों या
सम्बद्ध कालेजों के हिन्दी विभागों में नियुक्तियों की कहानियां सुनता रहता था।
मुझे लगता है, नामवर सिंह ने यूरोपीय और अन्य विदेशी
विश्वविद्यालयों के तर्ज पर योग्य छात्रों को आगे कर जेएनयू या अपने प्रभाव के
अन्य संस्थानों में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन को सुदृढ़ आधार देने की कोशिश की होती
तो हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान हो
सकता था।
पत्रकारिता की उबड़खाबड़ जमीन पर पांव
बढ़ाते हुए सन 1986 के मार्च महीने में मेरी नियुक्ति टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के
हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स में हो गई। इसके लिए अखिल भारतीय लिखित परीक्षा हुई
थी। बहुत सारे युवक-युवतियां उसमें शामिल हुए थे। बताया गया कि उस लिखित परीक्षा
में मुझे दूसरा स्थान मिला। वहां किसी ने मुझसे जाति आदि के बारे में पूछताछ नहीं
की। अखबार के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने मुझे पटना संस्करण में रिपोर्टिंग
की जिम्मेदारी सौंपी। 1 अप्रैल को दिल्ली से पटना के लिए रवाना हो गया। तब तक एसपी
सिंह भी मुंबई से दिल्ली नभाटा में कार्यकारी संपादक बनकर आ चुके थे। शुरू में ही
उन्होंने नभाटा के संपादकीय पृष्ठ पर ‘बिहार
के कृषि संकट’ पर दो किस्तों का लेख छापकर मेरा
उत्साहवर्धन किया। लेकिन बाद के दिनों में उनका मुझे ज्यादा समर्थन नहीं मिला।
मेरी पहली किताब ‘बिहार का सच’ सन
1991 में छपी। पुस्तक का बिहार और बाहर भी स्वागत हुआ।
एसपी ने भी पसंद किया।
उन्होंने नभाटा में तुरंत समीक्षा छपवाई। कई प्रमुख हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में
समीक्षाएं आईं। एक दिन टीवी(दूरदर्शन) देख रहा था। पहले से मुझे कत्तई नहीं मालूम
था। अचानक, देखा दूरदर्शन पर मेरी किताब की चर्चा
चल रही थी। बाद में पता चला कि इस कार्यक्रम का निर्माण दूरदर्शन के जाने-माने
प्रोड्यूसर कुबेर दत्त(अब दिवंगत) ने किया था। सन 1993 में मुझे मीडिया जगत में
(उन दिनों की) प्रतिष्ठित ‘टाइम्स फेलोशिप’ मिली। इसके इंटरव्यू बोर्ड में उस समय के बड़े
संपादक और विचारक निखिल चक्रवर्ती, योजना आयोग के
सदस्य पी एन धर, टी एन चतुर्वेदी, टाइम्स के तत्कालीन संपादक दिलीप पडगांवकर और
टाइम्स ग्रुप के चेयरमैन अशोक जैन सहित कई गणमान्य लोग बैठे थे। शोध के मेरे
प्रस्तावित विषय पर कई सवाल पूछे गए। किसी ने मुझसे मेरी जाति आदि के बारे में
नहीं पूछा। कुछ ही दिनों बाद परिणाम निकला, पता
चला किश्वर अहलूवालिया, मारूफ रजा, शैलजा वाजपेयी और मुझे इस फेलोशिप के लिए चुना
गया है। बीते साल यह फेलोशिप जेएनयू के ही एक पूर्व छात्र पी. साईनाथ को मिली थी।
टाइम्स आफ इंडिया सहित ग्रुप के सभी अखबारों में हम लोगों के चित्र के साथ फेलोशिप
की उद्धोषणा हुई थी। इस फेलोशिप के तहत मैंने झारखंड के संदर्भ में क्षेत्रीय
विषमता पर काम किया, जो सन 1999 में ‘झारखंडः जादुई जमीन का अंधेरा’ नाम से पुस्तकाकार छपा। शोध-लेखन के लिए बाद
में कुछ और फेलोशिप भी मिलीं।
नामवर जी, केदार
जी और पांडे जी के जेएनयू स्थित ‘हिन्दी के
दिव्यलोक’ से पत्रकारिता की उबड़खाबड़ दुनिया
