23 दिसंबर 2012

दैनिक भास्कर को फ़ांसी चाहिए!


सामूहिक बलात्कार कांड के विरोध-प्रदर्शन पर मीडिया का मध्यकालीन तेवर

-दिलीप ख़ान

दक्षिणी दिल्ली में मेडिकल छात्रा से चलती बस में सामूहिक बलात्कार का मामला अमानवीय, हिंसक, बर्बर और मर्दवादी समाज से लगातार रिसते मवाद की तरह है। किसी भी समाज में इस तरह की घटना का विरोध होना चाहिए, इस लिहाज से देखे तो बीते हफ़्ते भर से देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहा प्रतिरोध जायज़ है। लेकिन, प्रतिरोध की दिशा, मांग और राजनीति पर भी बहस ज़रूरी है। देश के अधिकांश शहरों में नौजवानों के स्वाभाविक जुटान की परिणति के तौर पर ये प्रदर्शन हो रहे हैं। यह देश का वो युवावर्ग है जो टीवी, अख़बारों और सोशल मीडिया से जुड़ा है। इनके हाथों में मोबाइल है और ये देश-दुनिया की ख़बरों पर मीडिया के मार्फ़त नज़र भी रखता है। तहरीर चौक से ये वाकिफ़ हैं और अन्ना आंदोलन के बाद से सड़कों पर उतरने की आदत भी इन्हें लग चुकी हैं। लेकिन क्या ऐसी हर घटना पर देशभर के युवा सड़क पर उतरने की सोच रखते हैं? जब से सामूहिक बलात्कार की घटना घटी है तब से देश को छोड़ दीजिए दिल्ली के आस-पास के राज्यों में ही बलात्कार के दो और मामले सामने आए। 

दूसरा सवाल- क्या किसी घटना की अमानवीयता की मात्रा यह तय करती है कि इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो? ‘स्वत:स्फूर्त आंदोलन’ कहां से शुरू होता है? मीडिया किस आधार पर किसी घटना को कवर करता है? लोगों की संख्या तो इसका आधार कतई नहीं है और न ही घटना की गंभीरता और न ही विषय। अलग-अलग उदाहरण इन तीनों आधारों को ख़ारिज करते हैं। इसके साथ-साथ दो-तीन सवाल और हैं। मीडिया पहले घटना को बड़ा बनाता है या फिर लोग आकर पहले जुटते हैं? पिछले कुछ ‘बड़े आंदोलनों’ के साथ मीडिया का ट्रीटमेंट कैसा रहा?

क्या आपको किसी नारे में फांसी लिखा दिख रहा है?
साबित हुआ कि आप मीडिया वाले नहीं हैं।
बीते कुछ वर्षों का अनुभव यह बताता है कि संगठनात्मक ढांचे के बग़ैर कोई आंदोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से बिना मीडिया कवरेज के नहीं चल सकता। मेरी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि आंदोलन का मीडिया में कवरेज नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरा तो सुझाव है हर मीडिया घराने में एक स्थाई ‘आंदोलन बीट’ होना चाहिए जो देश भर में चल रहे अलग-अलग प्रतिरोधों को अपने पन्नों और स्क्रीनों पर जगह दे। आपत्ति ये है कि ज़्यादातर टीवी समाचार चैनल और हिंदी के ज़्यादातर अख़बार पूरे मामले को सनसनी बनाकर पेश कर रहे हैं और अपनी बात लोगों के मुंह में चालाकी से ठूंस रहे हैं और अगर इसमें उनके हाथ असफ़लता लगती है तो अपनी बात को जनता की बात बताकर पेश करने में वो लग जाते हैं। एक टीवी पत्रकार लोगों के बीच जाता है और सवाल उछालता है- आप तालिबानी अंदाज़ में सज़ा चाहते हैं कि नहीं? ज़ोर देकर वो बार-बार यही सवाल पूछता है। टीवी स्क्रीन पर जो एंकर कमेंटरी कर रहा होता (रही होती) हैं वो पूरे दिन लगातार ‘वारदात’,’क्राइम रिपोर्टर’ देखने का एहसास ताजा करावता (करवाती) है। अपनी समूची सहनशीलता को समेटकर ये सब झेलने के बावज़ूद अगर आपके आगे रोज़-रोज़ कोई अख़बार प्रोपेगैंडा बंद नहीं करे तो आप क्या कर सकते हैं? हद से हद अख़बार पढ़ना बंद कर सकते हैं। कीजिए, उनकी बला से। 

दैनिक भास्कर समय-समय पर महाअभियान चलाता रहता है। अब देश-दुनिया में अभियान से बात नहीं बनती। लिहाजा ‘महा’ शब्द का चलन पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गया है। पत्रिकाओं का विशेषांक धीरे-धीरे ‘महाविशेषांक’ में तब्दील हो गया। तो, इस मामले में भी दैनिक भास्कर ने महाअभियान चलाया। इसका स्लग रखा है- ‘देश को इस ग़ुस्से का अंजाम चाहिए’। भास्कर के पन्नों पर लगातार ग़ुस्सा तैर रहा है। उसकी रिपोर्टिंग में, भाषा में, चित्रों में, लेखों में। हर जगह। उसको नहीं बल्कि ‘देश को अंजाम चाहिए’। (टाइम्स ग्रुप की इतनी नकल ठीक नहीं है भास्कर, पहले ‘महा’ शब्द में और फिर ‘देश के लिए अंजाम’ मांगने में। थोड़ा अपना भी भेजा लगाओ) बीते कुछ दिनों का भास्कर पढ़ेंगे तो दिलचस्प नतीजे तक आप पहुंचेंगे। रविवार के पहले पन्ने (जैकेट पेज) की पहली स्टोरी से बात शुरू करते हैं। भास्कर ने उपशीर्षक दिया है: सबकी बस एक ही मांग- आरोपियों को फांसी दे सरकार। नीचे ख़बर में लिखा है- यह प्रदर्शन पूरी तरह अप्रत्याशित और स्वत:स्फूर्त था। कई मायनों में अभूतपूर्व भी। जत्थों में सुबह 7 बजे से इंडिया गेट पर एकत्र हो रहे इन नौजवानों का न कोई नेता था, न ही वे अपनी मांगों को लेकर एकमत और स्पष्ट थे। 

