26 मार्च 2017

सोसल मीडिया की मजदूरी

मूलरूप से दैनिक जागरण में प्रकाशित
चन्द्रिका

सोसल मीडिया: दुनिया की बड़ी आबादी इस पब्लिक मीडिया के लिए काम कर रही है. बगैर वेतन का काम. यह शायद इतिहास में पहली बार हो रहा है कि इतनी बड़ी आबादी बेगार कर रही है. इस काम के लिए उन्हें कुछ भी नहीं मिलता. उनकी चेतना को इस तरह से विकसित किया गया है कि उन्हें इस तरह बेगार खटने का एहसास भी नहीं है. राजशाहियों में भी इतनी बड़ी बेगारी का इतिहास हमे देखने को नहीं मिलता. बंधुआ प्रथा भी काम के बदले कुछ अनाज तो देती ही थी. पर हम उन कम्पनियों के लिए काम कर रहे हैं जो हमे कुछ भी नहीं देती. इस अप्रत्यक्ष काम का सारा मुनाफा सिर्फ उनका है. हम उनके लिए काम कर रहे हैं जिनके बारे में हमे ठीक-ठीक कुछ भी पता नहीं है कि वे कौन हैं और हमारी किस तरह की भलाई वे चाहते हैं. क्या सच में इन कम्पनियों की चिंता और सरोकार हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े हुए हैं. हमको यह स्पेस मुहैया कराना उनका सरोकार है. या यह कुछ और है जिसके लिए हम सब अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे विज्ञापन अपनी जुबान में लिए फिरते रहते हैं. जबकि अब यह एक नशे सरीखा हो गया है जिसकी लत बेचैन करती है. दुनिया की इतनी बड़ी आबादी को इस तरह की मजदूरी की लत पहली बार लगी है और उन्हें यह काम मजदूरी या मजदूर कह कर नहीं दिया जा रहा है. क्योंकि मजदूर के साथ मजदूरी जुड़ी हुई होती है. तो उसके नाम बदल दिए गए हैं. हम इसे आज़ादी का नाम देते हैं. हम इसे अभिव्यति की स्वतंत्रता कहते हैं. हम इसे वह स्पेस कहते हैं जो हमे लोकतंत्र ने दिया है. इन सारे बड़े मूल्यों के साथ हम गौरवान्वित हैं और तकनीक के इस विकास के आभारी बने हुए हैं. पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के स्तर पर ऐसे कई मंच तैयार हुए हैं जो हमे अपने विचार साझा करने की जगह उपलब्ध करा रहे हैं. ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, ह्वाट्सप, यूट्यूब जैसी सोसल साइट्स ने हमे यह स्पेस मुहैया कराया है. बहुत कम दिनों में ही ये कम्पनियां पब्लिक का मीडिया बन चुकी है. जो सांस्थानिक मीडिया की खबरों को भी निर्धारित कर रही हैं. ये ऐसी कम्पनियां हैं जो सबसे कम वक्त में दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनियों में सुमार हो गयी हैं. तकनीकी विकास की बदलती संरचनाओं के साथ हमे इसे दूसरे रूप में देखना चाहिए. मसलन जब कोई कम्पनी अपने संसाधन जुटाती है और उसके उत्पाद बनाने के लिए जो काम करता है उसे मजदूरी मिलती है. इन कम्पनियों की कमाई में भी हमारा हिस्सा बनना चाहिए क्योंकि हम इनके लिए काम कर रहे हैं. इनके उत्पाद हमारी मेहनत से तैयार हो रहे हैं. हमारे लिखे हुए शब्द हमारी तस्वीरें और हमारे विडियोज ही हैं जो उनके उत्पाद हैं.
सोसल साइट्स का बड़ा हिस्सा पब्लिक प्रोडक्सन से भरा हुआ है. हमारा लेखन, हमारा विडियो और हमारी तस्वीरों ने ही इसे इतना बड़ा और विस्तृत बनाया है. लोगों की रुचि भी इसी वजह से बनती और बढ़ती गई है कि यहां बहुतायत की मौजूदगी है. हर रोज कितने पृष्ठ लिखे जा रहे हैं और कितने विडियोज लोगों के द्वारा अपलोड किए जा रहे हैं इसके आंकड़े अनुप्लब्ध हैं पर हम एक अंदाजा लगा सकते हैं और यह हमारे अंदाजे से बहुत अधिक भी हो सकता है. यह सब हम इस तौर पर करते हैं कि इन कम्पनियों ने हमे अभिव्यक्त करने, अपने विचार रखने की आज़ादी का स्पेस मुहैया कराया हुआ है. जबकि सच इससे इतर है. हम इनके अघोषित मजदूर हैं जो इनके उत्पादों को हर रोज बढ़ाने के लिए कई-कई घंटे काम करते हैं. यदि यह अभिव्यक्ति की अज़ादी का मसला है तो समाज में बोलने की आज़ादी, असहमत होने की आज़ादी और कम हुई है. असहमतियों को हम सुन नहीं रहे हैं और अपने तरह के विचारों से अपने में गदगद हैं. अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद बाहरी लोगों पर हुई हिंसा की घटनाओं से लेकर जे.एन यू, रामजस कॉलेज आदि मामलों में हम देख सकते हैं कि समाज में किस तरह की भीड़ पैदा हुई है. जिसने असहमति को स्पेस देना बंद कर दिया है. तो क्या सोसल मीडिया में जो जगह, जो आज़ादी, जो स्पेस मिला है समाज की जमीन और समाज के लोगों के विचार उससे अलग बल्कि यह कहें कि उसके विपरीत होते गए हैं. अभिव्यक्त करने के वर्चुअल मंच भले ही बढ़े हों पर जमीनी हकीकत यह है कि लोगों में असहमत होने के स्पेस कम हुए हैं. इसलिए यह एक गुमराही सी लगती है. अग्रेंजों के वक्त में जब लोगों ने पुरजोर तरीके से बोलना शुरू किया तो अखबार बंद किए गए, इमरजेंसी में भी प्रतिबंध लगे और आज इतने वर्षों बाद कश्मीर में, मणिपुर में और छोटे स्तर पर संस्थानों में वही हो रहा है. जब आप असहमत होकर बोलना शुरू करते हैं तो आपके माध्यमों को बंद कर दिया जाता है. अगर आप उनके दायरे में हैं तो फिर उन्हें क्या आपत्ति. ऐसे में यह सोचने की बात है कि क्या इस दायरे में रहने की मानसिकता पर कोई फर्क आया है. शायद यह फर्क दायरे की मानसिकता पर नहीं आया है.

