31 अगस्त 2013

नियमगिरि : देश में जारी जनांदोलनों के लिए नजीर

लिंगराज आजाद
साक्षात्कार

नियमगिरि की पहाड़ियों में बसे डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने पिछले 19 अगस्त को रायगढ़ा जिले की जरपा गांव में संपन्न हुई अंतिम पल्ली सभा में भी ब्रितानी कंपनी वेदांता की बॉक्साइट खनन परियोजना को नामंजूर कर दिया। ओडिसा सरकार उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कालाहांडी और रायगड़ा जिले में कुल बारह पल्ली सभा ( ग्राम सभा) आयोजित की थी, ताकि आदिवासी इस परियोजना के पक्ष या विपक्ष में प्रस्ताव पारित करें। पल्ली सभाओं का यह एकमुश्त फैसला वेदांता कंपनी और राज्य सरकार के लिए एक शिकस्त की तरह है। इस फैसले का असर कितना व्यापक होगा और क्या नियमगिरि की पहाड़ियां इससे महफूज रहेंगी, इसी मसले पर नियमगिरि सुरक्षा समिति के महामंत्री और समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सचिव लिंगराज आजाद से
अभिषेक रंजन सिंह ने बातचीत की, प्रस्तुत है उसके मुख्य अंश...

प्रश्न- आजाद जी, सभी बारह पल्ली सभाओं ( ग्राम सभाओं) ने एक स्वर में नियमगिरि की पहाड़ियों पर वेदांता कंपनी की बॉक्साइट खनन परियोजना को खारिज कर दिया है। इस फैसले को किस तरह देखते हैं आप ?
उत्तर- सबसे पहले तो मैं उच्चतम न्यायालय को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होंने इस मामले की गंभीरता समझते हुए 18 अप्रैल 2013 को ओडिसा सरकार को पल्ली सभा आयोजित कराने का आदेश दिया था। जैसा कि आपको पता है कि डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने सभी पल्ली सभाओं में वेदांता की बॉक्साइट खनन परियोजना को सिरे से खारिज कर दिया। मेरे ख्याल से आदिवासियों का यह फैसला देश में जल, जंगल, जमीन और पहाड़ों को बचाने के लिए जारी जनांदोलनों के लिए एक नजीर पेश करेगा। नियमगिरि की पहाड़ियों की सुरक्षा के लिए डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने जो एकजुटता दिखाई है, हम उसे सलाम करते हैं।  
प्रश्न- कालाहांडी और रायगढ़ा जिले में नियमगिरि की पहाड़ियों पर कुल 112 गांव बसे हैं, फिर ओडिसा सरकार ने सिर्फ बारह गांवों में ही पल्ली सभाओं का आयोजन क्यों किया ?
उत्तर- यह सवाल काफी महत्वपूर्ण है। नियमगिरि सुरक्षा समिति भी यह मांग कर रही थी कि उन सभी गांवों में पल्ली सभाएं आयोजित हों, जहां डोंगरिया कोंध और कुटिया कोंध आदिवासी निवास करते हैं। नियमगिरि की पहाड़ियों पर 112 गांवों में डोंगरिया कोंध और पहाड़ के नीचे तराई में 50 गांवों कुटिया कोंध आदिवासी रहते हैं, लेकिन राज्य सरकार ने सिर्फ बारह गांवों में पल्ली सभाओं का आयोजन किया। दरअसल, ओडिसा सरकार ने कालाहांडी और रायगढ़ा जिले की सिर्फ बारह गांवों में पल्ली सभाओं की बैठक बुलाकर उच्चतम न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या की है, जो सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करती है। अगर सरकार ने सभी गांवों में पल्ली सभाओं की बैठक बुलाती, तो निश्चित रूप से बारह की बजाय 162 गांव नियमगिरि में खनन परियोजना को नामंजूर कर देती।
प्रश्न- क्या आपको लगता है कि पल्ली सभाओं के प्रस्ताव के बाद वेदांता समूह इतनी आसानी से पीछे हट जाएगी?
उत्तर- यह कहना जल्दबाजी होगी कि पल्ली सभाओं के प्रस्ताव के बाद वेदांता समूह चुपचाप बैठ जाएगी, क्योंकि कंपनी ने इस इलाके में करोड़ों रुपये का निवेश किया है। निश्चित रूप से वह नई रणनीति बनाएगी। हमें पता है कि उनके पास बेशुमार दौलत और ओडिसा सरकार का समर्थन भी हासिल है, लेकिन स्थानीय आदिवासियों के पास सिर्फ हिम्मत है उनसे लड़ने के लिए। पल्ली सभाओं की जीत से ग्रामीणों का हौसला बुलंद हुआ है। यह संघर्ष प्राकृतिक संसाधनों और आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए है और इसकी रक्षा के लिए हम आखिरी दम तक लड़ेंगे। देश की न्यायपालिका पर हमें पूरा यकीन है कि वह गरीब और लाचार आदिवासियों के साथ अन्याय नहीं होने देगी।
प्रश्न- पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नियमगिरि की पहाड़ियों का कितना महत्व है?
उत्तर- पर्यावरणीय सुरक्षा के लिए सिर्फ नियमगिरि की पहाड़ियों और यहां मौजूद जंगल ही नहीं, बल्कि सभी पहाड़ों और जंगलों की अहमियत एक जैसी है। नियमगिरि की श्रृंखलाएं हजारों साल पुरानी हैं। यहां के जंगलों में वृक्षों की सैंकड़ों किस्में हैं, अनगिनत जड़ी-बूटियां हैं और वन्यजीवों में बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, वराह, हिरण, हाथी समेत कई जीव-जंतु रहते हैं। नियमगिरि की पहाड़ियों की वजह से यहां अच्छी बारिश होती है। स्थानीय आदिवासियों की जीविका इन्हीं पहाड़ों और जंगलों पर निर्भर है। धान यहां की मुख्य फसल है, जबकि पानी की उपलब्धता से तराई इलाकों में मछली पालन भी किया जाता है। यहां खेतों में पूर्णतः प्राकृतिक ढंग से सिंचाई होती है। बोरिंग और कुएं की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि यहां दर्जनों की संख्या में झरने मौजूद हैं। अब आप फर्ज कीजए, अगर बॉक्साइट के लिए नियमगिरि के जंगलों को नष्ट कर पहाड़ों को बारूदी सुरंग से तोड़ दिया जाएगा, तो यहां की प्राकृतिक सुंदरता और हरियाली कैसे महफूज रह पाएगी। एक तरफ पूरी दुनिया वैश्विक पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग से चिंतित है साथ ही वन्यजीवों को बचाने के लिए नित्य नए प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर पहाड़ों और जंगलों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया जा रहा है।
प्रश्न- इन सबके बावजूद विकास की जरूरत को कैसे खारिज किया जा सकता है ?
उत्तर- सरकार की नजर में विकास क्या है ? क्या विकास की एकमात्र परिभाषा आर्थिक विकास ही हैं वह भी प्राकृतिक संसाधनों और इंसानी जान की कीमत पर। माफ कीजए, अगर सरकार की दृष्टि में विकास का अर्थ यही है, तो हमें उनका यह मॉडल स्वीकार नहीं है। आर्थिक विकास के नाम पर पिछले ढाई दशकों के दौरान काफी तबाही हो चुकी हैं। भारत में तथाकथित विकास के नाम पर 10 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ है। विस्थापित होने वालों में आदिवासियों की संख्या सर्वाधिक है, जिन्हें जल, जंगल और जमीन से बेदखल किया है। आज तक उनके पुनर्वास के लिए कोई ठोस इंतजामात नहीं किए गए हैं। केंद्र और राज्य सरकारें ब्रिटिश राज्य में बनी भूमि अधिग्रहण कानून के सहारे किसानों से उनकी जमीनें छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रही हैं। इसके खिलाफ जहां आवाजें उठती हैं, उन आवाजों को गोलियों और लाठियों के सहारे दबाने का प्रयास किया जाता है।
प्रश्न- नियमगिरि की पहाड़ियों में वेदांता कंपनी को खनन की इजाजत मिले अथवा नहीं इस बारे में राजनीतिक दलों की क्या राय है?
उत्तर- प्रदेश की सत्ताधारी बीजू जनता दल की भूमिका के विषय में कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी जानते हैं कि नवीन पटनायक सरकार पूरी तरह उसके पक्ष में खड़ी है। वर्ष 2009 में पर्यावरणीय मंजूरी निरस्त होने के बाद वेदांता कंपनी की बजाय ओडिसा माइनिंग कॉरपोरेशन ने उच्चतम न्यायालय में अर्जी दाखिल की थी, इससे साफ जाहिर होता है कि राज्य सरकार हर स्तर पर वेदांता कंपनी का सहयोग कर रही है। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, तो पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी साल 2009 में नियमगिरि के इलाकों में आए थे। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि हमारी पार्टी आपके साथ खड़ी है और आप हमें नियमगिरि आंदोलन में अपना सिपाही समझें। हालांकि कांग्रेस ने केंद्र और राज्य स्तर पर अभी तक कोई ऐसा प्रयास नहीं किया है। कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन इस आंदोलन को जरूर हासिल है, लेकिन प्रदेश की राजनीति में उनकी शक्ति उतनी नहीं है कि वे कुछ ज्यादा कर सकें।
प्रश्न- ओडिसा सरकार का आरोप है कि नियमगिरि सुरक्षा समिति की अगुआई में चल रहे इस आंदोलन को माओवादियों का समर्थन हासिल है, इस बात में कितनी सच्चाई है ?
उत्तर- केंद्र और राज्य सरकारों के लिए लोकतांत्रिक तरीके से लड़ी जा रहीं आंदोलनों को माओवादी आंदोलन कहकर कुचलना एक शगल बन चुका है। यह पहला जनांदोलन है, जहां कानूनी हस्तक्षेप ( उच्चतम न्यायालय की ओर से पल्ली सभा कराने का आदेश ) जनांदोलनों में सकारात्मक भूमिका निभा रही है। बात जहां तक माओवादियों के समर्थन की है, तो राज्य सरकार को यह पता होना चाहिए कि माओवादियों ने पिछले दिनों पर्चा चस्पां कर पल्ली सभा को नौटंकी करार दिया था। हमारे और माओवादियों के सिद्धांत में काफी अंतर है। यह अलग बात है कि नियमगिरि बचाओ आंदोलन में उनकी ओर से कोई बाधा नहीं पहुंचाई जा रही है। हमारा यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक है, वैसे भी उड़ीसा शांतिपूर्ण आंदोलनों का गढ़ रहा है। गंधमर्दन, बालियापाल, चिल्का और हीराकुंड किसान आंदोलन इसके सुंदर उदाहरण हैं।
प्रश्न- मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का दावा है कि उनके शासन में प्रदेश का चौतरफा विकास हुआ है और वे राज्य की आर्थिक समृद्धि के लिए कृतसंकल्प हैं?

