18 जनवरी 2010

स्वास्थ्य पर घटे बाजार का प्रभुत्व

डॉ. ए.के. अरुण
 
न दिनों भारत ही नहीं, लगभग पूरी दुनिया गंभीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावा नये उभर रहे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपा रही हैं। इन रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ और ‘गरीबों के लिए स्वास्थ्य’ की जगह अब चुनिन्दा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा (एस.पी.एच.सी.) ने ले ली है। पहले स्वास्थ्य का जिम्मा बहुत हद तक सरकार के पास था। अब इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है। निजी बीमा कम्पनियां एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिए धन उपलब्ध करा रही हैं। भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे कभी आर्थिक सुधारों के केन्द्र में नहीं रहे हैं, बल्कि इन्हें तो सुधारों के मुख्य लक्ष्य, निवेश और विकास की राह में बाधक माना जाता है। हम देख रहे हैं कि 1991 के आर्थिक सुधारों का जन स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है।
भारत में अब भी संक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक है। टी.बी. संक्रमण की वार्षिक दर आज भी 1.5 फीसद से ज्यादा है। विश्व औसत से यह दर लगभग दोगुनी है। भारत में प्रत्येक वर्ष करीब 15 करोड़ टी.बी. रोगियों की पहचान होती है। इनमें से सालाना 3 लाख अकाल मनुष्य के शिकार होते हैं। यहां कुष्ट रोगियों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा है। यह दुनिया के कुल कुष्ट रोगियों की संख्या का एक तिहाई है। प्रत्येक वर्ष दस्त से ही मरने वाले बच्चों की संख्या लगभग 5 लाख है। पोलियो के उन्मूलन कार्यक्रम को ही देखें, तो 1995 से चल रहे इस कार्यक्रम पर काफी खर्च करने के बाद भी पोलियो से मुक्ति की घोषणा करने की स्थिति नहीं बनी है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार पोलियो उन्मूलन अभियान पर प्रत्येक वर्ष 1100 करोड़ रूपये खर्च होते हैं, लेकिन नीतिगत खामियों की वजह से पोलियो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा।
एच.आई.वी./एड्स को लेकर भारत में चर्चित विवाद आंकड़ों, उसके नाम पर हो रहे खर्च और एड्स रोकथाम के सुझावों आदि को लेकर बना ही हुआ है। प्रत्येक वर्ष मलेरिया, डेंगू और कालाजार विकराल रूप धारण करता है। हजारों जानें जाती हैं लेकिन हम अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी सोच को जनपक्षीय नहीं बना पा रहे। मलेरिया 1947 में भारत में भयानक रूप में था। 7.5 करोड़ प्रभावित लोगों में आठ लाख लोग मौत के शिकार हुए थे। सन 1964 तक आते-आते यह नियंत्रित हो चला था, लेकिन अब फिर मलेरिया घातक रूप से फैल रहा है। इतना ही नहीं, मलेरिया की जानलेवा प्रजाति ‘फैल्सिफेरम मलेरिया’ के मामले बढ़ रहे हैं। कालाजार भी 1960 तक खत्म हो चुका था, लेकिन इधर कालाजार के मामले 77 हजार से बढ़ गए हैं और मौतों का आंकड़ा भी बढ़ा है।
