29 मई 2009

मुंबई के झोपड़ पट्टी से एक कहानी

शिरीष खरे, मुंबई से
23 जनवरी 2009 की रात दुनिया के लिये भले एक सामान्य रात रही होगी लेकिन शांतिनगर, मानपूर खूर्द की नूरजहां शेख के लिए नहीं. आखिर इसी रात तो उनके सपनों का कत्ल हुआ था. अपनी सूनी आंखों से खाली जगह को घुरती हुई नूरजहां अभी जहां बैठी हैं, वहां 23 जनवरी से पहले तक 18 गुणा 24 फीट की झोपड़ी थी, जिसमें एक परदा लगा कर कुल दो परिवारों के तेरह लोग रहते थे.
लेकिन एक लोकतांत्रिक देश की याद दिलाने वाले गणतंत्र दिवस के ठीक 3 दिन पहले ही सारे नियम कायदे ताक पर रख कर नूरजहां शेख की बरसों की जमा पूंजी माटी में मिला दी गयी. 26 जनवरी के 3 रोज पहले सरकारी बुलडोजर ने उनकी गृहस्थी को कुचल डाला. अपनी जीवन भर की कमाई को झटके में गंवाने वाली नूरजहां अकेली नहीं थीं. उस रात मानपुर खुर्द की करीब 1800 झुग्गियां उजड़ीं और 5000 लोगों की जमा-पूंजी माटी में मिल गई.अंबेडकरनगर, भीमनगर, बंजारवाड़ा, इंदिरानगर और शांतिनगर अब केवल नाम भर हैं, जहां कल तक जिंदगी सांस लेती थी. अब इन इलाकों में केवल अपने-अपने घरों की यादें भर शेष हैं, जिनके सहारे जाने कितने सपने देखे गये थे. आज हज़ारों की संख्या में लोग खुले आकाश के नीचे अपनी रात गुजार रहे हैं. यह बच्चों की परीक्षाओं के दिन हैं लेकिन शासन ने पानी के पाइप और बिजली के खम्बों तक को उखाड़ डाला. इस तरह आने वाले कल के कई सपनों की बत्तियां अभी से बुझा दी गईं. ताक पर कानूनप्रदेश का कानून कहता है कि 1995 से पहले की झुग्गियां नहीं तोड़ी जाए. अनपढ़ नूरजहां शेख के हाथों में अंग्रेजी का लिखा सरकारी सबूत था. उसे पढ़े-लिखे बाबूओं पर पूरा भरोसा भी था. लेकिन शासन ने बिना बताए ही उसके जैसी हजारों झुग्गियां गिरा दी. नूरजहां की पूरी जिदंगी मामूली जरूरतों को पूरा करने में ही गुजरी है. अपनी उम्र के 50 में से 27 साल उसने मुंबई में ही बिताए. वह अपने शौहर युसुफ शेख के साथ कलकत्ता से यहां आई थी. दोनों 9 सालों तक किराए के मकानों को बदल-बदल कर रहते रहे.नूरजहां अपने शौहर पर इस कदर निर्भर थीं कि उन्हें मकान का किराया तक मालूम नहीं रहता था. 1995 में युसुफ शेख को बंग्लादेशी होने के शक में गिरफ्तार किया गया. जांच के बाद वह भारतीय निकला. पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में उसके इस बस्ती में रहने का उल्लेख किया. युसुफ शेख जरी कारखाने में काम करते हुए समय के पहले बूढ़ा हुआ और गुजर गया. तब नूरजहां की जिंदगी से किराए का मकान भी छिन गया. कुछ लोग समुद्र की इस दलदली जगह पर बसे थे. 18 साल पहले नूरजहां भी अपने 6 बच्चों के साथ यही आ गईं.
