26 जनवरी 2012

वंशवाद और यथास्थितवाद के पोषक हैं युवा चेहरे

दिलीप ख़ान

15वीं लोकसभा में 40 साल से कम उम्र के 79 सांसद चुनाव जीतकर संसद पहुंचे, पिछली लोकसभा से यह संख्या दोगुनी से भी अधिक थी। इसके बाद एकबारगी यह फुसफुसाहट सुनाई दी कि युवा राजनेताओं की यह बढी हुई संख्या राजनीति को नई दिशा देगी और कुछ नई किस्म के सवालों को एड्रेस करेगी या फिर अपनी पार्टी के भीतर ही मतदाताओं को गोलबंद करने की पुरानी जाति-धर्म आधारित गणित को तजने की कोशिश करेगी। युवाओं को राजनीति की तरफ़ आकर्षित करेगी। वगैरह, वगैरह। लेकिन अब तक स्थिति में कोई फर्क़ महसूस नहीं हो रहा है। युवाओं के चुने जाने से पहले और चुने जाने के बाद युवाओं की वजह से सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा जिसको नोटिस किया जाना चाहिए। युवा नेताओं से इस बात की बहुत उम्मीद नहीं लगाई गई थी कि वो सामाजिक-आर्थिक रूप से दबाए गए वर्गों के प्रश्नों को उन वर्गों की मांग के अनुरूप देखेंगे और युवा नेताओं ने साबित किया कि यही अनुमान एकमात्र सही अनुमान था।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से जब यह बयान आया था कि मेहनत करने वाले युवा सांसदों को मंत्रालय दिया जाएगा तो इसके निहितार्थों को समझा जाना चाहिए। पहला यह कि भारत में दुनिया की सर्वाधिक युवा आबादी निवास करती है और कम से कम बीते दो-ढाई दशकों से राजनीति को लेकर इन युवाओं के जेहन में जो तस्वीर बनी और बनाई गई है वह नकारात्मक ही है। ये राजनीतिक गतिविधियों से तो खुद को काटकर रखना पसंद करते हैं लेकिन चाहते हैं कि कोई बांका युवा संसद में पहुंचे। इस उपस्थिति को फिर ये लोग युवा शक्ति के नए उभार को तौर पर देखते और प्रचारित करते हैं। ऐसे में किसी कम उम्र के सांसद को संसद भवन में देखकर युवा मतदाताओं की उम्मीदें इस रूप में जगती है कि उनकी उम्र के आस-पास वाले इन नेताओं को आज के समय-समय की वही जानकारी है जो उनके (मतदाताओं) पास है। इसके अलावा युवाओं में यह धारणा तेजी से विकसित हुई है कि भारत में चेहरे पर झुर्रिया पड़ने के बाद राजनीति की शुरुआत करने वाले बुजुर्ग आज के समय (युवाओं की चाहत) को ठीक से भांप पाने में अक्षम है। दूसरा यह कि मेहनत करके मंत्रालय हासिल करने की स्थिति तक पहुंचने वाले नेता कौन हैं? पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा (भाई मणिपुर में विधायक), सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि। यानि अतीत में जिनके पास मंत्रालय था उनसे छिटककर अगर बेटों-भतीजों-पोतों के पास आ गया तो शक्ति के जो चुनिंदा केंद्र अब तक रहे हैं उसमें फ़र्क़ क्या आया? क्षैतिज (होरिजोंटल) प्रतिनिधित्व के बदले ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) प्रतिनिधित्व के जरिए अगर यह आभास कराने की कोशिश की जा रही है कि यह युवा प्रतिनिधित्व को बढावा देने वाला कदम है तो यह शातिराना राजनीतिक चाल के साथ-साथ असल सवाल को ढंकने का बड़ा हथियार भी बन जाता है। संसदीय लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी से संबंधित सवालों के शक्ल को नई-नई संरचनाओं से ओवरलैप करके बदल दिया जाता है। यह स्थिति दुनिया भर में एक साथ मौजूद है। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में पहली बार किसी महिला (हिलेरी क्लिंटन) या अश्वेत (बराक ओबामा) में से किसी एक को चुना जाना था और इस तरह चुनाव में पीछे छूटे महिला प्रतिनिधित्व का सवाल अश्वेत की जीत के जश्न के साथ ही दब-सा गया। यह क्रम उल्टा भी हो सकता था। सवाल के केंद्र में ये होना चाहिए कि अब तक ऐसी स्थिति क्यों बनी रही कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में 21वीं सदी में आकर अश्वेत और महिला के साथ पहली बार वाला संघर्ष चल रहा था।

भारत के संदर्भ में युवा राजनीति की पड़ताल इस रूप में सबसे ज़्यादा होनी चाहिए कि देश के राजनीतिक संकट को ये युवा किस तरह भर रहे हैं। संसद और सड़क के बीच जो खाई बढी है उसको किस तरह ये युवा चेहरे पाट पा रहे हैं? ज़मीन, विस्थापन और आर्थिक नीतियों से जुड़े प्रश्नों को किस नए नज़रिए से ये देखते हैं? उत्तर प्रदेश में बीते एक साल से लगातार यात्रा कर रहे राहुल गांधी जब ये कहते हैं कि गांव के लोगों का दर्द देखकर उनका कलेजा निकल आता है तो देश की बड़ी आबादी को ये चुनावी स्टंट लगता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि गांव के जिन लोगों के साथ खुद को जोड़कर राहुल गांधी जुलूस और यात्रा के दौरान देखते हैं खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का मुद्दा आते ही वह जुड़ाव बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ हो जाता है। और फिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाने के बाद जब गांव जाते हैं तो विरोध कर रहे किसानों को मनाने के लिए यह तर्क रखते हैं कि यह निवेश उनके पक्ष में होगा। बीज पर संसद में जब ऐसा विधेयक पेश किया जाता है जिसका देश के लगभग सारे किसान संगठनों ने विरोध किया हो तो सत्ता के बुजुर्ग नेताओं की तरह ही युवा भी अपनी पार्टी के बचाव में उतर आते हैं और किसानों को बहलाने की कोशिश में लग जाते हैं। नियम क़ायदे ऊपर से नीचे की ओर तय किए जा रहे हैं और युवा नेताओं की ऐसी कोई मिसाल दूर-दूर तक नज़र नहीं आती जिसमें इन्होंने अलग स्टैंड लिया हो और ये कोशिश की हो कि जनता की मांग के अनुसार संसद में विधेयक बने।

जब यूरोप के किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटा राजनेता आर्थिक व्यवस्था पर आधिकारिक टिप्पणी करता है और देश के विकास के लिए पश्चिमी और विदेशी निवेश की महत्ता का बखान करता है तो नवउदारवादी युग में पैदा हुए उन तमाम युवाओं को जो अब मतदाता में तब्दील हो चुके हैं, उसमें एक वैचारिक साम्यता दिखाई देती है। ये युवा राजनेता देश के अधिसंख्य मध्यवर्गीय युवाओं की फैशनपरस्ती को वैचारिक सान देते हैं। इन नेताओं के भीतर देशज सामाजिक-राजनीतिक समझदारी पूर्वजों और घर के चौपाल में आने वाले लोगों के बरास्ते आती हैं। पूर्वजों की परंपरा को वहन करना इनके लिए ज़िम्मेदारीबोध बन जाता है। इस तरह ये युवा नेता एक तरह से यथास्थितिवाद का ही पोषक बने रहते हैं। मिसाल के तौर पर विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने और कई सालों तक रहने के बाद अब मध्यप्रदेश में राजनीति का ककहरा सीख रहे दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह अपनी पदयात्रा के