मुझे बेहतर लगने लगी। लेकिन पत्रकारिता में 26 साल से ज्यादा के अपने अनुभव के बाद
जब पेशे में ‘ऊपर की दुनिया’
के करीब आया तो पता चला कि यहां का अंदरुनी सच भी कुछ कम विकराल नहीं
है। नामवर जी से भी ज्यादा महाबलियों की इसमें भरमार है। ज्यादा पेंचदार लोग हैं।
जात-गोत्र, पारिवारिक पृष्ठभूमि, राजनीतिक सोच के अलावा बड़े राजनेताओं, कारपोरेट-कप्तानों से किसके कितने रिश्ते हैं, आज के मीडिया में ऊंचे पदों तक पहुंचने में इन
चीजों का खासा महत्व हो गया है। भारत में पत्रकारिता वाकई चौथा स्तम्भ है पर हमारे
समाज और लोकतंत्र का नहीं, राजव्यवस्था का
चौथा स्तम्भ बनती गई है।
हम लोग जिस समय पत्रकारिता में दाखिल हुए, वह इमर्जेन्सी के बाद का जमाना था और प्रोफेशन
में जबर्दस्त उथलपुथल थी। हिन्दी में पहली बार नए ढंग के प्रयोग हो रहे थे और नए
सोच को जगह मिल रही थी। जनपक्षी सोच के ढेर सारे नौजवान पत्रकारिता में दाखिल हुए
थे। लेकिन कुछ ही बरस बाद चीजें तेजी से बदलती नजर आईं। सन 95-97 के आसपास पत्रकारिता
पर आर्थिक सुधार और उदारीकरण की प्रक्रिया का असर साफ-साफ दिखाई देने लगा था। सन
2000 के बाद उसने ठोस रूप ले लिया। अब पत्रकारिता का चेहरा बिल्कुल बदल चुका है।
बड़े मीडिया संस्थानों के मालिक आज खुलेआम कहते हैं कि वे खबर के नहीं, विज्ञापन के धंधे में हैं। मुख्यधारा की हिन्दी
पत्रकारिता तो और पिचक रही है। वह कूपमंडूकता, सरोकारहीनता, समाचार-विचार की दरिद्रता, चाटुकारिता, जातिवाद
और गुटबाजी से बेहाल है। बेहतर की बात कौन करे, राहुल
बारपुते, रघुवीर सहाय और राजेद्र माथुर के जमाने
की पत्रकारिता के निशान भी मिट रहे हैं। पत्रकारिता के इस मौजूदा सच से जब टकराता
हूं तो छात्रजीवन के दौरान देखा एक सजग-समर्थ शिक्षक बनने का सपना याद आता है। फिर
देखता हूं, मेरे सच और सपने के ठीक बीच में खड़े
हैं-हिन्दी के महाबली डा. नामवर सिंह।
आशा-निराशा और सफलता-असफलता भरी दिल्ली से
पटना, पटना से दिल्ली वाया चंडीगढ़ की 26 साल
लंबी अपनी यात्रा पर नजर डालता हूं तो कुल-मिलाकर अच्छा लगता है। इस पेशे में आने
का अफसोस नहीं होता। हिन्दी क्या, संपूर्ण
शैक्षणिक जगत के बड़े-बड़े महाबलियों को जो लोग इधर से उधर पदारूढ़ करते-कराते हैं, बड़े ओहदे या सम्मान देते-दिलाते हैं, एक पत्रकार के रूप में उन लोगों को भी बहुत
नजदीक से देखने का मौका मिला। कैसे अचानक अपने बीच से ही कोई जुगाड़ और रिश्तों के
सहारे बड़ा ओहदेदार, वाइसचांसलर, निदेशक या सीधे प्रोफेसर बन जाता है! कैसे कोई रातोंरात चैनल हेड, प्रधान संपादक, किसी
कारपोरेट संस्थान में उपाध्यक्ष या कारपोरेरट-कम्युनिकेशन का चीफ, कहीं निजी या सरकारी क्षेत्र में बड़ा अधिकारी, सलाहकार या विदेश में कोई अच्छी सरकारी
पोस्टिंग पा लेता है! पत्रकारिता के इस दिलचस्प-रोमांचक रास्ते का हरेक सच मुझे उन
वजहों से रू-ब-रू कराता है कि बड़ी संभावनाओं और प्रतिभाओं के बावजूद हमारा समाज
क्यों दुनिया के नक्शे पर आज तक इतना फिसड्डी बना हुआ है! प्रतिभा-पलायन क्यों हो
रहा है या कि एक खास मुकाम के बाद प्रतिभा-विकास का रास्ता अवरुद्ध क्यों हो जाता
है! सचमुच हम ‘अतुल्य भारत’ हैं!
