अनुज शुक्ला .
फेसबुक पर होने वाली बहसें इसको इस्तेमाल करने वालों की प्रकृति पर निर्भर करती हैं । अब फेसबुक सिर्फ दुनियावी मस्ती का अड्डा मात्र नहीं रहाए बल्कि यह हमारे समय की गंभीर बहसों को दर्ज करने वाले मंच के रूप में उभर रहा है। कई अनुत्तरित सवालों के जवाब को ढूढ़ने का प्रयास भी कर रहा है जिस पर कभी हम मौन धारण कर लिया करते थे। हम उस दौर में हैं जिसमें असहमति के लिए स्पेस और पब्लिक स्फेयर लगातार सिमटते जा रहे हैं । पिछले कई महीने की राजनीतिए कूटनीति और रोज़मर्रा से जुड़ी कई घटनाओं पर वर्चुवल स्पेस में फेसबुक की प्रतिक्रीयाओं ने लगभग स्पष्ट कर दिया है कि यह दौर चुप रहने वालों का नहीं। अब ऐसा नहीं है कि कहनेए सुनने और पूछने के लिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त एकतरफा मंच होंगे। अपने फेसबुक एकाउंट में सुनील सुमन जो हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में सहायक प्रोफेसर हैं उन्होने विवाह और जाति व्यवस्था से जुड़ी बहस शुरू की। इस विषय पर कई मर्तबा बात की गई है। पहल करने या सवाल पर जवाब देने की बजाय इसे हमेशा अगली पीढ़ी के लिए टाल दिया गया। सुनील जी ने एक महत्त्वपूर्ण सवाल फेसबुक पर साझा किया . ष्ष्परिवार और समाज के तमाम विरोधों के बावजूद अंतरजातीय प्रेम विवाह होने लगे हैंए लेकिन अंतरजातीय अरेंज मैरेजेज़ क्यों नहीं हो पा रही है। क्या हम अभी इतने शिक्षितए सभ्य और प्रगतिशील नहीं हो पाये हैंष्ष्घ् उनका सवाल इसलिए अर्थपूर्ण है कि वे तमाम लोग जो जातिव्यवस्था को तोड़ने के पैरोकार रहे हैं वे भी अपने बेटे . बेटियों की अरेंज शादी अपनी जाति में ही करते पाए जाते हैं। हालाकी ऐसे कुछ मौके जरूर आए हैं जिसमें ऑनर किलिंग से बच. बचाकर कुछ विजातीय शादियाँ करी . कराई गई हैं। लेकिन हकीकत में ये शादियाँ लड़के.लड़कियों के प्रेम के कारण हुई। इन विजातीय शादियों का श्रेय किसी सामाजिक परिवर्तन को नहीं दिया जा सकता। जाति और विवाह के इस मसले पर दिनामनि भीम की टिप्पणी से मर्ज की भयावहता को समझा जा सकता है। उनका कहना है कि ष्ष्अब उच्च वर्णों के अलावा जो अनुसूचित जाति से हैं वे भी जाति पूछते हैंष्ष्। इस आधुनिक समय में जाति का कोढ़ अपने विस्तार के परम बिन्दु पर है। कभी डाण् भीम राव अंबेडकर ने भी जाति व्यवस्था को तोड़ने के लिए रोटी.बेटी सम्बन्धों की वकालत की थी। उनकी राय में यह जातीय आसमानता को दूर करने का सबसे ज्यादा कारगर तरीका साबित हो सकता है। अब सवाल मौजूं है कि जातीय व्यवस्था को तोड़ने का जब यह सबसे कारगर तरीका है तो फिर इसे क्यों नहीं आजमाया गयाघ् आखिर ऐसा क्यों हुआ कि जनेऊ . जंतरों को अप्रगतिशील कहने वाला लेखकए बुद्धिजीवी वर्ग ता.उम्र ब्राह्मण वादी अवशेष को ढोता फिरता रहा। ब्राहमणवादी अवशेष का अन्य जातियों में विस्तार हो चुका हैं। जिसे अंतरजातीय प्रेम विवाह के सवाल से जूझ रहे फेसबुक पर सागर जेएनयू ने अपनी टिप्पणी में दर्ज की ष्ष्एचण्एलण् दुशाध ने अपने बेटे की अंतरजातीय अरेंज मैरिज की पर उन्होने जब ऐसा अपनी बेटी के लिए करने का प्रयास किया तो समाज में उनका व्यापक विरोध हुआश्। मैट्रीमोनियल विज्ञापनों को लेकर प्रवीण यादव की सूचना कि ष्ष्लोकसत्ता के मैट्री मोनियल में यह तो सूचना रहती है कि अंतरजातीय तो चलेगा पर एससीए एसटी माफ करोष्ष् हालात के दूसरे मजमून की ओर इशारा करती है। तो क्या यह मान लिया जाय की यह एक बड़ी समस्या है और इसका हल हमारे पास मौजूद नहीं। क्या कहीं ऐसी एकाध जगहें नहीं हैं जो रोशनी दिखाने का प्रयास कर रही हों। बहरहालए मैंने लोकमत समाचार का हवाला देते हुए लिखा कि महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में एक ऐसा गाँव हैं जिसमें 51 वे जोड़े ने अंतरजातीय प्रेम.