उत्तर- बेशक, विकास जरूर हुआ है, लेकिन जनता का नहीं, बल्कि उनकी सरकार में शामिल मंत्रियों, उनकी पार्टी के विधायकों और सांसदों का। बीजेडी के शासन में जनता भले ही समृद्ध नहीं हुई हो, लेकिन नौकरशाहों और अधिकारियों की चौतरफा कमाई जरूर बढ़ी है। इतिहास में नवीन पटनायक का नाम एमओयू मुख्यमंत्री के रूप में दर्ज किया जाएगा, जिन्होंने निजी कंपनियों के साथ अनगिनत समझौते पर दस्तखत ओडिसा की जनता और उसकी खुदमुख्तारी को गिरवी रख दिया। 

29 अगस्त 2013

नियमगिरि: पूंजी पर भारी पड़ा पल्ली सभा का फैसला

 अभिषेक रंजन सिंह
     
नियमगिरि की ऊंची पहाड़ियों व जंगलों में बसा जरपा ­­­­कुल सात परिवारों का एक छोटा सा गांव है। डोंगरिया कोंध आदिवासियों के इस गांव में पिछले दिनों उत्सवी माहौल था। उनका सबसे महत्वपूर्ण त्योहार “ नियमजात्रा”  वैसे तो हर वर्ष माघ महीने के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है। इस दौरान वे लोग नियमराजा को खुश करने के लिए मुर्गे-बकरे की बलि देते हैं। इस खास मौके पर डोंगरिया कोंध आदिवासी सल्फी का सेवन करते हैं और ढोल-नगाड़ों की धुन पर झूमते-गाते अपने नियमराजा की स्तुति करते हैं।
जरपा में नियमजात्राजैसा कोई पर्व नहीं होने के बावजूद डोंगरिया कोंध आदिवासियों के लिए 19 अगस्त का दिन विशेष अहमियत रखती थी। ओडिशा के रायगढ़ा जिला स्थित इसी गांव में आखिरी पल्ली सभा ( ग्राम सभा) की बैठक संपन्न हुई। ब्रितानी कंपनी वेदांता को नियमगिरि की पहाड़ियों में बॉक्साइट खनन की अनुमति नहीं मिले, इस बाबत गांव के योग्य मतदाताओं ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश एससी मिश्रा की मौजूदगी में मौखिक रूप और अंगूठे का निशान लगाकर अपनी इच्छा जाहिर कर दी। इस तरह 18 जुलाई को रायगढ़ा और कालाहांडी जिले की सेरकापाड़ी, केसरपाड़ी, बातुड़ी, लांबा, लाखपदर, खांबेसी, ताड़ीझोला, कुन्नाकारू, पालबेरी, फूलडूमेर और इजरूपा से शुरू हुई पल्ली सभा 19 अगस्त को जरपा गांव में वेदांता की हार के साथ खत्म हो गई। इस जीत से स्थानीय आदिवासियों का हौसला काफी बुलंद है और अब उन्हें यकीन हो गया है कि सूबे की हुकूमत और उनके सरमायेदार अपना इरादा बदल लेंगी। वेदांता कंपनी के लिए नियमगिरि की ऊंची श्रृंखलाएं और उस पर मीलों तक फैली हरियाली कोई खास मायने नहीं रखती, क्योंकि उनकी आंखें सिर्फ बॉक्साइट के उस अपार भंडार को देख रही हैं, जो हजारों वर्षों से नियमगिरि की कोख में दबी पड़ी है। वहीं दूसरी ओर सीधे-साधे, गरीब और प्रकृति प्रेमी डोंगरिया कोंध आदिवासियों की नजरों में नियमगिरि की हरियाली और उसकी अप्रतिम सुंदरता सबसे बड़ी दौलत है, जो उनके लिए शायद सोने और हीरे के भंडार से भी अधिक महंगी है।
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने जब 18 अप्रैल को इन इलाकों में पल्ली सभाएं आयोजित करने का निर्देश ओडिशा सरकार को दिया था, तब लोगों को यह शंका थी कि सरकार तमाम तरह के हथकंडे अपनाकर पल्ली सभाओं के प्रस्तावों को प्रभावित कर सकती है। इस बात की तस्दीक हालांकि, उसी समय हो गई, जब कालाहांडी और रायगढ़ा जिले में डोंगरिया कोंध आदिवासियों की कुल 112 गावों में से केवल 12 गांवों का चयन पल्ली सभाओं की बैठकों के लिए किया। इतना ही नहीं, नियमगिरि की तराई में बसे झरनिया कोंध और कुटिया कोंध आदिवासियों के 50 गांवों को भी पल्ली सभाओं से अलग रखा गया। राज्य सरकार के इस फैसले से स्थानीय आदिवासी के बेहद नाखुश थे। नियमगिरि सुरक्षा समिति के महामंत्री और समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सचिव लिंगराज आजाद के मुताबिक, पल्ली सभाओं के लिए सभी गांवों का चयन न करके राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत के आदेश की अवमानना की है। यह अलग बात है कि आदिवासियों ने तमाम साजिशों के बावजूद पल्ली सभाओं में अपनी ताकत और एकजुटता दिखा दी।

वहीं इस संदर्भ में राज्य सरकार की दलील है कि सभी 162 गांवों में पल्ली सभाओं की बैठकें कराना संभव नहीं था, क्योंकि इसमें कई महीने लग सकते थे। इसके अलावा, यहां माओवादी भी काफी सक्रिय हैं, इसलिए सुरक्षा के मद्देनजर भी चंद गांवों का चयन किया गया। हालांकि लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि 150 गांवों को दरकिनार कर सरकार ने पल्ली सभा के लिए अपने मनमाफिक गांवों को ही क्यों चुना ?  नवीन पटनायक सरकार वेदांता कंपनी की राह आसान करने में पहले भी काफी सुर्खियां बटोर चुके हैं। अलबत्ता, सरकार ने पल्ली सभाओं के लिए जिन बारह गांवों को चिन्हित किया था, उनमें बारह-शून्य से शिकस्त खाने के बाद खुद ओडिशा सरकार और वेदांता समूह के आला अधिकारियों के चेहरे के रंग फीके पड़ गए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पल्ली सभाओं के प्रस्तावों के बाद ओडिशा खान निगम और वेदांता कंपनी के लिए आने वाले दिन बेहद कठिन साबित होने वाले हैं, क्योंकि पल्ली सभाओं के प्रस्तावों को शीघ्र ही राज्य सरकार की ओर से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजा जाएगा। इसी के आलोक में आगामी 19 अक्टूबर को उच्चतम न्यायालय अपना महत्वपूर्ण फैसला सुनाएगी।
नियमगिरि का मामला जब उच्चतम न्यायालय पहुंचा, उसके बाद शीर्ष अदालत की सेंट्रल इंपावर्ड कमिटी ने यह पाया था कि वेदांता और उसकी सहायक कंपनी स्टरलाइट की बाक्सॉइट परियोजना को मंजूरी देने में केंद्र सरकार ने जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी दिखाई है। इस कमिटी के अनुसार, खनन क्षेत्र की जमीन संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आती है। लिहाजा उच्चतम न्यायालय ने इस पर संज्ञान लेते हुए वर्ष 2007 में वेदांता कंपनी को नियमगिरि की पहाड़ियों में खनन करने से रोक दिया।  दो साल बाद यानी 2009 में ओडिशा सरकार ने केंद्र सरकार से वेदांता कंपनी के लिए भूमि उपयोग में बदलाव करने अनुमति समेत कई अन्य सहूलियतें मांगी थी। जयराम रमेश उन दिनों वन एवं पर्यावरण मंत्री थे। इस संबंध में उन्होंने एनसी सक्सेना कमिटी का गठन किया। कमिटी ने यह महसूस किया कि वेदांता कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने नियमों की जमकर धज्जियां उड़ाईं हैं। वेदांता कंपनी ने अपने फायदे के लिए किस तरह वन संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम और वन अधिकार कानून की अनदेखी की है, इसका भी जिक्र सक्सेना कमिटी की रिपोर्ट में किया गया है।
इस रिपोर्ट के बाद  वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2010 में वेदांता कंपनी के खनन अधिकार का पट्टा निरस्त कर दिया गया। इससे तिलमिलाए ओडिशा खान निगम ने उक्त फैसले के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की। याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने इसी साल 18 अप्रैल को निर्देश दिया कि बॉक्साइट के लिए नियमगिरि की पहाड़ियों पर खनन होना चाहिए अथवा नहीं इसका फैसला स्थानीय आदिवासियों की पल्ली सभाओं की बैठकों में पारित होने वाले प्रस्तावों के बाद होगा। याद रहे कि ओडिशा सरकार ने साल 2004 में वेदांता की सहायक कंपनी स्टरलाइट इंडस्ट्रीज इंडिया  के साथ एक करार पर दस्तखत किया था। करार के मुताबिक, वेदांता और ओडिशा खान निगम  को नियमगिरि की पहाड़ियों पर बॉक्साइट खनन का संयुक्त अधिकार मिला। इस समझौते में पर्यावरणीय और मानवाधिकार के मुद्दों की घोर उपेक्षा की गई। समझौते के तहत वेदांता कंपनी को नियमगिरि की पहाड़ियों में पंद्रह लाख टन बॉक्साइट खनन की अनुमति दी गई थी। वेदांता कंपनी नियमगिरि की खनन परियोजना के जरिए ‌लांजीगढ़ में बने अपने रिफाइनरी और झारसुगुडा की निर्माणाधीन एल्युमिनियम स्मेल्टर के लिए बॉक्साइट हासिल करना चाहती है। कंपनी इन दोनों परियोजनाओं के लिए फिलहाल चालीस हजार करोड़ रुपये का भारी-भरकम निवेश कर चुकी है।
नियमगिरि की पहाड़ियों और तराई में बसे हजारों आदिवासियों की कीमत पर सरकार प्रदेश का भला चाहती है। जिस आर्थिक नीति को सरकार विकास का आधार मानती है, दरअसल यह तथाकथित विकास डोंगरिया कोंध जैसे आदिवासियों के वजूद और उनकी खुदमुख्तारी के लिए खतरा है। यह समुदाय प्रकृति की गोद में पैदा हुआ है। पहाड़, नदियां और जंगलों से उनका गहरा और अनुशासित रिश्ता है और इसके बगैर वे एक पल भी जिंदा नहीं रह पाएंगे।