आपकी कहानी नई नहीं है। ऐसी ढेरों कहानियां हैं। लेकिन, आपने इसे शब्द दे कर साहित्य और पत्रकारिता जगत में सघर्षशील लोगों पर बड़ा उपकार किया है। उन्हें आपकी कहानी से संबल मिलेगा। सांत्वना मिलेगी। ऐसे हजारों लोग हैं, जिनके सपने और सच के बीच नामवर सिंह जैसे लोग आते रहे हैं। आप मीडिया मंथन जैसे कार्यक्रम के तहत न्यूज रूम की विविधता जैसे मसले उठाते रहते हैं। सरनेम और सिफारिश के आधार पर भर्ती होती है। प्रोफाइल देख कर खबरें चलती हैं (खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में)।
जवाब देंहटाएंउर्मिलेश जैसा संघर्ष से उभरा पत्रकार राज्यसभा जैसा चैनल लांच तो कर देता है, लेकिन अपनी नौकरी बचा नहीं पाता। हां, बाम्हन और ठाकुरों के बोलबाले के बीच उर्मिलेश उर्मिल चैनल प्रमुख तो बन जाता है, लेकिन न्यूज रूम में सामाजिक और वैचारिक संतुलन लाने में असमर्थ रहता है। ये चैनल भी उन विसंगतियों से वंचित नहीं रह पाता। बहरहाल, आपने नामवर सिंह जी के बहाने न केवल जेएनयू, बल्कि पत्रकारिता और साहित्य जगत की सच्चाई सबके सामने उजागर किया है। इसके लिए आपका धन्यवाद।
शशि भूषण
पत्रकारिता का एक अयोग्य छात्र
एक-दो मुलाकातों में मैने देखा कि उनके चलने में इतनी ठकुरैती है.... कि जैसे अपनी जाति को किसी बड़ी संख्या के गुणनफल के साथ लेकर चलते हों. ठकुरैती का भारी दंम्भ है उनमे....
जवाब देंहटाएंसर, जब आप खुद ऊपर कह रहे हैं: असल, मुद्दा है-भारतीय भाषा केंद्र और उसके तत्कालीन संचालकों का, जो देश में हिन्दी शिक्षण मठ के बड़े मठाधीश बने रहे हैं। इस संदर्भ में मैने अपने अनुभवों को यहां दर्ज किया है।", फिर इस लंबे लेख में इस तरह की चलातऊ, बेबुनियाद और अनर्गल टिप्पणी- 'वीरभारत अच्छे रिसर्चर रहे लेकिन व्यक्ति, शिक्षक-प्रशासक, दोनों स्तर पर उन्होंने जेएनयू को निराश ही किया।' का क्या मतलब है समझ नहीं पाया?
