29 मई 2007

बदलाव की धुरी नहीं रहा मध्यम वर्ग

पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान भारत में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तन लाने में मध्य वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका रही थी, लेकिन अब उसी मध्य वर्ग ने परिवर्तन के प्रबल विरोधी का चरित्र अख्तियार कर लिया है। वह प्रतिक्रियावादी हो गया है, वह आज ऐसे किसी भी बदलाव के पक्ष में तत्पर नहीं होता जो उसकी मौजूदा स्थिति के लिए असुविधाजनक हो। उसने परंपरागत कुलीन वर्ग को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सत्ता से बेदखल कर उस पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और अब वह समाज का सबसे महत्वपूर्ण वर्ग बन गया है। सभी प्रकार के बौद्धिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में वही है। समाज, राष्ट्र और व्यवस्था-तंत्र की नियति उसी की इच्छाओं-अपेक्षाओं के आधार पर निर्धारित होती है।


भारत में जिस मध्य वर्ग का विकास हुआ है, उसका मौजूदा चरित्र विरोधाभासों और विडंबनाओं से युक्त है। वह एक तरफ यथास्थितिवाद का पक्षधर है और दूसरी तरफ वह पश्चिमोन्मुख भी है। भारतीय मध्य वर्ग ने यूरोपीय मध्य वर्ग की तरह प्रगतिशील उदारवादी सोच तो अपना ली, लेकिन आर्थिक क्रांति के अभाव में उसकी प्रगतिशीलता एकांगी और अधूरी ही बनी रही। यूरोप में औद्योगिक क्रांति और वैचारिक क्रांति—दोनों साथ-साथ हुई थी। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का उदय भी उसके साथ ही हुआ। लेकिन भारत में यह सब एक साथ नहीं हो सका। उन्नीसवीं शताब्दी में वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन तो यहाँ कई चले, लेकिन विदेशी शासन की वजह से आर्थिक और लोकतांत्रिक क्रांति की परिस्थितियाँ नहीं बन सकीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था तो लागू हो गई, लेकिन आर्थिक क्रांति का सपना अधूरा ही रहा। हमारे समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था, जातिभेद, अशिक्षा और महिलाओं की उपेक्षित स्थिति प्रगतिशीलता और सामाजिक गतिशीलता की राह में बहुत बड़ी बाधा रही है।

आज के भारतीय मध्य वर्ग के चरित्र और आचार-व्यवहार को देखते हुए ऐसा लगता है कि 1835 ई. में लॉर्ड मैकाले ने रक्त और रंग की दृष्टि से भारतीय मगर रुचि, विचार, आचरण तथा बुद्धि की दृष्टि से अंग्रेज व्यक्तियों का जो वर्ग तैयार करने का उद्देश्य घोषित किया था, उस दिशा में वह काफी हद तक सफल रहा। इस मध्य वर्ग को मैकाले के मानसपुत्र की संज्ञा इसीलिए दी जाती है। विडंबना की बात यह है कि भारतीय मध्य वर्ग में पश्चिमपरस्ती की यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से बढ़ी है और 1990 के दशक में भूमंडलीकरण का दौर शुरु होने के बाद वह अपने भारतीयपन को ही पूरी तरह से भूल जाने की कोशिश में जुट गया है।

जिस मध्य वर्ग ने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में केन्द्रीय भूमिका निभाई थी और जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मानवतावादी नैतिक दृष्टिकोण और सत्य एवं अहिंसा के आदर्शों के अनुरूप व्यापक सामाजिक एवं राष्ट्रीय हितों के लिए त्याग और परिवर्तनवादी संघर्ष का रास्ता अपनाया था, आज वह इतना अवसरवादी, स्वार्थी, भ्रष्टाचार में लिप्त और यथास्थितिवादी कैसे होता जा रहा है? उसके नैतिक मूल्य कहाँ और क्यों लुप्त हो गए? एक वजह तो इसकी यह है कि ब्रिटिश पराधीनता के दिनों में मध्य वर्ग को खुद अपनी पराधीनता और बदहाली विशेष रूप से खलती थी, क्योंकि वह आधुनिक शिक्षा, सभ्यता और विचारों के संपर्क में आ रहा था और उसके प्रभाव से वह शासक वर्ग की तुलना में अपनी हीन स्थिति के कारणों को समझने लगा था। वह यह भी देख रहा था कि भारतीय समाज के उच्च वर्ग यानी जमींदार, भूस्वामी और राजे-महाराजाओं के हित विदेशी शासक के हितों के साथ मेल खाते हैं और इसीलिए वे उसी का साथ दे रहे हैं। मध्य वर्ग इस स्थिति को बदलना चाहता था और खुद सत्ता हासिल करना चाहता था। इसलिए महान राष्ट्रवादी नेताओं के नेतृत्व में उसने राष्ट्रीय आंदोलन में तन-मन-धन से भाग लिया। लेकिन स्वतंत्रता हासिल होने के बाद स्थिति पहले जैसी नहीं रही। अब खुद मध्य वर्ग के नेता ही सत्ता पर आसीन थे। इन नेताओं ने उन आदर्शों और नैतिक मूल्यों से अपना पल्ला झाड़ लिया, जो हमने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हासिल किए थे। उनका लक्ष्य येन केन प्रकारेन सत्ता में बने रहना हो गया। वे उपेक्षित आम जनता की चिंताओं से अधिकाधिक दूर होते गए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में विभिन्न वर्गों के बीच जीवन-स्तर का भेद तेजी से बढ़ने लगा। उच्च वर्ग एवं उच्च-मध्य वर्ग के बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम वाले मँहगे पब्लिक स्कूल खुलने लगे, जबकि निम्न वर्ग एवं निम्न-मध्यम वर्ग के बच्चों के लिए बिना छत और न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित विद्यालय रह गए। राजनीतिक-आर्थिक सत्ता पर काबिज वर्ग ने उपनिवेशी शासकों की भाषा और रंग-ढंग को अपना लिया। इस वर्ग के लोगों ने महानगरों और राजधानियों में रहना शुरू कर दिया। इनकी बिजली और पानी संबंधी जरूरतों के लिए बड़े-बड़े बाँध और नहरें बनाई गईं, लेकिन सुदूरवर्ती ग्रामीण आबादी के हितों और जरूरतों की अनदेखी की जाती रही। राजनीति केवल खोखले नारों और वोट बैंक के गणित पर आधारित हो गई। उसका वास्तविक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया से कोई सरोकार न रहा। सत्ताधारी वर्ग समाज में किसी भी मूलभूत परिवर्तन की कोशिश के सख्त खिलाफ हो गया। चाहे कोई भी राजनीतिक पार्टी सत्ता में हो, सबका बुनियादी चरित्र एक जैसा हो गया।

