25 नवंबर 2009

लोकतंत्र का नेतृत्व करेगी सेना

अनिल चमड़िया
भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह के राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहे हैं उसने एक बहस लोगों के बीच खड़ी कर दी है। संसद के लिए चुनाव तो होंगे लेकिन उसका नेतृत्व सेना के हाथों में होगा? श्रीलंका में लिट्टे का सफाया करने वाली सेना के प्रमुख सारथ फोन्सेका ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और वे अप्रैल में राष्ट्रपति के लिए होने वाले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी को सुनिश्चित करने में लगे हैं। महिन्दा राजपाकसा ने ये सोचा था कि लिट्टे पर जीत दर्ज करने का दावा कर वे अगले चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित कर चुके हैं।अब भले ही चुनाव में जिसे कामयाबी मिले लेकिन श्रीलंका में सेना एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो चुकी है। पाकिस्तान में जब चुनाव होते हैं तो सत्ता अप्रत्यक्षत सेना के नियंत्रण में होती है। बांग्ला देश में भी सेना का सत्ता पर नियंत्रण साफ दिखता है।इस तरह की स्थितियों के कारण साफ हैं। लोकतंत्र के बने रहने की अनिवार्य शर्त हैं कि लोगों की सुनी जाए।उनकी भागेदारी और हिस्सेदारी तय की जाए। इसे ही लोकतंत्र का विस्तार कहा जाता है। उल्टी स्थिति तब पैदा होती है जब समाज का कोई वर्ग लोकतंत्र पर अपने कब्जे का दावा पेश करने लगता हैं। तब वह वर्ग अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई में जोर जबरदस्ती और अपनी सेना के इस्तेमाल पर जोर देने लगता है।जबकि लोकतंत्र का यह स्वभाव है कि उसे लोगों के बीच उसके निरंतर विस्तार की स्थितियां मौजूद हो। इसी पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। लेकिन पहले एक बात यहां साफ कर लेनी चाहिए कि न तो लोकतंत्र की जमीन अचानक तैयार होती है और ना ही सैन्य शासन के अनुकूल स्थितियां खड़ी हो जाती है। उनका क्रमश विकास होता है। हम इस बात को याद कर सकते हैं कि आजादी के संघर्षों की परंपरा के नेता ये दावा करते रहे हैं कि भारत इतना विशाल देश है वहां कभी भी सैन्य शासन नहीं हो सकता है। लेकिन इस तरह के भाववादी दावे के बजाय हमें ठोस तर्कों के आधार पर इसकी पड़ताल करनी चाहिए। भारत में आज ऐसे कितने राज्यों के संख्या हो गई है जहां के संवैधानिक प्रमुख यानी राज्यपाल पुलिस या सेना की पृष्ठभूमि के हैं ?इसके जवाब के लिए राज्य सभा में एक प्रश्न महीनों से इंतजार कर रहा हैं। लेकिन जो दिखाई दे रहा है उसमें एक बात बहुत साफ हैं कि ऐसे राज्यों की संख्या आज भी अच्छी खासी है और पिछले कुछ वर्षों में इस संख्या के विकासक्रम को देखें तो ये कहा जा सकता है कि इस तरह के राज्यों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। जिस भी इलाके में कथित अशांति का दावा किया जाता है वहां शांति तो वापस नहीं आई लेकिन वहां संवैधानिक प्रमुख के रूप में सैन्य पृष्ठभूमि स्थायी रूप से काबिज हो गई। इसके कारण साफ है। सैन्य अपने आप में एक विचारधारा है और दूसरी किसी भी विचारधारा की तरह यह भी अपनी सत्ता को बनाए रखने की योजना बनाए रखती है।अशांति के बने रहने से ही वह अपने बने रहने के तर्क दे सकती है।अब इसके साथ ये भी देखा जा सकता है कि भारत जैसे देश में लगातार कथित अशांति के इलाकों का विस्तार हो रहा है और जहां जहां सत्ता ऐसे इलाकों को चिन्हित करती है उसे सैनिकों के हवाले करने की योजना में लग जाती है।देश के कई ऐसे इलाकों में सैन्य अड्डे स्थापित किए भी जा चुके हैं।सत्ता का सांस्कृतिक आधार लोक के बजाय सैन्य हो चुका है। दूसरी तरफ लोकतंत्र की स्थिति के लिए ये भी देखा जा सकता है कि चुनाव को ही लोकतंत्र मान लिया गया है और चुनाव में लोगों की हिस्सेदारी लगातार कम होती जा रही है।महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के दौरान गढ़चिरोली में सैन्यकर्मियों द्वारा लोगों को मतदान के लिए मतदान केन्द्रों तक ले जाने की तस्वीर काफी चर्चित हुई थी। जाहिर सी बात है कि जब लोक राजनीति की जगह नहीं बनेगी तो लोक सत्ता नहीं बनी रह सकती है। ऐसी स्थितियों में भारत के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि जो स्थितियां श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्ला देश जैसे छोटे देश में जितनी जल्दी विकसित हुई है उसकी तुलना में बड़ा देश होने के कारण यहां वैसी स्थिति के स्थापित होने में कुछ देर से हो सकती है। लेकिन अभी ये दावा किया जा सकता है कि आम जनजीवन में सैन्य हस्तेक्षप का तेजी से विस्तार हो चुका है।इसके कई उदाहरण देखे जा सकते है लेकिन यहां एक ही उदाहरण काफी है। आज जब भी लोकतांत्रिक चेतना की बची खुची ताकत के बूते पर कोई लोकतंत्र विरोधी कार्रवाईयों के लिए आवाज उठाता है तो उसे हिसंक कार्रवाईयों के समर्थक के रूप में पेश किया जाता है। जिस देश के बौद्धिक समाज को लोकतंत्र के लिए खतरा बने सवालों को उठाने पर ये कह दिया जाता है कि ये आतंकवाद की हिंसा का समर्थन है तो सत्ता कितनी सैन्य संस्कृति में डूब चुकी है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अमेरिका ने जब इराक पर हमला किया तो बुश ने यही तो कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवाद के साथ हैं। दरअसल पूरी दुनिया में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बन रही है उसमें लोकतंत्र के सवाल भी भूमंडलीकृत हुए हैं।लोकतंत्र का संकट किसी देश का अकेले संकट के रूप में नहीं रह गया है। किसी ताकतवर वर्ग के वर्चस्व वाले देश की चिंता ये नहीं है कि दुनिया में लोकतंत्र का विस्तार हो। हर ताकतवर देश अपने उपर किसी भी स्तर पर निर्भर अपेक्षाकृत कमजोर देश में वैसी ही सत्ता चाहता है जिससे कि उसके हित पूरे हो सके।ऐसी स्थितियों में वैसे देशों के लिए सैन्य रणनीतियों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं रह जाता है।इसीलिए अपेक्षाकृत कमजोर देशों में लगातार सैन्य सत्ता की स्थितियां बनती जा रही है। इस परिपेक्ष्य में एक अलग उदाहरण हमारे सामने आता है तो वह नेपाल का है। नेपाल में जिन माओवादियों को हिंसक आंदोलन का समर्थक कहा जाता था वे ही लोकतंत्र के लिए वहां संघर्ष कर रहे हैं। वहां वे एक ऐसी सेना के गठन की मांग पर अड़े हुए हैं जिससे देश में लोक-तंत्र स्थायीत्व ग्रहण कर सके। ऐसी सेना का निर्माण सर्वथा लोकतंत्र के हित में नहीं है जिसका कि लोकतंत्र की आवाज को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाए। जहां तक हिंसा की बात है उसमें तो सत्ता व उसकी कार्रवाईयों का विरोध करने वाली शक्तियां दोनों ही करती है। हिंसा की परिस्थितियों और उन परिस्थितियों में की गई हिंसा का आखिरकार क्या उद्देश्य उभरकर सामने आता है, ये सवाल आज सबसे ज्यादा मौजूं है। लिट्टे ने हिंसा की तो श्रीलंका की सेना ने भी हिंसा की। लेकिन श्रीलंका की सेना की कार्रवाईयों के बाद से सत्ता लोगों के हाथों से निकलकर कहॉ जा रही है?आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें और सत्ता की संगठित हिंसा दो अलग अलग तरह की सत्ता का स्वरूप निर्धारित करती है। सत्ता की हिंसा और आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें दो अलग तरह की बहसों की मांग करती है।सत्ता हमेशा चाहती है कि हिंसा की बहस का दृष्टिकोण वह विकसित करें।चूंकि वह संगठित होती है इसीलिए उसका दृष्टिकोण बहस के केन्द्र में रहता है जबकि लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि आंदोलन की हिंसक वारदातों पर अपने दृष्टिकोण से बहस खड़ी की जाए।

24 नवंबर 2009

उच्च शिक्षा में शोध की राजनीति

-विवेक जायसवाल (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के
मीडिया विभाग में शोधार्थी व स्वतन्त्र लेखन संपर्क- v.mgahv@gmail.com 09975771385
)



विद्वानों का मानना है कि शोध ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है. आज भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में हो रहे शोधों की स्थिति को देखें तो वे ज्ञान निर्माण को आगे तो नहीं पर पीछे जरूर ले जा रहे हैं. सरकार लगातार देश में उच्च शिक्षा के लिए बेहतर प्रयास करने के रट लगाती रहती हैं पर क्या सरकारी प्रयासों पर ही हमारे ज्ञान निर्माण की नींव टिकी है? उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में सरकारी दावे तो अपनी जगह हैं पर यदि हम ध्यान दें कि इन संस्थानों में जो लोग शोध कराने के लिए बैठाए गये हैं वे क्या भूमिका निभा रहे हैं. ये आखिर ऐसी किस राजनीति में मशगूल हैं जिससे भारतीय ज्ञान परम्परा की गति कछुए जैसी हो गयी है.

आज यदि हम सामाजिक शोध कराने वाली संस्थाओं में हो रहे शोधों की प्रकृति पर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे कि या तो वे पूर्व में हुए किसी शोध की नकल हैं या विदेशों में हुए शोधों के कट-पेस्ट हैं. अधिकत्तर शोधों की यही हालत है. इन शोधों के पीछे केवल इतना ही मामला नहीं है कि ये मौलिक हैं या नहीं. पहला सवाल तो यह है कि शोध के लिए किन लोगों को चुना जाता है. अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थानों में खासकर राज्याधीन विश्वविद्यालयों में शोध करने के लिए बिना किसी प्रवेश प्रक्रिया को अपनाए नामांकन कर लिया जाता है. ये नामांकन किस आधार पर होता है इसका पता किसी को नहीं. इनमें आरक्षण का प्रावधान है कि नहीं इसका भी पता किसी को नहीं है. पता है केवल उनको जिनको शोध करना है और जिनको शोध कराना है. आप किसी भी राज्याधीन विश्वविद्यालय की वेबसाइट को खंगालिए आपको शोध की डिग्री से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं मिलेगी. यदि मिलेगी भी तो केवल इतनी कि पी-एच.डी. के सम्बन्ध में सम्बन्धित विभाग से सम्पर्क करें. अब एक दूर-दराज के गावों में रहने वाला छात्र कहां-कहां के सम्बन्धित विभाग में चक्कर लगाएगा. हां जानकारी तब मिलती है जब आप अखबारों में पढेंगे कि फलां को, फलां विषय में, फलां विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि मिली तभी आप जानेंगे कि अमुक विश्वविद्यालय के अमुक विभाग में पी-एच.डी. की भी डिग्री मिलती है. यह उच्च शिक्षा की एक बड़ी राजनीति और खेमेबन्दी का हिस्सा है. एक तरफ जहां मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान लागू करने के निर्देश दिए हैं वहीं दूसरी तरफ ये शोध संस्थान छात्रों को जानकारी के अभाव में इन वर्गों के छात्रों को शोध करने से वंचित करने के प्रयास में लगे हुए हैं. आरक्षण की इस नियमावली से ऐसे शोध संस्थानों पर कुंडली मारकर बैठे सवर्ण बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है. इस राजनीति का एक हिस्सा यह भी है कि जो छात्र जिस जाति का होगा उसको उसी जाति का ही निर्देशक उपलब्ध होगा. कहने का आशय यह कि विद्वता की सारी पोटली जो उच्च वर्गीय गुरुओं के पास है वह केवल उच्चवर्ग के चेलों के लिए है.

अब यदि हम शोध के विषयों की जांच पड़ताल करें खासकर मानविकी विषयों की, तो सारे के सारे शोध उन्हीं लोगों के कार्यों पर केन्द्रित होंगे जिनकी कृपा से ऐसे सवर्णवादी मानसिकता के नुमाइंदो को उनकी जगह मिली है. हिन्दी जैसे विषय के शोधों की यही हालत है. वे ऐसा कोई नया विषय शोधार्थियों को नहीं बताते जिससे वे ज्ञान को आगे बढ़ाने में सकारात्मक रूप से भागीदार हों. आप फलां लेखक, फलां साहित्यकार, फलां सामाजिक कार्यकर्ता आदि विषयों पर अपना शोध पूरा कीजिए तभी आपके शोध का महत्त्व है अथवा नहीं. यदि आप उनके मन का नहीं करते हैं तो वे आपकी पी-एच.डी जीवन भर नहीं पूरी होने देंगे. यदि आपने उनके घर के काम-काज नहीं किए तो भी आपकी पी-एच.डी. रह गयी अधूरी. भले ही आपका नामांकन हो गया हो और आप कितने ही योग्य क्यों न हों. आपने ये सारे काम नहीं किए तो आपकी सारी की सारी योग्यता धरी की धरी रह जाएगी.

अब सवाल आता है शोध के निष्कर्ष का. शोध का निष्कर्ष वही होना चाहिए जो शोध निर्देशक निकलवाना चाहता है. उसने जिस कथाकार, साहित्यकार, कार्यकर्ता आदि के कार्यों पर शोध करने के लिए आपको कहा है उसका निष्कर्ष उसको महिमामंडित करते हुए दिखना चाहिए भले ही उसका कार्य समाज के लिए प्रासंगिक हो या न हो. उसके द्वारा किए गए कार्यों को आपने अपने निष्कर्ष में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं लिखा तो चली आएगी आपकी थीसिस वापस और आपको उसे फिर से सुधारने के लिए कहा जाएगा और उसमें उन बातों को लिखने के लिए कहा जाएगा जो आपके गले के नीचे नहीं उतरेगी. मरता क्या न करता की हालत में आप अन्तिम चरण में वही करेंगे जो आपके निर्देशक महोदय कहेंगे. ऐसी स्थिति में शोध में मौलिकता और तटस्थता कहां से आएगी आप कल्पना कर सकते हैं.

सरकार दिनोंदिन उच्च शिक्षा और शोध के नए-नए संस्थान तो खोल रही है पर जब तक इसके पीछे होने वाली राजनीति और इस राजनीति को अंजाम देने वाले लोगों पर लगाम नहीं कसी जाएगी तो हम वहीं के वहीं रह जाएंगे जहां हमारी स्थिति सैकड़ों वर्ष पहले थी. शोधार्थियों को भी चाहिए कि वे ऐसी राजनीति के शिकार न हों और उनका डटकर मुकाबला करने का हर सम्भव प्रयास करें तभी उनका शोध समाज के लिए प्रासंगिक होगा और एक बेहतर भविष्य की कल्पना साकार हो सकेगी.