इन टूटी झुग्गियों के आसपास मकानों के कई नक्शे दबे रह गए. फिलहाल सस्ती तस्वीरों में दर्ज बेशकीमती कारों वाली हसरतें भी हवा हो चुकी हैं. नूरजहां का पहला बेटा शादी करके अलग हुआ मगर दूसरा उसके साथ है. वह जरी का काम करता है और 1500 रूपए महीने में घर चलाने की भारी जिम्मेदारी निभाता है. उससे छोटी 2 बहिनों ने दसवीं तक पढ़कर छोड़ दिया. आर्थिक तंगी से जूझता नूरजहां का परिवार अब बेहतर कल की उम्मीद भूल बैठा है. मुश्किल भरे दिनउस रोज जब 1 बुलडोजर के साथ 10 कर्मचारी और 20 पुलिस वाले मीना विश्वकर्मा की झुग्गी तोड़ने आए तब उसका पति ओमप्रकाश विश्वकर्मा घर पर नहीं था. उस वक्त मीना सहित बस्ती की सारी औरतों को पार्क की तरफ खदेड़ा दिया गया. मीना ने कागज निकालकर बताना चाहा कि उसकी झुग्गी गैरकानूनी नहीं है. 2008 को दादर कोर्ट ने अपने फैसले में उसे 1994 से यहां का निवासी माना है. लेकिन वहां उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था.बसंती जैसे ही मां बनी, वैसे ही बस्ती टूटने लगी. उसके यहां बिस्तर, दरवाजा, अनाज के डब्बे और टीवी को तोड़ा गया. पीछे से पति हुकुम सिंह ने सामान निकाला लेकिन गर्म कपड़े और खिलौने यहां-वहां बिखर गए. अब बहुत सारे बच्चे खिलौने और किताबें ढ़ूढ़ रहे हैं. हुकुम सिंह सालों पहले आगरा से सपनों के शहर मुंबई आया था जहां 2005 में उसने बसंती से प्रेम-विवाह किया. अब जब उनके जीवन में सबसे सुंदर दिन आने थे, उसी समय जीवन के सबसे मुश्किल दिनों ने दरवाजे पर दस्तक दे दी. अब बसंती भी बाकी औरतों की तरह खुले आसमान में सोती हैं. ओस की बूदों से उसके बच्चे की तबीयत नाजुक है. उसे दोपहर की धूप भी सहन नहीं होती. इन टूटी झुग्गियों के आसपास मकानों के कई नक्शे दबे रह गए. फिलहाल सस्ती तस्वीरों में दर्ज बेशकीमती कारों वाली हसरतें भी हवा हो चुकी हैं. बस्ती के लोग याद करते हैं कि सरकारी तोड़फोड़ से पहले विधायक यूसुफ अब्राहीम ने इंदिरानगर मस्जिद में खड़े होकर कहा था कि आपकी झुग्गियां सलामत रहेंगी. लेकिन अतिक्रमण दस्ते ने इंदिरानगर की मस्जिद को तो तोड़ा ही बस्ती के कई मंदिरों को भी तोड़ा.किस्से सैकड़ों हैंबस्ती तोड़ने का यह अंदाज नया नही है. पहली बार 1993 में शासन ने करीब 500 झुग्गियां तोड़ने की बात मानी थी. मतलब 1995 के पहले यहां कम-से कम 500 परिवार तो थे ही. सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक 1993 से 2008 तक इस बस्ती को 119 बार तोड़ा गया. लेकिन पिछली कार्यवाहियों के मुकाबले इस कार्यवाही से पूरी बस्ती का वजूद हिला गया है.
