अनुज शुक्ला-
अमेरिका में पिछले हफ्ते इमिग्रेशन अधिकारियों ने वीज़ा क़ानून के उल्लंघन के आरोप में वैली विश्वविद्यालय के 18 भारतीय छात्रों के पैरों में इलेक्ट्रॉनिक टैग लगा दिए थे ताकि उनकी हरकत पर नज़र रखी जा सके। यह दुर्व्यहार संबंधी एक नया मामला है जो मध्य पूर्व एशिया में जारी गतिरोध के कारण मीडियाई बहसों में नहीं उभर पाया। बहरहाल इसे यूरोप में जारी अमानवीयता की श्रृंखला की नई कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए । एशिया और अफ्रीका जैसे तीसरी दुनिया के नागरिकों के साथ यूरोपीय देशों में ऐसा व्यावहार होता आया है। अमेरिका वैश्वीकरण की प्रक्रिया को स्थापित करने वाला बड़ा संवाहक है जो विश्वग्राम की सोच को तो जरूर स्थापित कर रहा है, बावजूद इसके कि रेसलिज़्म सोच अभी तक परिवर्तित नहीं की जा सकी। दुनिया में किसी दूसरे देश के मुक़ाबिल फ्रांस को ज्यादा प्रगतिशील माना जाता है । फिर भी यह बार- बार देखने में आता है कि फ्रांस में गैर फ्रांसीसी धार्मिक और क्षेत्रीय प्रतीकों को लेकर हमेशा तनाव का माहौल बना रहता है। अमेरिका, कनाडा, इग्लैंड और आस्ट्रेलिया में दाढ़ी, पगड़ी, और बुर्का जैसे सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व के प्रतीक हमेशा ही संदेहास्पद स्थिति में देखे जाते हैं। जबकि ‘लोकतान्त्रिक पूंजीवादी व्यवस्था में इंडीजेनस से अलगाव को लेकर ऐसे सांस्कृतिक प्रतीकों को मौजूद रखने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है’। ऐसा नहीं है कि यह 9\11 के तथाकथित इस्लामिक आतंकी हमले के बाद होता आया है, बल्कि यूरोप में धार्मिक अस्मिता के करिश्माई प्रभाव को लेकर अतीत में कई प्रकार के संघर्ष होते रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के आधार में तो क्षेत्रीय, नस्लीय और धार्मिक प्रभुसत्ता एक बड़ा कारक साबित हो चुकी है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई मौजूदा मामला भी इन्हीं कारकों के मूल से जुड़ा हुआ है या इसके तार कहीं और जाकर जुड़ते हैं? मौजूदा मामला अन्य दूसरे पक्षों की पड़ताल की अपेक्षा करता है।
दरअसल वैली विश्वविद्यालय जैसे प्रकरणों के मूल में पहली दुनिया और तीसरी दुनिया को परस्पर देखने, समझने के दृष्टिकोण की है। अपने खुद के हित के टकराव की भी। जाहिर है राजनीति के अलावे आर्थिक हित भी होंगे। उदारीकरण के बाद यूरोप में एशियाईयों के साथ होने वाले दुर्व्यहार को, डायस्पोरा में व्याप्त अंतरसंघर्ष से जोड़कर देखा जाता है। तर्क दिया जाता है कि यूरोप में शिक्षाटन के लिए कौन लोग जाते हैं? जाहिर सी बात है कि इसमें वे अधिकांश लोग महानगरों के उस समाज से होते हैं जो काले शीशे वाली गाड़ियों में महिलाओं के साथ बदसलूकी के लिए चिन्हित हैं। यानी वहाँ जाने वाले लोगों की अंतर्दृष्टि, भौगोलिक अंतर के बावजूद ठस कस्बाई ही रहती है। एक हद तक कुछ मामलों में इसे सही भी माना जा सकता है। लेकिन क्या इसे तार्किक कसौटी पर कसते हुए सही कहा जा सकता है? दुनिया की आर्थिक और सामाजिक रूपरेखा प्रस्तुत करने वाले कार्ल मार्क्स ने पूंजी और श्रम का विभाजन करते हुए ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया। आज की पूंजी की राजनीति कहती है कि श्रमिक को हमेशा बाहरी होना चाहिए। यह इसलिए ताकि श्रमिकों का व्यवस्था पर राजनीतिक दबाव न पड़े। यानी ऐसी व्यवस्था हो जिसमें प्रवासी श्रमिक लोकल मिल मालिक और राज्य पर दबाव न बना पायें। पूंजी का चरित्र होता है समकेंद्रित करना। यानी लगातार यह कोशिश कि पूंजी परिधि के तरफ नहीं फैले। नेटिव इंडीजीनियस- जो यह नहीं समझते कि हम उनके खिलाफ क्यों हैं? अगर देखा जाये तो विकसित देशों का व्यापार, उत्पादन से लेकर विपणन तक तीसरी दुनिया के देशों पर आश्रित है। ठीक उसी तरह जैसे मुंबई, दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों का उत्पादन हिन्दी पट्टी के श्रमिकों पर आधारित है। और इन महानगरों में भी नेटिव इंडीजीनियस द्वारा वैसी ही घटनाएँ देखने को मिलती हैं जैसाकि यूरोपीय देशों में एशियाइयों के साथ होता आया है। विशेषज्ञों ने पूंजी के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण यह आशंका व्यक्त की थी की 2005 से 2020 के बीच में दुनिया के कई हिस्सों में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलाव होंगे। इसकी शुरूआत आस्ट्रेलिया की नस्ली वारदातों से मानी जा सकती है। मध्य पूर्व एशिया में मिश्र में राजनीतिक परिवर्तन के मौजूदा संघर्ष ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अरब वर्ल्ड में अवश्यंभावी राजनीतिक बदलाव होंगे। ट्यूनीशिया की आग बाहर तक फैल चुकी है। आर्थिक परिवर्तन में 2007 में शुरू हुई मंदी ने तीसरी दुनिया पर अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है। जबकि आर्थिक विशेषज्ञों का मत था कि भारत इसके प्रभाव से मुक्त रहेगा। भारत पर यह दूसरे तरीके से अपना प्रभाव डाल रहा है। पहले-पहल यूरोपीय राज्यों ने श्रम की आउटसोर्सिंग को बंद किया। और अब यूरोप में रह रहे भारतीयों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। मंदी के कारण बर्बाद हुए अय्याश यूरोपीय मध्य वर्गीय समाज ने अपनी चल-अचल संपत्ति को धड़ल्ले से बेचा। जाहिर सी बात है कि खरीददारों में बड़ी संख्या बचत करने वाले भारतीयों की रही। एशियश की उत्तरोतर प्रगति उस समाज की आँखों में चुभ गई। यह अकारण नहीं है बल्कि यूरोप में इमिग्रेशन टैग जैसे मामले मंदी के बाद ही बढ़े हैं। आने वाले समय में सिर्फ यूरोप में ही नहीं, लगभग दुनिया के हर हिस्से में, भारत में भी इस अव्यवस्थित पूंजीवादी व्यवस्था के कारण मूल निवासियों और प्रवासियों के बीच अंतरसंघर्ष और तेज होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
anuj4media@gmail.com
अमेरिका में पिछले हफ्ते इमिग्रेशन अधिकारियों ने वीज़ा क़ानून के उल्लंघन के आरोप में वैली विश्वविद्यालय के 18 भारतीय छात्रों के पैरों में इलेक्ट्रॉनिक टैग लगा दिए थे ताकि उनकी हरकत पर नज़र रखी जा सके। यह दुर्व्यहार संबंधी एक नया मामला है जो मध्य पूर्व एशिया में जारी गतिरोध के कारण मीडियाई बहसों में नहीं उभर पाया। बहरहाल इसे यूरोप में जारी अमानवीयता की श्रृंखला की नई कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए । एशिया और अफ्रीका जैसे तीसरी दुनिया के नागरिकों के साथ यूरोपीय देशों में ऐसा व्यावहार होता आया है। अमेरिका वैश्वीकरण की प्रक्रिया को स्थापित करने वाला बड़ा संवाहक है जो विश्वग्राम की सोच को तो जरूर स्थापित कर रहा है, बावजूद इसके कि रेसलिज़्म सोच अभी तक परिवर्तित नहीं की जा सकी। दुनिया में किसी दूसरे देश के मुक़ाबिल फ्रांस को ज्यादा प्रगतिशील माना जाता है । फिर भी यह बार- बार देखने में आता है कि फ्रांस में गैर फ्रांसीसी धार्मिक और क्षेत्रीय प्रतीकों को लेकर हमेशा तनाव का माहौल बना रहता है। अमेरिका, कनाडा, इग्लैंड और आस्ट्रेलिया में दाढ़ी, पगड़ी, और बुर्का जैसे सांस्कृतिक, भौगोलिक और धार्मिक महत्त्व के प्रतीक हमेशा ही संदेहास्पद स्थिति में देखे जाते हैं। जबकि ‘लोकतान्त्रिक पूंजीवादी व्यवस्था में इंडीजेनस से अलगाव को लेकर ऐसे सांस्कृतिक प्रतीकों को मौजूद रखने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है’। ऐसा नहीं है कि यह 9\11 के तथाकथित इस्लामिक आतंकी हमले के बाद होता आया है, बल्कि यूरोप में धार्मिक अस्मिता के करिश्माई प्रभाव को लेकर अतीत में कई प्रकार के संघर्ष होते रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका के आधार में तो क्षेत्रीय, नस्लीय और धार्मिक प्रभुसत्ता एक बड़ा कारक साबित हो चुकी है। अब सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई मौजूदा मामला भी इन्हीं कारकों के मूल से जुड़ा हुआ है या इसके तार कहीं और जाकर जुड़ते हैं? मौजूदा मामला अन्य दूसरे पक्षों की पड़ताल की अपेक्षा करता है।
