29 दिसंबर 2011

शांति के बारे में सोचना किसी कबूतर को याद करने जैसा है.

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- भाग आठ
चन्द्रिका


अखबारों में आती रही घोटालों की खबरे और घोटालों में आते रहे अखबार एक यार की तरह. हमारे समयों की कहानी इनके दस्तखत के बिना नहीं लिखी जा सकती. यह सच कौन बताएगा कि कोई पेशेवर गुनहगार इंसानी इतिहास में अब तक पैदा नहीं हुआ कि गुनाहों का पेशा हमारी आदतों को कौन देता है. जिन्हें जेलों में भेज दिया गया वे जानते हैं सच कि उनके साथ किसे और होना था. सलाखों के पीछे जिसे जाना चाहिए वह आदमी नहीं कोई और है सलाखें किसी तंत्र की ठौर हैं. हमारे समयों का हिसाब कोई ईमानदार आदमी और औरत नहीं चुकता कर सकती. बिस्साव सिम्बोर्सका ने लिखा था कि हमने सोचा था कि ईश्वर को भी जरूरत होगी एक ताकतवर और ईमानदार आदमी कि पर हमारे समय में आदमी ताकतवर और ईमानदार एक साथ नहीं हो सका. शायद वह अपने समय नहीं बल्कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए सभ्यता को दांव पर लगा दे, अगर उसमे उतनी ताकत हो तो.

शांति के बारे में सोचना किसी कबूतर को याद करने जैसा है. जबकि सेनाओं को कूच करने की जरूरत खत्म हो गयी है और एक राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष बोलने से ज्यादा इशारे करता है. इशारे अब इतने मजबूत हैं कि वे लोगों के लिए नहीं बल्कि देशों के लिए किए जाते हैं और एक देश अपनी तबाही की तारीखें गिनने लगता है. देश का नाम इराक, फिलिस्तीन, अफगान हो यह जरूरी नहीं यह एक अनिर्मित राष्ट्र भी हो सकता है जिसमे बारूदों की महक में बच्चे पैदा होते हैं और शांति के युद्ध में माएं वर्षों तक चीखती हैं. शांति के नाम पर बस काली रातें है जहां हर आदमी सोने की तैयारी में है ताकि खामोशी कायम रहे, वे जो बोलते हैं उन्हे रात का कुत्ता करार दिया जाता है और धमाके महज मामूली सी आहटें हैं. इस बरस जहां से भी जो भी आहटें आयी वे शिकायतों से भरी थी जबकि उम्मीदें हर देश में खरी थी.



देश में जो जितना किसान है उसके चेहरे पर उतना निसान है. क्या उसे भट्ठा परसौल जैसे गांव की तरफ एक तैयारी के साथ चले जाना चाहिए या विदर्भ की तरफ लौट आना चाहिए. एक युवा नेता हर रोज अपनी शामें किसी गरीब के घर बिताकर कितनी हत्याओं आत्महत्याओं की खबरों को अखबारों से बाहर कर देने की ताकत रखता है, अगले साल के लंबे वक्तों में से थोड़ा वक्त इस पर निकाल लेना हमारी जरूरत है. धान के बोरे की तरह अब भी एक आदमी लेटा रहता है अपनी दलानों में और किसान मंत्री से बात करते हुए अपनी फसल की कीमत को आंक रहा होता है, जब अनाज के बोझ ढो रहे होते हैं उसके मजदूर. अब उसे जमीदार नही, नेता नही, मालिक नहीं किसी ऐसे शब्द की तलाश है जिसमे वह लोकतंत्र के साथ सहूलियत बना सके.



वह जो एक देश का राष्ट्रपति है और बोलता है तो उसे दुनियां के राष्ट्राध्यक्ष सुनते हैं जैसे उनका राष्ट्रपति बोल रहा है. वाल स्ट्रीट की सड़कों पर यह जो भीड़ उतरी वह एक घटना है उसे तहरीर चौक जैसा हो जाना चाहिए था पर तहरीर चौकें हर देश में अपने समय का इंतजार कर रही हैं. वाल स्ट्रीट की ऊंची इमारतों के नीचे लोगों का बोलना और चिल्लाना इस साल उनके लिए खतरे जैसा है जो सभ्यता के लिए खतरे जैसे हैं. वे चिल्ला रहे हैं और यूरोप का एक देश अब भी हिल रहा है जबकि रात ढल चुकी है.



