19 फ़रवरी 2011

यह हमारी सरकार नहीं है


लोदो सिकोका से पुरुषोत्तम ठाकुर की बातचीत
कुनी, उसकी सहेली और माँ, गाँव के पास ही पहाड़ी के नीचे वाली ज़मीन में सरसों के खेत में सरसों के फुल और पत्ती तोड़ रहे थे और तोड़ते-तोड़ते अचानक कुनी चिल्ला उठी- “लोदो दादा आ गये, लोदो दादा आ गये…”

नियमगिरि के इस लाखपदर गाँव में रहकर पिछले चार दिनों से हम इसी खबर का इंतजार कर रहे थे. चार दिन पहले जब हम इस गांव में पहुंचे थे तो पता चला कि लोदो यानी लोदो सिकोका कुछ ही देर पहले भुवनेश्वर के लिये रवाना हो गये थे. वहां किसी बैठक में उन्हें भाग लेना था.

नियमगिरि के डोंगरिया आदिवासी नियमगिरि में बाक्साइट माइनिंग के लिए कोशिश कर रही ब्रिटिश कंपनी वेदांता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं और लोदो सिकोका, नियमगिरि सुरक्षा परिषद के एक प्रमुख नेता हैं.

लोदो पिछले साल अगस्त में पहली बार तब चर्चा में आये, जब वेदांता कंपनी के इशारे पर लोदो को पुलिस उस समय उठा ले गई, जब वह अपने साथियों के साथ एक बैठक में हिस्सा लेने दिल्ली जा रहे थे. उन्हें रायगढ़ पुलिस ने थाना ले जाकर मरते दम तक पीटा, माओवादी होने का ठप्पा दिया और तब जाकर छोड़ा जब मीडिया से लेकर स्थानीय सांसद और कार्यकर्ताओं ने दबाव बनाया.

सरसों के खेत से गाँव पहुँच कर जब हमने लोदो के बारे में पूछा तो एक ने कहा कि वह भूखे और प्यासे थे और अपनी डोंगर (डोंगर में स्थित अपने खेत) की ओर चले गए हैं. हम भी पीछे चल पड़े. वैसे भी पिछले चार दिनों में हम कई लोगों का डोंगर चढ़ चुके थे, जिनमें लोदो का डोंगर भी शामिल था.

असल में फसल कटाई के इस समय गांव के सभी लोग अपने परिवार समेत अपने-अपने डोंगर में छोटी -छोटी कुटिया और मचान लगाकर रहते हैं. डोंगर में ही वे धान, मड़िया, गुर्जी, कांदुल,अंडी जैसे कई तरह की फसलों को काटकर लाते हैं.

नियमगिरि पहाड़ में रहने वाले ये डोंगरिया आदिवासी डोंगर में ही खेती करते हैं. यहां खेती करना काफी मेहनत का काम है, जिसमें पूरे परिवार को जुटना पड़ता है. डोंगर में क्योंकि जुताई नहीं हो पाती, इसलिए वहां हाथ से कोड़ाई करनी पड़ती है. इसलिए इस खेती में घर के छोटे बच्चे से लेकर बुढ़ों तक का योगदान महत्वपूर्ण होता है.

वहां चार दिन तक रहते हुए हमने इसे और बेहतर तरीके से समझा था. जब बड़े लोग फसलों की कटाई कर रहे थे तब पांच से दस साल के छोटे बच्चे नीचे झरनों से छोटे-छोटे पात्रों में पानी लाने जैसा काम कर रहे थे. जीवन के अंतिम दिनों की ओर बढ़ रहे कई बुजुर्ग महिलायें भी कुछ न कुछ काम करते दिखीं.

डोंगरिया लोगों की प्रकृति पर निर्भरता और प्रकृति से इतना जुड़ाव है कि बाहरी चीजों के उपर इनकी निर्भरता नहीं है. यही वजह है कि जब बाकी देश महंगाई को लेकर इतनी हाय-तौबा कर रहा हैं , तो ये लोग उससे कोसो दूर हैं. वह इसलिये भी क्योंकि इनके जीवन में बाज़ार का हस्तक्षेप नहीं है. इनका बाज़ार से ज्यादा लेना देना नहीं है. वह बाहरी दुनिया से जितना लेते हैं, उससे कहीं ज्यादा देते हैं. पहाड़ के नीचे बसे लोग नियमगिरि के फलमूल और फसल के लिए इंतजार करते रहते हैं. इसलिए महंगाई होने पर उन्हें दो पैसा ज्यादा ही मिलता है कम नहीं. हालांकि बिचौलिए सबसे ज्यादा फायदा उठा लेते हैं, जो इनके उत्पादों को कम मूल्य में इनसे लेकर काफी मुनाफा कमाते हैं.
लोदो के डोंगर में चढ़ाई के दौरान रास्ते में उनका सलप यानी सल्फी का पेड़ है. सलप के पेड़ से निकलने वाला रस पीया जाता है. वहाँ हमने देखा, लोदो पेड़ पर चढ़े हुए हैं और सलप निकाल रहे हैं और नीचे उनके मित्र खड़े हुए हैं, जो उनके साथ ही भुवनेश्वर से लौटे हैं.

