29 जनवरी 2011

इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में नया मोड़

(साभार बीबीसी हिंदी)

गुजरात पुलिस ने इशरत जहाँ और तीन अन्य को चरमपंथी संगठन लश्कर का सदस्य बताकर उन्हें कथित मुठभेड़ में मार दिया था

गुजरात पुलिस मुठभेड़ की नए सिरे से छानबीन कर रहे विशेष जांच दल के एक सदस्य ने कहा है कि 2004 इशरत जहाँ और तीन दूसरे लोगों का मुठभेड़ फ़र्ज़ी था.

शुक्रवार को गुजरात हाई कोर्ट में इस मामले पर एक लम्बी दलील पेश करते हुए सीनियर पुलिस अधिकारी सतीश वर्मा ने कहा कि इस मामले में एक नई प्राथिमिकी यानी एफ़आईआर दर्ज होनी चाहिए.

पहले हुए एक न्यायिक जांच में भी ये बात सामने आई थी कि 2004 में आतंकवादी बताकर इन लोगों को जिस तरह से मारा गया था वह मुठभेड़ फ़र्ज़ी थी. लेकिन अदालत ने उस रिपोर्ट पर रोक लगा दी थी.

सतीश वर्मा उस तीन सदस्यीय विशेष जांच दल के सदस्य हैं जो गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश पर पिछले साल बनाई गई थी.

दो जजों की खंडपीठ के सामने एक हलफ़नामे में सतीश वर्मा ने कहा,"अभी तक सामने आए साक्ष्य उन बातों को नकारते हैं जो एफआईआर में कही गई हैं."

सबूत

उन्होनें इसके सबूत के तौर पर पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट और दूसरे तथ्यों को अदालत के सामने रखा.

जाँच दल के सदस्य का कहना था कि इशरत जहाँ और तीन अन्य के शरीर से निकाली गई गोली उस पिस्तौल से मेल नहीं खाती जिसका इस्तेमाल पुलिस के अनुसार मुठभेड़ के दौरान किया गया था.

सतीश वर्मा का कहना था कि पुलिस ने इन चारों को ये कहकर मारा था कि ये लोग गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से गुजरात आए थे लेकिन इस बात का कोई सबूत पेश नहीं किया जा सका कि ये ख़बर पुलिस को किस आधार पर, कहाँ और कैसे मिली.

हालांकि अदालत की कार्रवाई के सामने जांच दल के भीतर की फूट भी सामने आई.

दोनों जजों ने इस मामले में हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील योगेश लखानी को अदालत का दोस्त मुक़र्रर कर दिया है जो जाँच दल के बीच के मतभेदों पर बीच-बचाव करेंगें.



25 जनवरी 2011

जैतापुर के बहाने जनता के लोकतंत्र की बात...

आबादी के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा हम करते हैं। लेकिन हमारी आबादी का एक हिस्सा आने वाले गणतंत्र दिवस का विरोध करने वाला है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के जैतापुर इलाके में सत्तर स्कूलों के लगभग ढ़ाई हज़ार विद्यार्थियों ने वहाँ बन रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के विरोध में ऐसा निर्णय लिया है। पिछले दिनों इन विद्यार्थियों ने स्कूल नहीं जाने का निर्णय तब लिया जब जिला प्रशासन ने शिक्षकों को विद्यार्थियों के समक्ष परमाणु ऊर्जा का गुणगान करने के निर्देश दिए थे। पूरे देश में एक बड़ा संघर्ष हर तरफ़ चल रहा है। एक ऐसा संघर्ष, जिसमें आमलोग अपना लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे हैं तो सरकार अपने लोकतंत्र की दुहाई दे रही है। जनता और सरकार के लोकतंत्र में एक बुनियादी फ़र्क़ है। जनता के लिए लोकतंत्र का मतलब मूल्यों पर आधारित वह सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें भलाई बिना भेदभाव के हमेशा आमलोगों की होती है। लेकिन, इसके ऊलट सरकार के लिए लोकतंत्र का मतलब बस अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए चुनावी राजनीति के गुणा-गणित तक ही सीमित होकर रह गया है। सरकार कोई भी हो, उनके लिए मुख्य मुद्दा है विकास। और, विकास की अंधी दौड़ ने हमारे समय में समाज के तमाम घटकों और खासतौर से शासन व्यवस्था से लोकतांत्रिक मूल्यों को बड़े जबर्दस्त तरीके से ग़ायब किया है। यक़ीनन यह लोगों के लिए चिंता का एक गंभीर विषय बनकर रह गया है। इस दौड़ में अब तक किन लोगों का विकास हुआ है और किनका विनाश, यह बात अब किसी से छुपी हुई नहीं है। तथाकथित विकास की राह पर जनहित के परखच्चे उड़ाते हुए सरकारों को लोकतंत्र की कोई परवाह नहीं है।
आज देश में अलग-अलग तरीकों से लोग अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लड़ रहे हैं। जैतापुर के लोगों के बीच भड़के गुस्से का कारण यह है कि सरकार जैतापुर में दुनिया में सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाले संयंत्रों को लगवाने वाली है। जहाँ-जहाँ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लगाए जा रहे हैं या लगाने की योजना है, वहाँ के लोगों के बीच अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा का एक भयानक माहौल गहराया हुआ है। इन इलाकों में परमाणु ऊर्जा के लिए संयंत्र लगाने से रोकने का मामला यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए अपने जीवन की रक्षा के साथ-साथ अपने लोकतंत्र की रक्षा करने का भी है। यह कौन भूला होगा कि किस तरह से सन २००७ में देश की बड़ी आबादी भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के ख़िलाफ़ थी। वामदलों ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और संसद में लगभग ४८ फीसदी से अधिक सांसदों के मुख़ालफ़त के बाद भी सरकार ने परमाणु-ऊर्जा के लिए अमेरिका के साथ समझौते किए। पर लोग महसूस करते है कि संसद में बैठे मुट्ठी भर लोग उन लोगों की ज़िंदगी के बारे में फैसले नहीं ले सकते है। उन्हें पता है कि लोकतंत्र का अस्तिव केवल संसदीय शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि अधिक से अधिक लोगों के हित में ही ज़िंदा रह सकता है।
लोग लड़ इसलिए रहे हैं कि क्योंकि उन्होने देखा हैं कि कैसे कालापक्कम, तारापुर, बुलंदशहर और कोटा में स्थापित परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटनाएँ हुईं। जिससे मोटे तौर पर आजतक लगभग ९१० मिलियन अमेरिकी डॉलर के नुक़सान का बोझ देश के सार्वजनिक ख़ज़ाने को झेलना पड़ा। और तो और, इसके अलावा जनजीवन, पर्यावरण और जन स्वास्थ्य पर पड़ रहे दूरगामी कुप्रभावों की गणना की जानी तो अब तक बाकी है। इससे सबक लेने के बजाय सरकार देश में कई जगहों पर परमाणु ऊर्जा से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को स्थापित व क्रियाशील करने के लिए जी-जान से जुटी हुई है। तमिलनाडु के कुडानकुलम और कालापक्कम, गुजरात के काकरापाड़ व राजस्थान के रनाटभाटा और बांसवारा में कई संयंत्र निर्माणाधीन हैं। कुडानकुलम, कर्नाटक के कैगा और महाराष्ट्र के जैतापुर में और २१ संयंत्रों को लगाने की योजना स्वीकृत की गई है। कई अन्य इलाकों व संयंत्रों के लिए भी योजनाएँ प्रस्तावित हैं।
सत्तारूढ़ काँग्रेस ने लोगों के गुस्से को ठंडा करने के लिए एक दल को जैतापुर भेजने का फैसला लिया था, लेकिन वे उन गड़बड़ियों के कैसे सुधार पायेंगे, जो सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाने के लिए की हैं। अध्ययनों के आधार पर यह खुलासा किया गया कि इसके लिए गलत तरीके से बंज़र बता कर लगभग हज़ार एकड़ उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। दूसरा, जैतापुर पूरी तरह से एक भूकंप संभावित इलाका है, यानि भूकंप आने पर रेडियोधर्मी रिसाव से भयानक जान-माल का नुक़सान लंबे समय तक होता रहेगा। दुर्घटना के कारण नियंत्रित नाभिकीय अभिक्रियाएँ यदि अनियंत्रित हो गई तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के तर्ज़ पर ये संयंत्र अपने देश में फटने वाले परमाणु बम सरीखे हो सकते हैं। डर और बढ़ जाता है, जब पता चलता है कि जिस फ्रांसिसी कंपनी के गठजोड़ से यह परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा रहे है, सुरक्षा को लेकर उनका रिकॉर्ड बुरा रहा है। तीसरा, यह पर्यावरण और इससे जुड़े जीव और वनस्पति को भी यह बुरी तरह प्रभावित करेगा। इसका समुद्र से बहुत अधिक मात्रा में पानी लेना और उपयोग के बाद खौलते हुए पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से कोंकण से सटा हुआ पूरा समुद्री इलाका समुद्री-जीवों के श्मशान में तब्दील हो जायेगा और इससे कोंकण का मौज़ूदा प्राकृतिक स्वरूप भहरा जायेगा। मतलब यह है कि वहाँ, भविष्य में, किसान और समुद्र पर आश्रित लोगों का, खासकर मछुआरों का भूखों मरना साफ़ दिख रहा है। चौथा, सरकार ने परमाणु संयंत्रों से निकले रेडियोधर्मी कचरे से निबटारे का कोई ऐसा सूत्र जनता को नहीं बताया, जिससे लोग सहज महसूस कर सकें। जैतापुर में परमाणु संयंत्रों को असुरक्षित बताने पर देश-विदेश में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस को दिए जाने वाले सहायता राशि पर एनपीसीआईएल ने रोक लगा दिया है। विरोध के सभी स्वरों को सरकार अपने संरचनात्मक और राजकीय हिंसा का शिकार बना रही है। जो लोग सरकार की राय से सहमत नहीं हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन पर फर्जी मुकदमे थोपे जा रहे हैं।
परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए यों जनता के लोकतंत्र पर सरकार के जो हमले हो रहे हैं, उनके कारणों को समझना ज़रूरी है। कौन नहीं जानता कि पेट्रोल और कोयले दुनिया से जल्द ही खत्म हो जायेंगे? ग़ौरतलब है कि बिजली और पेट्रोल की खोज से पहले भी मानव-समाज, संस्कृति और उसकी इहलीला तो फल-फूल ही रही थी और आज भी दुनिया भर की एक बड़ी आबादी इन सुविधाओं से महरूम है। भविष्य में भी रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों जैसे कि पवन ऊर्जा या सौर्य ऊर्जा से काम लिया जा सकता है। लेकिन, छोटे-बड़े कल-कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा की माँग बिना पेट्रोल और कोयला के पूरी नहीं हो पायेगी और ऊर्जा के बड़े स्रोतों के अभाव में मौज़ूदा व्यवस्था पूरी तरह ढ़ह जायेगी। ऐसे में पूँजीपतियों का दुनिया भर में फैला गोरखधंधा और विश्व राजनीति में गहरी पैठ को हवा होने से कोई नहीं रोक पायेगा। तो ऊर्जा को लेकर पूँजीवाद की चिंता उनकी पूरी वज़ूद से जुड़ी हुई है। अगर वे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की एक क़ामयाब संरचना नहीं खड़ी कर पाए तो उनकी सत्ता का बिला जाना तय है। उन्हें परमाणु ऊर्जा एक बेहतर विकल्प दीख रहा है। परमाणु ऊर्जा परियोजना शुरू करने की सरकारी छटपटाहट ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत की संरचना को जैसे तैसे, बड़ी जल्दबाज़ी में खड़ा करने की ज़द्दोज़हद है और इसके बरअक्स बेचारी मज़लूम, पर मेहनतकश आवाम अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।

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24 जनवरी 2011

जुर्माना भरने का नया कॉरपोरेट पाठ

-दिलीप खान

लवासा परियोजना के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय की हालिया पेशकश कि जुर्माना अदायगी के साथ कंपनी अपने काम को चालू रख सकती है, भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट गठजोड़ को नए सिरे से रेखांकित करती है. यह पेशकश अपने में नायाब है. मंत्रालय का स्पष्ट मानना है कि इस परियोजना में नियमों की अनदेखी की गई है और इस बयान से ठीक पहले तक जयराम रमेश कई बार लवासा में तत्काल काम रोकने का फ़रमान सुना चुके थे. हाल के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय नियमों को लांघने वाली ऐसी कई परियोजनाओं को काला झंडा दिखा चुका हैं जिसमें शुरुआती चरण का काम खत्म हो चुका था. पास्को, नियामगिरी से होते हुए यह लकीर अरुणाचल प्रदेश तक जाती है, जहां करोड़ों रुपए दांव पर लगे थे. लेकिन लवासा में जो बुनियादी फ़र्क है वह यह कि इसमें सीधे तौर पर राज्य के कई रसूखदार नेताओं के हित दांव पर है.
इस घोषणा से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी नियम का उल्लंघन करने के बाद पैसा अदायगी से उसे ढंका जा सकता है. संवैधानिक व्यवस्था के मुतल्लिक तो ऐसा कई बार जाहिर हुआ है कि व्यावहारिक रूप से इसके क्रियान्वयन में कई जगह समानता नहीं हैं लेकिन जुर्माना अदायगी का भाव कुछ इस तरह है जैसे किसी आपदा के समय राज्य पीड़ित नागरिकों को लाख-दो लाख देकर उनके दुःख को हरना चाहती हो अथवा किसी नागरिक को ग़लत जुर्म में सजा देने के बाद कुछ पैसे दे दिया जाता हो. यह संविधानेत्तर व्यवस्था है और जुर्माना के आधार पर यदि देश में परियोजना चालू रखने की व्यवस्था की यहां से शुरुआत होती है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह एक तोरण द्वार खोलने जैसा होगा. पॉस्को या फिर वेदांता क्या जुर्माना भरने से हिचकेंगे? नियामगिरी में संगठित प्रतिरोध के बाद जिस तरह राजनीतिक हलकों इसकी आवाज़ गूंजी उससे मंत्रालय के लिए कार्रवाई करना ज़रूरी हो गया था. पॉस्को और वेदांता एक तरह से कॉरपोरेट लूट के पर्याय के रूप में प्रकट हुए थे, ठीक उसी तरह जैसे कर्नाटक के रेड्डी को खनन का प्रतीक माना जाता है. यह अकारण नहीं है कि लवासा पर टिप्पणी करने के आस-पास ही अनिल अग्रवाल नियामगिरी में अपनी कंपनी वेदांता के लिए वापस काम शुरू करवाने के उद्देश्य से जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत करते हैं, प्रधानमंत्री से मिलते हैं और दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट की दूसरी खंडपीठ भी वेदांता विश्वविद्यालय की सुनवाई से इनकार कर देती है. बहरहाल, वेदांता और पॉस्को पर आए मंत्रालय के फ़ैसले के बाद इन कंपनियों के पक्ष में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का आग्रह कई बार झलका था. साफ़ है कि अग्रवाल हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से ही दिल्ली आए थे.
मुद्दा यह नहीं है कि किसी परियोजना के काम शुरू करने के बाद उसे बंद करने का आदेश सुनाना पूंजी की बर्बादी साबित होगी, असल मुद्दा यह है कि जब ऐसे किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेना अनिवार्य है तो इस उम्मीद में मंजूरी से बचते हुए कि बाद में किसी बिंदु पर समझौता हो ही जाएगा, इसका उल्लंघन करना संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ करना हैं. देश में कई परियोजनाओं को इसी ठसक भरी उम्मीद के साथ शुरू किया जाता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बिना पूर्व अनुमति के काम शुरू हुए हैं और बाद में उन्हें सरकार ने इसी आधार पर नहीं रोका कि यह विकास योजनाओं को हतोत्साहित करना होगा. कुछेक मामलों में तो सरकार संवैधानिक नियमों को छेड़ने वाली कंपनियों की पैरवी करती नज़र आई. नर्मदा घाटी में नियमों के भारी उल्लंघन के मामले आने पर विश्व बैंक ने ब्रेडफ़ोर्ड मोर्स की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी कि वे जांच करके बताए कि विश्व बैंक का भारत को पैसा देना उचित है अथवा नहीं. मोर्स समिति ने जो रपट सौंपीं उसके मुताबिक घाटी में पर्यावरणीय नियमों के छेड़छाड़ सहित विस्थापन के नियमों का भी पालन नहीं हुआ था. भारत उस रिपोर्ट से असंतुष्ट था और इसलिए उसी काम को दुबारा जांचने के लिए पामेला कॉक्स समिति गठित की गई. कॉक्स समिति की भी रिपोर्ट जब मोर्स सरीखा ही रहा तो विश्व बैंक को पैर खींचने पड़े थे.
ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार की जिम्मेदारी संविधान के प्रति हैं अथवा कंपनियों को पैसे डूबने से बचाने के प्रति? यदि विकास के मौजूदा स्वरूप को ही सरकार लागू करवाना चाहती है ऐसे संवैधानिक नियमों को बदल देना चाहिए. लेकिन, दिक्कत यह है कि जनपक्षधरता और पर्यावरणीय चिंता दर्शाने के चलते ये बदलाव मुश्किल हैं. कुछ परियोजनाओं के काम रोकने के संबंध में संसदीय राजनीतिक दलों के बीच ही पर्यावरण मंत्रालय की जिस तरह आलोचना हो रही है, उससे यह संभव भी है कि विकास के लोकप्रिय पैमानों के प्रति मोहाशक्त ये नेता संसद के भीतर बदलाव का एक एजेंडा भी प्रस्तुत करें. वैसे भी सांसदों पर कॉरपोरेट छाप लगातार गहरी होती जा रही है, दूसरे शब्दों में कहे तो कई सांसद ही अब व्यवसायी के रूप में अवतरित हो रहे हैं. लवासा पर लिए गए फ़ैसले के दूरगामी नतीजे होंगे.


