19 फ़रवरी 2011

यह हमारी सरकार नहीं है


लोदो सिकोका से पुरुषोत्तम ठाकुर की बातचीत
कुनी, उसकी सहेली और माँ, गाँव के पास ही पहाड़ी के नीचे वाली ज़मीन में सरसों के खेत में सरसों के फुल और पत्ती तोड़ रहे थे और तोड़ते-तोड़ते अचानक कुनी चिल्ला उठी- “लोदो दादा आ गये, लोदो दादा आ गये…”

नियमगिरि के इस लाखपदर गाँव में रहकर पिछले चार दिनों से हम इसी खबर का इंतजार कर रहे थे. चार दिन पहले जब हम इस गांव में पहुंचे थे तो पता चला कि लोदो यानी लोदो सिकोका कुछ ही देर पहले भुवनेश्वर के लिये रवाना हो गये थे. वहां किसी बैठक में उन्हें भाग लेना था.

नियमगिरि के डोंगरिया आदिवासी नियमगिरि में बाक्साइट माइनिंग के लिए कोशिश कर रही ब्रिटिश कंपनी वेदांता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं और लोदो सिकोका, नियमगिरि सुरक्षा परिषद के एक प्रमुख नेता हैं.

लोदो पिछले साल अगस्त में पहली बार तब चर्चा में आये, जब वेदांता कंपनी के इशारे पर लोदो को पुलिस उस समय उठा ले गई, जब वह अपने साथियों के साथ एक बैठक में हिस्सा लेने दिल्ली जा रहे थे. उन्हें रायगढ़ पुलिस ने थाना ले जाकर मरते दम तक पीटा, माओवादी होने का ठप्पा दिया और तब जाकर छोड़ा जब मीडिया से लेकर स्थानीय सांसद और कार्यकर्ताओं ने दबाव बनाया.

सरसों के खेत से गाँव पहुँच कर जब हमने लोदो के बारे में पूछा तो एक ने कहा कि वह भूखे और प्यासे थे और अपनी डोंगर (डोंगर में स्थित अपने खेत) की ओर चले गए हैं. हम भी पीछे चल पड़े. वैसे भी पिछले चार दिनों में हम कई लोगों का डोंगर चढ़ चुके थे, जिनमें लोदो का डोंगर भी शामिल था.

असल में फसल कटाई के इस समय गांव के सभी लोग अपने परिवार समेत अपने-अपने डोंगर में छोटी -छोटी कुटिया और मचान लगाकर रहते हैं. डोंगर में ही वे धान, मड़िया, गुर्जी, कांदुल,अंडी जैसे कई तरह की फसलों को काटकर लाते हैं.

नियमगिरि पहाड़ में रहने वाले ये डोंगरिया आदिवासी डोंगर में ही खेती करते हैं. यहां खेती करना काफी मेहनत का काम है, जिसमें पूरे परिवार को जुटना पड़ता है. डोंगर में क्योंकि जुताई नहीं हो पाती, इसलिए वहां हाथ से कोड़ाई करनी पड़ती है. इसलिए इस खेती में घर के छोटे बच्चे से लेकर बुढ़ों तक का योगदान महत्वपूर्ण होता है.

वहां चार दिन तक रहते हुए हमने इसे और बेहतर तरीके से समझा था. जब बड़े लोग फसलों की कटाई कर रहे थे तब पांच से दस साल के छोटे बच्चे नीचे झरनों से छोटे-छोटे पात्रों में पानी लाने जैसा काम कर रहे थे. जीवन के अंतिम दिनों की ओर बढ़ रहे कई बुजुर्ग महिलायें भी कुछ न कुछ काम करते दिखीं.

डोंगरिया लोगों की प्रकृति पर निर्भरता और प्रकृति से इतना जुड़ाव है कि बाहरी चीजों के उपर इनकी निर्भरता नहीं है. यही वजह है कि जब बाकी देश महंगाई को लेकर इतनी हाय-तौबा कर रहा हैं , तो ये लोग उससे कोसो दूर हैं. वह इसलिये भी क्योंकि इनके जीवन में बाज़ार का हस्तक्षेप नहीं है. इनका बाज़ार से ज्यादा लेना देना नहीं है. वह बाहरी दुनिया से जितना लेते हैं, उससे कहीं ज्यादा देते हैं. पहाड़ के नीचे बसे लोग नियमगिरि के फलमूल और फसल के लिए इंतजार करते रहते हैं. इसलिए महंगाई होने पर उन्हें दो पैसा ज्यादा ही मिलता है कम नहीं. हालांकि बिचौलिए सबसे ज्यादा फायदा उठा लेते हैं, जो इनके उत्पादों को कम मूल्य में इनसे लेकर काफी मुनाफा कमाते हैं.
लोदो के डोंगर में चढ़ाई के दौरान रास्ते में उनका सलप यानी सल्फी का पेड़ है. सलप के पेड़ से निकलने वाला रस पीया जाता है. वहाँ हमने देखा, लोदो पेड़ पर चढ़े हुए हैं और सलप निकाल रहे हैं और नीचे उनके मित्र खड़े हुए हैं, जो उनके साथ ही भुवनेश्वर से लौटे हैं.

हमारे पहुंचते तक लोदो सलप लेकर नीचे आ गये. दुआ-सलाम के बाद छूटते ही कहा- “पिछले चार दिनों से सलप नहीं पिया था इसलिए बहुत प्यास लग रही थी.”

लोदो अपनी भुवनेश्वर यात्रा के बारे में बताने लगे- "वहां सब चीज़ के लिए लाइन में लगना पड़ता था. नहाने के लिए लगना पड़ता था और गरम पानी दिया जा रहा था. पीने के पानी को बोतल में भरकर बेचा जा रहा था, वह भी दस से पंद्रह रुपये में."

“मैंने उन लोगों को कहा कि आप लोग हमारे नियमगिरि आ जाओ, हम आपको एक ट्रेन भर के पानी देंगे, वह भी बिल्कुल मुफ्त. हमारे यहाँ बहुत सारे झरने हैं, जहाँ शीतल और स्वच्छ पानी है. ...इसलिए मैं तो जब तक भुवनेश्वर में रहा, नहाया भी नहीं.”

हम अगर नियमगिरि में नहीं होते तो शायद लोदो की बातों का मतलब समझ नहीं पाते, लेकिन वहां रहने के बाद हम भी महसूस करते हैं कि नियमगिरि जिसे वह नियमराजा भी कहते हैं, उनके लिए कितना उदार है और उन्हें क्या कुछ नहीं दिया है नियमगिरि ने. जो लोग प्रकृति के इतने करीब हैं, वह हम जैसी सोच-समझ वाले कैसे हो सकते हैं, जिनके लिये सब कुछ नफा-नुकसान और व्यापार का विषय है. जिस नियमगिरि को वह अपना भगवान मानते हैं, उसे हमारी सरकार भी तो रुपये के लिए बेचने पर उतारू हो गई है.


हमने रात उनके साथ डोंगर में ही बिताने का निश्चय किया ताकि उनसे लम्बी बातचीत हो सके. ठण्ड का दिन था और उस पहाड़ी में न तो बिजली है और न मोबाइल के लिए नेटवर्क. लाखपदर गाँव में तो सरकार ने एक स्कूल खोलने की भी जरूरत महसूस नहीं की है. कभी यहाँ स्कूल था पर वह कई साल पहले बंद हो गया. जो बच्चे पढ़ना चाहते हैं, उन्हें घंटों पहाड़ी और जंगली रास्ते से गुजर कर दूसरे गाँव के स्कूल में जाना होता है, इसलिए सिर्फ कुछ बच्चे दूर गाँव के आश्रम स्कूल में पढ़ते हैं. बाकी बच्चे तो इस सर्व शिक्षा अभियान के दौर में भी अनपढ़ रहने को मजबूर हैं.


मैं कई बार सोचता हूं कि हमारी सरकारें इन आदिवासियों से इनके जल, जंगल, ज़मीन और खनिज लूटकर वेदांता, टाटा जैसी कंपनियों को देने का फैसला चंद मिनटों में कर लेती है लेकिन आज़ादी के इतने सालों बाद भी इन आदिवासियों के लिये एक स्कूल भी क्यों नहीं खोल पाती ? उल्टे जो कुछ इन आदिवासियों के पास है, उसे भी क्यों लूट लेना चाहती है?

ज़ाहिर है, जो काम कथित तौर पर संवेदनशील, शक्तिशाली सरकार और कल्याणकारी राष्ट्र नहीं कर पा रहा है, उसके लिये एक ऐसी कंपनी से उम्मीद करना तो बेमानी है, जो खनिज और वन संपदा को निचोड़ कर मुनाफा कमाने आई है.

कथित विकास के दलाल यह प्रचार करने में लगे हैं कि ‘विकास के लिए वेदांता चाहिए !’ लेकिन वेदांता का सच क्या है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है. अगर इस तरह के खनिज उत्खनन से गरीब और आदिवासियों का विकास होता है तो पड़ोस के केन्दुझर का इतना बुरा हाल क्यों है ? पिछले पचास साल से भी ज्यादा समय से टाटा कम्पनी वहां पर खनिज उत्खनन का काम कर रही है और अब तक लाखों करोड़ रुपये मुनाफा भी कमा चुकी है लेकिन वहां के आदिवासी अब भी बुरे हाल में हैं.

हम लोदो के साथ और थोड़ा ऊपर पहाड़ी पर चढ़ गए जहाँ उनका मचान था और उसके नीचे मडिया, कोसला और कुछ फसलें काटकर रखी गई थीं. ठण्ड से निजात पाने के लिए लोदो ने आग जलाई और वहां अपना खटिया खींच लाये और हमें उपर मचान में सोने के लिए कहा.

मचान के निचले हिस्से में छह लकड़ी के खम्बे थे. वहीँ ऊपर में पट्टा बिछा हुआ था और चारों ओर बांस से घिरा हुआ था, छत पुआल से ढका हुआ था. लोदो ने इसे बहुत ही खूबसूरत तरीके से बनाया था. यहाँ सभी किसान इस तरह के मचान बनाने में माहिर हैं. उस मचान में चढ़कर रात बिताने का अनुभव हमारे लिए काफी रोमांचक था.

