28 जनवरी 2013

धुले: 'दंगा' नहीं, राज्य द्वारा मुसलमानों का एक और निर्मम कत्लेआम



महाराष्ट्र के धुले में पुलिस द्वारा 6 मुसलमानों की हत्या और मुस्लिम संपत्ति की लूटपाट-आगजनी को हमेशा की तरह दंगा बता दिया गया और प्रचारित किया गया कि पुलिस ने दखल देकर एक बड़ी सांप्रदायिक तबाही को होने से बचा लिया. लेकिन हकीकत कुछ और ही थी, जिसे डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) की फैक्ट फाइंडिंग टीम की इस आरंभिक रिपोर्ट से जाना जा सकता है. इस टीम के सदस्य थे: अजरम, प्रतीक, रुबीना, श्रिया, उमर (सभी DSU, JNU) और कुंदन (DSU, DU).

धुले 7 और 8 जनवरी को सुर्खियों में आया, जिनमें कहा गया कि होटल के बिल के भुगतान को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच झगड़े के बाद इस इलाके में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठा. झगड़े पर कार्रवाई करते हुए पुलिस को ‘कानून व्यवस्था दोबारा कायम करने के लिए फायरिंग का सहारा लेना पड़ा’ क्योंकि हालात ‘काबू से बाहर’ जा रहे थे. हालांकि बाद की रिपोर्टों से कुछ दूसरी ही तस्वीर सामने आई. मामले की और आगे पड़ताल करने और यह देखने के लिए कि पुलिस की फायरिंग के पहले और उसके बाद क्या हुआ था, DSU की एक 6 सदस्यीय टीम ने 19 और 20 जनवरी को धुले का दौरा किया. इसमें JNU और DU के छात्र शामिल थे. स्थानीय लोगों से बात करने के बाद यह साफ हो गया कि इस घटना को ‘सांप्रदायिक दंगा’ नहीं कहा जा सकता है. स्थानीय लोगों से हुई हमारी बातचीत से यह साफ जाहिर होता है कि यह भारतीय राज्य द्वारा मुसलमानों का एक और कत्लेआम था जो राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुए हाल मंध ऐसे ही कत्लेआमों से काफी मिलता-जुलता है. यह घटना दिखाती है कि राज्य मशीनरी पूरी तरह सांप्रदायिक है, जिसने साथ में मुस्लिम समुदाय के व्यवस्थित उत्पीड़न पर टिके एक परजीवी वर्ग को मजबूत किया है. धुले में स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि कैसे पिछले कुछ बरसों में एक माफिया वर्ग उभरा है, जिसका केरोसिन जैसी जरूरी चीजों पर एकाधिकार है और यह शराब और नशीली चीजों की दुकानें चलाता है. उनका नजदीकी रिश्ता पुलिस और प्रशासन से है, जिसने मुस्लिमों पर हमले में अग्रणी भूमिका निभाई है. अधिकतर संसाधनों पर काबिज इन प्रभावशाली तबकों में, जिनसे मिल कर कथित सिविल सोसाइटी बनता है, यह भावना है कि पुलिस की कार्रवाई ‘प्रशंसनीय’ थी. 6 जनवरी को हुई घटना को एक तरतीब में रखने के साथ साथ हमने इस घटना को उस प्रक्रिया के संदर्भ में भी समझने की कोशिश की है, जो मुसलमानों को पूरी तरह हाशिए पर धकेल देने की वजह बनी है.

अंधाधुंध फायरिंग की गई या चुन चुन कर गोली मारी गई? पुलिस उस झगड़े के बहाने अपनी गोलीबारी को जायज ठहरा रही है, जो एक रेस्टोरेंट बिल के भुगतान की वजह से हुआ था. यही बात कॉरपोरेट मीडिया भी बता रहा है. लेकिन स्थानीय लोगों से बातचीत के क्रम में यह साफ हो गया कि पुलिस फायरिंग को झगड़े से किसी भी तरह नहीं जोड़ा जा सकता है. स्थानीय लोगों का कहना है कि झगड़ा इतना मामूली था कि इसे 10 मिनटों में काबू में किया जा सकता था. लेकिन पुलिस, जो गर्व से यह कहती है कि वो पहले हिंदू है, मानो पिछले कुछ वर्षों से मुसलमानों को निशाना बनाने के मौके की तलाश में थी. खास कर 2008 में इलाके में हुए दंगों के बाद से. स्थानीय लोगों ने इसका उल्लेख किया कि कैसे 2008 के दंगों के बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर. पाटिल ने धुले में सरेआम यह एलान किया था कि मुसलमानों के पत्थर का जवाब हिंदुओं को गोली से देना चाहिए. तब से ही पुलिस सबक सिखाने की खुलेआम धमकियां दे रही थी. 6 जनवरी को, झगड़े के बहाने पुलिस ने 10 मिनटों के भीतर ही फायरिंग शुरू कर दी. पुलिस द्वारा 200 राउंड से ज्यादा गोलियां चलाई गईं. जिन स्थानीय लोगों से हमने बात की, उन सबने ही पुलिस फायरिंग के एकतरफापन के बारे में बताया. जहां तक मुसलमानों द्वारा पथराव करने की बात है, जिसके बारे में पुलिस और मीडिया का एक हिस्सा बोल रहा है, यह पथराव तभी शुरू हुआ जब हिंदू भीड़ ने पुलिस की मदद से और उसके उकसाने पर घरों को जलाना शुरू किया. बड़ी संख्या में एसिड बमों और दस्ती बमों का इस्तेमाल दिखाता है कि यकीनन इन हमलों के लिए पहले से तैयारी की गई थी.