राजनीतिज्ञों ने जाति और धर्म के अर्थहीन मुद्दों को राजनीति में घसीट कर जनता के हित के वास्तविक मुद्दों से उनका ध्यान हटा दिया। इस तरह उन्होंने साजिशपूर्ण तरीके से जनशक्ति को क्रांति के विपरीत दिशा में मोड़ दिया। उच्च वर्ग और उच्च-मध्यम वर्ग के हित अमरीका और यूरोप की नवसाम्राज्यवादी शक्तियों के साथ फिर से जुड़ गए। इन नवसाम्राज्यवादी शक्तियों और उनके सहयोगियों के लिए नैतिक मूल्यों और आदर्शों का कोई मायने नहीं है। भ्रष्टाचार और अप्रत्यक्ष आर्थिक शोषण के नए-नए तरीकों से ये ताकतें बड़ी तेजी से अधिकाधिक आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण करने में सफल होती जा रही हैं। इसी के साथ उनकी जीवन-शैली, रहन-सहन और कार्य-व्यवहार में भी बदलाव आता जा रहा है। उनकी देखादेखी नीचे के वर्गों में भी इसी स्तर की संपन्नता और चकाचौंध वाली जीवन-शैली अपनाने की ललक पैदा होने लगी है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ है कि निम्न वर्ग के लोगों ने भी नैतिक मूल्यों की परवाह छोड़कर तेजी से पैसा बनाने की होड़ में सभी प्रकार के उचित-अनुचित साधनों को अपनाना शुरू कर दिया है। इसके चिंताजनक परिणाम भी हमारे सामने हैं।

आजादी के बाद से ही मध्य वर्ग को कभी सही मार्गदर्शन नहीं मिल सका। सरकार ने राष्ट्र निर्माण में शिक्षा के केन्द्रीय महत्व को नहीं समझा। देश के एक बड़े भूभाग में भूमि सुधार प्रक्रिया विफल रही। सामाजिक न्याय के नारों के बल पर राजनीति करने वाले नेताओं ने भी सत्ता में लंबे समय तक रहने के बावजूद आम मध्य वर्ग की वास्तविक स्थिति को सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया और वे उसे गुमराह करते रहे। यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियों ने भी संगठित क्षेत्र के एक छोटे-से मजदूर-किसान वर्गों को छोड़कर असंगठित क्षेत्र के अधिसंख्यक निम्न वर्ग एवं निम्न-मध्य वर्गीय जनता के हितों के लिए काम करने की जहमत कभी नहीं उठाई।

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति तो हमेशा बुर्जुआ हितों को लेकर ही चलती रही है। अपने नेताओं के छद्म करिश्मे के बल पर आम जनता का भाग्य बदल देने का झांसा देने वाली ये पार्टियाँ कभी उनकी स्थिति में वास्तविक सुधार लाने की बात नहीं सोचतीं।

उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक सुधार आंदोलनों की मध्यवर्गीय प्रगतिशील विचारधारा के विकास में सकारात्मक भूमिका रही थी, लेकिन आज जिस तरीके से स्वघोषित गुरुओं और संतों की फौज आधुनिक प्रचार माध्यमों की सहायता से कर्म फल और पूर्वजन्म के सिद्धांतों में विश्वास करने का उपदेश देने में दिन-रात जुटी हुई है, उसने भी आम मध्य वर्ग को अपनी दशा सुधारने के लिए परिवर्तनकारी संघर्ष करने के मार्ग से विमुख करने का काम किया है।