भूमंडलीकरण के दौर में ये स्थितियां और विकट हुई हैं। आज देश में 13 से 20 करोड़ ऐसे लोग हैं, जो अपना इलाज पैसे देकर करा सकने की स्थिति में नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1995 की वार्षिक रिपोर्ट पर गौर करें। इस रिपोर्ट में अत्यधिक गरीबी के अन्तरराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना गया है। इसे जेड 59.5 का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों और एक ही देश के लोगों के बीच दूरी भी बढ़ती जा रही है। इससे स्वास्थ्य समस्याएं और गंभीर हुई हैं। एक आंकड़े के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन में से दो बच्चे कुपोषित हैं। गिनती में यह संख्या सात करोड़ है। विश्व में 17 प्रतिशत कुपोषित बच्चों में से 40 प्रतिशत बच्चे तो भारतीय हैं। आर्थिक सुधारों का कमजोर वर्ग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। सन 2000 के बाद भी 6 से 24 माह आयु के बच्चों और गर्भवती महिलाओं में कुपोषण की समस्या बढ़ी ही है। कुछ प्रमुख राज्यों (आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आ॓डीशा, पंजाब, राजस्थान) में नवजात शिशु मृत्यु दर भी बढ़ी है। भारत में मुक्त व्यापार व्यवस्था का लाभ उठा कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने तीसरी दुनिया के देशों में असुरक्षित और पुरानी दवाओं, संक्रमित खाघ पदार्थों का अम्बार लगा दिया है। इस खेल में हमारी सरकार इनकी जूनियर पार्टनर बन गई है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को डब्ल्यूएचआ॓ और संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता मिलने से दूसरों के साथ मिलकर ये संस्थाएं न्यूनतम जोखिम उठाकर अपने निवेश का भरपूर लाभ ले रही हैं।
इस पृष्ठभूमि में आम लोगों की सेहत और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की जवाबदेही की बात बेमानी लगती है, लेकिन जनहित की बात करने वाले जनसमूह और वैकल्पिक धारा के जिम्मेदार लोगों, लोगों के संगठन के समक्ष स्थिति का ब्योरा रखकर एक व्यापक पहल और प्रक्रिया की उम्मीद करना जरूरी है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा के दूसरे क्षेत्रों पर कम्पनियों की बुरी नजर का दुष्परिणाम हर अमीर-गरीब को भुगतना होगा। समाजवाद को अप्रासंगिक मान चुका साम्राज्यवाद अब जब कभी लड़खड़ाने लगता है, तो लोग फिर समाजवाद की तरफ देखने लगते हैं। स्वास्थ्य जैसा जरूरी क्षेत्र सीधे जीवन से जुड़ा है, उस पर बाजार का प्रभुत्व कम हो, ऐसे प्रयास की जरूरत है।