समुद्र से लगी भीमनगर की जमीन पर बरसों से बिल्डरों की नजर है. लोग बताते हैं कि 1999 के पहले यह जमीन समुद्र में थी जिसे स्थानीय लोगों ने मिट्टी डालकर रहने लायक बनाया. लेकिन 2001 में खालिद नाम के बिल्डर ने दावा किया कि यह जमीन जयसिंह ठक्कर से उसने खरीदी है. वह झुग्गी वालों को यह जमीन बाईज्जत खाली करने की सलाह भी देने लगा. इसी साल उसकी गाड़ी से एक बच्चे की मौत हुई और वह इस केस में उलझ गया. फिर 2008 में बालकृष्ण गावड़े नाम का एक और बिल्डर आया और दावा किया कि जयसिंह ठक्कर के बेटे से उसने यह जमीन खरीदी है. हालांकि मुंबई उपनगर जिला अधिकारी से मिले पत्र में यह जमीन महाराष्ट्र सरकार की संपत्ति के रुप में दर्ज है. ‘समता’ संस्था की संगीता कांबले बताती हैं- “ 1998 में इस बस्ती का रजिस्ट्रेशन हो चुका है. लेकिन वर्ष 2000 का सर्वे महज 2 दिनों में निपटा लिया गया. जबकि इस दौरान यहां के मजदूर काम पर गए थे और कई झुग्गियां खार में फंसे होने के कारण छोड़ दी गईं थीं. उपर से 2005 में आई मुंबई की बाढ़ इन झुग्गियों में रहने वालों के सारे कागजात बहा ले गई. फिर भी यहां के 75 फीसदी लोगों ने साल 2000 के पहले से रहने के सबूत इकट्ठा किए हैं. ऐसे परिवारों को उनकी झोपड़ियों का पट्टा मिलना चाहिए.”कब्जे की होड़“ घर बचाओ-घर बनाओ आंदोलन” ने ‘सूचना के अधिकार’ के तहत जो जानकारियां एकत्र की हैं, उसके अनुसार मुंबई में जगह-जगह बिल्डर और ठेकेदारों का कब्जा है. अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी. इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन शहर में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन 80 साल के लिए लीज पर दी गई. ऐसा ही इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसी तरह मुंबई सेन्ट्रल में बन रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. लेकिन यहां की 12.2 मीटर जमीन डीपी मार्ग के लिए है. यह काम झोपड़पट्टी पुनर्वास योजना के तहत होना है. लेकिन टावर के बहाने गरीबों की करोड़ों रूपए की जमीन घेर ली गई है.
मुंबई को सिंगापुर बनाने का जो सपना देखा जा रहा है, लेकिन शहर के मास्टर प्लान में करोड़ों कामगारों के सपनों को जगह नहीं मिली है.
90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला कांप्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया गया जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन हथियाई गई. आज काम्पलेक्स का कैंपस लाखों वर्ग फिट से अधिक जगह पर फैला हैं. इनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल हैं. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए थी, अब उसे भी छोटे व्यापारियों से छीन लिया गया है.पूरी व्यवस्था कई तरह के विरोधाभासों से भरी हुई है. मानपुर खुर्द जैसी झुग्गियों में रहने वालों को वोट देने का हक तो है लेकिन आवास में रहने का नहीं. मतलब हर पार्टी सत्ता तक पहुंचने के लिए इनका वोट तो चाहती है लेकिन उसके बदले जीने का मौका नहीं देना चाहती. लोग मानते हैं कि मुंबई को सिंगापुर बनाने का जो सपना देखा जा रहा है, वह मेहनजकश मजदूरों के बिना पूरा नहीं हो सकता. फिर भी शहर के मास्टर प्लान में करोड़ों कामगारों के सपनों को जगह नहीं मिली है. एक अघोषित एजेंडा यह है कि शहर की झोपड़पट्टियों को तोड़कर भव्य मॉल और कॉम्पलेक्स बनाए जाएं. लेकिन सवाल है कि इन इमारतों को बनाने वाले कहां जाए ?

26 मई 2009

जन संघर्षों की जीतः

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ की जेल में बंद नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले डॉ विनायक सेन को सोमवार को ज़मानत दे दी है.
न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा की खंडपीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि डॉ सेन को निजी मुचलके पर स्थानीय अदालत से ज़मानत दे दी जाए.
डॉ सेन पिछले दो वर्षों से छत्तीसगढ़ की जेल में बंद हैं. राज्य सरकार का आरोप है कि उन्होंने राज्य में सक्रिय माओवादियों की मदद की है और उनके समर्थक रहे हैं.
