11 अक्तूबर 2015

मोदी जी को क्या मतलब!

-दिलीप खान
 
संसद मार्ग थाने के भीतर
घटना-1. दिल्ली के मंडी हाऊस में सौ-डेढ़ सौ लोग बिसाड़ा की घटना के बाद देश में बढ़ रही सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए जमा हुए। मंडी हाऊस से नरेन्द्र मोदी के आवास तक प्रदर्शन होना था। पुलिस ने हिरासत में लिया और उसके बाद संसद मार्ग थाने की चारदीवारी के भीतर ही नारे लगते रहे, भाषण होते रहे। बाहर सड़क पर लोग अपने दैनिक काम के लिए हमेशा की तरह जाते रहे। गाड़ियां चलती रहीं, चाय बिकती रहीं, थाने के बाहर पुलिस वाले खैनी मलते रहे, रजनीगंधा खाते रहे। जो दृश्य अंदर था उसका छटांक भी छनकर बाहर नहीं आ पा रहा था। बाहर का पूरा नजारा उसी तरह शांत, चुप और असरहीन दिख रहा था, जिस तरह बिसाड़ा की घटना के बाद प्रधानमंत्री दिख रहे थे। नरेन्द्र मोदी थाने के बाहर कण-कण में मौजूद दिख रहे थे। बाहर का भारत बिल्कुल शांत था, चुप था। बिसाड़ा से कोई फर्क नहीं पड़ने का हलफ़नामा भरने को तैयार था।


घटना-2. लगातार कहा जा रहा है कि दादरी अब एक जगह नहीं है। दादरी के पैरों में पहिए लग गए हैं और वो देश भर में तेज़ी से घूम रहा है। बहुत कम समय में मैनपुरी होते हुए दादरी दोबारा जम्मू-कश्मीर पहुंच चुकी है। पहले एमएलए इंजीनियर राशिद की बीजेपी विधायकों द्वारा पिटाई हुई, फिर कुछ लोगों को जलाने की कोशिश। गाय लगातार राजनीतिक और हिंसक जानवर में तब्दील होती जा रही है। इस बार गाय पर सवार लोगों का जत्था उधमपुर के एक होटल के बाहर पहुंचा और ट्रक फूंककर रास्ते से निकल गया। कोयले से भरा ट्रक धू-धूकर जल उठा और साथ में दो लोग भी। एक चालीस फ़ीसदी जला और दूसरा सत्तर फ़ीसदी। ड्राईवर बच गया। गाय ने ख़ुद पर सवार लोगों से ये कहा होगा कि नहीं, ट्रक में मेरा मांस नहीं, कोयला है, लेकिन सवारों ने अनसुनी की और फिर से कोरी अफ़वाह पर एक घटना और घटी। बीजेपी की सहयोगी पीडीपी ने बढ़ रही सांप्रदायिक तनाव पर चिंता जताते हुए कहा कि 'मोदी जी विकास के नाम पर जीतकर आए हैं, लेकिन सांप्रदायिक तनाव का विकास कर रहे हैं, जिसमें भारत टिक नहीं पाएगा'. मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि भारत कितना टिकेगा, कितना नहीं, लेकिन ये ज़रूर है कि ऐसी घटनाएं अब टिकाऊ होने वाली हैं। ट्रक जलाने की घटना कोई नई नहीं है। 2013 में धारूहेड़ा में एक साथ लगभग पचास ट्रकों को बजरंग दल वालों ने 'गोमांस' की अफ़वाह के आधार पर जला दिया था। बाद में कस्टम के अधिकारियों ने जांच की तो आरोप ग़लत साबित हुआ।