20 नवंबर 2009

सीपीआई (माओवादी) पोलित ब्यूरो किशनजी का साक्षात्कार

मल्लोजुला कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी बिना झिझक, गर्व के साथ खुद को देश का दूसरा सर्वाधिक वांछित व्यक्ति बताते हैं। सीपीआई (माओवादी) की पोलित ब्यूरो के इस 53 वर्षीय सदस्य की तुषा मित्तल के साथ फोन पर हुई बातचीत के मुख्य अंश:

सबसे पहले अपनी निजी जिंदगी के बारे में कुछ बताइए. सीपीआई (माओवादी) से जुड़ने का ख्याल कैसे आया?
मैं करीमनगर के पेड्डापल्ली गांव में पैदा हुआ. मेरा जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, पर हमारे परिवार ने कभी जाति को तवज्जो नहीं दी. मेरे पिता आंध्र प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे. मैंने गणित में बीएससी की और उसके बाद 1983 में लॉ की पढ़ाई के लिए हैदराबाद आ गया. यहां मैं तेलंगाना संघर्ष समिति से जुड़ गया. बाद में यहीं रैडिकल स्टूडेंट्स यूनियन की नींव रखी. इसके पहले इमरजेंसी में मैंने भूमिगत रहते हुए इसके खिलाफ अभियान चलाया था. मेरे ऊपर कई चीजों का प्रभाव रहा: लेखक वारवरा राव, देश की राजनीतिक दशा और जिस तरह के प्रगतिशील माहौल में पला-बढ़ा. मेरे पिता एक स्वतंत्रता सेनानी और लोकतंत्र में अगाध श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति थे. जब मैंने सीपीआई (एमएल) की सदस्यता ग्रहण की तो मेरे पिताजी ने यह कहते हुए कांग्रेस की सदस्यता छोड़ दी कि एक छत के नीचे दो तरह की राजनीति नहीं चल सकती. 1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद मैंने एक देशव्यापी आंदोलन की अगुवाई की जिसमें देश भर से करीब 60,000 किसानों ने हिस्सा लिया था.
किसी भी राजनीतिक पार्टी का नेता अपने अध्यक्ष के खिलाफ आवाज उठा सकता है? औपचारिक और वास्तविक लोकतंत्र के बीच गहरी खाई है


गृहमंत्री अब सीपीआई (माओवादी) से कई मुद्दों पर बातचीत के लिए तैयार हो गए हैं. आप उनका प्रस्ताव क्यों ठुकरा रहे हैं? वे आपसे सिर्फ हिंसा न करने के लिए ही तो कह रहे हैं.
अगर सरकार सुरक्षा बलों को वापस बुला लेती है तो हम बात करने के लिए तैयार हैं। हिंसा हमारे एजेंडे में नहीं है. हम सिर्फ जवाबी कार्रवाई कर रहे हैं. पिछले महीने बस्तर में कोबरा फोर्स ने 12 माओवादियों के साथ 18 निर्दोष ग्रामीणों को मार दिया. छत्तीसगढ़ में उन लोगों को गिरफ्तार कर लिया जो विकास कार्यों के जरिए हमारी मदद कर रहे थे. हाल ही में छत्तीसगढ़ के डीजीपी ने सलवा जुडूम के 6000 विशेष पुलिस अधिकारियों को गौरव का प्रतीक बताया. नई भर्तियां चालू हैं. ये लोग सालों से हत्या, बलात्कार और लूटपाट करते आ रहे हैं. हम सरकार के वादे पर भरोसा नहीं कर सकते. वह अपनी नीतियों को कैसे बदलेगी जब उसके हाथ में ही कुछ नहीं है? यह तो विश्व बैंक और अमेरिका के हाथों में है.


हिंसा रोकने के लिए आपकी क्या शर्तें होंगी?
प्रधानमंत्री वनवासियों से माफी मांगें, सुरक्षा बलों को हटाएं, जेल में बंद कैदियों को रिहा किया जाय। सुरक्षा बलों को हटाने के लिए जरूरी समय लीजिए लेकिन यह सुनिश्चित कीजिए कि पुलिस अब कोई हमला नहीं करेगी. अगर सरकार इसपर राजी है तो हम हिंसा रोक देंगे. हम पहले की तरह गांवों में अपना आंदोलन चलाएंगे.


क्या आप भी यह वादा कर सकते हैं कि एक महीने तक कोई हमला नहीं करेंगे?
हम विचार करेंगे। मुझे अपने महासचिव से बात करनी होगी. पर इस बात की क्या गारंटी है कि अगले एक महीने पुलिस भी हमला नहीं करेगी? पहले सरकार को इसकी घोषणा करने और सुरक्षा बलों को हटाने दीजिए, सिर्फ दिखाने से भी काम नहीं चलेगा. आंध्र प्रदेश में क्या हुआ, हमारी केंद्रीय समिति के सदस्य राज्य के मुख्य सचिव से बात करने गए थे. उन्हें गोली मार दी गई.


अगर आप जनहित की बात करते हैं तो हथियार क्यों उठा रखे हैं? आपका लक्ष्य आदिवासी हित है या राजनीतिक ताकत?
राजनीतिक ताकत. आदिवासी हित हमारा लक्ष्य है पर राजनीतिक ताकत के बिना यह संभव नहीं. हथियार के बिना सत्ता नहीं मिलती. आदिवासियों का शोषण इसीलिए हुआ क्योंकि उनके पास राजनीतिक ताकत नहीं थी. अपनी ही संपदा पर उनका अधिकार जाता रहा. पर हथियार हमारी विचारधारा नहीं है. हम उसे दूसरे स्थान पर रखते हैं. इसकी वजह से हम आंध्र प्रदेश में नुकसान भी उठा चुके हैं।


सरकार कह रही है पहले हिंसा रोको. आप कह रहे हैं पहले पुलिस हटाओ. इन सबके बीच पिस रहा है वह वनवासी जिसके हित का आप दावा कर रहे हैं.
हमने वाममोर्चे के घटक दलों- फारवर्ड ब्लॉक, आरएसपी, सीपीआई- के दरवाजे खड़काए हैं. मैं तो बंगाल सरकार के कई मंत्रियों तक के संपर्क में हूं. मैंने मुख्यमंत्री से भी बात की है
तो फिर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थों को बुला लीजिए। हमने कहीं हिंसा नहीं शुरू की. आंध्र प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल या उड़ीसा, हमने कहीं हिंसा शुरू नहीं की. बंगाल में सीपीएम ने सबको गांवों में घुसने से रोक दिया था. जब बंगाल में न्यूनतम मजदूरी 85 रूपए थी तब उन्हें 22 रुपए दिए जा रहे थे. हम सिर्फ 25 रुपए मांग रहे थे. कौरवों ने पांडवों को पांच गांव भी देने से इनकार कर दिया था इसीलिए महाभारत हुआ. हम पांडव हैं और वे कौरव हैं.


आप अहिंसक होने की बात कर रहे हैं और आपके अभियानों में पिछले चार साल के दौरान 900 से ज्यादा पुलिस वाले मारे जा चुके हैं. इनमें से कई गरीब आदीवासी भी हैं. यह कैसा जनहित है?
हमारी लड़ाई व्यवस्था से है। हम पुलिस वालों की हत्याएं कम करना चाहते हैं. पिछले 28 सालों के सीपीएमराज में 51,000 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है. हां पिछले सात महीनों में हमने भी सीपीएम के 52 लोगों को मारा है लेकिन यह सिर्फ बदले की कार्रवाई है.


सीपीआई (माओवादी) को धन कहां से मिलता है? आपपर जबरन वसूली के आरोप भी लगते हैं?
कोई जबरन वसूली नहीं होती। हम बड़े औद्योगिक घरानों और बुर्जुआओं से कर लेते हैं लेकिन यह राजनीतिक पार्टियों द्वारा वसूले जाने वाले चंदे के जैसा ही है. ग्रामीण भी साल में दो दिन की अपनी कमाई स्वेच्छा से हमें दान देते हैं. इस साल गढ़चिरौली में बांस की कटाई के दो दिनों से हमें 25 लाख रुपए मिले. बस्तर में तेंदू पत्तों से 35 लाख. बाकी जगहों पर किसानों ने हमें करीब 1000 कुंतल के करीब धान का दान दिया. एक-एक पैसे का हर छह महीने में ऑडिट होता है.


किसानों ने कभी इनकार किया?
नहीं। वे हमारे साथ हैं. हम ग्रामीणों के विकास के लिए जो करते हैं उसके एवज में एक पैसा भी नहीं लेते.


आपने किस तरह के विकास कार्य किए हैं? इससे आदिवासियों के जीवन में क्या सुधार आया है?
हम उन्हें राज्य और अमीरों का असली चेहरा दिखाते हैं। वे पहले एक रुपए में 1000 तेंदू पत्ते बेचते थे हमने इन्हें कई जगह 50 पैसा प्रति पत्ता करवा दिया है. कागज मिलों में 50 पैसा प्रति बंडल के हिसाब से बांस बिकता था हमने इसे 55 रुपए प्रति बंडल करवाया. सीपीआई (माओवादी) हर दिन देश के 1,200 गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाती है. अकेले बस्तर जिले में इस तरह के करीब 50 मोबाइल स्वास्थ्य दल और 100 के लगभग मोबाइल अस्पताल हैं. हम लोगों को मुफ्त दवाएं मुहैया कराते हैं. सरकार को तो पता भी नहीं कि ये दवाएं उसी की हैं.


अगर नक्सली इलाकों में सरकार अपना दल भेजती है तो आप आने देंगे?
हम इसका स्वागत करेंगे। छात्र और डॉक्टर यहां आ सकते हैं. लालगढ़ के लोग एक दशक से अस्पताल की मांग कर रहे थे, पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया. जब लोगों ने अपने पैसे से अस्पताल बना लिया तो सरकार ने उसे सेना की छावनी बना दिया.


आपकी दीर्घकालिक योजनाएं क्या हैं? तीन मुख्य लक्ष्य बताइए.
राजनीतिक ताकत हासिल करके एक नया लोकतंत्र फिर समाजवाद और साम्यवाद स्थापित करना। दूसरा, अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना ताकि हमें साम्राज्यवादियों से कर्ज लेने की जरूरत न पड़े. हम आज भी दशकों पुराने कर्ज चुका रहे हैं. हमें ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है जो कृषि और उद्योग पर आधारित हो. आदिवासियों का उनकी जमीन पर अधिकार होना चाहिए. हम उद्योगों के विरोधी नहीं हैं, आखिर इसके बिना विकास कैसे होगा? पर हमें सोचना होगा कि भारत के लिए क्या ठीक रहेगा. बड़े-बड़े बांधों और उद्योगों की बजाय हमें छोटे-छोटे उद्योग लगाने होंगे. तीसरा लक्ष्य है देश में मौजूद तमाम बड़े औद्योगिक समूहों- टाटा से लेकर अंबानी तक- की संपत्ति जब्त करके उसे राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करना और उनके मालिकों को जेल में डालना.


लेकिन दुनिया भर में कम्युनिस्ट सरकारों का इतिहास देखें तो वे दमन का ही प्रतीक दिखती हैं. माओवादी राज्य-व्यवस्थाओं में असहमति की कोई जगह नहीं होती. ये जनता के हित में कैसे हैं?
ये कहानियां पूंजीवादियों की फैलाई हैं। गांवो में सैकड़ों लोग मर रहे हैं, लेकिन डॉक्टर शहरों में रहना चाहते हैं, इंजीनियर जापान में काम करना चाहते हैं. वे देश के संसाधनों से वहां तक पहुंचे हैं मगर देश के लिए क्या कर रहे हैं? राज्य आपको डॉक्टर बनने के लिए मजबूर नहीं करता लेकिन अगर आप बनते हैं तो आपको दो साल गांवों में काम करने के लिए मजबूर करने में कोई बुराई नहीं है. कोई राज्य कितना दमनकारी है यह इसपर निर्भर करता है कि सत्ता की कुंजी किसके पास है. हम लोकतांत्रिक संस्कृति चाहते हैं. अगर हम ऐसा नहीं करते तो ग्रामीण एक और क्रांति करके हमें उखाड़ फेंकें. बस्तर जिले में एक वैकल्पिक लोकतांत्रिक सरकार शैशवावस्था में है. चुनावों के जरिए हम स्थानीय सरकार बनाते हैं जिसे रिवॉल्यूशनरी पीपुल्स गवर्नमेंट कहा जाता है. इसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और कानून व्यवस्था से जुड़े पदाधिकारी होते हैं. यह व्यवस्था देश के 40 जिलों में काम कर रही है. यह धारणा बिल्कुल गलत है कि हम लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते. भारत में इस समय सिर्फ औपचारिक लोकतंत्र है. किसी भी राजनीतिक पार्टी का नेता अपने अध्यक्ष के खिलाफ आवाज उठा सकता है? औपचारिक और वास्तविक लोकतंत्र के बीच गहरी खाई है.


अगर आप लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं तो फिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का बहिष्कार क्यों करते हैं? नेपाल में तो माओवादियों ने चुनाव लड़ा
नया लोकतंत्र स्थापित करने के लिए पुराने को खत्म करना जरूरी है। नेपाल में माओवादियों ने राजनीतिक पार्टियों से समझौता कर लिया. आप किस लोकतंत्र की बात कर रही हैं. 180 सांसदों पर आपराधिक आरोप हैं, 310 सांसद करोड़पति हैं. आपको पता है अमेरिकी सेना ने उत्तर प्रदेश में एक छावनी में अभ्यास शुरू कर दिया है? वे खुलेआम कहते हैं हम जहां चाहे भारतीय सेना को ले जा सकते हैं. उन्हें ऐसा करने की छूट कौन दे रहा है? मैं तो नहीं दे रहा. मैं सच्चा देशभक्त हूं.


आप भारत को कैसा देखना चाहते हैं? कोई एक देश बताइए.
हमारा पहला रोल मॉडल था पेरिस। उसका विघटन हो गया. रूस भी ध्वस्त हो गया. इसके बाद चीन का उदय हुआ, लेकिन माओ के बाद वह भी भटक गया है. फिलहाल पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां असली ताकत जनता के पास हो. हर जगह मजदूर अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. फिलहाल तो कोई भी रोलमॉडल नहीं है.


जब साम्यवाद दुनिया-भर में कहीं नहीं चला तो फिर भारत में यह कैसे सफल होगा?
चीन भी यह मानता है कि माओ के सिद्धांत में त्रुटियां थीं। नेपाल में माओवादी विदेशी निवेश स्वीकार कर रहे हैं. नेपाली माओवादी गलत रास्ते पर जा रहे हैं, वे एक और बुद्धदेब बाबू बनने की राह पर हैं. जहां भी साम्यवाद ने पैर जमाया है पूंजीवाद ने उसे उखाड़ने की कोशिश की है. लेनिन, माओ, प्रचंड सबकी कुछ कमजोरियां हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लेनिन और स्तालिन ने आंतरिक लोकतंत्र को खत्म करके नौकरशाही को बढ़ावा दिया. उन्होंने जनता की हिस्सेदारी को नकारा. हमने उन गलतियों से सीख ली है. लेकिन पूंजीवाद को भी मुंह की खानी पड़ी है. आप कह सकती हैं कि पूंजीवाद सफल रहा है? साम्यवाद ही एकमात्र रास्ता है.


सत्ता में आने के बाद आप भी नेपाली माओवादियों या सीपीएम की तरह असफल साबित हो सकते हैं?
मैं लोगों से अपील करता हूं कि यदि हम बदल जाते हैं तो हमारे खिलाफ भी क्रांति करें। अगर शासक शोषक बन जाए तो जनता का अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए उठ खड़ा होना जरूरी होता है. उन्हें किसी के ऊपर अंध श्रद्धा रखने की जरूरत नहीं है.