दौरान एक अघोरी चंपादास महाराज के पैरों में लोटकर चुनावी सफलता का आशीर्वाद लेने पहुंचे। जयवर्धन सिंह ऐसे अकेले नेता या युवा नहीं है जो लैपटॉप और इंटरनेट के साथ उठते-बैठते हैं लेकिन सामाजिक अंधविश्वास और रूढ़ियों को भी उतनी ही मज़बूती से थामे रखते हैं, बल्कि बह तकनीक को विकास का पर्याय समझने वाली एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मौजूदा लोकसभा में चुने गए युवाओं की प्रोफाइल पर एक नज़र मारने से ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि असल में वंशवादी राजनीति से इतर कितने लोग संसद की चहारदीवारी में पहुंचे है और उनकी राजनीतिक शक्ति का स्तर क्या है? मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा, राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, माधव राव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, वसुंधरा राजे सिधिंया के बेटे दुष्यंत सिंह, राजीव-सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी इनमे से कुछे चुनिंदा युवा चेहरे हैं। एक टीवी चैनल पर दिए गए साक्षात्कार में शीला दीक्षित ने बेटे संदीप दीक्षित के बचाव में कहा कि यदि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर हो सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता! ऐसे कई परिवार हैं जिनके एक से ज़्यादा सदस्य चुनकर मौजूदा लोकसभा में पहुंचे। शरद पवार और बेटी सुप्रिया सुले, मेनका गांधी और बेटा वरुण गांधी, अजीत सिंह और बेटा जयंत चौधरी, एच जी देवेगौड़ा और बेटा एच डी कुमारस्वामी, मुलायम सिंह यादव और बेटा अखिलेश यादव, शिशिर अधिकारी और बेटा सुवेंदु अधिकारी। ऐसी स्थिति में बेहद परस्परविरोधी आंकड़े निकलकर सामने आते हैं। एक तरफ इस लोकसभा को युवाओं की बढी हुई संख्या के लिए प्रचारित किया गया वहीं दूसरी तरफ़ ये तथ्य छुपा लिया गया कि इन संख्याओं के बावज़ूद यह लोकसभा अब तक की तीसरी सबसे बूढ़ी लोकसभा है। इसकी औसत उम्र 53.03 साल है। युवाओं की बड़ी संख्या के बावज़ूद औसत उम्र क्यों बढ़ गई? इसकी वजह ये है कि बूढ़े लोग संसद के खंभे को थामे रहे और परिवार के नए सदस्यों के लिए खंभे जुगाड़ते रहे। युवा प्रतिनिधित्व का मौजूदा स्वरूप एक तरह से वंशवादी राजनीति को मज़बूत करने वाला साबित हुआ है। 46.5 साल की औसत उम्र के साथ पहली लोकसभा सबसे युवा लोकसभाओं में से एक थी।

पारिवारिक रस्सी थामें संसद पहुंचने के बाद बची हुई उम्र किस तरह संसद के भीतर ही गुजर जाए, यह चिंता के केंद्र में होती है। क्या ये नजीर बनकर युवाओं के सामने उपस्थित हैं? विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले और अपने कस्बों में रहने वाले युवाओं के भीतर क्या ये नेता किसी हद तक ये पैबस्त करा पाते हैं कि राजनीतिक जीवन गरिमापूर्ण हो सकता है? छात्र राजनीति को उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह में रोड़ा बताने वाली बिड़ला-अंबानी समिति की रिपोर्ट के बाद लिंगदोह समिति द्वारा कसी गई लगाम पर क्या युवा राजनेता संसद में किसी तरह का विरोध जता सके? जाहिर है समाज के बड़े हिस्से का राजनीतिकरण करने में ये बुरी तरह नाकाम रहे हैं। सवाल यह है कि पार्टी के भीतर इन नेताओं की स्थिति