पर डॉक्टर बिनायक शुरु से राज्य सरकार के आरोपों का खंडन करते रहे हैं और कहते रहे हैं कि वो नक्सलियों का साथ नहीं देते लेकिन वो साथ ही राज्य सरकार की ज्यादतियों का भी विरोध करते रहे हैं.
बिनायक सेन की ज़मानत के बारे में जानकारी देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता कविता श्रीवास्तव ने बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद को बताया, "बिनायक को ज़मानत की ख़बर मानवाधिकारों के लिए लड़ाई कर रहे लोगों के लिए इस मामले में पहली जीत है. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट से आदेश मिला है जिसे आज ही एक कार्यकर्ता के हाथों रायपुर भेजा जा रहा है. मंगलवार को इस आदेश के आधार पर बिनायक रिहा किए जा सकते हैं."
उनकी बेटी अपराजिता सेन ने बीबीसी को बताया, "मेरे लिए और पूरे परिवार के लिए आज का दिन एक भावुक दिन है. दो वर्षों से बिना किसी अपराध के मेरे पिताजी हिरासत में रहे. अब मेरे परिवार को एकसाथ मिलने का मौका मिला है. मैं जल्द से जल्द उनसे मिलना चाहूंगी."
बिनायक का व्यक्तित्व
पेशे से चिकित्सक डॉ बिनायक सेन छात्र जीवन से ही राजनीति में रुचि लेते रहे हैं. उन्होंने छत्तीसगढ़ में समाजसेवा की शुरुआत सुपरिचित श्रमिक नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ की और श्रमिकों के लिए बनाए गए शहीद अस्पताल में अपनी सेवाएँ देने लगे.
इसके बाद वे छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में लोगों के लिए सस्ती चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के उपाय तलाश करने के लिए काम करते रहे.
डॉ बिनायक सेन सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने के लिए बनी छत्तीसगढ़ सरकार की एक सलाहकार समिति के सदस्य रहे और उनसे जुड़े लोगों का कहना है कि डॉ सेन के सुझावों के आधार पर सरकार ने ‘मितानिन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया.
इस कार्यक्रम के तहत छत्तीसगढ़ में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार की जा रहीं हैं.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके योगदान को उनके कॉलेज क्रिस्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर ने भी सराहा और पॉल हैरिसन अवॉर्ड दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए जोनाथन मैन सम्मान दिया गया.
डॉ बिनायक सेन मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की छत्तीसगढ़ शाखा के उपाध्यक्ष भी हैं.
इस संस्था के साथ काम करते हुए उन्होंने छत्तीसगढ़ में भूख से मौत और कुपोषण जैसे मुद्दों को उठाया और कई ग़ैर सरकारी जाँच दलों के सदस्य रहे.
नक्सली आंदोलन और बिनायक
उन्होंने अक्सर सरकार के लिए असुविधाजनक सवाल खड़े किए और नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ चल रहे सलमा जुड़ुम की विसंगतियों पर भी गंभीर सवाल उठाए.
सलवा जुड़ुम के चलते आदिवासियों को हो रही कथित परेशानियों को स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया तक पहुँचाने में भी उनकी अहम भूमिका रही.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाक़े बस्तर में नक्सलवाद के ख़िलाफ़ चल रहे सलवा जुड़ुम को सरकार स्वस्फ़ूर्त जनांदोलन कहती है जबकि इसके विरोधी इसे सरकारी सहायता से चल रहा कार्यक्रम कहते हैं. इस कार्यक्रम को विपक्षी पार्टी कांग्रेस का भी पूरा समर्थन प्राप्त है.
छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने 2005 में जब छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम लागू करने का फ़ैसला किया तो उसका मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिनायक सेन भी थे.
उन्होंने आशंका जताई थी कि इस क़ानून की आड़ में सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.
उनकी आशंका सही साबित हुई और इसी क़ानून के तहत उन्हें 14 मई 2007 को गिरफ़्तार कर लिया गया था .