क्या आप कभी द्वंद्व से गुजरे हैं? क्या राज्य पर दबाव बनाने के लिए हिंसा ही एकमात्र रास्ता है?
मुझे विश्वास है कि हम सही काम कर रहे हैं. हम एक लड़ाई लड़ रहे हैं. इस दौरान हमसे गलतियां भी हो सकती हैं. लेकिन राज्य के उलट हम इसे स्वीकार करते हैं. फ्रांसिस इंदूवर का सर काटना गलती थी. हम इसके लिए माफी मांगते हैं. लालगढ़ में हम अलग रणनीति पर काम कर रहे हैं. हमने सरकार से पूर्ण विकास की मांग की है और उन्हें 27 नवंबर की समय सीमा दी है. हमने उनसे 300 बोरवेल और 50 अस्थायी अस्पताल की मांग की है. अगर सरकार ने इन्हें पूरा कर दिया तब हम उनसे कुछ और मांग करेंगे. हमने वाममोर्चे के घटक दलों- फारवर्ड ब्लॉक, आरएसपी, सीपीआई- के दरवाजे खड़काए हैं. मैं तो बंगाल सरकार के कई मंत्रियों तक के संपर्क में हूं. मैंने मुख्यमंत्री से भी बात की है.

मुख्यमंत्री कार्यालय ने इसका खंडन किया है.
मैंने मुख्यमंत्री से बात की है मैंने उनसे सरकारी दमन रोकने को कहा। उन्होंने कहा कि उनके ऊपर अपनी पार्टी और गृहमंत्री पी चिदंबरम का दबाव है.


पुलिस आप तक क्यों नहीं पहुंच पा रही है?
मैं देश में दूसरा सर्वाधिक वांछित व्यक्ति हूं। आठ राज्यों में दिन-रात मेरी तलाश हो रही है. आज कल बंगाल के 1600 गांवों में लोग रात को जागकर पहरा देते हैं ताकि पुलिस मुझे पकड़ नहीं सके. जहां मैं इस समय हूं वहां से डेढ़ किलोमीटर दूर पुलिस की छावनी है जहां 500 पुलिस वाले रह रहे हैं. बंगाल के लोग मुझे प्यार करते हैं. मुझे पकड़ने से पहले उन्हें उनको मारना होगा.


गृहसचिव ने आरोप लगाया कि चीन आप लोगों को हथियार पहुंचा रहा है. यह बात सच है?
जीके पिल्लई को हमारे मूल दर्शन की जानकारी ही नहीं है। युद्ध जीतने के लिए अपने शत्रु की पूरी जानकारी होना बहुत जरूरी है. हमारी स्थिति चीन से बिल्कुल भिन्न है. मैंने सोचा था कि चिदंबरम और पिल्लई मुझे कड़ी टक्कर देंगे, मगर यह नहीं पता था कि वे किसी लायक नहीं निकलेंगे. वे हवा में तलवारें भांज रहे हैं. जीत हमारी ही होगी.


लश्कर-ए-तैयबा के बारे में क्या सोचते हैं? आप उनकी लड़ाई का समर्थन करते हैं?

हम उनकी कुछ माँगों का समर्थन करते हैं लेकिन उनके तरीके गलत और जनविरोधी हैं। उन्हें अपनी आतंकी गतिविधियों को रोकना चाहिए क्योंकि इससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। आप सिर्फ जनता का दिल जीतकर ही सफल हो सकते हैं। तहलका से साभार


17 नवंबर 2009

नक्सलवाद के बहाने असहमतियों पर निशाना



देवाशीष प्रसून (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के
मीडिया विभाग में शोधार्थी व स्वतन्त्र लेखन संपर्क- prasoonjee@gmail.com)


नक्सलवाद के नाम पर सरकार तमाम तरह की असहमतियों के स्वर पर निशाना साध रही है। सरकारें कुछ ऐसे चीजों का हौव्वा बना कर रखती हैं जिन्हें वो किसी भी गंभीर असहमति या असहमति से उपजे प्रतिरोध के स्वर के विरोध में खड़ा कर सकें। ऐसा करने के बाद प्रतिरोधी लोगों की सारी लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों को खत्म मान लिया जाता है। फिर सरकारों को मनमाने तरीके से अपने विरोधियों को चुप कराने में आसानी होती है। जैसे, अमरीका के पास आतंकवाद नाम का हौव्वा है, जिसे वह उन देशों के खिलाफ इस्तेमाल करता है, जो अमरीका के वर्चस्व को नहीं स्वीकारते हैं। भारतीय सत्ता तंत्र के पास भी नक्सल नाम का एक ऐसा ही हौव्वा है, जिसे वह तमाम असहमतियों के स्वर के विरोध में इस्तेमाल कर धड़ल्ले से उनका दमन करता फिरता है।

छत्तीसगढ़ के पीयूसीएल, वनवासी चेतना आश्रम, दांतेवाड़ा और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क, दिल्ली के पीयूडीआर, मल्कानगिरी के मन्नाधिकार व जिला आदिवासी एकता संघ और उड़िसा के एक्शन एड के संयुक्त 15 सदस्यीय जाँच दल द्वारा हुए एक अध्ययन के मुताबिक नक्सल विरोधी अभियान ग्रीन हंट के तहत 17 सितंबर को दांतेवाड़ा के गचनपल्ली में 6 लोगों की कोबरा, स्थानीय पुलिस, विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) और सलवा जुडूम के कार्यकर्ता बोड्डू राजा के नेतृत्व में हत्याएँ की गई। दांतेवाड़ा के ही गोमपद और चिंतागुफा में 1 अक्टूबर को फर्जी मुठभेड़ में भी कई हत्याएँ हुई। पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के हवाले से पता चलता है कि 8 नवंबर को रोहतास जिले से पाँच लोगों को पुलिस ने उठाया और इनमें से किसी को भी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने अगले दिन सोनभद्र के चोपन जंगलों में उनमें से एक कमलेश चैधरी को सीपीआई(माओवादी) का एरिया कमांडर बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया। बाकी चार लोग अब तक लापता हैं। ऐसी सैन्य कार्रवाईयों का सिलसिला पूरे देश में लगातार चल रहा है।

बीते दिनों, पुलिस संत्राश बिरोधी जनसाधारणेन समिति(पीसीएपीए) ने पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में जबरन भू-अधिग्रहन के खिलाफ हल्ला बोला था। इस जन आंदोलन को कई जाने-माने बुद्धिजिवियों के साथ-साथ ममता बैनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस और सीपीआई(माओवादी) का भी समर्थन प्राप्त है। इसके नेता छत्रधर महतो को मुख्यमंत्री की हत्या के कोशिश और सीपीआई(माओवादी) से संबंध के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी के विरोध में पीसीएपीए कार्यकर्ताओं ने झाड़ग्राम में भुवनेश्वर-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन को चार घंटे तक घेरे रखा। किसी को हताहत करने के बजाय इस दौरान उन्होंने सरकार से उनके साथी छत्रधर महतो को रिहा करने की माँग रखी। एक ओर जहाँ, देश में रेल का घेराव विरोध प्रदर्शन का आम तरीका रहा है, वहीं सरकार ने इसे माओवादियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में देखा और तीर-धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों से लैस इन आदिवासियों को नक्सली समझा।


पूरी सरकारी मशनरी ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा मान लिया है और ऐसा मानना उनके लिए आप्तवचन है। वर्ष 2005-06 में सरकार ने कई महत्वाकांक्षी विकास परियोजनाओं के मद्देनजर कुछ अहम फैसले लिए। इसी वर्ष नक्सलवाद से निपटने के लिए सुरक्षा संबंधी व्यय स्कीम में केन्द्र सरकार ने नक्सली राजनीति के असर वाले प्रदेशों के लिए प्रतिपूर्ति की दर पचास प्रतिशत से बढ़ाकर शत- प्रतिशत कर दिया गया। इस राशि के अग्रिम भुगतान की व्यवस्था की गई। राज्यों की सरकारों को पुलिस आधुनिकीकरण स्कीम के तहत आधुनिक हथियारों, मोबीलिटी, संचार उपकरण और प्रशिक्षण के आधारभूत ढाँचे के उन्नयन हेतु खर्च राशि के कम से कम तीन-चैथाई प्रतिपूर्ति का इंतजाम किया गया। साथ ही, नौ राज्यों के 76 नक्सल प्रभावित जिलों को प्रति जिला दो करोड़ रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से पुलिसिया ढाँचे को मजबूत करने के लिए मिलनी शुरू हुई। नक्सल प्रभावित राज्यों में, प्रत्यक्ष तौर पर, युवाओं को रोजगार प्रदान करने के लिए इंडिया रिजर्व बटालियनों के गठन का फैसला लिया गया। लेकिन, असलियत यह थी यह राज्यों में पीड़ित जनता के असहमति के स्वर को दबाने के लिए पीड़ित लोगों में ही कुछ को सुरक्षा व्यवस्था में शामिल करना के जुगाड़ था । छत्तीसगढ़ में ’सलवा जुडूम’, झारखंड में ’नागरिक सुरक्षा समिति’, तथा बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में ’संत्रास प्रतिरोध समिति’, ’घोस्कर वाहिनी’ और ’हरमद बलो’ जैसे ग्राम सुरक्षा या नागरिक सुरक्षा समितियों के लिए केन्द्र सरकार की ओर से एकमुश्त अनुदान और विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) के लिए मानदेय का प्रबंध किया गया। फलस्वरूप आमलोगों पर अत्याचार बढ़ा। “फूट डालो, शासन करो” की नीति अपनाते हुए सरकार ने किसानों-आदिवादियों को अपनी जमीन और रोजगार से विस्थापित करने के लिए उनमें से ही कुछ लोगों का इस्तेमाल किया। लोगों के मन आतंक पैदा करने के लिए जनसंहार, आतंक, बलात्कार तथा घरों को जलाने की कई वारदातें हुईं।

किसानों के लिए ज़्ामीन और आदिवासियों के लिए जंगल उनके जीवन और आजीविका का आधार है। सरकार सेज़्ाों, बाँधों और औद्योगिकरण के जरिए जिस विकास का सपना देखती है, उसमें किसानों को ज़्ामीन से और आदिवासियों को जंगल से महरूम होना पड़ता है। किसी की चाहे कोई भी विचारधारा हो, लेकिन जब उससे उसके जीवन का आधार छीना जायेगा तो वह इसका आखिरी दम तक विरोध करेगा। इन विरोधों पर काबू करने के लिए सरकार ने नक्सलवाद का एक ऐसे हथियार के रूप में चिह्नित किया, जिसके नाम पर सारी असहमतियों को निर्ममता से दबाया जा सके। वक्त आने पर हुआ भी ऐसा ही। सिंगूर, नंदीग्राम, कलिंगनगर और लालगढ़ जैसे कई जगह पर देश में सेज के विरोध में लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण तरीकों से संघर्षरत आम भुक्त-भोगी जनता को नक्सली या नक्सल समर्थित बताकर निशाना बनाया गया। संभव है कि बाद में मजबूरन, उनमें से कई लोगों को आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाया हो, लेकिन इसके लिए सरकार ने ही उन्हें उकसाया। हिंसा जायज नहीं है, लेकिन क्या उसे सहना भी वाजिब है? परंतु भारत सरकार ने पूर्णतः अहिंसक असहमतियों पर नक्सलवाद के नाम पर निशाना साधने से भी कोई गुरेज नहीं किया है। छत्तीसगढ़ में कार्यरत गांधीवादी एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम को ही बतौर उदाहरण लें, जो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलवा जुडूम के बाद हुए विस्थापित आदिवासियों के पुनर्वास के सिफारिशों को लागू करवाने के लिए काम करती है। सरकार ने इनके द्वारा लिंगागिरी, बासगुडा और नेंद्रा में आदिवासियों के लिए भेजे जाने वाले चावल को यह आरोप लगाते हुए अपने कब्जे में ले लिया कि यह चावल नक्सलियों के लिए भेजे जा रहे थे। इस संगठन के एक कार्यकर्ता सुखदेव पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। याद ही होगा कि इसी सरकार ने आदिवासियों के स्वास्थ्य और मानवाधिकार के लिए समर्पित चिकित्सक डॉ. बिनायक सेन पर भी नक्सली डाकिया का आरोप मढ़ कर लगभग दो सालों तक उन्हें सलाखों के पीछे रखा था।


आदिवासी देश की ज्यादातर खनिज संपदा के रखवाले रहे हैं। सरकार के नजरों में आज इसकी जरुरत वैश्विक पूँजी को फलने-फूलने के लिए है। ऐसी स्थिति में सरकारों की नजरें आदिवसियों की पारंपरिक संपत्तियों पर गड़ी हुई है। सरकारें औद्योगीकरण के लिए निगमों के साथ गुप्त समझौते कर रही है। आदिवासियों से बेशकीमती जमीन छीन कर निगमों को औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। जल, जंगल और जमीन का अंधाधून लूट जारी है। देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते या मुफ्त में ही बिजली, पानी, खनिज और सुरक्षा मुहैय्या कराने में सरकारें प्रतिबद्ध है। विकास के प्रति सरकार की यह सनक भारतीय लोकतंत्र के धराशाही होने की ओर इशारा करता है। विरोध और असहमतियों की सभी आवाजों को दबाने के लिए नए-नए हथकंडे तैयार किये जा रहे हैं।

13 नवंबर 2009

न्याय के लिए एक पहल : नंदिता हक्सर

शांति के लिए नागरिकों की पहल द्वारा तैयार किए गए प्रस्तावों (मेनस्ट्रीम में प्रकाशित, आक्रमण बंद कर निःशर्त बातचीत की शुरूआत करोशीर्षक से प्रकाशित) को बहुत ध्यान से पढ़ा। नक्सल समस्या से क्रूर सैन्य बल द्वारा निपटने की भारतीय राज्य की योजना से उपजे सवाल के इर्द गिर्द केंद्रित बहस और चर्चा की रोशनी में ये जो छः मांगे उठाई गई हैं, मैं उन पर कुछ सवाल उठाना चाहती हूं।

प्रस्ताव में छः साधारण लेकिन तत्काल मांगेउठाई गई हैं। ये मांगे केंद्र सरकार तथा माओवादी दोनों को संबोधित हैं। ये दोनों पक्षों से आक्रमणकारीतथा शत्रुतापूर्णरवैया छोड़, बातचीत का आह्वान करती हैं। हालांकि, प्रस्ताव में कहा गया है कि इसकी पहल सरकार को करनी चाहिए।

क़रीब से अगर हम इन छः मांगों का परीक्षण करें तो पाएंगे कि ये प्रस्ताव भारतीय राज्य के जाल में उलझ गए हैं जो चाहता है कि सारा ध्यान हिंसा के सवाल पर केंद्रित रहे। यह (भारतीय राज्य) माओवादियों द्वारा उठाए गए वास्तविक सवालों को केंद्रबिंदु नहीं बनाना चाहता। ग़ौरतलब है कि माओवादियों से बहुत गहरे विचारधारात्मक दूरी रखने वाले, अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध, गांधीवादियों सहित, कई लोगों ने यह पक्ष (स्टैंड) लिया है कि माओवादियों द्वारा हिंसा के अनुप्रयोग पर किसी तरह की बातचीत से पहले मूलभूत राजनीतिक मुद्‍दे संबोधित किए जाने चाहिए।