घटना-3. साहित्य अकादमी में उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाने की शुरुआत की और अब नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, शशि देशपांडे, कृष्णा सोबती और सारा जोसफ़ ने भी अकादमी को पुरस्कार लौटा दिया।  (अब तो 9 और लेखकों ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी है) सच्चिदानंदन ने सभी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया, लेकिन अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नाम के व्यक्ति को इनसे कोई फर्क़ पड़ता नहीं दिख रहा। वो कर्नाटक में हुई एक गोष्ठी को अकादमी की तरफ़ से पर्याप्त कदम मान रहे हैं जोकि एमएम कलबुर्गी की 'मौत' (हत्या नहीं) के बाद उठाया जाना चाहिए था। लेखकीय स्वतंत्रता, स्वायत्तता और आलोचना का पूरा स्वर तिवारी जी के साउंडप्रूफ़ चैंबर में नहीं पहुंच पा रही। तिवारी जी राजनीतिक बयान नहीं दे पाएंगे, हो सकता है पान की गिलौरी मुंह को ये इजाजत ना देती हो! दीनानाथ बतरा पान नहीं खाते, लिहाजा वे आगामी अध्यक्ष के तौर पर बेहतर साबित होंगे!!

इन घटनाओं का आपस में रिश्ता आप तलाशिए, ये आपका काम है, मोदी जी का नहीं। वो फिर कभी एक स्टेटमेंट देकर देश की अखंडता बचा लेंगे। अखंड भारत वैसे भी उनका ऑरिजिनल नक्शा है। फिलहाल वो बिहार बना रहे हैं.

10 अक्तूबर 2015

अफ़वाहों से बचिए और अपना पक्ष तय कीजिए

-दिलीप ख़ान
पहले बिसाड़ा में मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या हुई, उसके बाद बिहार चुनाव में ये चुनावी मुद्दा बना। अब धीरे-धीरे मसला जब पेंदी में बैठने लगा था तो एक बार फिर मैनपुरी में चार लोगों को बुरी तरह पीटा गया। इस बार जान नहीं गई, लेकिन सिर्फ जान ही बची। दर्जन भर से ज़्यादा उन दुक़ानों को ख़ाक कर दिया गया, जिनके मालिक मुस्लिम थे। आरोप वही। एक ख़ास तरह की भीड़ ने उन चारों पर ये आरोप लगाया कि वो गोहत्या करने के बाद गाय की खाल उतार रहे थे!  

आज-कल जो माहौल बना है, वहां ठहरकर सोचने का स्पेस ख़त्म होता जा रहा है। अफ़वाह फैली और जान लेने की कोशिश शुरू हो गई। पुलिस इस बार जैसे-तैसे जान बचाने में क़ामयाब रही। फिर हुआ क्या? कुछ गाड़ियां जलीं और कुछ दुकानें, कुछ लोग बुरी तरह पीटे गए। लेकिन 'भीड़' शांत नहीं है। वो कहीं और इसी मुद्दे पर फिर जमा होगी। मोबाइल भीड़ जहां-तहां एक ही मुद्दे पर एक ही तरह की हरकत कर रही है। बिना प्रमाण के, बिना किसी ठोस वजह के।

अख़लाक़ के घर में तो अब साबित हो चुका है कि गोमांस नहीं था। गोहत्या का भी कोई मामला नहीं था। फ्रिज़ में जो था उसके लिए कभी दंगे की नौबत देश में नहीं आई। अख़लाक़ के घर में मटन था, बीफ़ नहीं। पुलिस की रिपोर्ट ये बता रही है। मैनपुरी में जो घटा, वो भी लगभग अख़लाक़ की कहानी का दोहराव है। पुलिस बता रही है कि मरी हुई गाय को कुछ हिंदुओं ने कुछ मुसलमानों को बेच दिया और वे उसकी खाल उतार रहे थे। बस्स, खाल उतारने की दिमाग़ में कौंधी तस्वीर धीरे-धीरे गोहत्या के अफ़वाह में तब्दील हो गई और उस 'भीड़' को फिर से मौक़ा मिला कथित धर्मरक्षा के नाम पर चार लोगों को मौत के घाट उतारने की हर मुमकिन कोशिश करने का।

अफ़वाहों के दौर में भीड़ की बौद्धिकता लगातार कम होती जाती है। जब भी अफ़वाहों के आधार पर कोई समूह रिएक्ट करता है तो वो तार्किक तरीके से सोचने की अपनी सारी शक्ति ख़ुद से बाहर छोड़ आता है। लोग मौक़े के मुताबिक़ रिएक्ट करते हैं। आम तौर पर उनके दिमाग़ में एक तस्वीर बनती है और वो तस्वीर अचानक कई तस्वीरों को जन्म देती हैं, जिनमें आख़िरी तस्वीर का पहले के साथ कोई रिश्ता हो, ये ज़रूरी नहीं।
बूचड़खाना खोलने के लिए संगीत सोम की दरख़्वास्त