इस बरस वे पूरी धरती के साथ कांप गए. सारी तकनीकों के बावजूद एक देश हिल सकता है, एक देश ढह सकता है और एक समुद्र गरम हो सकता है. किसी देश के बिलखने का समय जापान की तबाहियों की तरह है. अपनी आधुनिकतम तकनीक के साथ मौत की सबसे प्राचीनतम प्रवृत्ति को रोक पाना कितना कठिन होता है. मौत में जाना हमने इसी सभ्यता में सीखा. विध्वंसों पर कभी नाज नहीं किया जा सकता पर दुनिया तब तक करती है जब तक वे हो नहीं जाते और होने के बाद लोगों के पास बचा रह जाता है अफसोस और अफसोस से कोई जिंदगी नहीं लौट सकती. 15,799 लोगों की मौत को महज त्रासदी जैसे शब्द में रखकर सहज हो जाते हैं लोग. लोग उबर जाते हैं किसी भी भार से, मौत के भार से भी. इस बीते बरस के साथ हम उन्हें ऐसे याद करें जैसे श्रद्धांजलि नहीं दी जाती जैसे कोई रस्म अदायगी नहीं की जाती और 4041 जो खो गए थे उन्हें ढूंढ़ लिया जाना चाहिए किसी कब्र में जो बगैर किसी की मौजूदगी में बनी.



तेलंगाना में लाखों लोगों का ये जो हुजूम उठ रहा है क्या वे सिर्फ एक राज्य चाहते हैं. उन्होंने जवान होने की कीमतें अदा की, वे गाते रहे अपने स्वप्न में आने वाले सुखद दिनों का गीत और जल गए किसी चौराहे पर अपने आक्रोश के साथ. हर कोई कुछ बदलाव चाहता है ऐसा बदलाव जो उसकी जिंदगी में उतरे. पर बदलाव का कोई भी विचार इन सालों में स्थगित कर दिया गया है. कुछ भी बदलने के लिए आंखों को थोड़े से खून की जरूरत होती है. रेलगाड़ियों और बसों में बैठे लोग गीत गाते हैं और जोर सी आवाज में कुछ चिल्लाते हैं, यह चिल्लाने की खूबी आदमी ने किस बरस सीखी होगी और वह कौन पहला आदमी रहा होगा जो चिल्लाया होगा पृथ्वी पर पहली बार, कोई नहीं जानता. शायद पहली बार से आखिरी बार तक आदमी का चिल्लाना किसी भूख का ही परिणाम होगा. पर हम सब जानते हैं कि कुछ भी पाने से पहले चिल्लाना पड़ेगा और पाने के बाद यह अफसोस बना रहेगा कि कुछ भी नहीं बदला. क्योंकि बदलाव का काम स्थगित हो चुका है. कहीं कुछ टूटता है और उसे जोड़ दिया जाता है, यह देश जिसे विविधता कहा गया वह टूटे हुए जोड़ों से बना है. रेलगाड़ियां खड़ी कर दी गयी और दुकाने बंद, विश्वविद्यालयों के छात्रों पर चली गोलियां भी पर इसके बावजूद जाने वे किस और घड़ी के इंतजार में हैं जाने उन्हें अभी क्या कुछ चाहिए.



उसकी उम्र विवादों से बनी जिस पर कोई रंग बुढ़ापे तक वह नहीं चढ़ा पाया. उसके नाम के साथ इस देश के नाम पर रंग जरूर चढ़ा रहा. एम.एफ. हुसैन एक तस्वीर थी जो पहले देश से गयी फिर उसने दुनिया को अलविदा कह दिया और इस बरस की पेंटिंग से एक अहम रंग कहीं खो गया. काश कि इस बरस की कोई आखिरी पेंटिंग वह बनाता और किसी भी लिखी गयी पोथी को बगैर पढ़े हम पढ़ लेते पूरा बरस. हममे से जाने कितनों ने गजलों को सुनना जगजीत सिंह से सीखा था और अब अगले बरस कोई नयी गज़ल कहीं नहीं सुनाई देगी उनकी आवाज़ में जाते-जाते यह बरस हमे कितना कुछ देकर गया और लेकर गया बहुत कुछ.