हमारे पहुंचते तक लोदो सलप लेकर नीचे आ गये. दुआ-सलाम के बाद छूटते ही कहा- “पिछले चार दिनों से सलप नहीं पिया था इसलिए बहुत प्यास लग रही थी.”

लोदो अपनी भुवनेश्वर यात्रा के बारे में बताने लगे- "वहां सब चीज़ के लिए लाइन में लगना पड़ता था. नहाने के लिए लगना पड़ता था और गरम पानी दिया जा रहा था. पीने के पानी को बोतल में भरकर बेचा जा रहा था, वह भी दस से पंद्रह रुपये में."

“मैंने उन लोगों को कहा कि आप लोग हमारे नियमगिरि आ जाओ, हम आपको एक ट्रेन भर के पानी देंगे, वह भी बिल्कुल मुफ्त. हमारे यहाँ बहुत सारे झरने हैं, जहाँ शीतल और स्वच्छ पानी है. ...इसलिए मैं तो जब तक भुवनेश्वर में रहा, नहाया भी नहीं.”

हम अगर नियमगिरि में नहीं होते तो शायद लोदो की बातों का मतलब समझ नहीं पाते, लेकिन वहां रहने के बाद हम भी महसूस करते हैं कि नियमगिरि जिसे वह नियमराजा भी कहते हैं, उनके लिए कितना उदार है और उन्हें क्या कुछ नहीं दिया है नियमगिरि ने. जो लोग प्रकृति के इतने करीब हैं, वह हम जैसी सोच-समझ वाले कैसे हो सकते हैं, जिनके लिये सब कुछ नफा-नुकसान और व्यापार का विषय है. जिस नियमगिरि को वह अपना भगवान मानते हैं, उसे हमारी सरकार भी तो रुपये के लिए बेचने पर उतारू हो गई है.


हमने रात उनके साथ डोंगर में ही बिताने का निश्चय किया ताकि उनसे लम्बी बातचीत हो सके. ठण्ड का दिन था और उस पहाड़ी में न तो बिजली है और न मोबाइल के लिए नेटवर्क. लाखपदर गाँव में तो सरकार ने एक स्कूल खोलने की भी जरूरत महसूस नहीं की है. कभी यहाँ स्कूल था पर वह कई साल पहले बंद हो गया. जो बच्चे पढ़ना चाहते हैं, उन्हें घंटों पहाड़ी और जंगली रास्ते से गुजर कर दूसरे गाँव के स्कूल में जाना होता है, इसलिए सिर्फ कुछ बच्चे दूर गाँव के आश्रम स्कूल में पढ़ते हैं. बाकी बच्चे तो इस सर्व शिक्षा अभियान के दौर में भी अनपढ़ रहने को मजबूर हैं.


मैं कई बार सोचता हूं कि हमारी सरकारें इन आदिवासियों से इनके जल, जंगल, ज़मीन और खनिज लूटकर वेदांता, टाटा जैसी कंपनियों को देने का फैसला चंद मिनटों में कर लेती है लेकिन आज़ादी के इतने सालों बाद भी इन आदिवासियों के लिये एक स्कूल भी क्यों नहीं खोल पाती ? उल्टे जो कुछ इन आदिवासियों के पास है, उसे भी क्यों लूट लेना चाहती है?

ज़ाहिर है, जो काम कथित तौर पर संवेदनशील, शक्तिशाली सरकार और कल्याणकारी राष्ट्र नहीं कर पा रहा है, उसके लिये एक ऐसी कंपनी से उम्मीद करना तो बेमानी है, जो खनिज और वन संपदा को निचोड़ कर मुनाफा कमाने आई है.

कथित विकास के दलाल यह प्रचार करने में लगे हैं कि ‘विकास के लिए वेदांता चाहिए !’ लेकिन वेदांता का सच क्या है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है. अगर इस तरह के खनिज उत्खनन से गरीब और आदिवासियों का विकास होता है तो पड़ोस के केन्दुझर का इतना बुरा हाल क्यों है ? पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से टाटा कम्पनी वहां पर खनिज उत्खनन का काम कर रही है और अब तक लाखों करोड़ रुपये मुनाफा भी कमा चुकी है लेकिन वहां के आदिवासी अब भी बुरे हाल में हैं.