इस बात का वास्तविक ख़तरा मौजूद है कि राज्य न सिर्फ़ माओवादियों को ख़त्म करने की योजना में है बल्कि वह हमारे सैकड़ों हज़ार नागरिकों को विकास में अधिकारपूर्ण भागीदारी से वंचित करने वाली बेहद अन्यायी और असंवैधानिक आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ खड़े हुए सभी प्रतिरोधों को नष्‍ट करने की कोशिश करेगा।

माओवादी चुनौती के प्रति भारतीय राज्य के जवाब के मुद्‍दों के इर्द गिर्द होने वाली ये सारी बहसें (इनमें, इस चर्चा में शामिल पहल की तरह अन्य पहलक़दमियां भी शामिल हैं) एक नपे तुले राजनीतिक दिवालियेपन तथा दर्शन की दरिद्रता को दर्शाती हैं। इनमें राजनीतिक कल्पनाओं का अभाव है।

चलिए, इन छः मांगों में से हरेक का परीक्षण करते हैं और देखते हैं कि शांति के लिए नागरिक पहलक़दमी द्वारा सूत्रबद्ध की गई मांगे वास्तविक राजनीतिक मुद्‍दों पर चर्चा करने के लिए लोकतांत्रिक स्पेस बनाने में मददगार होंगी या अपने प्रभाव में उस स्पेस का दम घोंट देंगी और माओवादियों के ख़िलाफ़ राज्य की कार्रवाइयों को जाने-अनजाने न्यायोचित ठहराएंगी और सभी तरह के प्रतिरोधों, असहमतियों तथा राज्य की आर्थिक नीतियों की आलोचनाओं के दमन की अनुमति देंगी जो राज्य के नीति निर्धारक सिद्धांतों का स्पष्‍ट उल्लंघन होगा। (भारतीय संविधान का भाग चार)

पहली मांग में कहा गया है: युद्ध विराम का इंतजाम करने के क्रम में सरकार उन क्षेत्रों में आक्रमण रोके जहां सीपीआई (माओवादी) तथा अन्य नक्सलवादी पार्टियां सक्रिय हैं।

दूसरी मांग में कहा गया है: सीपीआई (माओवादी) तथा अन्य नक्सलवादी पार्टियां युद्ध विराम के इंतजाम के लिए राज्य-बलों के ख़िलाफ़ अपने दुश्मनाना रवैयों को छोड़ें।

तीसरी मांग है: नागरिकों पर आक्रमण नहीं होना चाहिए तथा उनके जीवन की सुरक्षा सुनिश्‍चित की जाए।

शांति हेतु नागरिक पहलक़दमी इस युद्धमें क्या नागरिकों और युद्धरत लोगों को पृथक करती है? सल्वा जुडुम तथा कोबरा से अपनी रक्षा करने के लिए वे आदिवासी जो अपने पास कुछ हथियार रखते हैं क्या राज्य बलों के समतुल्य गिने जाएंगे और क्या नागरिकों को मिलने वाली सुरक्षा से वंचित हो जाएंगे?

मेरा पहला सवाल है: पहले अपने आक्रमण को किसे रोकना चाहिए और क्यों? माओवादियों से मूलभूत राजनीतिक भिन्नता रखने वाले लोगों तक ने चेताया है कि अगर माओवादी हथियार डालते हैं तो राज्य के लिए यह न सिर्फ़ माओवादी संगठन, बल्कि दसियों हज़ार आदिवासियों – हमारे देश के निर्धनतम नागरिकों को कुचल देने की अनुमति होगी। कई आदिवासियों ने ख़ुद को सशस्त्र इसलिए कर लिया है ताकि वे सुरक्षा बलों द्वारा छेड़े गए क्रूर दमन, जिसमें स्तनों को काट देने, महिलाओं के पैर में गोली मार देने तथा विभिन्न तरह की यातना देने तक शामिल है, से अपनी रक्षा कर सकें।

यह सच है कि माओवादियों द्वारा प्रयुक्‍त क्रूर तरीक़ों ने कई लोगों में अरुचि पैदा की है। एक ख़ुफ़िया अधिकारी का सर कलम करना और इसे दोहराने की धमकी तालिबानी क़िस्म के न्याय की याद दिलाती हैं। लेकिन अनुशासित सशस्त्र प्रतिरोध को हिंसा या क्रूर तौर तरीक़ों से अलगाया जाना चाहिए।

मेरा दूसरा सवाल है: हम हिंसा पर किसके साथ बहस कर रहे हैं?

गृह मंत्री ने कहा है कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार बातचीत को इच्छुक है। ज़ाहिर तौर पर वे आदिवासियों पर जारी संस्थागत हिंसा के बारे में कुछ नहीं बोले जिसका परिणाम भूख से उनकी मौतों, रोकथाम की जा सकने वाली बीमारियों से मौतों तथा उनकी ज़मीन से बेदखली और जीवन यापन के साधनों को छीनने के रूप में होता है।

और शांति के लिए नागरिक पहल के प्रस्ताव, कि नक्सलवादियों को शत्रुतापूर्ण रवैया बंद कर देना चाहिए से क्या आशय है?

शांति के लिए नागरिक पहल का क्या यह चाहता है कि माओवादी हथियार डाल दें और सशस्त्र प्रतिरोध त्याग दें या वे चाहते है कि वे (माओवादी) वैयक्‍तिक राज्य अधिकारियों पर हिंसा का उपयोग न करें?

शांति के लिए नागरिक पहल अगर वास्तव में शांति चाहता है है तो उसे मांग करनी चाहिए कि भारत सरकार को सबसे पहले, माओवादियों तथा सरकार के बीच वार्ता में जाते समय, उन क्षेत्रों में आदिवासियों की बेहद वास्तविक आकांक्षाओं (शिकायतों) को संबोधित करना चाहिए। माओवादियों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्‍दे पहले भी उस क्षेत्र में (तथाकथित लाल गलियारा) कार्यरत संगठनों और दलों द्वारा उठाए गए हैं। सर्वोपरि, ये वे मुद्‍दे हैं जिनके इर्द गिर्द भारत की आज़ादी के बाद से आदिवासी आंदोलन टिके रहे हैं।

इस सवाल में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे व्यापक तौर निम्न बिंदुओं से संबंधित हैं:

1. विकास परियोजनाओं के कारण व्यापक तौर पर आदिवासियों को उनकी ज़मीन से अलग थलग करने तथा बेदख़ली के कारण आदिवासियों की भूख, कुपोषण तथा अकालग्रस्त मौतौं से;

2. पार-राष्‍ट्रीय निगमों (TNCs), से किए गए सैकड़ों समझौतों (MoUs) को गुप्त ढंग से निपटाना, जो उन कंपनियों को उन क्षेत्रों के समृद्ध खनन संसाधनों के, स्थानीय लोगों या संपूर्णता में पूरे राष्‍ट्र के फ़ायदे के बग़ैर भी दोहन की अनुमति देते हैं; यह निगमित राजकाज (कॉर्पोरेट गवर्नेंस) से जुड़ा एक मुद्‍दा है;

3. स्वास्थ्य, पानी, आवास, शिक्षा तथा सर्वोपरि भोजन के मूलभूत अधिकार का हनन;

शांति के लिए नागरिक पहल को हर प्रभावित राज्यों: झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार तथा पश्‍चिम बंगाल के लिए विशिष्‍ट मांगों की एक सूची बनानी चाहिए। और तब मांग करें कि राज्य सरकारें तथा भारत सरकार इनमें से हरेक मुद्‍दों के लिए एक निश्‍चित समय सीमा के भीतर किए जाने वाले उपायों की घोषणा करे। इससे वास्तविक तत्काल ज़रूरी मुद्‍दों की ओर वापस ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा।

शांति के लिए नागरिक पहल का प्रस्ताव मांग करता है कि: जनता के जीवनयापन के मूलभूत अधिकारों तथा प्राकृतिक संसाधनों पर उनके लोकतांत्रिक नियंत्रण को तत्काल सुनिश्‍चित किया जाए। हम इसके लिए काम करेंगे। लेकिन इसमें यह स्पष्‍ट नहीं किया गया है कि ये मांगे क्या हैं और लोग कैसे अपने जीवनयापन के साधनों से व्यवस्थित तौर पर वंचित किए गए हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण, शांति के लिए नागरिक पहल इन मुद्दों पर काम करने का इरादा कैसे रखती है – जो उनके महती हित में होगा जिन्हें उनका प्रस्ताव बांचना है।

नागरिकों को भोजन, दवाइयों तथा आवास के अधिकार से व्यवस्थित इंकार संस्थागत हिंसा है जिसकी राज्य के एक अधिकारी के सर कलम करने से बराबरी नहीं की जा सकती। इन क्षेत्रों (देश के अन्य भागों के बारे में अभी बात नही हो रही है) में संपूर्ण आदिवासी जनसंख्या पर की जा रही हिंसा के अतिरिक्‍त सुरक्षा बल भारी पैमाने पर, वैयक्‍तिक आदिवासी कार्यकर्ताओं तथा किसी अन्य के, जिसे वे माओवादी बताने का निर्णय कर लेते हैं, मानवाधिकारों का हनन किए जा रहे हैं। क़ानून यहां तक कि किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य को भी प्रताड़ित करने की अनुमति नहीं देता।

अगर यह प्रस्ताव वास्तव में जनता की व्यापक आबादी के लिए मतलब रखने लायक बनना चाहता है तो उसे राजनीतिक मुद्‍दों को आवाज़ देनी चाहिए; अन्यथा नागरिक पहलक़दमी की भाषा तथा राज्य की भाषा में फ़र्क़ करने लायक कुछ नहीं रह जाता।

क्या इसका यह मतलब है कि मैं माओवादियों द्वारा हिंसा के इस्तेमाल (जो सशस्त्र संघर्ष की विपरीतार्थी होती है) को नज़रअंदाज़ कर रही हूं। नहीं, किसी तरह नहीं। यह किसी के किसी एक घटना विशेष को नज़रअंदाज़ करने या समर्थन करने का सवाल ही नहीं है। मुख्य राजनीतिक सवाल सशस्त्र प्रतिरोध की क्षमता (प्रभाव) और सशस्त्र प्रतिरोध तथा संघर्ष के लोकतांत्रिक साधनों के बीच रिश्तों से संबंधित है। ’वामपंथी कम्युनिज़्म, एक बचकाना मर्ज’ में लेनिन ने चेताया है कि कम्युनिष्‍ट प्रतिरोध का परिणाम विपक्षी द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध को बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिए।

मानवाधिकार आंदोलनों में जब से मैं काम कर रही हूं तभी से देख रही हूं कैसे माओवादियों ने अपनी कार्यनीतियों से वर्ग शत्रुओं के प्रतिरोध को बढ़ाया है और फिर दावा किया है कि इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक जगह (स्पेस) नहीं है। मानवाधिकार समूहों ने यह उजागर किया कि दमन में राज्य की भूमिका क्या है तथा धनिकों के पक्ष में राज्य कैसे हमेशा खड़ा रहता है लेकिन उनके (माओवादियों के) पास इसकी कोई समझदारी नहीं है कि इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक स्पेस कैसे काम करता है और कैसे इसे विस्तृत किया जाए।

कुछ उदाहरण हैं, कि मध्य अमरीका में कैसे किसी क्रांतिकारी समूह ने सरकारी अधिकारियों का अपहरण कर बदले में झोपड़पट्‍टी में रहने वाले लोगों के लिए भोजन की मांग की। बजाय इसके कि वे क़ैदियों की अदलाबदली का सारा तामझाम वास्तविक मुद्‍दों से ध्यान हटाने में करते तथा अपना क़ीमती समय राष्‍ट्रीय टीवी में जनता की राय जुटाने के बजाय यूं ही बर्बाद करते।

हमें व्यवस्था के अंतर्गत संभव प्रभावी हस्तक्षेप करने तथा लोकतांत्रिक संस्थानों जैसे अदालतों, मीडिया, विधानसभाओं तथा संसद आदि में क्रांतिकारी ढंग से जूझने के लिए कार्यनीतियों को सुगठित करने की ज़रूरत है। यह पूरा क्षेत्र गैर सरकारी संगठनों (NGOs) से पटा हुआ है जिन्होंने लोकतांत्रिक स्पेस को अराजनीतिक बना दिया हैं।

अतः मार्क्सवादियों, कम्युनिस्टों तथा माओवादियों को समर्थन देने वाले अन्य लोगों के बीच बातचीत, चर्चा तथा बहस करने की तत्काल ज़रूरत है। लेकिन यह बहस वह बहस नहीं होगी जिसका नागरिकों तथा राज्य के बीच की बहस के साथ घालमेल किया जा सके।

शांति के लिए नागरिक पहल की चौथी मांग है: सरकार तथा सीपीआई (माओवादी) के बीच निःशर्त बातचीत शुरू हो।’’

मैं किसी तरह आश्‍वस्त नहीं हूं कि निःशर्त शब्द के क्या मायने हैं। इसका आशय बातचीत के लिए गृहमंत्री की पूर्व शर्त, कि पहले माओवादियों द्वारा हिंसा रोकी जानी चाहिए, से लगाया जा सकता है। अतः नागरिकों की पहल द्वारा निःशर्त बातचीत के आह्वान का मतलब होगा कि वे सोचते हैं कि सरकार ऐसी पूर्व शर्त न रखे। शायद इसकी विवेचना करने की ज़रुरत है।

यहां मेरे कुछ सवाल हैं। इस मांग की पूर्वधारणा दिखाती है कि शांति के लिए नागरिक पहल प्रामाणिक (जैनुइन या असली) बातचीत के लिए भारत सरकार या भारतीय राज्य की ईमानदारी पर असंदिग्ध भरोसा रखता है। स्वतंत्र भारत का इतिहास साफ़ साफ़ दिखाता है कि भारतीय राज्य ग़रीबों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उत्तर-पूर्व के मेरे अनुभव दिखाते हैं कि राज्य ने शांति पहलक़दमी का इस्तेमाल अपनी विद्रोह-विरोधी रणनीति के तहत संगठनों को कमज़ोर कर तोड़ने में किया है। शांति प्रक्रियाओं का प्रयोग कभी मूलभूत राजनीतिक मुद्‍दों, जैसे भारतीय संघ की प्रकृति और उत्तर पूर्व के लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को संबोधित करने में भारतीय राज्य की अक्षमता आदि के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए नहीं किया गया।

क्या इसका यह मतलब है कि शांति प्रक्रियाओं से दूर रहना चाहिए? नहीं। फिर भी, हथियार बंद या क्रांतिकारी संगठन जब राजनीतिक वार्ता में जाएं तो उनके पास रणनीति तथा कार्यनीति की स्पष्‍ट समझदारी होनी चाहिए और उसका प्रयोग उन्हें जनता के बीच में जाने, राजनीतिक मुद्‍दों का विश्‍लेषण करने तथा उन मुद्‍दों के लिए जनता को गोलबंद करने में करना चाहिए। यद्यपि, न तो विद्रोहियों ने और न ही नागरिक समाज ने प्रभावी जनमत बनाने, तरफ़दारी करने या अन्य किसी तरह के लोकतांत्रिक साधनों द्वारा राज्य पर दबाव डालने की कोई क्षमता प्रदर्शित की है। भारतीय राज्य अपनी मूलभूत नीतियों में परिवर्तन नहीं करेगा, लेकिन हमें यह ज़रूर जानना चाहिए कि अगर हम एक मज़बूत अभियान चलाने में सक्षम होते हैं तो किस तरह के परिवर्तन किए जा सकते हैं।