यानी रिपोर्टिंग ये कह रही थी कि आंदोलन कर रही जनता के बीच सज़ा को लेकर आम-सहमति नहीं है, लेकिन शीर्षक में भास्कर ये तय कर ले रहा है कि सब के सब फांसी मांग रहे हैं। भास्कर अपनी राय को जनता की राय बताकर लगातार पेश कर रहा है। पहले पन्ने पर अख़बार के राष्ट्रीय संपादक कल्पेश याज्ञनिक ने विशेष संपादकीय लिखा है। ‘धोखा’ शीर्षक वाले इस एक पैराग्राफ के संपादकीय में सरकार द्वारा फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं करने के विरोध में जो तड़प है उसके बल पर ऐसा लगता है कि कल्पेश याज्ञनिक को ‘अंतरराष्ट्रीय फांसी दिलाओ संगठन’ का कम से कम सचिव ज़रूर बना दिया जाना चाहिए। जैकेट के बाद अख़बार के पहले पन्ने पर भास्कर ने गृहमंत्री के बयान के हवाले से जो ख़बर छापी है उसका शीर्षक है- कड़े कानून की बात कही पर फांसी का ज़िक्र नही। इसी अख़बार में पेज नंबर 9 पर के हरियाणा-पंजाब पेज पर एक फोटो छपी है। हिंदू सिख जागृति सेना से जुड़ी महिलाओं की ये फोटो है जो सामूहिक बलात्कार मामले के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन कर रही है। अख़बार ने फोटो का कैप्शन लगाया है- महिलाओं ने आरोपियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की। फोटो में कोई प्लेकार्ड नही, कोई पोस्टर नहीं है और न ही कोई बैनर है जिसमें इस तरह की एक भी मांग हो, लेकिन अख़बार ने फांसी देने की अपील जारी कर दी। इन महिलाओं के हाथ में सैंडल ज़रूर है और जहां तक मेरी समझदारी है सैंडल दिखाने का मतलब फ़ांसी नहीं होती। सैंडल का मतलब सैंडल होता है लेकिन भास्कर के संपादक को ये पता नहीं। 

इससे पहले अख़बार ने 109 सांसदों और 9 मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था जिसमें फांसी की वकालत की गई थी। अब अख़बार ने आह्वान किया है कि वो अपने पाठकों से सांसदों को चिट्ठी लिखवाएगा जो फांसी के समर्थन में होंगी। भास्कर के साथ-साथ और भी कई हिंदी अख़बार इस पूरी मुहिम को हवा दिए हुए हैं। पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स के साथ-साथ दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार दैनिक जागरण भी ख़बर की पूरी एंगल को इसी तरफ़ मोड़ रहे हैं। जागरण ने पहले ख़बर चलाई – रेप के सभी आरोपियों को मिलेगी फांसी। ये ख़बर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग पर आधारित थी। अख़बार सहित टीवी समाचार चैनलों ने लगातार इस बात को उछाला। जब मामला जनता के बीच पूरी तरह पक गया तो टीवी जनित उन्माद में सड़क पर उतरे लोग भी इस मांग को ज़ोर-शोर से उठाने लगे। अब मीडिया के लिए ये जनता का वक्तव्य बन गया लिहाजा अब शीर्षक सीधे-सीधे नारों की शक्ल में उभरने लगा- रेप के आरोपियों को फांसी दो। 

सवाल ये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया अगर अपना नज़रिया भी ख़बरों में लादता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? मीडिया हाउस में या फिर समाज के इर्द गिर्द यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो उनको आधार बनाकर क्या मीडिया को उसे लगातार उछालते रहना चाहिए? तिस पर मिर्च-मसाला का पूरा कारखाना तो मीडिया के लिए बना ही है! आख़िरकार सज़ा के जिस पुराने रूप को इन अख़बारों और टीवी चैनलों के संपादक देश में स्वीकार्य बनाना चाहते हैं वे उसे अपनी राय न बताकर जनता की आवाज़ क्यों करार दे रहे है? इससे अलग एक सवाल है कि मीडिया को घटना-घटना ऐसे औचक ख़याल क्यों आता रहता है और घटना पुरानी हो जाने के बाद वह उसे ठंडे बस्ते में लादकर क्यों फेंक आता है? कुछ हफ़्ते पहले अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने दिल्ली में छेड़छाड़ और यौन शोषण के मुद्दे पर श्रृंखला में स्टोरी चलाई। इसमें पत्रकारों के निजी अनुभव तक शामिल थे
। 
बाक़ी अख़बार या चैनल मुद्दे को ट्रेस करके क्यों नहीं अपने पन्नों या एयर टाइम में जगह देते हैं? क्या बलात्कार का मामला महज इस एक घटना तक सीमित है या फिर समाज में हमेशा सुसुप्त अवस्था में यह मौजूद रहता है? मीडिया इन बातों की पड़ताल क्यों नहीं करता और बलात्कार के बाद महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर बहस कराने के लिए टीवी चैनल अपने पैनल में अर्चना पूरण सिंह जैसे मेहमानों को क्यों बुलाता है जिनके पूरे करियर का अहाता ही स्त्रीविरोधी हल्के, फूहड़ चुटकुलों पर हंसने तक सीमित है। 

लाइव दिखाने और ग़ुस्से को इनकैश करने के लिए टीवी चैनल जिस तड़प के साथ अपने रिपोर्टर को सड़क पर तैनात करता है उसमें कई बार रिपोर्टर यह तक भूल जाता है कि वह ऑन एयर है। ‘आजतक’ के संवाददाता ने इंडिया गेट पर लाइव रहते हुए आह्वान किया- ‘मारे, मारो’। उसी चैनल पर एक लड़की ने अपने ग़ुस्से को जताया- ‘सरकार कुछ करती क्यों नहीं बहन**’। यानी एक महिला की ज़ुबान से गाली के रूप में भी महिलाविरोधी शब्द ही निकलते हैं। मीडिया इसे भी सारी महिलाओं की राय क्यों नहीं करार दे देता? 