15 जनवरी 2010

इंडिया, भारत और मैनहट्टन

देविन्दर शर्मा

देश ने जब उदारीकरण के रास्ते पर चलना तय किया, उसके ठीक बाद तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने सदन में जो भाषण दिया उसके पहले पैरे में उन्होंने कहा कि कृषि हमारा मुख्य सेक्टर है और इसे जब तक बिल्ड अप नहीं किया जाएगा देश की अर्थव्यवस्था किसी कीमत पर उन्नत नहीं हो सकेगी। लेकिन वे यह कहना भी नहीं भूले कि कृषि राज्य का विषय है और इसे विकसित करने में राज्य की भूमिका अधिक होगी। अगले पैरे में उन्होंने यह कहा कि इंडस्ट्री ग्रोथ की कितनी जरूरत है और इसके लिए क्या-क्या किए जाने चाहिए। लेकिन वे जानबूझकर यह कहने से बचे कि इंडस्ट्री भी राज्य का ही विषय है। उनके उस भाषण का यही निहितार्थ था कि केंद्र के लिए कृषि से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण इंडस्ट्री होगी। 18 साल बाद आज हालत यह है कि कृषि के अधिकतम रकबे को कारपोरेट खेती में तब्दील करने की पहल की जा रही है।
देश में कृषि की हालत आज बदतर है। 1997 से लेकर आज तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार जानबूझकर ऐसा माहौल रच रही है जिससे किसान खेती छोड़ें और उन्हें मजदूर में तब्दील कर दिया जाए। सरकार की कोशिश है कि चालू पंचवर्षीय योजना के अंत तक 40 फीसद किसान खेती से मुंह मोड़ लें। पिछले बजट में वित्त मंत्री ने देश में 1000 आईटीआई खोलने की बात कही। यह एक सोची समझी साजिश है ताकि आगे किसानों को खेती से निकाल मजदूर बनाने की प्रक्रिया आसान हो सके। लेकिन विश्व बैंक का एक आकलन देखिए। उसका कहना है कि 2015 तक भारत में गांव से शहर पलायन करने वाले लोगों की संख्या जर्मनी, फ्रांस और इंगलैंड की आबादी से दुगुनी यानी करीब 40 करोड़ होगी। अब सरकार यह बताए कि इस आबादी को रोजगार कौन देगा। आईटीआई के बूते क्या यह हो सकेगा? फिर हमारी जो नीतियां है वह शहरों से भी गरीबों को खाली करने की है। ऐसे में इस पूरी आबादी का क्या होगा। दरअसल हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसमें इस आबादी के लिए कोई जगह नहीं होगी? वे क्या करेंगे आ॓र उनकी हालत कितनी भयावह होगी यह बताना अभी संभव नहीं जान पड़ता।
उदारीकरण की नीतियों पर चलते हुए सरकार खाघ सुरक्षा आयात पर निर्भर बनाना चाहती है। वह चाहती है कि 2010 के अंत तक हम 30 फीसद फुड आयात करें। आज प्रधानमंत्री कारपोरेट कल्चर की अधिक बात करते हैं। वे जिस रास्ते पर देश को ले जा रहे हैं वह हमें ऐसे मुकाम पर पहुंचयगा जब खेती इंडस्ट्री पर निर्भर हो जाएगी। उदारीकरण के बाद आर्थिक गिरावट से बड़ी कोई चिंता नहीं रह गई है। शायद कोई दिन प्रधानमंत्री का ऐसा नहीं गुजरता जब वे किसी उघोगपति से बात नहीं कर रहे होते हैं। पानी, बीज, खाद सब चीजों से जुड़ी नीतियां कारपोरेटरों के पक्ष में है और किसानों के खिलाफ। वायदा कारोबार शुरू कर दिये जाने से किसानों को उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा। किसान अब मंडी में अपने अनाज नहीं बेच पा रहे। कई राज्यों ने मंडी व्यवस्था से किनारा कर लिया है। अब किसानों को सीधे कारपोरेट कंपनियों को अपना उत्पाद बेचना पड़ रहा है। सरकार कमोडिटी एक्सचेंज, कांट्रेक्ट फार्मिंग, फुड रिटेल चेन जैसी व्यवस्था करना चाहती है। 1991 के बाद सारी सरकारों का रूझान यही रहा है कि मार्केट खेती को कंट्रोल करे और ऐसा हो भी रहा है।