ज्यादातर कमर से ऊपर गोलियां मारी गई थीं, इसलिए कि पुलिस ने हत्या करने के लिए गोलियां चलाईं. शहर का मुख्य बाजार होने के नाते मच्छी बाजार और माधवपुरा भीड़ भरे इलाके हैं. मारे गए सभी 6 मुसलमान या तो दिहाड़ी मजदूर थे या छोटे कारोबारी थे, जो सामान खरीदने या काम के सिलसिले में बाजार गए थे. रिजवान (22) को उनके अब्बा ने अपनी कपड़ों की दुकान के लिए कैरी बैग खरीदने के लिए बाजार भेजा था. उनकी पीठ और पैर में गोली लगी और जख्मों से 8 जनवरी को उनकी मौत हो गई. रिजवान ने 7 जनवरी को अपने परिवार से बात की और उन्हें बताया कि पुलिस ने उन्हें तब गोली मारी जब वे एक घर में छुपने की कोशिश कर रहे थे. इमरान अली(24) एक गैराज में काम करते थे और उन्हें सीने में तब गोली लगी जब वे सामान खरीदने बाजार गए हुए थे. आसिम(22) का परिवार अंडों का एक छोटा सा कारोबार चलाता था और वे अंडे ला रहे थे जब उन्हें दो गोलियां लगीं- सीने और पेट में. युनूस(22) को गले में गोली लगी और 9 जनवरी को उनकी मौत हो गई. आसिफ(30) भी अपनी छोटी सी दुकान के सिलसिले में वहां गए थे जब उनकी बगल में गोली लगी. मरने वालों में सबसे कम उम्र का सऊद था, जिसकी उम्र 17 साल थी और वो 12वीं कक्षा का छात्र था. उसके दिल के पास गोली लगी.

लूटने और जलाने की खुली छूट थी. पुलिस ने मुसलमानों की संपत्ति की लूट और आगजनी कराई. स्थानीय लोगों ने बताया कि कैसे हिंदू भीड़ का एक हिस्सा पुलिस जीप पर सवार होकर इलाके में दाखिल हुआ. जब अनेक मुसलमान अपने घरों से भाग गए, तो पुलिस उनके जाने की दिशा में फायरिंग करती रही, और इस बीच सांप्रदायिक फासीवादी गुंडे लूटपाट और आगजनी करते रहे. शेख आजाद ने हमें बताया कि जब पुलिस मुसलमानों पर गोलियां बरसा रही थी तो कैसे दंगाई भगवा झंडे लहराते हुए नाच रहे थे. उनके दो मंजिला मकान को, जिसके ग्राउंड फ्लोर पर चिकेन शॉप थी, लूटने के बाद पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया. एक स्थानीय मांस विक्रेता जमील को 10 लाख मूल्य का नुकसान हुआ. गुजरात की तर्ज पर घरों में गैस सिलेंडरों से धमाके किए गए जिससे पूरी छतें गिर गईं. इलाके के एक और निवासी युसुफ 2008 के दंगों से पहले चमड़े के छोटे-मोटे कारोबारी हुआ करते थे. 2008 दंगों के बाद वे तबाह होकर फेरीवाले बन गए थे और अब उन्हें फिर से 20 लाख मूल्य का नुकसान उठाना पड़ा. मशकूर खान को 4.50 लाख का नुकसान उठाना पड़ा. उनका घर और दुकान दोनों जला दिए गए. भीड़ और पुलिस ने मिल कर 14 मुस्लिम घरों को जलाया. पुलिस ने दमकल को भी पहुंचने की इजाजत नहीं दी. शहर के दमकल को पुलिस और सांप्रदायिक गुंडों ने मिल कर रोक दिया. देर रात में घरों की आग बुझाने की पहली कोशिश हुई जब मालेगांव (55 किमी), जलगांव (90 किमी) और शेरपुर (50 किमी) से दमकल धुले पहुंचे. एक स्थानीय निवासी मदीना बी ने, जिनको हुआ नुकसान भी लाखों में है, बताया कि कैसे अगले दिन तक अनेक घरों से निकलता धुआं देखा जा सकता था. सिर्फ यही नहीं, पुलिस ने यह भी सुनिश्चित किया कि स्थानीय लोग जलते हुए घरों में आग न बुझा सकें. अंसारी मुसद्दिक ने बताया कि कैसे जब उन्होंने बगल के जलते हुए घर पर पानी फेंकने की कोशिश की तो उनकी खिड़की से पत्थर और गोलियां मारी गईं. उन्होंने खिड़की के सामने की दीवार पर गोलियों के निशान हमें दिखाए.