02 दिसंबर 2012

विभूति नारायण राय लाल सलाम, यानी हिंदी के तीन युग हैं

प्रसंग: हिंदी का दूसरा समय-2013 का वर्धा में आयोजन

-दिलीप खान
हिंदी साहित्य के इतिहास में पता नहीं हिंदी के समय को किन आधारों पर बांटा गया है, लेकिन इसके कालखंड बंटवारे के ताजा मुहिम में आपको आधार भी पता चलेगा, शक्ति की नुमाइश भी और वजह भी। विवाद-विरोध-आलोचना-हिच-हिच-खिच-खिच की गुंजाइश अगर तलाशेंगे तो समझ लीजिए इस गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी बनने का एक महत्वपूर्ण अवसर आप खो देंगे! भविष्य की पीढ़ियां आपको सिर्फ़ इसी बिनाह पर गरिया सकती है कि अपने दौर में हिंदी के समय के साथ आप नहीं थे और अगर आप अपने वर्तमान में हस्तक्षेप नहीं करते थे तो जाहिर तौर पर समाज निर्माण की प्रक्रिया से कहीं दूर बैठे बांसुरी बजा रहे थे और इसलिए भविष्य तक पहुंचने वाली सड़क साफ़-सुथरी नहीं रह सकी!

हिंदी के राजमार्ग के किनारे बसे वर्धा नामक मुल्क में हिंदी यात्रियों के ठहरने के भरपूर इंतजाम हैं। हिंदी के नाम पर देश का एकमात्र अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय पांच टापुओं पर यहीं बना हुआ है। हिंदी शक्ति के विकेंद्रीकरण में दिल्ली से जो पावर-शिफ़्ट हुआ, उसका एक टुकड़ा वर्धा की झोली में भी गिरा है। लिहाजा समय-समय पर यहां मजमा लगता है जिनमें हिंदी को लेकर चिंतित लोग दूर-दराज़ से आकर शरीक होते हैं और हिंदी का पूरा कलेवर बदल डालते हैं। तो ये मुख़्तसर-सा परिचय था वर्धा का। लेकिन हम बात कर रहे थे हिंदी के कालखंड को परिभाषित करने की, तो सीधी बात ये है कि हिंदी का समूचा इतिहास दो भागों में बंटा हुआ है। इतिहास के पहले खंड को ‘हिंदी समय पूर्व’ नाम से जाना जाता है और दूसरे खंड को ‘हिंदी समय से हिंदी के दूसरे समय तक’ के नाम से। तीसरा, एक भविष्य का भी काल है जिसे ‘हिंदी के दूसरे समय से आगे का समय’ कहा जाएगा। इतना जानने के बाद अब इस सवाल का जवाब दीजिए कि कालजयी नहीं बल्कि काल के रचयिता महापुरुष कौन है? पूरे चार नंबर के इस प्रश्न का जवाब है उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विभूति नारायण राय।

अक्टूबर 2008 में कुलपति बनकर वर्धा पहुंचने के बाद 2009 के शुरुआती दिनों में उन्होंने हिंदी पट्टी को आमंत्रण कार्ड बांटा और उस उजड़े से परिसर में छात्रों से ज़्यादा हिंदी के मेहमान वहां पहुंचे थे। ‘हिंदी समय’ का आग़ाज़ हो चुका था। विभूति नारायण राय ने अपने वर्धा आगमन का जो ढोल पीटा उसमें काफ़ी धमक थी और काफ़ी आवाज़। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पुराने कुलपति श्रीमान अशोक वाजपेयी से लेकर कुलाधिपति श्रीमान नामवर सिंह से लेकर जाने कितने हिंदी के कसरती शरीर वहां नमूदार हुए थे। हफ़्ते भर काफ़ी गहमा-गहमी का माहौल रहा, विद्यार्थी भी खुश थे कि कुछ आयोजन-सा हुआ और कुछ ‘बड़े लोगों’ से पता-परिचय भी। फिर शादी के टैंट की तरह वहां के टैंट भी उखड़ गए और अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का परिसर अपनी रूटीन पर लौट गया। तब से लेकर अब तक हिंदी, हिंदी से जुड़े लोगों, हिंदी के सवालों और विभूति नारायण राय के ऊपर काफ़ी पानी बह चुका है।

लगभग चार साल गुजर गए और राय साहब को अब महसूस हो गया कि उस कार्यक्रम की पुनरावृत्ति होनी चाहिए। तो साहिबान, 2013 पेश करता है आपके सामने ‘हिंदी का दूसरा समय’। चलिए मान लेते हैं कि हिंदी की सेहत के लिए ऐसे आयोजन बेहद ज़रूरी है, ये भी मान लेते हैं कि रचनाकारों का आपस में समय-समय पर संवाद करने के लिए माकूल जगह मुहैया कराई जानी चाहिए और खींच-तान कर ये भी मान लेते हैं कि ऐसे कार्यक्रमों से विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को लाभ मिलता है। बावज़ूद इसके मामले की हल्की तफ़्तीश तो ज़रूर की जानी चाहिए। मैं निजी तौर पर जानता हूं कि राय साहब को अदबी ज़ुबान बेहद रास आती है इसलिए दरख़्वास्त है राय साहब कि मुझे ऐसा करने की इजाज़त बख़्सी जाए!