विवाह परिवार और समाज की सहमति से किया है। गाँव के लोग न तो उतने ज्यादा पढे.लिखे हैं और न ही प्रगतिशीलय जिनको लेकर सुनील जी ने फेसबुक पर बहस आयोजित की । यह बिलकुल सही ही है कि अंतरजातीय प्रेम विवाह तो हो रहे हैं पर अभी तक अंतरजातीय अरेंज.मैरीज की शुरूआत नहीं हो पायी है। क्योंकि मूल मसला जाति का है। जब तक यह व्यवस्था मौजूद रहेगी हम भले ही कहे की जाति व्यवस्था टूटने को है पर यह कभी टूटेगी नहीं। इसका शिक्षित होने या प्रगतिशील होने से कोई संबंध नहीं है। अब यह हास्यास्पद स्थिति है कि जिस दिए के सहारे हम दुनिया को रोशनी देने का प्रयास कर रहे हैं वह खुद हमें अंधेरे से उबार नहीं पा रहा है। तभी तो कभी बिहार में जाति व्यवस्था के खिलाफ जनेऊ तोड़ो आंदोलन शुरू करने वाले राम बृक्ष बेनीपुरी के बेटे ने अपने पुत्र का जनेऊ संस्कार आयोजित किया। जाति के सवाल पर भारत के अलग.अलग हिस्सों में कुछ विशेष अंतर नहीं है। जाति व्यवस्था को पुख्ता करने वाले सैकड़ों उदाहरण हमारे आस.पास मौजूद हैं। दरअसल जाति की व्यवस्था इसलिए मौजूद रही कि हमने हमेशा ऐसा आंदोलन चलाया जो पड़ोस में तो भगत सिंह पैदा करता था खुद के घर में नहीं । संपर्क- anuj4media@gmail.com
फेसबुक पर होने वाली बहसें इसको इस्तेमाल करने वालों की प्रकृति पर निर्भर करती हैं । अब फेसबुक सिर्फ दुनियावी मस्ती का अड्डा मात्र नहीं रहाए बल्कि यह हमारे समय की गंभीर बहसों को दर्ज करने वाले मंच के रूप में उभर रहा है। कई अनुत्तरित सवालों के जवाब को ढूढ़ने का प्रयास भी कर रहा है जिस पर कभी हम मौन धारण कर लिया करते थे। हम उस दौर में हैं जिसमें असहमति के लिए स्पेस और पब्लिक स्फेयर लगातार सिमटते जा रहे हैं । पिछले कई महीने की राजनीतिए कूटनीति और रोज़मर्रा से जुड़ी कई घटनाओं पर वर्चुवल स्पेस में फेसबुक की प्रतिक्रीयाओं ने लगभग स्पष्ट कर दिया है कि यह दौर चुप रहने वालों का नहीं। अब ऐसा नहीं है कि कहनेए सुनने और पूछने के लिए पूर्वाग्रह से ग्रस्त एकतरफा मंच होंगे। अपने फेसबुक एकाउंट में सुनील सुमन जो हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में सहायक प्रोफेसर हैं उन्होने विवाह और जाति व्यवस्था से जुड़ी बहस शुरू की। इस विषय पर कई मर्तबा बात की गई है। पहल करने या सवाल पर जवाब देने की बजाय इसे हमेशा अगली पीढ़ी के लिए टाल दिया गया। सुनील जी ने एक महत्त्वपूर्ण सवाल फेसबुक पर साझा किया . ष्ष्परिवार और समाज के तमाम विरोधों के बावजूद अंतरजातीय प्रेम विवाह होने लगे हैंए लेकिन अंतरजातीय अरेंज मैरेजेज़ क्यों नहीं हो पा रही है। क्या हम अभी इतने शिक्षितए सभ्य और प्रगतिशील नहीं हो पाये हैंष्ष्घ् उनका सवाल इसलिए अर्थपूर्ण है कि वे तमाम लोग जो जातिव्यवस्था को तोड़ने के पैरोकार रहे हैं वे भी अपने बेटे . बेटियों की अरेंज शादी अपनी जाति में ही करते पाए जाते हैं। हालाकी ऐसे कुछ मौके जरूर आए हैं जिसमें ऑनर किलिंग से बच. बचाकर कुछ विजातीय शादियाँ करी . कराई गई हैं। लेकिन हकीकत में ये शादियाँ लड़के.