बात अगर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की करें, तो उन्होंने अपने कार्यकाल में निजी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ दर्जनों एमओयू पर दस्तखत किए हैं। हालांकि, उनमें अधिकांश परियोजनाओं का विरोध किसी न किसी स्तर पर हो रहा है। सत्तारूढ़ बीजेडी सरकार की नीतियों से प्रदेश की जनता किस कदर नाराज है, यह राजधानी भुवनेश्वर की सड़कों, विधानसभा और राजभवन के बाहर होने वाले धरना-प्रदर्शनों को देखकर भली प्रकार समझा जा सकता है। नियमगिरि के मामले पर नवीन सरकार ने वेदांता कंपनी के लिए जो दरियादिली दिखाई है, उसे लेकर भी उनकी चौतरफा आलोचनाएं हो रही है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद उनकी भूमिका भी सवालों के घेरे में आ गई है। बहरहाल, पल्ली सभाओं के प्रस्तावों के बाद अब सबकी निगाहें उच्चतम न्यायालय के फैसले पर टिकी हैं। हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने नियमगिरि के मामले पर जैसी भूमिका निभाई है, उसे देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि शीर्ष अदालत की ओर से आने वाला निर्णय ऐतिहासिक होगा। साथ ही देश में जल, जंगल और जमीन को बचाने की खातिर चल रहे तमाम जनांदोलनों के लिए भी यह काफी महत्वपूर्ण साबित होगा। वैसे नियमगिरि देश का पहला जनांदोलन है, जहां कानूनी हस्तक्षेप सकारात्मक भूमिका निभा रही है।
लेखक संपर्क- arsinghiimc@gmail.com

26 अगस्त 2013

हेम की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने की अपील


मशीन नौजवानों पर मुकदमे थोपती है: वह उन्हें कैद करती है, यातनाएं देती है, मार डालती है. ये नौजवान इसके नाकारेपन के जीते जागते सबूत हैं...निकम्मी मशीन हर उस चीज से नफरत करती है, जो फलफूल रही है और हरकत कर रही है. यह सिर्फ जेलों और कब्रिस्तानों की तादाद ही बढ़ाने के काबिल है. यह और कुछ नहीं बल्कि कैदियों और लाशों, जासूसों और पुलिस, भिखारियों और जलावतनों को ही पैदा कर सकती है. नौजवान होना एक जुर्म है. हर सुबह हकीकत  इसकी पुष्टि करती है, और इतिहास भी जो हर सुबह नए सिरे से जन्म लेता है. इसलिए हकीकत और इतिहास दोनों पर पाबंदी है.           -एदुआर्दो गालेआनो


           साथी हेम जुल्म और नाइंसाफियों के इस इतिहास से वाकिफ हैं और इस हकीकत को बदलने के सपने देखते हैं, इसलिए आज वे जेल में हैं. शुक्रवार को महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें महाराष्ट्र के गढ़चिरोली से तब गिरफ्तार कर लिया, जब वे प्रख्यात गांधीवादी कार्यकर्ता प्रकाश आम्टे के अस्पताल में अपने हाथ का इलाज कराने के मकसद से वहां जा रहे थे. पुलिस, मीडिया और दक्षिणपंथी गिरोहों के एक हिस्से ने फौरन यह प्रचार करना शुरू किया कि वे एक ‘जानेमाने नक्सली कूरियर’ हैं. यह भारतीय राज्य की झूठ फैलाने वाली दमनकारी मशीन का नया कारनामा है, जो लगातार जनता की हिमायत में लिखने, बोलने और काम करने वाले छात्रों, नौजवानों और कार्यकर्ताओं पर हमले कर रही है, उन्हें गिरफ्तार कर रही है, उन पर झूठे मुकदमे थोप रही है और दूसरे अनेक तरीकों से परेशान कर रही है. हेम इसके सबसे हालिया शिकार हैं. हम साथी हेम की गिरफ्तारी की तीखे शब्दों में निंदा करते हैं और उनके बारे में फैलाए जा रहे झूठे प्रचार का खंडन करते हैं.
सच यह है कि जेएनयू से पिछले सेमेस्टर तक चीनी भाषा से बी.ए. कर रहे हेम एक उत्साही संस्कृतिकर्मी और छात्र कार्यकर्ता हैं. उनके गाए हुए गीतों में दलितों, आदिवासियों, मुस्लिमों और मजदूरों की जिंदगी के बदतरीन हालात और उनके बहादुराना संघर्षों के किस्से हुआ करते हैं. वे बहुत अच्छी डफली बजाते हैं और नाटकों में अभिनय करते रहे हैं. जेएनयू आने से पहले वे उत्तराखंड में, जहां के वे रहने वाले हैं, उनकी पहचान राज्य के अग्रणी जनपक्षधर संस्कृतिकर्मियों में से एक की हुआ करती थी. पिछले तीन सालों से वे जेएनयू के रिवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट के एक सक्रिय कार्यकर्ता थे और उन्होंने हमें गांवों, कस्बों और शहरों में उत्पीड़ित जनता द्वारा गाए जा रहे अनेक ऐसे गीत सिखाए, जिनमें इंसाफ और बराबरी की बुनियाद पर एक नए समाज के सपनों की गूंज है. साथ ही उन गीतों में मौजूदा शासक वर्ग के जनविरोधी, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र को भी उजागर किया जाता है. ये गीत साम्राज्यवाद, सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के गठजोड़ को दिखाते हैं: चोर चीटर बैठे हैं भाई, होशियार-खबरदार, लड़ना है भाई ये तो लंबी लड़ाई है तथा दूसरे ऐसे ही दर्जनों गीत जनता के संघर्षों को आवाज देते हैं और उत्पीड़नकारी शासक वर्ग की असलियत को जनता के सामने उजागर करते हैं. हमें इसमें कोई भ्रम नहीं है कि कॉमरेड हेम अपने इन गीतों और जनता की जुझारू संस्कृति में अपने योगदान के कारण ही राज्य द्वारा निशाना बनाए गए हैं.
यह राज्य उन सभी आवाजों को कुचल देना चाहता है, जो लोकतंत्र और विकास के इसके बहरे कर देने वाले शोर से ऊपर उठ कर जनता तक पहुंचती हैं और बताती हैं कि उनको जो कुछ बताया-सुनाया जा रहा है वह झूठ का पुलिंदा है. यह उन सारी निगाहों को जेल की अंधेरी कोठरियों में कैद कर देना चाहता है, जो गहराई तक धंसे हुए इसके बदसूरत चेहरे को देखने की कोशिश करती हैं और अवाम की निगाहें बन जाती हैं. यह राज्य उन सारे दिमागों को अपने खरीदे हुए गुलामों में बदल देना चाहता है, जो जुल्म और नाइंसाफी के इस जाल को काट कर एक नई दुनिया का सपना देखने की काबिलियत रखते हैं. इससे इन्कार करने पर उनके सपनों पर पाबंदी लगा दी जाती है. पिछले दिनों में हमने देखा कि किस तरह महाराष्ट्र में सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन कबीर कला मंच के साथियों को कैद किया गया, विद्रोही पत्रिका के संपादक सुधीर ढवले, कलाकार अरुण फरेरा, जन गायक जीतन मरांडी और उत्पल बास्के को गिरफ्तार किया गया, लेखक-चिंतक कंवल भारती गिरफ्तार किए गए, सीमा आजाद और विश्वविजय को ढाई वर्षों तक जेल में रख गया, स्वीडेन के पत्रकार यान मिर्डल के भारत आने पर पाबंदी लगा दी गई और अमेरिकी पत्रकार डेविड बार्सामियन को भारत में उतरने नहीं दिया गया. इन कदमों से भारत का खौफजदा निजाम इस गलतफहमी में है कि वह जनता की हिमायत में उठने वाली आवाजों को खामोश कर सकता है. लेकिन एक निजाम तभी खौफजदा होता है जब जनता उसकी बुनियादें पहले ही खोखली कर चुकी होती है. संघर्षरत जनता के गीत, उसकी कविताएं, उसके नाटक इस निजाम की खोखली बुनियाद वाले किले की दीवारों पर दस्तक दे रहे हैं. चाहे तो वह अपने कान बंद कर सकता है, ये गीत कभी बंद नहीं होंगे. 
हम अपने प्यारे साथी हेम की फौरन बिना शर्त रिहाई की मांग करते हैं और यह भी मांग करते हैं कि उनके ऊपर लगाए गए फर्जी केसों को रद्द किया जाए.


25 अगस्त 2013

नियमगिरि: लूट के ताबूत में आखिरी कील.