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22 जनवरी 2011

स्थाई सदस्यता के लिए राजनीतिक भटकाव


-दिलीप खान
(जनसत्ता में प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप)
पिछले कुछ वर्षों से किसी भी महत्त्वपूर्ण देश के राष्ट्राध्यक्ष के साथ औपचारिक अथवा अनौपचारिक बातचीत में भारत की तरफ़ से एक मुद्दे को बेहद प्रमुखता से रखा जाता है, वह है संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता. एकदम हालिया तौर पर इस स्वर को हमने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, फ़्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी और चीनी प्रधानमंत्री बेन जियाबाओ के भारत यात्रा के दौरान सुना. इस मांग को भारत न सिर्फ़ किसी देश विशेष के साथ पारस्परिक बातचीत में उठाता रहा है बल्कि विभिन्न अंतरराष्ट्रीय गुटों और संगठनों के मंच से भी अपने पक्ष में समर्थन हासिल करने की अपील करता रहा है. फिलवक़्त ठीक इसी तरह की मांग कुछ अन्य देश भी कर रहे हैं. ख़ास तौर पर जर्मनी, ब्राज़ील और जापान. भारत सहित इन तीन देशों ने मिलकर जी-4 नाम से एक संगठन भी बना रखा है जिसका मुख्य लक्ष्य ही संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता हासिल करना है. आम तौर पर जब इस तरह के अंतरराष्ट्रीय गुट बनते हैं तो आर्थिक और सामरिक संबंध इनके केंद्र में होते हैं. जी-4 का केंद्रीय उद्देश्य यह साबित करता है कि दुनिया के ऐसे देश, जो संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्य नहीं हैं और किसी न किसी तरह एक शक्ति के रूप में अपने उभार को देख रहे हैं, वे ’वीटोधारी रेखा’ के अंदर आने के लिए कितने बैचैन हैं! साथ ही, इन उपक्रमों के जरिए ये देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देशों को प्राप्त ’अमोघ हथियार’ वीटो को सैद्धांतिक रूप से वैधता भी दे रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पिछले 60 से भी अधिक वर्षों से सबसे बड़े संस्था के बतौर मान्य संयुक्त राष्ट्र में ढ़ांचागत परिवर्तन को लेकर अब कोई सवाल ही नहीं है. हालांकि यह सवाल कभी था भी नहीं. बस ढांचागत समायोजन की मांग इस रूप में होती रही है कि अधिक शक्ति बटोरने की जुगत में कुछ ऐसे देश जो दुनिया में अपना एक प्रभाव रखते हैं वे शक्तिशाली क्लब में शामिल होना चाहते हैं.
मौजूदा वैश्विक राजनीतिक लक्ष्य और ज़िम्मेदारियों के संबंध में इन देशों की चर्चा को तत्काल यहां छोड़ देते हैं. फिर भी, ऐसे उठने वाले मांगों और इसके पक्ष-विपक्ष में दिए जाने वाले तमाम दलीलों को स्थाई सदस्यता की संरचना के साथ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समीक्षा करने पर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में इन देशों की मांग ग़लत दिशा में हैं. स्थाई सदस्यता चंद देशों की परस्पर-सहमति पर आधारित व्यवस्था है. दरअसल फरवरी 1945 में येल्त्रा सम्मेलन, जिसे क्रीमिया सम्मेलन भी कहा जाता है, में जब स्थाई सदस्यता की बीज बोई गई तो इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ नहीं थे. क्रीमिया में युद्धोत्तर स्थिति में यूरोप के भीतर एक सांगठनिक ढांचा निर्मित करने को लेकर यह प्रयास था, जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के राष्ट्राध्यक्ष एक साथ उपस्थित थे. इन राजनीतिक समीकरणों के बीच रूजवेल्ट ने सोवियत संघ को संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के लिए मना लिया, जिसे सोवियत संघ ने वीटो जैसी किसी शक्ति हासिल होने के शर्त पर स्वीकार किया. सोवियत संघ की इस मांग के पीछे तत्कालीन भू-राजनैतिक परिस्थितियां थीं कि किसी भी अनचाहे प्रस्ताव को पश्चिमी पूंजीवादी देश एक जुट होकर अपने पक्ष में न करवा ले. सोवियत संघ के राष्ट्र संघ से अलग होने के बाद इसकी अप्रासंगिकता ने यह स्पष्ट कर दिया था कि किसी भी संगठन को अंतरराष्ट्रीय होने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि सोवियत संघ उसमें शामिल हो. इस बिनाह पर स्थाई सदस्यता की व्यवस्था की गई. हालांकि अमेरिका और ब्रिटेन अपने भीतर असीमित अधिकार रखने की मंशा पहले से बनाए हुए थे, उन्हें इस तरह एक और बेहतर बहाना मिल गया था. फ़्रांस को इसमें शामिल किए जाने के पीछे जर्मनी के ख़िलाफ़ फ्री फ़्रेंच बलों का बेहद शानदार प्रदर्शन था. इसके अतिरिक्त औपनिवेशिक शक्ति के रूप में फ्रांस यूरोप के भीतर के एक बड़ा बल था.
अब यहां से लेकर आगे की स्थिति को देखें तो यह साफ़ जाहिर होता है कि इन चार-पांच देशों द्वारा लिए गए फैसले को कभी भी इस तरह चुनौती नहीं दी गई कि उनके असीमित अधिकार को न्यून करके अन्य देशों के स्तर पर लाया जाए. अलबत्ता यह ज़रूर हुआ है कि इन शक्तियों को हासिल करने की दावेदारी बढ़ गई है. दबे-खुले स्वरों में यह मांग कुछ समय से हो रही है कि संयुक्त राष्ट्र की पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए जिसमें बलाघात इस बात पर है कि सुरक्षा परिषद के भीतर जितने स्थाई सदस्य हैं वे दुनिया को ठीक तरह से प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं. यह सिर्फ़ कुछ क्षेत्र विशेष के ही देश हैं. मसलन दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया महादेश से एक भी देश इस समूह में शामिल नहीं हैं. या फिर एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले देश भारत को एशिया से एक सदस्य चीन के होने के बावजूद स्थाई किया जाए. दावेदारी साबित करने के लिए पैमाना बनाना बहुत मुश्किल नहीं हैं. अर्थव्यवस्था, क्षेत्र, जनसंख्या, क्षेत्रफल, लोकतंत्र सबकुछ इसके लिए खोला जा सकता है. लेकिन, असली सवाल यह है कि कुछ देशों द्वारा बनाए गए इस सुरक्षा कवच सरीखे व्यवस्था को चुनौती दी जानी चाहिए अथवा राजनीतिक तौर पर इस व्यवस्था के लिए उन देशों को प्रोटेक्ट करते हुए उसमें शामिल होने की गुहार लगाना चाहिए?
भारत जैसे देशों के पास फिलहाल वह क्षमता है कि वे तमाम ऐसे देशों का जो इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, उनकी अगुवाई कर सके. इस काम के लिए भारत स्वाभाविक तौर पर ’तीसरी दुनिया’ के देशों का पसंद भी बन सकता है. जी-77 जैसे समूह में भारत अपनी मज़बूत हैसियत रखता है. यदि इस जगह पर भारत बल लगाता है तो इसे इसमें अधिक स्वीकृति भी मिलेगी और अधिक सम्मान भी. इससे पहले भी ग़रीब मुल्कों ने साथ मिलकर ऐसे कई ढांचों के विरुद्ध लड़ाईयां लड़ी हैं. शीत युद्ध के समय भारत समेत ’तीसरी दुनिया’ के कई ’विकासशील’ देशों ने उसमें शामिल दो गुटों से अलग अपना एक स्वतंत्र गुट बनाया था. इस ज़मीन से साम्राज्यवाद और घटाटोप पूंजीवाद के ख़िलाफ़ कई लड़ाईयां लड़ी गई जिनमें से कुछ में ये जीते औए कुछ में हारे. गुटनिरपेक्ष देशों ने एक समय में यूनेस्को पर इस बात के लिए दबाव बनाया था कि वे तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था को बदलें और सत्तर के दशक में दुनिया के सामने ’नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ पेश की गई. इस व्यवस्था से ऐसा नहीं था कि ’तीसरी दुनिया’ के देशों को कोई बड़ी सफ़लता हासिल हुई. फिर भी इसके सांकेतिक महत्त्व बड़े दूरगामी थे. मसलन इसी के आस-पास इन देशों ने दुनिया भर में असंतुलित सूचना प्रवाह को दुरूस्त करने के लिए ठीक उसी तर्ज पर ’नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था’ बनाने की मांग की. और इसी के मद्देनज़र यूनेस्को ने मैकब्राइड आयोग का गठन किया था, जिसकी संस्तुतियों से खफ़ा होकर अमेरिका ने यूनेस्को की सदस्यता त्याग दी थी.
मौजूदा संकट यह है कि ये तमाम देश अपनी इन इतिहासों से दूर निकल आए हैं. शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही सैद्धांतिक रूप से गुटनिरपेक्षता का औचित्य भी खत्म हो गया और इन देशों के भीतर पल रहे उदार बुर्जुआओं ने पूंजीवाद के नए संस्करण ’वैश्वीकरण’ को अपने-अपने देशों में पैबस्त कराया. अब ये बुर्जुआ ही सही अर्थों में शासक हैं. जाहिर है किसी भी ऐसे ढांचे को चुनौती देने में इन देशों की सत्ता (शासक) हिचकिचाएंगी जो किसी ऐसी ही व्यवस्था की पैदाइश हो जिससे वे खुद फल-फूल रहे हैं.
सोवियत संघ के विघटन के बाद यह साफ़ जाहिर हो गया है कि दुनिया में शक्ति केंद्रण एक खास देश के पास है. लेकिन इन वर्षों में यह भी बेहद स्पष्टता के साथ प्रकट हुआ है कि दुनिया के प्रत्येक हिस्से में कुछ देशों ने आपस में अधिक दुश्मनाना भाव विकसित किए हैं. शीत युद्ध के दौरान गुटबाजी में वैचारिकी अधिक महत्त्वपूर्ण था. वैचारिकी अब गौण हो रहा है. और दुनिया में शत्रुता का पैमाना वापस 20वीं सदी के पूर्वार्ध की तरह हो रहा है. हर देश अपने क्षेत्र विशेष में शक्तिशाली होकर उभरना चाह रहा है. इसे समूचे ग्लोब पर महसूस किया जा सकता है कि अधिकांश देशों के पड़ोसी ही उसके सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर चिह्नित है. वे एक-दूसरे से आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि सैन्य क्षेत्र में आगे निकलने को और प्रत्येक दूसरे को ’कुचलने’ को बेताब नज़र आते है. ऐसे में यह तर्क कितना खोखला लगता है कि सुरक्षा परिषद में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की कमी को दूर करने के लिए हर क्षेत्र से कुछ देशों को इसमें शामिल किए जाने की ज़रूरत है. क्या भारत को स्थाई सदस्यता मिल जाने से यह पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर पाएगा? या फिर जापान को स्थाई सदस्यता मिलने से वह उत्तर और दक्षिण कोरिया का प्रतिनिधित्व कर पाएगा? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बड़े पेंचोखम हैं. जिस जी-4 का भारत सदस्य है और स्थाई सदस्यता के लिए हाथ-पांव मार रहा है, उसके विरोध में दुनिया के कुछ देशों ने एक संगठन बना रखा है जिसे ’सहमति के लिए एकता आंदोलन’ अथवा कॉफी क्लब कहा जा रहा है. जिस तरह जी-4 का केंद्रीय एजेंडा स्थाई सदस्यता हासिल करना है उसी तरह कॉफी क्लब का स्थाई एजेंडा इन्हें ऐसा करने से रोकना है. इसमें स्पेन, इटली, कनाडा, दक्षिण कोरिया, पाकिस्तान, अर्जेंटीना जैसे देश शामिल हैं. तस्वीर बेहद स्पष्ट है. जैसा ऊपर जिक्र किया गया है ठीक उसी तर्ज पर जर्मनी को रोकने के लिए स्पेन, इटली, नीदरलैंड्स जैसे देश हैं, ब्राजील के लिए मैक्सिको और अर्जेंटीना है, भारत के लिए पाकिस्तान है, और जापान के लिए दक्षिण कोरिया. ऐसे में प्रतिनिधित्व की बात कैसे की जा सकती है? क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को और अधिक ’ईमानदार’ बनाने के लिए जी-4 देशों ने यह भी सलाह दी है कि दो अफ्रीकी देशों को भी इसमें शामिल किया जाए लेकिन जब अफ्रीकी संघ में इसके लिए कोशिश हुईं तो मिस्र, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका में से दो को चुनने में संघ असमर्थ रहा. आपसी होड़ कहीं अधिक तीव्र है.

भारत समेत कुछ अन्य देशों को यदि स्थाई सदस्यता मिल जाती है तो इससे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में क्या फर्क आएगा? अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा जिस स्तर की है उसमें इस बात की प्रबल संभावना है कि कुछ और देश इसके लिए कतार में खड़े हो जाएंगे और अपनी दावेदारी के लिए कोई ठोस बहाना भी ढूंढ लेंगे. लामबंदी का एक लंबा दौर चलेगा. यह लामबंदी और प्रतिस्पर्धा उसी तरह की होगी जैसी नाभिकीय हथियारों के मामले में अब तक देखने को मिली है. उत्तरी कोरिया इसलिए बम बना रहा है क्योंकि अमेरिका दक्षिणी कोरिया के साथ सामरिक अभ्यास करता है और अमेरिका के पास नाभिकीय बम है तथा उत्तरी कोरिया अपने को ’सुरक्षित’ बनाए रखना चाहता है! पाकिस्तान के पास इसलिए नाभिकीय बम है क्योंकि वह भारत के पास भी है! जिस तरह सुरक्षा की परिभाषा बदली है और नाभिकीय हथियार के ख़िलाफ़ नाभिकीय हथियार को सुरक्षा माना जा रहा है उसी तरह वीटो शक्ति को लेकर भी इसी तरह की प्रतिस्पर्धा देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं.
ऐसी मांगों के बाद मूल समस्या ढंक जाती है. या यूं कहे कि वह वैध हो जाती है. असल मसला सिर्फ़ यह रह जाता है कि वो शक्ति किसके पास हो. जबकि वास्तव में इसी शक्ति को चुनौती दी जानी चाहिए. यदि वीटो धारी देशों की संख्या बढ़ती है तो इसके दुरुपयोग और भी बढ़ेंगें. वीटो इस्तेमाल के पीछे प्रत्येक स्थाई सदस्य देशों के अपने हित रहे हैं. सोवियत गणराज्य से संबंधित मामले में मोटोलोव ने इतनी दफ़ा वीटो किया कि उन्हें ’मि. वीटो’ कहा जाने लगा. 1970 में अपना पहला वीटो इस्तेमाल करने के बाद से अमेरिका ने 80 से अधिक बार इसे दोहराया है. दसियों बार अंतरराष्ट्रीय मतों को धता बताते हुए उसने इजराइल के मसले पर बेशर्मी से अपने इस अधिकार का इस्तेमाल किया है. मध्य-पूर्व के मामले में अमेरिका पिछले बीस-पच्चीस सालों से बेतरह इसे भांजता रहा है और स्थाई कोटे से बाहर खड़े देशों ने अधिकांश समय इसकी निंदा की है. कई देशों ने इसे इस रूप में भी देखा कि यह दुनिया के चुनिंदा देशों को हासिल अलोकतांत्रिक अधिकार है. ऐसे में वे देश अब यदि खुद वीटो हासिल करने की मुहिम में लग जाए तो जाहिर है कि वे अलोकतांत्रिक होड़ में अपने को न सिर्फ़ शामिल कर रहे हैं बल्कि और आगे के लिए इसकी राह भी खोल रहे हैं.
इज़राइल में सामरिक और युद्ध कारणों से अमेरिकी वीटो ने यह स्पष्ट किया कि संयुक्त राष्ट्र की स्थापना जिस संकल्पना के साथ की गई थी कि युद्धोत्तर समय में यह अंतरराष्ट्रीय शांति और सद्भावना के लिए काम करेगी, अब यह कई मामलों में उसके उलट जा रही है. संयुक्त राष्ट्र सहित दुनिया की तमाम बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को वास्तविक रूप से अमेरिका ही नियंत्रित कर रहा है इसलिए उसे अपने किसी भी फैसले पर इन संस्थाओं की रज़ामंदी की ज़रूरत नहीं मालूम पड़ती. इराक पर हमले की घोषणा करते हुए अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र को यह जानकारी दी थी कि वह चाहे तो अमेरिका के आदेशों का पालन करें या ’अप्रासंगिक’ बन कर रह जाए. संयुक्त राष्ट्र ने अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए चुप्पी बेहतर समझा!
ऐसी स्थिति में यदि कुछ देशों को स्थाई सदस्यता मिल भी जाती है तो यह बहुत साफ़ है कि वे उसी अधिकारभाव और ताकत के साथ वीटो का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे जैसे कुछ ’बड़े’ देश कर रहे हैं. मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य इसके लिए बेहद दुस्साहसी देशों की मांग करता है. इतिहास में देखें तो मंगोलिया के मुद्दे पर सोवियत संघ रिपब्लिक ऑफ चाइना पर दबाव बना चुका है जिसके बाद चीन को अपने वीटो से मुकड़ना पड़ा था. फ़िलहाल अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जो समीकरण हैं उसमें ऐसे दबाव की संभावना पहले की तरह सुरक्षित है. यदि कोई देश अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध सुरक्षा परिषद में वीटो करता है तो बहुत संभव है कि वह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संघ के जरिए उस ख़ास देश पर आर्थिक दबाव बनाए. दरअसल दुनिया में नियंत्रण का असली संस्था संयुक्त राष्ट्र रह ही नहीं गई है. अब नियंत्रण इन्हीं आर्थिक संगठनों के जरिए कायम हो रही है. इन तमाम संस्थाओं का सबसे बड़ा वित्तपोषक और शेयरधारक अमेरिका है. विश्व बैंक का अध्यक्ष पारंपरिक तौर पर कोई अमेरिकी नागरिक ही बनता है. इस संस्था में अमेरिका के पास सबसे अधिक वोटिंग शक्ति है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में किसी भी फैसलों के लिए अमेरिका अकेले पर्याप्त है. संयुक्त राष्ट्र का भी सबसे बड़ा वित्तपोषक अमेरिका है. इन अधिकारों से वह कोई भी कदम उठाने के लिए आज़ाद है. वह इराक का तेल कब्जा कर संयुक्त राष्ट्र का ’सबसे बड़ा वित्तपोषक’ बना रहेगा और इसके जरिए वह फिर ’इराक’ का तेल कब्जाता रहेगा. यह दिलचस्प है कि किसी संस्था के समानांतर कुछ ऐसी संस्थाओं को खड़ा कर दिया जाए कि वह उनके सामने बौनी साबित हो और इन समानांतर संस्थाओं पर मज़बूती से नियंत्रण कायम कर असली संस्था को बिल्कुल पंगु बना दिया जाए.
यदि कोई देश स्थाई सदस्य बन कर भी अपने वीटो का इस्तेमाल आज़ादी से नहीं कर सकता तो स्थाई सदस्यता की इतनी तीव्र मांग बेकार है. इस एक ध्रुवीय युग में वीटो अंततः अमेरिका के पक्ष में ही जाएगा. कई देशों को वीटो मिल जाने के बाद भी विद्रोही साहसिक रवैया दिखाने की कूव्वत उनमें नहीं होगी और साम्राज्यवादी देश यह कहकर अपने को और उदार साबित कर लेंगे कि उन्होंने कुछ अन्य देशों को भी स्थाई सदस्य बनाया. यह अमेरिकी ’लोकतंत्र’ के प्रसार के अभियान को भी प्रमुखता से स्थापित करेगी.
लेकिन एक प्रमुख सवाल यह है कि जो देश पिछले कुछ सालों से स्थाई सदस्यता की मांग कर रहे हैं उनकी प्रकृति किस तरह की है? संयुक्त राष्ट्र की स्थापना को साठ साल से अधिक हो गए हैं लेकिन यह मांग बमुशिल एक दशक पुरानी है. इन वर्षों में भारत और ब्राज़ील ने तेजी से ’आर्थिक विकास दर’ हासिल किया है जबकि जर्मनी और जापान आर्थिक मामलों में पहले से संपन्न माने जाते हैं. यह मतलब निकाला जा सकता है कि आर्थिक मज़बूती इसमें एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व के तौर पर शामिल है. इन देशों के भीतर जो आर्थिक विकास का पूरा ढांचा है वह पूंजीवादी विकास के डॉमिनेंट पैराडाइम मॉडल के जरिए तैयार हुआ है और इसमें वित्तीय क्षेत्र का प्रमुख योगदान रहा है. दुनिया में वित्तीय पूंजी के जरिए ही शक्ति का आभास कराया जा रहा है. भारत वित्तीय अर्थव्यवस्था के क़रीब अपने को पा रहा है. अगर भारत स्थाई सदस्य बनता है तो इसका झुकाव भी ऐसे ही देशों के प्रति अधिक होगा. मतलब स्थाई सदस्य बनने की मांग जिन परिस्थितियों और पैमानों के आधार पर हो रही है वह पूंजीवाद समर्थक माहौल बनाने का ही काम करेगी और यही इनकी राजनीति का भी हिस्सा बनेगी. ये मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले देश किनके पक्ष में खड़े होंगे यह पता लगाना मुश्किल नहीं रह गया.

