27 अप्रैल 2007

युद्ध और मानवीय संवेदना

साम्राज्यवाद जिस किसी शक़्ल में आयेगा, उससे युद्ध के ख़तरे बढेंगे। यदि आज अंतर्रराष्ट्रीय राजनीति के मंच पर सारी शक्तियाँ चेहरा बदलकर नए रूप में सामने आ रही हैं तो यह एक चिंता की बात है। जागरुक साहित्यकार इस स्थिति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अब सवाल है कि हम नव-साम्राज्यवाद को किस तरह परिभाषित करते हैं। उसके स्वरुप की व्याख्या को लेकर मतभेद हो सकते हैं, पर जब हम साम्राज्यवाद की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान सबसे पहले पश्चिमी देशों के गठजोड़ की तरफ़ जाता है, जिसका सूत्रधार अमेरिका है। साहित्य और कला की दुनिया में भी साम्राज्यवादी शक्तियाँ कई रुपों में सक्रिय है। जनता के पक्षधर साहित्यकार को शीतयुद्ध के इन हथकंडों के प्रति सतर्क रहकर अपनी भूमिका निभानी होगी। शब्द की शक्ति में मेरा विश्वास है, इसलिए समझता हूँ कि युद्ध के संकट का विरोध साहित्य के अध्यन से संभव है। यद्यपि ऐसा नहीं है कि साहित्य युद्ध को समाप्त कर सकता है। हम सभी जानते हैं कि युद्ध के कारण साहित्य के बाहर होते हैं, पर मानवीय संवेदना को जगाने की शक्ति इसमें होती है। इस संदर्भ में यह एक बड़ा हथियार है। साहित्यकार इसी हथियार से युद्ध की विभीषिका से लड़ता आया है और लड़ता रहेगा। मानवीय संवेदनाएँ जिस हद तक मानवीय होती हैं, युद्ध विरोधी भी होती हैं। यहाँ तक कि प्राचीन साहित्य भी, जिसको वीर-रस कहा जाता है, अपने सर्वोत्तम रूप में मानव-विरोधी कदापि नहीं है। मनुष्य की सच्ची संवेदनाएँ चूँकि मानवधर्मी हैं, इसलिए अनिवार्यत: युद्ध-विरोधी भी हैं। वैसे कहा जा सकता है कि प्रेम, करुणा, मैत्री इत्यादि की सौंदर्यमूलक संवेदनाएँ अधिक विध्वंस विरोधी होती है, पर मेरा ख़याल है कि मानवीय संवेदनाओं को व्यापक अर्थ में लेना चाहिए। मानव सभ्यता के विकास के साथ मानवीय संवेदना के धरातल भी बदले हैं। जाहिर है कि युद्धविरोधी साहित्य लिखने के लिए संवेदना के नवीनतम विकास को अर्जित करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, आज केवल मध्युगीन संवेदना के स्तर पर आधुनिक विभीषिका का पूरी तरह सामना नहीं किया जा सकता। युद्ध-विरोधी साहित्य की कमी का बड़ा कारण यह है कि निकट अतीत में जो दो विश्व-युद्ध हुए, उनका प्रत्यक्ष प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। दूसरे महायुद्ध के समय कलकत्ता थोड़ा-सा प्रभावित हुआ अवश्य, पर यह प्रभाव वहीं तक सिमटा था। परोक्ष प्रभाव अधिक व्यापक पड़ा। आर्थिक मंदी से महँगाई बढी और साम्राज्यवादी दमनचक्र भी तीव्र हुआ, लेकिन ऐसा नहीं है कि हिंदी में युद्ध पर साहित्य बिल्कुल लिखा ही नहीं गया। दिनकर का 'कुरुक्षेत्र' इसी संदर्भ में आया था। उस काल की पत्र-पत्रिकाएँ देखी जाए तो अनेक युद्ध-विरोधी कविताएँ मिलेंगी।
मसलन 'हंस' (पुराना), 'नया-साहित्य' और दूसरी प्रगतिशील पत्रिकाओं में यह बात विशेष रूप से देखी जा सकती है। तीसरी दुनिया के देशों में जो गृह-युद्ध हो रहे हैं, उनका स्वरूप और प्रकृति एक नहीं है। उदाहरणार्थ निकरागुआ और श्रीलंका में जो आंतरिक संघर्ष है, वह एक सा नहीं है, इसलिए गृहयुद्ध जनता के व्यापक हितों की रक्षा और मुक्ति के लिए लड़े जाते हैं, जाहिर है लेखक की उनके प्रति सहानुभूति होगी ही। यदि किसी बाहरी षड्यंत्र के तहत कोई विघटनकारी तत्व या वर्ग गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न करता है, जैसे पंजाब, निकरागुआ में, तो वैसी दशा में उसे जनविरोधी माना जाना चाहिए और लेखक को उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।

-केदारनाथ सिंह

18 अप्रैल 2007

सआदत हसन मंटो की बहुचर्चित कहानी "टोबा टेक सिंह"

बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों कोख़्याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होनाचाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हेंपाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानोंमें हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए. मालूम नहीं, यह बातमाक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले केलिए एक दिन मुक़र्रर हो गया.अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान हीमें थे, वहीं रहने दिए गए; जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस कीहिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए.उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले कीख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं.एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथ "ज़मींदार"पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा: "मौलबी साब, यह पाकिस्तान क्याहोता है...?" तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया: "हिंदुस्तानमें एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं...!" यह जवाब सुनकर उसका दोस्तमुतमइन हो गया.इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा: "सरदार जी, हमेंहिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है... हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती..."दूसरा मुस्कराया; "मुझे तो हिंदुस्तोड़ों की बोली आती है, हिंदुस्तानीबड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं..."एक दिन, नहाते-नहाते, एक मुसलमान पागल ने "पाकिस्तान: जिंदाबाद" का नाराइस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया.बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे; उनमें अक्सरीयत (बहुतायत) ऐसेक़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को कुछ दे दिलाकर पागलख़ानेभिजवा दिया था कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ; यह पागल कुछ-कुछ समझते थेकि हिंदुस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है; लेकिन सहीवाक़िआत से वह भी बेख़बर थे; अख़बारों से उन्हें कुछ पता नहीं चलता था औरपहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ़्तुगू से भी वह कोई नतीजाबरामद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मदअली जिन्नाह है: जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं; उसने मुसलमानों के लिए एकअलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है; यह कहाँ है, इसकामहल्ले-वुक़ू (भौगोलिक स्थिति) क्या है, इसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहींजानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहींहुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में है याहिंदुस्तान में; अगर हिंदुस्तान में है तो पाकिस्तान कहाँ है; अगरपाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहतेहुए हिंदुस्तान में थे.एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्करमें कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देतेवह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीरकरता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियोंने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकायागया तो उसने कहा: "मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में...मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा..."एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्करमें कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देतेवह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीरकरता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियोंने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकायागया तो उसने कहा: "मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में...मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा..." बड़ी देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ातो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिलकर रोने लगा- उसख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएँगे...एक एमएससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों सेबिलकुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था,यह तब्दीली नुमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ेदार के हवालेकर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू कर दिया.चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुकाथा और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दीउसका नाम मुहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगल में एलान करदिया कि वह क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह है; उसकी देखा-देखी एक सिखपागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनोंको ख़तरनाक पागल क़रार देकर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया.लाहौर का एक नौजवान हिंदू पकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया; जबउसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो बहुत दुखी हुआ. अमृतसरकी एक हिंदू लड़की से उसे मुहब्बत थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगरदीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था-वह उन तमाम हिंदू औरमुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान केदो टुकड़े कर दिए हैं, और उनकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई है और वहपाकिस्तानी…जब तबादले की बात शुरू हुई तो उस वकील को कई पागलों ने समझयाकि दिल बुरा न करे… उसे हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिंदुस्तान मेंजहाँ उसकी महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था; उसकाख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.योरोपियन वार्ड मं दो एंग्लो इंडियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ किहिंदुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ; वहछुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते किपागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी; योरोपियन वार्ड रहेगाया उड़ा दिया जाएगा; ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं; क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करनी पड़ेगी?।।।।।।।।।एक सिख था, जिसे पागलख़ाने में दाख़िल हुए 15 बरस हो चुके थे. हर वक़्तउसकी ज़ुबान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…" वह दिन कोसोता था न रात को.पहरेदारों का यह कहना था कि 15 बरस के तलीव अर्से में वह लहज़े के लिए भीनहीं सोया था; वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ टेकलगा लेता था- हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पाँव सूज गए थे और पिंडलियाँ भीफूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था.हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभीपागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछताकि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…!" लेकिन बाद में "आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट " की जगह "आफ़ दि टोबा सिंहगवर्नमेंट!" ने ले लीहिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभीपागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछताकि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : "औपड़ दि गड़गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…!" लेकिन बाद में "आफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंट " की जगह "आफ़ दि टोबा सिंहगवर्नमेंट!" ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर दिया किटोबा टेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है. किसी को भी मालूम नहींथा कि टोबा सिंह पाकिस्तान में है... या हिंदुस्तान में; जो बताने कीकोशिश करते थे वह ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोटपहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है. क्या पताहै कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है... कल हिंदुस्तान में चला जाए... यासारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए... और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकरकह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब हीहो जाएँ...!इस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे; चूंकि बहुत कमनहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे. जिसके बायस उसकीशक्ल बड़ी भयानक हो गई थी; मगर आदमी बे-ज़रर था. 