अभिषेक श्रीवास्‍तव
(रायगढ़ा की आखिरी ग्रामसभा से लौटकर)


नियमगिरि के कोंध
सोमवार 19 अगस्‍त,2013 का दिन उस गांव के लिए शायद उसके अब तक के इतिहास में सबसे खास था। आंध्र प्रदेश की सीमा से लगने वाले ओडिशा के आखिरी जिले रायगढ़ा से 60 किलोमीटर उत्‍तर में नियमगिरि के जंगलों के बीच ऊंघता सा गांव जरपा- जो पहली बार एक साथ करीब पांच सौ से ज्‍यादा मेहमानों के स्‍वागत के लिए रात से ही जगा था। सबसे पहले आए कुछ आदिवासी कार्यकर्ता और उनकी सांस्‍कृतिक टीम। फिर दो-चार पत्रकार और कैमरामैन। और पीछे-पीछे सीआरपीएफ के जवानों की भारी कतार। एक के बाद एक इनसास राइफलों से लेकर क्‍लाशनिकोव और मोर्टार व लॉन्‍चर कंधे पर लादे हुए, गोया कोई सैन्‍य ऑपरेशन शुरू होने जा रहा हो। घने जंगलों के बीच झाडि़यों में इन जवानों ने अपनी पोज़ीशन ले ली थी। ओडिशा पुलिस अलग से आबादी के बीच घुली-मिली सब पर निगाह रखे हुए थी। सरकार द्वारा तैनात ठिगने कद का एक जिला न्‍यायाधीश प्‍लास्टिक की कुर्सी पर टिका था और उसके कारकुन आगे के आयोजन के लिए तंबू गाड़ रहे थे। टीवी कैमरे डोंगरिया कोंध के विचित्र चेहरों और साज-सज्‍जा को कैद करने में चौतरफा दौड़ रहे थे जबकि नौजवान आदिवासी लड़कियां बची-खुची खाली कोठरियों में अपना मुंह छुपा रही थीं। यह ''जरपा लाइव'' था, फिल्‍म से बड़ा यथार्थ और फिल्‍म से भी ज्‍यादा नाटकीय। और ये सब कुछ किसके लिए हो रहा था? एक विशाल बहुराष्‍ट्रीय कंपनी के लिए, जिसे यहां के जंगल चाहिए, पहाड़ चाहिए और उनके भीतर बरसों से दबा हुआ करोड़ों टन बॉक्‍साइट चाहिए।

वेदांता- यह नाम सुनते ही नियमगिरि पर्वत में रहने वाले दस हज़ार डोंगरिया, झरनिया और कुटिया कोंध आदिवासी अपनी ''ट्रेडमार्क'' टांगिया (कुल्‍हाड़ी) चमकाने लगते हैं। शायद पीढि़यों के अपने अस्तित्‍व में इन डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने अनास्‍था के पर्याय के तौर पर कोई इकलौता शब्‍द चुना है तो वो है वेदांता। इस दुश्‍मन से विरोध जताने के लिए और हमखयालों की पहचान के लिए इनकी ''कुई'' भाषा को पिछले कुछ वर्षों में एक और शब्‍द मिला है ''जिंदाबान'' (ये जिंदाबाद नहीं बोलते)। कुल मिलाकर मामला ये है कि लंदन की कंपनी वेदांता को यहां से कुछ किलोमीटर नीचे लांजीगढ़ में अपनी अलुमीनियम रिफाइनरी चलानी है जिसके लिए बॉक्‍साइट उसे नियमगिरि के पहाड़ों से निकालना है। नियमगिरि की श्रृंखला कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर और रायगढ़ा नाम के निर्धनतम जिलों को पालती है। इससे यहां के लोगों को पानी मिलता है, फल-फूल मिलते हैं, लकड़ी, वनोत्‍पाद, धान, मक्‍का, औषधियां सब कुछ मिलता है। खेतों की कुदरती सिंचाई जिस तरह यहां के पहाड़ों से होती है, ऐसा उदाहरण शायद देश में कहीं और न मिले। इन पहाड़ों को आज तक किसी ने नहीं छुआ। यहां जिंदगी बेरोकटोक अपनी गति से ठीकठाक चलती रही है, बावजूद इसके कि मुख्‍यधारा के समाज की तुलना में इसे हमेशा से सबसे गरीब कहा जाता रहा। कभी सरकार ने केबीके (कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर) प्रोजेक्‍ट चलाया तो कभी इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी ने अपने पैर पसारे, लेकिन इन सब योजनाओं की परिणति दरअसल आज वेदांता बनाम नियमगिरि के इकलौते संघर्ष में आकर सिमट गई है।

यह संघर्ष जितना अंतरराष्‍ट्रीय है उतना ही ज्‍यादा स्‍थानीय भी है। एक ओर समरेंद्र दास नाम के एक्टिविस्‍ट हैं जो लंदन में नियमगिरि के आदिवासियों की आवाज़ को लगातार उठाते रहे हैं, तो दूसरी ओर रायगढ़ा जिले के मेकैनिकल इंजीनियर राजशेखर हैं जिन्‍हें नियमगिरि के आदिवासियों के बारे में कुछ भी पता नहीं है, सिवाय इसके कि यहां वेदांता का एक प्‍लांट लगाया जाना है और इसी से इस क्षेत्र के विकास की राह निकलनी है। रायगढ़ा के लोगों को बिल्‍कुल अंदाजा नहीं है कि 40,000 करोड़ रुपये के इस निवेश के खिलाफ़ महज़ 112 गांवों के आदिवासियों की आवाज़ इतनी अहम क्‍यों है। कभी आंध्र के पड़ोसी कस्‍बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ''शहर में कोई इस बारे में बात नहीं करता। सब चाहते हैं कि बस कंपनी का काम शुरू हो ताकि लोगों को रोज़गार मिल सके। वैसे भी, वेदांता ने कितना सामाजिक काम इस इलाके में किया है। पता नहीं आदिवासियों को क्‍या दिक्‍कत है इससे?'' राजशेखर जिस सामाजिक काम का हवाला दे रहे हैं, वह वेदांता के सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी) का हिस्‍सा है जिसके तहत प्रोजेक्‍ट एरिया लांजीगढ़ में डीएवी वेदांता पब्लिक स्‍कूल, वेदांता अस्‍पताल और ऐसे ही कई काम शुरू किए गए हैं। करीब से देखने पर हालांकि सच्‍चाई कुछ और जान पड़ती है।

जरपा: अंतिम ग्रामसभा
वेदांता के स्‍कूल में पढ़ने वाले बच्‍चे या तो उसके कर्मचारियों के हैं या फिर उन गैर-आदिवासियों के, जो कंपनी के ठेके-पट्टे पाकर लाभार्थी की श्रेणी में आ गए हैं। वेदांता के अस्‍पताल के बारे में स्‍थानीय आदिवासी नेता कुमटी मांझी बताते हैं, ''यहां जाने से आदिवासी को डर लगता है।'' अस्‍पताल बाहर से देखने पर सुनसान और उजाड़ दिखता है। सिर्फ एक सिक्‍योरिटी वाला तैनात है, न तो मरीज़ और न ही डॉक्‍टर। लांजीगढ़ के बाज़ार में ईंटों का एक परिसर है जिस पर वेदांता मार्केट कॉम्‍प्‍लेक्‍स खुदा हुआ है। यह जगह खाली और गंदी है। भीतर मुर्गियों का बसेरा है। दरअसल, पहाड़ों में खनन के लिए जिन्‍हें उजाड़ा जाना है उनके लिए वेदांता के पास कोई योजना नहीं। जिन्‍हें वेदांता के आने से लाभ मिला है, उनके उजड़ने का कोई सवाल न पहले था और न ही आज है। लांजीगढ़ में प्रवेश करते ही आप अचानक चमचमाती नई मोटरसाइकिलों की भारी संख्‍या और उस पर बैठे आत्‍मविश्‍वासी नौजवानों को देखकर हतप्रभ रह जाएंगे। यह नज़ारा दस किलोमीटर पीछे तक नहीं था। वहां सिर्फ साइकिलें थीं और कंधे पर टांगियां लटकाए ग्रामीण आदिवासी। यह फर्क नियमगिरि की तलहटी में बसे राजिरगुड़ा गांव से लांजीगढ़ के बीच 20 किलोमीटर के सफ़र में बिल्‍कुल साफ दिखता है। लंबे समय तक गरीबी झेलने और वेदांता के आने से अचानक पैदा हुई विकास की आकांक्षा ने यहां के लोगों में एक मानसिक फांक पैदा कर दी है।नियमगिरि की तलहटी में बसे पात्रागुड़ा गांव के निवासी और साइकिल मरम्‍मत की दुकान चलाने वाले सूरत के शब्‍दों में इसे आसानी से समझा जा सकता है, ''नियमगिरि के जाने का दुख हमें भी है। यह हमारी मां है। लेकिन क्‍या करें। कंपनी खुलेगी तो ज्‍यादा साइकिल पंचर होगी, ज्‍यादा धंधा आएगा।''

इस बयान में कितनी संवेदना है और कितनी चालाकी, इसे समझने में शायद वक्‍त लगे। बहरहाल, 19 अगस्‍त की पल्‍लीसभा का नतीजा इस देश में विकास को लेकर लोकल बनाम ग्‍लोबल की बहस में एक नई लकीर खींच रहा है। जरपा गांव के कुल सात परिवारों के 12 वोटरों ने वेदांता के प्रोजेक्‍ट को जिला जज एस.सी. मिश्रा और सैकड़ों सीआरपीएफ जवानों की मौजूदगी में सिरे से खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल में आए निर्देश पर 112 गांवों की राय प्रोजेक्‍ट पर ली जानी थी। राज्‍य सरकार ने आदिवासी मंत्रालय और कानून मंत्रालय को ठेंगा दिखाते हुए वेदांता के जमा किए हुए हलफनामे के मुताबिक सबसे कम आबादी वाले सिर्फ 12 गांव इसलिए चुने थे कि उन्‍हें प्रभावित किया जा सके और फैसला कंपनी के पक्ष में करवाया जा सके। खुद आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चंद्र देव ने अपने साक्षात्‍कार में इस पर रोष जताया है। लेकिन सच्‍चाई किसी भी हेरफेर की मोहताज नहीं होती। पासा उलटा पड़ा। वेदांता को 12-0 से हार का मुंह देखना पड़ा है।
वेदांता को खदेड़ने के बाद