कोई भी जब अपने समय की इबारत लिखता है तो वह सब कुछ छूट जाता है जिसे लिखा जाना बेहद जरूरी था पर किसी भी विधा के परे हर इंसान के ज़ेहन में रचित होता रहता है एक उसकी जिंदगियों का हर पल. उसे कभी नहीं लिखा जा सकता जिससे हर रोज बन बिगड़ रहे होते हैं हम. इस बरस या पिछले बरस के बारे में कुछ भी लिखना बरसों पुराने किसी अलाप के दुहराव जैसा है. हम जो चल रहे हैं दिल्ली, जयपुर या मुंबई की सड़कों पर और भागे जा रहे हैं जाने किस चीज की तलाश में हमे थोड़ा ठहरना चाहिए, मुड़कर उन्हें देखना चाहिए जो छूट गये हैं पिछले स्टेशनों पर. रात गये ये कौन सेलोग हैं जो सोये हुए यात्रियों को निहारते हैं हर स्टेशन पर याचना की दृष्टि से और अचकचा कर ठिठुर जाते हैं हमारी तीखी निगाहों पर. क्या वे निहारते हैं हमे अपनी आंखों से या भूख से निहारती है उनकी क्षुधा आंख बनकर. सदियों पहले यदि यह पृथ्वी आग का गोला थी तो कहीं न कहीं जरूर बची होगी एक चिंगारी जिसमे से निकाल लेना थोड़ी आंच इस बरस और थोड़ा धुंआ फैला देना था चमचमाती रोशनी के इर्द-गिर्द.

28 दिसंबर 2011

एक दिन लौट आएगी वह रेलगाड़ी.

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- सातवा भाग
चन्द्रिका


इस बार बाबा का बुढ़ापा पिछले बुढ़ापे से ज्यादा था और ज्यादा थी उनकी तनहाइयां. देश में यह जनगणना और जनसंख्या के बढ़त का साल रहा पर बुजुर्गों को एक अदद आदमी की तलाश और तलब आज सबसे ज्यादा है और लोग बहुत-बहुत कम हैं. इस बरस जब 7 अरब गिनी गयी दुनिया की आबादी तो कई इलाके अपनी वीरानी से हैरान थे और एक बूढ़ा इसी इलाके का बासिंदा बना. बूढ़े हर बार चुन लेते हैं वीरानियां घरों, शहरों और देशों की. इन बुजुर्गों के अनुभव को भारत सरकार का कोई आंकड़ा खारिज नहीं कर सकता कि रोज बरोज घट रहे हैं लोग, वह जो बढ़ रहा है वह कुछ और ही है जिसको शब्द दिया जाना इस साल भी बाकी रह गया. बूढ़े लोग हमे पिछले सालों में ले जाते हैं और जीवित मनुष्यों के सबसे सुखद स्वप्न को धर देते हैं हमारे कंधे पर. किसी पेड़ की खोह की तरह धंसी हुई आंखों में हाल के बरसों में कोई खुशी नहीं आयी, वे दुखी हैं कि सब कुछ पाने के बाद भी उन्हें जो पाना था, जिसे वे मौत के पहले इंसान होने की गरिमा जैसा दोहराते वह नहीं मिला.

इस बरस रेल दुर्घटनाओं में जो मारे गए वे सब एक दिन लौट आएंगे, एक दिन लौट आएगी वह रेलगाड़ी जिसमे गुम हो गया एक लड़की का प्रेमी. वे सब लौटेंगे किसी रेलगाड़ी से बेनाम टिकटों के साथ. वे एक असफल यात्री थे जो नियती की नहीं दुर्घटनाओं की भेंट चढ़ गए. सरकार ने उनके मौत की कीमतें अदा कर दी, जो कोई भी ईश्वर नहीं कर सकता क्योंकि वह बगैर पैसे का है और जी रहा है वर्षों से इंसानी भोगों के सहारे. क्या हमे फख्र करना चाहिए कि हमारी सरकार हम सबकी हत्या या मौत की कीमतें अदा कर सकती है, यदि वह चाहे तो. हमे खुश होना चाहिए कि हम इस साल एक बड़ी संख्या में बचे रह गये और अपनी खुशियों से उतनी हंसी घटा देनी चाहिए जितनी हत्याएं इस बरस हो चुकी. खाप पंचायतों की तयशुदा हत्याएं अगले बरस दुहराने की तैयारियां सी हैं.