हम लोदो के साथ और थोड़ा ऊपर पहाड़ी पर चढ़ गए जहाँ उनका मचान था और उसके नीचे मडिया, कोसला और कुछ फसलें काटकर रखी गई थीं. ठण्ड से निजात पाने के लिए लोदो ने आग जलाई और वहां अपना खटिया खींच लाये और हमें उपर मचान में सोने के लिए कहा.

मचान के निचले हिस्से में छह लकड़ी के खम्बे थे. वहीँ ऊपर में पट्टा बिछा हुआ था और चारों ओर बांस से घिरा हुआ था, छत पुआल से ढका हुआ था. लोदो ने इसे बहुत ही खूबसूरत तरीके से बनाया था. यहाँ सभी किसान इस तरह के मचान बनाने में माहिर हैं. उस मचान में चढ़कर रात बिताने का अनुभव हमारे लिए काफी रोमांचक था.

सुबह जब सूरज की रोशनी पड़ती है तो वहां का नज़ारा और भी खूबसूरत होता है. उस सुबह भी चारों ओर पहाड़ ही पहाड़ दिखाई दे रहे थे और इन पहाड़ों में दूर-दूर पर कहीं-कहीं ऐसे ही मचान भी दिखाई दे रहे थे और उसके पास से ही धुआं उठ रहा था . रात भर हमने उनसे बहुत सारी बातें की, उनके बारे में, नियमगिरि पर्वत के बारे में, उनकी आजीविका से लेकर वहां रहने वाले डोंगरिया आदिवासियों के बारे में और वहां ब्रिटिश कंपनी वेदांता आने के बाद उसका विरोध और विरोध करने पर उन पर हो रहे जुल्म-सितम के बारे में.

गौरतलब है कि काफी ज़द्दोज़हद के बाद भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने नियमगिरि में खनिज उत्खनन को ‘ना’ कर दिया है, जिसके बाद से नियमगिरि की रक्षा के लिए लम्बे समय से लड़ाई लड़ रहे काफी लोग राहत महसूस कर रहे हैं. लेकिन नियमगिरि में रहने वाले डोंगरिया आदिवासियों का मानना है कि उनकी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है.

• आखिर ऐसा वह क्यों कह रहे हैं ?

हम यह जानते हैं कि माइनिंग फिलहाल रोक दी गई है, लेकिन हमें लगता है कि माइनिंग फिर शुरू की जा सकती हैं. क्योंकि जब तक वेदांता की फैक्ट्री लांजीगढ़ में मौजूद है, तब तक यह डर बना रहेगा. हो सकता है हमारी मौत के बाद ये हमारे बच्चों को बहला-फुसला कर उनसे जमीन छीन लें. इसलिए अगर फैक्ट्री भी यहाँ से चली जाती है तभी हम आश्वस्त हो सकते हैं. हमारे लोगों का कहना है कि उस फैक्ट्री को बंद करके यहाँ से हटा दिया जाए. यह फैक्ट्री जब तक हमारी ज़मीन में मौजूद है तब तक यह हमारे लिए ठीक नहीं है. हम यह बात उनसे कहेंगे और देखेंगे कि वह फैक्ट्री हटाते हैं कि नहीं और अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो हम सब इकट्ठा होकर जायेंगे और उस फैक्ट्री को नेस्तनाबूत कर देंगे. इसलिए जब तक यह फैक्ट्री है तब तक हम इसे न तो अपनी जीत मानते हैं और न अपनी लड़ाई खत्म होने की बात करते हैं.”

• माइनिंग के बंद होने को क्या आप अपनी आपकी लड़ाई की जीत मानते हैं ?

सब लोग यही कह रहे हैं कि हम इसलिए जीते क्योंकि हमारे लोगों ने इसके लिए काफी संघर्ष किया और यही वजह है कि हम फिलहाल नियमगिरि की सुरक्षा करने में कामयाब रहे. इसलिए अब अगर यह फैक्ट्री भी यहाँ से चली जाती है तब यह हम सब के लिए अच्छा होगा. अगर यह फैक्ट्री यहीं रहती है तो इसकी चिमनी से उठने वाला धुआं नियमगिरि के पर्यावरण को दूषित कर देगा, हमारे खेती किसानी जिसमें हम मड़िया , कोसला जैसी कई चीज़ उगाते हैं, को प्रभावित करेगा. हमारे ज़मीन बर्बाद हो जाएंगे. कंपनी यहाँ रहे, यह हम लोगों के लिए ठीक नहीं है क्योंकि यह कंपनी हमारे लोगों को परेशान कर रही है. कंपनी हमारे गाँव में पुलिस भिजवाकर हमारी पिटाई करवा रही है. अगर यह फैक्ट्री यहाँ से चली जाती है तो हम लोग खुश होंगे.