मज़बूत अभियान में निश्‍चित तौर पर समय और एक कोष की ज़रूरत होती है। पेशेवराना कार्यकर्ताओं के पास, ढेर सारे पैसे और बहुत कम राजनीतिक समझदारी के साथ थोड़ा सा समय होता है। ये अभियान रद्‍दी भाव में लिखे प्रस्तावों, चमकीले इश्तहारों और गीत और मोमबत्ती के साथ कभी कभार प्रदर्शनों और घर-बैठकों के रूप में पथभ्रष्‍ट होकर सिमट जाते हैं।

यहां राज्य की कलई खोलने वाले तथ्यों और आंकड़ों का कोई दस्तावेजीकरण नहीं होता, सामान्य लोगों तक पहुंचने और राजनीतिक मुद्‍दों के बारे में राजनीतिक चेतना को बढ़ाने तथा हर मुद्‍दे पर राय लेने की कोई कोशिश नहीं होती।

एक और भी मामला है। शांति के लिए नागरिक पहल जनता का एक प्रतिनिधि क्या माओवादी पार्टी मात्र को ही मानती है? माओवादियों तथा सरकार के बीच की वार्ता में माओवादी संगठन की विशिष्‍ट मांगे, जैसे पार्टी से प्रतिबंध उठाना, राजनीतिक बंदियों की रिहाई आदि शामिल होनी चाहिए। लेकिन यहां समय सीमा निर्धारित प्रक्रिया की ज़रूरत है जिससे सरकार उस क्षेत्र में रहने वाली आदिवासी जनता की पीड़ा के उन्मूलन के लिए विशिष्‍ट उपाय करे।

शांति के लिए नागरिक समाज की पहल की पांचवी मांग है: प्रभावित क्षेत्रों में स्वतंत्र नागरिक संगठनों तथा मीडिया की स्वतंत्र आवाजाही सुनिश्‍चित की जाए।’’ इस मांग में कुछ ग़लत नहीं है लेकिन समिति मीडिया की तरफ़दारी क्यों कर रही है जो किसी भी मामले को हिंसा बनाम अ-हिंसा के रूप में विघटित (विकृत) कर देता है। मीडिया ने सांस्थानिक हिंसा, घटिया राजकाज तथा अब क्रूर दमन के शिकार इन भारतीय नागरिकों के लिए कुछ नहीं किया है।

शांति के लिए नागरिक पहल को मीडिया से दमदार आधारों पर जूझना चाहिए। वीर संघवी के संपादकीय का उदाहरण लीजिए जिसका शीर्षक था सामान्य विवेक की ज़रा सुनिये जिसमें उन्होंने उन कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों पर आक्रमण किया जो पुलिसवालों का सर कलम करने वाले हत्यारों का समर्थन करने के एवज में ग़रीबों की परवाहकरने का तर्क देते हैं। उनका तर्क है कि सर्वप्रथम शांति और बाक़ी सब द्वितीयक’’ होना चाहिए। शांति के लिए नागरिक पहल का प्रस्ताव वीर संघवी के संपादकीय जैसा ही ध्वनित होता है जो राज्य और समाज द्वारा की जा रही संस्थागत हिंसा के बारे में एक बार भी मुंह नहीं खोलता।

वास्तव में, मीडिया से यह एक मांग ज़रूर की जानी चाहिए कि वह मूलभूत मुद्‍दों पर रिपोर्ट करे और इन्हें हिंसा बनाम अ-हिंसा की बहस न बनाये। यहां मीडिया पर निगरानी रखने की ज़रूरत है जो मीडिया के झूठों, प्रपंचों और उसकी विकृतियों का भंडाफोड़ करे। संयुक्‍त राज्य अमरीका में ’हमारे समय के झूठ’ (Lies in our Time) नामक एक पत्रिका थी जो न्यूयॉर्क टाइम्स के झूठों का पर्दाफ़ाश करने के लिए समर्पित थी। इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के भंडाफोड़ के लिए हमें इसी तरह की कुछ ज़रूरत है।

शांति के लिए नागरिक पहल के प्रस्तावों का सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि शांति, युद्धविराम और बातचीत पर ध्यान केंद्रित करना कहीं सर्वाधिक ग़रीबी में जीने वाले लाखों लोगों की वास्तविक, तत्काल ज़रुरी राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका न दे। ये उन क्षेत्रों के निवासी हैं जो ऐसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है जो बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को मालामाल करने जा रहे हैं।

भारतीय नागरिकों के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को सौंपे जाने से रोकने तथा हस्तक्षेप करने का यह एक ऐतिहासिक अवसर है। यह ये मांग करने का समय है कि भारतीय राज्य बहुराष्‍ट्रीय निगमों के साथ हस्ताक्षरित समझौते पत्रों (MOUs) को सार्वजनिक करे। यह ये मांग करने का समय है कि सभी भू-हस्तांतरणों और खदान पट्टे या लाइसेंसों को तब तक स्थगित किया जाय जब तक कि इन क्षेत्रों के लिए आर्थिक नीति पर सचेत सार्वजनिक बहस नहीं होती।

हरेक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वे भारतीय नागरिकों को सांस्कृतिक तौर पर उखाड़ फेंकनें तथा उनके सभी तरह के प्रतिरोध को --‍राष्ट्रीय सुरक्षा तथा माओवादियों से निपटने के नाम पर, कुचल कर उनके जीवनयापन के अधिकार को छिन्न भिन्न करने से राज्य को रोकें।

उपरोक्‍त चर्चा के प्रकाश में शांति के लिए नागरिक पहल, अगर यह सार्थक हस्तक्षेप का इरादा रखता है, को निम्न कार्यभार की रूपरेखा बनानी चाहिए:

1. प्रत्येक राज्य में आदिवासियों की ठोस मांगों की सूची तैयार करें तथा ठोस सुझाव दें कि सरकार स्थिति कैसे सुधार सकती है। एक उदाहरण है कि शंकर गुहा नियोगी ने सरकार की लौह अयस्क खदानों के मशीनीकरण की नीति को इस आधार पर चुनौती दी कि एक विस्तृत अध्ययन में उन्होंने दिखाया कि अर्ध मशीनीकृत खदानें आर्थिक तौर पर ज़्यादा सक्षम होंगी।

इस सूची बनाने के क्रम में निश्चित रूप से अन्य कई विशेषज्ञों तथा अनुभवी लोगों को शामिल कर उनसे बातचीत की जाए।

2. जैसे भी संभव हो इन मांगों को व्यापक तौर पर प्रसारित किया जाए। यह वास्तविक राजनीतिक मुद्‍दों पर ध्यान केंद्रित रखने के लिए ज़रूरी होगा तथा राज्य को इस आंदोलन की पूरी प्रक्रिया का अपहरण करने तथा किसी मुद्‍दे को हिंसा और अ-हिंसा के रूप में विघटित करने की छूट नहीं देगा। लोगों को लगातार यह ध्यान दिलाने की ज़रुरत होगी कि जिसे माओवादियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा के रूप में पेश किया जा रहा है, वह वास्तव में भारत के नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध है जो आर्थिक तौर पर निर्धनतम हैं और राजनीतिक तौर पर सर्वाधिक शक्‍तिहीन हैं।

3. अगर वास्तव में कोई वार्ता होती है तो वार्ता प्रक्रिया के लिए पारदर्शी कार्ययोजना होनी चाहिए जिस पर अमल करना ज़रूरी हो। इसका मतलब है कि यह वार्ता माओवादियों के ज़िम्मेदार सदस्यों तथा राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बीच होनी चाहिए। इसके पहले, विद्रोही समूहों तथा भारतीय राज्य के बीच की सारी बातचीत का संचालन प्रथमतः ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा होता रहा है। मानवाधिकार समूहों द्वारा ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिकाओं को अब तक चुनौती देने की शुरूआत नहीं हो पाई है।

वास्तव में, विद्रोही समूहों और राज्य के बीच वार्ता की सारी प्रक्रिया ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिका और लोकतांत्रिक राजनीति पर सवाल उठाती है।

माओवादी भी शायद इस बारे में कम ही समझदारी रखते हैं कि लोकतांत्रिक स्पेस को बढ़ाने के लिए वार्ता का प्रभावी प्रयोग कैसे किया जाए। और यह भी स्पष्‍ट नहीं है कि क्या उन्होंने बातचीत के लिए ठोस प्रस्तावों पर काम किया है और क्या उनके पास वार्ता प्रक्रिया से समय हासिल करने के अलावा भी कोई रणनीति या कार्यनीति है?

4. सावधानीपूर्वक मीडिया का निरीक्षण तथा इसका पर्दाफ़ाश कि कैसे यह आदिवासियों तथा विकास के शिकार लोगों पर अनन्यतम राज्य दमन के लिए सहमति विनिर्माण में लगा हुआ हैं, जो इस आक्रमण के मुख्य लक्ष्य हैं और माओवादी नहीं हैं।

जब से लोगों का ध्यान माओवादियों पर केंद्रित हुआ है, नागरिक समाज को दिगभ्रमित करने, विभेद पैदा करने तथा गंभीर मुद्‍दों और उस क्षेत्र की ठोस स्थितियों से ध्यान भटकाने के लिए ख़ुफ़िया एजेंसियां अपने कामों का विस्तार कर रही हैं।

जनता की निगाहों में उनकी उपलब्धियों को तुच्छ साबित करने तथा एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है जहां राज्य द्वारा ख़ुद अपने नागरिकों पर हिंसा को न्यायोचित ठहराया जाए। माओवादियों तथा उनके समर्थक अपने संकुचित और संकीर्णतावादी नज़रिए तथा राजनीतिक लोकतंत्र के उसूलों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी के कारण इन प्रवृतियों का बहुत कम जवाब दे पाए हैं। जनवादी उसूलों और लोकतांत्रिक राजनीति के बारे में माओवादियों से तत्काल बहस करने की ज़रुरत है। हाल ही में उनकी घोषणा कि अब से वे अपने क़ैदियों से युद्धबंदी की तरह व्यवहार करेंगे और एक पुलिसवाले को रिहा करने का निर्णय इसका परिचायक है कि उन्होंने लोगों की प्रतिक्रिया से कुछ सीखा है कि उनकी क्रूर कार्यनीतियां लोगों को शिक्षित करने के बजाय स्तब्ध कर देती हैं।

अंत में, इस पहल का नाम दुर्भाग्यजनक है। इससे ऐसा लगता है कि यह सुझाती है कि अगर माओवादियों और भारत सरकार के बीच वार्ता शुरू हो जाती है तो हमें शांति हासिल हो जाएगी। यह विदेशी पैसों से चलने वाले ग़ैर सरकारी संगठनों (NGOs) के अ-हिंसक संघर्ष निपटारे का हो-हल्ला है जो सभी मामलों के अ-राजनीतिकरण के लिए ज़िम्मेदार हैं। क्या इसका नाम ’न्याय के लिए नागरिक पहल’ नहीं होना चाहिए?

लेखिका मानवाधिकार मामलों की वकील हैं।

मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद- अनिल

09 नवंबर 2009

नागरिक समाज के लिए लालगढ़ आंदोलन से जुड़ी एक ज़रुरी बहस

लालगढ़ में जारी आंदोलन ने कई चीज़ों को जन्म दिया है। इसने जनआंदोलन को एक ऐसे ऊंचे स्तर पर पहुंचाया है जहां विभिन्न रूपों में राज्य के दमन के ख़िलाफ़ चल रहा आंदोलन आदिवासी भाषा तथा लिपि के विकास, जनोन्मुखी विकास के एक नए मॉडल तथा ’औद्योगीकरण’ के नाम पर जारी स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट और उन्हें देशी-विदेशी बड़े पूंजीपतियों के हाथों सौंपे जाने के ख़िलाफ़, निर्णायक लड़ाई से जुड़ गया। यह ऐतिहासिक आंदोलन अपनी प्रकृति में कई तरह के विवादों को भी ग्रहण किए हुए है; इसमें माओवादियों के शामिल होने, पुलिसिया अत्याचार विरोधी जनसाधारण समिति और माओवादियों के बीच के रिश्‍ते तथा इस आंदोलन के विकास के विभिन्न चरणों में शामिल नागरिक समाज तथा जनता के विभिन्न हिस्सों द्वारा महसूस की जा रही समस्याओं की प्रकृति के बारे में काफ़ी विवाद है। इस बारे में कोलकाता से निकलने वाले दैनिक समाचार पत्रों में कई आलेख छपे हैं जो अन्य राज्यों में लोगों को उपलब्ध नहीं हैं। ये बहसें अपने विषयवस्तु में मज़बूत हैं अतः हमने सोचा कि तर्कों और प्रति-तर्कों को जितने लोगों तक संभव हो सके पहुंचाया जाए। लोकतंत्र की कार्यपणाली, ग़लत धारणाओं को ठीक करने तथा किसी दृष्‍टिकोण को निर्मित करने/बदलने/सुधारने/ठोस करने में ये बहसें बहुत अच्छी हैं। हमने तीन आलेखों को चुना है। ये सभी खुले पत्र तथा प्रतिक्रियाओं के रूप में आए हैं। पहला आलेख ’माओवादियों के नाम एक खुला ख़त’ शीर्षक से पश्‍चिम बंगाल के जाने माने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुजातो भद्र का है। दूसरा और तीसरा उसके जवाब में हैं। दूसरा ’जंगल महल से जवाब’ शीर्षक से माओवादियों के सर्वाधिक चर्चित नेता किशनजी का है और तीसरा लेख ’हिंसा तथा अहिंसा’ शीर्षक से जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता में इतिहास के प्रोफ़ेसर तथा मानवाधिकार कार्यकर्ता अमित भट्टाचार्या का है। ये सारे आलेख बंगाली दैनिक ’दैनिक स्टेट्समैन’ में प्रकाशित हुए थे। पहला 26 सितंबर को छपा तथा दूसरा और तीसरा 10 अक्टूबर के एक ही संस्करण में प्रकाशित हुए। मूल बंगाली से अनूदित अंग्रेज़ी आलेखों का यह हिंदी अनुवाद है। अंग्रेज़ी के ये आलेख रैडिकलनोट्स नामक पोर्टल से साभार लिए गए हैं।