जख्मी लोगों की बड़ी संख्या भी पुलिसिया जुल्म की कहानी कहती है. 90 फीसदी से अधिक जख्मी लोगों को गोलियां कमर से ऊपर लगी हैं. जख्मी लोगों ने बताया कि उनमें से अधिकतर अपनी जिंदगी बचाने के लिए भाग रहे थे, छुपने की कोशिश कर रहे थे या अपने बच्चों को बचाने के लिए निकले थे जब उन्हें गोली मारी गई. 16 साल के अब्दुल कासिम एक दिहाड़ी मजदूर हैं जिनकी दाहिनी बांह गोली से जख्मी हो गई है. वे काम से लौट कर साइकिल खड़ी कर रहे थे कि पुलिसकर्मियों का एक समूह एक घर से बाहर निकला, जिसे उन्होंने तहस-नहस कर दिया था, और कासिम को गोली मार दी. 23 साल के अरशद को तीन गोलियां लगी हैं- एक उनकी पसलियों में, दूसरी बगल में और तीसरी हाथ में. यह चमत्कार ही है कि वे बच गए हैं. उन्होंने बताया कि उन्हें पीछे से गोली मारी गई. सायरा बानो को तब गोली लगी जब अपने बच्चों को घर में लाने के लिए वो बाहर निकली थीं. पुलिस का आतंक इस कदर है कि भारी दर्द के बावजूद वे अस्पताल जाने के लिए अगले दिन तक निकल नहीं सकीं. बगल की एक कॉलोनी रमजानबाबा नगर में, जहां कर्फ्यू तक नहीं लगाया गया था, एक घरेलू नौकरानी सायराबी को गोली मारी गई. कर्फ्यू के दौरान अनेक औरतों को पुलिस ने पीटा. घटना के दूसरे दिन शम्सुन्निसा नाम की एक बुजुर्ग औरत, जो अपने घर से बाहर एक छोटी सी दुकान चलाती हैं, पुलिस को अपना दुकान तोड़ने से रोकने के लिए बाहर निकलीं तो उन्हें पीटा गया. उनका दाहिना हाथ टूट गया है और उनकी जांघ और कूल्हे पर चोट लगी है. एक दूसरी महिला तबरुन्निसा आग बुझाने के लिए बाहर निकलीं तो उन्हें पुलिस ने पीटा. दोनों घटनाएं 7 जनवरी को हुईं, जब इलाके में कर्फ्यू लागू था. कर्फ्यू का इस्तेमाल पुलिस ने पूरी तरह से लोगों पर आतंक कायम करने के लिए किया. वे घरों में घुसे, लोगों को पीटा, गाड़ियां तोड़ीं, खिड़कियों को तोड़ा, मुसलमानों की बकरियां, नकदी और जेवर चुराए. स्थानीय लोगों के पास पुलिस की इन करतूतों के काफी सबूत है, जिनमें वे वीडियो फुटेज भी शामिल हैं जो उन्होंने DSU की टीम को सौंपे. टीम ने उन दो आदमियों में से एक से भी बात की, जिनके पांव काटने पड़े. खालिद अंसारी(20) काम से लौट रहे थे जब वे पुलिस की फायरिंग सुनकर भागने लगे. उनके दाहिने पांव में एक गोली लगी जिसने उनके बाएं पांव को भी जख्मी कर दिया. उनका दाहिना पांव काटना पड़ा, जबकि दूसरा पांव बुरी तरह टूट गया है. सरकार द्वारा उनके लिए तीन लाख के मुआवजे की घोषणा एक क्रूर मजाक है. लेकिन तब भी, यह उन्हें मिलने नहीं जा रहा है क्योंकि पुलिस ने अनेक दूसरे लोगों के साथ, जो मर गए या जख्मी हैं, उनके खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया है. मुआवजा हासिल करने से पहले उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ेगी.

राज्य मशीनरी और ‘सिविल’ सोसाइटी पुलिस का बचाव करने और घटना को छुपाने के लिए फौरन हरकत में आई. पुलिस ने चालाकी से उन लोगों के खिलाफ मामले दर्ज कर दिए जो खुद पुलिस के जुल्म का निशाना बने थे. नतीजे में जो लोग केस दर्ज कराने गए उनको यह कह कर लौटा दिया गया कि वे केस दर्ज नहीं करा सकते क्योंकि उनके खिलाफ पहले से ही मामला दर्ज है. कुछ लोगों को एक थाने से दूसरे थाने दौड़ाया जाता रहा और एफआईआर दर्ज न करने के हर तरह के बहाने बनाए गए. अनेक लोग तो इतने डरे हुए हैं कि वे शिकायत दर्ज कराने थाने तक जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे, कि कहीं पुलिस उन्हें न उठा ले. कुछ लोग तो व्यवस्था से उम्मीद खो बैठे हैं कि उन्हें शिकायत दर्ज करने की फिक्र तक नहीं है. मिसाल के लिए, सऊद के अब्बा ने कहा कि इस व्यवस्था से कुछ नहीं होने वाला. उन्होंने उस रवैए की मिसाल दी, जो उनके परिवार को तब भुगतनी पड़ी जब वे नगरपालिका से अपने बेटे का मृत्यु प्रमाणपत्र बनाने की कोशिश कर रहे थे. धुले नगरपरिषद ने उनके भाई को सिविल अस्पताल से इसकी रिपोर्ट लाने को कहा कि सऊद सचमुच में मर गए हैं. वे पुलिस फायरिंग की वजह से उनको मृतक बताने से कतरा रहे हैं, बावजूद इसके कि उनका पोस्टमार्टम सिविल अस्पताल में हुआ और कब्रिस्तान के रिकॉर्ड भी गोलियों के जख्मों से उनकी मौत को दिखाते हैं. पुलिस और स्थानीय प्रशासन लोगों के आर्थिक नुकसान को कम करके दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. पंचनामा दाखिल करते हुए नुकसान हुए फ्रिज की कीमत 700 रु. और टीवी 100 रु. जैसी चीजें दर्ज की गईं हैं. कुछ मामलों में पंचनामा तैयार करने के बाद भी पुलिस ने उन लोगों के दस्तखत नहीं लिए जिनको नुकसान उठाना पड़ा. एक और मिसाल, जो राज्य मशीनरी के पूरी तरह सांप्रदायिकीकरण को सामने लाती है, वो सिविल अस्पताल में लोगों के साथ होने वाले रवैए के प्रति डर है. मुसलमान निजी अस्पतालों में जाने को तरजीह देते हैं, क्योंकि वे सिविल अस्पतालों के स्टाफ और शिवसेना गुंडों से आतंकित हैं. यह खौफ इतना गहरा है कि लोगों का कहना है कि वे सरकारी अस्पताल में जाने के बजाए मर जाना पसंद करेंगे. एक दूसरे आदमी ने कहा कि उसे डर है कि अगर वो सिविल अस्पताल गया तो शायद वो जिंदा न लौट सके.