इससे पहले कि मंच से आप ये बात दोहराएं मैं ख़ुद ही कह देता हूं कि 2009 वाले उस उजड़े परिसर में अब भवन बन गए हैं। मैं इन इमारतों में पड़े दरारों और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा उत्तर प्रदेश (आपका गृह राज्य) के कुछ लोगों को ग़लत तरीके से लाभ पहुंचाने के आरोपों को झुठलाते हुए सीधे कहता हूं कि आपने शानदार काम किया है। पूरे विश्वविद्यालय को नीचे से उठाकर टीले पर पहुंचा दिया, नीचे वाले हिस्से में शिक्षकों का घर बना दिया, भाड़े के हॉस्टल को ख़त्म कर पहले लड़कियों के और फिर ‘उत्तरी परिसर’ में लड़कों के न सिर्फ़ हॉस्टल बनाए बल्कि पुलिसिया पृष्ठभूमि से आए सरकारी आदमी होने के बावज़ूद जिस हद तक संभव था आपने प्रगतिशीलों, क्रांतिकारियों के नाम पर इन इमारतों के नाम रखे। दलित छात्र-छात्राओं की भूख हड़ताल चलती रही, हर साल प्रवेश परीक्षा में आंतरिक आरक्षण और संवैधानिक आरक्षण के गणित में आप गड़बड़ी करते रहे लेकिन हॉस्टल का नाम जब रखना हुआ तो आपने बिरसा-मुंडा छात्रावास और सावित्रीबाई फुले छात्रावास रखा!

प्रगतिशीलता इसी का तो नाम है! हिंदी लेखिका को छिनाल कहे जाने को कितने महीनों तक कोई याद रखेगा, आरक्षण में भेद-भाव को, विद्यार्थियों पर लाठी भांजने को कितने समय तक कोई याद रखेगा, मनमर्जी से किसी को निकालने और किसी को वर्धा में बनाए रखने को कितने समय तक कोई याद रखेगा, अगर लंबे समय तक याद रखा जाएगा तो सिर्फ़ आपके द्वारा रखे गए इन हॉस्टल के नामों को। गोरख पांडेय छात्रावास, राहुल सांकृत्यायन पुस्तकालय, फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास, कबीर हिल्स, गांधी हिल्स वगैरह। अब तो भगत सिंह हॉस्टल भी बन रहा है न? आपके ऊपर किताब लिखने वाले लोग रीडर बने फिर साल भर में प्रोफ़ेसर बन गए। आपके सामने चुप रहने वाले लोग परिसर से बाहर नौकरी की तलाश में नहीं भटकते, मुझे मालूम है। रिसर्च एसिस्टेंट, एसोसिएट, हिंदी समय डॉट कॉम, अनुवाद प्रोजेक्ट, फलाना प्रोजेक्ट, ढिमकाना प्रोजेक्ट, लेक्चरार आदि, आदि बहुत पद है वहां। पद के मुताबिक़ लोग ही कम हैं। आपको साधने का मतलब है दुनिया कुछ भी कहे लेकिन जिसने आपको साधा है वो इन्सान वहां निश्चिंत रह सकता है। दुनिया की परवाह आप भी कहां करते हैं। इसलिए तो किसी भी आलोचना को तवज्जो नहीं दी और आलोचकों को वर्धा बुला-बुलाकर उनके मुंह में सही शब्द ठूंस दिए। कहिए कि औकात बता दी!

अगर आप हुनरमंद और क़ाबिल नहीं होते तो इतने पुरस्कार और सम्मान फिर आपको क्यों मिलते? इतने सेमिनारों में आपको क्यों बुलाया जाता? दिल्ली की हंस वाली गोष्ठी में कश्मीर पर और वर्धा में उत्तर-पूर्व पर राजधर्म को निभाने वाली नैसर्गिक बात कहने के बावज़ूद पीयूसीएल आपको बलिया में क्यों ऐसे ही विषय पर बुलाता? राजकिशोर वर्धा को आपका हरम बताने के बाद वहां नौकरी क्यों करने जाते? ‘नक्सलबाड़ी कवि’ आलोकधन्वा वहां से पटना जाने के बाद ही आपकी आलोचना क्यों करते? छिनाल प्रकरण के बाद जेंडर समानता के लिए पौधा लगाने का विरोध वहां क्यों नहीं हुआ? मुंहफट विद्यार्थियों को ठिकाना लगाने के बाद वहां आप कितनी शांति से प्रशासन चला रहे हैं? हैं न?  बहुत सारे गुण हैं आपमें लेकिन भूमिहारों की योग्यता को पहचानने की आपकी क्षमता की मिसाल दी जानी चाहिए। भूमिहार भी तो इसी देश के लोग हैं जाहिर है कि उनकी बेहतरी एक तरह से देश की ही बेहतरी है। इस मामले में जो आपका विरोध करेगा, मैं उनका विरोध करूंगा। मैं आपके साथ हूं।

छिनाल प्रकरण को लोग अब भूल गए लेकिन भ्रष्टाचार तो आज-कल देश का बड़ा मुद्दा है और सीएजी (कैग) देश में न्यूज़ तय करने वाली संस्था। फिर भी आप पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद बहुत से लोगों को इसके मुतल्लिक कुछ भी मालूम नहीं, तो इससे साबित होता है कि आप एक कुशल प्रबंधक भी हैं। आपका भविष्य उज्जवल है। मुझे बेहद दुख है कि आप सितंबर-अक्टूबर 2013 में वर्धा से अलग हो जाएंगे। सचमुच बेहद दुख है। लेकिन ज़्यादा दुख तब होता जब लगता कि आप साहित्य का मजमा लगाए बिना ही जा रहे हैं। आप 2013 के शुरुआत में ‘हिंदी का दूसरा समय’ कर रहे हैं, मैं खुश हूं। मैं देखना चाहता हूं कि आपके बहिष्कार की बात करने वाले कितने लोग अपनी बात पर टिके रहते हैं। दो साल में दुनिया काफ़ी बदली है। कई लोग समय बीतने के साथ बातों को भूल जाते हैं या फिर भूलने की जिद करने लगते हैं या फिर भूलने का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। आपका क्या है, हिंदी का एक समय आने के नाम और एक समय जाने के नाम। वित्त वर्ष ख़त्म होने से पहले-पहले संस्थान के पैसे भी ख़र्च करने हैं, लिहाजा 2013 की गरमा-गरम शुरुआत कीजिए। अकेले आप कितनों की कलई उतार देते हैं, आप जैसे दो-चार लोगों का हिंदी में बने रहना बेहद ज़रूरी है। लोग आपको फ़र्जी कॉमरेड बोलते हैं, मैं दुनिया की नहीं मानता। इसलिए जाते-जाते आपको लाल सलाम!