माओवादियों के नाम एक खुला ख़त
सुजातो भद्र
यह लेखक पश्‍चिम बंगाल में कुछ दशकों से नागरिक अधिकार/मानवाधिकार आंदोलन से जुड़ा भारत का नागरिक है। आप लोगों को मालूम ही होगा कि इस राज्य में आपकी सशस्त्र गतिविधियों तथा उसको आधार बनाकर राज्य द्वारा छेड़े गए भयंकर हिंसक तथा निर्दयी दमन ने एक बहस खड़ी की है।
जैसा कि आप जानते हैं, पिछले नवंबर (2008) में लालगढ़ सहित जंगल महल में जारी पुलिसिया दमन तथा आतंक के ख़िलाफ़ नागरिक समाज मुखर हुआ था। पुलिसिया दमन विरोधी जनसाधारण समिति द्वारा रखे गए मांग पत्र को नागरिक समाज तथा कई संगठनों को पूरा पूरा समर्थन मिला था। जून 18 के बाद जो कुछ घटित हो रहा था उसके बारे में नागरिक समाज सचेत था; संयुक्‍त बलों द्वारा किए जा रहे दमन के बारे में इसने हर समय अपनी आवाज़ उठाई; संयुक्‍त बलों की वापसी की मांग उठाई तथा सरकार से सभी दलों से बातचीत करने की मांग की। हमने (राज्य द्वारा) आपके संगठन पर ’आतंकवादी’ का ठप्पा लगाने का पुरज़ोर विरोध किया। नागरिक समाज का एक असहमत हिस्सा ग़ैर क़ानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (UAPA) को भी हटाने की प्रबलता से मांग कर रहा था। संक्षेप में, नागरिक समाज राज्य-दमन तथा आतंक को एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। हममें से अधिकतर ’विस्फ़ोटक स्थिति’ जैसे नमूने के कोई पक्षधर नहीं है।
हमारे प्रतिरोध का मूल आधार लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्‍ठा, मानवतावाद तथा नैतिकता से उत्पन्न चेतना है। हम मानते हैं कि ऐसे तत्त्व वर्गीय दृष्‍टिकोण से निर्देशित राजनीति के भी अंग तथा मूल्य होने चाहिए। यही वे विचार हैं जिनके कारण मुझे लगता है कि आपकी कुछ गतिविधियों में तार्किक चिंतन की कमी है। कुछ घटनाएं यहां तक कि हमारी चेतना पर भी चोट करती हैं और हमें दर्द पहुंचाती हैं।
आपकी पार्टी पहले भी ऐसे सवालों का सामना करती रही है। आपने आंध्रप्रदेश के ’चिंतित नागरिकों’ (Concerned Citizens) को खुले पत्र द्वारा जवाब दिया था, मैंने कुछ प्रसिद्ध लोगों (जैसे रामचंद्र गुहा तथा अन्य) द्वारा उठाए गए (छत्तीसगढ़ केंद्रित) सवालों पर आपके जवाबों को भी देखा है। उस समय भी आप लोग भूमिगत पार्टी के रूप में काम कर रहे थे। हाल में, घोषित प्रतिबंधों तथा दमनकारी काले क़ानूनों की वजह से स्थितियां निस्संदेह, आप लोगों के लिए और कठिन हो गई हैं।
अब हमारे पास कोई क़ानूनी जगह नहीं है जहां से हम आपके विचारों को जान सकें और उन्हें अपनी तरफ़ से जवाब दे सकें। हम इस तथ्य की सराहना करते हैं कि ऐसे राज्य दमन तथा घुटन भरे वातावरण का सामना करते हुए भी आप लोग खड़े हैं। आपके आक्रोश को समझते हुए भी, आपकी कुछ गतिविधियों पर मुझे संदेह है। मैं उन चीज़ों को, आप लोग जिन कठिन स्थितियों में हैं उसका ख़याल रखते हुए, सामने रख रहा हूं। आप लोगों से विनम्र आग्रह है कि इनका (आलोचनात्मक और मुश्‍किल निरीक्षणों का) जवाब देंगे।
आपके ’माओवादी हिंसा’ नामक एक लीफ़लेट में कहा गया है:
“.... हिंसा का दृष्‍टिकोण वर्गीय होता है, यह कभी तटस्थ नहीं होती.... सिर्फ़ सशस्त्र संघर्ष और जन-युद्ध ही जनता के जनवादी संघर्षों का विकास तथा विस्तार करेगा..... हमारा काम हिंसक नहीं है, हिंसा को ख़त्म करने के लिए यह जनता की हिंसा है जो जन युद्ध का हिस्सा है।“ (दिनांक: 18-07-09)
मैं इस राजनीतिक नज़रिए का पक्षधर नहीं हूं। एक वैकल्पिक राजनीतिक दृष्‍टिकोण के आधार पर मैं इसका विरोध भी नहीं कर रहा हूं। इसके प्रतिकूल, मैं अपने आप को आपकी तार्किक संरचना में रखकर सवाल उठाऊंगा: कोई हिंसा की धारणा पर बातचीत कर सकता है और इसे एक सैद्धांतिक धरातल पर लागू करेगा; क्रियान्वयन के वक़्त इसमें समस्याएं खड़ी हो सकती हैं और इससे निश्‍चित तौर पर एक सामाजिक प्रभाव जन्म लेता है। इसका संबंध लालगढ़ तथा अन्य लोकतांत्रिक आंदोलनों के समर्थकों के बीच उपजी गहन प्रतिक्रियाओं से है।
सिर्फ़ आप लोग ही क्यों, समूचे युग में ऐसे कई दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने स्पष्‍टतः कहा है कि न्याय की स्थापना सिर्फ़ हिंसा के सहारे ही की जा सकती है।(?) उदाहरण के लिए, सार्त्र ने लिखा है, “हिंसा स्वीकार्य है क्योंकि सभी महान बदलाव हिंसा पर आधारित रहे हैं।“ (द आफ़्टरमथ ऑफ़ वार, पृ. 35) वे यह जोड़ना भूल गए कि इतिहास ने ख़ुद साबित किया है कि हिंसक साधनों के द्वारा गढ़ा गया समाज ज़्यादा समय तक नहीं टिक पाया। हिंसा के द्वारा कुछ अच्छा भी हासिल किया जा सकता है इसमें भी भारी संदेह है। यह अवधारणा कि “साध्य साधन को न्यायनिर्णीत साबित करेगा” न्याय तथा नैतिकता की धारणा को ख़ारिज़ करती है; और परिणाम यह होता है कि “साधन साध्य पर भारी पड़ता है।“
आपने बड़ी ही तरल शब्दावली में घोषित किया है कि क्षेत्र (जंगल महल) की जुझारू जनता ने सीपीआई (माओवादी) के नेतृत्त्व में जन अदालत लगाई और उन लंपट तत्त्वों (सीपीएम के हरमद) को वो सज़ा दी जिसके, पुलिस मुखबिर होने के वे नाते पात्र थे। (प्रेस विज्ञप्ति, दिनांक, 16-08-09)
हमारा विरोध यहां इस मृत्यु दंड के सवाल पर है। पूरी दुनिया में भारत समेत कई लोगों तथा नागरिक अधिकार संस्थाओं ने मृत्यु दंड (क़ानूनी हत्या) के अंततः उन्मूलन के लिए एक जनमत तैयार किया। परिणामस्वरूप, दुनिया के अधिकतर देशों (224 देश) ने मृत्यु दंड को ख़त्म कर दिया गया। इसका कारण यह है कि यह प्रचलन बर्बर तथा क्रूर है। सर्वोपरि, यह किसी रोकथाम/निवारक के रूप में भी काम नहीं करता। सर कलम करना एक दोषी को अपने आप को सुधारने का मौक़ा नहीं देता। इतना ही नहीं, निर्णय में किसी चूक की भी संभावना हो सकती है। दंडित करने के बाद अगर यह पाया जाता है कि सज़ायाफ़्ता व्यक्‍ति निर्दोष था तो कोई भी उसका जीवन नहीं लौटा सकता। प्रतिकूलतः, ऐसी हिंसक सज़ाएं समाज को और अमानवीय तथा और हिंसक बनाती हैं। बहुत समय पहले, टॉम पेन ने कहा था, “आदमी अपनी प्रकृति से हिंसक नहीं होते, वे राज्य द्वारा इस्तेमाल किए गए क्रूर तरीक़ों को सिर्फ़ पुनः आजमाते हैं।“ हम राज्य द्वारा इस्तेमाल में किए जाने वाले इन क्रूर तरीक़ों का प्रबल विरोध करते हैं। साथ ही साथ, हम यह भी कहते हैं कि इस असमान तथा वंचित समाज में शोषित लोगों के बीच अगर ’आंख के बदले आंख’ या ’जीवन के बदले जीवन’ जैसी धारणाएं जड़ें जमा लीं तो जनता की ओर से हिंसक मानसिकता का भयंकर विस्फ़ोट होगा; अभी यही हो रहा है। आप लोग सामाजिक रूपांतरण के लिए संघर्ष करने वाले सर्वोच्च तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। नेतृत्त्वकारी दस्ते के रूप में आपकी क्या भूमिका होनी चाहिए? आप हिंसक भावनाओं को बढ़ावा देंगे, या सर्वोच्च लोकतांत्रिक भावनाओं का विस्तार करेंगे और उस रास्ते पर चल रहे अपने से प्रभावित लोगों को दिशा-निर्देश देंगे?
’जन’ अदालत का सांगठनिक ढांचा क्या है? क्या यही कि आरोप लगाने वाले ही न्यायाधीश हैं और कलम करने वाले भी वे ख़ुद ही है? यह याद करना ज़रूरी होगा कि राज्य द्वारा स्थापित किए गए न्यायिक व्यवस्था में कुछ निश्‍चित मान्य चरण होते हैं, न्यायिक प्रक्रियाएं होती हैं, नियमित और अलग से व्यवस्थित न्यायिक संरचना होती है, उच्च न्यायालयों में अपील करने का अधिकार होता है और राष्‍ट्रपति के हाथों क्षमादान का अधिकार होता है। इन सबके बावजूद, हम वैधानिक हत्या की व्यवस्था के उन्मूलन की मांग करते हैं। अतः हम कैसे और किन लोकतांत्रिक, मानवाधिकारों अथवा न्यायसंगत मुक़दमे के मूल्यों के अंतर्गत ऐसी ’जन अदालतों’ के मुक़दमों तथा सज़ा देने के फ़ैसले को स्वीकार कर लें?
जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व में सशस्त्र बल सोचते हैं कि वहां रहने वाले सभी लोग ’संदेहास्पद’ हैं; वे ’सभी पर संदेह करो’ के नारे के साथ बड़ी होर्डिंग्स टांगते हैं। क्या आप भी उसी तरह नहीं कर रहे हैं। आपके निर्णय में प्रत्येक सीपीएम समर्थक या व्यक्‍ति हरमद गैंग का अंग है और छद्‍म रूप में पुलिस बल के लिए काम कर रहा है। जब तक वे जनता के सामने आत्म-समर्पण नहीं कर देते, तब तक उन्हें मौत की सज़ा दी जाएगी। ऐसे तरीक़े आपकी सत्ता के लिए ज़रूरी होंगे, लेकिन ये मूल्यों की भावना से रहित हैं। आप लोगों ने कई ’मुखबिरों’ को मृत्यु दंड दिए हैं; कोई नहीं जानता कि अभी और कितनों का ऐसा ही हश्र होगा जब तक कि बाक़ी लंपट लोग जनता के आगे आत्मसमर्पण नहीं कर देते। यह इसलिए क्योंकि सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि इस बारे में आप क्या सोचते हैं। आपने कहा है : “उन लंपटों को खुला छोड़ देने का मतलब संघर्षशील तथा क्रांतिकारी जनता को संयुक्‍त बलों के हाथों सौंपना होगा।“ (प्रेस विज्ञप्ति, 16-08-09) मनोवैज्ञानिक क्रिस्टोफ़र बोलास ने जो कहा है उसके प्रकाश में देखिए, “जब हत्यारा किसी को मारता है तो प्रत्येक समय यह उसकी ही मौत होती है जिसे वह टालता है।“ इसका मतलब है कि ऐसे आक्रमण भय तथा आशंका के चलते होते हैं। सवाल है कि: अगर उस क्षेत्र में आपका सामाजिक आधार है, तो मुखबिरों को सामाजिक तौर पर अलग-थलग कर देना संभव है। वहीं दूसरी तरफ़, अगर आपके राजनीतिक विरोधी विचारधारात्मक संघर्ष करते हैं, और ऐसे ठप्पा लगाकर उन्हें शारीरिक रूप से ख़त्म कर देते हैं, तो इससे स्पष्‍ट प्रतीत होता है कि आप लोगों की गतिविधियों में कहीं प्रचंड ’अतार्किकता’ का समावेश है। यथार्थ में, लालगढ़ मृत्यु की घाटी हो गया है, और वहां से मौत का संदेश चारो तरफ़ घूम रहा है। क्या जासूसों/गुप्‍तचरों से लड़ने के लिए उनको मारने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है? आप लोगों के नेतृत्त्व में उन मुखबिरों का पर्दाफ़ाश करने के लिए लोग क्या कोई तरीक़ा नहीं अपनाते? मार्क्स ने गुप्‍तचरों का पर्दाफ़ाश करने के लिए दास कैपिटल को लिखना छोड़, हेर वोग्ट नामक एक पूरी किताब ही लिख डाली थी। और माओ तो इनमें से कुछ ही को ख़त्म करने के पक्ष में थे।
ऐसे मामलों में, प्रचार और पर्दाफ़ाश करने की कोशिश जहां एक तरफ़, कोई नकारात्मक सामाजिक प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न करेगी, वहीं दूसरी ओर, राज्य आपको ख़त्म करने की न सिर्फ़ किसी ग़ैर-क़ानूनी कोशिश में बल्कि सामाजिक तौर पर भी सक्षम नहीं हो पाएगा। अगर यह नहीं किया जाता है, तो हम एक भयंकर स्थिति का सामना करेंगे: अचलायमान, उसी तरह के मानव जन होंगे। हिंसा, प्रति-हिंसा, दमन तथा प्रति-आक्रमण से ग्रस्त स्थितियों में लोकतांत्रिक लोगों को गोलबंद करना और प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद करना संभव नहीं होगा। हम जो तीसरी शक्‍ति (जो न तो राज्य के साथ हैं और विचारधारात्मक आधारों पर न तो आपके साथ) से ताल्लुक़ रखते हैं अपने आप को असहाय स्थितियों में पाएंगे। एक विकल्प के रूप में, लालगढ़ में निर्मम राज्य दमन के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक आदोलनों को एकताबद्ध कर एक तूफ़ान खड़ा करने में हम सक्षम थे, तभी तो हमने यह पाया कि हम नागरिक समाज के लोग, जो लोकतांत्रिक भावनाओं से ओतप्रोत तथा सिंगूर तथा नंदीग्राम में मिले सबक़ से प्रेरित हैं, शक्‍तिशालियों पर कमज़ोरों की विजय सुनिश्‍चित कर सकेंगे। प्रारंभिक दौर (नवंबर ’08 से जून ’09) में यह विजय निश्‍चित तौर हासिल हुई थी।
आप लोगों ने कुछ प्रसिद्ध लोगों के बारे में अपना निर्णय करते हुए उन्हें मृत्यु दंड देने का फ़ैसला किया है। जैसा कि आपने कहा है, यह जनता की मांग थी। सालबनी विस्फ़ोट में मुख्यमंत्री को जान से मारने की कोशिश की गई। यह सच है कि मुख्यमंत्री जनसंहार का आरोपी है। यह भी सच है कि नंदीग्राम में 14 मार्च के संहार के बाद पोस्टर और तख़्तियों द्वारा “मुख्यमंत्री को फांसी दो” की मांग की गई थी। लेकिन हम सभी महसूस करते हैं कि ऐसा भयंकर ग़ुस्सा तात्कालिक व्यथित भावनाओं की उपज था। लेकिन अगर उसे मारने के लिए इसे जनता की गंभीर और तार्किक मांग के रूप में व्याख्यायित किया जाता है, तो, मैं कहने के लिए बाध्य हूं, कि यह पूरी तरह बचकाना है। किसी पर ’तानाशाह’ का ठप्पा लगाकर उसे मारने की कोशिश करना, बेतुका और अराजक दर्शन का प्रतीक है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि अराजकतावादी दर्शन को नकार कर मार्क्सवाद का दर्शन पूरी दुनिया में स्थापित हुआ है। मार्क्सवाद से लेकर माओवाद तक में दार्शनिक तथा सैद्धांतिक स्तर पर कभी ऐसे व्यक्ति केंद्रित आक्रमणों को स्थापित किया गया हो, मेरी जानकारी में ऐसा नहीं है।
माओ त्से-तुंग के पसंदीदा सैन्य रणनीतिकार कार्ल वॉन क्लॉजेवित्ज़ ने लिखा है, राजनीति की तरह, युद्ध का भी एक विशेष उद्देश्य होता है; लेकिन वहीं युद्ध उस समय राजनीति का निषेध करता है; संबंधित पार्टियां अपने सैन्य बलों को परेड कराने में व्यस्त हो जाती हैं। युद्ध और उन्मूलन विध्वंस को जन्म देते हैं, लेकिन ऐसा विध्वंस न सिर्फ़ दुश्मन का होगा, बल्कि यह आपके पक्ष को भी कुछ नुक़सान पहुंचाएगा। और इस युद्ध का कोई अंत भी नहीं है।
दोस्त और दुश्मन हमेशा एक दूसरे को ’दुष्ट शक्तियां’ ठहराते आए हैं। सवाल है कि; दुष्टों से छुटकारा पाने के लिए हम ख़ुद उसकी ताक़त से प्रभावित हो जाते हैं। हमें एक चेतावनी के महान संदेश को नहीं भूलना चाहिए: “ जो लोग राक्षसों से लड़ते हैं उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रक्रिया में कहीं वे ख़ुद राक्षस न बन जाएं“ (अच्छाई और बुराई से परे)। प्रति-हिंसा, प्रति-आक्रमण – यह सभी मानव जाति की स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं हैं। इनके लिए किसी विशेष दर्शन की आवश्यकता नहीं होती। दर्शन, दूसरी ओर, तार्किक चिंतन के साथ ऐसी प्रतिक्रियाओं को रोक सकता है, नीतियां बनाते समय नैतिकता तथा मानवीय मूल्यों की धारणाओं को अविछिन्न तत्त्व बना सकता है। मुझे लगता है कि इन मामलों पर आप लोगों की गंभीर सीमाएं हैं।
अभी हाल ही में, पुलिस ने आपके दो प्रमुख सदस्यों को गिरफ़्तार किया, लेकिन उन्हें समय से न्यायालय में नहीं पेश किया। अपनी प्रेस विज्ञप्ति में आपने ठीक ही दावा किया था कि पुलिस ने 24 घंटों के भीतर उन्हें न्यायालय में पेश न करने क़ानून का उल्लंघन किया है और नागरिक अधिकार संगठनों से हस्तक्षेप करने की अपील की थी। आपने उन्हें फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिए जाने की उचित आशंका ज़ाहिर की थी। लोगों के प्रतिरोध को देखते हुए पुलिस को उन्हें न्यायालय में पेश करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उसके पहले, आपने बुद्धिजीवियों से अपील की थी कि वे लालगढ़ आकर स्वयं देखें कि संयुक्त बलों ने वहां किस तरह का बर्बर उत्पात मचाया है।
ऐसा करते हुए आपने साबित किया है कि, अगर इस संरचना में भी, ’क़ानून के शासन’ को सही तरीक़ों से लागू किया जाए और अगर इसके समर्थन में लोकतांत्रिक आवाज़ें बुलंद की जाएं तो तो राज्य की कुछ ग़ैर-क़ानूनी, मानवाधिकार विरोधी तथा बुरे उद्देश्यों से संचालित गतिविधियों का प्रतिरोध किया जा सकता है। हमारी ज़िम्मेदारी क्या ऐसे सभी मोर्चों को मज़बूत करने की नहीं है ताकि राज्य द्वारा जनता को नागरिक अधिकारों की रक्षा के वायदे के क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया जा सके। ऐसे दायरे जैसे ही और बढ़ेंगे, वैसे ही फ़र्ज़ी मुठभेड़ों, संघर्षशील जनता की हत्याओं को रोका जा सकेगा और ’अपराध की संस्कृति’ को अलग थलग तथा परास्त किया जा सकेगा।
यह सब करने के बदले, हम किसी को अपहृत करें, उसे दमित करें और उसके बाद उसे मार कर उसकी लाश गलियों में फेंक दे तो हम ख़ुद राज्य की ही तरह शोषक हो जाएंगे। आपको उन बच्चों के सदमों की ज़िम्मेदारी लेनी ही चाहिए जो उन्हें अपनी ही आखों के सामने हत्या होते देखकर लगेगा। हत्याओं का यह तरीक़ा संवेदनशील लोगों को कभी भी स्वीकार्य नहीं होगा। हम कैसे राज्य के विकृत चेहरे के बदले मानवीय मूल्यों पर टिका समाज निर्मित करने में लोगों को ख़्वाब देखने में सक्षम बना पाएंगे? उसी तरह के निंदनीय तौर-तरीक़ों को अपनाकर हम कैसे इन सपनों को साकार कर सकेंगे?
आपने दावा किया है कि जंगल महल ने सभी लोगों के सामने यह सवाल उपस्थित किया है कि: “आप लालगढ़ में संयुक्त बलों के जारी दमन अभियान का समर्थन करेंगे या हरमद वाहिनी सहित संयुक्त सशस्त्र बलों द्वारा छेड़े गए अत्याचारों के ख़िलाफ़ पुलिसिया दमन विरोधी जनसाधारण समिति के नेतृत्त्व में लालगढ़ की जुझारू जनता के साहसी प्रदर्शन तथा प्रतिरोध आंदोलनों का समर्थन करेंगे? (वक्तव्य, दिनांक, 16-08-09) आपने सभी लोगों से लालगढ़ आंदोलन के पक्ष में खड़े होने की अपील की है।
हममें से कई लोग पुलिसिया अत्याचारों के ख़िलाफ़ आंदोलन को समर्थन और लालगढ़ की जनता की मांगों को निःशर्त पूरा करने की मांग करते रहे हैं। सवाल यह नहीं है। हममें से कई लालगढ़ आंदोलन में आपके समर्थन को भी ग़लत नहीं मानते रहे हैं।
आंदोलन के चरित्र में रूपांतरण के साथ ही समस्या खड़ी होने लगी। यह आपके हिंसा के अनुप्रयोग से जुड़ने लगा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि, आप इसे अंतर्विरोधों को देखने के बनाये मार्क्सवादी ’दो-युग्मी’ मॉडल के खांचे का इस्तेमाल कर रहे हैं – या तो कोई इस तरफ़ है या उस तरफ़ यानी दुश्मन की तरफ़; आपमें से कोई इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि कोई तीसरे, चौथे या पांचवी जगह पर भी खड़े होकर आंदोलन के पक्ष में खड़ा हो सकता है। इस ’देखने के इतिहास’ पर विद्वानों ने काफ़ी कुछ लिखा है।
हम लगातार जारी राज्य हिंसा तथा इस राज्य में मुख्य सत्ताधारी दल द्वारा किए जा रहे दमन की निंदा करते हैं। साथ ही, हम यह भी महसूस करते हैं कि आप लोगों की घोषित उपस्थिति ने जनसाधारण समिति के नेतृत्त्व में हुए जनउभार तथा आंदोलन की दिशा को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। वहीं दूसरी तरफ़, आपके नेतृत्त्व में चल रहे सशस्त्र संघर्ष में कुछ ऐसे नकारात्मक तत्त्व हैं जो इससे राज्य हिंसा के विरुद्ध जनसमर्थन हासिल करने के पक्ष में खड़े हैं। आप इसे महसूस करते हैं या नहीं, हम नहीं जानते। इस इक्कीसवी सदी में – मानवाधिकारों की चेतना के युग में, किसी भी प्रतिरोध आंदोलन में, विशेषकर जो सशस्त्र हो, कुछ वैश्विक चुनौतीपूर्ण धारणाएं उभरी हैं, जिसे हम ’न्यूनतम अमूर्तन दृष्टि’ कहते हैं, जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए। सैद्धांतिक तौर पर सूत्रबद्ध करते समय इन्हें ’बुर्जुवाजी’ कहना सिर्फ़ आत्मघाती ही होगा।