फिलहाल तो सारी मोर्टारें और सारे लॉन्‍चर एक सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने ध्‍वस्‍त होते दिख रहे हैं। जरपा में उत्‍सव का माहौल है। पल्‍लीसभा के बाद से ही आदिवासियों के नियम राजा बरसे जा रहे हैं और फिसलन भरी घाटियों में उत्‍सव के नगाड़े गूंज रहे हैं। डोंगरिया जानते हैं कि यह जीत अधूरी है। यह महज एक पड़ाव है। ज़रूरी नहीं कि वेदांता चला जाए। मामला अरबों के निवेश का है। नियमगिरि सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आज़ाद इसीलिए कहते हैं, ''नियमगिरि को छूने के लिए कंपनी को हज़ारों लोगों का कत्‍ल करना होगा और हम अपने देवता, अपनी मां को बचाने के लिए खून बहाने से परहेज़ नहीं करेंगे।'' जवाब में सैकड़ों चमकदार कुल्‍हाडि़यां हरे-भरे अकाल को चीरते हुए हवा में लहरा उठती हैं और सबके मुंह से एक ही स्‍वर फूटता है, ''नियमगिरि जिंदाबान''। 

अभिषेक श्रीवास्‍तव: जनपथ ब्लाग, मेल-guru.abhishek@gmail.com, फेसबुक- यहां

फासीवाद की धमक तेज हो रही है, मुखर प्रतिरोध के लिए एकजुट हों! -जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच गढ़चिरौली में जेएनयू के छात्र और संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तार कर पुलिस रिमांड पर लेने और पुणे में पुलिस की मौजूदगी में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं द्वारा एफटीआईआइ्र्र के छात्रों पर हमले और हमले के बाद पुलिस द्वारा घायल छात्रों पर ही अनलाफुल एक्टिविटी का आरोप लगा देने तथा बलात्कार के आरोपी आशाराम बापू की अब तक गिरफ्तारी न होने की कठोर शब्दों में निंदा करता है। जसम साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और शोषण-उत्पीड़न-भेदभाव के खिलाफ लड़ने वाले तमाम वाम-लोकतांत्रिक संगठनों से अपील करता है कि सांप्रदायिक फासीवादी संगठनों, काले धन की सुरक्षा, यौनहिंसा व हत्या समेत तमाम किस्म के अपराधों में संलिप्त पाखंडी धर्मगुरुओं तथा उनकी गुंडागर्दी को शह देने वाली सरकारों और पुलिस तंत्र के खिलाफ पूरे देश में व्यापक स्तर प्रतिवाद संगठित करें।
हेम मिश्रा एक वामपंथी संस्कृतिकर्मी हैं। वे उन परिवर्तनकामी नौजवानों में से हैं, जो इस देश में जारी प्राकृतिक संसाधनों की लूूट और भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं। रोहित जोशी के साथ मिलकर उन्होंने उत्तराखंड के संदर्भ में सत्ताधारी विकास माॅडल के विनाशकारी प्रभावों पर सवाल खड़े करने वाली फिल्म ‘इंद्रधनुष उदास है’ बनाई है। उत्तराखंड के भीषण त्रासदी से पहले बनाई गई यह फिल्म हेम मिश्रा के विचारों और चिंताओं की बानगी है। सूचना यह है कि वे पिछले माह नक्सल बताकर फर्जी मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मार दी गई महिलाओं से संबंधित मामले के तथ्यों की जांच के लिए गए थे और पुलिस ने उन्हें नक्सलियों का संदेशवाहक बताकर गिरफ्तार कर लिया है। सवाल यह है कि क्या दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का दम भरने वाले इस देश में पुलिसिया आतंकराज ही चलेगा? क्या उनके आपराधिक कृत्य की जांच करने का अधिकार इस देश का संविधान नहीं देता?
यह पहली घटना नहीं है, जब कारपोरेट लूट, दमन-शोषण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने वाले बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों को नक्सलियों का संदेशवाहक बताकर गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार किया गया है? डाॅ. विनायक सेन और कबीर कला मंच के कलाकारों पर लादे गए फर्जी मुकदमे इसका उदाहरण हैं। खासकर आदिवासी इलाकों में कारपोरेट और उनकी पालतू सरकारें निर्बाध लूट जारी रखने के लिए मानवाधिकार हनन का रिकार्ड बना रही हैं। सोनी सोरी, लिंगा कोडोपी, दयामनी बरला, जीतन मरांडी, अर्पण मरांडी जैसे लोग पुलिस और न्याय व्यवस्था की क्रुरताओं के जीते जागते गवाह हैं। लेकिन दूसरी ओर गैरआदिवासी इलाकों में भी पुलिस नागरिकों की आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन कर रही है और अंधराष्ट्रवादी-सामंती-सांप्रदायिक गिरोहों को खुलकर तांडव मचाने की छूट दे रखी है। न केवल भाजपा शासित सरकारों की पुलिस ऐसा कर रही है, बल्कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सरकारों की पुलिस भी इसी तरह का व्यवहार कर रही है। फेसबुक पर की गई टिप्पणी के लिए दलित मुक्ति के विचारों के लिए चर्चित लेखक कंवल भारती पर सपा सरकार का रवैया इसी का नमूना है।
संघ परिवार, भाजपा, कांग्रेस और उनके सहयोगी दल जिस तरह की बर्बर प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों और धुव्रीकरण को समाज में बढ़ावा दे रहे हैं, उसके परिणाम बेहद खतरनाक होंगे। विगत 20 अगस्त को मशहूर अंधविश्वास-विरोधी, तर्कनिष्ठ और विवेकवादी आंदोलनकर्ता डाॅ. नरेंद्र डाभोलकर की नृशंस हत्या को अंजाम देने वाले हों या डाॅ. डोभालकर की याद में आयोजित कार्यक्रम में एफटीआईआई के छात्रों द्वारा आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘जय भीम कामरेड’ के प्रदर्शन और कबीर कला मंच के कलाकारों की प्रस्तुति के बाद आयोजकों पर नक्सलवादी आरोप लगाकर हमला करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता, जो उनसे नरेंद्र मोदी की जय बोलने को कह रहे थे, सख्त कानूनी कार्रवाई तो इनके खिलाफ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने उल्टे घायल छात्रों पर ही अनलाफुल एक्टिविटी का आरोप लगा दिया है। ठीक इसी तरह अंधआस्था और श्रद्धा की आड़ में बच्चों और बच्चियों को शिकार बनाने वाले आशाराम बापू जैसे भेडि़ये को अविलंब कठोर सजा मिलनी चाहिए, लेकिन वह अभी भी मीडिया पर आकर अपने दंभ का प्रदर्शन कर रहा है।
 मुंबई में महिला फोटोग्राफर के साथ हुए गैंगरेप ने साबित कर दिया है कि सरकारें और उनकी पुलिस स्त्रियों को सुरक्षित माहौल देने में विफल रही हैं, जहां अमीर और ताकतवर बलात्कारी जल्दी गिरफ्तार भी न किए जाएं और महिलाओं के जर्बदस्त आंदोलन के बाद भी पुलिस अभी भी बलात्कार और यौनहिंसा के मामलों में प्राथमिकी तक दर्ज करने में आनाकानी करती हो और अभी भी राजनेता बलत्कृत को उपदेश देने से बाज नहीं आ रहे हों, वहां तो बलात्कारियों का मनोबल बढ़ेगा ही। मुंबई समेत देश भर में इस तरह घटनाएं बदस्तुर जारी हैं।
जन संस्कृति मंच का मानना है कि हेम मिश्रा को तत्काल बिना शर्त छोड़ा जाना चाहिए और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। छात्र भेषधारी जिन सांप्रदायिक गुंडों ने एफटीआईआई के छात्रों पर हमला किया है और जो पुलिसकर्मी उनका साथ दे रहे हैं, उनके खिलाफ अविलंब सख्त कार्रवाई करनी चाहिए तथा आशाराम बापू को तुरत गिरफ्तार करके उनके तमाम आपराधिक कृत्यांे की सजा देनी चाहिए। जसम की यह भी मांग है कि महिलाएं जिन संस्थानों के लिए खतरा झेलकर काम करती हैं, उन संस्थानों को उनकी काम करने की स्वतंत्रता और सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए .

सुधीर सुमन द्वारा जन संस्कृति मंच की ओर से जारी 

23 अगस्त 2013

नियमगिरि में खुदाई नहीं होने देंगे!

पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर

नियमगिरि हमारे मां-बाप हैं,नियमगिरि हमें वह सब कुछ दे रहा है जो हमें चाहिए। इसलिए पूरे नियमगिरि पर्वत को हम “ नियमराजा ” कहते हैं और उसकी पूजा भी करते हैं । यहां कोई खनन नहीं होगा और नियमगिरि को बचाने के लिए अगर हमें मरना भी पड़े तो हमें वह मंजूर है पर नियमगिरि को छोडना मंजूर नहीं !