दरअसल वैली विश्वविद्यालय जैसे प्रकरणों के मूल में पहली दुनिया और तीसरी दुनिया को परस्पर देखने, समझने के दृष्टिकोण की है। अपने खुद के हित के टकराव की भी। जाहिर है राजनीति के अलावे आर्थिक हित भी होंगे। उदारीकरण के बाद यूरोप में एशियाईयों के साथ होने वाले दुर्व्यहार को, डायस्पोरा में व्याप्त अंतरसंघर्ष से जोड़कर देखा जाता है। तर्क दिया जाता है कि यूरोप में शिक्षाटन के लिए कौन लोग जाते हैं? जाहिर सी बात है कि इसमें वे अधिकांश लोग महानगरों के उस समाज से होते हैं जो काले शीशे वाली गाड़ियों में महिलाओं के साथ बदसलूकी के लिए चिन्हित हैं। यानी वहाँ जाने वाले लोगों की अंतर्दृष्टि, भौगोलिक अंतर के बावजूद ठस कस्बाई ही रहती है। एक हद तक कुछ मामलों में इसे सही भी माना जा सकता है। लेकिन क्या इसे तार्किक कसौटी पर कसते हुए सही कहा जा सकता है? दुनिया की आर्थिक और सामाजिक रूपरेखा प्रस्तुत करने वाले कार्ल मार्क्स ने पूंजी और श्रम का विभाजन करते हुए ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया। आज की पूंजी की राजनीति कहती है कि श्रमिक को हमेशा बाहरी होना चाहिए। यह इसलिए ताकि श्रमिकों का व्यवस्था पर राजनीतिक दबाव न पड़े। यानी ऐसी व्यवस्था हो जिसमें प्रवासी श्रमिक लोकल मिल मालिक और राज्य पर दबाव न बना पायें। पूंजी का चरित्र होता है समकेंद्रित करना। यानी लगातार यह कोशिश कि पूंजी परिधि के तरफ नहीं फैले। नेटिव इंडीजीनियस- जो यह नहीं समझते कि हम उनके खिलाफ क्यों हैं? अगर देखा जाये तो विकसित देशों का व्यापार, उत्पादन से लेकर विपणन तक तीसरी दुनिया के देशों पर आश्रित है। ठीक उसी तरह जैसे मुंबई, दिल्ली और हरियाणा जैसे राज्यों का उत्पादन हिन्दी पट्टी के श्रमिकों पर आधारित है। और इन महानगरों में भी नेटिव इंडीजीनियस द्वारा वैसी ही घटनाएँ देखने को मिलती हैं जैसाकि यूरोपीय देशों में एशियाइयों के साथ होता आया है। विशेषज्ञों ने पूंजी के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण यह आशंका व्यक्त की थी की 2005 से 2020 के बीच में दुनिया के कई हिस्सों में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलाव होंगे। इसकी शुरूआत आस्ट्रेलिया की नस्ली वारदातों से मानी जा सकती है। मध्य पूर्व एशिया में मिश्र में राजनीतिक परिवर्तन के मौजूदा संघर्ष ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अरब वर्ल्ड में अवश्यंभावी राजनीतिक बदलाव होंगे। ट्यूनीशिया की आग बाहर तक फैल चुकी है। आर्थिक परिवर्तन में 2007 में शुरू हुई मंदी ने तीसरी दुनिया पर अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है। जबकि आर्थिक विशेषज्ञों का मत था कि भारत इसके प्रभाव से मुक्त रहेगा। भारत पर यह दूसरे तरीके से अपना प्रभाव डाल रहा है। पहले-पहल यूरोपीय राज्यों ने श्रम की आउटसोर्सिंग को बंद किया। और अब यूरोप में रह रहे भारतीयों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। मंदी के कारण बर्बाद हुए अय्याश यूरोपीय मध्य वर्गीय समाज ने अपनी चल-अचल संपत्ति को धड़ल्ले से बेचा। जाहिर सी बात है कि खरीददारों में बड़ी संख्या बचत करने वाले भारतीयों की रही। एशियश की उत्तरोतर प्रगति उस समाज की आँखों में चुभ गई। यह अकारण नहीं है बल्कि यूरोप में इमिग्रेशन टैग जैसे मामले मंदी के बाद ही बढ़े हैं। आने वाले समय में सिर्फ यूरोप में ही नहीं, लगभग दुनिया के हर हिस्से में, भारत में भी इस अव्यवस्थित पूंजीवादी व्यवस्था के कारण मूल निवासियों और प्रवासियों के बीच अंतरसंघर्ष और तेज होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
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