21 जून 2008

कब के चला सुराज न आवा हमरे टोला.

यह समय आपात काल का है जरूरी नहीं कि हर बार आपात काल के साथ इंदिरा का नाम जुडा़ हो.पूरे देश की नाजुक स्थितियों पर गौर करें तो हम एक आतंक भरी जिंदगी जी रहे हैं.देश का अलग अलग टुकडा़ अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहा है.पर इन अलग-अलग समस्यायों मे जो एक चीज कामन है वह यह कि हम एक व्यवस्था के अंदर जूझ रहे हैं.ऎसा नहीं है कि नंदीग्राम के किसानों की हत्या और विदर्भ या बुन्देलखण्ड के किसान की आत्महत्या में कोई सम्बंध नहीं है.इसे हमें आज की मुनाफ़ेखोरी और बढ़ते पूँजी केन्द्रीकरण के साथ देखना होगा.पर अंततः हम समस्याओं से जूझते हुए अपने समय को काट रहे हैं.कलेण्डर कभी तारीखें नहीं बदलते और न ही समय स्थितियों को बदलता है, जब तक कि हम उसे नहीं बदलते.दूसरों को जूझता हुआ देखकर हम चुप हैं.सूचनाक्रांति के साथ शायद हम एक मीडिया विहीन युग में जी रहे है कि लोगों के मारे जाने और मरने की खबरें हम तक नहीं पहुँच रही हैं यानि हम बेखबर हैं या फ़िर मानवीय इतिहास के लम्बे दौर को पार करते हुए आज हमारी संवेदनाये थक गयी हैं.बघेलखण्ड से बार-बार ये खबर आ रही है कि स्थितियाँ गम्भीर होती जा रही हैं.पिछले कुछ सालों से कम-तर बारिस ने इन बदहाल होती स्थितियोँ को और भी बेहाल कर दिया है.रावेन्द्र जी एक स्कूल के अध्यापक हैं जो देवई बघेलखण्ड में रहते हैं. न ही इन्होंने दिल्ली का कैफ़ेटेरिया देखा है और न ही राजकमल की आफ़िस,किसी समुद्र का किनारा नहीं देखा,शराब पीना इनकी कल्चर में नहीं, इनके माता-पिता लेखक नहीं हैं फ़िर भी ये कवितायें लिखते हैं.पर अभी अमेरिका के बारे में कुछ नहीं लिखा है और न ही कहीं छपे हैं....बघेलखण्ड के आस-पास व्यवस्था की जो हवा बहती है रावेन्द्र जी की कविता के बहाने उसकी महक आप भी सूँघिये?

१.
आँखि मांही धूधूर झोंका कहा कि दोख जमाना के है.
बीच गईल दिन मानैं पोंका कहा कि दोख जमाना के है.
करू-कसायल खातिर, हमसे नीक भला को.
रसगुल्ला तू पाँचै लोका कहा कि दोख जमाना के है.
राम जोहार सलाम पैलगी, जबर बूट का.
सीध-साध का छल-बल धोखा कहा कि दोख जमाना के है.
दंद-फंद धूधूर के जेउरी खूब बरा.
सेतैं फ़ाँसा एखा-ओखा कहा कि दोख जमाना के है.
सेवा,त्याग,समरपन काहीं आन के कांधा.
ताकत बागा रवि तू मोका, कहा कि दोख जमाना के है.
चार चुहेड़्न के चाटे जे गोर एसाइत.
कै दिन रही रंग धौ चोखा कहा कि दोख जमाना के है.
शब्दार्थ:-
धूधूर-धूल, दोख-गलती, गईल-गली, मानै-में पोका-गंदगी, करू-कसायल-कड़्वा-तीखा, जेउरी-रस्सी, बरा-बनाना, चुहेड़न-दुष्ट, एसाइत-इस समय

२.
कुछ तू साधा कुछ हम साधी नातपलागो.
गाँव सुराज घरै म बांधी नातपलागो.
बरिहत्तेन के हाँथे आबा घटइ न पावै.
मिलि-जुलि अस मिलि के नाधी नातपलागो.
सूखा, बाढ़, अकाल, भुखमरी, दइउ के लीला.
जनता मरै पै आपन चाँदी नातपलागो.
जनसेवा कै नही जेब कै राजनीति भै.
अबको इहाँ विनोवा, गाँधी नातपलागो.
पाँच बरिस मा पाँच पुस्त के इन्त्जाम भा.
कुछ जबरन कुछ धोखा धाँधी नातपलागो.
हाँथ मिलावै करै चेरउरी वोट परे मा.
फेर भला को छाबै धाँधी नातपलागो.
शब्दार्थ:-
नातपलागो-रिश्तेदारों का पैर छूना, सुराज-स्वराज, बरिहत्थेन-मुश्किल से, दइउ-ईश्वर, चेरौरी-विनती, छावै-बनाना, धाँधी-छप्पर

३.
केही आपन बिपति सुनाई तुहिन बतावा.
केत्ता मूँदी केत्ता ताई तुहिन बतावा.
सब देखि सुनि, के तानि पिछोरी वाला जुग.
काहें नाहक देह देखाई तुहिन बतावा.
राजा, मंत्री, हाकिम, अफ़्सर एकै घाट के पंडा.
आपुस मा सब साढ़ू भाई तुहिन बतावा.
जब जबरा मनमानी करब राज धरम है.
तब काहें के राम दोहाई तुहिन बतावा.
कुलुक-कुलुक के जै-जै बोलत गिल्लियान भा
सेतैं कब तक सोहर गाई तुहिन बतावा.
जेहिन जउनै मिला सइधै हज़म किहिस.
केखर केखर नाव गिनाई तुहिन बतावा.
कब के चला सुराज न आवा हमरे टोला.
कहाँ फ़िरत हैं चाईं माईं तुहिन बतावा.
शब्दार्थ:-
केही-किसको, बिपति-बिपत्ति-परेशानी, मूदी-ढकना, पिछौरी-चद्दर, आपुस-आपस, जबरा-जबरन, कुलुक-उछलना, गिल्लियाना-तंग आना, सईधै-सीधे, केखर-किसका, चाईं माँई-चक्कर लगाता.

16 जून 2008

क्या तुम जानते हो?


निर्मला पुतुल की कविताओं में एक विलुप्त होते आदिम सभ्यता की धुन है. आदिवासी संथाल परिवार में परिवार में जन्मी पुतुल ने कविता विधा में आदिवासी समाज में महिलाओं और उनके अंतर्नाद को गुंजित किया है.किसी सभ्यता के लुटने के पहले की एक पुकार....एक आखिरी चीख...बचाये जाने के अंतिम स्वर सुनयी पड़ते हैं.ऎसे समाज में महिलाओं को दो स्तर की लडा़ईयाँ लड़नी पड़ रही है.प्रश्न के रूप में हमारे सामने खडी़ निर्मला पुतुल की ये कवितायें हमारी संवेदनाओं को क्या जरा भी नहीं छूती? क्या यह समय संवेदनाओं के मर जाने का है ? क्या दुनियादारी इसी का नाम है कि कहीं नौकरी करते हुए हम अपनी एक और पीढी़ को नौकर बनाने के फ़िराक में जुटे रहें?आज जब आदिवासी समाज को लूटने की पूरी कोशिशें जारी हैं.ऎसी स्थिति में बचाव के पक्ष में आने वाला हर नागरिक उग्रवादी बना दिया जा रहा है.सरकारी चश्में को उतारकर अपनी नंगी आँखों से देखते इस सच को इस लडा़ई को सलाम करते हुए हम निर्मला पुतुल की कविता संग्रह:-नगाड़े की तरह बजते स्वर से साभार ये कविता .....?या यूँ कहें ये प्रश्न प्रकाशित कर रहे हैं.

क्या तुम जानते हो
पुरूष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत?

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे?
रिस्तों के कुरु क्षेत्र में
अपने आपसे लड़ते?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठें खोलकर
कभी पढा़ है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास?

पढा़ है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फ़ैलती जडो़ को अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिस्ते का व्याकरण?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-द्रिश्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?

अगर नहीं!
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और विस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में?