सुबह जब सूरज की रोशनी पड़ती है तो वहां का नज़ारा और भी खूबसूरत होता है. उस सुबह भी चारों ओर पहाड़ ही पहाड़ दिखाई दे रहे थे और इन पहाड़ों में दूर-दूर पर कहीं-कहीं ऐसे ही मचान भी दिखाई दे रहे थे और उसके पास से ही धुआं उठ रहा था . रात भर हमने उनसे बहुत सारी बातें की, उनके बारे में, नियमगिरि पर्वत के बारे में, उनकी आजीविका से लेकर वहां रहने वाले डोंगरिया आदिवासियों के बारे में और वहां ब्रिटिश कंपनी वेदांता आने के बाद उसका विरोध और विरोध करने पर उन पर हो रहे जुल्म-सितम के बारे में.

गौरतलब है कि काफी ज़द्दोज़हद के बाद भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने नियमगिरि में खनिज उत्खनन को ‘ना’ कर दिया है, जिसके बाद से नियमगिरि की रक्षा के लिए लम्बे समय से लड़ाई लड़ रहे काफी लोग राहत महसूस कर रहे हैं. लेकिन नियमगिरि में रहने वाले डोंगरिया आदिवासियों का मानना है कि उनकी लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है.

• आखिर ऐसा वह क्यों कह रहे हैं ?

हम यह जानते हैं कि माइनिंग फिलहाल रोक दी गई है, लेकिन हमें लगता है कि माइनिंग फिर शुरू की जा सकती हैं. क्योंकि जब तक वेदांता की फैक्ट्री लांजीगढ़ में मौजूद है, तब तक यह डर बना रहेगा. हो सकता है हमारी मौत के बाद ये हमारे बच्चों को बहला-फुसला कर उनसे जमीन छीन लें. इसलिए अगर फैक्ट्री भी यहाँ से चली जाती है तभी हम आश्वस्त हो सकते हैं. हमारे लोगों का कहना है कि उस फैक्ट्री को बंद करके यहाँ से हटा दिया जाए. यह फैक्ट्री जब तक हमारी ज़मीन में मौजूद है तब तक यह हमारे लिए ठीक नहीं है. हम यह बात उनसे कहेंगे और देखेंगे कि वह फैक्ट्री हटाते हैं कि नहीं और अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो हम सब इकट्ठा होकर जायेंगे और उस फैक्ट्री को नेस्तनाबूत कर देंगे. इसलिए जब तक यह फैक्ट्री है तब तक हम इसे न तो अपनी जीत मानते हैं और न अपनी लड़ाई खत्म होने की बात करते हैं.”

• माइनिंग के बंद होने को क्या आप अपनी आपकी लड़ाई की जीत मानते हैं ?

सब लोग यही कह रहे हैं कि हम इसलिए जीते क्योंकि हमारे लोगों ने इसके लिए काफी संघर्ष किया और यही वजह है कि हम फिलहाल नियमगिरि की सुरक्षा करने में कामयाब रहे. इसलिए अब अगर यह फैक्ट्री भी यहाँ से चली जाती है तब यह हम सब के लिए अच्छा होगा. अगर यह फैक्ट्री यहीं रहती है तो इसकी चिमनी से उठने वाला धुआं नियमगिरि के पर्यावरण को दूषित कर देगा, हमारे खेती किसानी जिसमें हम मड़िया , कोसला जैसी कई चीज़ उगाते हैं, को प्रभावित करेगा. हमारे ज़मीन बर्बाद हो जाएंगे. कंपनी यहाँ रहे, यह हम लोगों के लिए ठीक नहीं है क्योंकि यह कंपनी हमारे लोगों को परेशान कर रही है. कंपनी हमारे गाँव में पुलिस भिजवाकर हमारी पिटाई करवा रही है. अगर यह फैक्ट्री यहाँ से चली जाती है तो हम लोग खुश होंगे.

पुलिस यहाँ 2-3 बार आ चुकी है और हमारी बहुत पिटाई की है और युवतियों को भी परेशान किया है. वह हमारी मुर्गियों को मारकर और हमारी टंगिया छीनकर ले गए हैं. एक बार वह हमारे गाँव से 4 टंगिया ले गए और गाँव के युवकों की खूब पिटाई की. जब उनसे हमने पूछा कि हमें क्यों पीट रहे हो तो पुलिसवालों ने कहा की " तुम तुम्हारे नियमगिरि दोगे कि नहीं .......... ?( माँ की गाली देते हुए कहा ) यह सरकार की है, क्या तुम सोचते हो यह तुम्हारी है ? नहीं, यह तुम्हारी नहीं है."


लेकिन मैं जानता हूं कि यह सब हमारा है, कुछ भी सरकार का नहीं , यह नियमगिरि, यहाँ का पहाड़, यहाँ का पानी, हवा सब हमारी है. यहाँ का सब कुछ, यहाँ के लोगों का है. इसलिए हम लड़ाई कर रहे हैं.

• माइनिंग बंद होने के बाद भी लड़ाई क्यों जारी रखे हैं ?

माइनिंग बंद होने के एलान के बाद भी हम डोंगरिया अपनी लड़ाई बंद नहीं करेंगे. हम आन्दोलन नहीं छोड़ेंगे. क्योंकि अभी केवल नियमगिरि में खुदाई को रोकने का एलान किया गया है, इसलिए हम अपनी लड़ाई और आन्दोलन जारी रखेंगे. यहाँ जब तक शांति और आज़ादी वापस नहीं आ जाती तब तक हम आन्दोलन जारी रखेंगे.

• क्या इस लड़ाई में सभी लोग शामिल हैं ?

हाँ इस लड़ाई में कंपनी दलालों को छोड़ बाकी सब लोग एक होकर लड़ रहे हैं और धीरे-धीरे और ज्यादा लोग इसमें शामिल हो रहे हैं. हम डोंगरिया यहाँ पर और बहुत सारे लोग बाहर देश ओर विदेश में इसके लिए लड़ रहे हैं, जिससे हमें ताकत मिलती है. हमें अच्छा लगता है कि हम इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं. हमारे साथ-साथ बाहर के लोग भी इस लड़ाई में स्वस्फूर्त शामिल हो रहे हैं, जिससे हमारा हौसला बढ़ रहा है, और हम भी आगे बढ़ रहे हैं.

जब मैं भुवनेश्वर की बैठक में गया था तो बहुत सारे लोग आये और कहा कि वह हमारी लड़ाई में हमारे साथ हैं, अच्छा लगा कि लोग हमारी जज्बात और हमारी भावनाओ को समझते हैं . भुवनेश्वर की बैठक में कई ऐसे लोग आये हुए थे, जो अपनी -अपनी जगह ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं और जहाँ दूसरी कम्पनिया उन्हें तोड़ने में लगी हुई हैं. कई जगह तो लोग ज़मींदारों के खिलाफ लड़ रहे हैं जहाँ ज़मींदार उनके बाप-दादाओं को बहला फुसलाकर या शराब पिलाकर ज़मीन हथिया लिए हैं. ज़मीन की लड़ाई हर जगह जारी है. अगर हम डोंगरिया चुप बैठ जायेंगे तो हम अपना ज़मीन अपना देश बचा नहीं पायेंगे, इसलिए हमें एकजुट होकर लड़ने की ज़रुरत है.

• वेदांता कंपनी का रव्वैया इस आंदोलन को लेकर कैसा है ?

कंपनी लोगों को तोड़ने में लगी है और कई जगह उन्हें सफलता भी मिली लेकिन हमने गाँव-गाँव जाकर लोगों को समझाया कि अगर हम टूट जायेंगे तो यह हमारे लिए ठीक नहीं है, अगर हम एकजुट होकर लड़ते रहेंगे तब जो हम चाहते हैं वह कर पायेंगे. वेदांता ने हमें बाँट दिया है. अगर वेदांता यहाँ नहीं होता तो आज हम बंटे हुए नहीं होते. यह लोगों को रिश्वत देकर, बहला-फुसला कर अपनी ओर खींचने में लगी है, और जो जानवर हैं और जो अपनी ज़मीन और माँ को बेचने को तैयार हैं वह उनके साथ जा रहे हैं. जो समझदार हैं वह हमारे साथ हैं और कह रहे हैं कि हम अपना घर और देश नहीं छोड़ेंगे.

• आपकी लड़ाई में नियमगिरि के बाहर भी लोगों का समर्थन है ?

जी हाँ, हमारी लड़ाई में यहाँ के अलावा बाहर के लोग भी शामिल हैं. दुनिया भर के लोग हमारे साथ हैं. इसलिए हमें कोई डर नहीं है. हमें पता है कि आन्दोलन करते हुए अगर हममें से कोई मारा जाता है तो दुनिया भर में और भी लोग होंगे जो हमारे साथ होंगे. आज मुझे ओडिशा और भारत में भी लोग जानते हैं इसलिए अगर मैं मारा भी जाता हूँ तो लोग जानेंगे कि मैं अपनी ,ज़मीन, देश और अपने लोगों के लिए लड़ते हुए मारा गया. हम किसी भी सूरत में अपनी, ज़मीन, घर और यह देश (नियमगिरि) नहीं छोड़ेंगे. यहाँ हमारी महालक्ष्मी है, ज़मीन हमारे लिए सब कुछ है.

• क्या आपको पुलिस की बन्दूक से डर नहीं लगता ?

नहीं , क्योंकि डर के हम अपनी ज़मीन और घर छोड़कर कहाँ जायेंगे ? यह छोड़ने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते. इसलिए बन्दूक, पुलिस और कंपनी से नहीं डरते, आखिर वह यही तो चाहते हैं कि हम डर कर नियमगिरि छोड़ कर भाग जाएँ .

• आपको पता है कि दूसरे जगह भी आदिवासी अपनी ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें आप क्या सलाह देना चाहेंगे ?

हम उन्हें यही कहेंगे कि आप लोग सब एकजुट हो जाओ कंपनी को भगाने के लिए, अगर आप उन्हें खदेड़ भगा सकते हो तो यह तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लिए ठीक होगा. हम अपने बच्चों का भविष्य अच्छा बनाना चाहते हैं, उनके कल्याण के लिए उनके अधिकार की बात सोच रहे हैं. इसलिए आज अगर हम नहीं लड़ेंगे तो हमारे बच्चे यहां नहीं रह पायेंगे, इसलिए आन्दोलन ज़रूरी है.