जवाब देंहटाएंपढ़े. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंआप के आलेख के मार्फ़त अब तक के अदेखा को देखा किया। परवर्ती अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि आपके दृष्टिकोणों से असहमति हो किसी की पर निष्कर्षों को एकदम नाकारा नहीं जा सकता। .... कतई नहीं।
जवाब देंहटाएंपढ़ा जाना चाहिए
जवाब देंहटाएंशुक्रिया.
जवाब देंहटाएंविधेयवादी/ संशोधनात्मक रवैये से बेहतर यह होगा कि उर्मिलेश जी के इस लिखे के कुछ मूलभूत बिन्दुओं को पकड़ा जाए। जहां तक मैंने समझने की कोशिश की है, मुझे तीन बिन्दु स्पष्ट नज़र आए। पहला, नामवर जी एक व्याख्याता की भूमिका को बढ़िया से निभाते थे। इसी से जुड़ा हुआ कि वे बहुत ही उम्दा वक्ता हैं, दूसरा कि वे और उनके समधी केदारनाथ सिंह जातिवादी हैं, चाटुकार-चेला पसंद किस्म के इंसान हैं और तीसरा यह कि 'परंपरागत वामपंथी छात्र-राजनीति' ऐसे लोगों से अमृतवाणी ग्रहण करती रही है। यही जमा तीन बातें इसमें हैं। इससे सहमति-असहमति की गुंजाइश बनती है तो ठीक नहीं तो छीछालेदर की गुंजाइशों की असीमित सूचियाँ हर के पास विद्यमान हैं। कहने को तो मेरी भी कई असहमतियाँ हैं इस लेख से, खासकर तलवार जी का प्रसंग। इतने अच्छे इंसान को जिन्होंने अपनी मेहनत और मेधा का इस्तेमाल व्यक्तिगत गोटियाँ बैठाने और चेला की नैया पार लगाने के लिए कभी नहीं किया, उनके लिए यहाँ माकूल शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया है। लेकिन, मैं इस बिना पर एक नई बहस में कूद पड़ूँ? कूदने से कोई फायदा नहीं क्योंकि यह 'तथ्य' लेख के मूल मन्तव्य को कहीं भी प्रभावित नहीं करता है। और तो और, तलवार जी ने आज तक खुद को शायद ही किसी 'नामवर अभिनंदन ग्रंथ' का हिस्सा बनना स्वीकार किया हो! व्यक्तिविशेष के संस्मरण को आप सिर्फ स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिए अभिशप्त हैं क्योंकि इसमें किसी भी तरह के सहायक साक्ष्य की अनिवार्यता/उपलब्धता को जरूरी नहीं समझा जाता है। इस तरह के लेखन को मैं सिर्फ और सिर्फ 'भावोद्वेलन' मानता हूँ , इसीलिए इसका मेरे लिए महत्व है। भावोद्वेलन को 'व्यावहारिकता' ने बहुत ही ज्यादा 'नुसकान' पहुंचाया है।
जवाब देंहटाएं83-84 के जेएनयू छात्र-आंदोलन की कुछ ध्वनियाँ हमलोगों के कानों तक भी आयी हैं। इस आंदोलन के रचनात्मक योगदानों की उपेक्षा करके शायद ही कुछ महत्वपूर्ण पाया जा सकता है! जैसे, 'Whistleblower' जैसा संगठित कर्म वाला लिटरल कान्सैप्ट इस आंदोलन के पहले शायद ही कहीं और पाया गया होगा!! आज की तारीख़ में Whistleblowers एक बहूप्रचारित और राज्य-स्वीकृत आंदोलनकारी तबके का पर्याय हो गया है।
उर्मिलेश जी ने जिस 'दंश' को उजागर किया है निश्चित तौर पर खोखली और अहंकारी दम्भी सोच से निकलते आदर्श की (निजी कमपनियों के लिए तो अध्यक्ष/ निदेशक की नियुक्ती तो हो सकती थी पर जे.एन. यु. जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थान के लिए तो बिलकुल नहीं) तो जिस विभाग की नींव ही (घूर) में पड गयी हो तो उससे निकलना, संघर्ष की अपेक्षा करना ही बेमानी है. पांडे जी कितने भी उदार होते पर सिंह साहब के मन पर शायद ही असर कर पाते.