धुले में मुसलमानों का निर्मम कत्लेआम मुसलमानों पर हो रहे जुल्म का एक और काला अध्याय है और यह भारतीय राज्य के हिंदू बहुसंख्यकवादी चरित्र को फिर से सामने लाता है. महाराष्ट्र में ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने का दावा करनेवाले कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार है, जबकि भाजपा-शिवसेना मुख्य विपक्षी हैं. लेकिन जैसा कि लोगों ने बताया कि चाहे कोई भी सत्ता में रहे, शिवसेना-आरएसएस-वीएचपी-बजरंग दल के गुंडों को भरपूर संरक्षण और सरपरस्ती हासिल होती है. ये हत्यारे गिरोह शासक वर्ग द्वारा पाले-पोसे गए हैं और सांप्रदायिक गुंडों की भूमिका अदा करते हैं. सभी पार्टियां सक्रिय रूप से विभिन्न माफियाओं का बचाव करती हैं जो संपत्तिशाली मारवाड़ी और गुजराती कारोबारियों के साथ मिल कर बेहद उत्पीड़क तबका बन गए हैं. यह मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से हाशिए पर धकेल कर ही मुमकिन हुआ है. शहर की मुस्लिम और हिंदू आबादी वाले मुहल्लों के बीच फर्क इतना साफ है कि इसे कोई भी आसानी से देख सकता है. मुस्लिम घेट्टो जैसे घिरे हुए और भीड़ भरे इलाकों में रहते हैं जहां बिजली और पानी की कमी रहती है, तो शहर के दूसरे इलाके इसकी तुलना में समृद्ध हैं. इस कत्लेआम की जिम्मेदारी अब तक किसी अधिकारी ने नहीं ली है, यह अकेला तथ्य ही दिखाता है मिलीभगत और बेदाग बच निकलने की सुरक्षा पूरी राज्य मशीनरी की तरकीबें हैं, जिनके जरिए वो इस व्यवस्थित उत्पीड़न को कायम रखती है. रहस्यमय तरीके से कलक्टर, डिप्टी कलक्टर और एसपी 6 जनवरी को ‘अनुपस्थित’ थे, जबकि डीएसपी फायरिंग शुरू होने के आधे घंटे के बाद इलाके में पहुंचे और आधिकारिक रूप से इसका खंडन किया कि उन्होंने फायरिंग के आदेश दिए थे. लेकिन भारी गोलीबारी को देखते हुए यह जाहिर है कि बिना किसी वरिष्ठ अधिकारी के यह मुमकिन नहीं हो सकता है.

आखिरी दिन शाम को DSU की टीम ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया, जिसमें आए पत्रकारों का रवैया पूरी तरह दुश्मनी से भरा हुआ था. इसमें मुख्यत: स्थानीय मीडिया से जुड़े पत्रकार आए थे जिनका मजबूत झुकाव शिवसेना की तरफ था. प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने एक गहरी टिप्पणी की. उनके मुताबिक, हमारे द्वारा इन तथ्यों को धुले से बाहर ले जाने से धुले की छवि दागदार होगी, जिससे शहर के विकास की संभावनाओं पर असर पड़ेगा. उस व्यवस्था के बारे में बताने के लिए इससे बेहतर कोई टिप्पणी नहीं होगी, जिसकी बुनियाद उत्पीड़ित जनता को हाशिए पर धकेले जाने पर टिकी हुई है- मुसलमान इस उत्पीड़ित जनता का बड़ा हिस्सा हैं - और जो इस उत्पीड़ित जनता को खामोश करते हुए ही खुद को बरकरार रखती है. खामोशी न सिर्फ हाशियाकरण की इस लंबी प्रक्रिया के बारे में बल्कि इसके बदनुमा चेहरों के बारे में भी. और इस प्रक्रिया को छुपाने के लिए राज्य के सभी हिस्से सामने आए, जैसा कि 6 जनवरी का कत्लेआम और उसके बाद की घटनाएं उजागर करती हैं. और इसीलिए इस सांप्रदायिक फासीवादी राज्य को ऊपर से नीचे तक बदल कर ही इस व्यवस्थिक उत्पीड़न को खत्म किया जा सकता है.

बौद्धिक अतिवाद या ब्राह्मणवाद का जनतंत्र विरोधी चेहरा

सफ़दर इमाम कादरी
 
शीर्ष समाजशास्त्री प्रोफेसर आशीष नंदी का जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के मंच से दिया गया बयान सम्पूर्ण देश में बहस का मुद्दा बन गया है। उन्होंने देश में भ्रष्टाचार की जड़ तलाश करते हुए यह निष्कर्ष निकल कि पिछडे और दलित समुदाय आदि के लोग ज्यादा भ्रष्ट हैं। उन्होंने पश्चिम बंगाल का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां साफ सुथरी राजव्यवस्था इस कारन विद्यमान है क्योंकि पिछले 100 वर्षों में वहां पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोग सत्ता से दूर रखे जा सके।