• डोंगरिया लोगों के लिए नियमगिरि का क्या महत्व है ?

नियमगिरि हमारी जिन्दगी है.यह हमारी माँ, हमारा बाप है. इसलिए अगर इसकी मौत होती है तो हम जैसे उसके बच्चों की भी मौत हो जायेगी. वह हमारी माँ है जो हमें न केवल जन्म देती है, बल्कि वह हमें ज्ञान और कौशल भी देती है. इसलिए हमें अपने माता-पिता को बचाना होगा. आप अगर हमारे माँ -बाप को मार देंगे तो हम भी नहीं बचेंगे. यह हम समझते हैं और इसलिए अपनी लड़ाई जारी रखे हैं.


नियमगिरि हमें वह सब कुछ देता है, जो हमें चाहिए. नियमगिरि हमें पानी, हवा, कोसला, मडिया, झुडुन्ग, कांदुल, केला, जाड़ा, हल्दी, लहसुन और कई तरह के फल-मूल, और दवाई देता है. इस तरह से बहुत सारी चीजें यह देता है. यह हमें दूध (सलप रस को माँ की दूध की तरह देखते हैं ) भी देता है ....यह सब कौन हमें देगा ? यह हमारी माँ है, इसलिए यह सब हमें दे रही है. हम अगर अपनी मां को छोड़ देंगे तो हम कैसे जिंदा रह पायेंगे ? इसलिए हम उसके बच्चे होने के नाते उसे बचाने के लिए लड़ते रहेंगे क्योंकि उसमें ही हमारी भलाई है.

• अगर आपको नियमगिरि छोड़ना पड़े तो ?

हम जिंदा नहीं रह पायेंगे. मैं भुवनेश्वर में तीन दिन था, पर वहां गरम पानी में नहाया ही नहीं. जब वहां लोगों ने पूछा तो मैंने कहा कि –‘’ नहीं मुझे ऐसा पानी पसंद नहीं है, हमारे यहाँ पानी ठंडा होता है, हम खुश हैं, हमें अच्छा लगता है, उस ठन्डे पानी में नहाने से लगता है जैसे हम फिर से जिंदा हो गये हैं. नियमगिरि जैसी जगह दुनिया भर में ढूढने से भी कहीं नहीं मिलेगी. "

नियमगिरि से बाहर निकलो तो आपको नहाने से लेकर खाने और पीने तक के लिए सब चीज़ के लिए पैसे देने होंगे. इसलिए हम बाहरी दुनिया में चल नहीं सकते. यहाँ हम कहीं भी खाना खाते हैं या और कुछ करते हैं तो उसके पैसे नहीं लगते. जब हम बाज़ार जाते हैं तो सिर्फ हम कपड़ा, नमक, केरोसिन और सूखी मछली लाते हैं और वह भी अपनी चीजों या उत्पादों के बदले में. और हमें पूरी आज़ादी है कि वह ख़रीदे या नहीं. इन तीन-चार चीजों के अलावा हमारे नियमगिरि में हमारी ज़रुरत की सब चीजें उपलब्ध हैं. इसलिए हमें कोई डर नहीं है क्योंकि यहाँ सब कुछ मौजूद है. यहाँ तक कि यहाँ अगर एक साल बारिश भी नहीं होती है तो भी हम जिंदा रह सकते हैं. कम बारिश या बिना बारिश में होने वाले फसल, कंदमूल और फल के सहारे हम जिंदा रह सकते हैं.

• क्या पुलिस ने आप पर इसलिए निशाना साधा है क्योंकि आप नियमगिरि आन्दोलन से जुड़े हैं ?

जी हाँ , इसीलिए तो वह मुझे उठाकर ले गए थे, मुझे कहा गया कि "तुम आन्दोलन में हो, तुम संगठन में हो, यही वजह है कि नियमगिरि में खुदाई का काम नहीं हो पा रहा है, तुम आन्दोलन को हवा दे रहे हो, पहले इसे दबा दिया गया था लेकिन अब दोबारा लोग एकजूट हो रहे हैं क्योंकि तुम आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हो. इसलिए लोग तुम्हारी बात सुन रहे हैं. जब हम बुलाते हैं तो कोई हमारी नहीं सुनता है. ऐसा क्यों है कि जब तुम बुलाते हो तो वो सब आते हैं.”

उन्होंने मेरी बेरहमी से पिटाई की और मुझे और मेरे मित्र को ले गए.

उन्होंने आरोप लगाया कि मैं माओवादी हूं. मैंने जब इस झूठे आरोप से इंकार किया और माओवादी होने या माओवादियों से जुड़ाव का कोई एक भी सबूत जानना चाहा तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था. मेरी बेरहमी से पीटाई हुई. पुलिस वाले मुझे मारते जाते थे और गालियों के साथ-साथ झूठे आरोप लगाते जाते थे- "हरामजादे, तू हमें कहता है कि तूने माओवादियों को नहीं देखा है तो फिर हमारे तक रिपोर्ट कैसे आयी है ? तू ही उन्हें यहाँ बुलाके लाया है. तू नियमगिरि को लेकर खेल खेल रहा है. हम तुझे नहीं छोड़ेंगे.”

मैंने कहा- हम नियमगिरि कभी नहीं छोड़ेंगे भले इसके लिए हमें जान देना पड़े. अगर हम नियमगिरि छोड़ देते हैं तो हमारे बच्चे परेशान हो जायेंगे, वह कहीं के नहीं रहेंगे . हम छोड़ देते हैं तो हम ग्लानी महसूस करेंगे. इसलिए अगर हमें मरना भी पड़े तो हम नियमगिरि नहीं छोड़ेंगे.

जब मैं यह सब कहा रहा था तब और एक पुलिस वाला हवालात में घुस आया और उसने कहा- नहीं-नहीं हम तुम्हारी नियमगिरि के लिए पिटाई नहीं कर रहे हैं बल्कि हम तो तुम्हें तुम्हारे माओवादिओं के साथ संबंध होने की वजह से पिटाई कर रहे हैं.

मैंने उनसे फिर पूछा कि आखिर इस झूठे आरोप का आधार क्या है ? किसने देखा है कि मेरे संबंध माओवादिओं के साथ हैं?
उन्होंने कहा- नहीं नहीं हमने नहीं देखा है पर तुम्हारे कुछ लोगों ने यह खबर दी है तो हमने सोचा यह सच होगा. इसलिए हम तुम्हें यहाँ लेकर आये हैं. हम जब भी नियमगिरि जाते हैं तब तुम दादागिरी दिखाते हो.

मेरा जवाब था-जब कोई हमारा नियमगिरि लेने आएगा तो उसे हम कैसे छोड़ देंगे, क्या हमने नियमगिरि को बेच दिया है?

पिटाई के साथ उनका जवाब था- तुम बेच रहे हो. तुम्हारी सरकार बेच रही है. यह तो तुम्हारी सरकार है.

मैंने कहा- नहीं यह हमारी सरकार नहीं है, हमारी सरकार होती तो यह हमें मारती नहीं बल्कि बचाती.

उनका जवाब था- यह तो लोगों की सरकार है.
पिटाई के कारण फट चुके होंठ से बह रहे खून को पोंछा और जवाब दिया- अगर यह हमारे लोगों की सरकार है तो इसे बुलाया जाए और पूछा जाए की नियमगिरि को कौन बेच रहा है, और कौन कितना पैसा ले रहा है.

तब उन्होंने दो बन्दूक लाकर मेरे सीने में रखकर कहा-हम तुम्हें मार देंगे.

मैंने कहा- मार दीजिये. यह आपकी मर्ज़ी है. आप यहाँ एक आदमी को मार सकते हो लेकिन वेदांता के कारण जो दूसरे लोग हैं, वह मारे जायेंगे.

उन्होंने कहा- हम तुम्हें आंध्र ले जाकर मार देना चाहते थे.

उन्होंने मुझे बहुत पीटा. मैं अधमरा हो चुका था, उठकर बैठने की स्थिति में नहीं था. चार-पाँच लोग मिलकर मुझे लगातार मार रहे थे. मैं कब तक बर्दास्त कर पाता. जब मैं गिर गया तब मेरे मुंह और आँख में कुछ पानी छिड़का गया. होश में आने पर उन्होंने कहा- खड़े हो जाओ लोदो, खड़े हो जाओ.

मैंने धीमे स्वर में कहा- न तो मैं खड़ा हो सकता हूँ और न कुछ बोल पाने की स्थिति में हूँ. आप लोगों ने मुझे इतना जो मारा है!

उन्होंने गालियां बकते हुये कहा- क्यों तुम्हें नहीं मारेंगे ? तुम सरकार को परेशान कर रहे हो, तुम सरकार से जबान लड़ा रहे हो, तुम अपनी ही सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हो. उन्होंने एक बार फिर मुझे मारना शुरु कर दिया था.

मैंने उन्हें जवाब दिया- यह अगर हमारी सरकार होती तो यह हमसे हमारी ज़मीन नहीं छिनती, हमारी दुनिया नहीं उजाडती. हमारी बाक्साइट कभी नहीं लेती. हमें यह पता है कि यह विदेशी सरकार है, राक्षस सरकार है. बाहर से आया हुआ राक्षस सरकार.

इस जवाब से तिलमिलाये पुलिस वाले ने कहा- हम इतने पढ़े-लिखे लोग हैं, यह बात हम नहीं जानते. लेकिन तू जानता है. इसलिये ही तो कह रहे हैं कि तू नेता है और लोगों को भड़का रहा है.

• इतनी पिटाई के बाद आपको डर नहीं लगा ? ऐसा नहीं लगा कि आपको इस आन्दोलन में नहीं रहना चाहिए था ?

नहीं-नहीं जितना जोर से उन्होंने पीटा, मुझे उतना ही गुस्सा आया. वह मेरी जितनी पिटाई करते, मैं अंदर से उतना ही मजबूत होता गया और ठान ली कि अब तो कुछ भी हो जाए हम अपनी ज़मीन, अपना घर और अपना नियमगिरि किसी भी सूरत में नहीं छोड़ेंगे. हम कितना सहन करेंगे? सहने की भी कोई हद होती है.