तमाम खाप पंचायतों के बाद भी वे हर रोज मिलते हैं किसी पगडंडी पर, थोड़ा रात ढले और तब वे किसी खाप पंचायत की बात नहीं करते. देर तक चुपचाप बैठे रहते हैं और भींचकर चूम लेते हैं एक दूसरे को और शायद सारी कायनात की उम्र के लिए बस इतना सा ही जीवन काफी है. जीवन को समय की क्षुद्रताओं में नहीं छड़ भर की उद्दात्त भावनाओं में नाप लेना चाहिए. जीवन को एक पतली गली में गुजार देना चाहिए जहां गुजरते वक्त दो लोगों के कंधे सट जाते हों और आदाब कहे बिना भी वे निकल जाते हों मुस्कराते हुए. संवेदनाओं के साथ सबसे बड़े संघर्ष की कहानी आज भी यहीं जिंदा है, ये मुहल्ले हर शहर के आखिरी कोनों पर मिल जाएंगे बगैर किसी सजावट के. जमीन बदल रही है अपना रंग और धूप की आकाश में खिल रहा है इंद्र धनुष सा कुछ हर रोज, हर दिन और हर बरस. सबको अपने अपने रंग अपनी अपनी आंखों में उतार लेना चाहिए यहीं से.



यह कश्मीर नहीं सोपियाओं का देश है जिनके लिए इस बरस कोई नहीं चीखा और वे खामोशी से खामोशी में द्फ्न हो गयी. उत्तर पूर्व सिर्फ हमारे देश के नक्शे में और देशभक्ति के नाम पर जज्बाती करतबों में ही बचा रहा. हमने नहीं लिया उनका कोई हाल कि अब बरसों से भूखी एक महिला को कुछ भी खाने की जरूरत क्यों नहीं रही. इस नवम्बर की तारीख भी बीत गयी जैसे बीत गया सन 47 के पहले का कोई दिन. सरकारी फाइलों में हत्या के साथ बची मनोरमा नाम की लड़की अभी दिल्ली के किस गली में कौन से मकान में घूम रही है. किसी मौत के बाद यातनाएं देने वाले के ज़ेहन में क्यों नहीं बची र्ह जाती. जिन्हें गैरवाजिब लड़ाई कहा जाता रहा उसमे लोग अपनी जिंदगियां इतने सस्ते में क्यों कुर्बान करते रहे. इस साल हम अपने देश के इतने बड़े लोकतंत्र से सिर्फ लोक बचा लेते, उसे रख देते चुरा कर कहीं उनसे जो चुन रहे हैं खालिस लोक को तो कामयाब इतिहास के पन्नों में यह दर्ज हो जाता. पर हम तंत्र को बचाने में लोक के बचाने का यंत्र खराब कर दिए. अगले बरस हम बचाएंगे कुछ और चुकाएंगे पिछले बरस का कर्ज. मणिपुर में एक पत्रकार जिसे सलाखों के पीछे भेजा गया सुनने में आया कि वह देर रात तक अंधेरे में हंसता रहा सिर्फ इस बात पर कि वह एक लोकतांत्रिक देश में है और उसे न्यायाधीश के सामने उसी सच बोलने की शपथ खानी पड़ रही है जिसे बोलकर वह इन शलाखों में पहुंचा है. तो क्या उसे झूठ जैसा कोई सच बोल देना चाहिए था. उसने जाना कि इस सदी में सच की जुबान बहुत छोटी हो चुकी है और उसकी आवाजें एकदम बेस्वाद. सच बोलना किसी एहतियात बरतने जैसा है.

बगैर सरहदों के देश वाली चिड़ियाओं.