बीबीसी हिन्दी से साभार

11 मई 2009

भारतीय पुलिस और डॉ विनायक सेन के जीवन पर खतरा

यह पत्र डॉ विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन द्वारा 22 अप्रैल, 2009 को भेजा गया है।
प्यारे साथियो,

मैं कुछ बेहद पीडाजनक अनुभवों को यहां आपके साथ बांट रही हूं। हमारे पास इसके स्पष्ट प्रमाण हैं कि छत्तीसगढ पुलिस विनायक सेन की स्वास्थ्य की देखभाल की जरूरतों में सक्रिय हस्तक्षेप कर रही है. मैं तथ्यों को आपके सामने रख रही हूं.कई वर्षों से हाइपरटेंसिव के मरीज रहे विनायक रायपुर में एकमात्र कार्डियोलॉजी में डीएम डॉक्टर आशीष मलहोत्रा, जो निजी तौर पर चिकित्सा कर रहे हैं, के यहां कार्डियाक एसेसमेंट टेस्ट के दौरान एंजाइना से ग्रस्त पाये गये. वे 2007 में और उसके बाद अपने डॉक्टर द्वारा बतायी गयी दवाएं ले रहे थे. जेल में 2008 के दिसंबर और इस वर्ष जनवरी-फरवरी में कभी-कभी व्यायाम के बाद उन्हें सीने में और बायें हाथ में झुनझुनी दर्द की शिकायत हुई. उन्होंने जेल अधिकारियों को इसकी सूचना दी और जब इस बारे में कुछ भी ठोस नहीं किया गया (जेल अस्पताल में सुविधाएं नहीं हैं) उन्होंने अदालत को इसकी सूचना दी. उनकी ओर से 17 फरवरी, 2009 को एक आवेदन इस आग्रह के साथ अदालत में दाखिल किया गया कि उन्हें अपनी पसंद की सुविधाओंवाले अस्पताल में-सीएमसी, वेल्लोर को तरजीह देते हुए-इलाज कराने की इजाजत जेल अधिनियम-1894 की धारा 39-ए के तहत दी जाये, जो जेल अधीक्षक को कैदी अथवा उसके परिवार द्वारा बांड भरे जाने और अधीक्षक द्वारा रखी गयी शर्तों की बाध्यता के साथ उन्हें अपनी पसंद के इलाज की अनुमति देने में सक्षम बनाता है. 20 फरवरी, 2009 को जज ( इस मामले को देख रहे 11वें अतिरिक्त जिला व सत्र न्यायाधीश बीएस सलूजा) ने जेल अधिकारियों को विनायक सेन के हृदय की स्थिति के बारे में मेडिकल बोर्ड की राय हासिल करने का आदेश दिया, ताकि विनायक के आवेदन पर सही निर्णय लिया जा सके.विनायक 20 फरवरी, 2009 और 17 मार्च, 2009 के बीच कभी रायपुर जिला अस्पताल ले जाये गये, जहां उन्हें देखनेवाले डॉक्टरों ने इसीजी और इकोकार्डियोग्राफ की सलाह दी.17 मार्च को विनायक ने अदालत से शिकायत की कि उनके इलाज के आग्रह पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है और यह कहते हुए वे थोडे भावुक हो गये कि उन्हें लगता है कि कोर्ट के लिए उनके जीवित रहने या मर जाने का कोई अर्थ नहीं है. जज भी समान रूप से विचलित थे और मैं सबूतों के रखे जाने और आरोपित के वापस जेल ले जाये जाने के बाद उनसे निजी तौर पर मिली ताकि मैं उन्हें समझा सकूं कि जितना रेकार्ड किया गया है, विनायक की स्थिति उससे कहीं अधिक की मांग करती है. जज नरम दिखे और 18 मार्च को विनायक से अदालत में पूछा कि वे रायपुर में किस डॉक्टर से दिखाना चाहेंगे, जो यह तय करेगा कि उन्हें वेल्लोर के लिए भेजे जाने की जरूरत है या नहीं और इस पर विनायक द्वारा डॉ आशीष मलहोत्रा का नाम लिये जाने के बाद उन्होंने जेल अधिकारियों को आदेश दिया कि वे विनायक को डॉ मलहोत्रा को दिखायें ताकि यह जाना जा सके कि उन्हें आगे के इलाज के लिए रेफर करने की जरूरत है या नहीं.