15 बरसों में उसने कभीकिसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे,वह उसके मुताल्लिक़ इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनेंथीं; अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया, उसकेरिश्तेदार उसे लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में बाँधकर लाए और पागलख़ानेमें दाख़िल करा गए.महीने में एक मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियतदरयाफ़्त करके चले जाते थे; एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जबपाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उसका आना-जाना बंद हो गया.उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे. उसको यह क़त्अनमालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुकेहैं; लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अकारिब उससे मिलने के लिए आने केक़रीब होते तो उसे अपने आप पता चल जाता; उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदनपर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता; अपने वह कपड़े जोवह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूँ सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता. वह उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभार"औपड़ दि गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन..."कह देता.उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक ऊँगली बढ़ती-बढ़ती 15 बरसों में जवान होगई थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था-वह बच्ची थी जब भी अपने बाप कोदेखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे.पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों सेपूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है; जब उसे इत्मीनानबख़्श जवाब नमिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई. अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी;पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसेउसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उनकी आमद की ख़बर दे दिया करतीथी-उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करतेथे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे. वह आएँ तो वह उनके पूछेकि टोबा टेक सिंह कहाँ है... वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि टोबा टेक सिंहवहीं से आते हैं जहाँ उसकी ज़मीनें हैं.पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एकरोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तानमें तो उसने हस्बे-आदत क़हक़हा लगाया और कहा : "वह पाकिस्तान में है नहिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म ही नहीं दिया...!"बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वहहुक्कम दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए किउसे और बे-शुमार हुक्म देने थे.एक दिन तंग आकर बिशन सिंह ख़ुदा पर बरस पड़ा: " औपड़ दि गड़ गड़ दिअनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालसा एंड वाहेगुरु जी दि फ़तह...!" इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो,सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते.तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह कादोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया; मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था. जबबिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापिस जाने लगा मगरसिपाहियों ने उसे रोका: "यह तुमसे मिलने आया है...तुम्हारा दोस्तफ़ज़लदीन है...!"बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा.बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा : "मैं बहुतदिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही न मिली... तुम्हारेसब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे... मुझसे जितनी मदद हो सकी,मैंने की... तुम्हारी बेटी रूपकौर..." वह कहते-कहते रुक गया.बिशन सिंह कुछ याद करने लगा : "बेटी रूपकौर..."फ़ज़लदीन ने फिर कहना शुरू किया : उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारीख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूँ... अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहेहो... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहनअमृतकौर से भी... भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन राज़ीख़ुशी है...दो भूरीभैसें जो वह छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है... दूसरी के कट्टीहुई थी, पर वह 6 दिन की होके मर गई...और... मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो,कहना, मैं वक़्त तैयार हूँ... और यह तुम्हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लायाहूँ...!"बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी औरफ़ज़लदीन से पूछा : "टोबा टेक सिंह कहाँ है..."फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा : "कहाँ है... वहीं है, जहाँ था!"बिशन सिंह ने फिर पूछा : "पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में...""हिंदुस्तान में... नहीं, नहीं पाकिस्तान में...! " फ़ज़लदीन बौखला-सागया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दिबेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुरफ़िटे मुँह...! "तबादले की तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधरआनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुँच चुकी थीं और तबादले का दिन भीमुक़र्रर हो चुका था.सख़्त सर्दियाँ थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिंदू-सिख पागलों से भरीहुई लारियाँ पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई, मुताल्लिक़ाअफ़सर भी हमराह थे. वागह के बौर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरेसे मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जोरात भर जारी रहा.पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगरउसने चलने से इनकार कर दिया : "टोबा टेक सिंह यहाँ है..! " और ज़ोर-ज़ोरसे चिल्लाने लगा : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दिदाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! "पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ाकठिन काम था; बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने पर रज़ामंद होतेथे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि उन्हें फाड़कर अपने तन सेजुदा कर देते-कोई गालियाँ बक रहा है... कोई गा रहा है... कुछ आपस मेंझगड़ रहे हैं... कुछ रो रहे हैं, बिलख रहे हैं-कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहींदेती थी- पागल औरतों का शोरो-ग़ोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थीकि दाँत से दाँत बज रहे थे.पागलों की अक्सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इसलिए कि उनकी समझ मेंनहीं आ रहा था कि उन्हें अपनी जगह से उख़ाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है; वहचंद जो कुछ सोच-समझ सकते थे, "पाकिस्तान : ज़िंदाबाद" और "पाकिस्तान :मुर्दाबाद" के नारे लगा रहे थे ; दो-तीन मर्तबा फ़साद होते-होते बचा,क्योंकि बाज़ मुसलमानों और सिखों को यह नारे सुनकर तैश आ गया था.जब बिशन सिंह की बारी आई और वागन के उस पार का मुताल्लिक़ अफ़सर उसका नामरजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा : "टोबा टेक सिंह कहाँ है...पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में.... ?"मुताल्लिक़ा अफ़सर हँसा : "पाकिस्तान में...! "यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमादा साथियोंके पास पहुंच गया.पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगरउसने चलने से इनकार कर दिया : "टोबा टेक सिंह यहाँ है..! " और ज़ोर-ज़ोरसे चिल्लाने लगा : "औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दिदाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! "उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में चलागया... अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह नमाना! जब उसको जबर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वहदरमियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टाँगों पर खड़ा हो गयाजैसे अब उसे कोई ताक़त नहीं हिला सकेगी... आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिएउससे मज़ीद ज़बर्दस्ती न की गई ; उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया, औरतबादले का बाक़ी काम होता रहा.सूरज निकलने से पहले साकितो-सामित (बिना हिलेडुले खड़े) बिशन सिंह केहलक़ के एक फ़लक शिगाफ़(गगनभेदी) चीख़ निकली.इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तकदिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदारतारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ;दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंहपड़ा था.