स्वामीनाथन जैसे कृषि वैज्ञानिक भी स्पेशल इकानॉमिक जोन की तरह स्पेशल एग्रीकल्चर जोन यानी साज बनाने की बात कर रहे हैं लेकिन ऐसा करना भी कारपोरेट कृषि को आगे बढ़ाना ही होगा और इससे देश के किसानों का कोई भला नहीं होने वाला। हमारा 10 फीसद फुड प्रोडक्शन ट्रेड में जाता है। दुनिया में कुल अनाज व्यापार में हमारा हिस्सा 0.7 फीसद है। बड़े पैमाने पर साज का गठन हो भी जाए तो भी यह हिस्सेदारी 3 फीसद से अधिक नहीं हो सकती। दरअसल साज का असल फायदा न देश को मिलेगा और न किसानों को। सारा लाभ बस व्यापारी उठाएंगे। आज नक्सलवाद की जो व्यापाक प्रसार हो रहा है उसकी जड़ में सरकार की आर्थिक नीतियां ही हैं। सरकार ने जल, जंगल और जमीन तीनों को इस कदर तबाह किया है कि लोग बंदूकें उठा रहे हैं। 2004 में 161 जिले नक्सल प्रभावित थे आज यह संख्या 230 क्रास कर चुकी है। योजना आयोग का कहना है कि देश में 300 जिले ऐसे हैं जहां किसी न किसी रूप में आतंक राज है। जाहिर है यह सारी स्थिति इस आ॓र इशारा करती है कि हमारे विकास का मॉडल ठीक नहीं है। इसे कृषि आधारित होना चाहिए था। आज देश के अंदर में इंडिया और भारत के साथ मेनहटन की मौजूदगी भी है। यह मेनहटन देश के 100 से अधिक स्पेशाल जोन वाले हिस्से हैं जो रजवाड़े की तरह काम कर रहे हैं।
जहिर है यह स्थिति बदलनी होगी अन्यथा समस्याएं बढ़ेंगी। सबसे जरूरी यह है कि खेती को टिकाउ और इकानॉमिक बनाना होगा। सरकार को कंपनियों के हित में सोचना बंद करना चाहिए। यह बिलकुल संभव है। आंध्र प्रदेश के सीएमएसए यानी कम्युनिटी मैनेज्ड सस्टनेबल एग्रीकल्चर मॉडल से हमें सीख लेनी चाहिए। इसके तहत राज्य के 18 जिले में 3 लाख से अधिक किसान खेती कर रहे हैं। इस खेती के अंतर्गत कंपनियों के खाद, कीटनाशकों आदि का प्रयोग नहीं किया जाता। कुल मिलाकर कोई भी कृत्रिम और व्यवसायिक चीज नहीं अपनाई जाती। ऐसा होने पर भी न तो पैदावार में किसी किस्म की कमी आई है और न ही किसी किस्म के कीड़-मकोड़े का प्रकोप देखा गया है। इस मॉडल के तहत खरीफ में 14 लाख एकड़ और रबी में 20 लाख एकड़ भूमि पर खेती की गई। यह आंकड़ा बताता है कि इसका विस्तार हो रहा है। यहां के किसानों द्वारा स्वास्थय पर किये जाने वले खर्चे में भी 40 फीसद की कमी आई है। यहां के किसी भी गांव में आत्महत्या की कोई खबर नहीं आई है। कुल मिलाकर किसान पर्यावचरण और हेल्थ तीनों के लिहाज से यह कृषि अनुकूल है लेकिन सरकार इस मॉडल की बात नहीं करती, क्योंकि इससे उसकी जीडीपी नहीं बढ़ती। दिलचस्प चीज यह है कि इस मॉडल को लाने में वर्ल्ड बेंक का भी योगदान रहा है, किंतु ऐसा लगता है कि यह गलती से हो गया है, कारण अब वर्ल्ड बैंक भी इसकी बात नहीं करती।
(प्रवीण कुमार से बातचीत पर आधारित, राष्ट्रीय सहारा से साभार.)