वह हमें डराना चाहते थे. तुम्हें आन्दोलन नहीं करना चाहिए कहा. तुम किसी मीटिंग में मत जाओ कहा. वेदांता के खिलाफ आन्दोलन को बंद कर देने को कहा. तुम अगर आन्दोलन में नहीं जाओगे तो और कोई भी नहीं जाएगा, तुम आन्दोलन को छोड़ दो.

मैंने कहा- आज से मैं नहीं जाऊँगा, मुझे छोड़ दीजिये.

पुलिसवालों ने कहा- अगर तुम आज से नहीं जाओगे तो हम तुम्हें नौकरी देंगे.

मैंने कहा- मैं तो अनपढ़ गवांर हूँ, मैं न तो पढने जानता हूँ और न लिखने, और आप मुझे कैसे नौकरी देंगे ?

उन्होंने कहा- तुम सिर्फ घर में बैठे रहना. पैसा तुम्हारे घर पहुँच जाएगा.

फिर मैंने पूछा- क्या आप मुझे यूँ जिन्दगी भर पैसा देते रहोगे ?

हाँ-हाँ, हम तुम्हें जिन्दगी भर पैसा देते रहेंगे, तुम उसकी चिंता मत करो.-पुलिसे वालों ने कहा.

तब मैंने कहा- मैं चिंता नहीं करता, दरअसल हम आपसे पैसा लेकर या आपके पास नौकरी करके बड़ा आदमी नहीं बनना चाहते, हम तभी बड़ा बने रह सकते हैं जब हम अपनी ज़मीन के साथ एक होकर रहेंगे.

मेरा जवाब उनके लिये अप्रत्याशित था. उन्होंने मुझे ‘बेवकूफ’ कहते हुये फिर से पिटना शुरु कर दिया.

मुझे लगा कि इस तरह ये मारते रहे तो मैं तो मर ही जाउंगा. मैंने पैंतरा बदला और कहा कि आप जैसा कहेंगे मैं वैसा करने के लिये तैयार हूं. मैंने भी सोचा चलो पहले इस नरक से तो मुक्ति मिले तब सोचते हैं.

• तो पिटाई के बाद आन्दोलन छोड़ दिया ?

नहीं-नहीं, उस पिटाई ने हमारे आन्दोलन को और मजबूत किया, एक की पिटाई हुई इसका मतलब नहीं है कि हम चुप होकर बैठ जाते. हमने कई बैठकें बुलाई. मैंने अपने लोगों से कहा कि केवल मेरी पिटाई हुई है, आप लोगों की नहीं हुई है. मुझे पीट कर उन्होंने मुझे और नाराज कर दिया है. मेरी बात का गहरा असर हुआ. लोगों ने साफ कहा कि मेरी पिटाई उनके लिये भी नाराजगी का कारण है. इस तरह से आन्दोलन और तेज़ होता गया और हम एकजुट होने लगे. हमने लांजीगढ़ में एक बहुत बड़ी रैली निकाली.

हम यह आन्दोलन अपनी मातृभूमि, अपनी ज़मीन और हमारे लोगों के लिए लड़ रहे हैं. यह सिर्फ नियमगिरि, काशीपुर, कलिंगनगर के लिए नहीं है बल्कि हम पूरी दुनिया और मानवता के लिए लड़ रहे हैं. जंगल, ज़मीन, पानी और हवा की सुरक्षा से ही मानवता की सुरक्षा हो सकती है. हमें पता है कि दुनिया भर में कई लोग इसके लिए आन्दोलन कर रहे हैं. लड़ाई लड़ रहे हैं. इस तरह के आन्दोलनों में जहाँ भी जरूरत होगी, हम जायेंगे.

अब कंपनी आस-पास के दूसरे डोंगर लेना चाहती है, हम उसका भी विरोध करते हैं क्योंकि उन डोंगरों में भी आदिवासी रहते हैं और ये सभी डोंगर हमारी जिन्दगी है. काशीपुर में बाफला माली, कुद्रू माली, सिजू माली जैसे कई डोंगर हैं जिनमें आदिवासी रहते हैं और उस पर उनकी जीविका निर्भर है, इसलिए हम उसके लिए भी लड़ाई करेंगे.

दूसरी ओर कलिंगनगर में भी हमारे लोग हैं. कंधमाल, मलकानगिरी और कोरापुट में भी हमारे लोग रहते हैं. इस तरह से हमारे लोग सभी जगह हैं और वह सभी हमारी तरह अपनी ज़मीन को बचाने के लिए लड़ रहे हैं. इस तरह से हम नियमगिरि में अकेले नहीं हैं, इसलिए हमें कोई डर नहीं है. अगर हम अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई में मर भी जाते हैं तो कोई चिंता की बात नहीं. अगर हम मरते हैं तो हम अपने लोगों के साथ मरेंगे, अगर जिंदा रहेंगे तो लोगों के साथ जिंदा रहेंगे.

लोदो की बात सुनते हुए लगा कि हम जिस दुनिया से आये हैं वह दुनिया बड़ी है, कथित तौर पर बहुत तरक्की कर चुकी है, विकास कर चुकी है. लेकिन जीवन और अपने लोगों के प्रति सोच के मामले में हम लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं. हम अपने स्वार्थ और हवस के लिये एक सुंदर दुनिया को नष्ट कर देना चाहते हैं. हमारी दुनिया और हमारी सरकारों ने उन्हें अभी तक कुछ भी नहीं दिया है लेकिन उनके पास जो कुछ है, उसे भी लूटना चाहती है.

रविवारर .कॉम से साभार

18 फ़रवरी 2011

छात्रों की जुबान पर पहरा

रुद्र भानु प्रताप सिंह
छात्रों ने हमेशा ही समाज परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है चाहे वो आजादी का आंदोलन हो या 70 के दशक में नकसलवाड़ी और जेपी का आंदोलन। अपने प्रयास से सदैव ही समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है । इतिहास छात्रों को परिवर्तन के वाहक के रूप में याद करता है। छात्र अस्मिता की राजनीति का आरंभ सन् 65-66 में बीएचयू में समाजवादियों ने किया और जेएनयू ने उसे सन् 1972-73 के बाद से नई बुलंदियों तक पहुँचाया ।परंतु आज छात्र प्रतिरोध की यह संस्कृति धीरे-धीरे दम तोड़ती नजर आ रही है देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्र प्रतिरोध के लिए जगह सिमटती जा रही है। विगत वर्षो में हुए छात्र आन्दोलनों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कैसे देश के इक्के-दुक्के विश्वविद्यालयों में कभी-कभी छात्रों की किसी स्थानीय मांग के लिए छोटी-मोटी आवाज़े तो उठती हैं लेकिन कोई संगठित प्रतिरोध नहीं दिखाई देता । अब यह प्रतिरोध भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जो कभी जीवंत राजनीतिक केन्द्र हुआ करता था, पोस्टर तक नहीं लगाये जा सकते, हालांकि यहां अभी तक छात्र प्रतिवाद की गतिविधियों में शामिल होते हैं. अन्य कैम्पसों के हालात तो और खराब हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में किसी भी किस्म की राजनीतिक गतिविधि - प्रतिवाद प्रदर्शन, परचे, पोस्टर अथवा यहां तक कि छात्रों द्वारा बैठकों का आयोजन करना भी प्रतिबंधित हैं. लखनऊ विश्वविद्यालय में अगर छात्रों को किसी भी किस्म के प्रतिवाद की गतिविधि में शामिल पाया गया तो उनको कठोर दंड दिया जाता है. इन सारे कैम्पसों में पुलिस और अर्ध-सैनिक बल हमेशा तैनात रहते हैं. छात्र आंदोलन चेतना की वह धारा है जो विचारों को कैम्पस के दायरे से बाहर लाने और समूचे देश में लोगों की प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से घुलमिल जाने में यकीन रखती है. लेकिन छात्र राजनीति की इस धारा पर हमला क्रमशः बढ़ता जा रहा है. शिक्षा नीति को पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के उपयुक्त ढाला जा रहा है और कैम्पसों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। स्पष्ट दिख रहा है कि छात्रों की आकांक्षाओं एवं उनके प्रतिरोध को सत्ता के भूलभुलैया में फंसाने और उसे नेतृत्वहीन कर देने का पूरा प्रयास चल रहा है.प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्र देव ने कहीं लिखा भी है कि जब कोई राजनैतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है तो सबसे पहले वह उन संघर्षशील तत्वों को समाप्त करने का प्रयास करता है जिन्होंने उसकी सत्ता प्राप्ति में सहायता की हो। इसलिए अंग्रेजों के चले जाने के बाद सत्ताधारी तत्वों को छात्र आन्दोलन बेमाइने लगने लगा, और अब तरह-तरह के प्रतिबंध लगा कर छात्र प्रतिरोध को रोकने की कोशिश की जा रही है। इस तरह की शिक्षा नीति का विस्तार हो रहा है जिससे की छात्रों के प्रतिरोध की क्षमता को समाप्त किया जा सके। 1990 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से ही हमारे शिक्षा नीति में व्यापक बदलाव किए जा रहे हैं विश्वविद्यालयों से माविकी पाठ्यक्रमों के स्वरूप को बदला जा रहा है और इसकी जगह व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है । जानबूझ कर पाठ्यक्रमों के स्वरूप को इस कदर जटिल बनाया जाता है कि छात्रों को कहीं और ध्यान देने का मौका ही नहीं मिले । अपने विषय में ही उलझे रहने के कारण छात्रों को यह तक जानने का मौका नहीं मिल पता है कि उनके समाज में क्या हो रहा है । इनकी दुनिया को पढ़ाई और प्लेसमेंट तक सीमित कर दिया जा रहा है। बीते दो दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण व व्यवसायीकरण का बोलबाला हो गया है। यदि आपके पास पैसा है तो हर प्रकार की डिग्रियां मिल सकती हैं, यदि पैसे नहीं हैं तो बैंक से कर्ज की व्यवस्था है। यानी कि शिक्षा के इन दुकानदारों का मुनाफा जारी रहेगा। अब तो शिक्षा को घोषित रूप से मुनाफे का धंधा मान लिया गया है। उद्योगपतियों की ओर से सरकार को सौंपी गई बिरला-अम्बानी रिपोर्ट इसका नायाब उदाहरण है। सरकार इनको मुफ्त जमीन उपलब्ध कराती है, सुविधाएं देती है और ये लोगों की जेबों से लाखों की उगाही करते हैं। शिक्षा अमीरों के लिए पैसे कमाने नायाब व्यवसाय चुकी है। वास्तव में भारत की शिक्षा नीति पूरी तरह अमेरिकी अर्थव्यावस्था को ध्यान मे रख कर बन रही है । वहाँ किस तरह के प्रोफेसनल्स की आवश्यकता है , कौन सी नई इंडस्ट्री विकास कर रही है, उसमें किस तरह के रोजगार की संभावना है । उसके आधार पर हमारे यहां के संस्थानों में पाठ्यक्रमों की शुरुवात की जाती है। अभी पिछले दिनों ही हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री ने घोषणा की कि अगले दस वर्षों में अमेरिका में एसे प्रोफेसनल्स कि मांग होगी जो तकनीकी रूप से दक्ष होंगे। और शुरू हो गई कोशिश। हाल ही में प्रस्तावित विदेशी शैक्षणिक संस्थागत नियामक विधेयक 2010 का बचाव करते हुए पिछले दिनों एक टेलीविजन चैनल पर करण थापर को साक्षात्कार देते वक्त सिब्बल ने अपने शिक्षा सुधारों को 1990 के दशक के शुरुआत के आर्थिक सुधारों से जोड़ा। उन्होंने कहा कि प्रस्तावित विदेशी शिक्षा बिल का विरोध उन्हीं खेमों की तरफ से हो रहा है जो 1991 में आर्थिक उदारीकरण की आलोचना में जुटे थे। देखिए आज भारत कहां खडा है। सिब्बल समझाते हुए कहते हैं कि आज जिस चीज की आलोचना की जा nरही है वहीं आने वाले समय में हमारे लिए फायदेमंद होगी। ये व्यवस्था कितनी फायदेमंद होगी इस पर सोचने की जरूरत है। ये शिक्षा नीति छात्रों को बेशक रोजगार दिला दे लेकिन छात्रों से उनके सोचने-समझने की क्षमता छीन रही है। छात्रों की सामाजिक चेतना प्रभावित हो रही है। जिन युवाओं के बल पर हम एक भ्रष्टाचार मुक्त लोकतान्त्रिक समाज का निर्माण करना चाहते हैं उन्हें सरकार एक ऐसा मशीन बनाना चाहती है जो किसी रिमोट के इशारे पर काम करें । सरकार उस कैंपस संस्कृति को ख़त्म करना चाहती है जहाँ से समाज में घटने वाली हर घटना के ऊपर प्रतिक्रिया होती है, जहां से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की शुरुआत होती है । इसीलिए प्रोफेसनल्स पैदा करने के नाम पर सरकार इस तरह की शिक्षा नीति को लागू करने का प्रयास कर रही है। ताकी संस्थानों से ऐसे छात्र पैदा किए जा सके जो पूरी तरह से प्रोफेसनल हों । जिन्हें सामाजिक सरोकारों की कोई फिक्र न हो । जो बस अपने ही धुन में खोये रहें और सरकार बड़ी ही आसानी से अपनी बजारवादी नीतियाँ लागू करती रहे ।