जवाब देंहटाएंभारत के सारे विश्वविद्यालय 'नामवरमय' ही रहे हैं . और यही दुर्भाग्य है इस देश का.
और दुखद यह है कि सारे कांड करने के बावजूद वे `प्रगतिशील` बने रहे। उनकी ताकत यही थी कि वे मीडियोकरों को पसंद करते थे, असहमतों से बदले लेते थे, सत्ता प्रतिष्ठानों में काबिज थे, हवा का रुख समझते थे और जाति, इलाका आदि को ध्यान में रखकर रिश्ते बनाए रखते थे और इस तरह हर दक्षिणपंथी इलाके में भी वे विश्वसनीय थे/हैं।
जवाब देंहटाएंहमारे देश में प्रतिभाओं काे अक्सर समर्थ लोगों की पसंद-नापसंद से ही तौला जाता है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस कहानी में हिंदी विभाग को विज्ञान के तमाम विभागों से रिप्लेस कर दिया जाय, और नामवर सिंह के नाम को क्षेत्र के किसी भी धुरंधर के नाम से रिप्लेस कर दिया जाय , तो इसे भारतीय विज्ञान और अनुसन्धान की कहानी की तरह भी पढ़ा जा सकता है, लेकिन फिर वहाँ मामला इससे कई गुना ज्यादा बढ़ा हुआ है , नौकरी से आगे फिर भारी भरकम रिसर्च ग्रांट की भी रोचक कहानियाँ हैं, लेकिन ये सब बाहर नहीं आता, हिंदी और साहित्य की बुरी बातें कम से कम देर-सबेर बाहर आ जाती हैं ।
जवाब देंहटाएंउर्मिलेश जी को साधु वाद. उन्होंने डा नामवर सिंह के छद्म वामपंथ और वास्तव में सामंतवाद की अच्छी बखिया उधेडी है. मैं जनेवि में उर्मिलेश जी का लगभग समकालीन था. तिहाड़ जेल में १० दिनों का कारावास उनके साथ मैंने भी भोगा था. मैं उन दिनों अ.भा.वि.प. में सक्रिय था, लेकिन पीएसओ के नेताओं से भी मेरा गहरा परिचय था.
जवाब देंहटाएंविपरीत परिस्थितियों से गुजरते हुए भी आप इस समाज में, साहित्य और पत्रकारिता की दुनियां में जगह बना सके, इसके लिए आपको बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है ....आपकी जीवन यात्रा पढ़ कर ....अपनी सहनीय हो जाती है ...लिखने के लिए साधुवाद
जवाब देंहटाएंबेहद सधा हुआ लेखकीय व्यक्तित्व••••
जवाब देंहटाएंMadhy Bihar me jatiya hinsa par shodh ke darmyan mujhe BIHAR KE SACH se kaphi madad mili
जवाब देंहटाएंMadhy Bihar me jatiya hinsa par shodh ke darmyan mujhe BIHAR KE SACH se kaphi madad mili
जवाब देंहटाएंमैने भी, जीवभर एक सामान्य मजदूर रहकर, जिन्दगी मे बहुत से उतार-चढाव देखे हैं। और अब मुझे, देश की राजनीती की तरह ही, जनवादी मीडिया से भी विश्वास खत्म हो चुका है। क्योंकि इनमे से अध्किांश की विचारधरा भी अब........भzष्ट, नग्न, अश्लील, उदण्ड और हत्यारी राजनीती की तरह ही,
जवाब देंहटाएंदेश की सत्तर प्रतिशत आम जनता का उपहास सा उडाती प्रतीत होती है।