17 अप्रैल 2007

रोटी व संसद

उत्तर प्रदेश में चुनाव को देखते हुए धूमिल कि "रोटी व संसद, एक बार फिर प्रासंगिक हो जाती है दखल पर दस्तक देने वालों के लिये लिये प्रस्तुत है यह कविता-
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो ना रोटी बेलता है,न रोटी खाता
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मै पूंछता हू-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है....

अपनी बात

कितनें दिनों से रात आ रही है
जा रही है धरती पर

फिर भी इसे देखना
इसमें होना एक अनोखा काम लगता है

मतलब कि मैं
अपनी बात कर रहा हू......
- आलोकधन्वा

धर्म के नाम पर ......

भारत में आज धविनोंद विप्लवर्म का बोलबाला है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चरम विकास के इस युग में हमारे देश की बहुसंख्यक जनता की सोच में धर्म और आस्था हावी होती जा रही है। कुछ समय पूर्व एक प्रमुख राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्रिका की ओर से कराये गये सर्वेक्षण में यह तथ्य उभर कर सामने आया था कि हमारे देश में लोगों का धर्म, ईश्वर और कर्मकांडों के प्रति विश्वास बढ़ा है। यहां तक कि नयी पीढ़ी खास तौर पर सूचना प्रौद्योगिकी कम्प्यूटर ई- कॉमर्स मीडिया फैशन माकेZटिंग और प्रबंधन जैसे आधुनिक पेशों से जुड़े युवा वर्ग के लोगों की धर्म के प्रति आस्था और पूजा-पाठ जैसे विभिन्न धार्मिक अनु\ष्ठानों में हिस्सेदारी बढ़ी है। विज्ञान fशक्षा और संचार जैसे क्षेत्रों में तीव्र विकास के कारण आम लोगों के विवेक एवं मानसिक स्तर में भी विकास एवं विस्तार होना चाहिये था लेकिन आज हम देखते हैं कि हमारी मानसिक सोच दिनोंदिन और संकीर्ण होती जा रही है। हम जाति भेद साम्प्रदायिकता धर्म अंधविश्वास कर्मकांड जैसी प्रतिगामी प्रवृतियों के दलदल में फंसते जा रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि आज जब आधुनिक विज्ञान जीवन-जगत के रहस्यों की परतों को एक के बाद एक करके उघाड़ता जा रहा है और सदियों से कायम धर्म आधारित अंधविश्वासों कर्मकांडों पाखंडों और भ्रांतियों के झूठ को उजागर करता जा रहा है, लोगों के मन-मस्तिष्क पर धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अधिक हावी होते जा रहे हैं। क्या ऐसा स्वत स्फूर्त हो रहे हैं या इन सब के पीछे कोई संगठित या असंगठित साजिश चल रही है। आज शायद ही किसी शहर का कोई मोहल्ला, कस्बा या गांव हो जहां आये दिन भजन-कीर्तन-प्रवचन के आयोजन नहीं होते हों। इन आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। आप कहीं भी-कभी भी नजर उठाकर देख लें कोई न कोई धार्मिक आयोजन-अनुष्ठान होते अवश्य मिल जायेंगे। कहीं भगवती जागरण तो कहीं सत्संग हो रहे हैं। कहीं राम की सवारी तो कहीं शोभा यात्रा और कहीं तजिया निकल रही है। कहीं मंदिर तो कहीं मfस्जद और कहीं गुरूद्वारे बन रहे हैं। कहीं मंदिर के नाम पर तो कहीं मजिस्द के नाम पर दंगे हो रहे हैं। कभी नये धार्मिक टेलीविजन चैनल खुल रहे हैं। खबरिया चैनलों पर पुनर्जन्म, नाग-नागिन और भूत-प्रेत की कहानियों की बाढ़ आई हुई है। टी आर पी बढ़ाने के नाम पर अंधवि”वास को बढ़ावा देने की साजि”ा चल रही है। इस साजि”ा में कई धुरंधर पत्रकार बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। कहीं किसी धार्मिक पत्रिका का लोकार्पण हो रहा है। कभी किसी सरकारी कॉलेज या अस्पताल में मंत्र चिकित्सा विभाग खोला जा रहा है तो कभी देश का कोई केन्द्रीय मंत्री गले में नाग लपेट कर आग पर चल रहा है और तांत्रिकों को सम्मानित कर रहा है और कभी कोई केन्द्रीय मंत्री तंत्र-साधना और ज्योतिष को स्कूल-कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करा रहा है। आखिर इन सब के क्या निहितार्थ हैं। क्या हमारा देश पूरी तरह से धार्मिक देश बन गया है और यहां के लोग अत्यंत धार्मिक जीवन जीने लगे हैं अथवा क्या देश और यहां की जनता को धार्मिक बनाये रखने तथा यहां के लोगों को धर्म, अंधवि\श्वासों एवं कर्मकांडों के बंधनों से जकड़ कर रखने की सतत् कोf\श\श हो रही है ताकि राजनीतिज्ञों, पुजारियों, पादरियों, मौलवियों, तांत्रिकों-मांत्रिकों, ओझाओं, बाबाओं, साधु- साfध्वयों और विभिन्न धार्मिक संस्थाओं की दुकानदारी बेरोकटोक चलती रहे। कहीं धार्मिकता के इस अभूतपूर्व विस्फोट के पीछे धर्म को बाजार और व्यवसाय में तब्दील करने की साजि\श तो नहीं है। धम्ाZनिरपेक्ष कहे जाने वाले बुfद्धजीवी और राजनीतिज्ञ धर्म को राजनीति का हिस्सा बनाये जाने पर चिंता करते हुये दिखते हैं लेकिन आज दे\श भर में जो पूरा तामझाम चल रहा है वह दरअसल धम्ाZ को राजनीति का हिस्सा बनाने का नहीं, बल्कि धर्म को व्यवसाय बनाने के दीघZकालिक अभियान का हिस्सा है। जिस तरह से सौंदर्य प्रसाधन बनाने और बेचने वाली कंपनियां अपने उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिये सौंदर्य प्रतियोगिता और फै\शन परेड जैसे आयोजनों तथा प्रचार एवं विज्ञापन के तरह-तरह के हथकंडों के जरिये गरीब से गरीब दे\शों की अभाव में जीने वाली भोली-भाली लड़कियों के मन में भी