27 नवंबर 2012

हिंदी को बंद गली का आख़िरी मकान मत बनाइए.




दूसरा भाग
हिन्दी समाज और 'सृजनात्मकता' की पड़ताल करता दिलीप खान का यह आलेख दो भागों में यहां प्रकाशित किया जा रहा है, प्रस्तुत है दूसरा भाग इसका पहला भाग यहां क्लिक कर पढ़ें.

सरकार इतनी संस्थाओं और आयोजनों पर धन झोंकती है, लेकिन हिंदी को सचमुच टिकाऊ और दीर्घजीवी बनाने की कवायद इनमें कहीं नज़र नहीं आती। देश के अधिकांश राज्यों में हिंदी साहित्य का स्कूली पाठ्यक्रम अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। इनमें समकालीन लेखकों की लगभग अनुपस्थिति कई सवाल खड़े करती है। पहला सवाल तो ये है कि क्या इन लेखकों ने वो स्तर हासिल नहीं किया कि पुराने लेखकों की बजाए इनको तवज्जो दी जाए? दूसरा सवाल ये है कि क्या हिंदी पाठ्यक्रम को अद्यतन करने वाले लोग कूपमंडूक और लकीर के फकीर वाली परंपरा से ताल्लुक रखते हैं कि कुछ भी नया करने में उनका हाथ कांपने लगता है? तीसरा सवाल ये है कि क्या जान-बूझकर समकालीन समय-समाज को प्रतिबिंबित करने वाली रचनाओं को पाठ्यक्रम से काटकर रखा जाता है और पुराना पड़ जाने पर उसे हमारे सामने पेश किया जाता है? अगर इनमें से किसी भी सवाल का जवाब हां है तो वो अकेले परेशान करने के लिए काफ़ी है।  