दादरी और मैनपुरी में जो कुछ हुआ या आगे कहीं और होने वाला है, वो हमारे सामने क्या चुनौती पेश कर रहा है? क्या इन तमाम लोगों का उसका कोई ठोस राजनीतिक रुझान नहीं है? क्या ये महज अफ़वाहों के शिकार लोग हैं और ये अप्रत्याशित तौर पर धर्म रक्षा के जज़्बे से इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं? अगर हां, तो फिर इन्हें ठहरकर दो मिनट सोचना चाहिए कि फिर वे कौन लोग हैं जो इनको ऐसी करतूत के लिए उकसाते हैं? दो मिनट के लिए भूल जाइए कि सारे के सारे एक ख़ास राजनीतिक समूह से सीधे तौर पर जुड़े लोग ही हैं। हो सकता है आप योजनाकारों में शामिल ना हों, हो सकता है कि आप हमलावर भी ना हों, लेकिन अगर आप इन हमलों को वैध क़रार देते हैं तो उनसे अलग भी नहीं है।

सवाल ये है कि गोमांस और गोहत्या को किस तरह देखा जाए? ठीक है कि ये किसी एक धर्म के लोगों के लिए आस्था का मसला है, लेकिन क्या अपने धर्म के मुताबिक़ दूसरों को भी ज़बर्दस्ती जीने लायक बनाकर छोड़ेंगे आप? दादरी में अगर अख़लाक़ के घर में मटन की जगह बीफ़ होता तो क्या होता? क्या फिर वो हत्या वैध हो जाती? बीफ़ रखना या खाना उत्तर प्रदेश में प्रतिबंधित नहीं है, गोहत्या ज़रूर प्रतिबंधित हैं। इस तरह अगर किसी के प्लेट में बीफ़ है तो वो किसी भी तरह क़ानून का भी उल्लंघन नहीं कर रहा। दूसरी बात, अगर उल्लंघन कर भी रहा है तो आपको कोई हक़ नहीं है कि किसी की जान ले लें।

जिस पार्टी के लोग अख़लाक़ की हत्या में आरोपित हैं और जिस पार्टी का एक नेता मुज़फ़्फ़रनगर दंगे का आरोपी है, उनकी निजी ज़िंदगी कैसी है? संगीत सोम का एक हलफ़नामा अब मीडिया में तैर रहा है जिसमें वो बूचड़खाना खोलने के लिए सरकार से लाइसेंस की मांग की थी। तो आर्थिक फ़ायदे के लिए संगीत सोम को बूचड़खाना खोलने से कोई परहेज नही है, लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए अख़लाक़ पर गोहत्या का आरोप लगाकर उसकी हत्या को वैधता देने में हैं। राजनीतिक फ़ायदा इसमें है कि वो सभी आरोपितों के पक्ष में बयान दें। जो बीजेपी देश भर में घूम-घूम कर बीफ़-बीफ़ चिल्ला रही है उसी बीजेपी की गोवा सरकार ने मार्च महीने में बीफ़ की क़िल्लत देखते हुए महाराष्ट्र और कर्नाटक से बीफ़ आयात करने का फ़ैसला किया। गोवा में रोज़ाना 30 से 50 हज़ार किलोग्राम बीफ़ की खपत होती है। जो नरेन्द्र मोदी लोक सभा चुनाव में पिंक रिवोल्यूशन का नारा देते फिर रहे थे, उसी नरेन्द्र मोदी के शासन में भारत दुनिया में बीफ़ का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया।