सौंदर्य कामना एवं सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति ललक पैदा करती है उसी तरह से विभिन्न धार्मिक उत्पादों के व्यवसाय को बढ़ाने के लिये धार्मिक आयोजन अंधवि\श्वास, अफवाह और चमत्कार जैसे तरह-तरह के उपायों के जरिये लोगों के मन में धार्मिक आस्था कायम किया जा रहा है ताकि धर्म के नाम पर व्यवसाय और भांति-भांति के धंधे किये जा सकें। यह कोfशश कितने सुनियोजित तरीके से चलती है इसका पता गणेश की प्रतिमाओं को दूध पिलाने की घटना से चलता है जब पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी इसकी अफवाह फैलायी गयी। इस तरह की कोfशश केवल भारत या हिन्दू धर्म में ही नहीं, हर देशों में और हर धर्मों में हो रहा है। आखिर अगर लोगों में धार्मिक आस्था नहीं बढ़ायी गयी और उनमें धर्म के प्रति भय नहीं पैदा किया गया तो कौन मंदिरों में चढ़ावे चढ़ायेगा, कौन मfस्जदों, गुरुद्वारों और चचोZं के लिये लाखों-करोड़ों रुपये का दान देगा, कौन पूजा-पाठ करायेगा, कौन सैकड़ों-हजारों रुपयों की फीस देकर नयी पीढ़ी के ज्योतिf\षयों से भवि\ष्य जानेगा, धार्मिक चैनलों को कौन देखेगा, फिल्म्ाी गानों की पैरोडी पर बनने वाले कैसेटों को कौन खरीदेगा, कौन भगवती जागरण करायेगा। अगर धार्मिकता का यह तामझाम नहीं चलता रहा तो धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की रोटी कैसे सिंकेगी और कैसे साधुओं पंडितों मौलवियों धर्म गुरुओं और गं्रथियों की विशाल फौज का पेट भरेगा। सभी धर्मों के उद्यमी अथाZत पुरोहित वर्ग इस बात को विरासतन साफ तौर पर जानते हैं कि उनके उद्यम अथाZत् धर्म को कोई दिव्य शक्ति न तो चला सकती है और न ही चला रही है। धर्म को वही शक्तियां चला रही हैं जो बाजार की शक्तियां हैं और जो किसी भी उद्यम को चलाती हैं। इसलिये धर्म के प्रबंधन में हम वे सभी तिकड़में देखते हैं जो बाजार के प्रबंधन में मिलती हैं, बल्कि अब तो धम्ाZ की यह हेरा-फेरी बाजार की कुत्साओं को काफी पीछे छोड़ चुकी है। हमारे देश में हर बातों के लिये कानून है और कानून का उल्लंघन करने वालों के लिये सजा का प्रावधान है। लेकिन धर्म के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले, अपराध करने वाले, मासूम बच्चों की बलि देने वाले डायन बताकर विधवाओं की हत्या करने वाले मंदिर-मfस्जद के नाम पर जमीन हड़पने वाले टैक्स चोरी करने वाले और दंगे करने वाले इस देश के कानून से परे हैं। अगर कोई गरीब अपने बाल-बच्चों का पेट पालने के लिये कहीं कोई रेहड़ी लगा ले तो उससे पैसे वसूलने और उसे वहां से हटाने के लिये तत्काल पुलिस वाले आ धमके लेकिन मंदिर-मfस्जद बनाने के लिये जहां चाहे और जितना चाहे जमीन पर कब्जा कर लें कोई बोलने वाला नहीं है। अगर कोई वेतनभोगी किसी साल का आयकर का रिर्टन नहीं भरे तो उस पर जुर्माने का नोटिस आ जायेगा लेकिन मंदिर-मजिस्दों के नाम पर चाहे जितने धन हड़प लें और धार्मिक संस्था बनाकर चाहे जितना मन करे टैक्सचोरी करते रहें पूछने वाला कोई नहीं है। चमत्कारिक एवं दैवी इलाज के नाम पर कोई चाहे जितने पैसे कमाते रहें और मरीजों को मौत के घाट उतारते रहें।, धार्मिक स्कूूल चलाकर चाहे जितनी फीस लें और बच्चों तथा अभिभावकों को चाहे जितना लूट लें, कोई fशकायत भी नहीं करेगा। जहां दिल करे वहां रास्ता जाम कर दें जहां मन आये वहां दंगे करा दें और चाहे जिसकी जान ले लें या किसी की सम्पत्ति हड़प लें, चाहे डायन, अधार्मिक नास्तिक बताकर हत्या कर दें। धर्म के नाम पर सब कुछ जायज है। आज धम्ाZ और मजहब के नाम पर अपराध, व्यवसाय और भ्रष्टाचार पहले की तुलना में अधिक तेजी एवं खुले तरीके से जारी है। पिछले दो हजार वर्षों में ईश्वर और धम्ाZ उत्पादन में किसी भी तरह की भूमिका नहीं निभाने वाले निकम्मों, ढोंगियों ठगों और धोखेबाजों के लिये उत्पादन में लगे कामगारों और मेहनतकशों से धन-सम्पत्ति के लूटने-खसोटने तथा विलासिता का जीवन जीने का कारगर हथियार बन गया है। आज धर्म की सौदागिरी और ठेकेदारी सबसे मुनाफे का, सबसे निरापद एवं सबसे आसान धंधा है क्योंकि इसमें न तो कोई पूंजी लगती है और न ही श्रम एवं कौ\शल की दरकार होती है जबकि धन-संपदा सम्मान प्रसिfद्ध और ऐशो-आराम छप्पड़ फाड़ कर मिलते हैं। साथ ही साथ सरकार-दरबार तक आकर चरण पखारते हैं। भारत के बारे में बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि धर्म इस देश का सबसे बड़ा उद्योग-व्यवसाय है जिससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी और ऐय्याशी चलती है। जिस पर करोड़ों की पूंजी लगी है। हर वर्ष धर्म के प्रदर्शन एवं दिखावे पर हजारों करोड़ की रकम पानी की तरह बहा दी जाती है। भारत जैसे गरीब देश में धर्म के नाम पर धार्मिक उत्सवों एवं प्रवचनों पर जो फिजूलखर्ची होती है उसका कभी आकलन नहीं किया गया। यह रकम लाखों-करोड़ों में नहीं, अरबों-खरबों में है और इसका बड़ा हिस्सा देश के राजस्व बढ़ाने अथवा समाज कल्याण में नहीं बल्कि कुछ मुठ्ठी भर पुजारियों पंडितों एवं धर्म के नाम पर ठगी का धंधा करने वालों की विलासिता में खर्च होता है। देश में जगह-जगह होने