प्रोफेसर आशीष नंदी इतने प्रबुद्ध विचारक हैं कि यह नहीं कहा जा सकता कि उनका बयान जुबान की फिसलन है या किसी तरंग में आ कर उन्होंने ये शब्द कहे। अपनी तथाकथित माफ़ी में उन्होंने जो सफाई दी तथा उनके सहयोगियों ने प्रेस सम्मलेन में जिस प्रकार मजबूती के साथ उनका साथ दिया, इस से देश के बौद्धिक समाज का ब्राह्मणवादी चेहरा और अधिक उजागर हो रहा है। सजे धजे ड्राइंग रूम में अंग्रेजी भाषा में पढ़कर तथा अंग्रेजी भाषा में लिख कर एक वैश्विक समाज के निर्माण का दिखावा असल में संभ्रांत बुद्धिवाद को चालाकी से स्थापित करते हुए समाज के कमज़ोर वर्ग के संघर्षों पैर कुठाराघात करना है।

अभी कल की बात है कि गृह मंत्री ने भारत में आतंकवाद को एक धार्मिक समूह या राजनीतिक -सांस्कृतिक समूह से जोड़ कर दिखने की कोशिश की थी। बटला हाउस कांड के कारकों को पहचानने में भी एक धार्मिक समूह का नाम उछला था। अमेरिका के जुड़वां स्तंभों पैर आतंकी हमलों को भी विश्व स्तर पर मुस्लिम समुदाय से जोरने में देर नहीं लगी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांघी की हत्या के बाद सिख समाज को भी लक्ष्य किया गया। इसी कड़ी में आशीष नंदी के बयान को समझने की ज़रुरत है।

जाति व्यवस्था की मनुवादी जकड़न से भारतीय राजनीति अभी निकल भी नहीं सकी है लेकिन नए -नए तरीकों से बौद्धिक और राजनीतिक खिलाड़ियों के दिल का चोर रह-रह कर बहार आ ही जाता है। लम्बे राजनितिक-सामाजिक संघर्षों के बाद हज़ार कुर्बानियों के साथ हमें जो आज़ादी मिली उसके फलस्वरूप कमज़ोर तबकों की हकमारी के बदले न्याय और थोरे अवसरों में आरक्षण प्राप्त हुआ। सृष्टि की रचना के साथ जो बे-इंसाफी और शोषण का दौर शुरू हुआ था, आज़ादी के थोड़े वर्षों में उसका एक प्रतिशत भी निवारण सम्भव नहीं हो सका। इसके बावजूद संवैधानिक अधिकार और आरक्षण ब्राह्मणवादी शक्तियों की आँखों में शहतीर बना हुआ है।

डॉ राम मनोहर लोहिया ने राजनितिक स्तर पर भारत के पिछड़े और दलित समाज को एकजुट करने में सफलता पाते हुए कांग्रेस तथा अन्य राजनितिक दलों के संभ्रांत तथा ब्राह्मणवादी चरित्र को बेनकाब किया था। उत्तर भारत के कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री तथा कुछ शक्तिशाली राजनेता यदि दलित तथा पिछड़े वर्ग से आने क्या लगे, एक बौद्धिक तबका ये समझने लगा कि उस समाज का उत्थान हो गया। क्या बाबा साहेब आम्बेडकर की बौद्धिक शक्ति से यह निष्कर्ष निकल जा सकता है कि सभी दलितों को इच्छित श्रेष्ठ बौद्धिक शक्ति हासिल हो गई है? क्या भारत का बौद्धिक समाज इस तर्क को स्वीकार कर सकता है? शायद, हरगिज़ नहीं।

क्या प्रोफेसर आशीष नंदी जैसे महान बौद्धिक व्यक्ति को नहीं मालूम कि ज्ञान, बुद्धि, कार्य-क्षमता, अच्छाई-बुराई, कर्मठता या निकम्मेपन आदि गुण तथा अवगुण व्यक्तिगत होते हैं? इनसे समाज, वर्ग अथवा नस्ल का क्या रिश्ता? मशहूर सूक्ति है- औलिया के घर में शैतान। अगर ये कोई समझता है कि भ्रष्टाचार या आतंकवादी बुद्धि किसी एक वर्ग, जाति या धर्म और समुदाय से पहचाना जा सकता है तो वह जनतंत्र की अवधारणाओं में स्पष्ट आस्था नहीं रखता।

हमारे देश में जनतंत्र ज़रूर कायम है लेकिन संविधान के प्रावधानों की आत्मा को देश का प्रभु वर्ग दिल से नहीं मानता। इसलिए शोषणविहीन -समतामूलक समाज की स्थापना अभी भी असम्भव लगता है। थोड़े विधायक, कुछ सांसद, चंद मंत्री या एक-दो मुख्यमंत्री, कुछ ऊँचे मकान या दो-चार-दस चमचमाती गाड़ियाँ यदि दलित या पिछड़े समुदाय के पास आ गईं तो क्यों प्रभु वर्ग के पेट में मरोड़ होने लगता है? संभ्रांत तबका इसे उस समाज के उत्थान से जोड़कर देखे और संवैधानिक अधिकारों का फलाफल माने तो किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इसे प्रभु वर्ग अपना प्रतिद्वंदी समझता है। दिक्क़त यह है कि ब्राह्मणवादी शक्तियों को हजारों साल से दूसरों को बढ़ता हुआ या बराबरी पर महसूस करने या देखने की आदत ही नहीं रही।