11 जून 2008

'माओवादी दिखते कैसे हैं? मैं उन्हें देखना चाहती हूं'


तीन दशक से पंश्चिम बंगाल की पंचायत से लेकर विधानसभा तक पर काबिज़ वाममोर्चे की चूलें हिलाने वाली तृणमूल कांग्रेस की तेज़तर्रार नेता ममता बनर्जी ने तहलका संवाददाता आशीष सेनगुप्ता से तमाम मुद्दों पर खुलकर बात की। औद्योगीकरण पर अपनी सोच रखते हुए ममता ने माओवादियों से संबंधों की बात पर सीपीएम को जमकर लताड़ लगाई।
पंचायत चुनाव के नतीज़ों के बाद किस तरह का बदलाव देख रही हैं?
बिल्कुल वैसा ही जैसा मैंने कहा था। ईमानदारी से मतदान होने दीजिए और फिर देखिए जनता क्या चाहती है। मैंने चुनाव आयोग से कह दिया था कि सीपीएम अक्सर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ करती है। जो पहले इसे असंभव मानते थे अब वो भी इससे सहमत हो गए हैं। ये चुनाव ईवीएम की बजाय मतपत्रों के जरिए हुए। ये हमारे लिए मौका था और लोगों ने हमें सही साबित किया। जिस तरह से सीपीएम ने हमें विकास विरोधी साबित करने की कोशिश की थी वो गलत साबित हुआ। ये हमेशा से ही सीपीएम की रणनीति रही है। जब भी वो राजनीतिक तौर-तरीकों से लड़ने में विफल होते हैं तो झूठे आरोपों पर उतर आते हैं।
यानी, आप ये स्वीकार करती है कि इस बार जिस तरह से मतदान हुआ उससे विपक्षी दल संतुष्ट हैं? क्या आप को वास्तव में इसी तरह के नतीज़ों की उम्मीद थी?
हमें पता था कि लोग वाम मोर्चे की सरकार से काफी निराश हैं और उन्हें बदलाव की दरकार थी। 320 में से 100 ब्लॉक्स में हमें चुनाव ही नहीं लड़ने दिया गया। बाकी बचे 220 ब्लॉक में से 50 में बिल्कुल मतदान ही नहीं हो सका। ऐसा सीपीएम के हिंसक हथकंडों की वजह से हुआ। जहां भी लोगों को अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करने की आज़ादी मिली ज्यादातर जगहों पर उन्होंने हमें चुना।
ये संभव कैसे हुआ? क्या सिर्फ भूमि अधिग्रहण का मुद्दा ही था?
भूमि अधिग्रहण का मुद्दा तो था ही लेकिन सिर्फ यही नहीं था। सीपीएम के अत्याचार, 30 सालों से जनता के साथ की जा रही बर्बरता, प्रशासन का राजनीतिकरण, निचले स्तर पर भ्रष्टाचार—इन सभी ने अपनी भूमिका निभाई। सिंगूर और नंदीग्राम आंदोलनों ने अपनी भूमिका निभाई, इसके अलावा भी तमाम वजहें थी जो लोगों के भीतर सालों से इकट्ठा हो रही थीं।
यानी कि सीपीएम के कुकर्मों ने ही बंगाल के ग्रामीण इलाकों से उसकी पकड़ को खत्म कर दिया?
उन्हें अपने कुकर्मों का खामियाजा भुगतना पड़ा। काफी समय से ये बकाया था। जैसा मैंने कहा कि लोग बुरी तरह से निराश थे। लिहाजा हिंसा के खिलाफ वो दृढ़ता से खड़े हो गए, सक्रियता से उसका विरोध किया और हमें चुना क्योंकि हम हमेशा से जन आंदोलनों के साथ रहे हैं। मुझे यकीन है कि तमाम वामपंथी मतदाताओं ने भी हमारे पक्ष में मतदान किया।
वाममोर्चे की तीस साल पुरानी सरकार का आंकलन आप किस रूप में करती हैं?
भूमि सुधारों और पंचायती राज की सफलता की चर्चा बहुत हो चुकी है। इस बार सीपीएम का जादू क्यों नहीं चल सका? वाममोर्चे ने सिर्फ पहले दो कार्यकाल में अच्छा काम किया इसके बाद स्थितियां बुरी तरह से बदल गईं। भ्रष्टाचार ने प्रशासन में जड़ें जमा ली। उनमें से ज्यादातर भ्रष्ट हो गए। उन्होंने प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण कर दिया। जिस भूमि सुधार की उन्होंने शुरुआत की थी वो तमाशा बन कर रह गया। उन्होंने अपने भूमि सुधार के एजेंडे को कभी पूरा करने की कोशिश भी नहीं की. बल्कि इसके बजाय उन्होंने इसे वोट खरीदने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इसका सबूत है हर चुनाव से पहले आयोजित होने वाला पट्टा वितरण कार्यक्रम। इसी वजह से ये सरकार इतने लंबे समय तक राज करने में कामयाब हो सकी।
आगामी म्युनिसिपल, लोकसभा या विधानसभा चुनावों को ये नतीजे किस तरह से प्रभावित करेंगे? अगले चुनावों में किस पार्टी से गठजोड़ आपके लिए मुनासिब रहेगा।
आप लोग इस तरह के सवाल मायावती या मुलायम सिंह से कभी क्यों नहीं पूछते? गठबंधन एक गतिशील प्रक्रिया है जो कार्यक्रमों, एजेंडा और तमाम दूसरे मसलों पर निर्भर होता है। इस पर टिप्पणी करना अभी जल्दबाजी होगी। निश्चित रूप से हम गठबंधन पर विचार करेंगे लेकिन पहले विधानसभा चुनाव आने तो दीजिए।
अब स्थानीय प्रशासन पर आपका भी कब्जा है वो भी ज़िला स्तर पर- क्या इसका मतलब राज्य में औद्योगीकरण पर पूर्ण विराम है?
पंचायत चुनावों के नतीजे का इतना सरलीकरण नहीं होना चाहिए कि ये औद्योगीकरण के पक्ष या विपक्ष में हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कृषि और उद्योग का साथ-साथ विकास। हमें उद्योग की जरूरत होगी लेकिन सीपीएम के रास्ते पर चलकर नहीं। उद्योग का अर्थ सिर्फ बड़ी मात्रा में पूंजी को नहीं समझा जाना चाहिए। औद्योगीकरण का स्वागत है, लेकिन छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगो की कीमत पर नहीं। सीपीएम कह रही है कि बड़ी पूंजी छोटे और मझले दर्जे के उद्योगों के लिए रास्ता तैयार करेगी, लेकिन ये अपने आप नहीं हो जाएगा इसके लिए आपको कोशिश करनी पड़ेगी। क्या वो औद्योगीकरण के लिए कभी किसी समग्र योजना की बात करते हैं? जवाब है नहीं। हमने कभी नहीं कहा कि हम उद्योगों के खिलाफ हैं, लेकिन हां, हम कृषि के मुकाबले उद्योग को खड़ा करने के प्रबल विरोधी हैं।
तो फिर राज्य में निवेश आकर्षित करने की आपके पास क्या योजना है? सत्ता में आने पर आप ऐसा क्या करना चाहेंगी जो वर्तमान सरकार अभी नहीं कर रही है?
निश्चित रूप से हमें बड़े निवेश की जरूरत होगी लेकिन ये जनता की कीमत पर नहीं होगा। आखिर ऐसा क्यूं है कि बड़े औद्योगिक घराने जो भी शर्ते थोपें आप मान लेते हैं? ऐसा कैसे हो सकता है कि आपके पास जनता के हितों को सुरक्षित रखने और फिर जाकर औद्योगिकरण के लिए जगह तलाशने की नीति ही न हो? ये तभी हो सकता है जब आप चीज़ों को बहुत हल्के में लेते हैं और जनता की राय को दरकिनार कर अपने अहम को सर्वोपरि रखना आपकी आदत बन जाती है। सबसे पहले अपने पास उपलब्ध विकल्प खोजने की दरकार होगी, हम औद्योगिक घरानों को वास्तव में क्या सुविधाएं मुहैया करवा सकते हैं और फिर इसी के हिसाब से उनसे बातचीत करनी होगी। मुझे विश्वास है कि पश्चिम बंगाल में इन चीज़ों पर कभी चर्चा नहीं हुई होगी। बड़े नामों के साथ बातचीत करने से पहले जो विकल्प हो सकते हैं उन पर कभी विचार ही नहीं किया जाता।
नंदीग्राम का भविष्य अब कैसा है?
अब ये बात साबित हो गई है कि ये संघर्ष राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए था। हम स्थानीय प्रशासन में हैं लेकिन प्रशासन-- जिस पर राज्य सरकार का नियंत्रण है— को स्वतंत्र होकर काम करने की जरूरत है। भले ही चुनावी प्रक्रिया पूरी हो गई हो, भले ही लोगों ने अपनी पसंद पर मुहर लगा दी हो, हिंसा फिर भी जारी है। हम चाहते हैं कि वहां शांति स्थापित हो लेकिन प्रशासन को अपनी भूमिका निभानी होगी।
और सिंगूर के बारे में क्या कहेंगी? क्या आप चाहेंगी कि आपको टाटा के बंगाल छोड़ने की वजह के रूप में देखा जाय?
हम अभी भी सरकार से यही सवाल पूछ रहे हैं कि सिंगूर को कार फैक्ट्री के लिए क्यों चुना गया। आप हमें दोषी कैसे ठहरा सकते हैं जब हम वैकल्पिक भूमि मुहैया करवाने की बात कर रहे हैं? अगर आप खुद के लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं तो फिर आपको लोगों के अधिकारों का भी सम्मान करना होगा। क्या आपके पास अब भी इस बात की कोई सफाई है कि सिंगूर में लोगों के संपत्ति के अधिकार का हनन क्यों हुआ? ये तो मूलाधिकार हैं, क्या ऐसा नहीं है? अगर ये राज्य की जनता या फिर सिंगूर की जनता की भलाई के लिए था तो फिर तीन महीनों तक धारा 144 क्यों लागू रही? अभी भी वहां पर 3,000 के करीब पुलिस के जवान तैनात हैं। हम परियोजना के विरोध में नहीं हैं, लेकिन अगर इसकी कीमत जनता और उनकी कृषि योग्य ज़मीन होगी तो निश्चित रूप से इस पर हमारी आपत्ति है।
सीपीएम हमेशा ये आरोप लगाती है कि तृणमूल कांग्रेस और माओवादियों के बीच सांठगांठ है।
अगर माओवादी इतने खतरनाक हैं तो फिर सीताराम येचुरी नेपाल में माओवादियों से बातचीत में क्यों शामिल हुए?
लेकिन उन्होंने ऐसा माओवादियों के चुनाव में हिस्सा लेने के बाद किया।

