16 फ़रवरी 2011

बांध परियोजनाओं से उपजे पुनर्वास के सवाल


दिलीप खान
उत्तर औपनिवेशिक भारत की पहली नदी घाटी परियोजना से विस्थापित लोगों का अभी भी पुनर्वास नहीं हुआ है. पिछले 57 साल से पुनर्वास की आस लगाए लगभग चार हज़ार प्रभावित लोगों ने अब 27 फ़रवरी से आमरण अनशन पर जाने का फ़ैसला किया है. इसमें आंदोलन कर रहे लोगों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी भी शामिल हो रही हैं, जो विस्थापित अवस्था में ही पैदा और जवान हुई. दामोदर घाटी परियोजना के समय, 1954 में, जब इनकी ज़मीन अधिग्रहित की गई थी तो पश्चिम बंगाल और मौजूदा झारखंड के 250 से अधिक गांव इसकी जद में थे. इन गांवों से विस्थापित हुए लोगों में से सिर्फ़ 340 लोगों को ही सरकार ने अब तक मुआवजा और नौकरी दी है, जबकि एक हज़ार से अधिक विस्थापित परिवार पिछली आधी सदी से सरकारी दफ़्तरों में भटक और सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं. इन लोगों ने ’दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ’ के बैनर तले इस संघर्ष के तेज करने का फ़ैसला किया है. बीते साल भी इनमें से लगभग तीन हज़ार लोगों ने तीन दिनों तक भूख हड़ताल किया था, जिस पर हुआ समझौता अभी तक अधर में लटका हुआ है.
’50 के दशक में शुरु हुई दामोदर घाटी निगम और हीराकुंड बांध परियोजना देश की सबसे महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से थीं. विद्युत उत्पादन और सिंचाईं व्यवस्था को लक्ष्य करते हुए 7 जुलाई 1948 को संवैधानिक एक्ट के तहत दामोदर घाटी परियोजना की शुरुआत की गई और 5 सालों के भीतर 1953 में ही तिलैया में दामोदर की एक सहायक नदी बराकर पर पहला बांध बन कर तैयार हो गया. तब से लेकर अब तक इन विस्थापितों के संदर्भ में पुनर्वास की जितनी कवायदे हुईं हैं वह थोथी साबित हुईं. दामोदर घाटी निगम का प्रबंधन पुनर्वास की ज़िम्मेदारी से कई दफ़ा इन्कार कर चुका है. संबंधित राज्यों के राज्यपालों सहित उच्चतम न्यायालय द्वारा विस्थापितों के पक्ष में फ़ैसला सुनाने के बाद भी पीड़ितों को उचित आवास और मुआवजा अब तक नहीं मिला है.
देश में बांधों और नदी घाटी परियोजनाओं की ऐतिहासिक समीक्षा करने पर सरकारी नीतियों का लचड़पन साफ़ हो जाता है. पर्यावरण क़ानून और ज़मीन अधिग्रहण से लेकर पुनर्वास तक की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ हुआ है. 1953 में महानदी पर बने हीराकुंड बांध से विस्थापित हुए लोगों का भी संघर्ष अब तक जारी है. नदी घाटी परियोजना जिन लक्ष्यों को साधने के लिए शुरू हुईं थीं, उनके बजाए इन्हें औद्योगिक कामों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा. संभलपुर में ’हीराकुंड नागरिक परिषद’ ने औद्योगिक क्षेत्र के लिए पानी भेजने के विरोध में राष्ट्रपति से मुलाकात करने के बाद अक्टूबर 2006 में बांध के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक 20 किमी. लंबी मानव श्रृंखला बनाकर लोगों का ध्यान खींचा था. हीराकुंड बांध के दो ऊंची मीनारों का नामकरण नेहरू और गांधी के नाम पर किया गया है, लेकिन इन दो मीनारों को मानव शरीर से जोड़ देने के बावज़ूद प्रभावितों को राहत नहीं मिली. बांध के मुद्दे पर देश में ऐसे संघर्ष कई रूपों में और कई मामलों को लेकर चल रहे हैं. रेणुका बांध के विरोध में हिमाचल प्रदेश के लोग पिछले एक साल से सड़क पर हैं. इस बांध के डूब क्षेत्र के अंतर्गत सिरमौर ज़िले के 33 गांव आते हैं. दिल्ली को पानी मुहैया कराने के लिए यह बांध बनाया जा रहा है. ऐसा आकलन है कि अभी दिल्ली में सिर्फ़ 60% पानी का ही सही इस्तेमाल हो पा रहा है. दिल्ली के नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री को कुछ तरीके सुझाए हैं जिनमें तकनीकी सुधार के जरिए इसे 90% के स्तर तक बढ़ाया जा सकता है. इस उपक्रम के जरिए रेणुका से बचा जा सकता है.