क्या है? वंशवादी युवा भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन ऐसे मुद्दों पर ही करते हैं जहां पार्टी का हित ठोस हो और बाप-दादा की शक्ति को अपनी शक्ति में तब्दील करने का कदमताल पूरी हो जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी में जब दागी डीपी यादव को बसपा से निकाला गया तो मोहन सिंह सहित समाजवादी पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने यह इच्छा जाहिर की कि डीपी यादव को सपा में शामिल किया जाए लेकिन प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने न सिर्फ आपत्ति जताई बल्कि मोहन सिंह को राष्ट्रीय प्रवक्ता पद से भी बर्खास्त कर दिया। यह न तो युवा वर्चस्व का नमूना है और न ही इसका संकेत कि समाजवादी पार्टी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को पार्टी में शामिल नहीं करना चाहती, बल्कि अखिलेश यादव द्वारा यह मुलायम के उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी ठोस उपस्थिति को साबित करने का एक मंच साबित हुआ। समाजवादी पार्टी ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कई नेताओं को टिकट दिया है। इनमें पार्टी के पुराने नेताओं से लेकर दूसरी पार्टी से भागकर आए नेता भी शामिल हैं। मसलन फ़ैजाबाद के गोसाईगंज से सपा ने अभय सिंह को, बीकापुर से मित्रसेन यादव को, सीतापुर से अनूप गुप्ता को टिकट दिया है। इसके अलावा मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में सजा काट रहे पूर्व मंत्री अमरमणी त्रिपाठी ने भी अपने बेटे के लिए टिकट की व्यवस्था पक्की कर ली। अब अमरमणि के बटे को जनता का युवा प्रतिनिधि किस आधार पर कहा जाना चाहिए? बसपा से सपा में आए भगवान शर्मा उर्फ़ गुड्डू पंडित को बुलंदशहर के डिबाई से सपा ने टिकट दिया। राजनीति में बुजुर्ग के बदले युवा चेहरे की बढती संख्या तब तक महत्वपूर्ण फर्क पैदा नहीं करेगी जब तक आर्थिक और सामाजिक ढांचे को लेकर इनकी सोच में ताजगी नहीं होगी और जब तक हाशिया पर खड़ी आबादी को वाजिब हक़ देने के लिए ये सामने नहीं आएंगे। हालांकि मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह बेहद मुश्किल लग रहा है।

12 जनवरी 2012

सत्ता को नियंत्रित करने वाली खबरें अब भी गायब हैं

जॉन पिलगर एक पत्रकार, फिल्म-निर्माता और स्तंभकार हैं। जिन्होंने पिछले तीन दशकों से वैश्विक घटनाओं को कवर किया है। इन्होंने साठ और सत्तर के दशक में वियतनाम, कम्बोडिया और पूर्वी तिमोर में अमेरिकी राजनीति को कवर किया है। और जो वंचितों के अधिकारों के प्रबल पक्षधर हैं। अभी हाल ही में वे भारत आए, अपनी नई डॉक्यूमेन्ट्री ‘द वार यू डॉन्ट सी’ के साथ, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की सीमा चिश्ती ने उनका ई-मेर्ल इंटरव्यू लिया था, जिसका अनुवाद प्रस्तुत है। अनुवादक- राकेश कुमार मिश्रा


1.सवाल- द्वितीय विश्वयुद्ध तक चलने वाले आर्थिक असमानताओ और वर्तमान स्थितियों के बीच में तुलना की जा चुकी है। पारम्परिक रूप से देखा व समझा जाने वाला ‘‘तृतीय विश्वयुद्ध’’ अब तक सामने नहीं आया है, लेकिन क्या हम दूसरे तरह के युद्धों की तैयारी कर रहे हैं, जो आर्थिक संकटों के बीच में कुलबुलाते हुए सामने आ जाते हैं ?