पुलिस यहाँ 2-3 बार आ चुकी है और हमारी बहुत पिटाई की है और युवतियों को भी परेशान किया है. वह हमारी मुर्गियों को मारकर और हमारी टंगिया छीनकर ले गए हैं. एक बार वह हमारे गाँव से 4 टंगिया ले गए और गाँव के युवकों की खूब पिटाई की. जब उनसे हमने पूछा कि हमें क्यों पीट रहे हो तो पुलिसवालों ने कहा की " तुम तुम्हारे नियमगिरि दोगे कि नहीं .......... ?( माँ की गाली देते हुए कहा ) यह सरकार की है, क्या तुम सोचते हो यह तुम्हारी है ? नहीं, यह तुम्हारी नहीं है."


लेकिन मैं जानता हूं कि यह सब हमारा है, कुछ भी सरकार का नहीं , यह नियमगिरि, यहाँ का पहाड़, यहाँ का पानी, हवा सब हमारी है. यहाँ का सब कुछ, यहाँ के लोगों का है. इसलिए हम लड़ाई कर रहे हैं.

• माइनिंग बंद होने के बाद भी लड़ाई क्यों जारी रखे हैं ?

माइनिंग बंद होने के एलान के बाद भी हम डोंगरिया अपनी लड़ाई बंद नहीं करेंगे. हम आन्दोलन नहीं छोड़ेंगे. क्योंकि अभी केवल नियमगिरि में खुदाई को रोकने का एलान किया गया है, इसलिए हम अपनी लड़ाई और आन्दोलन जारी रखेंगे. यहाँ जब तक शांति और आज़ादी वापस नहीं आ जाती तब तक हम आन्दोलन जारी रखेंगे.

• क्या इस लड़ाई में सभी लोग शामिल हैं ?

हाँ इस लड़ाई में कंपनी दलालों को छोड़ बाकी सब लोग एक होकर लड़ रहे हैं और धीरे-धीरे और ज्यादा लोग इसमें शामिल हो रहे हैं. हम डोंगरिया यहाँ पर और बहुत सारे लोग बाहर देश ओर विदेश में इसके लिए लड़ रहे हैं, जिससे हमें ताकत मिलती है. हमें अच्छा लगता है कि हम इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं. हमारे साथ-साथ बाहर के लोग भी इस लड़ाई में स्वस्फूर्त शामिल हो रहे हैं, जिससे हमारा हौसला बढ़ रहा है, और हम भी आगे बढ़ रहे हैं.

जब मैं भुवनेश्वर की बैठक में गया था तो बहुत सारे लोग आये और कहा कि वह हमारी लड़ाई में हमारे साथ हैं, अच्छा लगा कि लोग हमारी जज्बात और हमारी भावनाओ को समझते हैं . भुवनेश्वर की बैठक में कई ऐसे लोग आये हुए थे, जो अपनी -अपनी जगह ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं और जहाँ दूसरी कम्पनिया उन्हें तोड़ने में लगी हुई हैं. कई जगह तो लोग ज़मींदारों के खिलाफ लड़ रहे हैं जहाँ ज़मींदार उनके बाप-दादाओं को बहला फुसलाकर या शराब पिलाकर ज़मीन हथिया लिए हैं. ज़मीन की लड़ाई हर जगह जारी है. अगर हम डोंगरिया चुप बैठ जायेंगे तो हम अपना ज़मीन अपना देश बचा नहीं पायेंगे, इसलिए हमें एकजुट होकर लड़ने की ज़रुरत है.

• वेदांता कंपनी का रव्वैया इस आंदोलन को लेकर कैसा है ?

कंपनी लोगों को तोड़ने में लगी है और कई जगह उन्हें सफलता भी मिली लेकिन हमने गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाया कि अगर हम टूट जायेंगे तो यह हमारे लिए ठीक नहीं है, अगर हम एकजुट होकर लड़ते रहेंगे तब जो हम चाहते हैं वह कर पायेंगे. वेदांता ने हमें बाँट दिया है. अगर वेदांता यहाँ नहीं होता तो आज हम बंटे हुए नहीं होते. यह लोगों को रिश्वत देकर, बहला-फुसला कर अपनी ओर खींचने में लगी है, और जो जानवर हैं और जो अपनी ज़मीन और माँ को बेचने को तैयार हैं वह उनके साथ जा रहे हैं. जो समझदार हैं वह हमारे साथ हैं और कह रहे हैं कि हम अपना घर और देश नहीं छोड़ेंगे.

• आपकी लड़ाई में नियमगिरि के बाहर भी लोगों का समर्थन है ?