वाले धार्मिक आयोजनों पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। देश में स्कूलों और अस्पतालों से अधिक संख्या धार्मिक स्थलों की है। गरीब हिन्दुओं के पास रहने को छत नहीं है, पीने के लिये पानी नहीं है, यहां तक कि उनके लिये \शौच की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। लेकिन अरबों रुपये मंदिरों के निर्माण के लिये लगाये जा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों, जन कायोZं में लगी सरकारी संस्थाओं, सरकारी स्कूलों और अनुसंधान संस्थाओं के पास पैसे की भारी तंगी है, कई राज्यों में f\शक्षकों और चिकित्सकों को वेतन तक देना मुfश्कल हो पा रहा है कई स्कूलों में ब्लैकबोर्ड तक नहीं हैं, लेकिन मठों, मंदिरों मfस्जदों दरगाहों मजारों चचोZं गुरुद्वारों की अरबों-खरबों की पूंजी है। कुछ मंदिरों में तो इतनी सम्पत्ति एवं धन है कि उससे कोई छोटे-मोटे देश का पूरा खर्च निकल सकता है। विश्व के सबसे धनाढ्य एवं संपत्ति शाली देव मंदिर अथाZत जग प्रसिद्ध तिरूपति देवस्थानम् को एक अनुमान के अनुसार हर साल करीब 50 करोड़ रुपये दान एवं चढ़ावे में मिलते हैं। आंध्र प्रदेश के इस मंदिर में प्रति\ष्ठापित प्रतिमा पर करोड़ों रुपये के वस्त्राभूषण लदे रहते हैं। तिरूपति, बालाजी, सबरीमाला, मीनाक्षी और अक्षरधाम जैसे प्रसिद्ध मंदिरों में चढ़ावे के लिये न केवल देश-विदेश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों एवं व्यावसायियों के बीच होड़ लगी रहती है बल्कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री केन्द्रीय मंत्री और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री पूजा अर्चना एवं चढ़ावे के लिये पहुंचते हैं। अभी कुछ दिन पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जानकी जयललिता ने तिरूपति मंदिर जाकर सोने-चांदी और अन्य जेवरात चढ़ाया था। पिछले दिनों खबर आयी थी कि नागपुर (महाराष्ट्र) के एक प्रसिद्ध स्वर्णकार ने विश्व का सबसे महंगा माणिक रत्न (जिसका मूल्य दो हजार करोड़ रुपये के लगभग है) पत्थर के भगवान बालाजी को चढ़ाया। पंजाब में एसजीपीसी का वाf\र्षक बजट ही सौ करोड़ से ऊपर है। इसके द्वारा नियंत्रित कुल संपत्ति का मूल्य तो अरबों में होगा। यही वजह है कि इस पर कब्जे के लिए पंजाब के राजनीतिक दलों में भी होड़ लगी रहती है। इन मंदिरों, धार्मिक स्थलों एवं धार्मिक संस्थाओं को न केवल देश से, बल्कि विदेशों से भी भारी पैमाने पर दान मिलते हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार दे\श के विभिन्न स्वैच्छिक एवं धार्मिक संगठनों को विदे\शों से खरबों रुपये मिलते हैं जिनमें साल दर साल वृfद्ध हो रही है। गृह मंत्रालय के एक नवीनतम आंकड़े के अनुसार देश के 14 हजार 598 स्वैच्छिक संगठनों तथा धार्मिक समूहों को 2000-2001 के दौरान चार खरब 53 अरब पांच करोड़ 23 लाख रुपये के विदेशी धन प्राप्त हुये।अमरीका स्थित ईसाई राहत एवं विकास संगठन वल्र्ड विजन इंटरनेशन अनेक भारतीय स्वैच्छिक संगठनों के लिये सबसे बड़ी दानदाता एजेंसी है। आंध्र प्रदेश स्थित श्री सत्य साई केन्द्रीय न्यास सबसे अधिक विदेशी धन पाने वाला संगठन है। सत्य साई न्यास को 88 करोड 18 लाख रुपये का विदे\शी धन मिला। विदेशी धन पाने वालों में दूसरे स्थान पर वॉच टॉवर बाइबिल ट्रैक्ट सोसायटी इंडिया (महाराष्ट्र) है जिसे 74 करोड़ 88 लाख रुपये मिले। तीसरे स्थान पर केरल के गॉस्पेल फॉर एfशया को 58 करोड़ 10 लाख जबकि केरल के माता अमृतानंदमायी मिशन को 23 करोड़ 19 लाख रुपये मिले। विदेशी सहायता नियमन कानून 1976 के तहत धार्मिक एवं गैर-सरकारी संस्थाओं को मिलने वाले धन पर नियंत्रण रखने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के तहत 22 हजार 924 संस्थाओं को विदे\शी धन प्राप्त करने के लिये पंजीकृत किया गया है, लेकिन गृह मंत्रालय के हाल के आंकडों के अनुसार केवल 14 हजार 598 संस्थानों ने विदे\शी धन प्राप्त करने के संबंध में अपने रिर्टन भरे। आयकर संपत्ति कर आदि से छूट तथा अन्य रियायतों से भी धार्मिक संस्थाओं को काफी लाभ होता है। कानूनी रियायतों का लाभ उठाकर ये धार्मिक संस्थान न तो रिर्टन भरते हैं न कोई लेखा-जोखा देते हैं। इस कारण इस बात का अंदाजा लगाना मुfश्कल होता है कि इन धार्मिक स्थलों एवं संस्थानों के पास कितनी सम्पत्ति है। कुछ सर्वाधिक संपत्ति\शाली संस्थाओं पर नजर डालें तो तिरूपति तिरुमल देवस्थानम् संभवत: पहले स्थान पर होगा। इसके अलावा दक्षिण भारत में सबरीमाला मंदिर, मदुरै का मीनाक्षी मंदिर, उत्तर भारत में गोरखनाथ मंदिर स्वगाZश्रम ट्रस्ट अक्षरधाम मंदिर बोधगया का बौद्ध मठ fशरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह वप्फ बोर्ड तथा कई बड़े चचोZं के नाम गिनाये जा सकते हैं। ये तो मात्र कुछ उदाहरण भर हैं।