सिर्फ चुनाव में हिस्सेदारी ने उन्हें लोकतांत्रिक बना दिया? मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूं। अगर ऐसा है तो आप उन्हें प्रतिबंधित क्यों नहीं कर देते? पर हां, माओवादी दिखते कैसे हैं? मैं किसी को देखना चाहती हूं। मुझे तो आशंका है कि उन्हें सीपीएम ने ही बनाया है।
आपका दावा है कि लोग आपके साथ हैं। समाज का कौन सा तबका आपके साथ है?
समाज को इस नज़र से सीपीएम वाले देखते हैं, हम नहीं। समाज का हर तबका हमसे जुड़ा है। हमारी कोशिश जनता की मांगो का समर्थन करना है और हमें उम्मीद है कि इस काम में सभी तबकों का समर्थन हमें मिलेगा।

09 जून 2008

नेपाल में एक राजा रहता था!

कहानियों अर किंवंद्न्तियों का भी अपना एक वर्ग चरित्र होता है.बचपन में उघते-उंघते दादी या मा से कहानियाँ सुनना और कहानियों में किसी राजा के लिये किसी दासी का अपने बच्चे का बलिदान या किसी दास का अपना गलाकाटकर बलिदान देना हमारी मनोव्रित्ति को शासक के लिये समर्पण का बोध ही सिखाती आयी है. और कहानियाँ किसी समय काल का इतिहास होती हैं.समय का बदलाव और लेखक की वर्ग द्रिश्टि किसी पाठक के मनोगत प्रभावों को समाज में उपयुक्त हस्तक्षेप का रास्ता दिखाती है.विजय जी एक लेखक हैं, देहरादून में रहते हैं.हाल में हुए नेपाल कए राजनीतिक बदलाव पर उनकी ये प्रस्तुति जो उनके लिखो यहाँ वहाँ ब्लाग पर पहले प्रकाशित हो चुकी है.
नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
नेपाल में चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। शासन प्रशासन का नया रूप जल्द ही सामने होगा. खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है।
नेपाली जनता 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ रही है। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है।
पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है।
नेपाल और सीमांत में सामंती झगड़ों की चपेट में झुलसती रही जनता के मुक्ति के जश्न को मैं पिता की आंखों से देखूं तो कह सकता हूं कि पिता होते तो सदियों के आतंक से मुक्त हो जाते। नेपाल गणतांत्रिक लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ चला है। सदियों की दासता से नेपाली जनता मुक्त हुई है। लगभग 240 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ राजशाही का आतंक समाप्त।
आतंक की परछाईयों से घिरे पूर्वजों की कथाऐं पिता को भी आतंक से घेरे रही। मां भी आतंकित ही रहती थी। मां की कल्पनाओं में ऐसे ही उभरता रहा था गोरख्याणी का दौर। गढ़वाल-कुमाऊ के सीमांत पर रहने वाले, इतिहास के उस आंतक के खात्मे पर अब भय मुक्त महसूस कर रहे होगें अपने को जिसने उन्हें बहुत भीतर तक दबोचे रखा - पीढ़ियों दर पीढ़ी। पिता ता-उम्र ऐसे आतंक के साये से घिरे रहे। गोरख्याणी का आतंक उनको सपनों में भी डराता रहा था। जबकि गोरख्याणी का दौर तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं। सिर्फ सुनी गयी कथाये ही जब सैकड़ो लोगों को आंतक में डूबोती रही तो उसको झेलने वाले किस स्थिति में रहे होगें, इसकी कल्पना की जा सकती है क्या ?
खुद को जानवरों की मांनिद बेचे जाने का विरोध तभी तो संभव न रहा होगा। हरिद्वार के पास कनखल मंडी रही जहां गोरख्याणी के उस दौर में मनुष्य बेचे जाते रहे। लद्दू घोड़े की कीमत भी उनसे ज्यादा ही थी। लद्दू घोड़ा 30 रु में और लगान चुकता न कर पाया किसान मय-परिवार सहित 10 रु में भी बेचा जा सकता था। बेचने वाले कौन ? गोरखा फौज।
पिता का गांव ग्वालदम-कर्णप्रयाग मार्ग में मीग गदेरे के विपरीत चढ़ती गयी चढ़ाई पर और मां का बच्चपन इसी पहाड़ के दक्षिण हिस्से, जिधर चौखुटिया-कर्णप्रयाग मार्ग है, उस पर बीता। ये दोनों ही इलाके कुमाऊ के नजदीक रहे। नेपाल पर पूरी तरह से काबिज हो जाने के बाद और 1792 में कुमाऊ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल में प्रवेश करती गोरखा फौजों ने इन्हीं दोनों मार्गों से गढ़वाल में प्रवेश किया। गढ़वाल में प्रवेश करने का एक और मार्ग लंगूर गढ़ी, जो कोटद्वार की ओर जाता है, वह भी उनका मार्ग रहा। आंतक का साया इन सीमांत इलाकों में कुछ ज्यादा ही रहा। संभवत: अपने विस्तारवादी अभियान के शुरुआती इन इलाकों पर ही आतंक का राज कायम कर आग की तरह फैलती खबर के दम पर ही आगे के इलाकों को जीतने के लिए रणनीति तौर पर ऐसा हुआ हो। या फिर प्रतिरोध की आरम्भिक आवाज को ही पूरी तरह से दबा देने के चलते ऐसा करना आक्रांता फौज को जरुरी लगा हो। मात्र दो वर्ष के लिए सैनिक बने गोरखा फौजी, जो दो वर्ष बीत जाने के बाद फिर अपने किसान रुप को प्राप्त कर लेने वाले रहे, सीमित समय के भीतर ही अपने रुआब की आक्रांता का राज कायम करना चाहते रहे। अमानवीयता की हदों को पार करते हुए जीते जा चुके इलाके पर अपनी बर्बर कार्यवाहियों को अंजाम देना जिनके अपने सैनिक होने का एक मात्र सबूत था, सामंती खूंखरी की तेज धार को चमकाते रहे। पुरुषों को बंदी बनाना और स्त्रियों पर मनमानी करना जिनके शाही रंग में रंगे होने का सबूत था। गोरख्याणी का ये ऐसा आक्रमण था कि गांव के गांव खाली होने लगे। गोरख्याणी का राज कायम हुआ।
1815 में अंग्रेजी फौज के चालाक मंसूबों के आगे यूंही नहीं छले गये लोग। 1803 में अपने सगे संबंधियों के साथ जान बचाकर भागा गढ़वाल नरेश बोलांदा बद्री विशाल राजा प्रद्युमन शाह। सुदर्शन शाह, राजा प्रद्युमन शाह का पुत्र था। अंग्रेजों के सहयोग से खलंगा का युद्ध जीत जाने के बाद जिसे अंग्रेजों के समाने अपने राज्य के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। अंग्रेज व्यापारी थे। मोहलत में जो दिया वह अलकनन्दा के उत्तर में ढंगारो वाला हिस्सा था जहां राजस्व उगाने की वह संभावना उन्हें दिखायी न दी जैसी अलकनन्दा के दक्षिण उभार पर। बल्कि अलकनन्दा के उत्तर से कई योजन दूरी आगे रवाईं भी शुरुआत में इसीलिए राजा को न दिया। वह तो जब वहां का प्रशासन संभालना संभव न हुआ तो राजा को सौंप देना मजबूरी रही। सुदर्शन शाह अपने पूर्वजों के राज्य की ख्वहिश के साथ था। पर उसे उसी ढंगारों वाले प्रदेश पर संतोष करना पड़ा। श्रीनगर राजधानी नहीं रह गयी। राजधानी बनी भिलंगना-भागीरथी का संगम - टिहरी।
खुड़बड़े के मैदान में प्रद्युमन शाह और गोरखा फौज के बीच लड़ा गया युद्ध और राजा प्रद्युमन शाह मारा गया। पुश्तैनी आधार पर राजा बनने का अधिकार अब सुदर्शन शाह के पास था। पर गद्दी कैसे हो नसीब जबकि गोरखा राज कायम है। बस अंग्रेजों के साथ मिल गया भविष्य का राजा। वैसे ही जैसे दूसरे इलाको में हुआ। अपने पड़ोसी राजा को हराने में जैसे कोई एक अंग्रेजों का साथ पकड़ता रहा। तिब्बत के पठारों पर पैदा होती ऊन और चंवर गाय की पूंछ के बालों पर टिकी थी उनकी गिद्ध निगाहें। यूरोप में पश्मिना ऊन और चँवर गाय की पूंछ के बालों की बेहद मांग थी। पर तिब्बत का मार्ग तो उन पहाड़ी दर्रो से ही होकर गुजरता था जिन पर गोरखा नरेश का राज कायम था। दुनिया की छत - तिब्बत पर वह खुद भी तो चढ़ना चाहता था।