जाहिर है कि भारतीय मध्य वर्ग ने सामाजिक परिवर्तन की धुरी बनने की अपनी क्षमता अब काफी हद तक खो दी है। आज उसकी शक्ति को संगठित करने और इसे नैतिक प्रेरणा से संचालित करने वाला कोई समर्थ नेतृत्व उसके पास नहीं है। राजनीतिज्ञों और नवसाम्राज्यवादी ताकतों के साझे षड्यंत्र का वह शिकार बनकर रह गया है। वह अपने सामूहिक वर्गगत हितों को छोड़कर व्यक्तिवादी प्रतिस्पर्धा और अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने की होड़ में शामिल हो गया है। मार्क्स ने मध्य वर्ग के इस त्रासदीपूर्ण हश्र की कभी कल्पना भी नहीं की होगी।
स्रजन संवाद से साभार

23 मई 2007

क्या पंचायती व्यवस्था में परिवर्तन संभव है

यह बात अक्सर उठती है कि जो लोग इस व्यवस्था की खिलाफत करते है वे क्यों करते है ?सरकार से बात क्यों नहीं करते ?गोल्डी.एम.जार्ज एक दलित चिंतक हैं उन्होंने प्रयास किया है इस प्रश्न को समझने का

'' भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। '' लगभग डेढ़ सौ साल पहले कार्लमार्क्स ने 'दुनिया के मजदूर एक हो' का नारा दिया। यह नारा न केवल उस काल में प्रासंगिक था, बल्कि आज भी उसकी प्रासंगिकता में कोई घटौती नहीं आई है। फ्रांस की क्रांति के बाद पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रांति के माध्यम से फैल रही पूंजीवाद के खिलाफ यह नारा परिवर्तन की एक लहर को लाने में सशक्त था। दुनिया की सबसे बड़ी विसंगति आज यह है, कि दुनिया के मजदूर जितने बटे-बिखरे, अनेक, असंगठित हैं इसका कोई और मिसाल नहीं है। दूसरी ओर तमाम उद्योगपति व पूंजीपति एक-दूसरे के साथ मिलकर अपने संगठन और ताकत को बढ़ाए जा रहे हैं। चाहे हसिया से लेकर हथियार तक बेचने वाली कंपनी हो या फिर सब्जी से लेकर सीमेंट तक बेचने वाली कंपनी हो, यह सब आपसी तकरार व मतभेद को दूर कर एक मंच में बैठने लगे हैं। लगभग कार्लमार्क्स के ही तर्ज पर बाबा साहब अंबेडकर ने भी भारत में पीड़ित मूलवासियों को एक साथ लाने का प्रयास किया था, उन्होंने अछूत, शुद्र एवं आदिवासियों को एक साथ लाकर मिलजुलकर सामूहिकता के साथ रहने की परिकल्पना की थी। आधुनिक भारत के इतिहास में नि:संदेह ही यह समाजिक परितर्वन की पहली पहल थी। एक रूप से देखा जाए तो दुनिया के पीड़ितों एवं गुलामों को वैचारिक एवं सैध्दांतिक आधार अंबेडकर ने दिया। जिस प्रकार से दुनिया में मजदूरों का हश्र हुआ है। उसी प्रकार आज भारत में दलित, आदिवासी, पिछड़े लोग अनेक दल, धर्म व अपनी-अपनी जातियों में बंटी हुई है। वास्तव में यदि परिश्रम के साथ प्रयास किया जाए तो भारत में भी परिवर्तन संभव है। यदि अमरीका जैसे देश में काले और गोरे के बीच के भेद को सशक्त आंदोलन एवं सामुदायिक मंचों का प्रयोग कर तीस-चालीस सालों के अंदर कमजोर किया जा सकता है तो निश्चित ही बदलाव का कोई न कोई स्वरूप भारत में भी असंभव नहीं था।
आखिर भारत में परिवर्तन क्याें नहीं आया? क्या परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी केवल एक विभाग या वर्ग का ही है? परिवर्तन के मापदंड क्या होंगे? उसका माध्यम क्या होगा अथवा हो सकता है? इन तमाम सवालों का जवाब खोजना अतिआवश्यक है। अन्यथा समाज में बुनियादी परितर्वन संभव नहीं है। जब तक समाज में सभी लोगों का बराबरी की हिस्सेदारी व भागीदारी नहीं होगी, तब तक स्थितियां वैसी की वैसी ही रह जाएंगी। भारतीय समाज मूलत: ग्रामीण इलाकों में बसी हुई है इसलिए कोई भी परिवर्तन का जड़ भी यहीं से मजबूत हो सकती है। भारत के गांव के बारे में डॉ. अंबेडकर की यह मान्यता थी, कि यह सवर्ण और अवर्ण के तकरार का गुफा है। इसका मतलब यह हुआ कि चातुवर्ण के आधार पर जाति व्यवस्था का पोषक एवं संरक्षक भारत के गांव ही है, जिसमें कोई शक नहीं है। यह स्थिति पूरे देश में एक ही प्रकार से व्याप्त है। 1920 के दशक में केरल के पुलिया समाज में परिवर्तन की लहर फूंकने वाले कर्मठ दलित योध्दा ऐय्यंकाली ने उस समय गांव की व्यवस्था को तोड़ा था, जब रास्ते से दलितों का चलना भी वर्जित था। ऐय्यंकाली का नाम केरल के बाहर कितने लोग जानते हैं, यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन केरल के पुलया, परया, कुरवा इत्यादि समुदायों के बीच उनके सम्मान और प्रतिष्ठा की स्थापना करने वाले महात्मा के रूप में आज भी मानते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐय्यंकाली का पूरा आंदोलन अपने-अपने गांवों में सम्मान, इात व जीविकोपार्जन खोजने के तर्ज पर था। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत की भूमि में परिवर्तन की परिभाषा गांव से आरंभ हो। इसी प्रकार से यदि देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में भी गुरु घासीदास जी के द्वारा गैरबरारी एवं छुआछूत के खिलाफ एक नए ढंग से परिवर्तन का प्रयास हुआ था। यह प्रयास अत्यंत सफल भी रहा। घासीदास के परिवर्तन की प्रक्रिया को यदि समझा जाए तो वे भी गांव स्तर से ही इसका आरंभ किए थे। यह परितर्वन इतना तेज और तीव्रता के साथ हुआ कि अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी और यही वजह था कि वे सतनामी को एक 'क्रिमिनल ट्राइब' के रूप में घोषित किए थे। इस पूरे विश्लेषण से दो बातें साफ होती हैं। पहला यह कि भारत में परिवर्तन अनिवार्य है, दूसरा यह कि भारत में कोई भी बुनियादी परिवर्तन गांव से ही संभव है। अब यदि गांव से ही परितर्वन आनी है तो उसका माध्यम क्या हो सकता है? \n\u003cbr\>इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? भारत में परिवर्तन क्याें नहीं आया? क्या परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी केवल एक विभाग या वर्ग का ही है? परिवर्तन के मापदंड क्या होंगे? उसका माध्यम क्या होगा अथवा हो सकता है? इन तमाम सवालों का जवाब खोजना अतिआवश्यक है। अन्यथा समाज में बुनियादी परितर्वन संभव नहीं है। जब तक समाज में सभी लोगों का बराबरी की हिस्सेदारी व भागीदारी नहीं होगी, तब तक स्थितियां वैसी की वैसी ही रह जाएंगी। भारतीय समाज मूलत: ग्रामीण इलाकों में बसी हुई है इसलिए कोई भी परिवर्तन का जड़ भी यहीं से मजबूत हो सकती है। भारत के गांव के बारे में डॉ. अंबेडकर की यह मान्यता थी, कि यह सवर्ण और अवर्ण के तकरार का गुफा है। इसका मतलब यह हुआ कि चातुवर्ण के आधार पर जाति व्यवस्था का पोषक एवं संरक्षक भारत के गांव ही है, जिसमें कोई शक नहीं है। यह स्थिति पूरे देश में एक ही प्रकार से व्याप्त है। 1920 के दशक में केरल के पुलिया समाज में परिवर्तन की लहर फूंकने वाले कर्मठ दलित योध्दा ऐय्यंकाली ने उस समय गांव की व्यवस्था को तोड़ा था, जब रास्ते से दलितों का चलना भी वर्जित था। ऐय्यंकाली का नाम केरल के बाहर कितने लोग जानते हैं, यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन केरल के पुलया, परया, कुरवा इत्यादि समुदायों के बीच उनके सम्मान और प्रतिष्ठा की स्थापना करने वाले महात्मा के रूप में आज भी मानते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऐय्यंकाली का पूरा आंदोलन अपने-अपने गांवों में सम्मान, इात व जीविकोपार्जन खोजने के तर्ज पर था। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत की भूमि में परिवर्तन की परिभाषा गांव से आरंभ हो। इसी प्रकार से यदि देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में भी गुरु घासीदास जी के द्वारा गैरबरारी एवं छुआछूत के खिलाफ एक नए ढंग से परिवर्तन का प्रयास हुआ था। यह प्रयास अत्यंत सफल भी रहा। घासीदास के परिवर्तन की प्रक्रिया को यदि समझा जाए तो वे भी गांव स्तर से ही इसका आरंभ किए थे। यह परितर्वन इतना तेज और तीव्रता के साथ हुआ कि अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी और यही वजह था कि वे सतनामी को एक 'क्रिमिनल ट्राइब' के रूप में घोषित किए थे। इस पूरे विश्लेषण से दो बातें साफ होती हैं। पहला यह कि भारत में परिवर्तन अनिवार्य है, दूसरा यह कि भारत में कोई भी बुनियादी परिवर्तन गांव से ही संभव है। अब यदि गांव से ही परितर्वन आनी है तो उसका माध्यम क्या हो सकता है? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए? इसमें कोई दो मत नहीं होनी चाहिए कि पंचायती राज ग्रामीण स्तर पर बदलाव लाने में एक प्रबल माध्यम के रूप में है। अब सवाल यह उठता है कि पंचायती राज के माध्यम से किस तरह से छुआछूत, भेदभाव, जातिगत हिंसा जैसे सवालों को उठाया जाए?
पंचायत राज गांव के सभी वर्गों को एक साथ बैठने का मौका प्रदान करता है और यही एक माध्यम है जहां पर आपसी मतभेद को संवाद के द्वारा कम कर सकते हैं। पंचायत में आपसी भाईचारा को भी बढ़ाने का मंच भी उपलब्ध है। भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। इसके लिए थोड़ा ज्यादा समय लग सकता है किंतु यह धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा। सामाजिक क्रांति में पंचायतीराज में जो आरक्षण की व्यवस्था कायम है, वह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि परितर्वन का मतलब कमजोर के लिए स्थान बनाना ही है।