उनको अफ़वाहों से फ़ायदा है, उनको इस बात से फ़ायदा है कि धार्मिक तौर पर लोग गोलबंद हो जाए। हम-आप जो 60-70 साल से किसी इलाक़े में बिना दंगा-फ़साद के साथ रह रहे हैं, उसके लिए क्या फ़ायदा? एक दिन की घटना के बाद गहराए जख़्म को भरने में दशकों लग जाएंगे। मुज़फ़्फ़रनगर पहले ऐसा कहां था? फ़रीदाबाद की घटना याद कीजिए। वहां भी गांव छोड़कर जाना पड़ा था। दादरी के बिसाड़ा गांव में जब मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या हुई तो उसके बाद भी पड़ोसी गांव में मांस का टुकड़ा पुलिस ने बरामद किया। यानी पूरे इलाक़े में नियोजित तरीके से मांस के नाम पर दंगा भड़काने की कोशिश जारी है। ऐसे में हमें-आपको तय करना है कि किस तरफ़ रहेंगे? वो तो मोहम्मद अख़लाक़ का एक बेटा एयरफोर्स में हैं, इसलिए देशभक्ति का सर्टिफिकेट नहीं मांगा जा रहा, नहीं तो जो माहौल है, वैसे में किसी भी मुस्लिम पर कोई भी आरोप लगा दें, सफ़ाई आरोप लगाने वालों को नहीं उस व्यक्ति को देनी होती है जिस पर आरोप लगा है। बाद में आरोप ग़लत साबित हो जाए तो भी आरोप दाग़ने वालों की कोई ज़िम्मेदारी तय नहीं होती।


संगीत सोम और संजीव बालियान जैसे नेता देशभक्त हैं। गिरिराज सिंह बीफ़ और मटन की तुलना बहन और पत्नी से कर रहे हैं। यानी स्त्री को मांस के बराबर तौल रहे हैं। ये क्या स्लिप ऑफ टंग है या राजनीतिक परवरिश? ये लोग लगातार देशभक्त बने रहेंगे। देशभक्ति के ऐसे माहौल में देशभक्तों की पहचान बहुत ज़रूरी हो गई है। 

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09 अक्तूबर 2015

बिहार: प्रचार के हाल

-दिलीप ख़ान
नीतीश कुमार ने आज (यानी शुक्रवार को) पांच जनसभाओं को संबोधित किया। पांचों उन इलाक़ों में, जहां पहले दौर में वोटिंग होनी है। ज़ाहिर है महागठबंधन उन इलाक़ों में आख़िरी-आख़िरी में ज़्यादा ज़ोर लगा रहा है जहां प्रचार ख़त्म होने वाले हैं। यानी अंतिम समय में मतदाताओं के जेहन को अपने पक्ष में कर वोट में तब्दील करने की नीयत से ही नीतीश कुमार ये रैलियां कर रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के प्रचार पर ग़ौर करें तो वो भी धुआंधार रैलियां कर रहे हैं, लेकिन तमाम व्यस्तताओं के बावजूद अपने बेटों की सीट पर नियमित जाना नहीं भूल रहे। 

इस पूरे चुनाव में प्रचार के तौर-तरीकों पर ग़ौर करें तो नीतीश और लालू ने स्पष्ट तौर पर शैली और मुद्दों का बंटवारा कर लिया है। लालू यादव लगातार आरक्षण जैसे मुद्दों के साथ जनता से मुखातिब हो रहे हैं तो वहीं नीतीश कुमार केंद्र बनाम राज्य की बात को हर मंच से दोहरा रहे हैं। वो जानते हैं कि बिहार में उनकी सुशासन बाबू वाली छवि अभी सतह से ग़ायब नहीं हुई है और मतदाताओं का एक हिस्सा आज भी मोदी और नीतीश में किसको चुने, इस पर पसोपेश में है। नीतीश कुमार उन मतदाताओं तक ही अंतिम वक़्त में पहुंचकर वोट अपनी झोली में झटकना चाह रहे हैं।


   कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर लड़ रही चुनाव
            (पहले दौर की 49 सीटें) 

पार्टी
उम्मीदवार
बीएसपी
41
बीजेपी
27
सीपीआई
25
जेडीयू
24
आरजेडी
17
एलजेपी
13
सीपीआई(एम)
12
कांग्रेस
8
आरएलएसपी
6
एनसीपी
6
अन्य पार्टियां
210
निर्दलीय
194
कुल
583