नर्मदा घाटी में जल-जंगल-ज़मीन के संघर्ष को पच्चीस साल हो गए और यहां से विस्थापित हुए पचास हज़ार से अधिक लोग अभी भी सही मुआवजे और पुनर्वास के लिए आंदोलनरत हैं. सरदार सरोवर परियोजना के लिए 50 साल से अधिग्रहीत की गई भूमि का 40% हिस्सा बिना किसी इस्तेमाल के परती पड़ा हुआ है. ज़मीन के कुछ टुकड़े को सरकार ने कंपनियों और उद्योगों को किराए पर दे रखा है. ज़मीन अधिग्रहण करने के बाद उसके ग़ैर-परियोजनाकारी इस्तेमाल का प्रचलन देश में एक मामले तक नहीं सिमटा है. लवासा परियोजना को अभी जहां विकसित किया जा रहा है, उसका कुछ हिस्सा 1975 में बने बारसगांव बांध के नाम पर अधिग्रहित किया गया था और अगले पच्चीस-तीस सालों तक वह पड़ती पड़ा रहा. अब इसे लवासा पर खरचा जा रहा है.
बांध से मार खाई ज़िंदगियों के चलते कई बार लोगों ने आमरण अनशन को विरोध के तरीके के तौर पर चुना है. ’दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ’ उसी परंपरा की अगली कड़ी है. नर्मदा घाटी में जब 7 जनवरी 1991 को सात लोगों के बलिदानी जत्था ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का ऐलान किया, तब जाकर सरदार सरोवर परियोजना की स्वतंत्र समीक्षा कराने की स्थिति बन पाई थी. यह निर्णय भूख हड़ताल के 22वें दिन आया. 1993 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने यह घोषणा की थी कि अगर सरकार इस परियोजना का पुनरीक्षण करने को राजी नहीं हुई तो उनके कुछ कार्यकर्ता नर्मदा में जल समाधि ले लेंगे, लेकिन अपनी ताकत के बल पर राज्य ने इसे टाल दिया.
पुनर्वास के अधिकांश मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकारी पहलक़दमी हुई है. कई बार तो बाध्यकारी उपबंधों के तले ऐसे क़दम उठाए गए. ओंकारेश्वर बांध के सिलसिले में विस्थापितों के पक्ष में जब राज्य उच्च न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया तो मध्य प्रदेश सरकार और एनएसडीसी ने उच्चतम न्यायालय में अपील कर दी. सरकारी पक्ष यह था कि राज्य के पास पुनर्वास के लिए मात्र 5000 हेक्टेयर ज़मीन ही है. तब जाकर उच्चतम न्यायालय में तत्कालीन न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन ने सरकार को लगभग फ़टकार लगाते हुए पीड़ितों को सही व्यवस्था देने को कहा था. उन्होंने राज्य को चेताया भी था कि यदि राज्य के पास पर्याप्त ज़मीन नहीं है तो वह ऐसी परियोजनाओं को बिना पूर्वाकलन के शुरू न करे. सरकारी उदासीनता को सामाजिक नज़रिए से व्याख्यायित करने पर तो मामला अधिक स्पष्ट हो जाता है. अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के अनुसार बांध के चलते विस्थापित होने वाले लोगों में आदिवासियों और दलितों का सम्मिलित आंकड़ा 60% के आस-पास हैं, जबकि भारत की कुल जनसंख्या में मात्र 8% आदिवासी और 15% दलित है. इसलिए पिछली आधी सदी में बांध से विस्थापित हुए चार करोड़ से अधिक लोग राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाए, जबकि दिल्ली की सीलिंग पर हुई राजनीतिक उठापटक के बाद कई इलक़ों में सीलिंग बंद करनी पड़ी और सरकार को निर्णय टालना पड़ा था.
ऐसे आंदोलनों की छवि को जो लोग विकास-विरोधी बताकर पेश करते हैं, उन्हें इस तथ्य पर ग़ौर करना चाहिए कि क्यों हीराकुंड बांध के नाम पर मुआवजे का वितरण सिर्फ़ 3.32 करोड़ रुपए तक ही सीमित रहा, जबकि मुआवजे का वास्तविक अनुमान 12 करोड़ रुपए लगाया गया था जिसे बाद में घटाकर 9.5 करोड़ रू० कर दिया गया. बाद में इस अनुमानित राशि का भी एक तिहाई ही बांटा गया. समय और महंगाई के साथ मुआवजे की राशि बढ़ने के बजाए घट क्यों गई? दामोदर घाटी के लोगों ने लंबा सहा है. इसी परियोजना के दायरे में आने वाले शारीरिक रूप से अक्षम एक व्यक्ति मो. रफ़ीक़ अंसारी ने लंबी लड़ाई के बाद सूचना का अधिकार के जरिए जीत हासिल की. परियोजना में रफ़ीक़ को यह भरोसा दिलाया गया था कि उन्हें 20 एकड़ ज़मीन के बदले तीन लाख रुपए तथा वैकल्पिक रोज़गार दिया जाएगा, लेकिन बाद में निगम मुकड़ गया. आरटीआई में भी उन्हें केंद्रीय सूचना आयोग तक जाना पड़ा तब जाकर उन्हें राहत मिली है. ऐसे में असल सवाल यह है कि क्या हरेक व्यक्ति को रफ़ीक की तरह दशकों तक लड़ना होगा या फिर राज्य और सरकार अपनी जिम्मेदारी त करेगी?
(लेखक: पत्रकार), संपर्क: मो. - +91 9555045077, E-mail - dilipk.media@gmail.com

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