जी हाँ, हमारी लड़ाई में यहाँ के अलावा बाहर के लोग भी शामिल हैं. दुनिया भर के लोग हमारे साथ हैं. इसलिए हमें कोई डर नहीं है. हमें पता है कि आन्दोलन करते हुए अगर हममें से कोई मारा जाता है तो दुनिया भर में और भी लोग होंगे जो हमारे साथ होंगे. आज मुझे ओडिशा और भारत में भी लोग जानते हैं इसलिए अगर मैं मारा भी जाता हूँ तो लोग जानेंगे कि मैं अपनी ,ज़मीन, देश और अपने लोगों के लिए लड़ते हुए मारा गया. हम किसी भी सूरत में अपनी, ज़मीन, घर और यह देश (नियमगिरि) नहीं छोड़ेंगे. यहाँ हमारी महालक्ष्मी है, ज़मीन हमारे लिए सब कुछ है.

• क्या आपको पुलिस की बन्दूक से डर नहीं लगता ?

नहीं , क्योंकि डर के हम अपनी ज़मीन और घर छोड़कर कहाँ जायेंगे ? यह छोड़ने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते. इसलिए बन्दूक, पुलिस और कंपनी से नहीं डरते, आखिर वह यही तो चाहते हैं कि हम डर कर नियमगिरि छोड़ कर भाग जाएँ .

• आपको पता है कि दूसरे जगह भी आदिवासी अपनी ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें आप क्या सलाह देना चाहेंगे ?

हम उन्हें यही कहेंगे कि आप लोग सब एकजुट हो जाओ कंपनी को भगाने के लिए, अगर आप उन्हें खदेड़ भगा सकते हो तो यह तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लिए ठीक होगा. हम अपने बच्चों का भविष्य अच्छा बनाना चाहते हैं, उनके कल्याण के लिए उनके अधिकार की बात सोच रहे हैं. इसलिए आज अगर हम नहीं लड़ेंगे तो हमारे बच्चे यहां नहीं रह पायेंगे, इसलिए आन्दोलन ज़रूरी है.

• डोंगरिया लोगों के लिए नियमगिरि का क्या महत्व है ?

नियमगिरि हमारी जिन्दगी है.यह हमारी माँ, हमारा बाप है. इसलिए अगर इसकी मौत होती है तो हम जैसे उसके बच्चों की भी मौत हो जायेगी. वह हमारी माँ है जो हमें न केवल जन्म देती है, बल्कि वह हमें ज्ञान और कौशल भी देती है. इसलिए हमें अपने माता-पिता को बचाना होगा. आप अगर हमारे माँ -बाप को मार देंगे तो हम भी नहीं बचेंगे. यह हम समझते हैं और इसलिए अपनी लड़ाई जारी रखे हैं.


नियमगिरि हमें वह सब कुछ देता है, जो हमें चाहिए. नियमगिरि हमें पानी, हवा, कोसला, मडिया, झुडुन्ग, कांदुल, केला, जाड़ा, हल्दी, लहसुन और कई तरह के फल-मूल, और दवाई देता है. इस तरह से बहुत सारी चीजें यह देता है. यह हमें दूध (सलप रस को माँ की दूध की तरह देखते हैं ) भी देता है ....यह सब कौन हमें देगा ? यह हमारी माँ है, इसलिए यह सब हमें दे रही है. हम अगर अपनी मां को छोड़ देंगे तो हम कैसे जिंदा रह पायेंगे ? इसलिए हम उसके बच्चे होने के नाते उसे बचाने के लिए लड़ते रहेंगे क्योंकि उसमें ही हमारी भलाई है.

• अगर आपको नियमगिरि छोड़ना पड़े तो ?

हम जिंदा नहीं रह पायेंगे. मैं भुवनेश्वर में तीन दिन था, पर वहां गरम पानी में नहाया ही नहीं. जब वहां लोगों ने पूछा तो मैंने कहा कि –‘’ नहीं मुझे ऐसा पानी पसंद नहीं है, हमारे यहाँ पानी ठंडा होता है, हम खुश हैं, हमें अच्छा लगता है, उस ठन्डे पानी में नहाने से लगता है जैसे हम फिर से जिंदा हो गये हैं. नियमगिरि जैसी जगह दुनिया भर में ढूढने से भी कहीं नहीं मिलेगी. "