पंचायत राज गांव के सभी वर्गों को एक साथ बैठने का मौका प्रदान करता है और यही एक माध्यम है जहां पर आपसी मतभेद को संवाद के द्वारा कम कर सकते हैं। पंचायत में आपसी भाईचारा को भी बढ़ाने का मंच भी उपलब्ध है। भाईचारा एक सैध्दांतिक पहलू नहीं है बल्कि यह एक भावनात्मक सत्य है। ऐसे अनेक उदाहरण छत्तीसगढ़ में है, जहां लोग पंचायत में संयुक्त रूप से बैठकर संवाद के द्वारा आपसी भाईचारे को कामय रखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि परिवर्तन संपन्न हो गया लेकिन यह उस प्रक्रिया का हिस्सा जरूर है। इसके लिए थोड़ा ज्यादा समय लग सकता है किंतु यह धीरे-धीरे आगे बढ़ेगा। सामाजिक क्रांति में पंचायतीराज में जो आरक्षण की व्यवस्था कायम है, वह अति महत्वपूर्ण है क्योंकि परितर्वन का मतलब कमजोर के लिए स्थान बनाना ही है।
देशबंधु से साभार-

आखिर यह दुनियां किसकी है:-

दुनियांभर की सरकारों के प्रतिनिधियों और वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन की रिपोर्ट को प्रकाशित कर दिया है. इस रिपोर्ट में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे नया कहा जा सके. न ऐसा कुछ है जिसकी आशंका पहले न जताई गई हो. जो बात नई है वह यह कि अब तक जो आशंकाएँ जताई जा रही थीं वो धरातल पर दिखने लगी हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आने वाले दिनों में पानी का संकट होगा, फसलें चौपट हो जाएँगी और तरह-तरह की बीमारियाँ फैलेंगी. अगर पारा इसी तरह चढ़ता रहा और औसत तापमान डेढ़ से ढाई प्रतिशत बढ़ गया तो 20 से 30 प्रतिशत वनस्पतियाँ और जानवरों की प्रजातियाँ ख़त्म हो जाएँगी. पानी की किल्लत झेलने वाले देश अफ़्रीका के होंगे. बारिश के पानी से होने वाली फसल 50 फीसदी कम हो जाएगी. वह भी अफ़्रीकी देशों में. फसल की पैदावार कम होगी मध्य और दक्षिण एशिया में. ज़ाहिर है बीमारियाँ भी इन्हीं देशों में फैलेंगी. जब सब आँकड़े बता रहे हों कि भुगतेंगे वो जो वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दोषी कभी नहीं थे. तो रिपोर्ट में इसे स्वीकार भी करना पड़ा. इस रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग के बहाने से एक पुराने सवाल को फिर से कुरेद दिया है कि आख़िर यह दुनिया किसकी है और किसके लिए है? इसे कौन नहीं जानता कि पिछली दो सदियों में प्रदूषण के लिए मूल रुप से कौन ज़िम्मेदार रहा है? जो उद्योग पर उद्योग लगाते चले गए और विकसित देश बन गए उनका नाम इस रिपोर्ट में पीड़ितों की सूची में नहीं है. नाम उनका है जो ग़रीब हैं और अगर गरीबी से थोड़ा उबरे हैं तो अभी भी विकसित नहीं हुए हैं. विकासशील हैं. वो पहली और दूसरी दुनिया में नहीं गिने जाते वो तीसरी दुनिया के देश कहलाते हैं. निश्चित रुप से यह रिपोर्ट और ऐसी कई रिपोर्टें तीसरी दुनिया के देशों के लोगों को तकलीफ़ पहुँचाती है. लेकिन क्या यह तकलीफ़ उन्हें संवेदनशील भी बनाती है? शायद नहीं. जैसी वैश्विक समाज में ग़रीब देशों की स्थिति है वैसी ही तीसरी दुनिया के देशों में ग़रीब लोगों की है.