’तीसरी दुनिया’ के देशों के साथ एक बड़ी समस्या जो पिछली सदी से ही देखने को आ रही है कि वे कई महत्त्वपूर्ण मामलों में अपना मॉडल तैयार करने में विफल रहे हैं और पश्चिमी देशों के मॉडल द्वारा फैलाए गए गोट पर ही अपना गोट फेंकते रहे हैं. यदि लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश खुद ही विशेषाधिकार इस्तेमाल करने की इच्छा रखने लगे तो जाहिर है वे उस विशेषाधिकार की राजनीतिक जाल में फंस गए हैं. किसी भी संस्था का जब तक हिस्सा बनकर और उसके नियमों को परम सत्य मानकर कोई योजना बनाई जाएगी तब तक मौलिक ढांचा और विचार प्रस्तुत करने में समस्याएं आती रहेंगी. स्थाई सदस्यता के मामले में भी यही बात देखने को मिल रही है और कोई भी देश इस नियम को चुनौती देने को अभी तैयार ही नहीं दिख रहा है, गोया तमाम कोशिशों के बावज़ूद यह नियम अपरिवर्तनीय हो.

पूंजीवाद में ’देयर इज नो अल्टरनेटिव’ का प्रचार जिस रूप में किया गया उसकी पृष्ठभूमि इस बिसात पर बनी थी कि पूंजीवाद के भीतर ही लोगों को इतने विकल्प दे दिए जाए कि वे उससे बाहर निकल कर सोचने की जहमत ही न उठाए. जिस सांस्कृतिक प्रभुत्व में भारत अभी है और जिस ओर यह जा रहा है उससे साफ़ प्रतीत हो रहा है कि यह अधिकांश मामलों में पश्चिमी देशों द्वारा बनाए गए ढांचों को अपनाएगा और उसी में अपनी जगह तलाशेगा. अमेरिकी समर्थन हासिल करने के लिए भारत जितनी कोशिशें कर रहा है, और जितनी परस्पर-विरोधी बातें वाशिंगटन कैंप से देखने-सुनने को आ रही है, उसके बावजूद बहुत संभव है कि अमेरिका निकट भविष्य में भारत के पक्ष में खुलकर खड़ा हो जाए, क्योंकि हाल-फिलहाल भारत अमेरिका का अच्छा सहयोगी है और अमेरिका को भी सबप्राइम मॉर्गेज संकट के समय मंदी से उबरने के लिए भारत और चीन जैसे देशों की ओट की ज़रूरत महसूस हुई थी. इसके अतिरिक्त यह भी साफ़ जाहिर हो रहा है कि जिस तरह की वैचारिक वर्चस्व (हेजेमनी) क़ायम करने की पश्चिमी देशों की मंशा थी उसमें वे बेहद सफल रहे हैं. इस तरह की मांगें उस हेजेमनी की सफलता को दर्शाती हैं.
पूंजीवादी साम्राज्यवादी देशों के मॉडल के साथ यह चालाकी जुड़ी हुई है कि वे अपने हित में स्पेस बनाए रखते हैं. मसलन विश्व व्यवस्था के लिए वैश्वीकरण के साथ जब वे नया मॉडल पेश कर रहे हैं तो द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के इस साठ साल पुराने मॉडल, संयुक्त राष्ट्र, में फेरबदल करने को तैयार क्यों नहीं दिखते? वैश्वीकरण की स्थिति में तो फ़िर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए संगठनों को खड़ा किया जाना चाहिए था. लेकिन अपने द्वारा प्रस्तुत वैश्वीकरण के दौरान वे ऐसी नकली बहसों में लोगों को उलझाकर रख देते हैं कि असल सवाल ढंका रह जाता है. परिवर्तन के बदले समायोजन होता है. ऐसे ही किसी समायोजन के तहत भविष्य में यदि भारत सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनता है तो यह इसका एक झटके में एक पाले से दूसरे पाले में पलायन होगा जो किसी संस्था के भीतर हैसियत बदलने से अधिक वैचारिक पलायन को रेखांकित करेगा.

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19 जनवरी 2011

ये लो राजद्रोह, वो लो राजद्रोह

-दिलीप ख़ान

डॉ. बिनायक सेन, नारायण सान्याल और पियूष गुहा को छत्तीसगढ़ के ज़िला न्यायालय में जिन आधारों पर राजद्रोही करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई, उनको देश के अधिकांश प्रगतिशील नागरिकों ने बेबुनियाद बताते हुए आंदोलन छेड़ रखा है. पहली बार इतने मुखर रूप से न्यायालय के फ़ैसले का मुखालफ़त हो रहा है. न्यायालय खुद इस बार कटघरे में है. देश में सैंकड़ों जगहों पर प्रदर्शन हुए हैं और लगातार हो रहे हैं. फ़ैसले में न्याय और क़ानून की न्यूनतम वस्तुनिष्ठता भी जाहिर नहीं हुई. ’आईएसआई’ और ’दास कैपिटल’ जैसे हास्यास्पद प्रसंगों से भरे इस फ़ैसले में कई लचड़पन हैं. मसलन कई अलोकतांत्रिक क़ानूनों के साथ जिस ’छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून’ के तहत मामला सिद्ध बताया गया है उसमें एक ही धारा के दो ऐसी उपधाराओं को एक साथ बिनायक सेन पर आरोपित किया गया, जिसमें एक प्रतिबंधित दल के सदस्यों के लिए है और दूसरी ग़ैर-सदस्यों के लिए. इस फ़ैसले में जज साहब द्वारा अधिकाधिक धारा लगा देने की इतनी अकुलाहट झलक रही है कि वे मामूली सतर्कता बरतना भी भूल गए कि एक व्यक्ति एक साथ किसी पार्टी का सदस्य और ग़ैर-सदस्य कैसे हो सकता है?
डॉ. बिनायक सेन पर लगाए गए आरोपों के मद्देनज़र क़ानूनी लचड़पन पर अनेक सवाल उठे हैं और साथ ही इस बात को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि राजद्रोह की परिभाषा क्या ब्रिटिश औपनिवेशिक जमाने का ही देश में अब भी चलता रहेगा? देश में पिछले कुछ वर्षों में राजद्रोह के आरोप जिन लोगों पर लगाए गए हैं उनकी मामूली पड़ताल ही इस बात को साबित कर देती है कि देश में लोकतंत्र का स्पेस कितना बचा है और राजद्रोह जैसे जुमले का इस्तेमाल किस तरह हो रहा है? जानी-मानी लेखिका अरुंधति राय और सैयद अली शाह गिलानी (जो ऐसे आरोपों को रूटीन सरीखा मानते हैं) सहित पांच लोगों पर दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार आज़ादी: द ओनली वे में कश्मीरी आज़ादी के पक्ष में बयान देने के बाद राजद्रोह के आरोप लगाने के बाद अरुंधति ने अपने एक लेख में बताया कि जिन तथ्यों के आधार पर वे कश्मीर की आज़ादी की वकालत कर रही है और जिनको आधार बनाते हुए उन पर राजद्रोह मढा जा रहा है, उस तर्ज पर जवाहर लाल नेहरू भी राजद्रोही की श्रेणी में आते हैं! राजद्रोह के आरोप लगाने के पक्ष में बयान देने वाले तमाम ’बुद्धिजीवियों’ और उन्मादी लोगों की जमात उनके तथ्यों का जवाब देने के बजाए फिर से यही रट लगाए रखे कि राजद्रोह तो उन पर लगना ही चाहिए!
अरुंधति राय के मामले में जो संवैधानिक अधिकार दांव पर था, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित हैं. देश में बोलने-लिखने पर राजद्रोही क़रार देने के मामले ख़तरनाक हद तक बढ़ते जा रहे हैं. बिनायक सेन की रिहाई को लेकर जब महाराष्ट्र के वर्धा में जिस दिन प्रदर्शन आयोजित होना था उससे एक दिन पहले वर्धा रेलवे स्टेशन से एक पत्रकार सुधीर धावले को राजद्रोही बताते हुए गिरफ़्तार किया गया. सुधीर मुंबई से ’विद्रोही’ नामक पत्रिका निकालते थे और स्वतंत्र पत्रकारिता करते थे. दलित, आदिवासी मसलों पर उन्होंने कई ऐसे असुविधाजनक मामले उजागर किए थे जो सत्ता के लिए परेशानी पैदा करने वाले थे. वर्धा में भी वो दलित विषय पर केंद्रित एक संगोष्ठी में हिस्सा लेने आए थे. यूएपीए एक अमोघ हथियार है, किसी पर भी दाग देने वाला. सुधीर धावले इसी के शिकार हुए. इस अलोकतांत्रिक क़ानून का इस्तेमाल बढता जा रहा है. राज्य एक तरफ़ उत्तरोत्तर लोकतांत्रिक होने का दावा कर रहा है (जिसमें बलाघात इस पर दिया जा रहा है कि चीन जैसे कम्युनिष्ट देश में बोलने की इतनी आज़ादी भी नहीं है जितनी भारत सरकार हमें-आपको दे रही है), दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों में यूएपीए के इस्तेमाल की बारंबारता भी बढ़ती जा रही है. इस विरोधाभास पर शब्द खरचना अपने को खर्चीला साबित करना होगा! इसे कुछेक उदाहरणों से ही प्रमाणित किया जा सकता है. मसलन, कश्मीर विश्वविद्यालय के एक सहायक प्रोफ़ेसर नूर मोहम्मद भट्ट को सिर्फ़ इस बिनाह पर राजद्रोह के आरोप के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया कि उसने कश्मीर में चल रहे मौजूदा प्रदर्शनों पर प्रश्न-पत्र तैयार किया है. प्रश्न-पत्र के जिस बिंदु पर पुलिस ने ज़ोर दिया कि इसमें ’पत्थर फेंकने वाले समूहों’ पर टिप्पणी करने को मांगा गया था कि वे देशभक्त हैं अथवा नहीं, वह एक मत आधारित प्रश्न था. राजद्रोह के समर्थन वाले लोग देशभक्ति की दुहाई देते हैं. क्या हमारी देशभक्ति इतनी कमज़ोर है कि एक प्रश्न से यह ढह जाएगी? देशभक्ति निर्मित करने का तरीका क्या यह है कि नागरिकों पर प्रतिमत जाहिर करने के लिए भयारोहण किया जाए? देशभक्ति के भाव ऐसे नहीं पनपते, यह कोई थोपने वाली चीज़ नहीं है. भट्ट को बाद में छोड़ दिया गया. राजद्रोह टाय-टाय-फ़िस्स हो गया. पुलिस का मकसद ही सिर्फ़ यह था कि लोगों के मन में एक डर घर करे. राज्य इसमें सफ़ल रहा. एक सप्ताह टिकाऊ राजद्रोह, दो सप्ताह टिकाऊ राजद्रोह के दिलचस्प मामले देश में नमूदार हो रहे हैं.
पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता पहले से निशाने पर थे, अब शिक्षकों को शामिल करने का नया चलन शुरू हुआ है. भट्ट के साथ-साथ कश्मीर विश्वविद्यालय के ही एक प्रोफ़ेसर प्रो. शाद रमज़ान को गिरफ़्तार (राजद्रोह नहीं लगाया गया; राजद्रोह बनता ही नहीं था) किया गया. प्रोफ़ेसर की ग़लती यह बतायी गई कि उन्होंने विद्यार्थियों को परीक्षा में अंग्रेज़ी से उर्दू में एक ऐसा परिच्छेद अनुवाद करने को दिया जिसमें महिलाओं के स्तन का ज़िक्र था. इस परिच्छेद में जीववैज्ञानिक तरीके से महिला स्तन का ज़िक्र किया गया था और इस तरह के विवरण छात्र-छात्राएं अपने स्कूल के दिनों में ही पढ़ चुके होते हैं. अब पुलिस यह तय करने लगी है कि विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर किस तरह के प्रश्न पूछेंगे? इस मामले में डीआईजी अब्दुल गनी मीर की चिंता का दायरा यह था कि इसे (प्रश्न पत्र बनाने की प्रक्रिया) अकेले प्रो. शाद रमज़ान नहीं कर सकते तथा इस घटना में कुछ और लोग भी शामिल रहे होंगे और उन शामिल लोगों को भी नहीं छोड़ा जाएगा.
पुलिस चाहे तो वह सबको पकड़ सकती है. उसको हासिल कुछ ऐसी शक्तियों के प्रतिफ़लन में ये वाक्य निकलते हैं जिसके तहत अपराधी साबित करना चना खाने जितना आसान है. आफ़्सपा, यूएपीए, छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून........ये कुछ बानगियां है. दरअसल मामला यहीं तक सीमित नहीं है कि पुलिस किसे गिरफ़्तार कर रही है और किसे छोड़ रही है. मामला इससे आगे है. पुलिस खुद गिरफ़्तार नहीं करेगी, मां दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच आपको धमकी देगी तो आप किनके शरण में जाएंगे? छत्तीसगढ़ के तीन पत्रकारों अनिल मिश्रा, यशवंत यादव और एनआर पिल्लई को सबक सिखाने की धमकी देने वाले पर्चे, जिसे मां दंतेश्वरी सुरक्षा समिति ने जारी किया था, के आलोक में पुलिस का प्रथम दृष्टया कहना था कि यह तो उनके ही लोग हैं. बाद में मामला अधिक उछलने पर पुलिस अब इन्कार करती फिर रही है कि वह किसी मां दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमानी मंच को नहीं जानती. अनिल मिश्रा और यशवंत यादव को इससे पहले भी पुलिस धमकियों का सामना करना पड़ा है. एक लंबा सिलसिला है, पत्रकारों की गिरफ़्तारी का. साल-दर-साल आंकड़ें बढ़ते जा रहे हैं.
(देश में अघोषित आपातकाल पिछले कुछ सालों में गहन होता जा रहा है. पत्रकारों के लिए यह बेहद मुश्किल घड़ी है. ख़ासकर पत्रकारों और मोटे तौर पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी पर यह लेख डेढ़ साल पहले लिखा गया था, जिसमें दो बार थोड़ा-थोड़ा संशोधन किया गया. संशोधन मासिक पत्रिका ’सबलोग’ के लिए था, यहां से लगभग वही सामग्री पेश की जा रही है...)