जवाब- शीत युद्ध ही तृतीय विश्वयुद्ध था। जो यू.एस. और उसके निकट सहयोगियों जैसे यू.के.-द्वारा दूसरे साधनों व तरीकों द्वारा लगातार जारी है। वर्तमान समय के सारे हमलें व पेशें तृतीय विश्वयुद्ध के हिस्से हैं। यू.एस. के पूर्व-राष्ट्रपति, डिक चेनी ने भविष्यवाणी किया था कि ‘‘वो 50 साल या उससे अधिक टिके रहेगें।’’ अगर आप पेन्टागॉन से जुड़े साहित्य पर नज़र डाले तो पायेंगें कि निरन्तर युद्धों को अब प्रत्यक्ष युद्धों के रूप में देखा जा रहा है। लिबिया से लेकर संभावित आक्रमण ईरान तक तृतीय विश्वयुद्ध लगातार जारी है। संयुक्त राष्ट्र के अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण भाग युद्ध और शस्त्र उद्योग हैं। दुश्मन अब भी दुराग्राही बना हुआ हैं, लेकिन मुद्दा ये नहीं हैं, उनके लक्ष्य संसाधन हैं और उनके लक्ष्य हैं अपने नए प्रतिद्वन्दी चीन के खिलाफ युद्धनीति बनाना। साथ ही, यू.एस. (और यू.के. में भी) युद्ध और शस्त्र उद्योग अत्यन्त शक्तिशाली हैं, ज़रा यूरोपियन देशों पर नज़र डालिए- यूरोपियन लगातार अपने फाईटर-बॉमबर को गल्फ देशों को बेचने के होड़ में लगे है। और अपनी प्रभावशीलता को विज्ञापित करने के लिए वे लिबियन शहरों और जीवन को खत्म कर रहे हैं। जी 20 को भूल जाईए, दुबई आर्म फेयर में हुए षड़यन्त्रों को देखिए। यू.एस. में, पेन्टागन अब प्रभावशाली रूप से विदेशी नीतियों को संचालित कर रहा है।
2.सवाल- आपकी महत्वपूर्ण किताब ‘‘हिडेन एजेन्डास’’, ‘‘धीमी रप्तार की खबरों वाले दिनों’’ का संतुलित मूल्यांकन है। वो दिन जब सरकार का उद्देश्य न्यूज़रूम्स को भरना नहीं था बल्कि पत्रकारों को जोड़ देकर खबरों के लिए बाहर भेजना था। क्या ये सालों बाद बदल गया ? अगर हॉ, तो ये ठीक है या गलत ?
जवाब- ‘‘धीमी रफ्तार की खबरें’’ कॉरपोरेट मीडिया के काम करने का एक तरीका है। धीमी खबरों का अर्थ है अनाचरण द्वारा आधिपत्य। अधिकांश छपने और प्रसारित होने वाली खबरें सत्ता द्वारा नियंत्रित की जाती है, विभिन्न रूपों में । धीमी खबरें सत्ता को चुनौती देती है। तभी ये खत्म हो रही हैं। कुछ नहीं बदला है।
3.सवाल- आपने लिखा, रेडियो के लिए काम किया और डॉक्यूमेन्ट्री भी बनाई। काम का कौन सा रूप आपके लिए सबसे अच्छा है, जो कि सबसे प्रभावशाली है ?
जवाब- रेडियो सबसे ईमानदार माध्यम है। लोग जो चाहते हैं उसके बारें में कह सकते हैं। जिसके लिए सामान्यतः सेन्सरशिप की ज़रूरत नहीं है, जो चीज़ हमारे लिए सबसे जरूरी है, वो है इच्छा और हिम्मत। टेलिविजन सबसे प्रभावशाली माध्यम है। गतिशील चित्रों व शब्दों का जबरदस्त सन्तुलन अब भी सबसे प्रभावशाली है, यह अधिकतर लोगों के लिए सूचना प्राप्ति का मुख्य साधन है।
4.सवाल- जहॉ तक न्यूज़ मीडिया का संबंध है, सैटेलाईट टी.वी. कई देशों में बड़े बदलाव का कारण बना है और प्रिंट मीडिया और रेडियो पर यह दबाव है कि वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से मिलने वाले चुनौती को किस रूप में ले ? क्या इसने समाचार के पूरे माहौल को बदल दिया है ?
जवाब- तथाकथित 24 घण्टे वाले खबरिया चैनल कभी न खत्म होने वाली गतिशील, अस्पष्ट, घिसे-पिटे असम्बद्ध चित्रों का समूह हो गया है। ये समाचार से ज्यादा श्अपेनंस बीमूपदह हनउश् हैं।
5.सवाल- संचार के माध्यम के रूप में लिखित पाठ या लिखित शब्द कहॉ ठहरते हैं ?