विनायक 25 मार्च को डॉ आशीष मलहोत्रा को दिखाये गये. अदालत के 18 मार्च के आदेश के आधार पर जेल अधीक्षक ने पुलिस से आग्रह किया कि वह विनायक को दिखाने ले जाने के लिए सुरक्षा गार्ड मुहैया कराये. इसके बाद सशस्त्र पुलिस बल से भरी एक बस विनायक को डॉ मलहोत्रा से दिखाने सुबह 10 बजे के करीब ले गयी और मुझे डॉ मलहोत्रा के यहां से पुरानी रिर्पोंटों के लिए 10.30 में फोन आया. मैंने ऐसा किया और अधिकतर कंसल्टेशन के दौरान मौजूद रही. जेल अधीक्षक के आग्रहवाले पत्र कि वे सीएमसी, वेल्लोर रेफर किया जाने, इसीजी, इकोकार्डियोग्राफ और ट्रेडमिल टेस्ट की आवश्यकता पर स्पष्ट राय दें, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विनायक को कोरोनरी आर्टरी डिजीज (सीएडी) है और उन्हें एंजियोग.्राफी और आगे की जांच के लिए वीएमसी, वेल्लोर रेफर कर दिया ताकि एंजियोप्लास्टी/कोरोनरी आर्टरी बाइपास सर्जरी हो सके. मैंने प्रिस्किप्शन की फोटो प्रति अपने रिकार्ड के लिए रख ली, क्योंकि मुझसे पूरी प्रक्रिया के लिए भुगतान करने को कहा गया.मैं विनायक से 26 मार्च को जेल में मिली और दक्षिण भारत में यात्रा के दौरान सुविधाओं पर बात की. मुझे झटका लगा जब अधीक्षक ने कहा कि विनायक की जांच और इलाज वेल्लोर में नहीं, रायपुर में होगा. किसी गलती को महसूस करते हुए मैंने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया कि मुझे जेल और डॉक्टरों के बीच विनायक सेन के इलाज के संदर्भ में हुए पत्राचारों को दिखाय जाये. ये मेरे हाथ में आये अंतिम दस्तावेज हैं.इलाज की कहानी के अंत पर आने से पहले मैं यह बताना चाहूंगी कि जेल ने 31 मार्च को विनायक को रायपुर में एस्कॉटर्स हॉस्पिटल ले जाने की कोशिश की और मेरी पिछली मुलाकात में हुई बातों के अनुसार विनायक ने यह कहते हुए कि, जैसा कि जेल अधीक्षक का भी निर्देश है, वे छत्तीसगढ में कहीं भी इलाज कराने को इच्छुक नहीं हैं क्योंकि इससे उनका जीवन खतरे में पड जायेगा, लिखित तौर पर वहां जाने से इनकार कर दिया. उनका यह जवाब एक टिप्पणी के साथ 31 मार्च को अदालत में आगे के निर्देश के लिए प्रस्तुत किया गया. अदालत ने लोक अभियोजक को इसे भेजते हुए सात दिनों में जवाब देने को कहा. मेरी जानकारी में अब तक ऐसा कोई जवाब नहीं दाखिल किया गया है. विनायक ने डॉ मलहोत्रा द्वारा लिखी गयी दवा (रींीर्ीिंर ीींरींळ)ि लेना शुरू कर दिया और कुछ लाक्षणिक राहत की सूचना दी.