पिता तीन तरह के लोगों से डरते रहे। डरते थे और नफ़रत करते थे। कौन थे ये तीन। गोरखे, कम्यूनिस्ट और संघी।
कम्यूनिस्टों के बारे में वैसे तो उनकी राय भली ही रही। ईमानदार होते हैं, उद्यमी भी। पर घोर नास्तिक होते हैं। पिता बेशक उस तरह के पंडिताई बुद्धि नहीं रहे जैसे आस्थाओं पर तनिक भी तर्क वितर्क न सहन करने वाले संघी। पर धार्मिक तो वे थे ही। नास्तिकों को कैसे बरदाश्त कर लें!
जाति से ब्राहमणत्व को प्राप्त किये हुए, घर में मिले संस्कारों के साथ। पुरोहिताई पुश्तैनी धंधा रहा। पर पिता को न भाया। इसलिए ही तो घर से निकल भागे। कितने ही अन्य संगी साथी भी ऐसे ही भागे पहाड छोड़कर। पेट की आग दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, जाने कहाँ-कहाँ तक ले गयी, घर से भागे पहाड़ के छोकरों को।
देखें तो जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, उसके बाद से ही शुरु हुआ घर से भागने का यह सिलसिला। गोरखा राज के बाद जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, गांव के गांव खाली हो चुके थे। खाली पड़े गांवों से राजस्व कहां मिलता। बस, कमीण, सयाणे और थोकदारों के तंत्र ने अपने नये राजाओं के इशारे पर गांव छोड़-छोड़कर भागे हुए पहाड़ियों को ढूंढ कर निकाला। नये आबाद गांव बसाये गये। ये अंग्रेज शासकों की भूमि से राजस्व उगाही की नयी व्यवस्था थी। फिर जब पुणे से थाणे के बीच रेल लाईन चालू हो गयी और एक जगह से दूसरी जगह कच्चे माल की आवाजाही के लिए रेलवे का विस्तार करने की योजना अंग्रेज सरकार की बनी तो पहाड़ों के जंगलों में बसी अकूत धन सम्पदा को लूटने का नया खेल शुरु हुआ। जंगलों पर कब्जा कर लिया गया। जानवरों को नहीं चुगाया जा सकता था। खेती का विस्तार करना संभव नहीं रहा। पारम्परिक उद्योग खेती बाड़ी, पशुपालन कैसे संभव होता! बस इसी के साथ बेरोजगार हो गये युवाओं को बूट, पेटी और दो जोड़ी वर्दी के आकर्षण में लाम के लिए बटोरा जा सका। जंगलों पर कब्जे का ये दोहरा लाभ था। बाद में वन अधिनियम बनाकर जंगलों के अकूत धन-सम्पदा को लूटा गया। पेशावर कांड का विद्राही चंद्र सिंह गढ़वाली भी ऐसे ही भागा था एक दिन घ्ार से बूट, पटटी और सरकारी वर्दी के आकर्षण में। पर यह भागना ऐसा भागना नहीं था कि लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराना है। पेट की आग को शांत करने के लिए लगायी जा रही दौड़ खाते पीते मोटियाये लोगों के मनोरंजन का पाठ तो हो भी नहीं सकती।
पिता धार्मिक थे और अंत तक धार्मिक ही बने रहे। माँ भी धार्मिक थी। ऐसी धार्मिक कि जिसके पूजा के स्थान पर शालीग्राम पर भी पिठांई लग रही है तो बुद्ध की कांस्य मूर्ति भी गंगाजल के छिड़काव से पवित्र हो रही है। माँ उसी साल गयी, जिस साल को मुझे अपनी एक कविता में लिखना पड़ा - कान पर जनेऊ लटका चौराहे पर मूतने का वर्ष। 2 दिसम्बर का विप्लवकारी वो साल - 1992। माँ 6 दिसम्बर को विदा हो गयी। 2 दिसम्बर 1992 से कुछ वर्ष पूर्व जब भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था, समाचार सुनते हुए माँ की बहुत ही कोमल सी आवाज में सुना था - ये क्या हो गया है लोगों को, जरा जरा सी बात पर मरने मारने को उतारु हो जाते हैं।
दादा पुरोहिताई करते थे। पिता सबसे बड़े थे। दूर-दूर तक फैली जजमानी को निपटाने के लिए दादा चाहते थे कि ज्येठा जाये। हरमनी, कुलसारी से लेकर भगवती तक। दादा की उम्र हो रही थी। टांगे जवाब देने लगी थी। ज्येठे को भगवती भेज कर जहां किसी को पानी पर लगाना है, मंझले को भी आदेश मिल जाता कि वह कुलसारी चला जाये, जजमान को रैबार पहुँचाना है। कठिन चढ़ाई और उतराई की यह ब्रहमवृत्ति पिता को न भायी। जोड़-जोड़ हिला देने वाली चढ़ाई और उतराई पर दौड़ते हुए आखिर एक दिन दादा से ऐसी ही किसी बात पर झड़प हो गयी तो उनके मुँह से निकल ही गया - फंड फूक तै दक्षिणा ते। ऐसी कठिन चढ़ाईयों के बाद मिलने वाली दक्षिणा भाड़ में जाये। बर्तन मांज लूंगा पर ये सब नहीं करुंगा। पिता के पास घर से भागने का पूरा किस्सा था। जिसे कोई भी, खास उस दिन, सुन सकता था, जिस दिन उनके भीतर बैचेनी भरी तरंगें उछाल मार रही होतीं। 6 दिसम्बर के बाद, माँ के न रहने पर तो कई दिनों तक सिर्फ उनका यही किस्सा चलता रहा। हर आने जाने वाले के लिए किस्से को सुने बिना उठना संभव ही न रहा। शोक मनाने पहुंचा हुआ व्यक्ति देखता कि पिता न सिर्फ सामान्य है बल्कि माँ के न रहने का तो उन्हें कोई मलाल ही नहीं है। वे तो बस खूब मस्त हैं। खूब मस्त। उनके बेहद करीब से जानने वाला ही बता सकता था कि यह उनकी असमान्यता का लक्षण है। सामन्य अवस्था में तो इतना मुखर वे होते ही नहीं। बात बात पर तुनक रहे हैं तो जान लो एकदम सामान्य हैं। पर जब उनके भीतर का गुस्सा गायब है तो वे बेहद असमान्य हैं। उस वक्त उन्हें बेहद कोमल व्यवहार की अपेक्षा है। वे जिस दिन परेशान होते, जीवन के उस बीहड़ में घुस जाते जहां से निकलने का एक ही रास्ता होता कि उस दिन मींग गदेरे से जो दौड़ लगायी तो सीधे ग्वालदम जाकर ही रुके। कोई पीछे से आकर धर न दबोचे इसलिए ग्वालदम में भी न रुके, गरुड़ होते हुए बैजनाथ निकल गये। बैजनाथ में मोटर पर बैठते कि साथ में भागे हुए दोनों साथी बस में चढ़े ही नहीं और घर वापिस लौट गये।
बस अकेले ही शुरु हुई उनकी यात्रा। मोटर में बैठने के बाद उल्टियों की अनंत लड़ियां थी जो उनकी स्मृतियों में हमेशा ज्यों की त्यों रही। जगहों के नामों की जगह सिर्फ मुरादाबाद ही उनकी स्मृतियों में दर्ज रहा। जबकि भूगोल गवाह है कि गरूण के बाद अल्मोड़ा, हल्द्वानी और न जाने कितने ही अन्य ठिकानों पर रुक-रुक कर चलने वाली बस सीधे मुरादाबाद पहुंची ही नहीं होगी।
कम्यूनिस्टों का नाम सुनते ही एक अन्जाना भय उनके भीतर घर करता रहा। मालूम हो जाये कि सामने वाला कम्यूनिस्ट है तो क्या मजाल है कि उसकी उन बातों पर भी, जो लगातार कुछ सोचते रहने को मजबूर करती रही होती, वैसे ही वे यकीन कर लें। नास्तिक आदमी क्या जाने दुनियादारी, अक्सर यही कहते। लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी द्विविधा को भी रख देते - वैसे आदमी तो ठीक लग रहा था, ईमानदार है। पर इन कम्यूनिस्टों की सबसे बड़ी खराबी ही यह है कि इन्हें किसी पर विश्वास ही नहीं। इनका क्या। न भाई है कोई इनका न रिश्तेदार। तो क्या मानेगें उसको। और उनकी निगाहें ऊपर को उठ जाती। कभी कोई तर्क वितर्क कर लिया तो बस शामत ही आ जाती थी। जा, जा तू भी शामिल हो जा उन कम्यूनिस्टों की टोली में। पर ध्यान रखना हमसे वास्ता खतम है। कम्यूनिस्ट हो चाहे क्रिश्चयन, उनकी निगाह में दोनों ही अधार्मिक थे - गोमांस खाते है। कम्यूनिस्टों के बारे में उनकी जानकारी बहुत ही उथली रही। बाद में कभी, जब कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ तो अपनी धारणा तो नहीं बदली, जो बहुत भीतर तक धंस चुकी थी, पर उन व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होने के बाद यही कहते - आदमी तो ठीक है पर गलत लोगों के साथ लग गया। धीरे-धीरे इस धारणा पर भी संशोधन हुआ और कभी कभी तो जब कभी किसी समाचार को सुनकर नेताओं पर भड़कते तो अपनी राय रखते कि गांधी जी ने ठीक ही कहा था कि ये सब लोभी है। इनसे तो अच्छा कम्यूनिस्ट राज आ जाये। गांधी जी के बारे में भी उनकी राय किसी अध्ययन की उपज नहीं बल्कि लोक श्रुतियों पर आधारित रही। आजादी के आंदोलन में गांधी जी की भूमिका वे महत्वपूर्ण मानते थे। उस दौर से ही कांग्रेस के प्रति उनका गहरा रुझान था। लेकिन इस बात को कभी प्रकट न करते थे। जब वोट डालकर आते तो एकदम खामोश रहते। किसे वोट दिया, हम उत्सुकतवश पूछते तो न माँ ही कुछ ज़वाब देती और न ही पिता। वोट उनके लिए एक ऐसी पवित्र और गुप्त प्रार्थना थी जिसको किसी के सामने प्रकट कर देना मानो उसका अपमान था। मतदान के नतीजे आते तो भी नहीं। हां, जनसंघ्ा डंडी मारो की पार्टी है, ठीक हुआ हार गयी, समाचारों को सुनते हुए वे खुश होते हुए व्यक्त करते। गाय बछड़े वाली कांग्रेस तक वे उम्मीदों के साथ थे। आपातकाल ने न सिर्फ कांग्रेस से उनका मोह भंग किया बल्कि उसके बाद तो वे राजनीतिज्ञों की कार्यवाहियों से ही खिन्न होने लगे। अब तो कम्यूनिस्ट राज आना ही चाहिए। कम्यूनिस्ट तंत्र के बारे में वे बेशक कुछ नहीं जानते थे पर अपने आस पास के उन लोगों से प्रभावित तो होते ही रहे जो अपने को कम्यूनिस्ट भी कहते थे और वैसा होने की कोशिश भी करते थे।
नेपाल में बदल रहे हालात पर उनकी क्या राय होती, यदि इसे उनकी द्विविधा के साथ देखूं तो स्पष्ट है कि हर नेपाली को गोरखा मान लेने की अपनी समझ के चलते, वे डरे हुए भी रहते, पर उसी खूंखार दौर के खिलाफ लामबंद हुई नेपाली जनता के प्रति उनका मोह भी उमड़ता ही। जब वे जान जाते उसी राजा का आतंकी राज समाप्त हो गया जिसके वंशजों ने गोरख्याणी की क्रूरता को रचा है तो वे निश्चित ही खुश होते। बेशक, सत्ता की चौकसी में जुटा अमला उन्हें माओवादी कहता तो वे ऐसे में खुद को माओवादी कहलाने से भी परहेज न करते।