प्रोफेसर आशीष नंदी का वक्तव्य हमारे समाज में मौजूद ब्राह्मणवाद का स्वाभाविक उद्गार है। इतने बौद्धिक व्यक्ति को कैसे माना जाये कि वो डी-क्लास नहीं है। गौर करने की बात यह है कि ऐसी साजिशी और मारक टिप्पणियां उन समुदायों के विरुद्ध की जाती हैं जो अक्सर अपने अस्तित्व का संघर्ष कर रही होती हैं। भारत में दलित और पिछड़ा वर्ग ही नहीं, अल्पसंख्यक और महिला समाज के बारे में अनेक षड्यंत्रकारी मत व्यक्त किए जाते हैं। इनके निहितार्थ को समझना ज़रूरी है। एक समूह को सार्वजनिक तौर पर लांछित कर दिया जाए तह बाकी समाज में उसके बारे में गलतफहमियां फैला कर समर्थक भूमिका से तटस्थ कर देना ही प्रभु वर्ग की जीत है। कमज़ोर तबका आगे बढ़ने के बजाय लोगों को सफाई देने में अपना समय और शक्ति बर्बाद करता है।
पिछले दो दशकों में जबसे दलित तथा पिछड़े समुदाय के मुट्ठी भर लोग राजसत्ता में अपना हक लेने में कामयाब हुए हैं। इसीलिए अनेक स्तरों पर तरह-तरह की साजिशें चल रहीं हैं। कृत्रिम मुद्दों पर बहुत जोर है लेकिन वृहत सामाजिक मुद्दों को सार्वजनिक एजेंडा से हटाया जा रहा है। तू डाल -डाल, मैं पात -पात का खेल चल रहा है। कमज़ोर तबकों की हकमारी की कुछ बानगियाँ देखिये जिनपर संभ्रांत लोग बारे खामोश बैठे हैं :

1. मंडल कमीशन की सिफारिशों को अप्रभावी बनाने के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान। आजतक उसमें अत्यंत पिछड़े वर्ग के लिए कोई कोटा नहीं बना।

2. निजी क्षेत्रों में आरक्षण के लिए आजतक कोई ठोस पहल नहीं हो सकी। अर्थात वहां संभ्रांत तबके को शत प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है।

3. न्यायपालिका में निम्न स्तर पर तो कुछ प्रदेशों में आरक्षण मिलता है लेकिन उच्चतर न्यायपालिका ने आज तक आरक्षण की व्यस्था से खुद को निरपेक्ष रखा है।

4. अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का अस्तित्व इसलिए नहीं है कि न्यायपालिका का जनतांत्रिक रूप आकर लेने लगेगा तथा 500 परिवारों की मुट्ठी में क़ैद देश की न्यायिक व्यवस्था का चरित्र बदलने लगेगा।

5. महिला आरक्षण में जातीय आरक्षण क्यों नहीं होना चाहिए? सामान्य आरक्षण में जब जाति आधार है तो महिलाओं के लिए किसी दूसरे आधार को सिर्फ इसलिए बनाना चाहिए की महिलाओं के रस्ते संभ्रांत तबका थोड़ी सेंधमारी कर सके।

6. बिहार के प्रमुख पत्रकार-समाजकर्मी श्री प्रभात कुमार शांडिल्य ने एक समय में बिहार के सजायाफ्ता लोगों की सूची प्रकाशित की थी जहाँ सभी दलित और वंचित समुदाय के लोग थे। उन्होंने व्यंग्य के साथ शीर्षक बनाया था- फांसी में सौ प्रतिशत आरक्षण। यह सच्चाई भी संभ्रांत तबके को जग नहीं पाई.

7. सच्चर समिति ने अल्पसंख्यक समाज तथा पिछड़े अल्पसंख्यक वर्ग की स्थिति को अति दयनीय सिद्ध किया था। सरकार की ओर से कुछ पैसों के बाँट देने के अलावा क्या हुआ?

8. देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनितिक पार्टी भाजपा से एक भी पिछड़ा-अल्पसंख्यक संसद नहीं है।

9. बिहार सरकार में एक भी पिछड़ा अल्पसंख्यक मंत्री नहीं।

लेकिन इस हकमारी के खिलाफ सार्वजनिक मंच पर कभी भी प्रभु वर्ग में कोई चिंता नहीं दिखाई देती। कमजोरों के साथ जितनी बे-इंसाफी हो, इस पर प्रभु वर्ग को आंसू नहीं बहाना है। तब समता मूलक समाज कैसे कायम होगा? आशीष नंदी कोई अपनी बात नहीं कह रहे हैं बल्कि वह ब्राह्मणवाद के षड्यंत्रकारी आक्रोश का एक बौद्धिक प्रतिरूपण हैं। उन्हें गंभीरता से इसलिए भी लेना चाहिए क्योंकि वह समाजशास्त्र के शिक्षक, शोधार्थी तथा एक बौद्धिक के रूप में नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद की एक असहिष्णु तथा अनुदार पीढ़ी के प्रवक्ता के तौर पर सामने आये हैं। उनके विचारों का समाजशास्त्रीय आधार होता तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। लेकिन दुखद यह है कि ज्ञान-बुद्धि तथा उम्र के चरम पर पहुँच कर वे वंशभेदी और जनतंत्र विरोधी विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जो भारत के भविष्य के लिए खतरनाक है। समाज को ऐसे चिंतकों से होशियार रहना चाहिए।