’दस्तक’ पत्रिका की संपादक सीमा आज़ाद को पूर्व छात्र नेता विश्वविजय और सामाजिक कार्यकर्ता आशा के साथ इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से पुलिस ने बीते साल बिना कोई कारण बताए उस समय उठा लिया था जब वे दिल्ली विश्व पुस्तक मेला से लौट रही थीं. सीमा की गिरफ़्तारी जनसरोकार की पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों, जिनको पिछले कुछ वर्षों में नियोजित तरीके से आरोप मढ़ कर गिरफ़्तार किया गया हैं, की महज एक अगली कड़ी है. सीमा की पृष्ठभूमि जानने के बाद कोई भी सजग व्यक्ति यह आसानी से कयास लगा सकता था कि पुलिस उस पर किस तरह के आरोप लगाने वाली है? पीयूसीएल- जिसकी उत्तर प्रदेश इकाई की वे संगठन मंत्री हैं- ने उनकी गिरफ़्तारी के ठीक पहले के दिनों में इलाहाबाद और कौशाम्बी के कछारी इलाकों के बालू मज़दूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के ख़िलाफ़ लगातार आवाज़ उठाया. इस पूरी प्रक्रिया में सीमा आज़ाद की सक्रिय भूमिका रही. इस दौरान कौशाम्बी के नंद का पुरा गांव में पुलिस और पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर दो बार बर्बर तरीके से लाठीचार्ज किया, जिसमें सैकड़ों मज़दूर घायल हो गए. इसी गांव में पुलिस ने भाकपा (माले)-न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय में आग लगा दी. उनके नेताओं को कई दिनों तक जेल में बंद कर रखा गया. सीमा आज़ाद ने मानवाधिकार दमन के इस मसले पर एक रिपोर्ट जारी की. अचानक इस घटना के कुछ दिनों बाद उन्हें 7 फ़रवरी 2010 को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर आरोप लगाया गया कि वे इस पट्टी में नक्सलियों के लिए आधार तैयार कर रही थीं और उसके पास से बड़े पैमाने पर नक्सली साहित्य बरामद हुए हैं. ये दोनों आरोप बहुत ही अमूर्त किस्म के हैं, जिसके तहत आसानी से किसी को गिरफ़्तार किया जा सकता है. पत्रकार संगठन जेयूसीएस ने पुलिस से मांग की कि पुलिस नक्सली साहित्य के तहत आने वाले ’टेक्स्ट’ को सार्वजनिक करे. यह लोगों के सामने स्पष्ट हो कि पुलिस किन-किन किताबों को नक्सली साहित्य के दायरे में मानती है. कहना न होगा कि यह महत्वपूर्ण मांग है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में गिरफ़्तार किए गए ज़्यादातर पत्रकारों पर मढ़े गए आरोपों के साथ इस आरोप को भी नत्थी कर दिया जाता है कि उनके पास से प्रतिबंधित नक्सली साहित्य बरामद हुए हैं. असहमतियों को नक्सलवाद से जोड़कर पुलिस बहुत सुरक्षित महसूस करती है. ’नक्सली’ को लेकर आम जनता में जो तस्वीर बनाई गई है, उस हिसाब से जनता का विश्वास जीतने के लिए यह आरोप बहुत कारगर सिद्ध होता है. पत्रकारीय लेखन की स्थित यह है कि मज़दूरों के दमन के बारे में लिखना-पढ़ना किसी पत्रकार को “एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट” बना देता है. और सत्ता के लिए “एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट” परेशानी पैदा करने वाला होता है.
वर्तमान समय में ’एक्टिविस्ट’ के मायने में लगातार नकारात्मक ध्वनि भरने की कोशिश की जा रही है. मालेगांव बम विस्फोट और मुंबई बम विस्फोट के एक आरोपी के केस लड़ रहे (वकील) शाहिद आज़मी की 12 फरवरी 2010 को मुंबई में हत्या कर दी गई थी. वे बाटला हाऊस कांड की जाँच के लिए गठित आठ सदस्यीय वकीलों के पैनल के एक सदस्य थे. आज़मी के बारे में दो बातों पर प्रमुखता से चर्चा की गई कि वे ज़्यादातर ’आतंकवादियों’ के केस लड़ते थे और उनको पहले ’टाडा’ के तहत गिरफ़्तार किया जा चुका है. दोनों बातें एक हद तक सच भी है. यह तथ्य है कि उन्हें ’टाडा’ के तहत गिरफ़्तार किया गया था. लेकिन उनकी (फ़र्जी) गिरफ़्तारी कानूनसम्मत नहीं होने के कारण पुलिस को उन्हें छोड़ना पड़ा था. इसी घटना के बाद से शाहिद ने वकालत की पढ़ाई की और ऐसे लोगों –जिन्हें आतंकवादी बताकर फ़र्जी तरीके से पकड़ लिया जाता है- का केस लड़ने लगे. शाहिद की व्याख्या कई लोग इस तरह करते थे मानों वे आतंकवादियों को दोषमुक्त करने के लिए ही वकालत कर रहे हों. देशद्रोह कर रहे हों. बेकसूर लोगों को गिरफ़्तार कर पहले आतंकवादी के तौर पर फिर उसके केस लड़्ने वाले को आतंकवादियों के हमदर्द के तौर पर प्रचारित किया जाना और यहीं पर एक्टिविस्ट शब्द को जोड़कर इसके अर्थ को अपने अनुसार ढाल दिया जाना एक बारीक परन्तु नियोजित राजनीति के तहत हो रहा है. इसमें किसी पेशे के भीतर हासिल स्वतंत्रता पर हमले किए जा रहे हैं. सीमा आज़ाद और शाहिद आज़मी के आस-पास ही 2 फरवरी 2010 को पीपुल्स मार्च के बांग्ला संस्करण के संपादक स्वपन दासगुप्ता की कलकत्ता के एसएसकेएम अस्पताल में मौत हो गई. वे इस दौरान पुलिस हिरासत में थे. इस मुद्दे पर राज्य की तरफ़ से लगातार एक जिद्द भरी बातें की गई कि उनकी मौत के कारण को बीमारी माना जाए. विभिन्न जनसंगठनों ने इस मामले को हिरासत की मौत माना. 59 वर्षीय दासगुप्ता को 6 अक्टूबर 2009 को माओवादी से संबंध रखने के आरोप में यूएपीए-1967 की धारा 18, 20 और 39 (जिसमें षडयंत्र, आतंकवादी कैंप स्थापित करने और आतंकवादी संगठन को मदद करने का उद्धरण है) और भारतीय दंड संहिता की धारा 121, 121(अ), 124(अ), के तहत गिरफ़्तार किया गया था. पीपुल्स मार्च के किसी संपादक की गिरफ़्तारी का यह दूसरा मामला था. केरल में गोविंदन कुट्टी को इससे दो साल पहले लगभग इसी तरह के आरोप लगाते हुए गिरफ़्तार किया गया था और बाद में आरोप सिद्ध नहीं होने पर उन्हें छोड़ना पड़ा था.
कोलकाता पुलिस ने पीपुल्स मार्च में प्रकाशित सामग्रियों को राजद्रोही करार देते हुए यूएपीए के तहत न्यायिक हिरासत में भेजने से पहले 28 दिनों तक स्वपन दासगुप्ता को भवानी भवन और लाल बाज़ार पुलिस थाने में रखा. इस दौरान उन्हें भीषण यातनाएँ दी गईं. उन्हें कँपकपाने वाले ठंड के महीनों में नंगे फर्श पर सोने को मज़बूर किया जाता रहा. उन्हें कई रातों तक सोने नहीं दिया गया. उनके यह कहे जाने पर भी कि वे अस्थमा के मरीज है और उन्हें सोने के लिए रजाई और बिछावन की आवश्यकता है बात अनसुनी कर दी गई. बाद में गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर उन्हें 17 दिसंबर को एसएसकेएम अस्पताल ले जाया गया. बंद मुक्ति कमेटी के सचिव छोटन दास का कहना था कि दासगुप्ता पुलिस यातना के कारण ही बीमार पड़े. बीमार पड़ने के बाद न तो पुलिस और न ही जेल अधिकारी उन्हें उचित मेडिकल सुविधाएँ उपलब्ध करा रहे थे. गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर भी उन्हें जमानत नहीं दी गई. यह हिरासत में मौत का मामला है. इन गिरफ़्तारियों ने हमारे सामने कई सवाल खड़े किए हैं.
20 सितंबर 2009 को उड़ीसा के गजपति ज़िले में एक उड़िया अख़बार ’संबाद’ के संवाददाता लक्ष्मण चौधरी पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए उड़ीसा पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया. पुलिस ने लक्ष्मण के पास से माओवादियों की चिट्ठी बरामद होने का दावा किया है और इस आधार पर भारतीय दंड संहिता की धारा 120(ब) और 124(अ) के तहत उस पर मामला दर्ज कर दिया गया. तो क्या किसी के पते पर अगर कोई माओवादी चिट्ठी भेज दे तो पुलिस इस बिना पर उसे गिरफ़्तार कर सकती है? कैसे पता चलेगा कि चिट्ठी किसी माओवादी ने ही भेजी है? और अगर माओवादी ने चिट्ठी भेजा भी तो इससे यह प्रमाणित तो नहीं होता कि चिट्ठी पाने वाला भी माओवादी ही है. एनडीटीवी उड़ीसा के ब्यूरो प्रमुख संपद महापात्र का कहना है कि लक्ष्मण के पास से वही चिट्ठी बरामद की गई है जो उनके सहित दर्जनों पत्रकारों को भी भेजी गई थी. माओवादी अपनी प्रेस विज्ञप्ति समय-समय पर पत्रकारों को भेजते रहते हैं. यहाँ कई महत्वपूर्ण सवाल उठते है. मसलन, क्या राज्य से असहमति रखने वाले लोगों/विचारों/संगठनों को अपना पक्ष रखने की आज़ादी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में नहीं है? अगर माओवादी इस शासन प्रणाली के विरोध में खड़े नज़र आते हैं तो क्या यह पर्याप्त कारण बनता है कि उसको अपना मत रखने या इस विरोध का कारण बताने का अवसर ही न दिया जाए? फिर लोकतंत्र में असहमति को व्यक्त कैसे किया जाए? असहमति अगर व्यक्त न हो और राज्य से असहमत होने पर भय का अनुभव हो तो लोकतंत्र के क्या मायने है? राज्यसत्ता कैसे यह तय कर लेती है कि अमुक विचार अशांति पैदा करने वाला है, इसलिए इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत नहीं देखा जाना चाहिए? अशांति किसके लिए? जून 1998 में तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई थी तो उसमें केवल चार राज्य शामिल थे. 2006 में शिवराज पाटील की इसी बैठक में राज्यों की संख्या 14 हो गई. पिछले साल चिदंबरम के समय संभावित राज्यों की संख्या 18 बताई गई. जम्मू कश्मीर और उत्तरपूर्व के राज्यों को इनमें शामिल नहीं किया गया था. अब गणित के विद्यार्थी बताएं कि कितने राज्य बच गए जो बिल्कुल शांत हैं?
अगर कोई विचारधारा अशांति फैलाने वाली है तो अशांति फैलाने वाले लोगों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती क्यों जा रही है? लेकिन यहाँ इस पक्ष पर चर्चा नहीं की जाएगी. यहाँ केवल इस तथ्य की ओर इशारा किया जाएगा कि राज्य अब न सिर्फ़ माओवादियों की राजनीतिक लड़ाई लड़ने वाले लोगों बल्कि ऐसे लोगों के संवैधानिक हक़ की बात करने वालों को भी चुप कराने में लगी है. चुप कराने का नायाब तरीका है अधिक से अधिक संख्या में गिरफ़्तारी. इन गिरफ़्तार लोगों में पत्रकार, समाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता या कोई भी ’सहानुभूति रखने वाला’ हो सकता है. गिरफ़्तारी के लिए कारण तलाशने में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, किसी के माथे पर माओवादी होने का बिल्ला चस्पां भर कर देने से काम आसान हो जाता है. इस बिल्ले को चिपकाने का एक उद्देश्य यह भी होता है कि निवारक निरोध कानून के तहत गिरफ़्तार कर मनमानी तरीके से पेश आया जाए.
मुठभेड़ (एनकाउंटर) को सही साबित करने के लिए पुलिस के पास दो ही किस्से होते हैं (आपको कोई और पता हो तो ज़रूर बताइए) कि फ़ायरिंग शुरू होने के बाद ’सेल्फ डिफेंस’ के लिए हमने गोली चलाई auaaaurऔर सामने वाला मारा गया, या फिर ’आरोपी’ पुलिस की गिरफ़्त से भागने लगा तो मज़बूरन हमें गोली चलानी पड़ी. पिछले साल 20 नवंबर को उड़ीसा के कोरापुट ज़िले में चासी मुलिया आदिवासी संघ (सीएमएएस) के दो नेताओं के. सिंगाना और एंड्र्यू नचिका को पुलिस ने उस समय गोली मार दी जब नरायणपत्तना ब्लॉक में आदिवासी ज़मीन को ग़ैर-आदिवासियों को आवंटित करने के और इस आवंटन के दौरान गांव में पुलिस द्वारा महिलाओं से छेड़खानी किए जाने के विरोघ में स्थानीय लोग शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. इस घटना की ख़बर तक नही बनी. इससे दो महीने पहले लक्ष्मण चौधरी की गिरफ़्तारी का असर ख़बरों के चुनाव में स्पष्ट हो रहा था. उड़ीसा उस समय हॉट केक बना हुआ था. एल्युमिनियम माइनिंग के लिए हज़ारों एकड़ ज़मीन को अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांता ने बॉक्साइट उत्खनन के लिए उसी समय खरीदी थी. (बाद के दिनों में पर्यावरण मंत्रालय ने काम को आगे बढ़ाने पर रोक लगा दी; हलांकि ताजा ख़बर यह है कि अनिल अग्रवाल ने वापस वह अधिकार हासिल करने के लिए जयराम रमेश से घंटे भर बातचीत की है) जिस जगह पर यह माइनिंग की जानी थी वहाँ कोंध आदिवासी लंबे समय से रह रहे हैं. भारत के मानवशास्त्री इसका लेखा-जोखा ज़्यादा बेहतर तरीके से देंगे कि कोंध भारत की बहुत ही प्राचीन जनजातियों में से है. लेकिन अगर कोई मानवशास्त्री किसी आदिवासी के बारे में तत्कालीन राजनीति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिहाज तक लिख-पढ़ रहा है तो राज्य के लिए उसकी सीमा निर्धारित करना बहुत ज़रूरी हो गया है. यह इसलिए ज़रूरी हो गया है क्योंकि जिस आदिवासी के बारे में बताया जा रहा है, वह कहीं किसी कंपनी के हित के आड़े तो नहीं आ रहा, क्योंकि वह राज्य के खिलाफ़ कोई प्रदर्शन तो नहीं कर रहा, क्योंकि वह विकास के वर्तमान मॉडल के विरोध में तो नहीं खड़ा है, क्योंकि वह विस्थापन के बाद सही पुनर्वास के लिए ठोस तर्क तो नहीं जुटा रहा? अगर इन तमाम सवालों का जवाब हाँ है तो राज्य के लिए यह एक ख़तरा है और उस मानवशास्त्री को लिखने के बाद सचेत हो जाना चाहिए, क्योंकि छत्तीसगढ़ में कोई तीन साल पहले 22 जनवरी 2008 को मानवशास्त्री और दैनिक भास्कर के पूर्व ब्यूरो प्रमुख प्रफुल्ल झा को गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर प्रतिबंधित नक्सली साहित्य रखने के साथ- साथ रायपुर पुलिस द्वारा पकड़े गए हथियार के एक जखीरे से संबंध रखने के भी आरोप लगाया गया है. पीयूसीएल के अध्यक्ष राजेंद्र सायल, झा के बारे में बताते हैं कि वे एक ऐसे पत्रकार हैं जिनके विश्लेषण तमाम राष्ट्रीय समाचार चैनलों में अक्सर शामिल किए जाते हैं.
bbahabयहाँ वापस लक्ष्मण चौधरी के बारे में बात करते हैं. अगर हम लक्ष्मण चौधरी की पृष्ठभूमि को जाने तो अपने-आप यह बात साफ हो जाएगी कि उन पर लगे आरोपों में कितना दम है. कोई भी व्यक्ति अगर माओवाद के क़रीब अपने को पा रहा है तो जाहिर है कि वह (और अगर वैचारिक सामंजस्य है तो परिवार भी) घोर दक्षिणपंथी संस्थाओं से दूर रहेगा. चौधरी की पत्नी सरस्वती शिशु मंदिर में प्राइमरी कक्षा की शिक्षिका हैं. सरस्वती शिशु मंदिर के इतिहास के बारे में ज़्यादा बताने की ज़रूरत नहीं है कि कैसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक पूरी पीढ़ी को अपने तरीके से शिक्षित करने के लिए इन स्कूलों की श्रृंखला देश भर में चलाई. लक्ष्मण चौधरी के ही अख़बार ’संबाद’ में काम करने वाले साथी पत्रकार रुपेश साहू बताते हैं कि मोहना पुलिस स्टेशन से उनको लगातार धमकियाँ मिल रही थीं, क्योंकि उसने गांजा माफियाओं के साथ पुलिस की सांठ-गांठ की पोल खोलने सहित कई संस्थागत अपराधों के बारे में खुली रिपोर्टिंग की थी. किसी को दोषी बताने या ’अपराधी’ को गिरफ़्तार करने की ज़िम्मेदारी राज्य के जिस हिस्से (पुलिस) के पास है ज़ाहिर तौर पर वह हिस्सा अपने-आप को अपराधी कहे जाने पर चुप नहीं रहेगा. इस तरह की रिपोर्टिंग के बाद पुलिस के धैर्य को समय-समय पर हम देख ही चुके हैं. 6 सितंबर 1995 को मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह कालड़ा को उस समय उठा लिया गया, जब उसने पुलिस द्वारा हज़ारों लोगों के सामूहिक दाह संस्कार का मामला उजागर किया था. कालड़ा के बारे में तब से कोई जानकारी नहीं है. हम कल्पना कर सकते है कि उनका क्या हुआ होगा?
निवारक निरोध कानून राज्य मशीनरी के लिए एक ऐसा अचूक हथियार है जिसका अपनी ज़रूरत के हिसाब से वह हर ज़रूरी मौकों पर इस्तेमाल करती रही है. यह ज़रूरत लगातार फैलती जा रही है. इसके अंतर्गत समय-समय पर पीडीए-1950, मिसा-1971, रासुका-1980, सीओएफईजीएसए-1974, टाडा-1985, पोटा-2002, यूएपीए-1967, आफ्सपा-1958, छतीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून 2005, आंध्रप्रदेश जनसुरक्षा कानून, मकोका, यूपीकोका जैसे कई कानून बने हैं जो लोगों के संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं. बावज़ूद इसके कई राज्य ऐसे कानून बनाने के प्रति अपनी रूचि प्रदर्शित कर रहे हैं.
17 दिसंबर 2007 को उत्तराखंड के पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत राही को उनके घर से गिरफ़्तार कर लिया गया। 48 वर्षीय श्री राही ’द स्टेट्समैन’ के चर्चित पत्रकार रह चुके हैं। उन पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत राजद्रोह के अतिरिक्त आधा दर्जन से अधिक धाराएं लगाई गईं। इसके अतिरिक्त् उन पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम की भी कई धाराएं लगाई गईं। पुलिस रिकार्ड में इनकी गिरफ़्तारी 22 दिसंबर 2007 को उत्तराखंड के हसपुर खट्टा के जंगलों से दिखाई गई. राही पर प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) समूह के जोनल कमांडर होने का आरोप है. उनकी बेटी शिखा राही बताती हैं कि कैसे उनके पिता को देहरादून से गिरफ़्तार कर हरिद्वार लाया गया और उनकी गुदा में मिट्टी का तेल डालने की धमकी देने सहित यह भी कहा गया कि वे (पुलिस) अपने सामने शिखा का बलात्कार करने के लिए श्री राही को मज़बूर कर देंगे. अंतत: शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित करने के बाद 22 दिसंबर को उनकी गिरफ़्तारी दिखाई गई. प्रशांत राही ने उत्तराखंड के पृथक राज्य बनने के आंदोलन में, टिहरी बांध के विस्थापन के विरोध में हुए आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाने सहित उत्तराखंड की अनेक जनसमस्याओं पर महत्त्वपूर्ण रपटें लिखी हैं. उनके मित्र और ’गढवाल पोस्ट’ के संपादक अशोक मिश्रा मानते हैं कि राही को सिर्फ़ उनकी राजनीतिक विचारधारा की वजह से परेशान किया जा रहा है. पुलिस ने इस समय उनको इसलिए गिरफ़्तार किया क्योंकि वे उधमसिंह नगर में ज़मीन, शराब और बिल्डिंग माफिया के ख़िलाफ़ लोगों को गोलबंद करने में लगे हुए थे. खुशी की बात है कि पुलिस ने उनके साथ ए के-47 नहीं दिखाई या फिर उन्हें फर्जी मुठभेड़ में मार नहीं गिराया. प्रशांत राही, लक्ष्मण चौधरी और सीमा आज़ाद के बीच यह एक बड़ी समानता है कि माफिया के बारे में लिखना उनकी गिरफ़्तारी का तत्काल कारण बनी. और इन तीनों पर राजद्रोह के आरोप लगाए गए. हर दौर में राज्य के पास एक ऐसा विषय होता है जिसके आगे तमाम दलीलें अंतत: बौनी नज़र आती हैं. फ़िलवक़्त नक्सलवाद ऐसा ही विषय है. नक्सलवाद नामक शब्द से अगर किसी का साबका हो जाए तो उसकी मुश्किलें वहीं से शुरू हो जाती हैं. किसी को गिरफ़्तार करने के लिए उसको या उसकी विचारधारा या फिर संगठन को माओवादी से मिला हुआ घोषित करने में पुलिस को चंद मिनट का ही वक़्त लगता है. ’तेलंगाना जर्नलिस्ट फोरम’ (टीजेएफ) का माओवादियों से संबंध होने के आरोप में 4 दिसंबर 2007 को मुसी टीवी के एडिटर और टीजेएफ के सह संयोजक पित्ताला श्रीशैलम को गिरफ़्तार कर लिया गया. उस पर माओवादियों के संदेशवाहक होने का आरोप लगाया गया. बाद में आरोप सिद्ध नहीं होने के कारण 13 दिसंबर को ही उनको छोड़ दिया गया. श्रीशैलम की गिरफ़्तारी भी पुलिस रिकार्ड में एक दिन बाद अर्थात 5 दिसंबर को दर्शाई गई. क्या पुलिस द्वारा आनन-फानन में गिरफ़्तारी करने के बाद आरोप गढ़ने, उसको सिद्ध करने के लिए (फर्जी) ’सबूत’ जुटाने और मनोनुकूल माहौल बनाने के लिए गिरफ़्तारी से पहले पर्याप्त वक़्त नहीं मिल पाता कि ज़्यादातर गिरफ़्तारियों में इस तरह के प्रचलन को बढावा दिया जा रहा है? या फिर यह इसलिए हो रहा है ताकि आरोपियों का इस बीच ’पुलिस कस्टडी’ में अनौपचारिक ’स्वागत’ किया जा सके? गृहमंत्री पी. चिदंबरम के चुनाव क्षेत्र शिवगंगा में एक व्यक्ति को गणतंत्र दिवस के दिन आदिवासियों के बीच एक पर्चा बांटने के कारण राजद्रोह के आरोप के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया. इस पर्चे मंऔ यह सवाल उठाया गया था कि देश में गणतंत्र लागू होने के बाद साठ साल के सफर में आदिवासियों ने अब तक क्या पाया है, जिन आधारों पर उन्हें गणतंत्र दिवस मनाना चाहिए? क्या एक ऐसी बहस, जिसमें इस बात को कुरेदा जाए कि ब्रिटिश औपनिवेशिकता से मुक्त होने के बाद से हमारा विकास कितना समांगी या असमांगी रहा है, लोकतंत्र-विरोधी और देश-विरोधी है? लोकतंत्र में तो ऐसी बहस को लोकतंत्र की अवधारणा के केंद्रीय बिंदु के रूप में देखा जाना चाहिए. राज्य से इस आशय के सवाल करना राजद्रोह कैसे हो जाता है? इसका मतलब यह है कि देश से लोकतंत्र की ज़मीन तेजी से खिसक रही है. और लोकतंत्र की व्याख्या अपनी सुविधानुसार की जा रही है जिसमें एक तबके को सवाल उठाने से रोका जा रहा है. यह गंभीर स्थिति है और इसमें संवैधानिक संशोधन के जरिए जोड़े गए शब्द ’समाजवाद’ को हाशिए पर ढकेलने की लगातार कोशिश की जा रही है.