नियमगिरि से बाहर निकलो तो आपको नहाने से लेकर खाने और पीने तक के लिए सब चीज़ के लिए पैसे देने होंगे. इसलिए हम बाहरी दुनिया में चल नहीं सकते. यहाँ हम कहीं भी खाना खाते हैं या और कुछ करते हैं तो उसके पैसे नहीं लगते. जब हम बाज़ार जाते हैं तो सिर्फ हम कपड़ा, नमक, केरोसिन और सूखी मछली लाते हैं और वह भी अपनी चीजों या उत्पादों के बदले में. और हमें पूरी आज़ादी है कि वह ख़रीदे या नहीं. इन तीन-चार चीजों के अलावा हमारे नियमगिरि में हमारी ज़रुरत की सब चीजें उपलब्ध हैं. इसलिए हमें कोई डर नहीं है क्योंकि यहाँ सब कुछ मौजूद है. यहाँ तक कि यहाँ अगर एक साल बारिश भी नहीं होती है तो भी हम जिंदा रह सकते हैं. कम बारिश या बिना बारिश में होने वाले फसल, कंदमूल और फल के सहारे हम जिंदा रह सकते हैं.

• क्या पुलिस ने आप पर इसलिए निशाना साधा है क्योंकि आप नियमगिरि आन्दोलन से जुड़े हैं ?

जी हाँ , इसीलिए तो वह मुझे उठाकर ले गए थे, मुझे कहा गया कि "तुम आन्दोलन में हो, तुम संगठन में हो, यही वजह है कि नियमगिरि में खुदाई का काम नहीं हो पा रहा है, तुम आन्दोलन को हवा दे रहे हो, पहले इसे दबा दिया गया था लेकिन अब दोबारा लोग एकजूट हो रहे हैं क्योंकि तुम आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हो. इसलिए लोग तुम्हारी बात सुन रहे हैं. जब हम बुलाते हैं तो कोई हमारी नहीं सुनता है. ऐसा क्यों है कि जब तुम बुलाते हो तो वो सब आते हैं.”

उन्होंने मेरी बेरहमी से पिटाई की और मुझे और मेरे मित्र को ले गए.

उन्होंने आरोप लगाया कि मैं माओवादी हूं. मैंने जब इस झूठे आरोप से इंकार किया और माओवादी होने या माओवादियों से जुड़ाव का कोई एक भी सबूत जानना चाहा तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था. मेरी बेरहमी से पीटाई हुई. पुलिस वाले मुझे मारते जाते थे और गालियों के साथ-साथ झूठे आरोप लगाते जाते थे- "हरामजादे, तू हमें कहता है कि तूने माओवादियों को नहीं देखा है तो फिर हमारे तक रिपोर्ट कैसे आयी है ? तू ही उन्हें यहाँ बुलाके लाया है. तू नियमगिरि को लेकर खेल खेल रहा है. हम तुझे नहीं छोड़ेंगे.”

मैंने कहा- हम नियमगिरि कभी नहीं छोड़ेंगे भले इसके लिए हमें जान देना पड़े. अगर हम नियमगिरि छोड़ देते हैं तो हमारे बच्चे परेशान हो जायेंगे, वह कहीं के नहीं रहेंगे . हम छोड़ देते हैं तो हम ग्लानी महसूस करेंगे. इसलिए अगर हमें मरना भी पड़े तो हम नियमगिरि नहीं छोड़ेंगे.

जब मैं यह सब कहा रहा था तब और एक पुलिस वाला हवालात में घुस आया और उसने कहा- नहीं-नहीं हम तुम्हारी नियमगिरि के लिए पिटाई नहीं कर रहे हैं बल्कि हम तो तुम्हें तुम्हारे माओवादिओं के साथ संबंध होने की वजह से पिटाई कर रहे हैं.

मैंने उनसे फिर पूछा कि आखिर इस झूठे आरोप का आधार क्या है ? किसने देखा है कि मेरे संबंध माओवादिओं के साथ हैं?
उन्होंने कहा- नहीं नहीं हमने नहीं देखा है पर तुम्हारे कुछ लोगों ने यह खबर दी है तो हमने सोचा यह सच होगा. इसलिए हम तुम्हें यहाँ लेकर आये हैं. हम जब भी नियमगिरि जाते हैं तब तुम दादागिरी दिखाते हो.

मेरा जवाब था-जब कोई हमारा नियमगिरि लेने आएगा तो उसे हम कैसे छोड़ देंगे, क्या हमने नियमगिरि को बेच दिया है?

पिटाई के साथ उनका जवाब था- तुम बेच रहे हो. तुम्हारी सरकार बेच रही है. यह तो तुम्हारी सरकार है.

मैंने कहा- नहीं यह हमारी सरकार नहीं है, हमारी सरकार होती तो यह हमें मारती नहीं बल्कि बचाती.

उनका जवाब था- यह तो लोगों की सरकार है.
पिटाई के कारण फट चुके होंठ से बह रहे खून को पोंछा और जवाब दिया- अगर यह हमारे लोगों की सरकार है तो इसे बुलाया जाए और पूछा जाए की नियमगिरि को कौन बेच रहा है, और कौन कितना पैसा ले रहा है.