26 जनवरी 2013

'राष्ट्र के नाम' तीन कविताएं- अनिल पुष्कर

मैं राष्ट्रीय नागरिक हूँ

मैं राष्ट्रीय नागरिक हूँ
मगर मेरी हिफाजत कानून नहीं करता
मैंने मुहाफिजों, मुहाजिरों, विस्थापितों से पूछा
कानून उनकी हिफाजत करेगा? 
मैंने खेतों से पूछा, पहाड़ों से पूछा
नदियों से पूछा, किसानों से पूछा
कानून उनकी हिफाजत करेगा?
मैंने युवा तकलीफों से पूछा
कानून हिफाजत करेगा?
पेट की भूख से पूछा, मेहनती हाथों से पूछा
गँवई लड़कों से पूछा
जो देश सुरक्षा में मुस्तैद मिले
मैंने चरवाहों से पूछा
नटों से पूछा
जनजातियों से पूछा
कुम्हार की चाक से पूछा
लोहे से पूछा

मैंने लकड़हारे से पूछा
वे किन राष्ट्रीय योजनाओं में खपाए गए
मैंने गडरियों से पूछा
वो किन बूचडखानों में धकेले गए गए

और जवाब में पाया
जो कानून जुर्म की काली कोठरियों में उजाला भरता है
जो जमीन की रंगी फसलों को काला करता  है
जो राजघरानों की हिफाजत में तैनात रहे
प्रधानमंत्री आवास में मुस्तैद रहे
जो गुलगुले की पीक भर राष्ट्रगान,
और चार थन वाली चितकबरी संसद का गुलाम है
जो तीन रंगों वाले पहिये की सुरक्षा में सेना डाले है
जो बूटों और तोपों से निजाम के हक में हिफाजत को तैयार है

जिस किसी ने पूछा 
निजाम किसका है?
काली पट्टी बाँधे उन्हें अलग-अलग कोठरियों में डाला गया
वे राष्ट्रीय कूटनीतियों के जालसाज है
रोज नई-नई उदारवादी मंडियाँ तलाशते हैं
और राष्ट्रध्वज को सलामी देना नहीं भूलते

देख रहा हूँ
ये मुल्क एक बड़े औद्योगिक घराने में बदल रहा है
कारोबारी की हिफाजत में कानूनी कड़ाहा उबल रहा है.


उदारीकरण की पाठशाला में

यह महज बंदूक नहीं
एक ज़िंदा इतिहास है
घोड़ा दबाते ही पूरी पीढ़ी का गुबार बह निकलता है 
बारूद की धमनियों में बह रहा है मवाद
निशाने पर टूटी हुई सदी का अपराध तना है

यह महज इत्तेफाक नहीं
कि गोली चलेगी मुठभेड़ में मारे जायेंगे लोग
लावारिश और आतंकी कहकर दफन होने को मजबूर
ये लोकतंत्र का अगला पहिया है

यह महज विचार नहीं
कि खून बहाने का हुनर उन्हीं के पास है
जिन्हें मेहनतकशों ने अपना मुकद्दर सौंप दिया

यह महज एक दुर्योग नहीं
कि राष्ट्रीय सुरक्षा में जन-सभाएं रौंदकर
इल्जाम भरे जा रहे हैं

यह महज ख्वाब नहीं
कि वे एक अदद रजाई और रोजगार के एवज में
सांसों का बड़ा कारोबार रख आये हैं गिरवी
मकान की चाहत में जमीन से अपने भाइयों को
बेदखल करने की रंजिश का हुनर सीख चुके हैं

जन-प्रतिनिधि बंदूक की नली साफ़ कर रहे हैं

और वे जो उदारीकरण की पाठशाला में हाजिर हैं
नया अर्थशास्त्र ले आये हैं
नाजायज फायदा लेने की सियासत चली है
और ये रवायत कि
यहाँ दो-दो चार नहीं कई लाख-करो होते हैं
उपजाऊ दिमाग पर हावी है एक हवस
कि वे एक दिन दुनिया में अमन ले आयेंगे
मुनाफे में दोजख की जमीन जहीन मेहनती गुलामों में बांटकर 
शैतानी हुकूमतें कयामत का लिबास ओढ़े जन्नत की वारिस होंगी 
हम बंदूक के खाली बिलों में बारूद भर रहे हैं

और उदारीकरण की पाठशाला में
वे पका रहे हैं सपने – मीठे और रसदार
गूदेदार और रंगीन,
जिनके फूल ठीक उन मौसमों में खिले
जब तख़्त पर मस्जिद और मंदिर के दावेदार
याकि शान्ति की बात करने वाला बिचौलिया
संसद में शपथ ले रहा है

हम सही समय के इन्तजार में
निशाना साधने को कठपुतलियाँ बाँधे सावधान मुद्रा में खड़े हैं

वे अधीर लोगों पर फेंकते हैं कंटीले अपराधों के जाल
उत्पीड़कों ने तय किए कानून कि
किस समूह का कितना मांस रोज छांटा जाए
कितने मजलूम पेट काटे जाएँ
किसके हिस्से की जमीने लूटी जाएँ
किन अस्मतों पर दाग छोड़े जाएँ
किस कौम की रगों में बेईमानी भरी जाए
मुल्क के नक़्शे पर कितने तोले तरक्की आबाद हो
इंसानी जबानों पर कितनी कीलें ठोकी जायेंगी
किन पर खंजरों की किस्मत आजमाई जाये

हमने तम्बाकू की पत्तियाँ रगड़
चिंताओं को फूंक मारकर उड़ाया है 
हवा में आसमानी टुकड़ों के बीच
अफ़सोस! अपने ही सड़े हुए अंगों की गंध नहीं आती
हमें मालिकों का जुल्म नहीं डराता
हमें अपनी संतानों की गिनती में कमी नहीं खलती
आखिर कब तक हमारी तकदीर पर फुफकार मारेगा- ईश्वर!