पत्रकार का क्या काम है? समाज की विभिन्न समस्याओं से समाज को रू-ब-रू कराना. अब अगर कोई पत्रकार किसी माओवादी नेता से साक्षात्कार लेने जाएगा तो पुलिस उसको गिरफ़्तार कर लेगी? यह कैसा लोकतंत्र है और कैसी स्वतंत्र मीडिया है? मुख्य धारा की मीडिया में अंतिम रूप से ख़बर पहुँचने से पहले ख़बर को तमाम छलनी से होकर गुजरना पड़ता है. आखिरकार जो ख़बर इन छलनियों को पार कर पाती है वही ख़बर है बाकी तो बेकार, ग़ैर-बिकाऊ, संपादकीय नीति से मेल नहीं खाता हुआ, लाउड, राज्य के लिए राजद्रोह साबित करने का मसाला भर है. छतीसगढ़ के ’सल्वा जुडूम’ क्षेत्र में, मणिपुर के आंदोलन प्रभावित इलाके में, श्रीलंका के फायर ज़ोन में, फिलीस्तीन के गाजा में, अफ़गानिस्तान के तालिबान प्रभावित इलाके में और इराक के युद्ध प्रभावित इलाके में क्या समानता है? यहाँ से वही ख़बरें चमकतीं हैं जो राज्य द्वारा जारी की गई हों. दुनिया भर में ’इम्बेडेड पत्रकारों’ के सहारे लोकतंत्र का प्रचार किया जा रहा है. सल्वा जुडूम के कैंप में हुए आर्थिक भ्रष्टाचार की ख़बर को अगर छापा जाता है तो संबंधित पत्रकार को पीटने सहित पूरे इलाके में अघोषित तौर पर पत्रकारों के आने पर बैन लगा दिया जाता है. ऑपरेशन ग्रीन हंट के बारे में लगातार परस्पर विरोधी बातें सरकारी कैंप से सुनने को मिल रही थी. लेकिन बाद में यह स्पष्ट हो गया कि ग्रीनहंट की योजना पर सरकारी कार्रवाई शुरू हो चुकी है.
गिरफ़्तारियों के आंकड़े देश की भूगोल को पाट दिया है. यह योजनाबद्ध है कि कहाँ, कब, और कितने लोगों को गिरफ़्तार करना है. 19 दिसंबर 2007 को केरल में पीपुल्स मार्च के संपादक गोविंदन कुट्टी को प्रतिबंधित माओवादी संगठनों से अवैध संबंध रखने का आरोप लगाकर यूएपीए के तहत गिरफ़्पार कर लिया गया. लेकिन उनके द्वारा भूख हड़ताल करने और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रदर्शन और सबसे ख़ास बात कि कोई सुबूत नहीं जुटा पाने के चलते अंतत: 24 फरवरी 2008 को उसे जमानत पर रिहा कर दिया. कुट्टी का केस यह समझने को महत्वपूर्ण है कि आख़िरकार पुलिस की योजना क्या थी? गोविंदन कुट्टी की गिरफ़्तारी पुलिस का असली लक्ष्य भी नहीं था. इस गिरफ़्तारी के बहाने केरल के उन तमाम पत्रकारों को एक हिदायत-सी दी गई थी जो सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ लिख रहे थे. इसलिए कुट्टी को घर लौटते ही चिट्ठी मिली जिसमें यह बताया गया था कि पीपुल्स मार्च में प्रकाशित सामग्री बगावती है जो माओवादी विचारधारा के जरिए भारत सरकार के प्रति अपमान और घृणा की भावना फैलाती है. दिलचस्प यह है कि पीपुल्स मार्च में प्रकाशित जिन सामग्रियों के बिना पर एर्नाकुलम के ज़िला मजिस्ट्रेट ने यह निर्णय लिया पीपुल्स मार्च उसी तरह की सामग्री पिछले 6-7 सालों से छाप रही थी. यह महज संयोग नहीं है कि दिसंबर 2007 से अगले तीन-चार महीनों के बीच में पूरे देश से दर्जनों पत्रकार को गिरफ़्तार किया गया. यह भी महज संयोग नहीं है कि 20 दिसंबर 2007 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा आंतरिक सुरक्षा पर आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में माओवादियों पर ख़ास चिंता व्यक्त करने और सभी राज्यों को सुरक्षा बलों और हथियारों के आधुनिकीकरण पर ज़्यादा निवेश करने के वायदे के बाद सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ लिखने/बोलने वाले पत्रकारों पर राजद्रोह के आरोप ऐसे लगाए गए मानों पुलिस को किसी इशारे भर का इंतज़ार था. ग़ौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से सरकार द्वारा दर्जनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ एमओयू पर राजीनामा हस्ताक्षर करने के बाद देश भर में विस्थापन और विकास को लेकर एक तेज बहस छिड़ गई. सरकार के अलग-अलग नुमाइंदे अलग-अलग मंच से लगातार यह कहते रहे कि माओवादी देश के महत्वपूर्ण आर्थिक ढांचों को निशाना बनाने की फ़िराक़ में है और सरकार इसका मुँहतोड़ जवाब देगी. इसलिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में आंतरिक सुरक्षा बजट 25000 करोड़ रुपए का कर दिया गया जो पहले से लगभग चार गुणा अधिक है. इस बीच दुनिया में भारत के एक महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में लगातार प्रचार किया गया साथ ही बार-बार दुनिया के मंच पर यह भी दोहराया गया कि भारत निवेश करने के लिए बहुत अनुकूल जगह है. यह भी ग़ौरतलब है कि अधिकतर गिरफ़्तारियां वहीं हुई जहाँ ऐसी कंपनियों के प्लांट लग रहे थे या फिर ऐसी ही किसी सरकारी विकास नीति से लोग विस्थापित हो रहे थे. इसके लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा. जिस साल, 2005 में, विशेष आथिक ज़ोन अधिनियम लागू हुआ ठीक उसी साल छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून लागू किया गया. तस्वीर बिल्कुल साफ़ है. विकास और विस्थापन के सवाल पर सरकार देश के भीतर कोई मज़बूत बहस होने देने के पक्ष में ही नहीं है. इस बहस को चालू रखने और तेज करने में पत्रकार की क्या भूमिका हो सकती है, हम समझ सकते है. ज़ाहिर सी बात है कि पत्रकार पुलिसिया निशाने पर पहले पहल आएगा.
कश्मीर और उत्तर पूर्व के राज्यों में तो इस तरह के बहाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती. वहाँ यह आम घटना के बतौर देखी जाती है. जनवरी 2007 से जून 2009 तक मणिपुर मे 700 से अधिक लोग पुलिस फायरिंग में मारे जा चुके हैं. इस दौरान 300 से अधिक सामूहिक प्रदर्शन हो चुके हैं. 13 साल के बच्चे को खूंखार आतंकवादी बता कर गोली से भून दिया गया. और तो और मणिपुर राज्य के पहले विधानसभा में मंत्री रहने वाले एक सदस्य के बेटे को भी आतंकी बताकार ’मुठभेड़’ में मार दिया गया. संजीत के मामले को छोड़ दीजिए- जिसमें तहलका ने फोटो सहित विस्तृत रिपोर्ट छापा- तो बाकी की घटनाएं ख़बर नहीं बनीं. मणिपुर भारत के ’मेनलैंड’ में नहीं माना जाता इसलिए इन बातों को तवज्जो देने से (सरकार को तो छोड़ दीजिए) लोग कतराते हैं कि अलगाववाद की मांग तेज हो जाएगी. इरोम शर्मिला की अहिंसक भूख हड़ताल का आंदोलन दसवें साल में पहुँचने के बावजूद ख़बर नहीं बनती. बीते साल देश में सर्वाधिक शौर्य पुरस्कार मणिपुर पुलिस कमांडो को दिया जाना ख़बर बनती है (शौर्य पुरस्कार पाने के लिए मुठभेड़ों में मारे गए व्यक्तियों की संख्या गिनाना सबसे बड़ा पैमाना मालूम पड़ता है. इसे हाल के वर्षों में शौर्य पुरस्कार विजेताओं की बायोडाटा से प्रमाणित किया जा सकता है.) इससे देश भर में यह संदेश फैलाया जाता है कि मणिपुर पुलिस कमांडो तो स्थानीय मणिपुरी ही है जो भारत के साथ है (और जब तक ऐसे कमांडो हमारे साथ हैं मणिपुर में शांति कायम रहेगी). मतलब यह कि वहाँ कुछ लोग अशांति फैलाने का काम कर रहे हैं और बाकी स्थिति शेष भारत की तरह ही है. मणिपुर में पुलिसिया दमन ख़बर इसलिए नहीं बनती क्योंकि ख़बर बनाने वाला अपना परिणाम जानता है. उत्तर-पूर्व में चल रहे सशस्त्र आंदोलनों के पक्ष को मीडिया में रखना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है. पत्रकारों को इस बात का हमेशा डर बना रहता है कि कहीं उन गुटों का मेंबर बताकर या फिर उनसे किसी भी तरह का तार जोड़कर गिरफ़्तार न कर लिया जाए (या गोली न मार दी जाए). अभी पिछ्ले साल मणिपुर में एक स्थानीय पत्रकार पर गोली चलाई गई थी, जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार लछित बारदोलोई को 11 जनवरी 2008 को असम के मोरनहाट से गिरफ़्तार कर लिया गया. ये वही लछित बारदोलोई हैं जो उल्फा और सरकार के बीच बातचीत में लंबे समय तक मध्यस्थ की भूमिका निभाते रहे हैं. गुवाहाटी के एसएसपी वी के रामीसेट्टी के पास बारदोलोइ की गिरफ़्तारी के लिए बहुत ज़्यादा प्रमाण जुटाने की ज़रूरत नहीं पड़ी. यह बहुत खुली हुई बात थी कि बारदोलोई बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभाने के कारण उल्फा नेताओं से भी बात करते थे. गिरफ़्तारी के लिए यह बहुत ही हतोत्साहित करने वाला कारण है. ऐसे में तो इंदिरा गोस्वामी (लेखिका) को भी किसी ऐसे मामले में गिरफ़्तार किया जा सकता है जिसे जानकर उनको जानने वाले सन्न रह जाएंगे, क्योंकि इसी तरह का काम वो भी कर रहीं है. बारदोलोई पर गुवाहाटी हवाई-अड्डे से जहाज़ अपहरण करने की योजना बनाने का आरोप मढ़ दिया गया. मानवाधिकार संस्था मानव अधिकार संग्राम समिति (एमएएसएस) –जिसके बारदोलोई महासचिव थे- के अध्यक्ष बुबुमनी गोस्वामी बारदोलोई पर लगाए गए आरोप पर ताज्जुब करते हैं कि लछित जहाज़ अपहरण की योजना बना सकते हैं. उतर-पूर्व में स्थाई शांति बहाली की कोशिशों में केंद्र सरकार कितनी ईमानदार है यह बारदोलोई के उदाहरण से समझा जा सकता है.
जम्मू कश्मीर में इस तरह के कई उदाहरण हाल में देखे गए जिसमें पत्रकारों को शारीरिक तौर पर प्रतारित किया गया और इस ज़रिए ख़बरों के चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश भी की गई. जून 2007 में दैनिक ’द हिंदू’ के पत्रकार शुजात बुखारी पर जानलेवा हमला किया गया. सितंबर 2007 में श्रीनगर की सड़कों पर तीन संवाददाताओं को पुलिस अफ़सरों ने सरेआम पीटा. नवंबर 2007 में ’श्रीनगर न्यूज़’ के अब्दुल राऊफ और उसकी पत्नी ज़ीनत राऊफ को गिरफ़्तार कर लिया गया. जनसुरक्षा अधिनियम के तहत सितंबर 2004 में गिरफ़्तार किए गए फोटो पत्रकार मुहम्मद मक़बूल खोकर को राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन और न्यायालय द्वारा रिहा किए जाने की अपील के बावजूद पुलिस ने उसे नहीं छोड़ा. 9 जून 2002 को इफ़्तिखार गिलानी को ’ओसा’ (सरकारी गोपनीयता कानून- 1923) के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया. उन पर जम्मू-कश्मीर में सेना से जुड़ी जानकारियां रखने का आरोप लगाया गया. लेकिन बकौल गिलानी जिन सूचनाओं के आधार पर उन्हें गिरफ़्तार किया गया, वह नजीर कमाल के शोध पत्र के अनुलग्नक का हिस्सा थी और उसे आज भी इस्लामाबाद के ’इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटजिक स्टडीज’ की वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है. लेकिन (शायद कश्मीरी होने और गिलानी टाइटल की वजह से) गिलानी पर आरोपों की श्रृंखला लगातार बढ़ती चली गई. शुरू में उनको लेकर मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही थी और अधिकतर अख़बारों और चैनलों में सनसनी फैलाने वाली झूठी ख़बरों को प्रसारित किया गया. इस तरह एक रोचक वाकया देखने को मिला जिसमें एक पत्रकार के विरुद्ध झूठी प्रचार करने में मीडिया राज्य के सहयोगी के तौर पर नज़र आया. बाद में मामला स्पष्ट होने के उपरांत पत्रकार और पत्रकार संगठन मीडिया की स्वतंत्रता और पत्रकार की सुरक्षा के नाम पर एकजुट होकर इफ़्तिखार के पक्ष में राज्य के सामने खड़े हो गए. बाद के दिनों में ’राजद्रोही’ का तमगा वापस लेते हुए पुलिस ने गिलानी को छोड़ दिया.
विभिन्न राज्यों में चल रहे जनसुरक्षा अधिनियम कानून में पत्रकारों के लिए अलग से ज़िक्र किया गया है. छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून में यह बताया गया है कि कोई भी पत्रकार अगर किसी नक्सली से मिलता है या फिर उसके बारे में कुछ भी ऐसा लिखता है जिसे आधिकारिक रूप से माओवादी के समर्थन में लिखा गया मान लिया जाए तो उसे एक से तीन साल तक की सजा हो सकती है. इस आधिकारिक प्रावधान के अतिरिक्त कई जगहों पर पत्रकारों का जाना तक निषिद्ध कर दिया गया है. वहाँ की ख़बरें बस पुलिस हैण्ड्सआउट पर ही बनती हैं. सरकार मीडिया मालिकों को सरकारी विज्ञापन मुहैया करवाकर ख़बरों के चयन में अप्रत्यक्ष भूमिका भी निभाती है. पत्रकार जिससे मिला वह नक्सली है या नहीं इसे तय भी सरकार को ही करना है. सत्ता के पास कितने विकल्प हैं?
अगर पुलिसिया गोली-बारी में निर्दोष लोगों के मारे जाने की ख़बर कोई पत्रकार छाप रहा है तो उससे समाचार स्रोत बताए जाने के लिए नोटिस भेजा जाता है. बस्तर में सुरक्षा बल द्वारा दो ग्रामीणों के मारे जाने की ख़बर छापने के लिए दो पत्रकारों –नई दुनिया के अनिल मिश्रा और नवभारत के यशवंत यादव- को स्रोत बताने के लिए दबाव डाला गया. (ख़ास बात यह है कि दोनों पत्रकार अलग- अलग मीडिया समूह के हैं.) मीडिया में स्रोत की गोपनीयता जैसी महत्त्वपूर्ण और गंभीर पक्ष को अब दबाव डालकर उगलवाने की कोशिश हो रही है. बस्तर में स्रोत बताए जाने के बाद स्रोत सुरक्षित रहेगा, यह कह पाना बहुत मुश्किल है. पत्रकार साईं रेड्डी, वृत्तचित्र निर्माता अजय टी. जे. और वकील सत्येंद्र कुमार चौबे की गिरफ़्तारी में यह संदेश अंतर्निहित हैं कि राज्य अभिव्यक्ति की आज़ादी की एक स्पष्ट सीमा-रेखा खींचना चाहती हैं जिसको पार करने वाले को कमोबेश इसी तरह दंडित किया जाएगा. अब अपने भीतर की आवाज़ को राज्य के पैमाने से बाहर निकालना होगा. दक्षिण बस्तर में हुई एक मुठभेड़ के बाद माओवादी नेता रमन्ना के पक्ष को छापने के लिए हिंदी के दो पत्रकारों को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया. ई.टीवी के पत्रकार राकेश शुक्ला को ’बस्तर जनपद पंचायत’ के अध्यक्ष तानशेन कश्यप को मारने की जिम्मेदारी लेते हुए माओवादियों का फुटेज दिखाने के लिए कांकेर पुलिस थाने में लंबी पूछताछ (सिर्फ़ पूछताछ?) की गई. दिलचस्प यह है कि शुक्ला को भेजी गई नोटिस के साथ पुलिस ने भाजपा की युवा ईकाई ’भारतीय जनता युवा मोर्चा’ के एक पत्र को नत्थी किया था जिसमें यह बताया गया है कि मीडिया ने माओवादी का पक्ष दिखाकर आम लोगों की भावनाओं को आहत किया है और ऐसे मीडिया संस्थानों को बंद कर दिया जाना चाहिए. पुलिस कब से ऐसे घोषणापत्रों पर ध्यान देने लगी? बस्तर में ऐसे सैंकड़ों लोग प्रतिदिन मिल जाएँगे जो पुलिस द्वारा एफआईआर नहीं लिखने के कारण आक्रोश में क्षुब्ध घूम रहे हों. चूंकि तानशेन कश्यप भाजपा सांसद बलिराम कश्यप का बेटा था इसलिए पुलिस ने तत्काल ’एक्शन’ लिया. वरुण गांधी के भाषण को दिखाने के बाद आम लोगों की भवनाएँ आहत नहीं हुईं? राज ठाकरे के भाषण को दिखाने के बाद आम लोगों की भावनाएँ आहत नहीं होती? राज ठाकरे पर राजद्रोह से संबंधित 73 मामले देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में दर्ज हैं लेकिन उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता! सोचने वाली बात है कि जब समाज में ऐसी घटनाएं घट रही हैं तो मीडिया उससे एकदम अलग कैसे रह सकता है? ऐसी घटनाओं के मूल कारणों की पड़ताल करने और इसे रोकने की ज़िम्मेदारी सरकार की है. सरकार इसलिए मीडिया को बार-बार नोटिस देती है ताकि उनकी अक्षमता सार्वजनिक न हो जाए.
राजद्रोह की परिभाषा इतनी फैली हुई है कि अगर पुलिस चाहे तो इसके भीतर किसी भी पत्रकार को लाने में उन्हें बहुत कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ेगा. 12 जून 2008 को ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ के स्थानीय संपादक भरत देसाई, संवाददाता प्रशांत दयाल और फोटो पत्रकार गौतम मेहता को अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर की आलोचना करने के आरोप में राजद्रोह के अंतर्गत गिरफ़्तार कर लिया गया. इसके विरोध में दिल्ली में गुजरात भवन के सामने गैर सरकारी संगठनों, नागरिक तथा मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया। दिल्ली में पत्रकारों की गिरफ़्तारियों के ख़िलाफ़ भारतीय पत्रकार संघ और अन्य पत्रकार संगठनों की निरंतर सक्रियताओं के बावजूद पत्रकारों पर हमले तथा अन्य ज़्यादतियों में कमी नहीं आ रही है। पत्रकारों के लिए ख़तरा सिर्फ़ राज्य ही नहीं है बल्कि उन्हें तो माफिया, नेताओं, बाहुबलियों और स्थानीय दबंग व्यवसायियों से और अधिक ख़तरा है. 2006 में असम में स्थानीय अधिकारियों के ख़िलाफ़ एक दैनिक अख़बार में लेख लिखने के बाद पत्रकार प्रहलाद ग्वाला की हत्या कर दी गई. अपने लेख में एक गैंगस्टर का नाम छापने के बाद महाराष्ट्र के एक पत्रकार अरुण नारायण देखाटे को पत्थर से पीट-पीट कर मार डाला गया. 2008 में पाँच पत्रकारों- विकास रंजन, जावेद अहमद मीर, अशोक सोढ़ी, मोहम्मद मुश्लीमुद्दीन, और जगजीत सैकिया- की हत्या कर दी गई.
विशाल जनसमर्थन वाले कुछ संगठन ग़ैर-सरकारी तौर पर किसी को भी राजद्रोही करार दे सकती है. नरेंद्र मोदी की हत्या करने की योजना बनाने के आरोप में तीन साल के भीतर गुजरात में कई फ़र्जी मुठभेड़ किए गए. इनमें समीर ख़ान पठान (22 अक्टूबर 2002), सादिक ज़माल (13 जनवरी 2003), इशरत जहाँ तथा जावेद शेख (16 जून 2004), और सोहराबुद्दीन शेख (26 नवंबर 2005) के मामले काफी चर्चित रहे हैं. मीडिया में इन मुठभेड़ों पर प्रश्न खड़े करने वाले लेख और बहस आते रहे हैं. इन्हीं मुठभेड़ों पर सुभ्रदीप चक्रवर्ती ने ’एनकाउंटर ऑन सैफ्रॉन एजेंडा’ नाम से एक डाक्यूमेंट्री बनाई, जिसका स्क्रीनिंग वे भोपाल में कर रहे थे कि बजरंग दल के सदस्यों ने जमकर उत्पात मचाया और यह प्रचारित किया कि चक्रवर्ती देशद्रोही और राजद्रोही है. राजद्रोह के इस टैग पर कोई क्या करेगा? यह तो राह्त की बात है कि इशरत जहाँ के मामले में अब पाँच साल बाद सरकार यह स्वीकारने की स्थिति में आई है कि ’ग़लती’ से वह हादसा हो गया.
चिंताजनक स्थिति यह है कि ये प्रैक्टिस सिर्फ़ किसी एक देश के भीतर नहीं हो रहा बल्कि दुनिया भर में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं जिसमें पत्रकारों को राज्य के ख़िलाफ़ लिखने के आरोप में ज़ेल में ठूंसा गया. सितंबर 2007 में म्यांमार में हुए ’सैफ्रॉन रिवोल्यूशन’ के फोटो छापने के लिए एक 24 वर्षीय ब्लॉगर बिन ज़ाओ न्यिंग को 15 सालों के लिए ज़ेल में बंद कर दिया गया. बीते कुछ महीनों में म्यांमार में दसियों पत्रकारों के लिए लंबी सजा मुकर्रर की गई है. हाल ही में वियतनाम में सरकार के ख़िलाफ़ लिखने के लिए नौ वियतनामी ब्लॉगर को गिरफ़्तार कर लिया गया. इनमें से एक को तीन साल, दो को साढ़े तीन साल और बाकी छह को चार साल की सजा सुनाई गई है. फ़िलिपींस में बीते साल चुनावी अभियान में 34 पत्रकारों को मार दिया गया. 2009 के शुरुआत में ही श्रीलंका के ’द संडे लीडर’ के संपादक लसांत विक्रमतुंगे की दहला देने वाली हत्या हुई. लेकिन उससे ज़्यादा दहलाने वाला विक्रमतुंगे का लिखा हुआ आखिरी संपादकीय है जिसमें साफ़ तौर पर यह बताया गया है कि उनकी जान को सरकार की तरफ से ख़तरा है और वह निश्चित रूप से कुछ दिनों में मार दिए जाएंगे. और अधिक चिंताजनक बात यह है कि विक्रमतुंगे के बाद ’द संडे लीडर’ के संपादकों- फ्रेडरिक जांस्ज और मुंजा मुश्ताक- को भी उसी तरह की धमकियां मिल रही हैं जैसे विक्रमतुंगे को मिल रही थी. श्रीलंका में 2009 के जनवरी में विक्रमतुंगे को मारने के बाद पुलिस जून में पोड्डाला जयंथा का अपहरण करने के बाद उनकी भीषण पिटाई करती है. मार्च 2008 में पत्रकार जे. एस. तिस्सैनयंगम को श्रीलंकाई सेना के बारे में लिखने पर 20 साल की सजा मुकर्रर की गई. तो क्या राज्य में ’स्थापित शांति’ दिखाने के लिए पत्रकार बोलना बंद कर दें?