06 जून 2008

नैतिक पत्रकारिता ही पेशेवर और पेशेवर पत्रकारिता ही नैतिक:-

बर्नार्ड मारग्रेट
पत्रकारिता का मूलतः दो काम है. पहला लोकतंत्र के खंभे के रूप में काम करना और दूसरा लोगों को एक साथ लाने, समुदायों को एक करने में अहम भूमिका का निर्वाह करना. पत्रकारों का मूल काम तो फैक्ट प्रोवाइड करवाना है. क्या, कौन, कहां, कब, क्यों, कैसे, कितना... के फॉर्मेट में लेकिन यही काफी नहीं है. उस फैक्ट के पीछे के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से भी लोगों को रू-ब-रू करवाना जरूरी है.
मीडिया की एक दूसरी अहम भूमिका दो भिन्न समुदाय, संस्कृति, धर्म और जीवनशैली वाले लोगों को भी एक-दूसरे से परिचित कराते हुए करीब लाने की सार्थक कोशिश करना है. यानी इन्फॉर्मेशन को इंटर-फॉर्मेशन और अंडरस्टैंडिंग को म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग में बदलना है. सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना भी मीडिया का काम है.
मिशन से भटकने के कारण ही मीडिया व मीडियाकर्मियों की साख पर सवाल उठने शुरू हुए हैं. पश्चिमी यूरोप में विगत वर्ष एक सर्वेक्षण हुआ कि किस पेशे को लोग सम्मान की नजर से देखते हैं. इसमें मीडियाकर्मियों को मात्र १६-१७ प्रतिशत के बीच अंक मिले.
आज स्थिति क्या हैङ्क्ष मीडिया का दिन-ब-दिन विस्तार हो रहा है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तेजी से फैल रहा है, इंटरनेट पत्रकारिता का दायरा बढा लेकिन फिर भी हम जहां थे, वहीं पर खडे हैं. खबर तो आ रही हैं लेकिन क्याङ्क्ष यह देनेवालों को भी नहीं पता. समाचार अपील नहीं कर पा रहे. आज भी लोग वोट डालने नहीं जाते. लोकतंत्र की मजबूती के लिए आखिर क्या कर रही है मीडियाङ्क्ष
यह सच है कि मीडिया पर ग्लोबलाइजेशन का प्रभाव पडा है. वैसे उद्योगपति, जिनका मीडिया से कोई लेना-देना नहीं था, वे आज मीडिया के कारोबारी हो गये हैं. अमेरिका ऑनलाइन आज नेटस्केप, टाइम, वार्नर ब्रदर्स व सीएनन को नियंत्रित करता है तो फोटोग्राफी के क्षेत्र में बिल गेट्स की एजेंसी 'कॉर्बिस' है. रूपर्ट मर्डोक आज कई ब्रिटिश व अमेरिकी अखबारों के शहंशाह बने हुए हैं. द टाइम्स, द सन, द न्यूयॉर्क पोस्ट, बी स्काई बी जैसे सैटेलाइट नेटवर्क एवं २० सेंचुरी फॉक्स नामक बडी फिल्म निर्माण कंपनी को संचालित कर रहे हैं. यूरोप में भी यह ट्रेंड बढ रहा है. फ्रांस के दो बडे मीडिया ग्रुप सेर्गे डेसॉल्ट और जीन लक लैगार्देर द्वारा नियंत्रित हो रहे हैं. ये दोनों हथियार निर्माण क्षेत्र के व्यापारी रहे हैं. इनके आने से मीडिया उद्योग का लक्ष्य-उेश्य तेजी से अधिक पैसा बनाना और अपना रेटिंग बनाये रखना है. इसके लिए सनसनी, पोर्नोग्राफी, हिंसा को ही मुख्य राह बनाना पडे, तो भी इनके लिए कोई मायने नहीं रखता.
सनसनी लिखना या दिखाना, तो किसी पत्रकार के लिए सबसे आसान होता है. गंभीर विषयों/मुों पर लिखना या काम करना कठिन होता है, क्योंकि उसके लिए पहले होमवर्क, रिसर्च-वर्क करना पडता है. गंभीर विषयों को रोचक ढंग से लिखना तो सबसे कठिन काम होता है. हमें मूल वाक्य याद रखना होगा कि, सिर्फ पेशेवर पत्रकारिता ही नैतिक हो सकती है और नैतिक पत्रकारिता ही पेशेवर हो सकती है.
तो ऐसे में हमें क्या करना चाहिएङ्क्ष सबसे पहले तो यह याद रखना होगा कि हम कॉमोडिटी नहीं बेचते.
प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि बिजनेस को नुकसान पहुंचाये बिना कैसे बेहतरी से काम कर सकते हैं. अच्छी पत्रकारिता के लिए एक पत्रकार के दिल में लोग, समुदाय के लिए प्यार होना बेहद जरूरी है. खुद में बदलाव लाना होगा. यदि रास्ता नहीं निकाल पाते, विजन को विकसित नहीं कर पा रहे, तो फिर बैड गवर्नेंस पर बोलने का हमें अधिकार नहीं.
(फ्रांसीसी पत्रकार बर्नार्ड मारग्रेट इंटरनेशनल कम्युनिकेशंस फोरम के अध्यक्ष हैं. यह आलेख मीडिया, गवर्नेंस व सोसायटी विषयक एक व्याख्यान का संपादित अंश है.)
अनुवाद : निराला

05 जून 2008

मीडियाकर्मियों पर लानत लगाने से बेहतर उनकी स्थिति पर संवेदनशील तरीके से विचार करने की जरूरत है:-