और मुझे, इस काण्ड के बाद समझ मे नहीं आ रहा है कि यदि........बचे-खुचे बु¼िजीवी ; क्योंकि, बु¼िजीवियों का निन्यानवे प्रतिशत भाग, मैरी नजर मे भzष्ट और चरित्राहीन सुविधभोगी आर वासना-विलासिताप्रीय हो चुका हैद्धभी इस तरह की जलील हरकतें करने लगें ........तब तो, इस देश की लाचार, विवश, असहाय, अशक्त, कमजोर, गरीब महिलाओं और बच्चियों का तो भगवान ही मालिक है।
मेरी बात का बुरा मत मानना। आप भले ही किसी व्यक्ति विशेष से नपफरत ना करते हों। पर मैं प्रत्येक बु¼िजीवी से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नपफरत करता हWू।
जवाब देंहटाएंक्योंकि वह ऐ श्रम जीवी की तरह मेहनती नहीं होते। बल्कि बु¼िचातुर्य से ही, अपनी पगार के अलावा, कम से कम पांच सौ रूपया,
हम मेहनतकशों को बरगलाकर कमा लेते हैं।
Åपर का हाल तो और भी भयावह है। वो आप स्वयं भी देख रहे होंगे।
इन्सानियत और पाश्विकता के इस खेल मे.........विश्व की हर किताब एसी होती है, जो इन्सान को सच्चाई से वाकिपफ करा के, उसे इन्सान बनने मे सहयोग प्रदान कर सके।
जवाब देंहटाएंइन्सानियत का प्रश्न सदेव उसकी अन्तरात्मा से जुडा होता है। वह किसी किताब या प्रचलित रितियों, परम्पराओं, प्रथाओं के आधर पर नहीं चलता, बल्कि........व्यक्ति के अपने विवेक, साहस, और अन्तरात्मा की आवाज पर काम करता है। जबकि रूढिवादी और विलासीय व्यक्ति का, व्यैक्तिक स्तर पर, कभी भी कोई.......संवेदनशील नैतिक और सामाजिक चिन्तन ही नहीं होता। इसलिये वो.......सिपर्फ अपनी वस, अपनी विलासिता, अपनी सुविधभोग के कारण.......अमानुषिक रूढियों के गुलाम, अनाचार की सभ्यता के पोषक हो जाते हैं।
और समाज मे, इन घzणित, अनैतिक, अनाचारी, दुराचारी कार्यों का जन्मदाता........सदेव बु¼िजीवी वर्ग होता है। या तो वह स्वयं ही शक्ति और सामथ्र्य का मालिक होता है, या पिफर, शक्ति और सामथ्र्य का गुलाम । बस, एसे ही लोग.........समाज के शिक्षित, पद-प्रतिष्ठित, सभ्य-सभzान्त व्यक्ति कहलाते हैं..........जबकि इनमे से एक बात भी........इन तमाम महानुभावों के कर्म, चरित्रा और व्यक्तित्व मे नहीं पाई जाती, और यही, हर शैतान का छद~म सामाजिक रूप होता है। जबकि वह कहीं से कहीं तकनैतिक और सामाजिक होता ही नहीं है।
विश्व के अध्किांश ध्र्मगzन्थ, उनके इतिहास, का अध्किांश भाग.......कुलीनों@ अभिजात्यों की इसी अमानुषिकता, अनाचार, दुराचार के कारनामों को भी, सदाचार मानते हुऐ, किस्से-कहानियों के माध्यम से, बडाचढा कर प्रस्तुत करना, और सर्वहारा जनता को बेवकूपफ बनाना, सदेव ही सत्ता पोषित इतिहासकारों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्राकारों की चाटुकारिता का परिणाम रहा है। जो आज भी समाज के चाटुकार वर्ग मे पाया जाता है।