खिलते हुए हिंदी पट्टी के मध्यवर्ग को ऐसे विषयों में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है। साहित्य से यदि कोई अतिरिक्त लगाव नहीं रखे तो उन्हें कुछ भी नहीं पता कि क्या लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है और कैसा लिख रहा है? पूरा का पूरा मध्यवर्ग पूंजी जुटाने में मस्त है। क्या इसी संस्कृति ने मध्यवर्ग को साहित्य से काट दिया है या फिर साहित्य सचमुच उनकी ज़रूरत पूरी नहीं कर पाता? यही मध्यवर्ग गाल पर तिरंगा छापकर जंतर-मंतर पर अन्ना हज़ारे के साथ बैठकर नारे लगाता है लेकिन इसी मध्यवर्ग को साहित्य से कोई दिलचस्पी नहीं रहती तो वजह क्या है? दो उत्तर हो सकते हैं एक तो ये कि इस वर्ग ने साहित्य को बदलाव के टूल के तौर पर नकार दिया है या फिर हिंदी का साहित्य मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षाओं पर सचमुच चोट करता है और इसी वजह से यह वर्ग इससे कन्नी काटता है। लेकिन एक तीसरा उत्तर भी हो सकता है जो इनसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। शायद पूरे समाज में पढ़ने को करियर के साथ इस तरह जोड़ दिया गया है कि करियर के अहाते से बाहर की कोई भी चीज़ पढ़ना फ़िजूलख़र्ची लगता है। कंप्यूटर इंजीनियर को यांत्रिक इंजीनियंरिंग नहीं मालूम तो इतिहास और साहित्य के लिए उसे कहां से फुरसत! शिक्षा का पूरा ढांचा ही पठन-पाठन को एक पीपे के भीतर महदूद करने वाला है। हिंदी कोई क्यों पढ़ेगा? हिंदी माध्यम में पढ़ने की सलाह क्यों देनी चाहिए जब सारी की सारी नौकरियों में अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाने की कोशिश जारी हो? एक तरफ़ शिक्षा की योजना बनाते समय सरकारी हुक़्मरान अंग्रेज़ी के प्रति आग्रह रखते हैं, ज़्यादातर सरकारी संस्थानों के प्रश्नपत्र इस घोषणा के साथ विद्यार्थियों के सामने पेश होते हैं कि वाक्यों में किसी भी तरह की त्रुटि के बाद अंग्रेज़ी को ही आधार माना जाएगा और दूसरी तरफ़ सरकार हिंदी के विकास को लेकर सितंबर-सितंबर चमकदार आयोजन करती है। सिर्फ़ रेलवे स्टेशनों पर हिंदी हमारी राजभाषा है लिखने से हिंदी की महत्ता को सरकार स्थापित नहीं कर सकती (किसी-किसी प्लेटफॉर्म पर तो राष्ट्रभाषा भी लिखा मिल जाएगा।)। इसके लिए सचमुच गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है।
उच्च शिक्षा के माध्यम के तौर पर जब तक हिंदी को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी तब तक इसका दोयम दर्ज़ा बरकरार रहेगा। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश भारत यह हिम्मत क्यों नहीं दिखा पाता कि वो अपनी राजभाषा को व्यवहार और चिंतन की भाषा में तब्दील करे। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को यदि सातवीं आधिकारिक भाषा के तौर पर मान्यता मिल जाती है तो हमें किस आधार पर गर्व करना चाहिए? बाहर में हिंदी-हिंदी चिल्लाने से मज़बूती कभी नहीं आने वाली। जिस समाज और जिस मिट्टी की यह भाषा है पहले वहां इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों को भरोसा दिलाना होगा कि वो इस माध्यम में बेफ़िक्र होकर लिख-बोल सकते हैं। हिंदी बोलने-लिखने के उनके आत्मविश्वास की इज़्ज़त करनी होगी कि उनकी बदौलत ही सरकार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की दावेदारी पेश कर पा रही है। फ़र्ज़ कीजिए कल को हिंदी को वहां मान्यता मिल गई और देश के भीतर उसे हिकारत से ओह माई गॉड हिंदी कहकर देखा जाए तो सरकार के इस भाषाई प्रेम को लेकर कैसी तस्वीर उभरेगी?  
लोग पढ़ना चाहते हैं और पढ़ भी रहे हैं, लेकिन उनकी दिक़्क़त ये रहती है कि अलग-अलग विधाओं की विषय-सामग्री उनको हिंदी में नहीं मिल पाती। आख़िरकार हिंदी को लेकर चिंतित हुक़्मरान एक आसान काम क्यों नहीं कर पाते कि दूसरी भाषाओं की बेहतर किताबों का वो हिंदी में अनुवाद करवा दे। कितने रुपए इस मद में ख़र्च करने होंगे? हिंदी आयोजनों और हिंदी के नाम पर नए-नए संस्थान खोलने में जितनी धनराशि फूंकी जाती है उसके मुकाबले कहीं कम बजट में इसे पूरा किया जा सकेगा। भाषा के टिकाऊपन के लिए उसे प्रचलन, बोल-चाल, पठन-पाठन, विमर्श और सबसे अहम कि उसे रोज़गार की भाषा के तौर पर स्थापित करना होगा। आश्वस्त पेट के मार्फ़त की गई चिंता ज़्यादा ठोस होगी।         
जिस राजभाषा को अपनाने के बाद पेट पालने का सवाल सबसे पहले सामने आ जाए तो उसमें फैलाव कैसे आएगा? भाषा के फ़ैलाव के लिए जिन्हें ज़िम्मेदारी दी गई है वो नौकरी कर घर-गृहस्थी चलाने में व्यस्त हैं। इनमें से कई लोगों के भीतर भाषा की बेहतरी की कोई चिंता नहीं है और जो लोग सचमुच चिंतित है उनके हाथ में ज़िम्मेदारी और अधिकार नहीं हैं। हिंदी साहित्यिक दुनिया में ऐसे कितने लेखक हैं जो सिर्फ़ लिखकर जीवन-यापन कर पा रहे हैं? किसी का रबर का धंधा है तो कोई प्रबंधक है, कोई मिठाई की दुकान चलाता है तो कोई कपड़े का व्यापार करता है। फिर भी हठधर्मी होकर अगर कोई यह  तय कर ले कि वो कोई नौकरी नहीं करेगा और पठन-पाठन से अलग कोई धंधा भी नहीं, तो अगले कदम पर लघु-पत्रिका उसके स्वागत में खड़ी रहती है। दो-एक विज्ञापन के सहारे पत्रिका निकलनी शुरू होती है। लिखने वाले लोगों को कोई भुगतान नहीं होता। संबंधों के आधार पर लेख आ जाते हैं और महीने के अंत तक खींच-तान कर पत्रिका भी। कभी अगर लेखक ने रचना भेजने में देरी कर दी तो पत्रिका तत्काल प्रभाव से मासिक से अनियतकालीन में तब्दील कर दी जाती है। सैंकड़ों-हज़ारों की तादाद में निकलने वाली ऐसी पत्रिकाओं में इक्के-दुक्के ही ऐसी होती हैं जिनको देखकर लगता है कि इनके पीछे संपादक की कोई योजना है। ज़्यादातर प्रतियां मुफ़्त में बंटने के बाद बिक्री भले ही दस फ़ीसदी ही हो, लेकिन पत्रिका के कवर पर छपी क़ीमत को कम नहीं किया जा सकता! पता नहीं किस स्तरीयता के बोझ में दबकर संपादक यह आत्मघाती फ़ैसला लेते हैं?