17 फ़रवरी 2011

एक बार मिस्र हो जाओ मेरे देश

यह कविता फोन पर एक मित्र ने सुनाई. वे उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर जिले में कन्द्रियांवा गांव के रहने वाले हैं. उनका नाम शैलेन्द्र है. बी.ए. में पढ़ते हैं...... गांव से थोड़ी दूर पर मड़हा नदी है. यहाँ इन्हें रेंगते जानवरों के बीच मोटे उपन्यास जो किसी शर्मा द्वारा लिखा गया होता है...खूनी कातिल, जुदाइ की रातें जैसे जाने क्या-क्या शीर्षक वाले, पढ़ते हुए पाया जा सकता है. इनसे सम्पर्क का कोई अन्य स्रोत नहीं है. मोबाइल पड़ोसी की है. बी.बी.सी. की खबरें रोज सुनते हैं. गाँव के लोग इन्हें आवारा कहते हैं, चरवाहे नाम से इन्होंने अवधी और हिन्दी में कई कविताएं लिखी हैं, जो अप्रकाशित हैं.



चरवाहे

यह कश्मीर रह-रह कर
चुप क्यों हो रहा है
उनके फटे होंठो पर वाइस्लीन
लगाओ मेरे देश.

मणिपुर के भूख हड़तालों की अब
बरसी मनायी है जाने लगी
थोड़ी आग, थोड़ी बारूद उन्हें
दे आओ मेरे देश

मलकान गिरी की पहाड़ियों में
जो चल रहे हैं पैदल
पैरों को उनके चप्पल
पहनाओ मेरे देश

सिपाही और सेना
से घिर रहे हैं जंगल
इनकी बंदूकें और गोलियां
चुराओ मेरे देश

सब दे रहे हैं गालियां
अपने घरों और गाँवों में
उनके गुस्से को थोड़ा
खदबदाओ मेरे देश

सड़कें बहुत हैं
चौराहे हैं अनगिनत
किसी चौक को
तहरीर चौक बनाओ मेरे देश

ये जेलों के कैदी
ये वर्षों के बंदी
गुलामी-गुलामी ये कब तक रहेगी
एक बार मिस्र हो जाओ मेरे देश.