क्या यह सच नहीं है कि सीवरों और नालियों का रास्ता रोकने वाला कचरा कोई और जमा करता है लेकिन उससे आई बाढ़ झुग्गियों और निचली बस्तियों में रहने वाले लोग झेलते हैं? सड़कों पर धुँआ कारें उगलती हैं और दमे से लेकर टीबी तक के शिकार वो लोग होते हैं जो या तो बसों में सफ़र करते हैं या फिर जिन्हें बस का सफ़र भी नसीब नहीं. दिल्ली में यमुना प्रदूषित हो गई तो किसे फ़र्क पड़ रहा है. कार वाले यमुना के पुल तक पहुँचते-पहुँचते शीशे चढ़ा लेते हैं ताकि सड़ाँध से बच सकें लेकिन उनका क्या जिनके लिए यमुना का पानी ही निस्तारी का एक मात्र साधन था? चाहे दिल्ली हो या मुंबई या लखनऊ या पटना. अमीर या धनी समाज को लगता है कि अगर उसे सहना नहीं पड़ रहा है तो वह चिंता भी क्यों करे? और अगर चिंता करता भी है तो अपनी ग़लती सुधारने की जहमत कभी नहीं उठाता. न उनकी किसी को चिंता है और न वे ख़बर बनते-बनाते हैं. भारत जैसे देश में भी क्रिकेट की शीर्ष संस्था की बैठक तो पहली ख़बर होती है लेकिन दुनिया भर के ग़रीबों की पीड़ा 'डाउन-मार्केट' ख़बर होने के नाते भीतर के पन्नों में औपचारिक ख़बर बनी रह जाती है. \n\u003cbr\>तो फिर अफ़्रीकी देश भुगतें, दक्षिण एशियाई देश सहें तो इससे पश्चिमी देशों को क्योंकर तकलीफ़ होने लगी? उन्हें न्यूऑर्लियान्स में आई भयानक बाढ़ और फ़्राँस की भयानक गर्मी और यूरोप का तूफ़ान अभी भी अपवाद की तरह लगता है. ग़रीब, चाहे लोग हों, समाज हो या फिर देश, उसका प्रारब्ध ही सहना है. यह कौन सी दुनिया है और किसकी दुनिया है और यह दुनिया ऐसी है क्यों?
क्या यह सच नहीं है कि सीवरों और नालियों का रास्ता रोकने वाला कचरा कोई और जमा करता है लेकिन उससे आई बाढ़ झुग्गियों और निचली बस्तियों में रहने वाले लोग झेलते हैं? सड़कों पर धुँआ कारें उगलती हैं और दमे से लेकर टीबी तक के शिकार वो लोग होते हैं जो या तो बसों में सफ़र करते हैं या फिर जिन्हें बस का सफ़र भी नसीब नहीं. दिल्ली में यमुना प्रदूषित हो गई तो किसे फ़र्क पड़ रहा है. कार वाले यमुना के पुल तक पहुँचते-पहुँचते शीशे चढ़ा लेते हैं ताकि सड़ाँध से बच सकें लेकिन उनका क्या जिनके लिए यमुना का पानी ही निस्तारी का एक मात्र साधन था? चाहे दिल्ली हो या मुंबई या लखनऊ या पटना. अमीर या धनी समाज को लगता है कि अगर उसे सहना नहीं पड़ रहा है तो वह चिंता भी क्यों करे? और अगर चिंता करता भी है तो अपनी ग़लती सुधारने की जहमत कभी नहीं उठाता. न उनकी किसी को चिंता है और न वे ख़बर बनते-बनाते हैं. भारत जैसे देश में भी क्रिकेट की शीर्ष संस्था की बैठक तो पहली ख़बर होती है लेकिन दुनिया भर के ग़रीबों की पीड़ा 'डाउन-मार्केट' ख़बर होने के नाते भीतर के पन्नों में औपचारिक ख़बर बनी रह जाती है. तो फिर अफ़्रीकी देश भुगतें, दक्षिण एशियाई देश सहें तो इससे पश्चिमी देशों को क्योंकर तकलीफ़ होने लगी? उन्हें न्यूऑर्लियान्स में आई भयानक बाढ़ और फ़्राँस की भयानक गर्मी और यूरोप का तूफ़ान अभी भी अपवाद की तरह लगता है. ग़रीब, चाहे लोग हों, समाज हो या फिर देश, उसका प्रारब्ध ही सहना है
यह कौन सी दुनिया है और किसकी दुनिया है और यह दुनिया ऐसी है क्यों?
पंकज परासर से साभार

भारतीय लोकतंत्र-

भारत का लोकतंत्र किन सीमाओं और खतरों का शिकार है? क्या जनमत निर्मित कर इस लोकतंत्र को कामयाब बनाया जा सकता है?


, भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है और इस भ्रम को साम्राज्यवादी चिंतन के प्रभाव में रहनेवाली मीडिया भी दिन-रात प्रचारित करती है. यहां विरोध को भी बड़ी आसानी से पचा लिया जाता है. जिस तरह ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्च्न को मीडिया भुनाती है उसी तरह अरुंधति राय को भी स्टूडियो में बुला कर उसे अपने विचारों को रखने का मौका दिया जाता है, क्योंकि दुनिया को दिखाना है कि देखिए हम कितने लोक तांत्रिक हैं. हम एक क्रू नहीं बल्कि सॉफिस्टिके टेड समय से गुजर रहे हैं, जहां हर विरोध को खूबसूरती से पहले दिखाया जाता है और फिर उसे दुत्कार दिया जाता है. उन्हें बिग स्टोरीज चाहिए अपने बिजनेस के लिए और बदकिस्मती से लोगों के रोजाना के संघर्षों में उन्हें कुछ भी नया और सनसनीखेज नजर ही नहीं आता. गरीबों के नाम पर जतायी जानेवाली हमदर्दी (पॉलिटिक्स ऑफ पिटी) भी बड़ी खतरनाक होती है और एनजीओ मिशनरीज इस हमदर्दी जताने की घटिया राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. उनके द्वारा कई बार एम्पावरमेंट शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े खतरनाक हैं. एम्पावरमेंट के जरिये कमजोर वर्गों को रिप्रजेंट करने का दावा किया जाता है और पैसा कमाया जाता है, जबकि हमें सही अर्थों में लोगों को पावरफुल बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर लोगों को खुश रखने के लिए पीपुल्स कार तो बना रहा है, लेकिन लोगों को पीने का पानी और खाना कहां से मिलेगा, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.
बिजनेस आर्थिक नीतियों से जुड़े सभी फैसले पूरी तरह राजनीतिक होते हैं, लेकिन उन्हें राजनीति से अलग दिखाने की कोशिश की जाती है. ऐसे फैसलों के प्रतिरोध के लिए कौन से साधन अपनाये जा सकते हैं? अब कहीं उम्मीद है तो सताये और शोषित लोगों से ही है, जो अपनी भारी संख्या बल का लाभ विरोध करने के लिए उठा सकते हैं. इस संख्या बल का फ़ायदा उठा कर लोग गलत चीजों को खुद आगे बढ़ कर रोक सकते हैं. इसके अलावा पीपुल्स मीडिया विकसित करने के बारे में भी हमें सोचना चाहिए. पीपुल्स वॉयस के नाम पर सारे ही अखबार-चैनल अपना धंधा चमकाने की कोशिश करते हैं और बहुत बड़ा फ्रॉड करते हैं. इससे लड़ते हुए हमें कम्युनिटी रेडियो, सिनेमा और पत्रिकाओं का विकास करना चाहिए. मुख्यधारा की मीडिया के पीछे भागने की आदत छोड़नी होगी. नर्मदा बचाओ आंदोलन को मीडिया में सबसे ज्यादा कवरेज मिला, लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. दूसरी ओर झारखंड में कोयलकारो में आदिवासियों ने सुवर्णरेखा पर बन रहे बांधों का निर्माण रोक दिया, जबकि वहां मीडिया का ध्यान भी नहीं गया था. इसी तरह ओड़िशा में गंधमर्दन में स्थानीय लोगों के विरोध के चलते बाल्को को वहां से भागना पड़ा और नंदीग्राम में सालेम को प्रचंड विरोध के आगे पसीने छूट गये. मीडिया के हालात को देखते हुए मैं खुद भी टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा लेने नहीं जाती हूं, क्योंकि वहां लगता है कि मैं भी सर्कस की जानवरों में से एक हो गयी हूं. वहां मुझे एक शोपीस की तरह सजा कर खड़ा कर दिया जायेगा और जो मैं वास्तव में कहना चाहती हूं, वह कहने के लिए समय नहीं दिया जायेगा. हमें सिनेमा तकनीक की ओर इसलिए भी ध्यान देना होगा, क्योंकि मुख्यधारा का सिनेमा अब इंटरनेशनल एलीट के कब्जे में है. हाल में आयी गुरु फि ल्म को देखिए, जिसमें खुल कर साम्राज्यवाद का पक्ष लिया गया है. धीरू भाई अंबानी की जिंदगी से प्रेरित इस फि ल्म में शक्तिशाली बिजनेसमैनों को ऐसे दिखाया गया है जैसे वे बंधुआ मजदूर हों और राज्य के सताये हुए हों. जबकि हकीकत में यह फ़िल्म लोकल कैपिटलिज्म के पक्ष में बनायी गयी है और ऐसे उद्योगपतियों को हीरो बनाया गया है जो किसी भी तरह की जवाबदेही से बचना चाहते हैं. यानी फिल्मकार भी अब साम्राज्यवाद के सबसे बड़े कारिंदे के रूप में उभर रहे हैं और उन्हें देश के हितों की चिंता नहीं