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- छठा भाग
चन्द्रिका

अब तक यह तय नहीं हो सका कि यह किसकी लड़ाई थी और किसके लिए. देश के किसी मसौदे में प्रतिरोधों की कोई कहानी नहीं लिखी होती. गांधी के सिर्फ नाम जैसा चेहरा कहीं से उठता है और घिर जाती हैं सरकारें कि कौन जाने सरकारें ही घेर रही हैं लोगों को. भ्रष्टाचार की परिभाषाएं बनाता है हमारे देश का सबसे सशक्त प्रधानमंत्री और उसकी दाढ़ियों पर रेंगने लगता है जुगनुओं का एक झुंड पर वह जो दिखता है वह होता नहीं कि रोशनी अब उतनी ही बची है जितनी जलती बुझती किसी मोमबत्ती की आखिरी लव. देश के ढेरों हांथों में जल रही मशालों की आंच जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी में सिकुड़ जाती है. एक जिद्दी बुड्ढे की तरह वह राष्ट्र के सत्तासीनों को समझाइस देता है. क्या कोई अन्ना इस देश को बदलने के लिए काफी है. एक अदना सा आदमी जो न जाने कितनी जालों और सीखंचों के पीछे से बोल रहा है दूसरों की जुबान को अपने मुंह में घोल रहा है कि अपनी खुद की जुबान को बगैर किसी तराजू में रखे तोल रहा है. यह इस साल की सबसे अहम घटना में इसलिए जोड़ लेना चाहिए कि हम एक बार फिर कमजोर हुए और वह हमे मात दे गया. यह साल उसकी भूख हड़तालों की शोर में चीखता है महीनों और अखबारों से गायब हो जाती हैं वे खबरें जिन्हें पढ़ते हुए चाय की चुस्कियां लेते-लेते ठहर जाना चाहिए मध्यम वर्ग की समूची आबादी को. कोई नहीं जानता कि ठीक उसी वक्त बगैर भूख हड़ताल के निखालिस भूख के कारण मेलघाट छोड़कर दुनिया से कितनों ने विदा ली. भोपाल के एक हत्या में मारी गई उस महिला की कहानी लाल रंगों में दर्ज की जानी थी और चंद काले अक्षरों में स्याही को पोत कर अपना फर्ज अदा कर देता है टाइम्स आफ इंडिया. जब दूकाने बंद हुई थी शहरों की और गांधी की आस्था लौट रही थी भगवा चेहरों में उससे पहले कितने लोगों ने कितनी बार सोचा होगा कि बाजार बंद हो जाएं, हो जाए बाजार बंद हमेशा के लिए और हर जगह के लिए. यह बाजार सिर्फ एक दिन दूकानों के ताले लटकने से नहीं बंद होने वाला. कुछ और ही लटक जाता इन पर जैसे संविधान से उठकर लटक जाता समाजवाद जैसा कोई शब्द.

दीवार पर बैठी है एक चिड़िया और उसकी आवाज में भर गई है खरास जैसी कोई ध्वनि. जाने किस देश से आती हैं ए चिड़ियाएं और क्या सोचती हैं देशों के बारे में. जबकि हम देशों के बारे सरहदों की लड़ाई से ज्यादा कुछ नहीं जानते, पड़ोसियों के बारे में हम दुश्मनी से ज्यादा कुछ नहीं जानते. किसी देश की सरहद पार करने के पहले शायद ये चिड़ियां करती होंगी एक देश के सुरक्षा का मुवायना और फिर धीरे से घुस जाती होंगी किसी प्रांत में कश्मीर की तरह ठंडे और जलते प्रांतों में. उस सुंदर और सुदूर प्रांत की झीलों में वहां की माओं के आंसू ठहरे हुए हैं और उन पर काई सी जम गयी है. कब्रिस्तानों से देर रात गये कोई उठता है और तलाश करना शुरु कर देता है अपना मुल्क. बगैर मुल्क के कोई जिंदा आदमी भी अपना घर नहीं ढूढ़ सकता. क्या वे चिड़ियां झांकना चाहती होंगी किसी महिला के बुर्के में छिपे पसीने वाले चेहरे को जो खौफ के बीच कजालों में दबा पड़ा है. कश्मीर की गुप्त मुर्दा कब्रों के बारे में उन्हें क्या वही बातें पता हैं जो अखबारों में एक सुबह छपी थी. विविधताएं, जो कम और कमजोर होती जा रही है और सब कुछ रंग सा जा रहा है एक रंग में उन्हें देख हैरत में पड़ती होगी एक चिड़ियां और ऋतुओं में कहीं और जाने की अपेक्षा कहीं और न जाना पसंद करती होगी. देश नहीं, दुनियां के सभी बाजारों का रंग एक हो चुका है और मिजाज की रंगत फीकी पड़ चुकी है. क्या ऐसे में बगैर सरहदों के देश वाली चिड़ियाओं को उस देश चले जाना चाहिए जहां हमारे देश के हर आदमी की पहली ख्वाहिश बसती है, जहां कब से जाने की जिद ठाने हुए है एक व्यापारी का बेटा. पर चिड़ियां न्यूयार्क से ज्यादा बस्तर में रहना पसंद करती हैं भले ही वे शिकार कर ली जाएं किसी आदिवासी तीर से. हर साल, हर समय हम वहीं जीना चाहते हैं जहां जीने की सबसे ज्यादा सम्भावनाएं मौजूद हों और अपने आस पास के लोग, भले ही वे ढंक दिए गए हों किसी कब्र के नीचे.