16 फ़रवरी 2011

बांध परियोजनाओं से उपजे पुनर्वास के सवाल


दिलीप खान
उत्तर औपनिवेशिक भारत की पहली नदी घाटी परियोजना से विस्थापित लोगों का अभी भी पुनर्वास नहीं हुआ है. पिछले 57 साल से पुनर्वास की आस लगाए लगभग चार हज़ार प्रभावित लोगों ने अब 27 फ़रवरी से आमरण अनशन पर जाने का फ़ैसला किया है. इसमें आंदोलन कर रहे लोगों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी भी शामिल हो रही हैं, जो विस्थापित अवस्था में ही पैदा और जवान हुई. दामोदर घाटी परियोजना के समय, 1954 में, जब इनकी ज़मीन अधिग्रहित की गई थी तो पश्चिम बंगाल और मौजूदा झारखंड के 250 से अधिक गांव इसकी जद में थे. इन गांवों से विस्थापित हुए लोगों में से सिर्फ़ 340 लोगों को ही सरकार ने अब तक मुआवजा और नौकरी दी है, जबकि एक हज़ार से अधिक विस्थापित परिवार पिछली आधी सदी से सरकारी दफ़्तरों में भटक और सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं. इन लोगों ने ’दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ’ के बैनर तले इस संघर्ष के तेज करने का फ़ैसला किया है. बीते साल भी इनमें से लगभग तीन हज़ार लोगों ने तीन दिनों तक भूख हड़ताल किया था, जिस पर हुआ समझौता अभी तक अधर में लटका हुआ है.
’50 के दशक में शुरु हुई दामोदर घाटी निगम और हीराकुंड बांध परियोजना देश की सबसे महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं में से थीं. विद्युत उत्पादन और सिंचाईं व्यवस्था को लक्ष्य करते हुए 7 जुलाई 1948 को संवैधानिक एक्ट के तहत दामोदर घाटी परियोजना की शुरुआत की गई और 5 सालों के भीतर 1953 में ही तिलैया में दामोदर की एक सहायक नदी बराकर पर पहला बांध बन कर तैयार हो गया. तब से लेकर अब तक इन विस्थापितों के संदर्भ में पुनर्वास की जितनी कवायदे हुईं हैं वह थोथी साबित हुईं. दामोदर घाटी निगम का प्रबंधन पुनर्वास की ज़िम्मेदारी से कई दफ़ा इन्कार कर चुका है. संबंधित राज्यों के राज्यपालों सहित उच्चतम न्यायालय द्वारा विस्थापितों के पक्ष में फ़ैसला सुनाने के बाद भी पीड़ितों को उचित आवास और मुआवजा अब तक नहीं मिला है.
देश में बांधों और नदी घाटी परियोजनाओं की ऐतिहासिक समीक्षा करने पर सरकारी नीतियों का लचड़पन साफ़ हो जाता है. पर्यावरण क़ानून और ज़मीन अधिग्रहण से लेकर पुनर्वास तक की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ हुआ है. 1953 में महानदी पर बने हीराकुंड बांध से विस्थापित हुए लोगों का भी संघर्ष अब तक जारी है. नदी घाटी परियोजना जिन लक्ष्यों को साधने के लिए शुरू हुईं थीं, उनके बजाए इन्हें औद्योगिक कामों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा. संभलपुर में ’हीराकुंड नागरिक परिषद’ ने औद्योगिक क्षेत्र के लिए पानी भेजने के विरोध में राष्ट्रपति से मुलाकात करने के बाद अक्टूबर 2006 में बांध के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक 20 किमी. लंबी मानव श्रृंखला बनाकर लोगों का ध्यान खींचा था. हीराकुंड बांध के दो ऊंची मीनारों का नामकरण नेहरू और गांधी के नाम पर किया गया है, लेकिन इन दो मीनारों को मानव शरीर से जोड़ देने के बावज़ूद प्रभावितों को राहत नहीं मिली. बांध के मुद्दे पर देश में ऐसे संघर्ष कई रूपों में और कई मामलों को लेकर चल रहे हैं. रेणुका बांध के विरोध में हिमाचल प्रदेश के लोग पिछले एक साल से सड़क पर हैं. इस बांध के डूब क्षेत्र के अंतर्गत सिरमौर ज़िले के 33 गांव आते हैं. दिल्ली को पानी मुहैया कराने के लिए यह बांध बनाया जा रहा है. ऐसा आकलन है कि अभी दिल्ली में सिर्फ़ 60% पानी का ही सही इस्तेमाल हो पा रहा है. दिल्ली के नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री को कुछ तरीके सुझाए हैं जिनमें तकनीकी सुधार के जरिए इसे 90% के स्तर तक बढ़ाया जा सकता है. इस उपक्रम के जरिए रेणुका से बचा जा सकता है.
नर्मदा घाटी में जल-जंगल-ज़मीन के संघर्ष को पच्चीस साल हो गए और यहां से विस्थापित हुए पचास हज़ार से अधिक लोग अभी भी सही मुआवजे और पुनर्वास के लिए आंदोलनरत हैं. सरदार सरोवर परियोजना के लिए 50 साल से अधिग्रहीत की गई भूमि का 40% हिस्सा बिना किसी इस्तेमाल के परती पड़ा हुआ है. ज़मीन के कुछ टुकड़े को सरकार ने कंपनियों और उद्योगों को किराए पर दे रखा है. ज़मीन अधिग्रहण करने के बाद उसके ग़ैर-परियोजनाकारी इस्तेमाल का प्रचलन देश में एक मामले तक नहीं सिमटा है. लवासा परियोजना को अभी जहां विकसित किया जा रहा है, उसका कुछ हिस्सा 1975 में बने बारसगांव बांध के नाम पर अधिग्रहित किया गया था और अगले पच्चीस-तीस सालों तक वह पड़ती पड़ा रहा. अब इसे लवासा पर खरचा जा रहा है.
बांध से मार खाई ज़िंदगियों के चलते कई बार लोगों ने आमरण अनशन को विरोध के तरीके के तौर पर चुना है. ’दामोदर घाटी विस्थापित कल्याण संघ’ उसी परंपरा की अगली कड़ी है. नर्मदा घाटी में जब 7 जनवरी 1991 को सात लोगों के बलिदानी जत्था ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का ऐलान किया, तब जाकर सरदार सरोवर परियोजना की स्वतंत्र समीक्षा कराने की स्थिति बन पाई थी. यह निर्णय भूख हड़ताल के 22वें दिन आया. 1993 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने यह घोषणा की थी कि अगर सरकार इस परियोजना का पुनरीक्षण करने को राजी नहीं हुई तो उनके कुछ कार्यकर्ता नर्मदा में जल समाधि ले लेंगे, लेकिन अपनी ताकत के बल पर राज्य ने इसे टाल दिया.
पुनर्वास के अधिकांश मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकारी पहलक़दमी हुई है. कई बार तो बाध्यकारी उपबंधों के तले ऐसे क़दम उठाए गए. ओंकारेश्वर बांध के सिलसिले में विस्थापितों के पक्ष में जब राज्य उच्च न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया तो मध्य प्रदेश सरकार और एनएसडीसी ने उच्चतम न्यायालय में अपील कर दी. सरकारी पक्ष यह था कि राज्य के पास पुनर्वास के लिए मात्र 5000 हेक्टेयर ज़मीन ही है. तब जाकर उच्चतम न्यायालय में तत्कालीन न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन ने सरकार को लगभग फ़टकार लगाते हुए पीड़ितों को सही व्यवस्था देने को कहा था. उन्होंने राज्य को चेताया भी था कि यदि राज्य के पास पर्याप्त ज़मीन नहीं है तो वह ऐसी परियोजनाओं को बिना पूर्वाकलन के शुरू न करे. सरकारी उदासीनता को सामाजिक नज़रिए से व्याख्यायित करने पर तो मामला अधिक स्पष्ट हो जाता है. अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग के अनुसार बांध के चलते विस्थापित होने वाले लोगों में आदिवासियों और दलितों का सम्मिलित आंकड़ा 60% के आस-पास हैं, जबकि भारत की कुल जनसंख्या में मात्र 8% आदिवासी और 15% दलित है. इसलिए पिछली आधी सदी में बांध से विस्थापित हुए चार करोड़ से अधिक लोग राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाए, जबकि दिल्ली की सीलिंग पर हुई राजनीतिक उठापटक के बाद कई इलक़ों में सीलिंग बंद करनी पड़ी और सरकार को निर्णय टालना पड़ा था.
ऐसे आंदोलनों की छवि को जो लोग विकास-विरोधी बताकर पेश करते हैं, उन्हें इस तथ्य पर ग़ौर करना चाहिए कि क्यों हीराकुंड बांध के नाम पर मुआवजे का वितरण सिर्फ़ 3.32 करोड़ रुपए तक ही सीमित रहा, जबकि मुआवजे का वास्तविक अनुमान 12 करोड़ रुपए लगाया गया था जिसे बाद में घटाकर 9.5 करोड़ रू० कर दिया गया. बाद में इस अनुमानित राशि का भी एक तिहाई ही बांटा गया. समय और महंगाई के साथ मुआवजे की राशि बढ़ने के बजाए घट क्यों गई? दामोदर घाटी के लोगों ने लंबा सहा है. इसी परियोजना के दायरे में आने वाले शारीरिक रूप से अक्षम एक व्यक्ति मो. रफ़ीक़ अंसारी ने लंबी लड़ाई के बाद सूचना का अधिकार के जरिए जीत हासिल की. परियोजना में रफ़ीक़ को यह भरोसा दिलाया गया था कि उन्हें 20 एकड़ ज़मीन के बदले तीन लाख रुपए तथा वैकल्पिक रोज़गार दिया जाएगा, लेकिन बाद में निगम मुकड़ गया. आरटीआई में भी उन्हें केंद्रीय सूचना आयोग तक जाना पड़ा तब जाकर उन्हें राहत मिली है. ऐसे में असल सवाल यह है कि क्या हरेक व्यक्ति को रफ़ीक की तरह दशकों तक लड़ना होगा या फिर राज्य और सरकार अपनी जिम्मेदारी त करेगी?
(लेखक: पत्रकार), संपर्क: मो. - +91 9555045077, E-mail - dilipk.media@gmail.com

15 फ़रवरी 2011

महिला आयोग की प्रासंगिकता और राजनीति



अनुज शुक्ला –
सरकारी आयोगों की कार्यप्रणालियां हमेशा शक के दायरे में रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर जितने भी आयोग गठित किए गए हैं, उनकी कार्य प्रविधि सत्ताधारी वर्ग के अनुकूल रही है। वह चाहे मानवाधिकार आयोग हो, एससी-एसटी आयोग या अल्पसंख्यक आयोग। राष्ट्रीय महिला आयोग भी इसका अपवाद नहीं। आधी आबादी के अधिकारों की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया था। बीते वर्षों की काल अवधि गवाह है कि कैसे एक आयोग कस्बाई राजनीति के सर्कस का विदूसक बन चुका है।
आजादी के बाद से स्त्रीवादी कार्यकर्ता, महिलाओं के अधिकारों के सुरक्षा की व्यापक मांग करते आ रहे थे। 1990 के महिला सरंक्षण अधिनियम के तहत 1992 राष्ट्रीय में महिला आयोग की स्थापना की गई। महिला आयोग ने अपनी स्थापना के वक्त जारी घोषणा पत्र में स्त्री की स्वतंत्रता और सुरक्षा का जिक्र किया है। आयोग का मानना था कि अधिकांशतः स्त्री उत्पीड़न ऐसी जगहों पर फलीभूत होता है जहां स्त्रियॉं के सामाजिक - सांस्कृतिक अधिकारों की मनाही की जाती है। लोकतांत्रिक सिविल स्वतंत्रता कहती है कि स्त्री अधिकार मानव की अनिवार्य महत्ता को पहचान देते हैं। जाहिर है आयोग की भूमिका जवाबदेह और पारदर्शी होनी चाहिए। दुर्भाग्य से सिक्के का दूसरा पहलू भी है। पिछले वर्षों में ऐसा कई बार हुआ जब मामलों पर महिला आयोग की भूमिका को देखकर लगा कि अधिनियम में जो बातें कहीं गई हैं उसका अनुशरण खुद आयोग ही नहीं करता। उसकी रिपोर्टे सत्ता – सापेक्ष रही पाई गई।
बहरहाल महिला आयोग की प्रासंगिकता और राजनीति को समझने के लिए दिल्ली और उत्तर प्रदेश से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। खासतौर से उत्तर प्रदेश में घटित महिला उत्पीड़न के मामले यहा की राजनीति के लिए सुरखाब के पर की तरह काम करते आए हैं । 2010 में दिल्ली महिला उत्पीड़न संबंधी 489 मामले दिल्ली पुलिस ने पंजीकृत किया। इसकी संख्या 2009 के 452 के मुक़ाबले ज्यादा थी। जबकि उत्तर प्रदेश में 2009 के साल 429 मामले, जो दिल्ली से कम थे संज्ञान में आए। दूसरी ओर बाल विबाह, भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, बलात्कार और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ होने वाली उत्पीड़न की राज्यवार घटनाओं की राष्ट्रीय दर चौकाने वाली है। राष्ट्रीय अपराध व्यूरो के अनुसार यह उत्तर प्रदेश में 26.3 % है, जो कांग्रेस शासित आंध्र प्रदेश में 30.3% और संप्रग शासित तमिलनाडु में 33.6% से कम है। राजस्थान और हरियाणा की भी महिला उत्पीड़न की दर में बड़ी हिस्सेदारी है। सवाल उठता है कि महिला आयोग की कवायद इन राज्यों में क्यों शून्य है ? क्या सिर्फ इसलिए कि इन राज्यों में कांग्रेस की प्रत्यक्ष या परोक्ष सरकार है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आयोग सरकारी नियंत्रण से मुक्त नहीं है। संप्रग शासित राज्यों में महिलाओं को लेकर किए जाने वाले उत्पीड़न की दर गैर कांग्रेसी राज्यों के मुक़ाबले कम नहीं रही है । अब जबकि बजट सत्र के कारण लखनऊ की राजनीति गर्म है, लगभग एक महीने बाद दिल्ली में गिरिजा व्यास और महिला आयोग को बांदा के शीलू की फिक्र होती है। क्या महिला आयोग की मौजूदा कवायद राजनीति से अभिप्रेरित नहीं ! सवाल उठना लाज़िमी है कि आखिर महिला आयोग की प्रासंगिकता क्या है?
यह देखने में आया है कि एक लंबे समय से, राष्ट्रीय महिला आयोग का राजनीतिक इस्तेमाल होता आया है। राजग के काल में गुजरात मामलों पर महिला आयोग की भूमिका संदिग्ध थी। महिला आयोग पहले यह मानने को तैयार ही नहीं थी की बलवाइयों ने बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया है। सामाजिक संगठनों के दबाव से ही कुछेक मामले पंजीकृत हुए। गुजरात दंगे के दौरान महिलाओं से हुए बलात्कार पर स्वतंत्र जांच कमेटी का नेतृत्व करने वाले कमल मित्र चिनाय की रिपोर्ट और महिला आयोग की रिपोर्ट में जबरदस्त अंतर व्याप्त है। तीस्ता शीतलवाड़ या अन्य गैर सरकारी रिपोर्टे, सरकारी रिपोर्टों से भिन्न पाई गई। बलात्कार के दोषी बड़े कारकुनों को बचाने की आयोग ने भरसक कोशिश की थी। जाहिराशेख जैसे मामलों में आयोग की नौटंकिया अलग से शोध का विषय हैं। इशरतजहा के मामले पर महिला आयोग ने चुप्पी धारण कर ली। कश्मीर में आयोग की क्या भूमिका है यह शायद ही किसी को पता हो। आयोगों की कथा-महत्ता वाले ढेरो उदाहरण मिल जाएंगे। मतलब बिलकुल साफ है कि सत्ताधारी दल अपने फायदे की राजनीति के लिए आयोगों का बेजा इस्तेमाल करता है। शायद इसीलिए ही पार्टियां, आयोग के उच्च पदों पर अपने लोगों को बैठाती हैं।
अगर वाकई महिला आयोग स्त्रियॉं की सिविल अधिकारों को लेकर आग्रही है तो उसे शीलू जैसे मामलों पर राजनीति करने से बाज आना चाहिए। यह बिलकुल सही है कि उत्तर प्रदेश में महिला उत्पीड़न या अन्य आपराधिक मामलों में विधायकों और मंत्रियों के द्वारा या अपराध किया गया या अपराध को सरक्षण दिया गया। दरअसल यह तंत्र के विधिक दिवालिएपन का परिणाम है। न सिर्फ महिला आयोग बल्कि ढेर सारे सरकारी आयोगों को लोगो में ‘काहिरामय’ गुस्सा होने से पहले दोषियों को सजा देने एवं न्याय पर सबके अधिकार की व्यवस्था करनी चाहिए।
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हिंदुस्तान का यातना गृह