विवेक कुमार सिंह
मीडिया के मूल्यों में गिरावट आयी है. इस बात को लेकर बौद्धिक वर्ग में आम सहमति है. मूल्यों के पतन के लिए मीडिया को कटघरे में खडा किया जाता है. लेकिन एक सवाल अनुत्तरित है कि ऐसा हो क्यों हो रहा है!
मीडियाकर्मियों के मूल्यबोध भी समाज सापेक्ष होते हैं. उनकी आकांक्षाएं और आवश्यकताएं भी वैसी होती हैं, जैसी समाज के अन्य मध्यवर्गीय लोगों की. आजादी के बाद खास कर उदारीकरण से मध्यवर्गीय मानस में उपभोक्तावादी संस्कृति ने अपना स्थायी घर बना लिया है. उपभोक्तावाद की अंधी दौड में समाज, संस्था, सरकार के प्रति वैसी प्रतिबद्धता नहीं पायी जाती, जैसी कुछ दशक पहले थी. आज समाज के प्रति मीडिया की जितनी जिम्मेदारी है, उससे कम जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की नहीं है. प्रमाणिक रूप से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनेताओं का समाज बहिष्कार नहीं करता. झारखंड इसका सबसे अच्छा उदाहरण है. राजनीतिक पार्टियां बाहुबलियों को टिकट देने से परहेज नहीं करती. इस प्रवृत्ति को आप सही मानें या गलत, लेकिन इतना तो साफ है कि भ्रष्टाचार को समाज पूरी तरह अछूत नहीं मानता. बल्कि पैसे के बल पर प्रतिष्ठा पाने की परंपरा भी विकसित हुई है. यह अकारण नहीं है कि हर्षद मेहता किसी समय युवाओं की पहली पसंद में शुमार थे. ऐसे माहौल में केवल मीडियाकर्मियों पर लानत लगाने से बेहतर उनकी स्थिति पर संवेदनशील तरीके से विचार करना भी जरूरी है.
हर सवाल को लौट कर अंततः घर तक ही आना है. क्षेत्रीय भाषाओं में काम करनेवाले एमए पास पत्रकारों की तनख्वाह कई बार दिहाडी मजदूरों से भी कम होती है.वे इस आस में कैरियर की शुरुआत करते हैं कि १८०० रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह कभी उस आंकडे में बदल जायेगी, जो जीविका निर्वाह के लिए पर्याप्त होगा. विज्ञापनों और चौंकानेवाली खबरें प्राप्त करने की होड में उसके अपने आदर्श व मूल्य दबते चले जाते हैं, जिसकी ओर पेज-थ्री फिल्म इशारा करती है. फिर उसका पतन अंधेरे कुएं में कहां तक होगा, कहा नहीं जा सकता. उदाहरण के लिए प्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने बडे मनोयोग से समाज के सच को दिखाने के लिए एक मुहिम के तहत चैनल शुरू किया. लेकिन उनके जाने के चंद दिनों के बाद ही उनकी मुहिम मनोहर कहानियों के शक्ल में तब्दील हो गयी. हम वही दिखाते हैं, जो चलता है की अवधारणा दरअसल मीडिया की नहीं बल्कि भूमंडलीकरण के समाज की सोच है. मीडिया के मूल्यों में आज भी उतनी गिरावट नहीं आयी है, जितनी की राजनीति और शासन की. महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के नेता समाज के एक तबके के खिलाफ विष वमन करते रहते हैं. फिर भी आला पुलिस अधिकारियों के घर में इसके नेता मुख्य अतिथि बनते फिरते हैं. कुख्यात अपराधी नेताओं को सिक्के से तौलते हैं, जनता ताली बजाती है लेकिन मीडिया इनमें कहां है! सच दिखाने पर राजनेताओं से लात खायेंगे, झूठ लिखेंगे तो जनता और मीडिया स्वयं कटघरे में खडा करेगी. ऐसे माहौल में करे, तो क्या करें! फिर कोई मीडिया कभी-कभी राजनीति से सांठ-गांठ कर राज्य सभा की राह पकड ही ले तो क्या बुरा है! विज्ञापन हासिल करने के लिए सरकारी अफसरों के कार्यक्रमों की थोडी तसवीर छप ही जाये, तो क्या बुरा है!
मीडिया लोकतंत्र के आधार स्तंभों में है. इस बात का खयाल द हिंदू और प्रभात खबर जैसे अखबारों को है, लेकिन प्रतिबद्ध पत्रकारिता की मिसाल लगातार कम होती जा रही है. इसमें बाहरी दबावों की भूमिका ज्यादा है. विश्वयुद्ध के समय ब्रेख्त ने लिखा था कि हमारा जब मूल्यांकन करना, तो उस अंधेरे को भी शामिल करना, जिसका सामना करने से तुम बच गये थे. आज मीडिया के मूल्य बदले जरूर हैं,किंतु इसका मूल्यांकन करते समय ब्रेख्त की बातों को जरूर याद करना चाहिए. मूल्यों की आवश्यकता राजनीति, शासन और समाज में भी उतनी ही है, जितनी कि मीडिया के लिए.
(लेखक भारतीय स्टेट बैंक, सिलीगुडी
में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं)

03 जून 2008

मीडिया का नया आचरण : चिंता नहीं, चिंतन की जरूरत


अवनींद्र
मैं इन बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं

लगता है हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक विकास की कहानी अभी अधूरी है. मीडिया के एक बडे वर्ग द्वारा रची गयी नयी आचार संहिता को देख कर तो ऐसा ही लगता. यह सच है कि आज हम सूचना क्रांति के युग में पहुंच गये हैं. सेटेलाइट और इंटरनेट ने पूरे विश्र्व को एक गांव में तब्दील कर दिया है. यह परिवर्तन बहुत हद तक सही भी है, क्योंकि जडता किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए शुभ नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि हम परिवर्तन के नाम पर क्या-क्या स्वीकार करेंगेङ्क्ष आज अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने उपभोक्ता संस्कृति का नया संसार रच दिया है. इस प्रवृत्ति ने मीडिया को भी बाजार केंद्रित बना दिया है. अब निजी हित उससे जुड गये हैं. खबर उसके लिए एक प्रोडक्ट है और पाठक व दर्शक उसके खरीदार. प्रोडक्ट को बेचने के लिए कोई भी हथकंडा गैरवाजिब नहीं होता. मसलन हर तरह के उपक्रम किये जा रहे हैं. जो जितनी जल्दी अपने प्रोडक्ट को लांचिंग करेगा और उसे लुभावने आकर्षक कलेवर में बाजार में उतारेगा, वह उतने ही ग्राहक जुटायेगा. इस होड ने मीडिया को नारद जी के खबर पहुंचाने से छापाखाना होते हुए ब्रेकिंग न्यूज तक पहुंचा दिया है. अब मीडिया का जोर सबसे पहले पर ज्यादा है, चाहे इसका परिणाम जो भी हो.
पिछले वर्ष अगस्त-सितंबर में दिल्ली में लाइव इंडिया नामक एक चैनल ने एक शिक्षिका उमा खुराना पर लडकियों को फांस कर सेक्स रैकेट चलाने का आरोप लगाया. चैनल ने बकायदा इसकी छद्म सीडी भी दिखायी. इस खबर के बाद उत्तेजित लोगों ने उस स्कूल में तोडफोड भी की, जहां यह शिक्षिका पढाती थी. बाद में जब मामले की जांच पडताल की गयी, तो शिक्षिका पर लगाये गये सारे आरोप बेबुनियाद निकले. लेकिन मीडिया ने उस शिक्षिका के चरित्र पर जो दाग लगाया, वह वक्त के पानी से भी शायद नहीं धुलेगा. यह घटना हमेशा उस शिक्षिका के चरित्र के आगे प्रश्नचिह्न उपस्थित करती रहेगी. इसी तरह पिछले दिनों एक चैनल ने दिल्ली के एक गांव में भूत-प्रेत की कथा गढी, जिससे लोगों में भय फैल गया. कुछ लोगों ने चैनल के खिलाफ सूचना प्रसारण मंत्रालय में शिकायत की. इसके बाद मंत्रालय ने उस चैनल को नोटिस जारी किया.
यह सिर्फ उदाहरण है. इस तरह की घटनाएं प्रायः अधिकतर खबरिया चैनलों की सनसनी हुआ करती हैं. हर रोज घृणा फैलायी जा रही है, अंधविश्र्वास को अलंकृत किया जा रहा है. यह दुष्परिणाम है उस बाजारवाद का, जिसने हमारी संवेदना को कुंद कर दिया है. उचित-अनुचित के विवेक को लहूलुहान कर दिया है. सामाजिक सरोकार पर निजी सरोकार हावी हो गये हैं. सर्जना की तमीज खत्म हो गयी है. लडकी के शीलहरण की खबर प्रसारित कर हर घंटे उसका शीलहरण किया जाता है.खबर परोसते वक्त यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि यह बच्चों की आंखों के सामने से भी गुजरेगी और ऐसी सामग्री परोसकर हम भविष्य के लिए विकृत और कुंठित समाज का निर्माण कर रहे हैं. किसी साहित्यकार की मृत्यु खबर नहीं बनती, जबकि सिने तारिकाओं के रोमांस के किस्से दिखाने में घंटो जाया किये जाते हैं.
मीडिया अपने पक्ष में अक्सर यह तर्क भी देता है कि हमारा पाठक-दर्शक वर्ग हमसे यही अपेक्षा करता है,तो हम क्या करें ङ्क्ष लेकिन पाठकों-दर्शकों में क्या यह दिलचस्पी मीडिया ने पैदा नहीं की. क्या उसने समय-समय पर उन अंकुरित होती आकांक्षाओं की जडों में खाद पानी नहीं डाला. अब तो स्थिति यह हो गयी है कि हर घंटे एक्सक्लूसिव परोसने के चक्कर में यह भी ध्यान नहीं रखा जाता कि इसकी विश्र्वसनीयता क्या है और इससे किसी के चरित्र की हत्या भी हो सकती है. हर क्षेत्र में पारदर्शिता की बात करनेवाले मीडिया की पारदर्शिता ही संदिग्ध लगती है. एक समय पत्रकारिता त्याग और समर्पण की चीज हुआ करती थी. लेकिन ऐसा लगता है कि पत्रकारिता के उन्नायकों ने जो नींव रखी थी, उस पर हम मजबूत इमारत खडी नहीं कर पाये. पत्रकारिता तो एक ऐसा हथियार है, जिसका उपयोग और दुरुपयोग दोनों हो सकता है, लेकिन सवाल यह है कि इन हथियारों का संचालक कौन है, उसके न्यस्त हित क्या हैं. आज इस हथियार का संचालन अधिकतर अपरिपक्व हाथों में है. हालांकि सामाजिक- सांस्कृतिक प्रदूषण के इस दौर में भी कुछ अखबारों ने अपनी विश्र्वसनीयता जरूर बचाये रखी है. उनके लिए पर्यावरण और मानव मूल्यों की रक्षा काफी अहम है. लेकिन उनका सामना इन परचूनी बनियों से है. ऐसे में वे कब तक अपने विश्र्वास को अक्षुण्ण रख पायेंगे. मीडिया को यह समझना चाहिए कि आज संदेश विस्फोट का युग है और व्यक्ति अपने तर्क से ज्यादा मीडिया से प्राप्त सूचनाओं और संदेशों पर भरोसा करता है. ऐसे में उसका दायित्व और बढ जाता है कि वह प्राप्त साधनों का इस्तेमाल सावधानी से करे. अगर यही स्थिति रही तो लोकतंत्र की पहरेदारी का दावा करनेवाले मीडिया पर से लोगों का भरोसा उठ जायेगा. आज मीडिया की जो स्थिति सोचनीय बनी हुई है, वह अवश्य बदल सकती है, बशर्ते कुछ लोग सन्नद्ध हों. मीडिया का एक वर्ग जो इन परिस्थितियों की मार खाकर चुपचाप कोने में खडा है, सामने आयेगा. किंतु जरूरत है कि प्रबुद्ध वर्ग जागरूक हो और वह चिंता के बजाय चिंतन करे.