आरटीआइ के नतीजों पर आते हैं. मुझे अब डॉ मलहोत्रा का 25 मार्च का मूल रेफरल लेटर मिला है. लेकिन जेल अधीक्षक के नाम उनके सवाल को उद्धृत करता 26 मार्च का एक दूसरा पत्र भी था, जिसमें उन्होंने राय दी है कि एंजियोग्राफी की सुविधाएं छत्तीसगढ में एस्कॉटर्स, अपोलो, भिलाई मुख्य अस्पताल, रामकृष्णा अस्पताल और दो अन्य जगहों पर है. उन्होंने यह भी लिखा है कि उन्होंने डॉ सेन को वेल्लोर इसलिए रेफर किया क्योंकि पत्र उनसे ऐसा करने के लिए कहता था. इससे जुडे सवाल ये हैं : डॉ मलहोत्रा के पास दूसरी बार पत्र क्यों भेजा गया÷ यदि जेल अधीक्षक ने ऐसा पत्र भेजा तो किसने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया÷ यह पूरी तरह अदालत की अवहेलना है. डॉ मलहोत्रा से कोर्ट ने यह जानना चाहा था कि वेल्लोर भेजे जाने की जरूरत है या नहीं, इस पर अपनी राय जाहिर करें. अदालत ने डॉ मलहोत्रा से छत्तीसगढ में मेडिकल सुविधाओं की व्यापकता के बारे में नहीं पूछा था.डॉ मलहोत्रा बेशक दबाव में थे, जब उन्होंने कहा कि उन्होंने विनायक को वेल्लोर रेफर किया था, क्योंकि पत्र उन्हें ऐसा करने को कहता था. किसी मामले में अपने मरीज के साथ हुए या नहीं हुए उनके संवाद विशेषाधिकार प्राप्त सूचना माने जाते हैं.यदि एक डॉक्टर पब्लिक सेक्टर का नहीं है, इस हद तक डराया जा सकता है, जो एस्कॉटर्स, अपोलो आदि के डॉक्टरों को भी कहा जा सकता है, जो कि मेडिकल कॉलेज में स्थापित निजी मेडिकल संस्थान हैं (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के बडे उदाहरण, जिनमें सभी मानव संसाधन सार्वजनिक सेक्टर के होते हैं लेकिन ब्रांड नेम और आगे के लिए रेफरल विकल्प निजी होते हैं).इन हालात में विनायक बिल्कुल सही हैं कि उनका जीवन छत्तीसगढ के किसी सरकारी नियंत्रणवाले अस्पताल में खतरे मे पड सकता है.दरअसल मैं अब चिंतित हूं कि पुलिस/अभियोजक का प्लान ए (विनायक को बदनाम करो और दोषी साबित करो) संकेत दे रहा है कि वे अब प्लान बी (छत्तीसगढ में किसी अस्पताल में इलाज के दौरान किसी से कह कर-जैसे कुछ बूंदों के साथ हवा इंजेक्ट कर के- उनकी हत्या कर दो) लागू करने की कोशिश कर रहे हैं.मैं सभी साथियों से अपील करना चाहूंगी कि विनायक की शारीरिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए इस सामग्री का प्रकाशन करें, इसके बारे में लिखें, उच्च न्यायालयों और राजनेताओं से अपील करें. यह बहुत जरूरी है.मैं यह कहते हुए अंत करना चाहती हूं कि जिसकी हम मांग कर रहे हैं, पसंद के अस्पताल में इलाज का-वह भारतीय न्यायिक इतिहास के लिए अनजान नहीं है. दरअसल रायपुर सेंट्रल जेल से ही हत्या के आरोप में जेल में बंद शिवसेना नेता धनंजय सिंह परिहार को सरकारी खर्च पर केइएम अस्पताल, मुंबई, शंकर नेत्रालय, चेन्नई और तीन दूसरे अस्पतालों में 2003 में इलाज के लिए ले जाया गया था. पुलिस विनायक सेन को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बडे खतरे के रूप में चित्रित कर रही है. क्या हम उसे ऐसा करने देने जा रहे हैं÷
इलीना
अंगरेजी से अनुवाद : रेयाज उल हक मूलतः मंथली रिव्यू की वेबसाइट पर