एक सड़क किससे मिलना चाहती है अपने आखिरी छोर पर

इस बरस का पुल, नदी, चप्पल और विज्ञान- पांचवा भाग
चन्द्रिका

गरीबी एक मौसम की तरह घिरी रही और ठंड में ठिठुरता रहा पूरा बदन. सबसे नाजुक समय इंसान की जिंदगी में इतनी सदियों बाद आये कि उसे याद ही नही रहा सिहरन में दांत का किटकिटाना और बारिस में भीगकर सूखा हो जाना. खुली आलमारियों में पड़ी रही किताबें और रिसता रहा एक पीढ़ी भर का घाव उनके पन्नों से और उसे देखकर कोई भी नहीं चीखा. हम जानते रहे उनके भूख का कारण, हम शांत करते रहे उनका क्रोध अपनी संवेदना और तलवार से या बंदूकों से निकले धुंए की महक घुसती रही नथुनों में और वह बगैर किसी तड़प के जीता रहा ताउम्र अपनी जिंदगी. भूख को पानी में मिलाकर कितनी कितनी बार पिया कितने कितने लोगों ने और वह रेंगती रही धमनियों के बीच. चुप्पियां खाता रहा हमारा क्रोध और विस्मृत होती रही पुरानी यातनाएं जाने किस आश में. सत्ताओं के जो फरमान आये वे इतने बेस्वाद और बासी हो चुके थे कि जीभ ने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया. लोग बिस्तरों पर पड़े रहे और वह मौसम के इंतजार में उसके साथ वह खड़ी रही दरावाजे के बाहर दीनता के स्वर में अलाप करते हुए. रोटियां जिन्हें साभ्यतिकता के साथ मामूली चीज हो जाना था हर किसी के लिए वे हमारे समय का दुख बन कर हमे चिढ़ाती रही. गरमी के दिनों में एक रेगिस्तान से दूसरे रेगिस्तान तक सबसे ज्यादा पसरी रही धूप और चिलचिलाती रही भूख हमारे अंदर ही छांव में बैठकर.

सड़क जो गुजर रही है और फैल रही है नसों की तरह पगडंडियों में वह जाने कहां उतर जाएगी समय की गहराई में. सड़कें जाने किसके लिए चली जा रही हैं अपनी रीढ़ की हड्डियां फैलाए और शायद आखिर में उनकी मुलाकात होती होगी उससे जिनसे वे मिलना चाहती हैं या नहीं मिलना चाहती. शायद वे कभी मिल पाती होंगी उससे जो उनके इंतजार में बैठा है चारपाई के सिरहाने. आखिर एक सड़क किससे मिलना चाहती है अपने आखिरी छोर पर, किसी शाम क्या कोई बतियाता होगा सरपतों के झुरमुटों के बीच सड़क से. सड़कों की बातें आदमी लोगों की बातों जैसी सरल नहीं होती उनमे एक फुटपाथ का खुरदुरापन होता है. सड़कें वायदा नहीं करती किसी के साथ चलने का और हर आदमी जब अकेला चल रहा होता है सड़क भी चल रही होती है उसके चेहरे के भावों को देखते हुए.