जवाब- लिखित शब्द समाचार पत्रों और डॉक्यूमेन्ट्री में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इंटरनेट के दुनिया में भी और किताब जैसे अद्भुत गैजेंट्स के रूप में भी। बेहतरीन रिपोर्टिंग और लेखन आज भी कई लोगों को जटिल स्थितियों को समझने व समझ विकसित करने में मदद करती है। खबरों की समझ विकसित करना एक ऐसा काम है जो हम पत्रकारों को करना चाहिए, इससे ज्यादा पेशेवर और महत्वपूर्ण दूसरा कुछ नहीं हो सकता।
6.सवाल- पश्चिम एशिया में बहुत कुछ हो रहा है, पश्चिमी मीडिया ने उन घटनाओं को कैसे देखा उसका मूल्यांकन आप कैसे करेंगें, विशेषरूप से जब एक बड़ी घटना (मिस्र क्रांति) खत्म हो चुकी हैं। सैनिक नियंत्रण के बाद मिस्र का कवरेज कितना संतोषजनक या अर्थभेदक है ?
जवाब- पश्चिमी सरकारों की तरह, परिश्चम मीडिया भी तुनिसिया और मिस्र में हुए बदलाव को लेकर अचरज में था। पश्चिम मीडिया ने जल्द ही मिस्र के क्रांति को तमाशा के रूप में लिया, लंबे समय तक इस तथ्य से इन्कार करते रहे कि इस क्रांति मंे सेना की शक्ति शामिल है और आज जो उसके नियंत्रण में है। साथ ही इसने लिबियन आक्रमण को एक सही कदम बताया उस गुप्त क्रांति के लिए। अतः कवरेजों का अंतर करना बहुत मुश्किल है, साधारणतः ये कमजोर ही थे।
7.सवाल- पश्चिम में ‘द अकूपाई वॉल स्ट्रीट’, विरोध या ‘टी पार्टी’ विरोध ये महत्वपूर्ण आन्दोलन है जो किसी राजनीतिक पार्टी या व्यवस्था के हिस्से नही हैं। क्या पत्ऱकार किसी पार्टी के तरफ से होने वाले विरोधों को कवर करने की तरह, इन घटनाओं को भी कवर करने में सक्षम और हुनरमंद हैं ? क्या उनके लिए चीजा़ें को समझने के लिए एक कठिन समय है ?
जवाब- पत्रकारों के लिए यह एक कठिन समय है-दुनियाभर में होनेवाली तमाम उठापटक को समझने के लिए क्योंकि ये उठापटक किसी खास खांचे में फिट नहीं बैठते। असल में घेराव आन्दोलन लैटिन अमेरिका में पहले शुरू हुए थे- जैसे- बौलोपिया और अर्जेन्टीना जहां वे सफल हुए।
8.सवाल- पिछली बार पूंजीवाद पर संकट सन् 1930 में आया था, उस समय केनेसियन विचार के मदद से ये उबर पाया था। इस समय, क्या आप इन विचारों के बुलबुलों को कहीं देख रहे हैं, जो नई अर्थ-संचालित पूंजीवाद को बचा सके या नया रूप दे।
जवाब- कई सारे नए विचार हैं। जैसा कि मैंने बताया, एक नये विचार ने लैटिन अमेरिका के बोलिविया में जल के निजीकरण को खत्म किया, अर्जेन्टीना से आई.एम.एफ. को बाहर किया। असल में महाद्वीप से भी बाहर किया। लेकिन मुद्दा ये है, जो यू.एस. और यूरोप के कई सारे पाठक और दर्शक नहीं जानते और वो है- स्लो न्यूज़।
अनुवादक- राकेश कुमार मिश्रा, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, मानस मंदिर पोष्ट आफिस- पंचटीला, उमरी वर्धा पिन कोड- 442001 (महाराष्ट्र), EMAIL- rakeshansh90@gmail.com, mo. 09405525937