धार्मिक संस्थाओं की कमाई का एक और बहुत बड़ा स्रोत है इनके परिसरों में स्थित दूकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से होने वाली आय। ज्यादातर बड़े मंदिर एवं अन्य धार्मिक स्थल शहरों की प्राइम लोके\शन पर स्थित हैं और वहां श्रद्धालुओं के अलावा अन्य लोगों का भी भारी संख्या में आना-जाना लगा रहता है। पहले तो मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों के परिसरों में प्रसाद, फूल-मालाओं एवं अन्य पूजा सामfग्रयों की ही बिक्री होती थी लेकिन अब तो मांस-मदिरा छोड़कर सांसारिक भोग-विलास की हर उपभोक्ता वस्तुयें इन पूजा परिसरों में अथवा आसपास की दुकानों में मिल जायेगी। कई पूजा स्थलों से लगे भवनों में तो सौ-सौ, दो-दो सौ दुकानें और पूरे के पूरे \शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खुल हुये हैं। हरियाणा के डेरा सच्चा सौदा जैसे आश्रमों ने तो अब खुद ही दुकानें चलानी \शुरू कर दी है। आश्रम में आने वाले भक्त बारी-बारी से इनको नि:शुल्क सेवायें देते हैं। कई साल पहले नई दिल्ली नगर पालिका के एक सचिव ने माता का मंदिर बनाने के लिये न्यू फं्रेडस कालोनी में जमीन एलाट करायी थी। इस जमीन पर सफेद संगमर्मर का एक विशाल मंदिर बनाया गया लेकिन अब इसका इस्तेमाल चौथा और उठाला जैसे रस्मों के लिये होता है और इसके लिये बकायदा \शुल्क लिये जाते हैं। लगभग हर दिन दोपहर के बाद यहां चमचमाती गाडि़यों के कारण रास्ता जाम सा हो जाता है। यही नहीं दिल्ली विकास प्राधिकरण ने मंदिर के पुजारियों और श्रद्धालुओं के रहने के लिये धम्ाZशाला डायग्नोfस्टक सेंटर और रिसर्च लेबोरेट्री बनाने के लिये मंदिर के बगल में अलग से जमीन आबंटित किया। कुछ साल पहले धार्मिक संस्थाओं के पास जो धन एवं जमीन-जायदाद होते थे वे निfष्क्रय पड़े रहते थे लेकिन अब धार्मिक संस्थायें भी बड़े-बड़े कारपोरेट एवं व्यापारिक घरानों की तरह अत्यंत व्यावसायिक एवं प्रबंधकीय दक्षता के साथ सुनियोजित तरीके से उद्योग-व्यापार चला रहे हैं। ये धार्मिक संस्थायें दान में मिली सैकड़ों-हजारों एकड़ की जमीन पर आधुनिक तरीके से नगदी फसलें उगा रही हैं डेयरी उद्योग चला रही हैं, एवं तरह-तरह की व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न हैं। कई संस्थायें स्कूल कॉलेज इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन संस्थान आदि चला रहे हैं जिनमें fशक्षण शुल्क अन्य व्यावसायिक शैक्षिक संस्थाओं की तरह ही बहुत अधिक होता है लेकिन इनमें पढ़ाने वाले fशक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों को काई वेतन नहीं दिया जाता या नाममात्र का पारिश्रमिक दिया जाता है क्योंकि इन्हें यह कहकर बहलाया जाता है कि वे धर्म का काम कर रहे हैं। नये उभरे मठ एवं धार्मिक संस्थायें इस काम में अधिक आगे हैं। आसाराम बापू सुधांशु महाराज ओशो श्री रविशंकर जैसे आधुनिक गुरूओं के पास तावीज, चूर्ण, मंजन आयुर्वेदिक औषधियों माला पेन, कॉपी, किताबें, कैलेंडर, पोस्टर, fस्टकर, घड़ी, बेल्ट आदि विभिन्न प्रकार के वस्तुओं के उत्पादन एवं विपणन का एक विराट तंत्र है। इनके उत्पादन पर बहुत कम या नाममात्र की लागत लगती है जबकि इन्हें बाजार में बहुत अधिक कीमत पर बेचा जाता है क्योंकि इनके भक्त गण धर्मसेवा के नाम पर बिना कुछ वेतन लिये कार्य करते हैं तथा श्रद्धालु भक्तिभाव के कारण इन्हें ऊंची दाम होने के बावजूद खरीदते हैं। तिरूपति तिरूमल देवस्थानम् ट्रस्ट सबसे संगठित ढंग से कारपोरेट गतिविधियां चलाता है। इस ट्रस्ट ने अनेक कॉलेज-अस्पताल आदि खुलवाये हैं जिन्हें बिल्कुल प्रोफेशनल ढंग से संचालित किया जाता है। साथ ही यह विभिन्न कारोबारी गतिविधियों का प्रबंधन करता है। यहां तक कि तिरुपति बालाजी के मंदिर में प्रतिदिन तीन हजारों लोगों के मुंडन से गिरने वाले बालों से भी यहां कंबल, ऊनी वस्त्र जैसी वस्तुएं तैयार की जाती हैं जिनका बड़े पैमाने पर निर्यात होता है। प्रसाद को सामान्य डीलक्स तथा सुपर डीलक्स जैसी श्रेणियों में बांटकर इसे भारी मुनाफादेह कारोबार में बदलने का काम भी सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। पंजाब में fशरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की ओर से दर्जनों कॉलेज तथा वोकेशनल इंस्टीच्यूट चलते हैं। इनमें कैपिटेशन फीस सहित ऊंची फीस वसूल की जाती है। देश में छोटे-छोटे गांव-गिरांव से लेकर महानगरों तक में न जाने कितने धर्म पुरुष महापुरुष विविध नामों वाले बाबाओं के, गुरूओं के महात्माओं के और संतों के शानदार आश्रम पाये जा सकते हैं जिसकी भव्यता एवं रौनक देखते बनती है। हमारे देश में 50 लाख के करीब साधु-संत, इमाम पादरी और गं्रथी हैं जिनमें से ज्यादातर को धर्म और देश-दुनिया का क ख, ग का भी पता नहीं है लेकिन वे लोगों को धर्म की f\शक्षा देते हैं और लोगों को मूर्ख बना कर ऐश करते हैं। देश में उत्सवों-कीर्तनों प्रवचनों और धार्मिक स्थलों के रख-रखाव और पुजारियों-पादरियों की ऐय्या\शी पर वर्ष भर में जो रकम खर्च होती है, वह अगर देश के विकास पर खर्च होता तो स्कूलों-कॉलेजों और अस्पतालों का जाल बिछ जाता। हर गांव में बिजली, सड़क और पेय जल जैसी सुविधायें उपलब्ध हो गयी होती। न कोई निरक्षर रहता और न कोई इलाज के अभाव में मरता।
� विनोंद विप्लव
अंगारे व साथी विप्लव का आभार..................................