जंगल महल से जवाब
किशनजी
बंगाल में मानवाधिकार आंदोलन की शुरुआत 1970 के दशक के प्रारंभ में नक्सलबाड़ी आंदोलन के कमज़ोर पड़ने के बाद हुई। अगला कुछ दशक क्रांतिकारी आंदोलन में रिक्तता का दौर था; मानवाधिकार आंदोलन इस संदर्भ में विकसित हुआ।
मानवाधिकार आंदोलन ने पिछले चार दशकों में, शोषित जनता के पक्ष में खड़े होकर एक स्वर्णिम भूमिका निभाई है। सुजातोबाबू उन्हीं दिनों से संघर्ष की अगली पंक्ति में रहे हैं। उन दशकों में नागरिक अधिकार आंदोलन ने भी कुछ ठोस आकार गृहण किया। यह मॉडल शोषित जनता के पक्ष में खड़े होने का मॉडल था। जब, 1980 के दशक में आंध्रप्रदेश तथा भूतपूर्व बिहार में क्रांतिकारी आंदोलन फिर से उठ खड़ा हुआ, नागरिक अधिकार आंदोलन अपनी सीमाओं में एक संकट से जूझने लगा। यह वह समय था जब जनता ’शोषित जनता’ की छवि से निकलने के लिए उठ खड़ी हुई और उसने ”प्रतिरोधी बहादुर जनता” के रूप में अपनी पहचान क़ायम की। अतः नई स्थितियों में नागरिक अधिकार आंदोलन का पुराना मॉडल उपयुक्त नहीं बैठ पा रहा था। राज्य ने आंदोलन को निर्धारित सीमाओं में बांधने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। इसने मानवाधिकार अंदोलन के भीतर बहसों तथा अंतर्विरोधों को जन्म दिया। रामनाथन आर पुरुषोत्तम उस दौर में आंध्र प्रदेश में मानवाधिकार आंदोलन के बेहतरीन प्रतिनिधि थे।
पश्चिम बंगाल का मानवाधिकार आंदोलन इन संकटों से अभी भी अछूता था। ऐसा इसलिए कि बंगाल का क्रांतिकारी आंदोलन, अभी भी, राजनीतिक परिदृष्य में अपनी प्रासंगिकता हासिल नहीं कर पाया था।
आज लालगढ़-जंगल महल के आंदोलन ने मानवाधिकार आंदोलन के सामने एक सवाल उपस्थित किया है। क्या नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, जो ’शोषित जन’ के पक्ष में अपने आप को खड़ा पाते थे, उसी तरह अपने आप को ’प्रतिरोधी बहादुर जनता’ के पक्ष में खड़ा करने में सफल होंगे? लालगढ़-जंगल महल आंदोलन ने दो प्रमुख सवालों को ज्वलंत बनाया है:
1) अंतिम विश्लेषण में, क्या जनांदोलन को मुख्यधारा के नेताओं\नेत्रियों को अपना शोषण करने देने का मौक़ा देना चाहिए? या जनता को इसे श्रेणीबद्ध करने में सक्षम होना होगा कि वे ख़ुद अपना उत्थान कर सकें?
2) क्या फ़ासीवादी क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ने वाली जनता को इन नेताओं/ नेत्रियों का हाथ थामते हुए संवैधानिक रास्तों से अपनी चमड़ी बचाकर संतुष्ट हो जाना चाहिए? या फ़ासीवादी दुर्गों को बास्तील जैसे ध्वस्त कर जनता को ख़ुद अपनी रक्षा करनी चाहिए?
हिंसा या प्रति-हिंसा? यह भारतीय राजनीति में कभी ’मुद्‍दा’ ही नहीं रहा। जिसे ’लोकतांत्रिक राजनीति’ कहा जाता है – उस मुख्यधारा की संवैधानिक राजनीति में हिंसा का प्रयोग क्रांतिकारी राजनीति में हिंसा के अनुप्रयोग से कहीं ज़्यादा होता है। अतः क़ानून की भाषा में, यह एक ’ग़ैर-मामला’ (नॉन इश्यू) है। यह राज्य के नीति निर्माताओं द्वारा लालगढ़ आंदोलन से पैदा हुए दो प्रमुख मुद्‍दों को दफ़नाने के लिए आगे किया हुआ एक ’ग़ैर-मामला’ (नॉन इश्यू) है।
यहां तक कि बुर्जुवाजी क़ानून में भी आत्म-रक्षा के अधिकार को मान्यता मिली है। आत्म-रक्षा के लिए आक्रमणकारी को मार देने के अधिकार को स्वीकार किया गया है, तथापि राज्य द्वारा इस अधिकार का इस्तेमाल क्रांतिकारी जनता तथा क्रांतिकारियों को मारने के बहाने के रूप में किया जाता है। लेकिन जब शोषित जन प्रतिरोधी बहादुर जनता के रूप में तब्दील होकर इस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं, पूरा संदर्भ बदल जाता है।
फ़ासीवादी शासन से क्या तात्पर्य है? यह रसूख वाले मुट्ठी भर राजनीतिक नेताओं तथा नौकरशाहों का शासन होता है। ज़मीनी स्तर पर, यह राज्य बलों तथा किसी पार्टी के गेस्टापो बलों द्वारा छेड़े गए संयुक्त आतंक के रूप में होता है।
हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि फ़ासीवाद एक अच्छी तरह से संगठित केंद्रीकृत तंत्र होता है। अगर कहीं कोई खामी होती है तो फ़ासीवाद उन कमज़ोरियों के माध्यम से गांवों में हत्याओं, बलात्कार तथा घरों की आगजनी करते हुए घुसता है। जनता के आत्म-रक्षा के अधिकार की मांग है कि कि गांवों में हरमद की परछाई नहीं दिखनी चाहिए, किसी क़िस्म की कमज़ोरियों को पैदा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी जिसके माध्यम से वे किसी भी समय घुस सकें। आज हम छत्तीसगढ़ में ’सल्वा जुडुम’, झारखंड में ’नागरिक सुरक्षा समिति’, तथा बंगाल के जंगल महल क्षेत्र में ’संत्रास प्रतिरोध समिति’, ’घोस्कर वाहिनी’ और हरमद बलों के रूप में जनसंहार, आतंक, बलात्कार तथा घरों को जलाने वाले हिटलर की गेस्टापो शक्तियों को बल-गुच्छों की तरह उगते हुए देख रहे हैं। यह सब रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा हो गया है -- संयुक्त बलों द्वारा जंगल महल पर क़ब्ज़ा करने के लिए 80 से 90 बंकरों की स्थापना, एलएमजी जैसे अत्याधुनिक हथियार तथा केशपुर तथा गोरबेटा की ओर से पुलिस सुरक्षा के साथ हरमद के बड़े शिविर स्थापित किए गए हैं। मीडिया को यह सब भलीभांति मालूम है। वहीं दूसरी ओर, राज्य मुखबिर तथा गुप्त नेटवर्क बनाने के लिए पैसों भरे थैले लेकर एक गांव से दूसरे गांव में घूम रहा है, पुलिस बल भेद किए बिना लोगों को पीट पीट कर दहशत पैदा कर रहे हैं, सभी विद्यालयों को पुलिस कैंप में तब्दील कर दिया गया है और फलस्वरूप युद्ध जैसी स्थितियां उत्पन्न कर दी गईं हैं। ऐसी युद्ध स्थिति में, न्यायिक सिद्धांत के क्या वही डंडे बनें रहेंगे? फ़ासीवादी शासन की स्थितियों तथा सामान्य स्थितियों दोनों में क्या एक ही तरह के डंडे होंगे? गृह युद्ध तथा फ़ासीवाद मानव जीवन में परिवर्तन ला देते हैं। अतः न्यायसंगत सिद्धांतो के डंडे तथा उसकी धारणाओं में भी उसी तरह तात्कालिक तौर पर बदलाव आ जाता है।
मुख़बिरों से छुटकारा पाने के लिए, लोग कई तरह के तरीक़े आजमा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, उनके लालच का दोहन करने के लिए राज्य भी अपनी यथा-शक्ति के हर-संभव सब कुछ करने की कोशिश कर रहा है। अतः मारे गए मुखबिरों की संख्याएं भी बढ़ी हैं। जंगल महल में एक बेहतर व्यवस्था होने के कारण मारे गए मुख़बिरों की संख्या बहुत कम है। दंडकारण्य के विभिन्न हिस्सों में मुख़बिरों को जनता के क़ैद में गिरफ़्तार कर लिया जाता है।
जब तक इस क्षेत्र में संयुक्त बल नही घुसे थे, जासूसों को इतने बड़े पैमाने पर ख़त्म करने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं होती थी। संयुक्त बलों की तैनाती के बाद स्थितियां बदल गईं हैं। जैसे आत्म-रक्षा की धारणा बदल गई है।
हम भी मृत्यु दंड के विरोधी हैं। हालांकि, युद्ध के समय न्यायिक सिद्धांतों की धारणा सामान्य स्थितियों की धारणा से अलग हो जाती है। युद्ध की स्थितियों में, चिंतन, चेतना, पहलक़दमी तथा अविष्कार की आज़ादी का दायरा बहुत सीमित हो जाता है।
सुजातोबाबू ने कहा है: “आप की घोषित तथा सशस्त्र उपस्थिति ने जनसाधारण समिति के नेतृत्त्व में हुए जनउभार की गति तथा आंदोलन के केंद्रीय ध्यान (फ़ोकस) को पृष्ठभूमि में धकेल दिया।”
सुजातो बाबू! जंगल महल में आपके खुले तौर पर जाने के हक़ को राज्य ने सिर्फ़ एक उद्‍देश्य से छीन लिया है। वह भ्रमित करने वाले सूचना अभियानों (डिसइनफ़ॉर्मेशन कैंपेन) में लिप्त रहने का उद्‍देश्य है। अन्यथा, आप इसे देखने में ज़रूर सक्षम होते कि जंगल महल के हरेक कूचे और कोने से प्रत्येक दिन हज़ारों लोग जुलूस, रैली, घेराव, प्रदर्शन में भागीदारी कर रहे हैं। संयुक्त बलों के भयंकर दमन के बावजूद, जनसाधारण समिति द्वारा प्रारंभ की गई व्यवस्था लोगों को प्रेरित कर रही है। छत्रधर महतो की गिरफ़्तारी के बाद भी जनता की रचनात्मकता क़ायम है। जनांदोलन कितना प्रतिरोधी हो गया है, आपने देखा होगा। जनांदोलन का निरंतर सशक्त होना, जनता की पहलक़दमियां, उनकी गहन चेतना, सच में संघर्ष की एक गाथा लिख रही हैं। अगर आप चाहते हैं, तो हम जंगल महल में आपके आगमन की सारी व्यवस्था करने तथा सुरक्षा प्रदान करने को तैयार हैं। आइये, ख़ुद अपनी आंखों से देखिए, उनकी जांच-पड़ताल कीजिए, अपना नज़रिया बदलिए। और मानवाधिकार आंदोलन की हदबंदी को तोड़कर आगे निकलिए।
माओवादी आंदोलन को कुचलने के लिए तथा इसके 100 नेताओं को ख़ामोश करने के लिए जब केंद्रीय संयोजन के गठन का निर्णय लिया जाता है और जब सीमा सुरक्षा बल के अवकाश प्राप्त महानिदेशक प्रकाश सिंह इस बारे में खुले तौर पर अपनी नाखुशी ज़ाहिर करते हैं, तो यह दिखाता है कि राज्य ने युद्ध छेड़ दिया है, और युद्ध कुछ ख़ास तरीक़ों से लड़ा जाएगा। राज्य द्वारा 100 क्रांतिकारी नेताओं को ख़ामोश (पुलिसिया कोश में किसी को ’ख़ामोश’ करने का क्या मतलब होता है, प्रकाश सिंह ने ख़ुद बताया है।) करने के निर्णय के प्रतिकार के लिए राज्य के बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ सैन्य कारवाई करने की ज़रूरत पड़ी।
सुजातोबाबू ने कहा है कि हिंसक तरीक़ों से हासिल किए गए परिवर्तन कभी दीर्घकालिक नहीं होते। हम उनके इस वक्तव्य को ज़्यादा महत्त्व नहीं दे रहे हैं। हम नहीं मानते कि वे ख़ुद इसमें गंभीरता से यक़ीन करते हैं। इतिहास में अधिकतर युगीन बदलाव हिंसा के बग़ैर संपन्न नहीं हुए हैं। यह हिंसा के माध्यम से ही हुआ कि मध्य युग के सत्ताधारी रजवाड़ों का ख़ात्मा हुआ। एक उदाहरण का ज़िक़्र करते हुए मैं अपनी बात को समेटना चाहूंगा – यह अमरीकन दासता के ख़िलाफ़ ग़ुलाम ड्रेड स्कॉट का है जिसकी पराजय ने गृहयुद्ध को अपरिहार्य बना दिया। यह सत्ता तथा संपति की वासना (चाहना) है जिसने सभी युगों में हिंसा को अपरिहार्य बनाया है।