किन्तु उनका इतिहास या उनका लेखन, समाज को, वास्तविक स्थिति से दूर भटकाकर, उन्हे सदा के लिये.......कायर और ध्र्मभीरु बनाने का ही एक प्रयास होता है। बांकि कुछ नहीं। क्योंकि हिंजडे, चाहे वह लेखन करते हों या पत्राकारिता.......राजनैतिक और धर्मिक भय से भयभीत होकर, या चाटुकारिता के कारण.......कभी भी समाज को वास्तविकता से अवगत नहीं कराते। इस तरह वो भी शासकों@सामन्तों@ महन्तों की तरह, समाज को दिशाभzमित कर,......जन सामान्य को, उनके........मौलिक, दैहिक, जैविक अध्किारों से वंचित कर देते हैं।
इन्सानियत और पाश्विकता के इस खेल मे.........विश्व की हर किताब एसी होती है, जो इन्सान को सच्चाई से वाकिपफ करा के, उसे इन्सान बनने मे सहयोग प्रदान कर सके।
जवाब देंहटाएंइन्सानियत का प्रश्न सदेव उसकी अन्तरात्मा से जुडा होता है। वह किसी किताब या प्रचलित रितियों, परम्पराओं, प्रथाओं के आधर पर नहीं चलता, बल्कि........व्यक्ति के अपने विवेक, साहस, और अन्तरात्मा की आवाज पर काम करता है। जबकि रूढिवादी और विलासीय व्यक्ति का, व्यैक्तिक स्तर पर, कभी भी कोई.......संवेदनशील नैतिक और सामाजिक चिन्तन ही नहीं होता। इसलिये वो.......सिपर्फ अपनी वस, अपनी विलासिता, अपनी सुविधभोग के कारण.......अमानुषिक रूढियों के गुलाम, अनाचार की सभ्यता के पोषक हो जाते हैं।
और समाज मे, इन घzणित, अनैतिक, अनाचारी, दुराचारी कार्यों का जन्मदाता........सदेव बु¼िजीवी वर्ग होता है। या तो वह स्वयं ही शक्ति और सामथ्र्य का मालिक होता है, या पिफर, शक्ति और सामथ्र्य का गुलाम । बस, एसे ही लोग.........समाज के शिक्षित, पद-प्रतिष्ठित, सभ्य-सभzान्त व्यक्ति कहलाते हैं..........जबकि इनमे से एक बात भी........इन तमाम महानुभावों के कर्म, चरित्रा और व्यक्तित्व मे नहीं पाई जाती, और यही, हर शैतान का छद~म सामाजिक रूप होता है। जबकि वह कहीं से कहीं तकनैतिक और सामाजिक होता ही नहीं है।
विश्व के अध्किांश ध्र्मगzन्थ, उनके इतिहास, का अध्किांश भाग.......कुलीनों@ अभिजात्यों की इसी अमानुषिकता, अनाचार, दुराचार के कारनामों को भी, सदाचार मानते हुऐ, किस्से-कहानियों के माध्यम से, बडाचढा कर प्रस्तुत करना, और सर्वहारा जनता को बेवकूपफ बनाना, सदेव ही सत्ता पोषित इतिहासकारों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्राकारों की चाटुकारिता का परिणाम रहा है। जो आज भी समाज के चाटुकार वर्ग मे पाया जाता है।
किन्तु उनका इतिहास या उनका लेखन, समाज को, वास्तविक स्थिति से दूर भटकाकर, उन्हे सदा के लिये.......कायर और ध्र्मभीरु बनाने का ही एक प्रयास होता है। बांकि कुछ नहीं। क्योंकि हिंजडे, चाहे वह लेखन करते हों या पत्राकारिता.......राजनैतिक और धर्मिक भय से भयभीत होकर, या चाटुकारिता के कारण.......कभी भी समाज को वास्तविकता से अवगत नहीं कराते। इस तरह वो भी शासकों@सामन्तों@ महन्तों की तरह, समाज को दिशाभzमित कर,......जन सामान्य को, उनके........मौलिक, दैहिक, जैविक अध्किारों से वंचित कर देते हैं।
बेहतरीन लेख ...