मो. - +91- 9555045077
ई.मेल- dilipk.media@gmail.com

17 जनवरी 2011

बैंक चला ठाकरे की राह!

अवनीश, अम्बाला से (संपर्क- 256avani@gmail.com)
उत्तर प्रदेश व बिहार के प्रवासी श्रमिकोंं के साथ दुव्र्यवहार का सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। कभी उन्हें असम के चरमपंथी गुटों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का शिकार होना पड़ रहा है तो कभी शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माणसेना जैसे लम्पट समूहों के हाथों लुटना-पिटना पड़ रहा है। विभेद और अलोकतांत्रिकता की इस कड़ी में अब जालंधर (पंजाब) स्थित यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की बस्ती नौ शाखा का नाम भी जुड़ गया है। इस शाखा ने हाल ही में पंजाब में काम कर रहे प्रवासी श्रामिकों को लेन-देन का काम करने के लिए सप्ताह में एक दिन गुरुवारमुकर्रर करके रंगभेद की एक नई प्रथा शुरू करने का प्रयास किया है। गत दिनों इस बैक के ब्रांच मैनेजर ने उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों को यह कहकर बैंक आने से मना कर दिया कि वे देखने में गंदे और जाहिल लगते हैं। उन्हें बैंक के कामों के बारे में जानकारी नहीं है और उनके कारण स्टाफ को परेशानी होती है। इस तैश में ही उस मैनेजर ने यह इलहाम भी कर दिया कि जलंधर की बस्ती नौ शाखामें उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों का लेन-देन का काम केवल गुरुवार को किया जाएगा। इसलिए सप्ताह के अन्य दिनों में ये श्रमिक बैंक ना आएं। अब यह निर्णय बैंक मैनेजर की अपनी विवेकशीलता थी या प्रवासी श्रामिकों को लेकर बैंक की नीतियों में आए बदलाव का संकेत, यह कह पाना मुश्किल है।
घटनाक्रम के अनुसार गत २० दिसंबर को जलंधर के बस्ती दानिशमंदा इलाके की एक फैक्ट्री में काम करने वाला श्रमिक उदयवीर कोरबैंकिंग के जरिए अपने पैसे घर भेजने के लिए नजदीक की यूनियन बैंक की शाखा में पहुंचा। यह श्रमिक देवरिया जिले का रहने वाला है और इस बैंक से ही वह पहले भी अपने पैसे भेजता रहा है। लेकिन उस दिन बैंक कांउटर पर बैठे क्लर्क ने यह कहकर कि बाहरी लोगों के काम केवल गुरुवार को होंगे, उसके पैसे लेने से मना कर दिया । श्रमिक ने पैसे जमा करने की लिए मिन्नतें की लेकिन बात नहीं बनी। इसलिए वह वापस लौट गया और अपने फैक्ट्री मालिक को साथ दोबारा आया। उसने सोचा की शायद स्थानीय व्यक्ति के साथ होने पर उसके पैसे जमा कर लिए जाएं। लेकिन इस बार भी ऐसा नहीं हुआ । क्लर्क ही नहीं बैंक मैनेजर तरसेम जैन ने भी बाहरी लोगों के पैसे केवल गुरुवार को जमा करने की बात दोहराई। श्रमिक और फैक्ट्री मालिक ने जब मैनेजर से पूृछा कि बाहरी लोगों के पैसे गुरुवार को ही जमा होंगे इस बाबत आपने नोटिस कहां लगाई है ? इस पर मैनेजर उखड़ गया और उन दोनों बैंक से बाहर चले जाने को कहा। मैनेजर के इस रवैये से बैंक में हंगामा खड़ा हो गया। पैसा जमा न होते देख फै क्ट्री मालिक और श्रमिक दोंनो वापस लौट आए। वापस आकर फैक्ट्री मालिक ने पैसे जमा करने के लिए अपने छोटे भाई को भेजा और दिलचस्प यह रहा कि इस बार पैसे जमा कर लिए गए।
प्रवासी श्रमिक के साथ हुए इस दुव्र्यवहार के खबर सामने आते ही बैंक की इस शाखा की पंजाब में औद्योगिक, राजनीतिक और सरकारी स्तर पर जबर्दस्त आलोचना हुई, जिसके बाद यूनियन बैंक आफ इंडिया के उच्च पदाधिकारियों को माफी मांगनी पड़ी। बैैंक प्रबंधन ने ब्रांच मैनेजर का तबादला कर दिया और प्रेस विज्ञप्ति जारी करके कहा कि बैंक की सभी शाखाएं सभी ग्राहकों को सभी दिन सुचारु रूप से बैंकिंग सुविधाएं प्रदान कर रही हैं। इस संबध में यदि किसी ग्राहक या किसी व्यक्ति को असुविधा हुई तो इसके लिए खेद है। हालंाकि इस आपातकालीन कार्रवाई के बावजूद विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा है और कई संगठनों ने बैंक प्रबंधन द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की अपील की है। इस मामले में अप्रवासी श्रमिक बोर्ड के चेयरमैन आरसी यादव ने जालंधर के पुलिस कमिश्रर गौरव यादव से मिलकर बैंक मैनेजर के खिलाफ कार्रवाई किए जाने की मांग की है। पंजाब में सक्रिय प्रवासी श्रमिकों के संगठन पूर्वांचल विकास महासभा ने रिजर्व बैंक आफ इंडिया के पास शिकायत दर्ज कराई है कि राज्य के कई बैंक प्रवासी मजदूरों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं। सभा के अनुसार बैंको ने प्रवासी मजदूरों के लिए अलग कांउटर बना रखे हैं और उनको लेनदेन जैसे काम करने के लिए सप्ताह में एक दिन मुकर्रर किर दिया है। ऐसा करने की वजह बैंक में आने वाले सभं्रात ग्राहकों को होने वाली परेशानी बताई जा रही है। इस मामले में एक दिलचस्प बात यह सामने आई है कि प्रवासियों के लिए अलग दिन तय करने अथवा अलग काउंटर बनाने के निर्णय को बैंको ने प्रिविलेज बैंकिं गका नाम दिया है यानी एक ऐसी सुविधा जो केवल प्रवासी श्रमिकों को उपलब्ध कराई गई है। बैंकों के अनुसार इस विशेष सुविधा की वजह निरक्षर श्रमिकों को बैंको के कामकाज में आने वाली परेशानी है। इस सुविधा के जरिए उन्हें सप्ताह में एक दिन बुलाकर उनका कामकाज आसानी से निपटाया जा सकता है। यूनियन बैंक आफ इंडिया के प्रबंधन ने कहा कि ऐसा करने की वजह प्रवासी मजदूरों को सुविधाजनक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध करवाना है। प्रवासी श्रमिक किसी भी दिन आकर बैंक में लेनदेन का काम कर सकते हैं लेकिन गुरुवार के दिन जलंधर की सभी फैक्ट्रियों में अवकाश रहता है इसलिए इस दिन उनके लिए अलग से एक काउंटर खोल दिया जाता है।
अलग दिन और अलग काउंटर खोले जाने के बारे में बैंक जो भी वजह बताते हों लेकिन प्रवासी श्रमिकों के संगठनों ने इसे भेदभाव भरा कदम ही बताया है । प्रवासी श्रमिक संगठनों द्वारा ऐसा कहे जाने की वजह भी है। दरअसल पंजाब में प्रवासियों के साथ भेदभाव व शोषण नई बात नहीं है। पूर्वंचल विकास सभा के प्रवक्ता एके मिश्रा ने बताया कि पंजाब के बैंक मे भेदभाव की घटना पहली बार नहीं घटी है । इसके पहले लुधियाना में पंजाब नेशनल बैंक की गिल रोड स्थित शाखा में भी ऐसी ही वाकया हो चुका है। बैंक के अलावा आम जीवन में भी प्रवासी श्रमिकों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जालंधर में काम कर रहे पत्रकार चंदन मिश्रा ने बताया कि पंजाब में प्रवासी मजदूरों के साथ रेलवे टिकट काउंटर पर, डाक खाने में , स्कूलों में बच्चों का दाखिला करते समय अक्सर भेदभाव की घटनाएं होती हैं। रेलवे टिकट काउंटरों पर तो कई बार बाहरी मजदूरों को टिकट देने से भी मना कर दिया जाता है।
एक अनुमान के मुताबिक पंजाब में लगभग ४० लाख प्रवासी श्रमिक काम करते हैं, इनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। इन श्रमिकों ने पंजाब की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया। इसका अंदाजा बैंको में बचत के रूप में हर महीनें जमा होने वाली करोंड़़ों की रकम से लगाया जा सकता है। एक मजदूर अपनी रोजमर्रा की अर्थिक गतिविधियों द्वारा भी राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है। पंजाब में कई विधान सभा सीटों में भी प्रवासी मजदूर राजनीतिक रूप से सशक्त हैं, इसलिए राजनीतिक दल इनका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में भी खूब करते हैं। इन सबके बावजूद पंजाब सरकार ने कभी भी इनके लिए किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा योजना या इनके हितों की रक्षा की लिए कोई कानून लाने की नहीं सोची। जबकि भारत के ही एक राज्य केरल में इस तरह के कानून भी है और योजनाएं भी। इस राज्य ने मई महीने में प्रवासी मजदूरों के कल्याण के लिए प्रवासी मजदृूर कल्याण योजनाभी लागू की है । इस योजना के तहत पंजीयन कराने के बाद हर प्रवासी मजदूर सलाना २५००० रुपए तक की चिकित्सा सहायता व बच्चों को पढऩे के लिए हर महीने ३००० रुपए का शैक्षणक भत्ता दिया जाता है। किसी दुर्घटना में श्रमिक की मृत्यु होने की स्थिति में उसके संबधियों को ५०००० रुपए की सहायता दी जाती है । इस योजना के तहत एक निर्धारित समय तक केरल में में काम करने के बाद राज्य छोडऩे की स्थति में २५००० रुपए का आर्थिक लाभ दिया जाता है। केरल मे भी अनुमानत: ३० लाख उत्तर भारतीय मजदूर काम करते हैं। केरल में इन मजदूरों की स्थिति स्थानापन्न मजदूरों जैसी है क्योंकि केरल की अधिकांश श्रामिक आबादी खाड़ी देशों में काम करती है। पंजाब में भी श्रमिक मजदूरों की स्थिति स्थानापन्न मजदूरों जैसी ही है। इस राज्य के भी अधिकांश श्रामिक अधिक पैसे और बेहतर अवसर की तलाश में विदेशों की ओर रुख कर चुके हैं। इस आबादी द्वारा पैदा की गई जगह को ही प्रवासी श्रामिकों ने भरा है। इसलिए ऐसा भी नहीं कि यहांं श्रमिकों की आबादी बहुत है और उनके पलायन की स्थिति में पंजाब अपनी अर्थव्यवस्था सम्हाल पाएगा! मनरेगा की सफलता के बाद पंजाब में प्रवासी कृषि मजदूरों की संख्या में आई कमी के बाइ यह बात जाहिर भी हो चुकी है। इस योजना के बाद पंजाब में मजदूरों की कमी के कारण १०० रुपए पर भारी, एक बिहारीका जुमला आम तौर पर सुना जाता है।
श्रमिकों की पंजाब सरकार द्वारा की जा रही अनदेखी के बावजूद उतर प्रदेश और बिहार में प्रवासन एक ऐसी समस्या है जिसका हल निकाला जाना जरूरी है। पिछले ६० वर्षों में देश में जिस प्रकार असंतुलित और विसंगतिपूर्ण विकास हुआ है, उसके बाद आंतरिक प्रवासन एक सामान्य परिघटना हो चुकी है। ७० के दशक में हुई हरित क्रांति के बाद पंजाब में बहुपरतीय आर्थिक प्रगति हुई है। राज्य में कृषि क्षेत्र में अतिरेक के बाद कुटिर व लघुस्तर के उद्योगों का भी विस्तार हुआ। वैज्ञानिक व कृषि यंत्रों, होम आप्लयसेंज और स्पोर्टस के सामन बनाने के उद्योग पंजाब में पिछले तीन दशकों में खूब फले- फूले हैं। इसके परिणामस्वरूप यहां रोजगार के अवसर पैदा हुए हैं और गरीबी में जबर्दस्त कमी आई । जबकि इस दौर में उत्तर प्रदेश और बिहार में रोजगार का पहिया बिलकुल ही थमा रहा। केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश व बिहार की आर्थिेक प्रगतिके के लिए कभी कोई ठोस कार्यक्रम लागू करने का प्रयास नहीं किया। इन राज्यों की सरकारें भी कभी विकास की बाबत बहुत गंभीर नहीं रहीं। कृषि उत्तर प्रदेश और बिहार में रोजगार का अहम जरिया रही है। लेकिन पिछले दो दशकों में अर्थिक नीतियों में आए बदलाव के कारण इन राज्यों में खेती -बारी चौपट होती चली गई। जिसके परिणामस्वरूप जहां इन राज्यों में बेरोजगारी बढ़ी वहीं गरीबी और अपराध ने भी यहां अपनी जडेें़ जमा लीं। खेती -बारी के नष्ट होने का दुष्प्रभाव कस्बों और छोटे शहरों पर भी पड़ा। उत्तर प्रदेश और बिहार में कस्बे और छोटे शहर ग्रामीण आबादी की वाणिज्यिक गतिविधियों को प्रमुख केन्द्र रहे हैं । यहां मौजूद लाखों खुदरा दुकानों की जीवन रेखा इन क्षेत्रों की कृषि का अतिरेक ही रहा है। लेकिन खेतीबारी का खत्म होना कस्बों और छोटे शहरों के लिए प्राणघातक साबित हुआ। इन क्षेत्रों में रोजी रोटी के अवसर अब बिलकुल ही खत्म हो गए हैं और यहां कि श्रामिक आबादी पंजाब व हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों की ओर रुख करने लगी है। आंकड़ों पर गौर करें तो २००४-०५ में पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा के नीेचे मात्र ९.०२ प्रतिशत आबदी रहती थी, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार में यह आबादी क्रमश:४२.१ और ३३.४ प्रतिशत थी। गरीबी रेखा के नीचे रह रही आबादी का यह अंतर उत्तरप्रदेश और बिहार की दुर्दशा की कहानी खुद बयां कर रहा है।
असंतुलित विकास के कारण हो रहे प्रवासन ने राजनीतिक समस्या का रूप भी ले लिया है। रोजगार के अवसर कम होने की स्थिति में मजदूरों पर क्या गुजरती है इसके उदाहरण महाराष्ट्र और असोम जैसे राज्यों में अक्सर ही देखने को मिलते रहते हैं। इन राज्यों में राजनीतिक दल इनके हितों को ही इंधन बनाकर अपनी रोटी सेंकते हैं और अपनी ताकत का मुजाहिरा करने के लिए इन श्रमिकों को ही अपना शिकार भी बनाते हैं । दरअसल प्रवासन में तेजी भी पिछले दो दशकों में ही आई है। पंजाब में ही गौर करें तो १९८१ की जनगणना में यहां उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों की संख्या क्रमश:२२०२१६ और ५८२३५ थी वहीं १९९१ में बढक़र संख्या २८०३५० और ९०७३२ हो गई। २००१ की जनगणना में ये संख्या ५१७३५१ और २६७४०९ हो गई। २००१ की जनगणना में पंजाब में प्रवासी मजदूरों में उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों का प्रतिशत क्रमश: ३२.९२ और १७ .०१ हो गया । पंजाब में २००१ में प्रवासी श्रमिकों के बीच आधी आबादी उत्तर प्रदेश और बिहार के श्रमिकों की थी। जबकि इसी दौर में हिमांचल, हरियाणा और राजस्थान से पंजाब आए श्रमिकों की संख्या में कमी आई थी। ये आंकड़े भी दरअसल पिछले दो दशकों में हुए असंतुलित आर्थिक विकास की ओर ही संकेत कर रहे हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है इन क्षेत्रीय विसंगतियों को समाप्त किया जाए और रोजगार के अवसर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कराने के प्रयास किए जाएं। लोकतंत्र होने के नाते सभी नागरिकों देश में कहीं भी काम करने की आजादी है , इसलिए आर्थिक संस्थाओं की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयास करें। बैंंको और व्यापारिक संगठनों से तो यह कतई अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे भेद भाव की प्रथा के पैरोकार बनेगें। इसलिए पंजाब में हुई घटना दोहराई नहीं जाएगी, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए।

14 जनवरी 2011

चिट्ठी के पते पर बदलता शहर का नाम

चन्द्रिका
अहा-जिन्दगी से