बदलाव के दौर में मीडिया:-


संजय कुमार
पत्रकारिता बदलाव के दौर में है. पत्रकारिता मिशन है या व्यवसाय, बहस करना अब बेमानी है. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शुरुआती दौर में पत्रकारिता पेशा नहीं बल्कि मुहिम हुआ करता था लेकिन अब नहीं. उपभोक्तावादी संस्कृति और भूंडलीकरण के इस आपाधापी के दौर में मीडिया का स्वरूप बदल चुका है.
बदलते दौर में सवाल भी उठता है कि मिशन के तौर पर पत्रकारिता को अपनाने वाले लोग आखिर कब तक बदलते परिवेश से अपने को बचते बचाते रहेंगे. अगर पत्रकारों की माली हालत पर नजर डालें, तो प्रिंट मीडिया में हमेशा से हिन्दी और भाषाई पत्रों के पत्रकारों की स्थिति अंगरेजी पत्रों से बदतर देखी गयी है. हालांकि पिछले कुछेक वर्ष में व्यापक बदलाव आया है.
वहीं जब से खबरिया चैनलों का भारतीय मीडिया में प्रवेश हुआ है, मीडिया के अंदर और बाहर व्यापक बदलाव देखा जा रहा है. मीडिया में कार्यरत पत्रकारों के रहन-सहन में एक नयी धारा उभर कर सामने आयी है. कहा जा सकता है कि आज भारतीय पत्रकारिता 'विलासी पत्रकारिता' के दौर में है. हो भी क्यों नहीं, पत्रकार भी तो आदमी हैं और उन्हें भी बेहतर जीवन जीने का पूरा हक है. लिहाजा पत्र और पत्रकारिता ने आज चोला बदल लिया है. आम आदमी की खबर की जगह समाज में विलासी तत्वों को खबरों में अहमियत दी जाने लगी है.
आजादी के पहले और आजादी के बाद कुछ वर्षों के दौरान पत्रकारिता मिशन रहा, लेकिन कुछ ही समय बाद इसका स्वरूप बदल गया और मिशन से प्रोफेशन हो गया. कह सकते हैं कि शुद्ध रूप से पेशा हो गया है. मीडिया का स्वरूप किस कदर बदल चुका है, इसे साफ देखा जा सकता है.
बदलाव के क्रम में खबरों में भी जबरदस्त बदलाव आया है. 'टू इनफॉर्म, टू एजूकेट, टू इंटरटेन' की परिभाषा बदल गयी है. मीडिया व्यावसायिक हो गयी है और उसके मेनजर ही खबरों को सामने लाया जाता है. तभी तो आज पत्रकारिता की परिभाषा को बदलते हुए, जनहित की खबरों को दरकिनार कर दिया गया. अब बिहार की मीडिया पर एक नजर डालें, तो पाते हैं कि सबसे ज्यादा खबरें अपराध की ही होती है. पटना से प्रकाशित राष्ट्रीय और स्थानीय सभी अखबारों का औसत देखा जाये, तो प्रति अखबार प्रति दिन जन विकास और ग्रामीण विकास की मात्र दो से तीन खबरें ही प्रकाशित करते हैं. जिसमें सकारात्मक और नकारात्मक खबरें शामिल रहती हैं. औसतन सभी अखबार सबसे ज्यादा अपराध और राजनैतिक खबरें ही प्रकाशित करती हैं. उसके बाद सरकारी, प्रशासनिक और सांस्कृतिक व शिक्षा से जुडी खबरों को प्रकाशित किया जाता है. एक अखबार औसतन, एक दिन में अपराध की २२, राजनैतिक १५, सरकारी-प्रशासनिक ६, सांस्कृतिक-शिक्षा ६, भ्रष्टाचार २ और विकास की ३ खबरें प्रकाशित करती हैं. नाकारात्मक खबरों के लिए जाना जाने वाला बिहार के साथ जब साकारात्मक खबर जुडती है, तो मीडिया उसे हल्के या फिर नजर अंदाज करती है. हाल की ही में नयी दिल्ली से चली एक खबर को लें, एक शोधकर्त्ता ने बिहार को कृषि विकास में पंजाब से आगे बताया है. इस खबर को बिहार के पत्रों ने अंदर के पृष्ठों में स्थान दिया. जबकि इस खबर को प्राथमिकता के साथ पहले पृष्ठ पर स्थान मिलना चाहिए था. जाहिर है खबरों में बदलाव आया है. व्यापार और व्यावसायिक खबरें पहले पेज पर आ गयी हैं. होटल में सेलिना (अभिनेत्री) से हुई बदसलूकी की खबर या फिर उद्योगपतियों व उनकी पत्नियों की खबरें प्रमुखता से मीडिया में आ रही हैं. प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक, सभी का एक जैसा ही हाल है. पूंजीपति और समाज में अतिसंपन्न लोगों से जुडी खबरों के आगे विकास और अंतिम पायदान पर खडे लोगों से जुडी खबरों को वह स्थान नहीं मिल पाता, जो उसे मिलना चाहिए ङ्क्ष जनता से जुडी हार्ड और साफ्ट खबरों पर अब कम ही पत्रकार मेहनत करते नजर आते हैं. उपभोक्ता सामग्री के लांचिंग कार्यक्रम को कवर करने और उसे बेहतर डिसप्ले देने में मीडिया कोई कसर नहीं छोडता है. ऊपर से उस कार्यक्रम में कोई सेलिब्रेटी हो तो खबर को प्रमुखता से लिया जाता है.
( लेखक आकाशवाणी से संबद्ध हैं.)

02 जून 2008

पहरेदारी का धंधा और क्रिमिनल बनाने का फॉर्मूला:-पत्रकारिता!