आवेश तिवारी
call1-मैं गुमियापल गाँव से बोल रहा हूँ . १७ जनवरी को पुलिस ने हमारे गाँव के एक लड़के छन्नू मिरियामी जो सत्रह साल का था उसे मार दिया. और एक लडकी जिसका नाम हुर्रे मिदियामी है और एक लड़का जिसका नाम हूँगा मुदामी है को पकड़ कर ले गए . ये तीनों पास के गाँव में मुर्गा बाज़ार में नमक मिर्च खरीदने गए थे. इनमे से कोई भी नक्सली नहीं है. दरअसल गाँव वाले पुलिस ज्यादतियों के विरोध में नज़दीकी थाने तक रैली करने वाले थे . पुलिस को लगा की इससे उसकी शर्मिन्दगी होगी. इसलिए गाँव वालों को डराने के लिए ये कांड किया है. पुलिस किसी असली नक्सली को नहीं पकड़ पायी है. हम गाँव वालों को ही ऐसे मार रही है. हम आदिवासी बाज़ार भी नहीं जा सकते. खेतों की रखवाली करने खेतों में नहीं जा सकते. हम जानते हैं सरकार हमारी ज़मीन छीनने के लिए ये सब कर रही है.

call2-मेरा नाम सुखराम है में गुमियापाल गाँव से बोल रहा हूँ . मेरी छोटी बहन बाज़ार से लौट रही थी, उसे पुलिस पकड़ कर ले गयी है , वो मजदूरी और खेती करती थी . उसके साथ एक और लड़के को पकड़ कर ले गए और एक लड़के को गोली से उड़ा दिया.सरकार हमें बिलकुल नहीं चाहती, पुलिस गाँव में आती है और हमारे घरों में घुस कर लूट पाट करती है. अभी कुछ दिन पहले हम लोग अपनी परेशानियों के बारे में रैली करने वाले थे . लेकिन पुलिस ने गाँव में आकर गाँव वालों को बोला की जो भी रैली में जाएगा उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा. आप लोग जो फोन सुन रहे हैं मेरी बहन को पुलिस से छुडा दो.
call3- हाँ ,मैं एसएसपी दंतेवाडा बोल रहा हूँ ,मुझे इस घटना की कोई जानकारी नहीं है ,आप एस एच ओ किरणदुल से बात करें
call 4 -हाँ ,मैं एसएचओ किरणदल बोल रहा हूँ जी जी हमने इनकाउन्टर में मारा है ,नक्सली था ये सब २६ जनवरी को काला झन्डा दिखाने वाले ठे ,और जगह जगह गड्ढा कर रहे थे ,पुलिस पहुंची तो भागने लगे हम लोगों ने ठोंक दिए ,नहीं तो हम लोगों को ही मार डालते ,क्या कहते हैं हुर्रे मिदीयामी को क्यूँ पकड़ा ,इसलिए पकड़ा क्यूंकि वो वही थी ,उन लोगों के साथ



ये सेलफोन से की गयी बातचीत के ये चार हिस्से ही नहीं हैं ,ये भ्रष्टाचार ,राजनैतिक आतंकवाद और लोकतंत्र का चोला ओढ़े साम्राज्यवादी दांवपेंचों का इस्तेमाल करने में लगी उस व्यवस्था का असली चेहरा है ,जिस पर हम भूल से या जानबूझ कर फक्र करते हैं स्वाधीनता दिवस ,स्वतंत्रता दिवस और .वेलेंटाइन दिवस और दिन देश की सिर्फ एक तिहाई आबादी के लिए हैं बाकी के हिस्से में जो है वो क्रूर ,अमानवीय और अदेखा है गरीबी ,बेचारगी और भूखमरी से जूझ रहा छतीसगढ़ ,इस वक्त हिंदुस्तान के यातना गृह में तब्दील हो गया है
लौटते हैं लगभग एक माह पूर्व ,दंतेवाडा का गुमियापल वो इलाका है जहाँ आदमी का सामना या तो भूख से होता है या पुलिस से ,अपनी छोटी ,छोटी जोत में खेती किसानी करके जीने के कठिन कोशिश कर रहे आदिवसियों के लिए .दिन रोज बरोज जब नहीं तब बमुश्किल हो रहे थे ,जब नहीं तब पुलिस जिसको चाहे उसको नक्सली पकड़ कर जेल में ठूंस दे रही थी,कभी उन्हें खाना खिलाने के जुर्म में तो कभी उन्हें पानी पिलाने के जुर्म में गाँव वाले बताते हैं इस इलाके में आदिवासियों के घरों में बार बार घुसकर न सिर्फ तोड़ फोड़ करने बल्कि महिलाओं के साथ बदसलूकी करने और उनकी खड़ी फसलों को जला देने की वारदात बार बार हुई है बेहद डरे हुए यहाँ के आदिवासी कहते हैं एक तरफ पुलिस दूसरी तरफ नक्सली ,आखिर हम कहाँ जाएँ ,वो बार बार हमसे पूछते हैं कहाँ है नक्सली हम कहा बताएं कहाँ है ?रोज रोज के जुल्मो -सितम से तंग आकर ग्रामीणों ने योजना बनायीं कि वो थाने पर प्रदर्शन करेंगे
फिर १७ जनवरी को जो हुआ वो रूह को थर्रा देने वाला था,दिन -दहाड़े सैकड़ों पुलिसकर्मियों ने गुमियापल में धावा बोल दिया ,पुलिस ने पहले रास्ते में जो भी आदिवासी मिला उसकी जमकर पिटाई की ,और फिर उन्हें उसी बीच बाजार जा रहे कम उम्र के लड़के लड़कियों के एक समूह में से आधा दर्जन लोगों को अपनी गाडी पर बैठा लिया ,गुमियापल के थानाध्यक्ष ने जो गाडी पर आगे बैठे थे ने उनमे से तीन को नीचे उतार दिया ,और बाकी तीन को साथ ले गए जिनमे छन्नू मिरियामी,हूँगा मुदामी और एक १५ साल की लड़की हुर्रे मिदियामी भी थी,जिनमे से छन्नू जो कि बार बार पुलिस से गिरफ्तारी का प्रतिरोध कर रहा था ,जंगल में ले जाकर गोली मार दी



जैसी ही इन निर्दोषों की गिरफ्तारी की सूचना गुमियापल पहुंची ,गाँव में दुःख के साथ - दहशत भी फ़ैल गयी अपने घर वालों की लाडली हुर्रे मिदियामी,की गिरफ्तारी ने उसके पूरे परिवार को हिला कर रख दिया है ,घर वाले बताते हैं उसका तो पूरा दिन खाना बनाने और जंगल में लकड़ियाँ बनाने में लग जाता था ,उसे क्यूँ पकड़ लिया ?छन्नू मिरियामी, और हूँगा मुदामी के परिजन किसी से बात करने में भी डरते हैं आप लाख चाह कर भी किसी से बात नहीं कर सकते ,मीडिया हमेशा की तरह सच का आइना बनने के ढोंग करते हुए जेसिका और आरुशी की haty,गुमियापल के दिन और रात दोनों डरावने हो चुके हैं ,डर इंसानों का नहीं सत्ता के दमनचक्र का है जो फिलहाल ख़त्म होता नहीं दिख रहा. सम्पर्क- -आवेश तिवारी, मुख्य सम्पादक, नेटवर्क 6 मोबाइल -9838346828

14 फ़रवरी 2011

शाहिद आज़मी को याद करते हुए

महताब आलम
बीते साल ग्यारह फ़रवरी को रात के क़रीब नौ का वक़्त रहा होगा. दिल्ली की कुख्यात सर्दी से बचने के लिए, मैं बंद दीवारों के रहम पर घर के भीतर ही रहने का इरादा रखता था. लेकिन ऑफिस के बचे  काम को पूरा  करने के लिए ओखला के जामिया नगर इलाके में एक साइबर कैफे में बैठा हुआ था. ओखला, वह इलाक़ा है जहां मैं अपने कस्बे से  चौदह साल की उमर में  देश के अन्य हिस्सों से आए मुस्लिम विधाथियों की तरह, आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए आया और तब से वही रह रहा था. बशारत पीर ने उचित ही लिखा है, "भारत के मुस्लिम दिल्ली नहीं जाते, वे ओखला जाते हैं.'
मोबाइल की घंटी बजी तो मैंने काम छोड़कर फ़ोन उठाया. फ़ोन मुंबई में रहने वाले मेरे एक मित्र का था जिसने ये ख़बर बताने के लिए फ़ोन किया था कि देर शाम शाहिद आज़मी की हत्या उनकी ऑफ़िस में कुछ 'अनजान' बंदूक़धारियों द्वारा गोली मार का कर दी गई है. इस दुखद खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और कुछ पल के लिए मुझे भरोसा ही नहीं हुआ. मैं अविश्वास से अवाक रह गया.