हिंसा तथा अ-हिंसा
अमित भट्टाचार्या
26 सितम्बर (2009) को द्वारा ’माओवादियों के नाम खुला ख़त’ शीर्षक से लिखे पत्र में लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता सुजातो भद्र, लालगढ़ आंदोलन के कारण और परिणाम को पूरी तरह पचा गए हैं। लालगढ़ या जंगल महल में राज्य का दमन, माओवादियों के ’सशस्त्र संघर्ष’ का परिणाम नहीं है; बल्कि, इस राज्य दमन ने, वंचना और अपमान ने, सालों से चले आ रहे शोषण ने लोगों को ’जंगल पार्टी’ का समर्थन करने तथा प्रतिरोध और अपनी मांगों को मंगवाने के लिए ’सशस्त्र संघर्ष’ अपना कर माओवादी होने के लिए मज़बूर किया। लेखक के वक्तव्य से वास्तव में जो निकल कर आता है वह यह कि सशस्त्र संघर्ष या प्रति-आक्रमण के प्रारंभ ने राज्य दमन को बुलावा दिया, कभी सशस्त्र न होना ही अच्छा है।
आगे लेखक ने हिंसा तथा जन अदालतों के मुक़दमे के द्वारा मृत्यु दंड के अनुप्रयोग की पड़ताल की है। यहां उन्होंने कुछ मुद्‍दों पर रटन्त लगाई है।
उनके वक्तव्य से जो ध्वनित होता है, वह यह कि – और मेरा नज़रिया भी कई अन्य लोगों जैसा यही है – ’लोकतांत्रिक’ संघर्षों को शांतिपूर्ण होना चाहिए, और अगर, यह ’हिंसक’ मोड़ ले लेता है और ’सशस्त्र’ हो जाता है, तब यह अपने ’लोकतांत्रिक’ चरित्र को खो देगा और अलोकतांत्रिक हो जाएगा। सवाल है: क्या यह वास्तविकता कि सिर्फ़ शांतिपूर्ण संघर्ष ही ’लोकतांत्रिक’ हो सकता है? और अगर यह ’सशस्त्र’ और ’हिंसक’ है तो ’अलोकतांत्रिक’ हो जाएगा? इतिहास और व्यवहारिक अनुभव हमें क्या बताते हैं? सामान्यतः हरेक आदमी (सत्ताधारी गिरोहों तथा उनके आज्ञाकारी चाकरों के अपवादों को छोड़कर) शांति चाहता है, भोजन और कपड़े चाहता है और जीवन में गरिमा चाहता है; कोई भी हिंसा या ख़ून ख़राबा नहीं चाहता। यह दमनकारी राज्य होता है जो उन्हें सशस्त्र होने के लिए बाध्य करता है।
लालगढ़ आंदोलन की मुख्य विशेषता राज्य द्वारा छेड़े गए हिंसक आक्रमण को देखते हुए इसका सशस्त्र (तीर धनुष तथा परंपरागत हथियारों से) होना है। वहां राज्य ने जनता के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ रखा है और जनता अपनी तरफ़ से सारा सामर्थ्य लगाकर प्रतिरोध कर रही है। कुछ सीपीएम कार्यकर्ता तथा हरमद वाहिनी के लोग मारे गए हैं। माओवादियों ने ऐलान किया किया है कि उनमें से सभी पुलिस ’मुखबिर’ थे, कि उन्हें पहले चेताया गया था, लेकिन उन्होंने अनसुना किया, तो उन्हें जन अदालत में मृत्यु दंड दिया गया। वे पुलिस ’मुखबिर’ थे या नहीं, यह इस लेखक को नहीं पता है। फिर भी, यह बहुत साफ़ है कि पिछले 32 वर्षों में सत्ताधारी सीपीएम तथा पुलिस प्रशासन के बीच का अंतर हवा में झूल गया है। दो साल पहले, जब नारी मुक्ति संघ की महिला सदस्यों ने बाघा जतिन रेल्वे स्टेशन में पोस्टर चिपकाया, तो उन्हें सीटू/सीपीएम कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ लिया गया, पार्टी ऑफ़िस ले जाकर उन्हें पुलिस को सौंप दिया गया। उसी दौरान, कुछ सीपीएम कार्यकर्ताओं तथा उसकी महिला शाखा की सदस्यों ने मातंगिनी महिला समिति की जादवपुर, कोलकाता के इलाक़े में रहने वाली कुछ सदस्यों को पुलिस को सौंपने की कोशिश की थी। ऐसी कोशिशें प्रमाणित करती हैं कि सीपीएम के कार्यकर्ता पुलिस मुखबिर की भूमिका निभाते हैं।
लेखक मृत्यु दंड के ख़िलाफ़ हैं। मैं मानता हूं, सिर्फ़ वही क्यों, कई सारे लोग सामान्यतः मृत्यु दंड के ख़िलाफ़ हैं। उनका सवाल है: जबकि 224 देशों ने मृत्यु दंड की सज़ा का उन्मूलन कर दिया है, माओवादी क्यों इसे अभी भी दंड के एक तरीक़े के रूप में बरकरार रखे हुए हैं? यहां लेखक ने एक बड़ी भूल की है। यह सवाल देश तथा उसकी स्थापित सरकार के लिए उपयुक्त है; लेकिन यह उनके लिए विचारणीय कैसे है जिनके पास न तो कोई देश है और न ही एक स्थापित सरकार है? यह लेखक सुजातो के साथ एक बिंदु पर पूरी तरह सहमत है: किसी तरह की आगे की कारवाई के पहले पर्याप्त जाच पड़ताल ज़रूरी है; निर्दोष लोगों की जान का किसी भी तरह का कोई नुक़सान पूरी तरह अवांछनीय है।
लेखक की राय में, ’हिंसक साधनों के सहारे बना समाज अल्पकालिक होता है।’ उनसे मेरा सवाल है: सभी तरह के मूलभूत सामाजिक रूपांतरण कहां हुए हैं और वे दीर्घकालीन कहां हुए है? रूस तथा चीन जैसे समाज में, जहां हिंसक साधनों के सहारे परिवर्तन साकार हुए थे, वहां अभी कई तरह के बदलाव आए हैं। फिर, इन समाजों के अल्पकालिक होने के लिए क्या हिंसक साधनों के अनुप्रयोग ज़िम्मेदार हैं? या नए समाज में गहराई से व्याप्त अंतर्विरोधों की वजह से ऐसा घटित हुआ? इतिहास हमें सिखाता है कि समाज का मूलभूत रूपांतरण कभी भी युद्ध और सशस्त्र उभार के बिना आकार नहीं लेता।
लेखक ने हिंसा के सामाजिक प्रभाव का सवाल उठाया है। वे यहां कुछ शहरी बौद्धिकों के बारे में ही क्यों बात कर रहे है? जंगल महल के लोगों पर, उन आदिवासी विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है जो प्रतिदिन राज्य हिंसा का शिकार हो रहे हैं? क्या वे लोगों के प्रतिरोध आंदोलन के बारे में, उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के, जो नंदीग्राम के लोगों जैसे ही सारी रात जाग जाग कर गुज़ारते हैं, और हरमद तथा संयुक्त बलों के अत्याचारों के ख़िलाफ़ खड़े रहते हैं, के बारे में बात नहीं करेंगे?
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ समस्या यह है कि वे कभी राज्य के आस्तित्त्व को चुनौती नहीं देते; इसके प्रतिकूल, वे इसकी वैधानिकता को स्वीकार करते हैं और मांग करते हैं कि राज्य अपनी ’घोषित प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करे।’ उत्तर-आधुनिकतावादी चिंतन से प्रभावित, वे सिर्फ़ पेड़ देखते हैं, लेकिन जंगल को देखने में असफल होते हैं; उनके लिए, लालगढ़ आंदोलन सिर्फ़ राज्य दमन और ’सशस्त्र विरोधी समूहों’ द्वारा किए जा रहे प्रति-आक्रमण के बीच एक तनाव है। लेकिन, साथ ही साथ लालगढ़ आंदोलन देश में विदेशी पूंजी तथा घरेलू दलाल पूंजी द्वारा जारी प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट के ख़िलाफ़, जन-समर्थक विकास (जन पहलक़दमी तथा स्वैच्छिक श्रम के द्वारा स्वास्थ्य केंद्रों, सड़क, बांध तथा जल संरक्षण के स्रोतों के निर्माण, निचले लोगों तक भूमि के बंटवारे के क्रियान्वयन आदि के कार्यक्रमों द्वारा) को हासिल करने के लिए एक संघर्ष है।
16 सितंबर 2009 को कोलकाता से निकलने वाले दैनिक ’द स्टेटसमैन’ ने ’निश्चित तौर पर हममें से कोई माओवादी नहीं’ शीर्षक से एक गोष्ठी का आयोजन किया। प्रोफ़ेसर जी. हरगोपाल ने वहां अपने व्याख्यान में कहा: “एक ग्रामीण की पत्नी को जब ज़मींदार उठा ले जाता है, अपने घर ले जाकर उस पर यौन अत्याचार करता है और वह ग्रामीण जब अपने दो बच्चों के साथ अपनी पत्नी को वापस करने की प्रार्थना करने ज़मींदार के घर जाता है तो वह उसे भाग जाने का आदेश देता है, तो उस ग्रामीण को क्या करना चाहिए? अहिंसा और शांति का जाप करना चाहिए? या उसे उनका विरोध करने और दुखों के सागर का अंत करने के लिए हथियार उठा लेना चाहिए? ऐसे ही एक मामले में, आंध्र प्रदेश का एक नौजवान सीधे जंगल जाता है, 25000 हज़ार लोगों के समूह को संगठित करता है, ज़मींदार को मार देता है और अंत में उसे माओवादी बना दिया जाता है।“ (The Statesman 17-09-09)
इतिहास हमें सिखाता है कि हिंसा, हत्या – यह सभी अतीत में मौजूद रहे हैं और वर्तमान में भी निरंतर मौजूद हैं। व्यक्तिगत तौर पर हम सभी शांति चाहते हैं; कोई भी हिंसा और हत्या नहीं चाहता। बावजूद इसके, ये हमारी इच्छाओं से स्वतंत्र होते हुए, लगातार जारी रहेंगी, और इतिहास की दिशा को प्रभावित करेंगी और रास्ते में अपना नकारात्मक तथा सकारात्मक असर पीछे छोड़ती जाएंगी।