हम जिस स्पेस को लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी और तकनीक के विकास के साथ जोड़ते हैं उसके मायने बहुत अलग हैं. निश्चय ही इस वर्चुअल स्पेस ने एक अलग तरीके की सामुदायिकता खड़ी की है. ऐसी सामुदायिकता जो शब्दों से बन रही है. व्यवहार, फिजिकल अपीयरेंस के मायने भी ख़त्म हो गए हैं. पब्लिक के जरिए मुद्दे यहां से बनते और तय होते हैं और जीत उसकी है जिसकी जितनी ज्यादा उपलब्धता है. एक शोर पैदा कर देना और उसे बड़े फलक पर सामने लाना यही कोशिश हो रही है. ऐसे में यह वर्चुअल स्पेस एक साथ इकट्ठा होने या किसी तरह की एकजुटता के फिलाफ भी है. यानि किसी प्रतिरोध या किसी आयोजन का जो सामुदायिकता बोध था वह महज यह नहीं था कि कौन क्या बोल रहा है बल्कि उसका मिलना, उसके व्यवहार के तरीके यह सब उसमे शामिल थे. जो ज्यादा प्रभावित करते थे. पुरानी पीढ़ी से आने वाली पीढ़ी उनके फिजिकल अपियरेंस से भी सीखती थी. यह जरूरी था क्योंकि अगर शब्दों से सीखा जा सकता तो विश्वविद्यालय और विद्यालय दुनिया में उसी वक्त बंद हो जाने थे जब छापाखाना आया. जबकि छापाखाना आने के बाद इनके महत्व और बढ़े. जो अभी भी बने हुए हैं. ऐसे में यह जो स्पेस है वह हमको हमारे सरोकारों से संतुष्ट करता है. हम अपना योगदान देते हुए लगते हैं. हम मेहनत करते हैं और अपनी छोटी-छोटी डिवाइसेज के इश्तेमाल से और अपने आइडियाज से इस स्पेस को समृद्ध करते हैं. बदले में हम इस बात से संतुष्ट होते हैं कि हमने समाज के सामने यह रखा और योगदान दिया है. इसे योगदान कहा जा सकता है पर यह हमने किसी कम्पनी के लिए उत्पाद तैयार किया यह भी हमारा दावा होना चाहिए. जैसे चप्पल की कम्पनी में चप्पल बनाने वाले का सामाजिक योगदान भी है और वह कम्पनी का उत्पाद भी जिसके लिए उसे कम्पनी अपने मुनाफे का एक हिस्सा तो देती ही है. हम उनके मजदूर हैं जो हमे कोई वेतन तक नहीं दे रहे हैं