नियमगिरि में अब सभी ग्रामसभा हो चुकी हैं औऱ उऩमें डोंगरिया आदिवासियों ने इसी तरह के बयान दिये हैं और नियमगिरि में खनन नहीं करने देने का निर्णय सुना दिया है।

कुनकाडु गाँव के कुंदरु माझी ने ग्रामसभा में अपनी बात तो कुछ इन शब्दों में कही “ हमारे गाँव में आर आई , पटवारी और तहसीलदार कब आए और यह पहाड़ नाप कर चले गए, हमें तो पता नहीं, हमने देखा नहीं और हमें जंगल ज़मीन का पट्टा दे गए ! लेकिन हम सरकार से कहना चाहते हैं कि सरकार तुम अपना यह पर्चा-पट्टा वापस ले जाओ, यह नहीं चाहिए हमें, हम इन पट्टों को नहीं मानते ।

हमें अपना भगवान नियमगिरि वापस दे दो। हम नियमगिरि को मानते हैं और नियमगिरि हमें मानता है। और यह आज से नहीं बल्कि जब से हमारे दादा-परदादा हैं तब से मान रहे हैं।

आप को पता है यहा कोई सरकारी डॉक्टर है क्या ? नहीं है। लेकिन हमारे साथ हमारे नियमगिरी डॉक्टर हैं ! नियमगिरि में सैंकडों जड़ी-बूटी हैं, साथ ही हमारे पास गुरु, गुनिया, बेजू, जानी हैं जो उन चेरी मूली को पहचानते हैं, उसे खोदकर लाते हैं दवाई बनाते हैं और  बीमारी के हिसाब से दवाई देते हैं और उसी से तो हम ज़िंदा हैं आज तक ।

अगर सरकार नियमगिरि में खुदाई की बात करेगी तो हम इसे बिलकुल नहीं मानेंगे , हम मूर्ख लोग हैं, समझे हैं तो समझे हैं नहीं तो ....हम युग युग से विरोध करते आए हैं, और अब भी हमारे पूर्वज जैसे रिंन्डो माझी और बिरसा मुंडा जैसे लड़ाई करेंगे।

तुम जानते हो अगर नियमगिरि में खुदाई हुई तो क्या होगा, नियमगिरी खत्म हो जाएगा, इसके बिना हम आदिवासी मर जाएँगे। नियमगिरी के पानी सुख जाएगा, हवा गायब हो जाएगा,पत्तियाँ सुख जाएगा। इस पहाड़ में भालू, सांभर, मुर्गा सब रहते हैं, खुदाई होगी तो सब ध्वंस हो जाएगा।

फिर उन्होने कहा कि “ आज हम जो बोल रहे हैं उसे लिखना पड़ेगा । जैसे ब्राम्हण और करण (कायस्थ) जगन्नाथ पूजा करते हैं वैसे ही हम नियमगिरि की पूजा करते हैं । ”

गौरतलब है कि ब्रिटिश एल्युमीनियम कंपनी वेदांत के लिए बाक्साईट का खनन नियमगिरि से करने की योजना के खिलाफ डोंगरिया आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं । यह मामला देश के सर्वोच्च न्याय़ालय तक पहुंचा और सर्वोच्च न्यायालय ने नियमगिरि में खनन के बारे में अंतिम फैसला लेने के बारे में ग्रामसभाओं पर छोड़ दिया है। जिसके तहत नियमगिरी पर्वत में स्थित रायगड़ा और कालाहांडी ज़िले के कूल 12 गावों में ग्रामसभाओं हो चुकी हैं जिनमें लोगों ने खऩऩ को खारिज कर दिया है।

इन ग्रामसभाओं के चलते नियमगिरि में फिलहाल अद्भूत नज़ारा देखने को मिल रहा है। जहां भी ग्रामसभा हो रही हैं वहां इसे देखने आसपास के ग्रामीणों के अलावा अधिकारी, पुलिस, पत्रकार और इस संघर्ष को समर्थन देने वाले कार्यकर्ता भी आ रहे हैं।

डोंगरिया आदिम आदिवासियों का घर नियमगिरि पर्वत सच में प्रकृति की एक सुंदर तस्वीर पेश करता है। जितनी सुंदर यहां प्रकृति है, इसके पहाड़, जंगल , झरने हैं उतने ही सुंदर यहां कॆ आदिवासी हैं। महिला और पुरुष दोनों लंबे-लंबे बाल रखते हैं और दोनों ही खूबसूरत ढंग से सजाये रखते हैं। जीवनयापन के लिए आवश्यक वह तमाम चीज़ वहां उपलब्ध हैं । यह आदिवासी काफी मेहनती हैं जो डोंगर किसानी के जरिये अपनी फसल पैदा करते हैं । “ ज़ाहिर है वेदान्त जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी और सरकार के खिलाफ डोंगरिया आदिवासियों की यह लड़ाई एक निर्णायक मोड पर पहुँच चुकी है । ” ऐसा कहना है स्थानीय पत्रकार अजित पन्डा का।

लेकिन डोंगरिया आदिवासियों के नेता लोदो सिकोका का कहना है की “ फैसला चाहे जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि हम डोंगरिया आदिवासी किसी भी कीमत पर नियमगिरि पर्वत को नहीं छोड़ेंगे ! और हमारी यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक लांजीगड़ स्थित वेदांत अलुमिना कंपनी अपना बोरिया बिस्तर समेट कर यहां से नहीं जाती है , क्योंकि यह जब तक यहां रहेगी यह खतरा टल तो सकता है पर बरकरार रहेगा। ”

उनका यह शक जायज भी है क्योंकि वेदांत कंपनी ने लांजीगड़ में एक मिलियन टन क्षमता का अलुमिना रिफ़ाइनरी यूं ही नहीं स्थापित किया है। वह इतने जबर्दस्त आत्मविश्वास से भरी हुई थी और वह इस बात से कितनी आश्वस्त थी, यह इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसने रिफाईनरी स्थापित करते समय और बाद में भी पर्यावरण कानून से लेकर दूसरे नियमों की जबर्दस्त खिल्ली उड़ाई।

इसके बावजूद सरकार उसे नियमगिरि देने के लिए आमादा थी और है पर सारा खेल इस आंदोलन ने बिगाड़ दिया जिसे खुद वहां के डोंगरिया आदिवासी और उन्हें साथ देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, जो देश और विदेश में फैले हुए हैं।

आंदोलन के बतौर भी यह बहुत अनोखा आंदोलन माना जाएगा। इस आंदोलन में हर तरह के लोगों की हिस्सेदारी भी बहुत जबरदस्त रही। डोंगरिया आदिवासियों के अलावा कुमटी माझी, लिंगराज आज़ाद की अगुवाई में नियमगिरि सुरक्षा समिति के बैनर के तले डोंगरिया आदिवासियों के अलावा कालाहांडी और रायगड़ा ज़िले के एक्टिविस्ट शामिल हैं। वहीं कालाहांडी के सांसद भक्त दास द्वारा ग्रीन कालाहांडी के माध्यम से इस आंदोलन में काफी अहम भूमिका निभाई।  फिर इस आंदोलन के प्रति राहुल गांधी का समर्थन भी रहा और राहुल गांधी लांजीगढ़ आकर यह भी कह कर गए कि वह दिल्ली में उनके सिपाही हैं जो उनके लिए दिल्ली में लड़ेंगे।

इस आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने में अरुंधति राय जैसे कई व्यक्तियों से लेकर सरवायवल इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं ने काफी महत्वपूर्ण निभाई है । यहां तक कि डोंगरिया आदिवासियों की जेम्स केमरून की हॉलीवुड फिल्म अवतार के नावी  आदिवासियों से तुलना की जाती है और डोंगरिया आदिवासियों को असली नावी कहा जाता है। इस तरह से देखा जाये तो डोंगरिया आदिवासियों का आंदोलन सात समंदर पार भी लड़ा गया।

आठ हज़ार डोंगरिया आदिम आदिवासियों का घर नियमगिरि पर्वत सच में प्रकृति की एक सुंदर तस्वीर पेश करता है। जितनी सुंदर यहां प्रकृति है, इसके पहाड़, जंगल , झरने हैं उतने ही सुंदर यहां कॆ आदिवासी हैं। महिला और पुरुष दोनों लंबे-लंबे बाल रखते हैं और दोनों ही खूबसूरत ढंग से सजाये रखते हैं। जीवनयापन के लिए आवश्यक वह तमाम चीज़ वहां उपलब्ध हैं । यह आदिवासी काफी मेहनती हैं जो डोंगर किसानी के जरिये अपनी फसल पैदा करते हैं ।

 यहां फल-मूल भी काफी मौजूद हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि यहां इतने वर्षों बाद भी ज़्यादातर गाँव में न तो पीने के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था है, ना स्वास्थ्य सुविधा और तो और स्कूल भी नहीं है जिस से बच्चे इस शिक्षा के कानून के युग में भी शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। और जब सरकार और उसकी रहनुमा कहते हैं कि वहां जब खनन होगा तब विकास होगा तो समझ में नहीं आता की इस बेशर्मी भरी बात पर रोया जाए य हंसी जाए, क्योंकि यह सरकारें शायद भूल गईं हैं कि यह एक कल्याणकारी देश है और यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि बिना किसी भेद भाव और मोलभाव के सभी को उनका हक़ दिया जाए।

लेकिन एक बात तो तय है की डोंगरिया आदिवासियों की यह लड़ाई रंग लाने लगी है औऱ यह और संघर्ष एक मिसाल बन गया है.

19 अगस्त 2013

देश की सबसे भीरू क़ौम का नाम है पत्रकार

-दिलीप ख़ान
द विलेन: मुकेश अंबानी
जिस दिन आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के पत्रकारों ने सुबह-सुबह लालक़िले से प्रधानमंत्री के रस्मी संबोधन और ठीक उसके बाद गुजरात से नरेंद्र मोदी के 'ओवर-रेटेड' भाषण के साथ भारत की स्वाधीनता की सालगिरह मनाई, तो उनमें से कई लोगों को मालूम नहीं था कि इस स्वाधीनता के ठीक बाद का अगला दिन, यानी 16 अगस्त 2013, भारतीय टीवी उद्योग के काले दिनों की सूची में शामिल होने वाला है। उनको ये नहीं मालूम था कि उनके 'त्यागपत्र' की चिट्ठी कुछ इस तरह तैयार हो चुकी है कि उस पर उसी दिन हस्ताक्षर करके झटके में सड़क पर आ जाना है। ईएमआई पर जो गाड़ी ख़रीदी थी उसकी क़िस्त के पैसे का स्रोत इस तरह अचानक बिला जाएगा, ये शायद उसने नहीं सोचा था। और वो, जो गर्भवती थीं और अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लगातार डॉक्टर के संपर्क में थीं, उनको नहीं मालूम था एक ट्रॉमा जैसी स्थिति की शुरुआत उसी दिन हो जाएगी।