कलेंडर की किसी तारीख पर उंगली रखकर नहीं बताया जा सकता कि कोई शहर कब बना. शहर समय की रवायत में उठते हैं और फैल जाते हैं, जमीन के भूगोल के एक हिस्से पर घास की तरह. किसी चौराहे पर खड़े होकर भूगोल में सिमटते गाँव और विस्तारित होते शहर को ताउम्र भला कैसे कोई देखेगा. एक निर्मित होते शहर की उम्र के छोटे से टुकड़े में कई पीढ़ीयों की उम्र द्फ़्न हो जाती है. शहर, कस्बों, गाँवों का इतिहास ऐसा ही होता है कि उसकी पीठ पर खड़े हो जाओ और पुराने लोगों की पुरानी स्मृतियों को कुरेदो तो मिथक और यथार्थ की एक घालमेल तस्वीर आँखों में उतर आयेगी. मिथक और यथार्थ की ऐसी कई कहानियों से गुथा हुआ है वर्धा, महाराष्ट्र का एक छोटा सा जिला जिसे अब इसलिये जाना जाता है कि विदर्भ में किसानों की मौत का एक जिला यह भी है. गांधी जिले के नाम से देश के शोरगुल युक्त शहरों में एक चुप्पी साधे खड़ा शहर. देश के महानायक महात्मा गांधी के ६ सालों की कार्यपद्धतियों की गवाही में खड़ा और सुबूत के तौर पर अभी भी वे लोग शहर के किसी घर में झूले पर झूलते हुए गाँधीवादी सफेद टोपी पहने मिल सकते हैं जिन्होंने गांधी के साथ कुछ समय गुजारे हैं. वे अब भी उतनी संख्या में इस शहर में रहते हैं जितना गांधी का विचार इस देश में. गाँधी से जुड़ी हुई अनगिनत कहानियाँ इनके जेहन में अभी भी बची हुई हैं, लहू की धीमी गति और मध्यम स्वर में ७० साल पुराने इतिहास की साक्ष्य में इनकी आवाजें तेज हो जाती है और गाँधी के किस्से टुकड़े-टुकड़े में वैसे ही सुनने को मिलते हैं जैसे दादियों और नानियों से हम परियों के किस्से सुना करते थे.
१९३६ में जब गांधी ने यहाँ रहने का विचार बनाया होगा तो शायद यही कारण प्रमुख रहा होगा कि यह शहर देश के मध्य में स्थित है जहाँ न ज्यादा पूर्व है न पश्चिम और न उत्तर जितना उत्तर न दक्षिण जितना दक्षिण. इस देश के मध्य को गाँधी ने उतना चुना था जितना वे अंग्रेजी साम्राज्य से लड़ाई करते हुए भारतवासियों के मध्य चुने हुए एक सिपाही थे. वर्धा मे जब वे पहली बार आये तो जमुना लाल बजाज ने वर्धा शहर से ३ कि.मी. की दूरी पर सेगांव में १०० रूपये की लागत से उनके लिये एक कुटी बनवायी थी इस सौ रूपये की लागत से शायद अब उसकी पुताई भी सम्भव नहीं है. सेगाँव जिसे बाद के दिनों मे सेवाग्राम कहा जाने लगा पर सेगाँव से सेवाग्राम होने की भी रोमांचक कहानी है. सेगाँव नाम से इसी मार्ग पर एक और गाँव है जब गाँधी जी यहाँ नियमित रूप से रहने लगे तो उनकी चिट्ठियाँ भी यहीं पर आने लगी पर दो सेगाँव होने के कारण कई बार ऐसा होता था कि गाँधी जी की चिट्ठी भटकते हुए दूसरे वाले सेगाँव पहुंच जाती थी ऐसे में गाँधी जी ने उपाय सुझाया कि इस सेगाँव का नाम बदलकर सेवाग्राम कर दिया जाय और फिर यह सेवाग्राम बन गया. सेवाग्राम इसलिये भी कि गांधी जी इस गाँव में रहते हुए यहाँ के लोगों को सेवाभाव का एक पाठ पढ़ाया, वे परचुरे जैसे कुष्ट रोगियों की सेवा खुद अपने हाँथों करते थे. शिक्षा की नयी व्यवस्था नयी तालीम की यहाँ शुरुआत की गयी. गाँधी ने अपने जीवन के कार्यव्यवहार के अनुरूप एक दर्शन निर्मित किया जहाँ दैनिक जीवन के क्रिया कलाप से लेकर राजनैतिक जीवन के आदर्श का एक मिश्रित रूप ग्राम्य जीवन के साथ रचा गया. अपने इन ६ वर्षों में गाँधी एक राजनितिक, गृहस्त, आंदोलनकारी व समाज सेवक के रूप में रहे. कहा यह जा सकता है कि गाँधी जी का देश के बहुसंख्यक ग्रामीणों की व्यवस्था को लेकर जो सोचना था उसका एक प्रतिविम्बन सेवाग्राम में देखा जा सकता है. बाद के दिनों में अपनी व्यस्तताओं के कारण गाँधी जी स्थायी रूप से यहाँ नहीं रह पाये पर उनका आना जाना होता रहा. बाद में गाँधी के इस महत्वपूर्ण कर्मस्थली को भारत सरकार द्वारा संरक्षित कर दिया गया और उनके साथ के कई कार्यकर्ता यहाँ आकर रहने लगे. यहाँ से कुछ ही कि.मी. की दूरी पर पवनार आश्रम है जहाँ विनोवाभावे रहते थे एक छोटी पवनार नदी के किनारे पर बना. पवनार इतना बड़ा शहर नहीं बन पाया कि नदी दब जाय सो अभी भी नदी उतनी ही बची है जितनी विनोवाभावे के समय में थी. विनोवाभावे गाँधी के निकटतम शिष्य थे इस लिहाज से भी गाँधी की मृत्यु के पश्चात भी यह स्थान महत्वपूर्ण बना रहा.
इस जिले को गाँधी के विचारों के अनुरूप बनाने के लिये आधिकारिक तौर पर कई प्रयास किये गये इन प्रयासों में दृढ़ता कम उदार आस्थायें ज्यादा थी. वर्धा जिले को मदिरा बिक्री से मुक्त कर दिया गया और कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने का फैसला किया गया. बापूकुटी से दस किमी. के क्षेत्र में ऐसे किसी भी बड़े औद्योगिक ईकाई लगाना प्रतिबंधित किया गया जिससे अति प्रदूषण का खतरा हो. केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा यह निर्देश २३ फरवरी १९९४ में जारी किया गया था जिसमे कहा गया कि बापूकुटी को प्रदूषण मुक्त रखने के लिये यह जरूरी है कि इसके १० किमी. के दायरे में कोई प्रदूषणकारी उद्योग न लगाये जायें पर इससे पहले ही कुटी से महज ३ किमी. की दूरी पर लायड्स स्टील कम्पनी स्थापित हो चुकी थी. समय बीतने के साथ जब यह सर्कुलर लोगों के ज़ेहन में धुंधला हो गया तो २००८ में एक और कम्पनी उत्तम गालवा मेटालिक्स लिमिटेड बापूकुटी से महज ४ किमी. की दूरी पर १४०० करोड़ की लागत से खड़ी कर दी गयी. यह आज की संरचना का गाँधी की संरचना के साथ टकराव था और है जिसे वर्तमान पर्यावरण मंत्री जयराम नरेश ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण और प्रदूषण के नाम पर विकास को रोका नहीं जा सकता और अपने ही शहर में गाँधी के विचार हार गये. जैसे अंग्रेजों से मुल्क जीतकर हार गये वे मुल्क में.
बापूकुटी की देखभाल करने वाले लोगों ने सरकार द्वारा सहयोग के रूप में दी गयी राशि को यह कहते हुए लौटा दिया कि बापूकुटी को वे गाँव वालों के चन्दे से ही चलायेंगे यह सरकार के प्रति सेवाग्राम के लोगों का गाँधीवादी असहयोग है, बापूकुटी में सरकार का राज नहीं बल्कि अपना सुराज, गाँधी से सीखा हुआ और अब तक बचा हुआ.
१२५ साल पूरे कर रही कांग्रेस पार्टी ने सेवाग्राम में अक्टूबर माह में एक बड़े जलसे का आयोजन किया जिसमे देश के लाखों गाँधीवादी कार्यकर्ता और समाजसेवी शामिल हुए. सोनिया गाँधी व कांग्रेस के अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी इस जलसे में सिरकत की और ७० साल पहले गाँधी के कहे वाक्य को अपनी जुबान से बिना शर्मिंदा हुए कह दिया कि विकास तब तक नहीं होगा जब तक पंक्ति में खड़ा आखिरी आदमी खुशहाल नहीं महसूस करता पर वर्धा शहर के लोगों को नहीं पता कि वह आखिरी आदमी कौन है और वे देर तक तालियाँ बजाते रहे शायद इस बात पर भी कि आखिरी आदमी अब लाइन में खड़ा ही नहीं होता उसे पता ही नहीं चलता कि यह विकास की लाइन कहाँ लगती है उसे तो बस एक लाइन पता है जो पिछले कई सालों से लगी है और वर्धा का जब भी कोई किसान प्रताड़ित व हतास महसूस करता है तो उसी लाइन में जाकर खड़ा हो जाता है वह किसानों की आत्महत्या की लाइन है. पोला यहाँ के किसानों का पर्व है जिसमे वे अपने बैलों को सजाकर पूजा करते हैं और जगह-जगह मेले लगते हैं, किसान खुशियाँ मनाते हैं पर इस बार कई किसानों ने गीले अकाल के कारण पोला के रोज ही आत्महत्या कर ली और विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के आंकड़े में उनका नाम भी बस जोड़ दिया जाता है.
वर्धा शहर छोटी-छोटी पहाडियों या पहाड़ी न कहें तो टीलों ने जो जगह छोड़ दी है उसी में बसा हुआ है. अक्टूबर के महीने में जब लोग हल्की ठंडक में सड़कों पर टहल रहे होते हैं तो किसी भी गली या मोड़ से पहले बजती धंटियों की आवाज आती है फिर कतार में बैलगाड़ियों पर लदी सफेद कपास की गट्ठरे और उस पर बैठा किसान मानों इन्ही किसी टीले से लेकर लौट रहा हो सफेद बर्फ के बुरादे जो शहर के अन्तिम छोर पर बनी मंडी तक जाते हैं जहाँ इसे बेचकर वे कुछ पैसे और उदासी ही लेकर हरबार अपने लौटते हैं. शहर के किनारे किसी टीले पर खड़े होकर पूरा शहर देखा जा सकता है जैसे किसी ने टीले से ही मुट्ठी में भरकर इन घरों को फेंक दिया हो और वे पूरे शहर में बिखर गये हों पर एक चीज जो आकर्शित करती है वह है यहाँ के घरों की शैली छोटे-छोटे घर पर हर घर के निर्माण की अपनी एक अलग शैली है. इनकी गलियों में लोग कम ही दिखते हैं अलबत्ता हर घर के सामने विभिन्न रंगों से बनाई गयी आकर्शक रंगोलियां होती हैं जो यहाँ की महिलाओं के नित्यप्रति के कार्यों में संलग्न है जैसे वे घर बुहारती हैं रोज वैसे ही रोज रंगोलोयां भी बनाती है पर त्योहारों के अवसर पर ये विशेषतौर पर ही बनायी जाती हैं. पथरीली जमीनों में खेती से लेकर शहर की दुकानों तक महिलायें एक श्रमिक के रूप में दिखती है और वे अपने पहनावे में साड़ियों का कछार वैसे ही बनाती हैं जैसे कोई पुरुष धोती पहनता है. हिन्दी और मराठी की समावेसित संस्कृति में बसे यहाँ के लोग बेहद बेफिक्र होते हैं. उनकी बातचीत में न सख्ती होती है न मृदुता और गम्भीरता में भी एक अनमनेपन का भाव.
वर्धा शहर की आबादी २ लाख से भी कम है और पूरे जिले की आबादी १२ लाख से भी अधिक मतलब १० लाख से अधिक लोग गाँवों में रहते है. वर्धा की सरकारी ऑफिसों में आने के लिये ये लोग पैसेंजरगाड़ी का प्रयोग ज्यादा करते हैं भले ही उनके गाँव की दूरी १० किमी. हो. सुबह चलने वाली पैसेंजरगाड़ी इन्हें उतारती है और शाम को फिर वापस भी ले जाती है. सुबह और शाम के अलावा स्टेशन पर लोग इतने कम दिखते हैं जितनी कि रेलगाड़ियाँ जो उत्तर और दक्षिण भारत को यहीं से अलग करती हैं. आस-पास के बसे हुए गाँवों के साथ ही वर्धा सोता और जागता है गाँव के लोग अपनी नींद से उठते हैं और शहर की सड़कों पर अपनी सब्जियाँ, दूध, दही, मट्ठे इत्यादि लेकर अपने पैरों की धमक से शहर को नींद से जगा देते हैं और जब वे देर शाम जिसे देर रात नहीं कहा जा सकता वापस लौटते हैं तो शहर जम्हाइयां लेते हुए फिर से अपने नींद में लौट जाता है. ६० साल पहले वर्धा का नाम पालकवाड़ी था और फिर बाद में वर्धा नदी के नाम पर यह वर्धा हो गया यह गांधी जी के आने के पहले की बात है. नदी जिधर से भी गुजरी वर्धा जिले की सीमा रेखा का निर्धारण करती गयी. इस बिखरे हुए शहर में धूप हर मुड़ेड़ों पर पहुंचती है और धूप की मेहरबानी यह कि लोगों के घरों, सड़कों के साथ लोगों के रंग में भी उतर गयी है और चेहरे पर पीलापन नहीं बल्कि कालापन छाया रहता है. गर्मी के दिनों में यह तापमान ४८ डिग्री तक पहुंच जाता है बावजूद इसके लोग अपने चेहरे पर कपड़े को लपेटकर सड़कों पर घूमते हुए मिलते हैं गर्मी के दिनों में चेहरे पर लपेटे जाने वाले इस कपड़े को ड्रेस का एक हिस्सा ही माना जाता है. यहाँ रिक्से उतने ही हैं जितने कि यहाँ अमीर यानि बहुत कम और ज्यादातर लोग ऑटो से या फिर पैदल ही पूरे शहर को छानते रहते हैं. ठंडक के दिनों में यहाँ के बाजार और बाजारों जैसे नहीं होते न ही यहाँ स्वेटर की उतनी दुकाने दिखती हैं न अपने खाली समय में स्वेटर बुनती औरतें, ठंडक बस उतनी ही होती है जितनी कि यहाँ के हर घरों में लगे हुए मौसमी फूलों के खिलने को एक इशारा मिल जाय और घरों के बाहर फूल, पत्तियाँ, झाड़ ही होते हैं जो शहर के रंग में हरापन घोलते हैं. हर घर में सीताफल और नीबू जैसे पौधे लगे हुए मिलते हैं पर यह खाने के लिये कम देखने के लिये ज्यादा प्रयोग किया जाता है. वर्धा की जमीन कुछ इस तौर पर है कि इसमे कुछ भी उपजने के लिये मिट्टी और मौसम दोनों के संतुलन का अभाव दिखता है लिहाजा जिन्हें पेड़ कहते हैं वे पौधों के आकार मे ही उगते हैं.
यहाँ से ७५ किमी. की दूरी पर महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर बसी है जहाँ डा. भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्याग कर बुद्धिज्म को अपनाया था इसका प्रभाव पूरे विदर्भ में आज भी है यहाँ के दलित और मेहनतकश लोग बड़े पैमाने पर अपना धर्म परिवर्तन करते है और बौद्ध धर्म स्वीकार करते है. सुदूर फैले छोटे-छोटे गाँवों में लोग एक जलसा करते हैं जिसमे यहाँ धर्म परिवर्तन कराया जाता है और लोग बौद्ध बन जाते हैं. वर्धा के शहरों और गाँवों में छोटे बडे बौद्ध विहार देखे जा सकते हैं. महाराष्ट्र में दलित आंदोलन की एक लम्बी परम्परा है वर्धा इस रूप एं भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है यहाँ के दलित समुदाय ने बौद्ध धर्म को भले ही स्वीकार लिया हो पर अपनी धार्मिक कार्यपद्धतियों में वे हिन्दूधर्म की मिलावट खते हैं. वर्धा में यह बुद्ध का हिन्दूकरण है. वर्धा के घरों में गांधी, बुद्ध और अम्बेडकर की टंगी हुई तस्वीरें मिल जायेंगी और बाहर इनके नाम पर बनाये गये संस्थान. गांधी के नाम पर बने संस्थान व कुटीर उद्योग, संग्रहालय वर्धा में कई हैं जिनकी स्थिति वैसी ही है जैसे देश के तमाम गांधी संस्थानों की अलबत्ता शहर के लोगों को भी नही पता होता कि यहाँ होता क्या है और ये क्यों बनाये गये हैं. २ अक्टूबर, १६ अगस्त और २६ जनवरी ये कुछ ऐसी तिथियां है जब इन संस्थानों की सफाई होती है और इनके प्रांगड़ में एक डंडे पर तीन पट्टियों वाला एक झंडा फहरा दिया जाता है. एक महत्वपूर्ण संस्थान कस्तूरबा गांधी के नाम से बना मेडिकल कालेज है जिसमे साल भर चहल-पहल रहती है क्योंकि सुविधा के लिहाज से यह देश का एक महत्वपूर्ण हास्पिटल माना जाता है. १० वर्ष पूर्व गांधी के नाम पर यहाँ एक और संस्थान महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय स्थापित हुआ जिसकी अवधारणा यह थी कि हिन्दी को तकनीक के साथ जोड़ते हुए दुनिया के नये विमर्षों की शिक्षा यहाँ दी जायेगी पर यह हिन्दी समाज के भ्रष्ट प्रशासकों की बलि चढ़ गया.
जब देश अंग्रेजों का गुलाम था और मुक्ति की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो वर्धा तमाम गतिविधियों का केन्द्र बन गया था पर आज लोगों के ज़ेहन में वर्धा का नाम उसी तौर पर आता है जैसे इतिहास की छूटी हुई कुछ तारीखें हों, वर्धा अब गांधी के नाम पर मेले लगाने और देश के सरकारी गांधीवादियों के ढोंग का स्थल बन कर ही रह गया है।