शाहिद आज़मी
शाहिद जब शहीद हुए तब वे महज 32 साल के थे. यूँ तो शाहिद की पारिवारिक जड़े आज़मगढ़ में थीं. लेकिन, वे मुंबई के देवनार इलाक़े में जन्मे और पले-बढ़े. ये इलाका  टाटा इस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (TISS) के लिए जाना जाता है. उनकी हत्या के सिर्फ़ एक हफ़्ते पहले ही मैं आज़मगढ़ गया था. वहां मैंने हर उमर के लोगों को उनके बारे में बहुत ऊंची भावनाओं के साथ बोलते हुए पाया था और महसूस किया कि लोग उन्हें काफ़ी सम्मान के साथ देखते हैं. शाहिद को 1994 में भारत के चोटी के नेताओं की हत्या की 'साज़िश' के आरोप में पुलिस ने उन्हें उनके घर से गिरफ़्तार कर लिया था. इसका एक मात्र साक्ष्य उनका क़बूलनामा था जिसे उन्होंने कभी किया ही नहीं था. फिर भी, उन्हें पांच साल की क़ैद हुई. दिल्ली के तिहाड़ जेल में रहते हुए शाहिद ने स्नातक के लिए अपना दाख़िला कराया और अन्य क़ैदियों की क़ानून के अदालत में उनके मामलों के निबटारे के लिए मदद करना शुरू कर दिया. 2001 में जब वे रिहा हुए तो घर आए और पत्रकारिता और क़ानून के स्कूल में साथ साथ दाखिला लिया. तीन साल बाद, उन्होंने वक़ील मजीद मेनन के साथ काम करने के लिए वेतन वाले उप-संपादक पद को छोड़ दिया. यहां उन्होंने बतौर जूनियर दो हज़ार रुपये महीने पर काम शुरू किया. बाद में, उन्होंने अपनी ख़ुद की प्रैक्टिस शुरू कर दी जिसने एक निर्णायक फ़र्क़ पैदा किया. बतौर वक़ील महज सात साल के अल्प समय में उन्हें न्याय की अपनी प्रतिबद्धता के लिए शोहरत और बदनामी दोनों मिली. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि, वे एक ऐसे इंसान थे जो इस व्यवस्था द्वारा उत्पादित किए गए, इस्तेमाल किए गए और बाद में 'ठिकाने' लगा दिए गए.
मैंने शाहिद के बार में पहली बार 2008 के आख़िर में एडवोकेट प्रशांत भूषण के निवास पर हुई एक बैठक में सुना था, जहां हमें बताया गया था कि महाराष्ट्र में आतंक से संबंधित मामलों के आरोपियों की सूची के लिए वे उपयुक्त व्यक्ति होंगे क्योंकि वे उनमें से कई मामलों में वक़ील थे. बाद में, जामिया टीचर्स सोलिडैरिटी असोसिएशन द्वारा आयोजित एक स्मृति सभा में एडवोकेट प्रशांत भूषण ने, शाहिद के साथ अपने जुड़ाव और कुछ मुलाक़ातों को याद करते हुए कहा था, "शाहिद, न्याय के लिए एक असाधारण प्रतिबद्धता वाले बेहतरीन वक़ील थे."
जनवरी 2009 के शुरुआती दिनों में, शाहिद और मैं असोसिएशन फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स (APCR) के महाराष्ट्र ईकाई की ओर से क़ानूनी मामलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं की जानकारियों के लिए आयोजित कार्यशाला में बतौर रिसोर्स पर्सन मुंबई आमंत्रित किए गये थे. एपीसीआर, एक नागरिक अधिकार समूह है जिसमें मैं झारखंड आने से पहले तक काम कर रहा था. लेकिन एक दिन देर से पहुंचने के कारण मैं उनसे नहीं मिल सका था. मुझे याद है कि कार्यशाला के प्रतिभागी उनके प्रस्तुतिकरण और उनके व्यक्तित्व से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे. मुझे शाहिद की दोस्त और फ़िलहाल, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (TISS) से जुड़ी मोनिका सकरानी के शब्द याद आते हैं. इकॉनमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक श्रृद्धांजलि लेख में वे लिखती हैं, "वह चीज़ों को व्याख्यायित करने में माहिर था. वह टाटा इंस्टीट्यूट में बतौर अतिथि अध्यापक पढ़ाने भी आता था. उसकी ईमानदारी, विस्तृत ज्ञान, विनम्र व्यवहार, अच्छा लुक,  ख़ुश होने का बच्चों जैसा अंदाज़, कोमल आवाज़ और विनोदी स्वभाव विद्यार्थियों का दिल जीत लेते थे. वे उसे जाने नहीं देना चाहते थे, और हर साल लोगों का ख़याल होता था कि उसकी कक्षाएं अब तक की हुई कक्षाओं में सबसे बेहतर थीं." बाद में, जब मैंने उस कार्यक्रम के वीडियो देखे तो महसूस किया कि मैं उनसे किसी तरह असहमत नहीं हूं.
"कमिटी फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स (CPDR) और इंडियन असोशिएशन ऑफ़ पीपुल्स लॉयर (IAPL), जिसके वह सक्रिय सदस्य थे, दोनों जगह हरेक लोग उसके ज्ञान और अनुभव के लिए उसका सम्मान करते थे जो उसकी नौजवानी की उमर से कहीं ज़्यादा था. और इसीलिए लोग क़ानूनी मामलातों के साथ साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर उसे अपना वक़ील बनाते थे." लेकिन वे हमें याद दिलाती हैं कि, "उसका काम सिर्फ़ इतना ही नहीं था कि वह ऐसे मामलों का बचाव करता था जिनसे उसे बदनामी हासिल होती थी. उसने मिठी नदी के सौंदर्यीकरण परियोजना की वजह से किनारे बसे विस्थापित लोगों और रिक्शे ठेले वालों के मामलों को भी सक्रियता से उठाया था. वह ख़ुद को मामलों के सारांश पढ़ने और उनकी बेहतर रक्षा करने तक सीमित नहीं रखता था बल्कि उन्हें विश्लेषित भी करता था. वह अपनी पीएचडी और आतंक के मामलों का दस्तावेज़ीकरण करना चाहता था. आतंकवाद, प्रति-आतंकवाद और राज्य के काम करने के तौर तरीक़ों के बारे में मुंबई में, वह संभवतः सर्वाधिक जानकार व्यक्ति था. बैठकों में, वह नम्रता, धीरे और मुद्दों पर संक्षेप में बोलता था और अपने मज़बूत और गहन विश्लेषण से हरेक का ध्यान आकर्षित करता था."
मोनिका द्वारा शाहिद को आतंकवाद और प्रति-आतंकवाद के बारे में मुंबई में सर्वाधिक जानकार व्यक्ति का दर्ज़ा दिए जाने की पुष्टि ह्यूमन राइट्स वाच (HRW) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट "राष्ट्र-विरोधी" भारत में आतंकवाद के संदिग्धों की गिरफ़्तारी और यातना, से भी होती है. शाहिद मुंबई के एक मात्र ऐसे वक़ील हैं जिनका इस रिपोर्ट में आभार माना गया है और जिन्हें कई जगह पर उदृधत किया गया है. लेट्टा टेलर, HRW में आतंकवाद और प्रति-आतंकवाद कार्यक्रम की  शोधार्थी और रिपोर्ट की लेखिकाओं-लेखकों में से एक, ने मुझे बताया कि शाहिद से वे जून 2009 में मिली थीं और उन्होंने अपने मुसलमान क्लाइंट्स को दी जाने वाली कथित यातनाओं को बक़ायदे व्याख्यायित किया जो 2008 में दिल्ली, अहमदाबाद और जयपुर में हुए भयानक बम विस्फ़ोट के सिलसिले में आरोपी थे. "जैसा कि मैं उनके शब्दों को सुन रही थी, पर कोई मदद नहीं कर सकती थी लेकिन उनके भविष्य के लिए डर रही थी. वे जो उजाला फैला रहे थे वह असंभव तौर पर उज्जवल दिखता था." वे यादों में  चली जाती हैं,  "जेल में पांच से ज़्यादा साल तक रहने के दौरान, आज़मी ने हमें बताया था कि, उन्होंने तय किया कि अन्याय से लड़ने का सर्वाधिक कारगर रास्ता कानून के शासन के जरिये है." आगे वे जोड़ती हैं, "लेकिन उन्होंने न्याय की जिस खोज को प्रेरित किया वह बुझाई नहीं जा सकती है."
यह सच है कि शाहिद हमारे बीच नहीं है, और उनकी बे-वक़्त और हिंसक मौत ने इंसाफ़ में दिलचस्पी रखने हम सभी लोगों के लिए, हमारे सामने की बड़ी संभावनाओं का गला घोंट दिया है. लेकिन असलियत यह है कि उनकी शहादत के पिछले बारह महीनों में मेरे एक दिन भी ऐसे नहीं हैं जो उनके बारे में सोचे बग़ैर गुज़रे हों. बीते साल के दौरान, जब भी मैं अदालतों में गया या लोगों को वक़ीलों का पहनावा पहने देखा तो मुझे शाहिद की याद आई और मेरी उनके नक़्शेक़दम पर चलने की इच्छा मज़बूत होती जाती है.

अगर कभी पल भर के लिए वे मेरे ज़ेहन से चले भी जाते हैं तो मेरे वरिष्ठ दोस्त अजीत साही, जिन्होंने शाहिद के साथ काम किया है, के शब्द मुझे याद दिलाते हैं कि, "शाहिद मरे नहीं हैं और कभी नहीं मरेंगे." 
शहीद हेम चन्द्र पांडेय ने सही कहा था,         
"इंसाफ की लड़ाई में, मौत कोई शिकस्त नहीं होती,
शहीदों को कही अलविदा, कभी पस्त नही होती।
जिन्दगी के लिए दाँव चढ़ी जिन्दगी, कभी खत्म नहीं होती।"
(लेखक मानवाधिकार मुद्दों पर काम करते हैं )
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