फ़िल्म सिटी, नोएडा की उस गली में नीम ख़ामोशी थी, बोलते हुए लोगों के मुंह से निकल रही आवाज़ बिखरकर हवा में कहीं गुम हो जा रही थी। कोई रो रहा था, तो कोई दिलासा पा रहा था, कोई नई योजना पर विचार कर रहा था तो कोई सिगरेट के सुट्टे के साथ अपने टेंशन को हवा में कहीं दूर उड़ा देना चाहता था। लेकिन ग़ुस्सा कहीं नहीं था। मजबूरी चारों तरफ़ थी। बेचारगी का भाव था सबके चेहरे पर। निस्सहाय ढंग से दुनिया देखी जा रही थी। चारों तरफ़ जो लोग आ-जा रहे थे वो वही थे जो दूसरे उद्योगों के मुद्दे पर टीवी में ख़बर चलाते हैं। लेकिन उस दिन हर कोई जानता था कि किसी टीवी चैनल पर यह ख़बर नहीं चलने वाली। 

कोई मीडिया समूह अपने दर्शकों/पाठकों को ये नहीं बताएगा कि लगभग 350 पत्रकारों को झटके में एक ही समूह के दो बड़े टीवी चैनलों ने जबरन 'त्यागपत्र' दिलवा कर नौकरी से निकाल दिया। लेकिन जिनको निकाला गया उनके मुंह से प्रतिरोध का एक शब्द नहीं निकला। सैंकड़ों पत्रकारों में से किसी ने भी मैनेजमेंट के बनाए गए त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार नहीं किया! वजह क्या है? किस चीज़ का डर है? दैनिक भास्कर ने हाल ही में दिल्ली की एक पूरी टीम को निकालने का फ़ैसला लिया। ठीक इसी तरह उसमें भी त्यागपत्र तैयार किया गया था। 16 में से दो पत्रकारों, जितेन्द्र कुमार और सुमन परमार, ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए। भास्कर ने उन दोनों को 'निकाल' दिया। फ़र्क सिर्फ़ इतना रहा कि उन दोनों को बाक़ी पत्रकारों की तरह अगले कुछ महीनों का अग्रिम वेतन नहीं मिल सका, जो कि उस हस्ताक्षर से मिल सकता था। अब इन दोनों ने मामले को कोर्ट में खींचा है। शायद, टीवी-18 के इन दोनों चैनलों के पत्रकारों को 'त्यागपत्र देने' और 'निकाले जाने' का ये नज़ीर मालूम हो।

मीडिया उद्योग में प्रबंधन के ऐसे किसी भी फ़ैसले पर न तो भुक्तभोगी पत्रकार और न ही उस फ़ैसले से बच गए ईमानदार पत्रकार (बॉस के यसमैनों और प्रो-मैनेजमेंट पत्रकारों को छोड़कर) अपनी ज़ुबान खोलने की स्थिति में दिखते हैं। कारण साफ़ है। बीते कुछ वर्षों में, ख़ासकर टीवी न्यूज़ चैनलों के उगने के बाद से, मीडिया हाऊस के भीतर प्रबंधन के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की आवाज़ को बर्दास्त करने का चलन ख़त्म हो गया है। अपनी तमाम खूबियों और क्षमताओं के बावजूद मीडिया हाऊस में टिकने की गारंटी बॉस की गुडबुक में नाम लिखा देना ही होता है। किसी भी तरह की यूनियन की सुगबुगाहट को मीडिया के भीतर तकरीबन अपराध जैसा घोषित कर दिया गया है। यूनियन को ख़त्म करने की प्रबंधन की चाह को ऊपर के पदों पर बैठे पत्रकारों/संपादकों का भी लगातार समर्थन हासिल हुआ है। 

दूसरी बात ये कि न्यूज़रूम के भीतर चापलूसी की संस्कृति लगातार पसरती गई और प्रबंधन से रिसकर आने वाले लाभ में हिस्सेदारी के लिए क्रमश: ऊपर से लेकर नीचे के लोग कोशिश करने में जुट गए। ऐसे हालात में जाहिर तौर पर पत्रकारों के भीतर से मज़दूर चेतना लगभग ग़ायब हो गई। नहीं तो, मानेसर में मारुति-सुज़ुकी के मज़दूरों की तरह आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन के भी पत्रकार तंबू डालकर बाहर धरने पर बैठ जाते!

राघव बहल
लेकिन मामला इतना सपाट भी नहीं है। मसला ये है कि जिस तरह पिछले सितंबर में एनडीटीवी से निकाले गए 50 से ज़्यादा पत्रकार, दैनिक भास्कर से 16 पत्रकारों, आउटलुक समूह की तीन पत्रिकाओं (मैरी क्लेयर, पीपुल इंडिया और जियो) के बंद होने से पीड़ित 42 पत्रकार झटके में बेरोज़गार हुए, वो अपनी बाक़ी की ज़िंदगी कहां गुजारेंगे? क्या वो पत्रकारिता को अलविदा कह देंगे? शायद नहीं। वो एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप का रुख करेंगे। वो उस समूह में कोशिश करेंगे, जहां उन्हें लगेगा कि नौकरी की गुंजाइश शेष है। बस यहीं पर दोतरफ़ा मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। पहला, अगर दूसरे समूह में नौकरी करनी है तो उसके प्रबंधन को लड़ाकू पृष्ठभूमि वाले पत्रकार की डिग्री आपके रिज़्यूमे के साथ नहीं चाहिए। सो अपने रिज़्यूमे को दुरुस्त रखने के लिए आपको ऐसे किसी भी प्रतिरोध से ख़ुद को हर संभव अवसर तक बचाए रखना ज़रूरी है। दूसरा, जिसे आप 'दूसरा समूह' समझ रहे हैं, असल में उनमें से कई 'दूसरा' है ही नहीं। 

मीडिया कॉनसॉलिडेशन, मर्जर और क्रॉस मीडिया ओनरशिप का जो पैटर्न भारत में है उसमें निवेशकों को ये छूट मिली हुई है कि वो एक साथ कई चैनलों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्टलों, रेडियो और डीटीएच में पैसा लगा सके। मुकेश अंबानी जैसे बड़े निवेशकों ने तो मीडिया में गुमनाम तरीके से निवेश का नया अध्याय शुरू किया है, जिसमें वो अपने दूसरे भागीदारों के मार्फ़त पैसा लगाते हैं। जिन दो चैनलों में निकाले गए पत्रकारों से बात शुरू की गई थी, उसमें भी अंबानी के निवेश का क़िस्सा दिलचस्प है। 2007-08 में जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की नीतियों के दबाव में अमेरिकी कंपनी ब्लैकस्टोन ने इनाडु समूह की फादर कंपनी उषोदया इंटरप्राइजेज में से अपने 26 फ़ीसदी शेयर खींच लिए, तो इस कंपनी की हालत बेहद पतली हो गई थी। तभी जे एम फायनेंसियल के अध्यक्ष नीमेश कंपानी ने ई टीवी चलाने वाली उषोदया इंटरप्राइजेज में 2,600 करोड़ रुपए लगातर कंपनी को डूबने के बचा लिया। बाद में पता चला कि कंपानी के मार्फ़त यह निवेश असल में अंबानी का है। दरअसल मुकेश के साथ नीमेश कंपानी का पुराना संबंध है। 

रिलायंस के बंटवारे के बाद जब पेट्रोलियम ट्रस्ट बनाया गया तो नीमेश कंपनी और विष्णुभाई बी. हरिभक्ति उसके ट्रस्टी थे। नागार्जुन फायनेंस घोटाले के बाद जब नीमेश कंपानी को ग़ैर-जमानती वारंट निकलने के कारण देश छोड़कर भागना पड़ा, तब जाकर मालिक के तौर पर अंबानी का नाम खुलकर सामने आया। बाद में टीवी-18 के मालिक राघव बहल ने मुकेश अंबानी से उस ईटीवी समूह को ख़रीद लिया। इस ख़रीद पर 2,100 करोड़ रुपए ख़र्च करने के बाद बहल पर आर्थिक बोझ इतना ज़्यादा हो गया कि उनके पुराने चैनल, आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन सहित सीएनबीसी आवाज़ को चलाने में दिक़्क़त आने लगी। जब इस बोझ ने राघव बहल को पस्त कर दिया, ठीक तभी मुकेश अंबानी ने एक बार फिर एंट्री मारी और इसमें 1,600 करोड़ रुपए लगाकर समूह को बचा लिया। यानी पहले अंबानी ने ईटीवी ख़रीदा फिर उसे राघव बहल को बेच दिया और राघव बहल को जब टीवी-18 को चलाने में मुश्किलें आने लगीं तो उसमें फिर पैसे लगा दिए! इसके बाद राघव बहल ने सार्वजनिक तौर पर दावा किया था कि अब उनका समूह बुलंद स्थिति में पहुंच गया है। पूरी घटना को महज डेढ़ साल हुए हैं। इस डेढ़ साल में ही टीवी-18 समूह ने कटौती के नाम पर पत्रकारों को निकाल दिया!

अब सवाल है कि पत्रकारों के निकाले जाने के कारण क्या हैं? जो दावे छनकर लोगों तक पहुंच रहे हैं उनमें कुछ निम्नलिखित हैं-
1. टीवी-18 समूह घाटे में है और कंपनी इससे उबरना चाहती हैं।
2. ट्राई ने अक्टूबर 2013 से एक घंटे में अधिकतम 10 मिनट व्यावसायिक और 2 मिनट प्रोमोशनल विज्ञापन दिखाने का दिशा-निर्देश दिया है। लिहाजा टीवी चैनल का राजस्व कम हो जाएगा।
3. हिंदी और अंग्रेज़ी में एक ही जगह पर रिपोर्टिंग के लिए अलग-अलग पत्रकारों (संसाधनों) को भेजने से लागत पर फ़र्क़ पड़ता है जबकि कंटेंट में कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं होती।

सच्चाई ये है कि ये तीनों ही झूठे और खोखले हैं। टीवी-18 की बैलेंस शीट पहले दावे को झुठलाती है। वित्त वर्ष 2012-2013 में टीवी-18 समूह को 165 करोड़ रुपए का सकल लाभ हुआ है। बीते साल यही आंकड़ा 75.9 करोड़ रुपए का था। यानी एक साल में इस समूह ने अपना मुनाफ़ा दोगुना कर लिया है। 1999 में जब सिर्फ़ सीएनबीसी-18 और सीएनबीसी आवाज़ चैनल थे तो इस समूह का कुल राजस्व महज 15 करोड़ रुपए का था।  2005 में आईबीएन-7 और सीएनएन-आईबीएन की शुरुआत के समय इसका कुल राजस्व 106 करोड़ रुपए का था। यानी 10 साल पहले इस समूह का जितना राजस्व था उससे ज़्यादा मुनाफ़ा इसने अकेले बीते साल कमाया है। 