13 अप्रैल 2007

मुंशी प्रेमचंद की पहली विदर्भ यात्रा

मैं और मुंशी प्रेमचंद जेट एयरवेज़ की फ्लाइट में सवार दिल्ली से नागपुर जा रहे थे । विदर्भ की राजधानी नागपुर । बहुत मुश्किल से प्रेमचंद को लमही से निकाला था । इसके लिए पहली बार अमर सिंह से पैरवी की ताकि बनारस एयरपोर्ट पर सहारा का विमान प्रेमचंद का इंतज़ार करे । सैंत्रो कार में बैठे प्रेमचंद गुस्साते रहे । मुझे लमही में रहने दो । कहां ले जा रहे हो । मुझे अब किसी किसान से नहीं मिलना है । मुंशी जी आप नहीं मिलेंगे तो कौन मिलेगा- मैं कहता रहता और गाड़ी तेजी से भगा रहा था । तभी विदर्भ से सुप्रिया शर्मा और योगेश पवार का एसएमएस आता है । इज़ मुंशी कमिंग टू विदर्भा ? मेरा छोटा सा जवाब- या...फाइनली । सहारा का विमान दिल्ली उतरता है । और मुंशी प्रेमचंद और मैं विदर्भ के लिए उड़ जाते हैं ।जहाज़ में मुंशी प्रेमचंद को विंडो सीट पर बैठा कर मैं उन्हें नीचे देखने के लिए कहता हूं । देखिये तो मुंशी जी किसान नहीं दिखते हैं । जाने कैसे आपको हर वक्त किसान दिखता रहा । देखिये जहाज़ के नीचे ऊंची इमारतें और मॉल उड़ रहे हैं । किसान नहीं दिखता है । मेरे कहते ही प्रेमचंद भड़क गए । मैंने कहा था न कि मैं अब किसानों को नहीं देखना चाहता । एक तुम हो और एक हंस निकाल निकाल कर मुझे बार बार घसीटने वाले राजेंद्र यादव । मैं जहाज़ से कूद जाऊंगा । मैंने कहा सारी सर । सुप्रिया और योगेश से मिलना ही होगा । उनसे मिलकर आपका गुस्सा भी शांत होगा और अहसास भी । वे एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल के बेहतरीन संवाददाता हैं । उनके साथ कुछ बड़े घर की बेटियां हैं । जिनके बाप किसान होने के स्वाभिमान के कारण अपना ही गला घोंट गए । और वो अपना स्वाभिमान मुंबई के देहबाज़ार में बेच रही हैं । मुंशी जी आपकी वजह से । और आप मुझे लानत देते हैं । किसने दिया किसानों को झूठा स्वाभिमान । क्यों लिखा आपने किसान कर्ज में पैदा होता है और कर्ज में मरता है । मुंशी जी मेरे बटुए में दस क्रेडिट कार्ड है । तगादे वाले फोन करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट का फरमान सुना देता हूं । कि तुम वसूली के लिए मुझसे ज़बरदस्ती नहीं कर सकते । उपोभक्ता अधिकार है मेरा । मैंने तो आत्महत्या नहीं की । दुनिया जानती है । विमान का टिकट भी क्रेडिट कार्ड से लिया है । तो स्वाभिमान के नाम पर दोनों मर जाएं । कूद जाएं विमान से । ये मरजाद क्या होता मुंशी जी ? किसानों का मरजाद ? आपको विदर्भ जाना होगा । यू हैव टू गेट इन देअर । सुप्रिया इज़ वेटिंग विद गर्ल्स ।नागपुर एयरपोर्ट । संजय तिवारी, सुप्रिया शर्मा और योगेश पवार । वेलकम मुंशी जी । हमने आपके बारे में बहुत सुना है । तभी सुप्रिया कहती है- सर आई हैव रेड यू । प्रेमचंद अपनी टोपी संभालते हैं और सुप्रिया से कहते हैं- क्यों द लास ऑफ इनहेरिटेंस नहीं पढ़ा तुमने । किरण कितना अच्छा लिखती है । योगेश कहता है वो मेरी फेवरेट है । मगर हम सीधे गांव जाना चाहते हैं । कुछ बड़े घर की बेटियां इंतज़ार कर रही हैं ।योगेश रोने लगते है । सर ये सच्ची कहानी है । जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनकी बेटियां जिस्मफरोशी के लिए मजबूर हैं । किसानों का परिवार टूट गया है । प्रेमचंद खेत की मेड़ पर बैठ कर रोने लगते हैं । कहने लगते हैं - भारत का किसान तो बुज़दिल हो गया है । वो तुम्हारी तरह क्यों नहीं है रवीश । कर्ज़ लेकर बेशर्मी से नहीं देने की हठ करने वाला । मुंशी जी, प्रधानमंत्री ने जो पैकेज दिया है उससे भी इन बेचारों का कोई फायदा नहीं । आपको पता है न प्रधानमंत्री जवाहर नहीं हैं । मनमोहन हैं । इंदिरा की बहू सोनिया जवाहर की उन चिट्ठियों को पढ़ने में व्यस्त है जो जेल में रहते हुए इंदिरा के लिए लिखीं थीं । किरण देसाई से लेकर अमिताव घोष कोई किसानों पर नहीं लिखता । राजेंद्र यादव और नामवर को कोई बुकर पुरस्कार नहीं देता । उनकी रचनाएं, जिनकी प्रेरणा का स्त्रोत आप भी है, साहित्य को कुंद कर रही हैं । जैसे आपकी रचनाओं ने किसानों को कुंद कर दिया है । तभी योगेश कहते हैं- प्रेमचंद जी मुंबई की मंडियों में बड़े घर की बेटियों को बिकने से आप बचा लीजिए । हमारी ख़बर पर भी सरकार का असर नहीं होता । पी साईनाथ की ख़बरों पर भी कोई असर नहीं । साईनाथ तो विदर्भ के किसानों के पीछे पागल हो गए हैं । सुप्रिया धीरे से कहती हैं- मुंशी जी इस बार कुछ नया लिख दीजिए ताकि आपको बुकर मिल जाए और किसानों को रास्ता । मगर इस बार किसानों को नियतिवाद में मत फंसाना । मत लिखना कि किसान कर्ज में जीता है और कर्ज में मरता है । लिखना कि कई बड़े उद्दोगपति सार्वजनिक बैंको का पचास हज़ार करोड़ लेकर भाग गए । सबको पता है । किसी ने आत्महत्या नहीं की । फिर तुम क्यों आत्महत्या करते हो । ये लिखना मुंशी जी । पूरी दिल्ली और मुंबई लोग लोन पर जी रहे हैं । मर नहीं रहे । लोन उनका स्वाभिमान है । कर्ज़ शब्द का इस्तमाल भी बंद हो गया है । कहते कहते सुप्रीया चिल्ला उठती हैं- कहती है सर उन बेटियों की कसम जिनका चेहरा हमने मौज़ैक कर के विटनेस में दिखाया था । वो आपसे बात नहीं करना चाहती हैं । मैं सिर्फ आपको उनकी देह दिखाना चाहती हूं । मन नहीं । वो लमही आकर आपसे बातें करना चाहती हैं । बहुत समझाया इनको । कहती हैं हम जब बड़े घर की बेटियां ही नहीं रहीं तो मुंशी जी से क्या बात करें । हमारे पास चौखट नहीं है । हम मुंशी जी की चौखट पर माथा पटकेंगी । हम और योगेश इन्हें लेकर भटक रहे हैं । मुंशी जी आप कुछ नया लिखना । यू कैन नॉट राइट देम ऑफ । यू हैव टू स्टार्ट राइटिंग अगैन ऑन फार्मर्स ।तभी संजय तिवारी कान में कहते हैं । रवीश मुंशी जी को दुबारा मत लाइयेगा । कोई किसान उनको सुनना नहीं चाहता है । किसान इनसे नाराज़ हैं । एक ख़बर मुंबई से आ रही है । मुख्यमंत्री देशमुख ने दक्षिण की साध्वी अम्मा को बुलाया है । लगता है किसान कहानी नहीं बनना चाहते । वो या तो मरना चाहते हैं या पुलिस की डंडे के ज़ोर पर अम्मा को सुनना चाहते हैं । इन जैसे आउटडेटेड लेखक को मत लाइयेगा ।(हाल ही में योगेश पवार और सुप्रिया शर्मा ने एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल के विटनेस के लिए विदर्भ पर एक विस्तृत रिपोर्ट की है । रिपोर्ट देख कर खूब रोने का मन किया । तभी पड़ोसी का कुत्ता मर गया और हम उसकी प्रोशेसन में चले गए । बाहर देखा कि पूरे शहर में सड़क छाप कुत्तों के मारे जाने के खिलाफ आंदोलन चल रहा था । मैं भी अपनी इस नई संवेदना के साथ हो लिया । कुछ घंटे बाद घर लौटा तो कुत्ते और किसान की मौत के ग़म में यह कहानी निकल गई-साथी रवीस के कस्बे का आभार.............