14 जनवरी 2010

फेल हो चुका है बाजारीकरण का मॉडल

प्रोफेसर अरुण कुमार
 
वैश्वीकरण की शुरूआत हमारे देश में नब्बे के दशक से नहीं हुई है। यह प्रक्रिया हजारों साल से चल रही है, लेकिन शुरूआती दौर में वैश्वीकरण दोतरफा था। यानी हम दुनिया से लेते भी थे और दुनिया को देते भी थे। 1750 के बाद से यह एकतरफा होता रहा है। हम दूसरे देशों से ज्ञान और विचार तो प्राप्त करते हैं पर वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में हमारा योगदान नगण्य है। ज्ञान, आविष्कार और तकनीक में हम बुरी तरह से पिछड़ गये हैं। पाश्चात्य देशों की नकल करना ही हमारे यहां विकास का पर्याय बन गया है। जब 1947 में हमें आजादी मिली थी, तो उस वक्त भी समाज के समृद्ध तबके का नजरिया था कि पश्चिम के आधुनिकीकरण की गाड़ी बहुत तेजी से जा रही है, किसी भी तरह हम उसे पकड़ लें। इसके विपरीत, गांधी जी का सपना था कि हम अपना अलग रास्ता चुनें। पंडित नेहरू का रास्ता था- पश्चिम के आधुनिकीकरण की हम अंधाधुध नकल करें और विकास को ऊपर से नीचे की आ॓र पहुंचाएं। यानी बड़े-बड़े बांध, बड़े-बड़े संस्थान। इस एकतरफा विदेशीकरण में उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था का रास्ता चुना जिसके दोनों तत्व विदेशी थे।
पूंजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल- दोनों ही पश्चिम से आये हैं। गांधी जी ने कहा था कि आत्मनिर्भर होते हुए हमें अपना विकास करना है, उसकी रफ्तार भले ही कम हो, पर करना हमें अपने तरीके से है। मगर देश को चलाने वालों ने अलग रास्ता चुना। उसी के कारण आज वित्तीय संकट से लेकर तमाम दूसरे संकट हमारे देश में हैं। ’60 के दशक में नक्सलवाद की समस्या आयी, तो ’70 के दशक में दूसरे तरह के असंतोष बढ़े। ’90 के दशक तक वह मॉडल पूरी तरह फेल हो गया। चीन जहां अपने आपको पूरी तरह 180 डिग्री मोड़कर बाजारवाद की गोद में जा बैठा, वहीं सोवियत संघ बिखर गया। इस घटनाक्रम के बाद हमने मिली-जुली अर्थव्यवस्था का मॉडल छोड़ दिया और पश्चिम के बाजारीकरण के मार्ग को पूरी तरह से अपना लिया।
अगर हम दो-चार हजार साल पीछे मुड़कर देखें तो बाजार उस वक्त भी था, लेकिन बाजारीकरण एक नयी चीज है। इसे पिछले 50 साल में हमने तेजी से पकड़ा और सन ’91 के बाद तो हम पूरी तरह इसकी जकड़ में आ गये। आज हमारे सारे सामाजिक ढांचों में भी बाजारीकरण की सोच घुस आयी है। जिस प्रकार पश्चिम में हर चीज को दौलत से तौल कर देखा जाता है कि वह फायदेमंद है या नुकसानदायक है, उसी तरह से हमने अपने हर सामाजिक और सामुदायिक संस्थान को बाजार के हिसाब से बदलना शुरू कर दिया। उदाहरणत: शिक्षा और चिकित्सा को हम आदरणीय व्यवसाय मानते थे, जिसका मूल्य नहीं आंका जा सकता। इसलिए हमारे समाज में शिक्षक और चिकित्सक का दर्जा काफी ऊपर था। बाजारीकरण के बाद लोगों की सोच बदल गयी है। चाहे छात्र हो या मरीज वे देखते हैं कि हम इतना खर्च कर रहे हैं तो हमें क्या मिल रहा है। शिक्षक सोचता है कि हमें तनख्वाह कम मिल रही है तो हम क्लास में क्यों पढ़ाएं, अपना ट्यूशन क्यों न पढ़ाएं। यानी हर किसी के दिमाग में बाजार घुस चुका है। आज हमने अपने समाज को बहुत बड़े पैमाने पर बदल दिया है। इसके कारण रंगीन टीवी, मोबाइल, कम्प्यूटर, नयी कारें आ गयीं, लेकिन क्या इसी को हम विकास मानेंगे? समाज के एक छोटे से हिस्से में समृद्धि तो आ गयी, लेकिन दूसरी चीजों में हम परेशानी के दौर से गुजर रहे हैं। पिछले बीस बरसों में यह असमानता जितनी बढ़ी है, उतनी पहले कभी नहीं थी और खासकर सन 2000 के बाद जब से विश्व बैंक का यह मॉडल लागू हुआ कि विकास किसी भी कीमत पर होना चाहिए, तो हमने विकास दर को तो बढ़ा दिया लेकिन देशवासियों में असमानता उतनी ही तेजी से बढ़ गयी। कॉरपोरेट सेक्टर का योगदान तो जीडीपी में बेतहाशा बढ़ गया, मगर कामगार वर्ग का योगदान दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इसी वजह से हालिया वित्तीय संकट भी आया है।