यह तर्क अपने-आप में खोखला है कि इन दोनों चैनलों पर लागत कम करने की ज़रूरत कंपनी को महसूस हो रही है। 2005 में 106 करोड़ रुपए वाली कंपनी का राजस्व इस समय 2400.8 करोड़ रुपए है। 24 गुना विस्तार पाने के बाद अगर मालिक (मैनेजमेंट) की तरफ़ से घाटे और कटौती की बात आ रही है तो झूठ और ठगी के अलावा इसे और क्या कहा जा सकता है? दिलचस्प ये है कि ये सारे आंकड़े खुद अपनी बैलेंस शीट में टीवी-18 समूह ने सार्वजनिक किए हैं। जहां तक ऑपरेटिंग लॉस की बात है, तो वो भी पिछले साल के 296 करोड़ के आंकड़े से घटकर 39 करोड़ रुपए पर आ ठहरा है। यानी लागत में और ज़्यादा कटौती की कोई दरकार काग़ज़ पर नज़र नहीं आती। अगर हम इस समूह के मनोरंजन चैनलों को हटा दें और सिर्फ़ सीएनबीसी टीवी18, सीएनबीसी आवाज़, सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की बात करे, तो भी आंकड़े मैनेजमेंट की दलील से मेल नहीं खाते। वित्त वर्ष 2011-12 में इन चारों चैनलों को टैक्स चुकाने के बाद 9.2 करोड़ रुपए का मुनाफ़ा हुआ था जबकि यही आंकड़ा 2012-13 में घटने की बजाय बढ़कर 10.2 करोड़ रुपए जा पहुंचा। कहां है घाटा? कहां है कटौती की दरकार?
राजस्व का ग्राफ देखिए! [ताज़ा आंकड़ा 2400.8 करोड़ रुपए का  है]

अब आते हैं दूसरे दावे पर। ट्राई ने जब चैनलों को विज्ञापन प्रसारित करने के संबंध में दिशा-निर्देश जारी किया तो उसमें ये साफ़ कहा गया था कि यह कोई नया क़ानून नहीं है, बल्कि केबल टेलीविज़न नेटवर्क्स रूल्स 1994 के तहत ही वो चैनलों को ये हिदायत दे रहा है। इससे महत्वपूर्ण यह है कि ट्राई ने साल भर पहले ही सारे चैनलों को ये चेतावनी दे दी थी कि वो यह बाध्यता लाने जा रहा है। अक्टूबर 2013 से ट्राई ने इसे किसी भी हालत में लागू करने की बात कही थी। लेकिन चैनलों की संस्थाओं की तरफ़ से सूचना प्रसारण मंत्रालय में लगातार संपर्क साधा गया और ताज़ा स्थिति ये है कि मंत्रालय सिद्धांत रूप से इस बात पर तैयार हो गया है कि इसे अक्टूबर 2013 से टालकर दिसंबर 2014 कर दिया जाए। इस समय न्यूज़ चैनलों में एक घंटे में औसतन 20-25 मिनट तक विज्ञापन दिखाए जाते हैं। अब सवाल ये है कि चैनलों को इस पर आपत्ति क्या है? पहली आपत्ति ये है कि चूंकि भारतीय टेलीविज़न इंडस्ट्री का रेवेन्यू मॉडल कुछ इस तरह का है कि इसकी 90 फ़ीसदी आमदनी का स्रोत विज्ञापन है। सिर्फ़ 10 प्रतिशत आमदनी सब्सक्रिप्शन से आ पाती है। 

इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए डिजिटाइजेशन का विकल्प लाया गया। इसमें तकरीबन हर टीवी चैनल की स्वीकृति हासिल थी। डिजिटाइजेशन का एक चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण का काम दिसंबर 2014 तक ख़त्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आमदनी के लिए चैनलों की निर्भरता विज्ञापन पर कम हो जाएगी और सब्सक्रिप्शन से होने वाली आय ज़्यादा हो जाएगी। शायद डिजिटाइजेशन पूरी नहीं होने की वजह से ही मंत्रालय ने दिसंबर 2014 तक ट्राई के फैसले को टालने की बात कही है, क्योंकि यही डिजिटाइजेशन की भी डेडलाइन है। अब अगर विज्ञापन में 12 मिनट की कड़ाई का नियम अगले डेढ़ साल के लिए टल जाता है तो इसको आधार बनाकर पत्रकारों को निकाला जाना सराकर बेईमानी और धोखा है। दूसरी बात, विज्ञापन की समय-सीमा कम होने से विज्ञापन की दर में भी उछाल आएगा और इस तरह 25 मिनट में जितने पैसे वसूले जाते हैं कम-से-कम उसका 70 फ़ीसदी पैसा तो 10 मिनट के विज्ञापन में वसूले ही जा सकते हैं।

'अन्ना क्रांति' पर किताब विमोचन के वक़्त
लेखक आशुतोष (बाए से दूसरे) और
राजदीप सरदेसाई (दाएं से दूसरे)
अब तीसरा तर्क। पत्रकारिता के लिहाज से यह ऊपर के दोनों तर्कों के बराबर और कई मायनों में उससे ज़्यादा विकृत तर्क है। यह एक बड़ी आबादी का निषेध करता हुआ तर्क है जोकि द्विभाषिया नहीं है। यह भाषा को माध्यम के बदले ज्ञान करार दिए जाने का तर्क है। यह एक ऐसा तर्क है जिसका एक्सटेंशन प्रिंट में नवभारत टाइम्स का हुआ। हिंदी और अंग्रेज़ी में अलग-अलग पत्रकारों के बदले एक ही पत्रकारों से दोनों की रिपोर्टिंग और पैकेजिंग कराने की बात असल में उस भाषाई संस्कार और जातीयता को सिरे से दबा जाती है। भाषाई खिचड़ी का जो तेवर टीवी चैनलों ने अबतक हमारे सामने पेश किया है उसे और ज़्यादा गड्ड-मड्ड करने की कोशिश है ये। नवभारत टाइम्स का सर्कुलेशन इस प्रयोग से बढ़ने की बजाय घटा है। तो ऐसा नहीं है कि इससे लागत कम हो जाएगी। और इस मुद्दे पर तो कम-से-कम भाषाई विमर्श तक खुद को महदूद कर लेने वाले बड़े पत्रकारों/संपादकों को मुंह खोलना ही चाहिए। सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन-7 की ये परिपाटी अगर बाज़ार में और ज़्यादा फॉलो की गई तो इसी तर्ज पर आज-तक और हेडलाइंस टुडे भी छंटनी कर सकता है।

मुकेश अंबानी या राघव बहल किसी भी तरह के घाटे में नहीं है। मीडिया अगर उनके लिए घाटे का सौदा होता तो मुकेश अंबानी अभी एपिक टीवी में 25.8 प्रतिशत शेयर नहीं ख़रीदे होते। इस नए चैनल में मुकेश के बराबर ही आनंद महिंद्रा ने भी 25.8 प्रतिशत शेयर ख़रीदे हैं। चार साल तक डिज़्नी इंडिया के हेड रहने वाले महेश सामंत इसकी कमान संभालने वाले हैं। सामंत साहब इससे पहले जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी में लंबी पारी खेल चुके हैं। जाहिर है पत्रकारिता से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनके लिए कंटेंट कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है? पत्रकारों की चिंता उन्हें क्यों होगी? और ग़ौरतलब यह है कि भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ऐसी मालिकाना संरचना कोई नई परिघटना नहीं है। 1950 के दशक में पहले प्रेस आयोग ने अपनी सिफ़ारिश में लिखा था, "अख़बारों का आचरण अब न तो मिशन और न ही प्रोफेशन जैसा रह गया है, यह पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो चुका है। इसका मालिकाना हक़ अब उन लोगों के हाथों में आ गया है जिन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, यहां तक कि कोई पृष्ठभूमि भी नहीं है। इसलिए उनका आग्रह अब किसी भी तरह की बौद्धिक चीज़ों में नहीं है, बल्कि वो ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं।" (अध्याय-12, पेज 230)

तेरा क्या होगा कालिया?
जाहिर है ये मालिकानों की नीयत में आया बदलाव नहीं है। उनका ध्येय बिल्कुल साफ़ है। वो किसी भी हद तक जाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ाना चाहते हैं। अब आख़िरी सवाल। जिन पत्रकारों की छंटनी हुई है उनकी चुप्पी का संदेश क्या है? एक कारण शुरू में ही बताया गया है कि मीडिया में प्रतिरोधी आवाज़ का मतलब बाकी मीडिया घरानों में भी अपनी संभावित नौकरी से हाथ गंवाना है। लेकिन, उनमें से कुछ फेयरवेल पार्टी के बाद सुख-दुख के भाव को तय नहीं कर पा रहे। बड़े पदों पर रहे लोगों को एकमुश्त 5-10 लाख रुपए मिल गए। इस स्थिति को कुछ लोग 'ठीक है' की शक्ल में टालना चाहते हैं। बाकी कुछ ऐसे लोग हैं जो चाहते हैं कि उनको लेकर विरोध तो दर्ज़ हो, लेकिन उसमें उनके हस्ताक्षर न हो। अपना पूरा जीवन मज़दूर विरोधी ख़बरों को लिखने-दिखाने में लगाने वाले ऐसे लोगों के साथ कोई हमदर्दी भी मुश्किल से दिखाई जा सकती है जोकि रैली या आंदोलन को 'जाम' के फ्लेवर में टीवी स्क्रीन पर परोसने में आनंद पाते हों। लेकिन इन सबके बावज़ूद अगर व्यापक चुप्पी बाहर वालों की तरफ़ से भी बरकरार रही तो ये साफ़ हो जाएगा कि पत्रकारों से ज़्यादा कमज़ोर, लोलुप और असुरक्षित क़ौम शायद इस देश में कोई नहीं है।