तब उन्होंने दो बन्दूक लाकर मेरे सीने में रखकर कहा-हम तुम्हें मार देंगे.

मैंने कहा- मार दीजिये. यह आपकी मर्ज़ी है. आप यहाँ एक आदमी को मार सकते हो लेकिन वेदांता के कारण जो दूसरे लोग हैं, वह मारे जायेंगे.

उन्होंने कहा- हम तुम्हें आंध्र ले जाकर मार देना चाहते थे.

उन्होंने मुझे बहुत पीटा. मैं अधमरा हो चुका था, उठकर बैठने की स्थिति में नहीं था. चार-पाँच लोग मिलकर मुझे लगातार मार रहे थे. मैं कब तक बर्दास्त कर पाता. जब मैं गिर गया तब मेरे मुंह और आँख में कुछ पानी छिड़का गया. होश में आने पर उन्होंने कहा- खड़े हो जाओ लोदो, खड़े हो जाओ.

मैंने धीमे स्वर में कहा- न तो मैं खड़ा हो सकता हूँ और न कुछ बोल पाने की स्थिति में हूँ. आप लोगों ने मुझे इतना जो मारा है!

उन्होंने गालियां बकते हुये कहा- क्यों तुम्हें नहीं मारेंगे ? तुम सरकार को परेशान कर रहे हो, तुम सरकार से जबान लड़ा रहे हो, तुम अपनी ही सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हो. उन्होंने एक बार फिर मुझे मारना शुरु कर दिया था.

मैंने उन्हें जवाब दिया- यह अगर हमारी सरकार होती तो यह हमसे हमारी ज़मीन नहीं छिनती, हमारी दुनिया नहीं उजाडती. हमारी बाक्साइट कभी नहीं लेती. हमें यह पता है कि यह विदेशी सरकार है, राक्षस सरकार है. बाहर से आया हुआ राक्षस सरकार.

इस जवाब से तिलमिलाये पुलिस वाले ने कहा- हम इतने पढ़े-लिखे लोग हैं, यह बात हम नहीं जानते. लेकिन तू जानता है. इसलिये ही तो कह रहे हैं कि तू नेता है और लोगों को भड़का रहा है.

• इतनी पिटाई के बाद आपको डर नहीं लगा ? ऐसा नहीं लगा कि आपको इस आन्दोलन में नहीं रहना चाहिए था ?

नहीं-नहीं जितना जोर से उन्होंने पीटा, मुझे उतना ही गुस्सा आया. वह मेरी जितनी पिटाई करते, मैं अंदर से उतना ही मजबूत होता गया और ठान ली कि अब तो कुछ भी हो जाए हम अपनी ज़मीन, अपना घर और अपना नियमगिरि किसी भी सूरत में नहीं छोड़ेंगे. हम कितना सहन करेंगे? सहने की भी कोई हद होती है.

वह हमें डराना चाहते थे. तुम्हें आन्दोलन नहीं करना चाहिए कहा. तुम किसी मीटिंग में मत जाओ कहा. वेदांता के खिलाफ आन्दोलन को बंद कर देने को कहा. तुम अगर आन्दोलन में नहीं जाओगे तो और कोई भी नहीं जाएगा, तुम आन्दोलन को छोड़ दो.

मैंने कहा- आज से मैं नहीं जाऊँगा, मुझे छोड़ दीजिये.

पुलिसवालों ने कहा- अगर तुम आज से नहीं जाओगे तो हम तुम्हें नौकरी देंगे.

मैंने कहा- मैं तो अनपढ़ गवांर हूँ, मैं न तो पढने जानता हूँ और न लिखने, और आप मुझे कैसे नौकरी देंगे ?

उन्होंने कहा- तुम सिर्फ घर में बैठे रहना. पैसा तुम्हारे घर पहुँच जाएगा.

फिर मैंने पूछा- क्या आप मुझे यूँ जिन्दगी भर पैसा देते रहोगे ?

हाँ-हाँ, हम तुम्हें जिन्दगी भर पैसा देते रहेंगे, तुम उसकी चिंता मत करो.-पुलिसे वालों ने कहा.

तब मैंने कहा- मैं चिंता नहीं करता, दरअसल हम आपसे पैसा लेकर या आपके पास नौकरी करके बड़ा आदमी नहीं बनना चाहते, हम तभी बड़ा बने रह सकते हैं जब हम अपनी ज़मीन के साथ एक होकर रहेंगे.

मेरा जवाब उनके लिये अप्रत्याशित था. उन्होंने मुझे ‘बेवकूफ’ कहते हुये फिर से पिटना शुरु कर दिया.