लड़कियों के प्रेम के कारण हुई। इन विजातीय शादियों का श्रेय किसी सामाजिक परिवर्तन को नहीं दिया जा सकता। जाति और विवाह के इस मसले पर दिनामनि भीम की टिप्पणी से मर्ज की भयावहता को समझा जा सकता है। उनका कहना है कि ष्ष्अब उच्च वर्णों के अलावा जो अनुसूचित जाति से हैं वे भी जाति पूछते हैंष्ष्। इस आधुनिक समय में जाति का कोढ़ अपने विस्तार के परम बिन्दु पर है। कभी डाण् भीम राव अंबेडकर ने भी जाति व्यवस्था को तोड़ने के लिए रोटी.बेटी सम्बन्धों की वकालत की थी। उनकी राय में यह जातीय आसमानता को दूर करने का सबसे ज्यादा कारगर तरीका साबित हो सकता है। अब सवाल मौजूं है कि जातीय व्यवस्था को तोड़ने का जब यह सबसे कारगर तरीका है तो फिर इसे क्यों नहीं आजमाया गयाघ् आखिर ऐसा क्यों हुआ कि जनेऊ . जंतरों को अप्रगतिशील कहने वाला लेखकए बुद्धिजीवी वर्ग ता.उम्र ब्राह्मण वादी अवशेष को ढोता फिरता रहा। ब्राहमणवादी अवशेष का अन्य जातियों में विस्तार हो चुका हैं। जिसे अंतरजातीय प्रेम विवाह के सवाल से जूझ रहे फेसबुक पर सागर जेएनयू ने अपनी टिप्पणी में दर्ज की ष्ष्एचण्एलण् दुशाध ने अपने बेटे की अंतरजातीय अरेंज मैरिज की पर उन्होने जब ऐसा अपनी बेटी के लिए करने का प्रयास किया तो समाज में उनका व्यापक विरोध हुआश्। मैट्रीमोनियल विज्ञापनों को लेकर प्रवीण यादव की सूचना कि ष्ष्लोकसत्ता के मैट्री मोनियल में यह तो सूचना रहती है कि अंतरजातीय तो चलेगा पर एससीए एसटी माफ करोष्ष् हालात के दूसरे मजमून की ओर इशारा करती है। तो क्या यह मान लिया जाय की यह एक बड़ी समस्या है और इसका हल हमारे पास मौजूद नहीं। क्या कहीं ऐसी एकाध जगहें नहीं हैं जो रोशनी दिखाने का प्रयास कर रही हों। बहरहालए मैंने लोकमत समाचार का हवाला देते हुए लिखा कि महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में एक ऐसा गाँव हैं जिसमें 51 वे जोड़े ने अंतरजातीय प्रेम.विवाह परिवार और समाज की सहमति से किया है। गाँव के लोग न तो उतने ज्यादा पढे.लिखे हैं और न ही प्रगतिशीलय जिनको लेकर सुनील जी ने फेसबुक पर बहस आयोजित की । यह बिलकुल सही ही है कि अंतरजातीय प्रेम विवाह तो हो रहे हैं पर अभी तक अंतरजातीय अरेंज.मैरीज की शुरूआत नहीं हो पायी है। क्योंकि मूल मसला जाति का है। जब तक यह व्यवस्था मौजूद रहेगी हम भले ही कहे की जाति व्यवस्था टूटने को है पर यह कभी टूटेगी नहीं। इसका शिक्षित होने या प्रगतिशील होने से कोई संबंध नहीं है। अब यह हास्यास्पद स्थिति है कि जिस दिए के सहारे हम दुनिया को रोशनी देने का प्रयास कर रहे हैं वह खुद हमें अंधेरे से उबार नहीं पा रहा है। तभी तो कभी बिहार में जाति व्यवस्था के खिलाफ जनेऊ तोड़ो आंदोलन शुरू करने वाले राम बृक्ष बेनीपुरी के बेटे ने अपने पुत्र का जनेऊ संस्कार आयोजित किया। जाति के सवाल पर भारत के अलग.अलग हिस्सों में कुछ विशेष अंतर नहीं है। जाति व्यवस्था को पुख्ता करने वाले सैकड़ों उदाहरण हमारे आस.पास मौजूद हैं। दरअसल जाति की व्यवस्था इसलिए मौजूद रही कि हमने हमेशा ऐसा आंदोलन चलाया जो पड़ोस में तो भगत सिंह पैदा करता था खुद के घर में नहीं । संपर्क- anuj4media@gmail.com
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