बीजेपी के दर्जन भर से ज़्यादा केंद्रीय कैबिनेट मंत्री लगातार मैदान में हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी को छोड़कर कोई असरदार साबित नहीं हो पा रहा। नरेन्द्र मोदी की मुश्क़िल ये है कि वो हर ज़िले में चुनावी कैलेंडर के हिसाब से रैली कर नहीं सकते। शुक्रवार को उन्होंने जिन दो ज़िलों में रैली की वहां दूसरे दौर में चुनाव होने हैं। महागठबंधन के दो बड़े चेहरे, नीतीश और लालू, चुनावी कैलेंडर के लिहाज से हर उस इलाक़े में पहुंच रहे हैं जहां प्रचार अभियान ख़त्म होने वाला है।

बिहार में पूरा मामला दिल्ली चुनाव की याद दिलाता है जहां अरविंद केजरीवाल ने केंद्र में मोदी, दिल्ली में केजरीवाल की तर्ज पर लोगों से वोट मांगे थे। बीजेपी ने दिल्ली की हार के बाद बिहार में इसी रणनीति को लागू किया है। बीजेपी लगातार जनता को आगाह कर रही है कि नीतीश कुमार हैं तो ठीक, लेकिन आरजेडी के साथ मिलकर बिहार का विकास कैसे करेंगे’? बीजेपी ने पूरे प्रचार के दौरान लालू यादव को जात-पात की खाई को बढ़ाने वाले नेता के तौर पर पेश किया। इस पूरे मामले में ऐसा लग रहा है कि आरजेडी के वोटर तो अपनी पार्टी के साथ मज़बूती से खड़ा रहेगा, लेकिन जेडीयू अपने वोट का एक हिस्सा गंवा देगी।

पहले दौर के ज़िलों में 2010 के नतीजे

ज़िला
बीजेपी
जेडीयू
आरजेडी
एलजेपी
कांग्रेस
सीपीआई
जेएमएम
समस्तीपुर
2
6
2
0
0
0
0
जमुई
0
3
0
0
0
0
1
नवादा
2
3
0
0
0
0
0
शेखपुरा
0
2
0
0
0
0
0
लखीसराय
2
0
0
0
0
0
0
मुंगेर
0
3
0
0
0
0
0
बांका
1
3
1
0
0
0
0
भागलपुर
3
3
0
0
1
0
0
खगड़िया
0
3
1
0
0
0
0
बेगूसराय
3
3
0
0
0
1
0
कुल-49
13
29
4
0
1
1
1

पसोपेश में पड़े मतदाताओं को अपने पक्ष में करना जेडीयू के लिए सबसे मुश्क़िल काम है। जिस तरह का कैडर वोटर आरजेडी के पास है और जैसा बीजेपी ने हाल के वर्षों में विकसित किया है, उतना ठोस वोटरों का समूह जेडीयू के पास दिखता नहीं। इसकी एक बड़ी वजह स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम का अभाव रहा है। आरजेडी और बीजेपी के राजनीतिक दर्शन से बिहार की जनता पूरी तरह वाक़िफ़ है। जेडीयू इन दोनों के बीच डोलड्रम सरीखा मालूम पड़ती है। अब 12 अक्टूबर से मतदान का सिलसिला शुरू होने वाला है, लिहाजा राजनीतिक दर्शन जैसी चीज़ें विकसित करना चुनावी राजनीति में मुश्क़िल काम है, तो आख़िरी वक़्त में जिस भी तरीके से मतदाताओं का बड़ा वर्ग जेडीयू के पक्ष में आ जाए, जेडीयू के लिए ये सबसे बड़ी क़ामयाबी होगी। वैसे, सबसे ज़्यादा हानि इसी पार्टी को होने वाली है।

वैसे समूचे बिहार में दो-ध्रुवीय मुक़ाबलों के बीच बेगूसराय में वामपंथी पार्टियों की एक मात्र सीट बछवारा के नतीजे पर लोगों का ध्यान टंगा हुआ है। फ़िलहाल सीपीआई के अबधेश कुमार राय इस सीट से विधायक हैं। बिहार में पहली बार 6 वामपंथी पार्टियां मिलकर चुनाव लड़ रही हैं, लेकिन बछवारा और तेघड़ा पर ही कड़ी टक्कर देने की स्थिति फ़िलहाल दिख रही है।