जवाब देंहटाएंउर्मिलेश जी के इस लेख ने हिंदी साहित्य और मीडिया के ताने-बाने को बेहतरीन तरीके से बुनने की कोशिश की है. उनके अनुभव और ये बेबाकी लेख समाज के एक ढ़र्रे को एक बार जरूर सोचने के लिए मजबूर करेगी।
जवाब देंहटाएंअब का कहें भाई जी ? आप तो सारा आस्था ही तोड़ दिए रहे ! भक्क .... बहुत दरद हुआ जी !
जवाब देंहटाएंधन्य हो, उर्मिलेश जी आप अपनी जाति न बताते भी बता गये कि आप यादव हैँ ,वाह। .....और आपके पिता जी दलितोँ के मददगार रहे हैँ....... जैसे कि सभी उच्तर जाति के लोग बखान कर अपनी जाति को छद्म रूप से ऊँचा दिखाते हैं कि कम से कम वो या आप दलित नहीं हैं
जवाब देंहटाएंउर्मिलेश जी आप की संघर्ष कथा और नामवर सिंह की असलियत आप के शब्दों में पढ कर आश्चर्य नहीं हुआ , क्योंकि मैं ने स्वयम् देखा और अन्याय भुगता है । मैं भी आप की तरह भुक्तभोगी हूं ।जेएनयू पर मेरा उपन्यास रेत के टीले पढें ,जिसे नमन प्रकाशन ने सन 2005 में छापा था .
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी आपके साथ उसी इतिहास को दोहराया गया, जिससे आप 26 साल से गुजरते रहे. दलित पिछड़े लोगों की कहानी हमें मिलती जुलती क्यों लगती है? क्योंकि शोषकवर्ग की मानसिकता में कोई अंतर नहीं है.
जवाब देंहटाएंसंघी मनुवादी जालसाजों ने आपका रास्ता रोका है, लेकिन मुझे उम्मीद है, आप शिक्षक तो नहीं पर कुलपति अवश्य बनेंगे!
जय जोहार!
पत्रकारिता शोधार्थी
अमित, छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी आपके साथ उसी इतिहास को दोहराया गया, जिससे आप 26 साल से गुजरते रहे. दलित पिछड़े लोगों की कहानी हमें मिलती जुलती क्यों लगती है? क्योंकि शोषकवर्ग की मानसिकता में कोई अंतर नहीं है.
जवाब देंहटाएंसंघी मनुवादी जालसाजों ने आपका रास्ता रोका है, लेकिन मुझे उम्मीद है, आप शिक्षक तो नहीं पर कुलपति अवश्य बनेंगे!
जय जोहार!
पत्रकारिता शोधार्थी
अमित, छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी आपके साथ उसी इतिहास को दोहराया गया, जिससे आप 26 साल से गुजरते रहे. दलित पिछड़े लोगों की कहानी हमें मिलती जुलती क्यों लगती है? क्योंकि शोषकवर्ग की मानसिकता में कोई अंतर नहीं है.
जवाब देंहटाएंसंघी मनुवादी जालसाजों ने आपका रास्ता रोका है, लेकिन मुझे उम्मीद है, आप शिक्षक तो नहीं पर कुलपति अवश्य बनेंगे!
जय जोहार!
पत्रकारिता शोधार्थी
अमित, छत्तीसगढ़
पूरी व्यवस्था का यही हाल है सर। उम्मीद की किरण किधर न किधर रास्ता बना देती है।
जवाब देंहटाएंसर आप को बहुत सालो से पड़ता औऱ सुनते आए हुआ यहां जानकारी नही था। आप के इस लेखक से हमको एक नई दृष्टि मिलेगी ।
जवाब देंहटाएंAapki kahani har us yuva ke liey prerna hai jo yogta ke bavjud naukri nahi le pate hain aur nirasha ke karan suicide kar lete hain.
जवाब देंहटाएंएक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग
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