पर्यावरण की जो कीमत हम चुका रहे हैं, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। शहर बेहद बुरी तरह प्रदूषित हो गये हैं। बच्चों तक को दमा होने लगा है और ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। हम संसाधनों का जिस तरह निजीकरण कर रहे हैं और निजी हाथों द्वारा जिस प्रकार अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है उसके खतरनाक दुष्परिणाम से हम नजर चुरा रहे हैं। आज भी भारत बहुत गरीब देश है, क्योंकि हमारी प्रति व्यक्ति आय पश्चिम का 50वां हिस्सा है। यदि इतने कम उत्पादन स्तर पर ही हमारी नदियां इतनी प्रदूषित हो गयीं, हमारा वायुमंडल इतना प्रदूषित हो गया, तो हमें इस विकास को इस तरह परिभाषित करना ही पड़ेगा कि कार, मोबाइल, टीवी और शापिंग मॉल के होने से विकास हो गया?
जो नयी आर्थिक नीतियां हैं, उसके कारण जहां एक तरफ पर्यावरण का दम घुट रहा है; वहीं दूसरी तरफ गरीबों की आय पर बहुत बुरा असर हो रहा है। उदाहरणत: आ॓डीशा का नियमगिरि पर्वत जो स्थानीय निवासियों के लिए आजीविका का आधार होने के कारण देवतुल्य है, लेकिन सरकार को वहां का बॉक्साइट चाहिए। इस क्षेत्र की जमीन को सरकार खनन के लिए औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को बेचती है जिसको स्थानीय लोगों के हितों से कोई लेना-देना नहीं और वह अंधाधुंध उत्खनन कर पहाड़ को ही खत्म करने पर तुला हुआ है। इससे यह स्वत:सिद्ध है कि मनुष्य की आस्था से इस बाजारवाद में कोई लेना-देना नहीं है।
इस दौर में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक- सभी तरह के सरोकार गौण हैं। विकास भी चंद समृद्ध तबके तक ही सीमित रह जाता है। बाजारीकरण से समाज की आम धारणा खत्म हो गयी है, क्योंकि बाजार का मतलब है- चीजों का लेन-देन। चाहे वह सिगरेट हो या शराब हो या नशीले पदार्थ। बाजारीकरण के इस दौर में वैध-अवैध तरीकों से सभी हाजिर है। बाजार यह नहीं देखता कि ड्रग खरीदनेवाला छोटा बच्चा है, या बड़ा। उसके लिए पैसा ही महत्वपूर्ण है। यह बाजार एक तरफ जहां हाथ में सिगरेट थमाता है, तो सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है, वहीं बीमार पड़ने पर इलाज करवाने से भी सकल ‘डॉलर वोट’ चलता है। ‘एक मनुष्य-एक वोट’ की नीति बाजार में नहीं चलती। जिसके पास जितना पैसा उसका उतना वोट, बाजार आखिरकार इसी सिद्धांत पर चलता है।’ संसद में सरकार कहती है कि हमने विश्व व्यापार संगठन से करार किया है इसलिए इस पर संसद में बहस नहीं हो सकती। इसमें बदलाव तभी संभव है, जब समाज की धारणा बदलेगी और समाज की धारणा बदलने में बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा योगदान होता है। लेकिन हमारे समाज का बुद्धिजीवी तबका अपना ज्ञान और दर्शन- दोनों पश्चिम से ही प्राप्त करता है। तो जब वहां बदलाव आएगा, तभी यहां भी बदलाव आ पाएगा क्योंकि हम अपनी धारणाओं को बहुत पहले ही पीछे छोड़ चुके हैं।
(शशि भूषण से बातचीत पर आधारित, राष्ट्रीय सहारा से साभार)

01 जनवरी 2010

बीते साल

यह साल बहुत हल्का रहा
इतने हल्के रहे रात और दिन
कि चुरा ले गया कोई
पूरा का पूरा बरस
और हमें पता भी नहीं चला

गर्मी में नहीं हुई कोई गर्मी
बारिश में हम उतना भी
नहीं भींगे जितना
कोई पेड़
कोई पुलिया
कोई रास्ता

हर बार की तरह
एक मोड़ तक आते आते
बदल गया पूरा मौसम
एक छत है आदमी के सिर पर
जो नहीं आने देती
पूरा का पूरा मौसम
डस्टबिन में पड़ा है
बीते साल का कैलेंडर
और वहाँ बची रह गई है
कई सालों की जगह ॥