पहाड़ों ने छिपा रखा है धरती के इतिहास का खालीपन, सबसे ज्यादा समतल पर खड़े हैं पहाड़ एक गोल पृथ्वी में कहीं कोई समतल नही और एक घास दबी हुई है उसके तलवों तले. पहाड़ की ऊंचाई से कोई पुकारता है सुबह की लालिमा में और एक ढलान से निहारता है दृष्यों का समूह. खोजो तो डायनासोरों के पद चिन्ह अब भी मिल जाएंगे पहाड़ों की खोह में भले ही अब वे बौने हो गए होंगे और दुर्दिन रातें याद करेंगी अपने सबसे काले चेहरे वाले समय को. इस सदी में कठोर होना पहाड़ों से ज्यादा किसी आदमी या प्रेम प्रसंगों में आए कथन से सीख सकता है कोई कि पहाड़ अब उतने कठोर नहीं रहे. सबसे कोमल नदियां इन्हीं की ऊचाइयों से निकली. वहां संवेदनाएं रिसती हैं किसी तरल पदार्थ की तरह. इस बरस आसमान से बात करते हुए रोया था एक पहाड़ और नदियों की सिथिलता में हलचल सी मच गयी थी. यहां हर ऊचाई पर एक सुराख है जिसमे कोई रोशनी नहीं होती बस काली आंखों से झांकता है एक खोह कि दुनिया कितनी मिटती जा रही है और यह जो बचा है उसे आखिरी बार छूने के लिए एक दिन झुकेगा पहाड़ और चूमेगा पृथ्वी को.

ये स्कूल से जो बच्चे निकल रहे हैं अंक गणित के अक्षरों की तरह उन्होंने बहुत कम सीखा है समय का गुणा-भाग. एक बुजुर्ग अनुभवी गणित के सारे सूत्रों को अपनी यादास्त के सहारे लिखता है रोज और मिटाता है जिन्दगी के सहज तजुर्बों से. एक दिन सब उतनी गणित सीख जाएंगे जितना जरूरी है और गिनती उल्टी गिनी जानी शुरु हो जाएगी. आदमी की आंख को पढ़ने के लिए जिस साहस की जरूरत है वह हम हार चुके हैं. मिड-डे मील के घोटालों की तरह इस देश के बच्चों की भूख भी छुप जाएगी किसी फाइल में. हर बीतते बरस के साथ बीतती जाती है एक बच्चे की उम्र और बढ़ता जाता है आदमी की स्मृतियों का इतिहास. बच्चों के बारे में समय से शिकायत करता है भय कि आने वाली पीढ़ीयों के लिए गुजरा हुआ साल एक आख्यान की तरह होता है जिसमे कोई बोलता जाता है और कोई नहीं सुनता. जब एक ही समय में दुनिया के लाखों बच्चे उठते हैं और चल देते हैं इतिहास के आखिरी पन्ने की ओर तब कोई नहीं जानता कि जो सबसे ज्यादा भूखा था उसके ही उदर से निकल आई थी सभ्यता के बदलाव की लड़ाई.

रात घिरी हुई है, कि घिर रहा है अंधेरा सदियों से और देशों के मुंह का रंग काला पड़ चुका है. आसमान के रंग में दुनिया के तमाम देशों के मुंह की छायाऐं हैं. हर बरस कोई निकलता है उजाले की तलाश में और घायल होकर लौट आता है सिर्फ एक संस्मरण उसके अपनों के बीच. अंधेरे में टहलता है कोई निर्भीक अपनी प्रतिमाओं को अपनी ही पीठ पर टांगे. चंद लोग खोजते हैं एक अदद रोशनी के सहारे वह हांथ जिसकी मुट्ठियों में बंद है मुक्ति की सरहदें और सरहदों के पार से कुछ लोग पुकारते हैं रोज, उन अदना जिंदागियों को जिनमे चलने की ताकत कम और साहस ज्यादा बचा है. यह जो रह-रह कर उठती हैं चीखें अलग-अलग इलाकों से वे कभी नहीं मिल पा रही एक साथ कि इससे पहले ही वह सुन लेता है जिसे नहीं सुनना था और इंतजार में गुजर जाता है एक और साल. हर घर के दीवारों की खिड़कियों से झांकता है एक चेहरा और अंधेरा पोत देता है अपनी कालिमा की एक चुटकी राख उस चेहरे पर. धुने जो संगीत की तरह सुनाई पड़ती थी उनमे बस केवल शोर बचा रह गया है और उस शोर के सहारे कुछ लोग खिंचे जा रहे है आज भी किसी दीवार को तोड़ उसके पार जाने को. देश का सिनेमा लाता है कुछ तस्वीरें और हर नागरिक ठठाकर हंस देता है किसी बलात्कृत महिला को अधनंगा देख.