हिंदी पट्टी के जिन इलाकों में संभावना तलाशती ये पत्रिकाएं पहुंचती हैं, वहां पहले से कुकुरमुत्तों की तरह चार महीनों में फ़टाफ़ट अंग्रेज़ी सिखाने वाली कोचिंग खुल चुकी होती है। चौराहे-चौराहे ब्रिलिएंट इंग्लिश, ब्रिटिश इंग्लिश और इंग्लिश वर्ल्ड जैसे आकर्षक नामों की तख़्तियां टांग दी जाती है। रैपिडेक्स की खुराक तले बच्चे बड़े होते हैं। उनका ख्वाब ही है कि वो एक बार, बस एक बार अंग्रेज़ी बोलना सीख जाए तो दुनिया को कदमों में झुका लेंगे। अंग्रेज़ी ज्ञान तक पहुंचने का साधन न बनकर खुद ही ज्ञान बन जाती है। भाषा से ज्ञान तक के सफ़र में वह पूरे समाज में एक ख़ास अधकचरी भाषिक संस्कृति का निर्माण करती है और वहां के लोग शहरी इलीट की बोलचाल के साथ तादात्म्य बैठाते हुए गर्व महसूसने में जुट जाते है। अंग्रेज़ी के साथ इलीटनेस का जो बोध जगता है उसी को हासिल करने के पीछे लोग अपनी ऊर्जा झोंकने लगते हैं और जाहिर है वो न इलीट बन पाते हैं और न ही अपनी मिट्टी में जमे रह पाते हैं। वो नकलची जैसा बनकर रह जाते हैं और इन नकलचियों के बीच सर्वाधिक प्रिय आत्मविश्वास कैसे बढ़ाए, धनी बनने के सौ टिप्स, और आकर्षक व्यक्तित्व के राज मार्का चमचमाती जिल्द वाली किताबें होती हैं। सब कुछ मशीनी बन कर रह गया है। व्यक्तित्व, पैसा, आत्मविश्वास, शोहरत, इज़्ज़त, वगैरह सबकुछ। एक किताब के भरोसे अमीर बनने का ख्वाब देखने वाली आबादी किस तरह खुद को स्थिर रखकर साहित्य के साथ समय दे पाएगी? दो मिनट का नास्ता और तीन मिनट की पढ़ाई के बीच बाज़ार द्वारा पेश किया गया पूरा व्यक्तित्व ही ओढ़ लेना चाहते हैं लोग। असलियत यही है कि इस पूरे समाज को यही रेडिमेड चीज़ें आकर्षित करती हैं। हर भाषा में ऐसा हो रहा है। हिंदी, अंग्रेज़ी, मराठी, सबमें। समाज में काफ़ी बदलाव आया है। बीते बीस साल की बेस्ट सेलर किताबों की सूची देख लीजिए उनमें ज़्यादातर ऐसी ही किताबें शामिल हैं।
सामाजिक बनावट से पठन-पाठन की प्रकृति अलग नहीं है। मुल्क के सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के साथ ये चीज़ें जुड़ी होती हैं। जिस तरह की विश्व व्यवस्था होगी, जैसा समाज होगा वो अपने साथ पढ़ने के आस्वाद को भी बदलेगा। अगर क्रिकेट को पुचकारा जाएगा तो क्रिकेट पर बिकने वाली पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ेगा और इन पत्रिकाओं का प्रसार बढ़ेगा तो जाहिर तौर पर क्रिकेट को और ज़्यादा पुचकार मिलेगी। अलग-अलग माध्यमों की उपस्थिति ने इस प्रवृत्ति को मज़बूत किया है। टीवी और रेडियो पर इतनी सघनता से क्रिकेट अगर बजाए जाएंगे तो दर्शकों के मन में कृत्रिम कौतुहलता पनपेगी ही। फिर इसी कौतुहलता को भरने के नाम पर पत्रिकाओं और अख़बारों के पन्ने रंगे जाएंगे। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि मीडिया के सारे उपांग मिलकर किसी विषय को सर्वाधिक रुचिकर विषय के तौर पर स्थापित करने की क्षमता रखते हैं।
सामाजिक रुचियों के संदर्भ में यह पड़ताल का ज़रूरी मुद्दा है कि क्या माध्यम के प्रति लोगों का रुझान बदला है? क्या इन माध्यमों के आगमन के बाद लंबा पढ़ने की आदत कम ही है? क्या किताब को टेलीविज़न, इंटरनेट और संचार के अन्य नए माध्यमों ने अपदस्त कर दिया है? क्या नई संचार तकनीक ने सबकुछ संक्षिप्त, छोटा और चुस्त करने की बात लोगों के जेहन में बैठा दी या फिर रुचिकर और लोकप्रिय रचनाओं की कमी हो चली है? पुस्तक मेलों में सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताबों की सूची में हाल में लिखी किताबें जगह नहीं बना पाती जबकि साहित्य के प्रति उदासीनता के लाख चर्चों के बावज़ूद प्रेमचंद की कहानियां, उपन्यास और बच्चन की मधुशाला अब भी खूब बिकती है। युवा वर्ग में जो किताबें लोकप्रिय हैं उनमें गुनाहों का देवता और मुझे चांद चाहिए प्रमुख हैं। क्या नई शैली लोगों को पसंद नहीं आ रही है या फिर साहित्य का प्रचार लोगों तक नहीं हो रहा? अख़बारों और पत्रिकाओं की संख्या पर नज़र दौड़ाए तो इनमें बेतहाशा वृद्धि हुई है, इनमें से लगभग उतनी पत्रिकाओं और उतने अख़बारों में तो उतनी किताबों के बारे में सूचना ज़रूर छपती हैं जितनी पहले छपती थी लेकिन बड़ी प्रसार संख्या वाले अख़बारों से यह लगातार ग़ायब हो गए। हालांकि एक बड़ा और प्रमुख कारण यह भी है कि पहले हिंदी अख़बारों-पत्रिकाओं के जितने बड़े संपादक थे, उनमें से ज़्यादातर पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य में भी सक्रिय थे और साहित्य का मोल जानते थे। आज की तारीख़ में कई संपादकों की साहित्यिक समझदारी तो उतनी भर है जितनी से उन्हें पता चल जाए कि कौन सी किताब विवादों के घेरे में हैं और किसको कौन सा पुरस्कार मिला। यानी ख़बर में यदि साहित्य है तो थोड़ी-सी नज़र मार ली! पन्नों से ख़बर ग़ायब हुई तो जेहन से साहित्य भी!