मुझे लगा कि इस तरह ये मारते रहे तो मैं तो मर ही जाउंगा. मैंने पैंतरा बदला और कहा कि आप जैसा कहेंगे मैं वैसा करने के लिये तैयार हूं. मैंने भी सोचा चलो पहले इस नरक से तो मुक्ति मिले तब सोचते हैं.

• तो पिटाई के बाद आन्दोलन छोड़ दिया ?

नहीं-नहीं, उस पिटाई ने हमारे आन्दोलन को और मजबूत किया, एक की पिटाई हुई इसका मतलब नहीं है कि हम चुप होकर बैठ जाते. हमने कई बैठकें बुलाई. मैंने अपने लोगों से कहा कि केवल मेरी पिटाई हुई है, आप लोगों की नहीं हुई है. मुझे पीट कर उन्होंने मुझे और नाराज कर दिया है. मेरी बात का गहरा असर हुआ. लोगों ने साफ कहा कि मेरी पिटाई उनके लिये भी नाराजगी का कारण है. इस तरह से आन्दोलन और तेज़ होता गया और हम एकजुट होने लगे. हमने लांजीगढ़ में एक बहुत बड़ी रैली निकाली.

हम यह आन्दोलन अपनी मातृभूमि, अपनी ज़मीन और हमारे लोगों के लिए लड़ रहे हैं. यह सिर्फ नियमगिरि, काशीपुर, कलिंगनगर के लिए नहीं है बल्कि हम पूरी दुनिया और मानवता के लिए लड़ रहे हैं. जंगल, ज़मीन, पानी और हवा की सुरक्षा से ही मानवता की सुरक्षा हो सकती है. हमें पता है कि दुनिया भर में कई लोग इसके लिए आन्दोलन कर रहे हैं. लड़ाई लड़ रहे हैं. इस तरह के आन्दोलनों में जहाँ भी जरूरत होगी, हम जायेंगे.

अब कंपनी आस-पास के दूसरे डोंगर लेना चाहती है, हम उसका भी विरोध करते हैं क्योंकि उन डोंगरों में भी आदिवासी रहते हैं और ये सभी डोंगर हमारी जिन्दगी है. काशीपुर में बाफला माली, कुद्रू माली, सिजू माली जैसे कई डोंगर हैं जिनमें आदिवासी रहते हैं और उस पर उनकी जीविका निर्भर है, इसलिए हम उसके लिए भी लड़ाई करेंगे.

दूसरी ओर कलिंगनगर में भी हमारे लोग हैं. कंधमाल, मलकानगिरी और कोरापुट में भी हमारे लोग रहते हैं. इस तरह से हमारे लोग सभी जगह हैं और वह सभी हमारी तरह अपनी ज़मीन को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. इस तरह से हम नियमगिरि में अकेले नहीं हैं, इसलिए हमें कोई डर नहीं है. अगर हम अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई में मर भी जाते हैं तो कोई चिंता की बात नहीं. अगर हम मरते हैं तो हम अपने लोगों के साथ मरेंगे, अगर जिंदा रहेंगे तो लोगों के साथ जिंदा रहेंगे.

लोदो की बात सुनते हुए लगा कि हम जिस दुनिया से आये हैं वह दुनिया बड़ी है, कथित तौर पर बहुत तरक्की कर चुकी है, विकास कर चुकी है. लेकिन जीवन और अपने लोगों के प्रति सोच के मामले में हम लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं. हम अपने स्वार्थ और हवस के लिये एक सुंदर दुनिया को नष्ट कर देना चाहते हैं. हमारी दुनिया और हमारी सरकारों ने उन्हें अभी तक कुछ भी नहीं दिया है लेकिन उनके पास जो कुछ है, उसे भी लूटना चाहती है.

रविवारर .कॉम से साभार

2 टिप्‍पणियां:

  1. यही है मनमोहनी विकास का सच. लाशो पर खड़ी हैं विकास तथाकथित चमचमाती इमारतें. मनमोहनी चकाचौध से आदिवासियों को केवल नक्सली कह के उनकी मांगो को ख़ारिज करने वालों, टीवी और अख़बार की बिक चुकी ख़बरों जिनमें उन्हें दानव बना के दिखाया जाता को पढ़ के उनके खिलाफ जहर उगलने वालों जरा इस हकीकत को पढ़ लेना. आपको जरुरत होगी महलों की, मालों की,चमचमाती सड़कों की इन्हें नहीं है इसकी कोई जरुरत वे क्यों दें अपनी जमीने...?

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  2. बहुत ही विस्तृत और आँखे खोलने वाली रपट है। अक्सर यह महसूस होता है कि कहीं तो कुछ तो गड़बड़ है इस विकास के मॉडल में और यह रपट उसी गड़बड़ी की ओर इशारा कर रही है।

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