12 जनवरी 2011

तिरुपुर आत्महत्या की राजधानी है

-दिलीप ख़ान

आंकड़े से बात शुरू करते हैं. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सन 2009 में सत्रह हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की, जोकि पिछले छह सालों में रिकार्ड है. आर्थिक विपन्नता और कर्ज तले दबे रहने के कारण 1997 से लेकर 2009 तक दो लाख से भी अधिक किसानों ने आत्महत्या के रास्ते को चुना है. इसी कालावधि में आत्महत्या के कारण देश के नक्शे के भीतर कुछ भौगोलिक क्षेत्रों की नई पहचान निर्मित हुई है. ज़्यादा मुनासिब यह कहना होगा कि इन क्षेत्रों के नाम के साथ स्वतः ही किसान आत्महत्याओं की तस्वीर दिमाग में कौंधने लगती है. यह एक तरह से पर्याय बन गया है- विदर्भ मतलब किसान आत्महत्या. हालांकि, इस तस्वीर की निर्मिति में समय लगा है. विदर्भ में किसान आत्महत्या जब राष्ट्रीय सुर्खियों में आई, उससे पहले हज़ारों किसान अपनी जान गवा चुके थे. कुछ प्रतिबद्ध पत्रकारों और कुछ ऐसी ख़बरों को सनसनी की तरह बेचने वालों ने जिस समय इसे तवज्जो दी, उस समय यह तथ्य भी जाहिर हुआ था कि किसानों और खेती-किसानी की रिपोर्टिंग में लगे पत्रकारों की संख्या बेहद न्यून है, जबकि एक फैशन परेड को कवर करने के लिए सैंकड़ों पत्रकार हाज़िर हैं.
अब इन क्षेत्रों के स्थानीय पृष्ठों के लिए यह एक रुटीन ख़बर की तरह है. आत्महत्यामूलक बहस में किसान आत्महत्या इतने वज़न के साथ मौजूद है कि दूसरे ईकाईयों में हो रहे आत्महत्याओं पर ज़्यादा बात नहीं हो पा रही. समस्या को एक जगह केंद्रित कर देने से सहूलियत होती है. इसमें इसे उस ख़ास क्षेत्र की विशेष परिघटना के तौर पर देखे जाने का आग्रह निहित रहता है. विशेष परिघटना का एक लोकप्रिय शिगूफ़ा प्रचारित किया जाता है. मसलन बहुतेरे ऐसा सुनने को मिलता है कि बिहार के किसान अधिक ग़रीब है लेकिन वे विदर्भ के किसानों के मुकाबले अधिक जीवट और साहसी होते हैं इसलिए वे आत्महत्या नहीं करते. छिपी हुई बात यह है कि विदर्भ के किसान कमज़ोर और लचर होते हैं. इसे प्रमुख कारण के तौर पर स्थापित कर देने से मूल कारण छुपा रह जाता है. ऐसा एहसास दिलाया जाता है कि “सुसाइड बेल्ट” के किसी किसान का आत्महत्या करना आम है. “सुसाइड बेल्ट” बनने के कारणों पर चर्चा नहीं होती. इसी चर्चा के अभाव में इस तरह के बेल्ट देश भर में विचरण करते रहते हैं. इसका भूगोल बदलता-फैलता रहता है. नए-नए बेल्ट बनते रहते हैं.
किसान आत्महत्या के भयावह आंकड़ों के साथ अभी जो ताजा चिंताजनक तथ्य सामने आ रहा है, वह यह कि ’दक्षिण भारत का मैनचेस्टर’ कहे जाने वाले कोयंबटूर से सटे हुए ज़िले तिरुपुर में पिछले दो सालों में एक हज़ार से अधिक वस्त्र-मज़दूरों ने आत्महत्या की है. तिरुपुर देश के बुने हुए सूती कपड़ों का लगभग 90% निर्यात करने वाला शहर है. बीते साल की पहली छमाही में 350 से अधिक मज़दूर आत्महत्या कर चुके थे और जून से अगस्त के बीच लगभग 250. अकेले अगस्त महीने में ही 103 लोगों ने अपनी जान दी. वहां प्रतिदिन औसतन पांच-दस लोग या तो आत्महत्या कर रहे हैं अथवा ऐसा करने की कोशिश कर रहे हैं. ज़िला प्रशासन को आत्महत्या निरोधक क्लिनिक बनाना पड़ा है, जहां आत्महत्या की कोशिश करने वाले मरीजों का ईलाज होता है.
आत्महत्या के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए तिरुपुर एक मॉडल है. तिरुपुर तमिलनाडु का ऐसा शहर है जहां पिछले दशक में सबसे तेजी से शहरीकरण हुआ है. विकास के सारे ’लोकप्रिय’ प्रतिमानों का इस शहर में खूब विस्तार हुआ है. मिसाल के तौर पर यहां कपड़े का व्यवसाय 2008 के 80०० करोड़ रुपए के मुकाबले 2009 में बढ़कर 120०० करोड़ रुपए का हो गया. वहां की एक स्थानीय कपड़ा कंपनी ने स्विटजरलैंड की एक बड़ी टी-शर्ट कंपनी का नियंत्रण अधिकार हासिल कर लिया. वहां के अधिकांश निर्यातक एकसाथ मिलकर साफ़ और हरे शहर के लिए मेहनत कर रहे हैं. इस शहर से वालमार्ट, टॉमी हिलफिगर, रिबॉक, डिज़ल, स्विचर जैसी दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां सौदा करती है, लेकिन वहां के अधिकांश मज़दूर बेहद सस्ता जहर और रसायन खाकर मर रहे हैं. आम तौर पर चूहे मारने की दवा और गाय के गोबर के पाउडर सरीखा कोई रसायन खाकर लोग आत्महत्या कर रहे हैं, जो सस्ता और आसानी से उपलब्ध हैं.
बारह घंटे काम करने के बाद मज़दूरों को दो सौ रुपए प्रतिदिन मिलता है. यह सिलाई, कटाई और बुनाई का दर है. कपड़ा मोड़ने और पैक करने का और भी कम है. देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी श्रम क़ानून को नहीं अपनाया जाता और ओवरटाइम की व्यवस्था को मालिक अपनी सुविधानुसार तय करते हैं. मज़दूरों की झोपड़पट्टियों में कई जगह हफ़्ते में एक दिन पानी आता है और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मज़दूरों को एकजुट होने से न सिर्फ़ कंपनी मालिक रोकते हैं बल्कि मज़दूर प्रतिरोध को दबाने में ज़िला प्रशासन का प्रच्छन्न प्रोत्साहन भी रहता है. ज़िला प्रशासन और राज्य की भूमिका को समझने के लिए एक मिसाल ले सकते हैं. वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट के अनुसार जिस दिन उनके रिपोर्टर शहर में गए उस दिन हज़ारों पुलिस वाले यह कहते हुए घर-घर में तलाशी ले रहे थे कि कोई माओवादी वहां छुपा है. लेकिन वेबसाइट का दावा है कि पुलिस का असली मकसद कामगारों द्वारा नियोजित अगले दिन के प्रदर्शन को कमज़ोर करना और उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए भयभीत करना था. पुलिस महकमा हर चीज़ को अलग-अलग करके देखने के पक्ष में है. मज़दूर समस्या और मज़दूर आत्महत्या को भी अलग-अलग कर देखने का उनका आग्रह है. लेकिन घटनाओं को अलग करके विश्लेषण करने में सिर्फ़ अपने सुविधाजनक स्थिति को हासिल करना एक निहित राजनीति है. मसलन, छत्तीसगढ़ में भी राज्य यह कहता है कि आदिवासी समस्या और माओवाद को अलग करके देखा जाना चाहिए, लेकिन माओवाद को राज्य के लिए बड़ा ख़तरा बताते हुए किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता को बिना किसी ठोस सबूत के गिरफ़्तार कर लेना अलग चीज़ के दायरे में नहीं आता. माओवाद बड़ा ख़तरा है इसलिए किसी के नाम के साथ इसका टैग लगाकर गिरफ़्तार किया जा सकता है. संसदीय राजनीति में भ्रष्टाचार की गूंज में क्या किसी ऐसे नेता को गिरफ़्तार किया जा सकता जिसका इससे कोई लेना-देना न हो. क्या उसके साथ यह तर्क इस्तेमाल किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार बड़ी समस्या है इसलिए किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता है?
तिरुपुर में आत्महत्या के आंकड़े का अश्लीलता की हद तक बढ़ जाने के बाद इसकी जांच-पड़ताल के लिए जिस समिति का गठन किया गया है उसमें डॉक्टर, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर व्यवसायी और सरकारी नुमाइंदे तक शामिल है लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर इसमें मज़दूर कार्यकर्ता को शामिल नहीं किया गया है. मज़दूरों की समस्या पर बात रखने का अधिकार मज़दूर को नहीं दिया जा रहा है. यह आयात-निर्यात को पूरी अर्थव्यवस्था में सबसे प्रमुख हिस्सा मानने वाले इस संरचना की निर्मिति का हिस्सा है. मज़दूरों के अधिकार और जीवन जीने की न्यूनतम शर्तों को दबाया जा रहा है. तिरुपुर में एक मज़दूर का फैक्ट्री में काम के दौरान हाथ कटने के बाद उन्हें न सिर्फ़ ईलाज के लिए पैसा देने से कंपनी मुकड़ गई बल्कि उसके बाद उसे काम से भी निकाल दिया गया. पिछले दो सालों में लगभग 25000 मज़दूरों को काम से निकाला गया है और तीव्र शहरीकरण से उपजी स्थिति में वे अपनी जीविका के लिए भीषण जद्दोजेहाद से गुजर रहे हैं. ऐसी परिस्थिति में तिरुपुर में अभी और आत्महत्या होने की संभावना है. धीरे-धीरे डॉलर सिटी, कॉटन सिटी, निट सिटी जैसी उपाधियों से हटकर तिरुपुर अब तमिलनाडु की आत्महत्या राजधानी के तौर पर विकसित हो रही है. विदर्भ की ही तरह हज़ारों लोगों के मरने के बाद यह मीडिया का विषय बनेगी.

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