विशेषज्ञता के जमाने में अब ऐसा लग रहा है कि एक साथ कोई व्यक्ति एक ही परिचय रख सकता है। मतलब अगर कोई साहित्यकार है तो वह पत्रकार नहीं हो सकता और अगर वह दोनों है तो विशेषज्ञता पर लोग थोड़ा शक करने लगेंगे। लेखन के इस विभाजन ने लेखन-शैली को भी विभाजित कर दिया है। पत्रकारों की ज़रूरत है कि वो समाज के बीच रोज़-रोज़ जाए ताकि अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए ख़बरों की खुराक संबंधित अख़बार (या पत्रिका/टीवी चैनल) को मुहैया करा सके। लेखकों को यह ज़रूरत नहीं रह गई है। वो अपनी खुराक घर बैठे ही हासिल कर ले रहा है। बंद दरवाज़ें के उस पार लिखने में मशगूल लेखक को जनता क्यों तवज्जो देगी? आम जनता और लेखकों के बीच लगातार चौड़ी होती जा रही यह दूरी लोगों के बीच साहित्य के प्रति जग रही अरुचि के प्रमुख कारणों में से एक है। लोगों के भीतर एक विश्वास यह भी बना है कि लेखक समाज से एक हद तक कटा हुआ प्राणी होता है। इस दूरी के एहसास ने बड़ी संख्या में आम लोगों को साहित्य से दूर किया है। एक तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बदलने से लोगों की रुचि में आ रहे परिवर्तन की वजह से करियर के लिए अनुपयोगी चीज़ों पर समय जाया नहीं करने का प्रचलन वैसे भी तेज हो रहा है तिस पर लेखकों द्वारा खुद को समेटे रखना और ज़्यादा अरुचि फ़ैला रहा है। जर्मन के बर्टोल्ट ब्रेख़्त से लेकर हिंदी के राहुल सांकृत्यायन तक को याद करने से जो पहली तस्वीर उभरती है वो यही कि इन लोगों ने लगातार समाज के साथ संवाद कायम रखा। मौजूदा दौर के हिंदी लेखक (ख़ासकर साहित्यकार) इस मामले में निराश करते हैं। जो संस्था जनता से दूरी बना लेगी, जनता कैसे उसे स्वीकार करेगी?
हिंदी के पाठक वर्ग में सामाजिक तौर पर ज़्यादा सामूहिकता देखी जा सकती है। अंग्रेज़ी में जीने-सोचने वाले समाज की तरह अभी वो ईकाई में नहीं बंटा है। हमारे यहां अंग्रेज़ी समाज की भाषा के तौर पर अभी भी स्थापित नहीं है। लोग टुकड़ों में अंग्रेज़ी बोलते हैं। मसलन एक समाज में यदि दर्ज़न भर लोग अंग्रेज़ी बोल रहे हैं तो उनके रहने-सहने की व्यवस्था एक साथ नहीं है। यानी भाषाई आधार पर वो एक समाज का निर्माण नहीं कर पा रहे। अंग्रेज़ी का पूरा समाज ऐसी ईकाई के तौर पर ही बना हुआ है। इसलिए घर बैठे लेखन करने वाले अंग्रेज़ी लेखकों की किताबें हिंदी लेखकों की तुलना में ज़्यादा मशहूर और ज़्यादा लोकप्रिय हो जाती हैं। यह उनकी सामाजिक बनावट के अनुकूल है। हिंदी में ऐसी परिपाटी दूर तक नहीं चल पाती। समाज में जाने का मतलब यह कतई नहीं है कि लेखक रोज़-रोज़ सड़क नापते रहे, बल्कि यह ज़रूर है कि वो अपने लेखन में मौजूदा सामाजिक ज़रूरतों और मनोभाव को सही रूप में जाहिर करे। इसी भाव को समझने के लिए सड़क नापने की ज़रूरत है।
जब तक हिंदी अनिवार्य है तब तक तो अगली कक्षा में जाने के लिए सबको पढ़ना है, लेकिन उच्च शिक्षा में हिंदी लोग क्यों पढ़ते हैं इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। पढ़ने के दौरान उद्देश्य क्या होता है? विश्वविद्यालय से पीएच.डी करते समय तकरीबन सारे शोधार्थी इस कोशिश में रहते हैं कि उसी चौहद्दी में वो जीवन गुजार दे, और यब लेक्चरर वाली एक अदद सीट मिलने पर निर्भर करता है। अपनी रचनात्मक ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा इसी मामले को फिट करने में हिंदी के शोधार्थी लगाते रहते हैं। अकादमिक दुनिया में सफ़लता पाने की जो पाई लागूं संस्कृति है उसमें खुद को पहले से ढालने की जुगत में भिड़ जाते हैं। फिर जिस रस्ते नौकरी को प्राप्त होते हैं उसी रास्ते को आदर्श मानते हुए अपने विद्यार्थियों को पाठ पढ़ाते हैं। आख़िर कैसे एक आज़ाद हवा में सांस लेने वाली संस्कृति पनपेगी? 
लेकिन उम्मीद भी है। हिंदी में लिखने वाले लोगों की तादाद इतनी बड़ी है यह बात इंटरनेट बता रहा है और वो भी तब जब बेहद सीमित लोगों की इस तक पहुंच है। ब्लॉगों ने हिंदी को फ़ैलाया है और दुनिया भर में फ़ैलाया है। इंटरनेट के इस्तेमाल पर लगभग सहमति बन चुकी है। इसलिए धीरे-धीरे हिंदी के बूढ़े-बुजुर्ग भी आज-कल इंटरनेट पर हाथ आजमाने लगे हैं या फिर पोते-पोतियों के मार्फत इसकी ख़बर रखने लगे हैं। अख़बार अपने प्रिंट संस्करण के साथ-साथ इंटरनेट पर भी अपडेट कर रहा है, टीवी चैनल भी इंटरनेट पर मौजूद है। अंग्रेज़ी मौजूद है, हिंदी मौजूद है। हिंदी के लिए यह सुखद है कि यहां इसका इस्तेमाल बढ़ रहा है। लेकिन, हिंदी संस्थानों में इंटरनेट को लेकर कैसी मानसिकता है इसका एक अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा द्वारा संचालित हिंदी समय डॉट कॉम पर जब डेली विजिटर की संख्या मात्र 200 पर पहुंची तो वहां इसके संचालक ने मिठाई बांटी। सितंबर 2012 में यह वेबसाइट महज 200 लोगों को रोज आकर्षित कर पाने में कामयाब हुई। लाखों रुपए हर महीने इस पर झोंके जा रहे हैं जबकि निजी तौर पर एक व्यक्ति-दो व्यक्तियों द्वारा संचालित कई ब्लॉगों-वेबसाइटों पर रोज़ाना 500 से ज्यादा लोग आवाजाही करते हैं। यह उदाहरण ये दर्शाता है कि संस्थागत रूप से हिंदी सड़ी हुई है। आप इसे उल्टा कर कहिए कि हिंदी को विकसित करने के नाम पर बनी सारी संस्थाएं सड़ी हुई हैं।
(दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका अहा! जिंगदी में देवाशीष प्रसून के इनपुट के साथ प्रकाशित)