निराला
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उत्तरप्रदेश-मध्यप्रदेश की सीमा पर बसे चित्रकूट में प्रवेश करने के पहले जिला मुख्यालय करबी से ही ऐसे बोर्ड सडक किनारे दिखने लगेंगे. पत्रकारिता की ऐसी दुकानदारी शायद हर जगह में देखने को मिले. यहां पर बताया गया था, पत्रकारिता ऐसे ही चलती है. चित्रकूट बुंदेलखंड का वही इलाका है, जहां अल्टरनेटिव मीडिया के रूप में 'खबर लहरिया' ने एक कीर्तिमान कायम किया. तो क्या चित्रकूट एक मॉडल है पत्रकारिता की दुकानकारी का. शायद नहीं. बिहार-झारखंड में यही स्वरूप देखने को मिलेगा, अंतर बस इतना होगा कि चित्रकूटवाले डंके की चोट पर यह दुकानदारी करते हैं और अपने यहां चाल,चेहरा, चरित्र जरा बदला हुआ होता है. पत्रकारिता से संबंधित कई किस्से बडे रोचक अंदाज में बयां किये जाते हैं.
झारखंड में एक पत्रकार के किस्से रोचक अंदाज में बताये जाते हैं. कुछ साल पहले वह निजी वाहन से संपूर्ण झारखंड यात्रा पर निकले और न जाने कितनों को पत्रकार बनाने का मिशन पूरा कर वापस रांची लौटे थे. पत्रकारिता का लाइसेंस यानी आइ-कार्ड देने के लिए उन्होंने एक शुल्क सीमा तय की थी २५ से ५० हजार रुपये तक. तरह-तरह के धंधे में लगे धंधेबाजों, कालाबाजारियों, ठेकेदारों को उन्होंने इस निर्धारित शुल्क में आइ-कार्ड की रेवडियां बांटी. उन्होंने एक शिष्यमंडली बनायी, जो बीडीओ से लेकर सरकारी अस्पताल के शिक्षकों तक की पहरेदारी करने लगा. कौन कितना लेट आया और कितने देर तक अपनी डूटी में रहा. यह कैमरे में कैद होने लगा और फिर इसी आधार पर वसूली का रेट भी तय हुआ.
तब झारखंड में पत्रकारिता की दुकानदारी का एक नया मॉडल इजाद हुआ. हर छोटे-बडे शहर में केबल न्यूज चैनल की शुरुआत हुई और उसी के साथ पहरेदारी का धंधा भी. हर जगह अपने को तरुण तेजपाल, अनिरुद्ध बहल कहनेवाले पत्रकार दिखने लगें. तकनीक का सस्ता होना ऐसे केबल चैनलों के लिए तो वरदान साबित हुआ ही है, इसका एक प्रभाव प्रिंट मीडिया के उन कस्बाई पत्रकारों पर भी पडा. बदलाव यह हुआ कि कई कस्बाई पत्रकार ऐसे निकले, जिनके पास एक वीडियो कैमरा जरूर रहने लगा. इसके पीछे एक तर्क यह भी दिया जाता है कि चूंकि अब नेशनल मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कस्बाई मीडिया पर ही केंद्रित होते जा रही है. तरह-तरह के नाग-नागिन, भूत-पिशाच और अद्भुत कारनामे आसानी से गांवों में शूट कर लिये जाते हैं और फिर उसकी कलरिंग कर बडे फलक पर विशेष कार्यक्रम के तहत प्रस्तुत कर दिया जाता है. ऐसे में प्रिंट मीडिया के कस्बाई पत्रकारों का भी मोह वीडियो कैमरा की ओर तेजी से हुआ है.
इन सबसे जो भिन्न है, वह है अपराध पत्रकारिता. एक नया फॉर्मूला विकसित हुआ. अपराध जगत के नायकों को खडा करने का ठेका लिया जाने लगा. यदि कोई अपराधी एक हत्या करे, तो उसे दहशत का ऐसा पर्याय बना कर पेश किया जाने लगा कि उसके नाम का खौफ आम आदमी के जेहन में पूरी तरह बैठ जाये. यह खौफ तब तक कायम रहे, जब तक कि उस अपराधी की दुकानदारी चल न निकले. बताया जाता है कि ऐसे पत्रकार सिर्फ पत्रकारिता के वर्तमान दौर में क्राइम, क्रिकेट,सिनेमा और सेक्स वाले मुहावरे के हिसाब से नहीं करते, बल्कि इसके लिए बजाप्ता अपराधियों से उनकी बातचीत होती है कि आखिर उनकी मंशा क्या है.(साभार प्रभात खबर)

01 जून 2008

... तो पत्रकारिता में हीरो कहां से आयेंगे:-

कुमार नित्यगोपाल:-
वर्तमान समय में पत्रकारिता में अनोखा स्लोगन सबकी जुबां पर है- ५० से २०० कॉपी खरीदो और पाओ दो तीन कॉलम की खबरें...! यह कौन सी परंपरा है क्या वाकई इससे अखबारों के प्रसार में वृद्धि होती है! विज्ञापन पर जो असर पडता होगा, वह अलग बात. लेकिन इससे इसके बहाने पत्रकारिता के आदर्श को भी ताक पर रख दिया गया है.
अब जरा अखबार में काम करनेवाले पत्रकारों पर नजर डालें. यहां मैं शहरी क्षेत्र के ऊंचे ओहदेवाले पत्रकारों की बात नहीं करना चाहता. मैं तो मुफस्सिल पत्रकारों की बात कर रहा हूं. प्रबंधन या संपादक द्वारा इनकी चयन की प्रक्रिया पर बात करना चाहता हूं.पत्रकारिता के क्षेत्र में संपादक सर्वोपरी होता है. संपादक या प्रबंधक की विश्र्वासपात्रता ही पत्रकारों की योग्यता होती जा रही है. डिग्री, सर्टिफिकेट या शिक्षा कोई मायने नहीं रखता. यहां तो साक्षर नौजवान ही पत्रकार बन बैठे हैं. शायद यही वजह है कि अब समाचार का स्रोत गुप्त नहीं रहता, उसका डंका पीटा जाता है. वजह शुद्ध लाभ का है. चाटुकारिता से समाचार गढे जा रहे हैं.
१९८० से पूर्व तक चार लाइनों की खबर छपने पर अधिकारी चक्कर लगाया करते थे, लेकिन अब पूरा पृष्ठ छपने पर भी चैन की नींद सोते हैं. तब प्रसार संख्या भले कम हो, लेकिन प्रभाव गहरा था. वर्तमान समय के स्थानीय संस्करणों की खबरों में अपरिपक्वता स्पष्ट रूप से झलकती है. प्रबंधन एवं संपादकों को इस पर विचार करने की जरूरत है कि पत्रकारों के चयन के लिए कोई निर्धारित पैमाना होगा या नहीं. क्षेत्र भागदौड का है, इसलिए रोटी के बगैर कोई भी पत्रकार प्रतिबद्धता के साथ संस्थान के लिए काम नहीं कर सकता. यह जरूरी नहीं कि पत्रकारों की संख्या में काफी बढोत्तरी कर खबरों को छुटने से बचाया जा सके. सिमित पत्रकारों को प्रबंधन द्वारा सुविधाएं उपलब्ध कराने में भी आसानी होगी.
हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म अवार्ड समारोह के दौरान मीडिया जगत की जानी-मानी हस्तियों के बीच इस बात पर विचार किया गया कि क्या अच्छी पत्रकारिता का अर्थ बुरा व्यापार हैङ्क्ष इस दृष्टिकोण से मुझे लगता है कि पारंपरिक रूप से पत्रकारिता जिस उेश्य को लेकर खडी हुई थी, आज स्थिति ठीक उसके उलट है. २००७ के प्रतिष्ठित मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पी साईंनाथ के शब्दों में पत्रकार बडे व्यापार, सरकार, अमीरों और शक्तिशाली लोगों के लिए काम करनेवाला क्लर्क बन कर रह गया है. यहां तक कि एक पत्रकार की कसौटी मापने के लिए उसके द्वारा दी गयी रिपोर्टों की संख्या को आधार बनाया जाता है.
आज के मीडिया जगत में जनसांख्यिकी और मार्केटिंग जैसे शब्द को भी जन विश्र्वास का नाम दे दिया गया है. जबकि अफवाहों तथा गॉशिप ने समाचार की जगह ले ली है. सनसनी ने वास्तविकता पर जीत दर्ज कर ली है. अब तक छिपे रहनेवाले मीडियाकर्मी एक बेहद प्रभावकारी युवा पीढी के लिए सेलिबे्रटी और जाने-पहचाने रोल-मॉडल बन गये हैं. वे भले ही रोल मॉडल बन गये हैं, लेकिन आज पत्रकारिता के पास हीरो की कमी है. मीडिया के स्वास्थ्य का तकाजा है कि वह सरकारी और व्यावसायिक, दोनों प्रकार की मानसिकता से ऊपर उठ कर काम करने की आवश्यकता और महत्ता को समझे. व्यवसायिक हितों को वरण करते हुए भी सामाजिक दायित्व की पूर्ति संभव है. यह संतुलन हमारे मीडिया को बनाना होगा. आज तो अंधी दौड चल रही है. यह नीचे जानेवाली दौड है, इसलिए आसान भी लगती है. इसके बारे में सोचना बहुत ही जरूरी है, कल बहुत देर हो सकती है.
(लेखक तिलकामांझी विश्र्वविद्यालय, भागलपुर के शोध छात्र हैं.)