रह गयी है. फिल्मों के अलावा अब सिनेमा हॉल भी ऐसे बनाये जा रहे हैं, जहां सिर्फ अमीरों के लिए ही फिल्में चलतीं और दिखायी जाती हैं. बड़े-बड़े सिनेमा हॉलों को तोड़ कर मल्टीप्लेक्स हॉल बनाये जा रहे हैं, जहां दो-ढाई सौ रुपये से कम का टिकट नहीं होता है. यानी सिनेमा हॉलों और फिल्म निर्माताओं ने अपने दर्शक वर्ग का चुनाव लिया है. जो लोग इतना पैसा देकर फिल्में देखेंगे, वे कभी आम जनों की जिंदगी पर बनी फ़िल्में पसंद नहीं करेंगे. वे उन्हीं फ़िल्मों को पसंद करेंगे जो उनकी शानो शौकत और ग्लैमर में डूबी ज़िंदगी को नाटकीय अंदाज में पेश करेंगी. न्यूज चैनल भी आम सच्चाइयों से कटते जा रहे हैं, भले ही वे दिनोंदिन कितने ही बड़े होते जा रहे हों. इसीलिए मैं कहती हूं जनांदोलनों को मीडिया को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए, हमारी सारी ऊर्जा वहीं खप जाती है. हमें अब मीडिया को दिखाने के लिए कोई आंदोलन नहीं करना है, बल्कि किसी मुद्दे के प्रति गंभीरता से प्रेरित होकर आंदोलन करना चाहिए. वैसे भी, मीडिया की आदत ही किसी मुद्दे को चबा कर उसे थूक देने की है. निठारी केस में जिस गैरराजनीतिक तरीके से सारी रिपोर्टिंग हुई वह भी मीडिया के निकम्मेपन को दरसाता है. हमें अपने संघर्ष के लिए अन्य भाषाओं में लिखे साहित्य उनके अनुवादों की मदद लेनी चाहिए. साहित्य और संस्कृति की किसी भी समाज में दोहरी जिम्मेदारी होती है. एक ओर वे राष्ट्र के आंतरिक स्वरूप को ज्यादा लोकतांत्रिक और समानतापरक बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, दूसरी ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय जागरूकता पैदा करने का काम करते हैं. इन जिम्मेदारियों से रचनाकारों के विचलन की वजह क्या है? साहित्य-संस्कृति के बारे में आपकी मान्यताएं सहीं हैं, लेकिन विचारधारा पर निष्ठा कायम रख पाना काफी चुनौतीपूर्ण है, लेकिन जो लेखक , खासतौर पर भारत के अंगरेजी लेखक यूरोप में रह रहे हैं, वे साम्राज्यवाद के खिलाफ क्या लिखेंगे? उन्हें अभी छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में रहना पड़ जाये, जहां रोज जीवन-मौत का संघर्ष होता है, तो फिर से विचारधारा और साहित्य के रिश्ते समझ में आने लगेंगे. ऐसे लेखकों की जब अंतरराष्ट्रीय मीट आयोजित होती है, तो वे अपने इंडोनेशिया, कोरिया और हांगकांग के अनुभवों के बारे में बात करते हैं, लेकिन भारत के गांवों में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी उन्हें कम ही रहती है. हम क्रांतिकारी साहित्य की बात तो करते हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि सभी क्रांतियों ने अंत में पूंजीवाद को ही बढ़ावा नहीं दिया है? यानी सभी क्रांतियों का अंत एडवांस्ड कैपिटलिज्म में ही हुआ है, लेकिन यह सभी सही होते हुए भी लेखक के लिए क्रांतियों का आकर्षण हमेशा बना रहेगा. उसे किसी भी तरह के फासीवाद के खिलाफ लिखना और बोलना होगा, क्योंकि उसकी चुप्पी का अर्थ होगा फासीवाद को समर्थन देना, उसके खेमे का हिस्सा बन जाना. लेकिन कई बार लेखक ही समाज में लेखक के क्रांतिकारी रोल को चुनौती देता है. मुझ पर जाने कितनी बार यह कह कर हमले हुए हैं कि मैं बांध, परमाणु बम और सांप्रदायिक दंगों जैसे विषयों पर क्यों लिखती हूं. यहां तक कहा गया कि मैं अपने सेलेब्रिटी स्टेटस का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश रही हूं और अपनी लेखन प्रतिभा ऊर्जा का दुरुपयोग कर रही हूं. इन सारे हमलों के बाद मैंने अपने आलोचकों से कहा था कि तुम लोग लेखन के विषयों की एक लिस्ट बना कर मुझे दे दो, मैं बस उन्हीं पर लिखती रहूंगी. ऐसी आलोचना करनेवाले सिर्फ दक्षिणपंथी लेखक ही नहीं, लिबरल छविवाले लेखक भी थे और तब मुझे महसूस होता था कि भी- भी उदारपंथी लेखक कि सी फासिस्ट लेखक से ज्यादा धूर्त और कट्टर होते हैं. वे सीधे किसी का दमन करने का पक्ष नहीं लेते, लेकिन लेखन के कई विषयों के खिलाफ एक लिटरेरी सेंसरशिप के लिए माहौल निर्मित करने का काम रते हैं.