क्या हमें अब भी बंदूक उठाने के वास्ते
लाइसेंस और इजाजत चाहिए
हमें बंदूक चलानी होगी
हमें इस दमन के विरुद्ध आवाज की बंदिश हटाकर
अंजाम तक जाना होगा
आखिर कब तक हमें गुर्बतों का कहर डराएगा
आखिर कब हमारी आँखों में सुबह का नूर आएगा.

संसद की मण्डी

यहाँ संसद की मण्डी बरस भर दो सत्रों में लगती है
जहाँ करोड़ों की फेरी लगाने वाले धंधेबाज बैठे हैं
वे नेहरू का कपड़ा निचोड़ते, गांधी की गंदगी धोते
चन्दन का लेप किए जनेऊ डाले 
लंगोट सी कसी बुनियादी जरूरतों पर
जम्हाई लिए बिताते हैं वक्त

सोचते हैं कहीं से थोड़ी सी धूप का स्वाद
और शीतल हवा की गंध का आनंद बरसे
कहीं से आंधियों का वेग उठे और अर्जियों की लुगदी पर आग बरसे
एक कबाड़ी माननीय अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा
इस तरह आवाम की आवाजें तौलता है

उसे वे आवाजें हरगिज़ सुनाई नहीं देतीं
जिनमें जवान होती मुश्किलें और कर्ज की फांस चुभी है

उसे कथावाचक की मंत्रमुग्ध आवाज़ सुनाई दे रही है
उसे मीठे भाषण की लच्छेदार आवाज़ सुनाई दे रही है
उसे मठों की मंत्रमुग्ध आवाज में दिलचस्पी है
उसे बनियों की चमकदार आवाजें बेहद पसंद हैं
उसे दुनिया को बरगलाते अभिनेता का संवाद भाता है
उसे सुनहरी योजनाएँ रपटीले भविष्य की धुन लुभाती है
उसे इन्कलाब का शोर नापसंद है
उसे धार्मिक अखाड़ों और दंगों का नाद, भजन लगता है
उसे लाठीचार्ज में घायलों की चीख सुनाई नहीं देती
उसे जम्हूरियत का घुटनों के बल रेगने में मजा आता है
उसे परमाणु-सौदे का राग प्रिय है
उसे पड़ोसी से युद्ध का आगाज़ प्रिय है
उसे युद्ध में मारे गए सैनिकों की बेवा का रुदन अखरता है
उसे गृह-युद्ध में जन्वासियों की मौत का सुर पसंद है
उसे सेनाओं में जवान भर्ती की सलामी और पदचाप पसंद है
उसे भूख और गरीबी की तड़प से नफरत है
उसे आदेश-पालन करने वालों की तरक्की पसंद है
उसे जमीनों की लूट, जंगलों की आग और बिल्लियों को रिझाना पसंद है
उसे विद्रोह, बगावत का स्वाद और चुनौती की फांस का चुभना नापसंद है
उसे जुगनुओं की चमक दुर्ग के स्तंभों पर टिमटिमाना भाता है
उसे रोशनी रोटी और रोजगार की मांग का आक्रोश नापसंद है
प्रजापालक को प्रजा का शील और चुप्पी का सौंदर्य पसंद है

जनाब!!
बिलकुल ठीक समझे आप,
उसे जनता का आगबबूला होना अखरता है

एक मुल्क की जम्हूरियत को शहंशाह
हर रोज ऐसे ही चरता है

तब जाकर अंतर्राष्ट्रीय पखवाड़े में
किसी राष्ट्र का नक्शा विकसित देशों सा दमकता है. 

अनिल पुष्कर अरगला के प्रधान संपादक हैं. उनसे kaveendra@argalaa.org पर संपर्क किया जा सकता है.

25 जनवरी 2013

कश्मीर पर तो राष्ट्रवादियों को भी सोचना चाहिए


-अरुंधति राय
(पीयूडीआर ने जम्मू-कश्मीर में सैनिकों द्वारा उत्पीड़न पर ‘इम्प्यूटिनी फॉर एलिजिड परपेट्रेटर्स एंड क्वेस्ट फॉर जस्टिस इन जम्मू एंड कश्मीर’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें 214 घटनाओं के हवाले से स्थिति की भयावहता स्पष्ट की गई है। रिपोर्ट के आख़िरी पन्नों में परिशिष्ट के रूप में कुछ दस्तावेजों को भी स्कैन कर लगाया गया है। कश्मीर की राजनीतिक स्थितियों पर अरुंधति लिखती रही हैं, पीयूडीआर की इस रिपोर्ट के मौके पर उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान में जो भाषण दिया, पेश है उसका हिंदी तर्जुमा)

मैं ये कहना चाह रही हूं कि कश्मीर में सैनिकों द्वारा जो उत्पीड़न हो रहे हैं वो किसी सैनिक का निजी विचलन नहीं है बल्कि ये सांस्थानिक योजना है। .....अल्जीरिया जब फ्रांस का उपनिवेश था तो उस समय एक फ्रांसीसी सैनिक ने कहा कि ये मेरा काम है कि मैं अल्जीरिया में मानवाधिकार को तोड़ूं, यहां के लोगों को धमकाकर रखूं, लोगों को यातनाएं दूं। मुझे ऐसी ही पाठ पढ़ाई गई है! इसलिए मानवाधिकार हनन का मसला किसी का निजी मामला भर नहीं है, ये सांस्थानिक है और ऐसी स्थिति में इस तथ्य पर नज़र दौड़ाइए कि कैसे भारतीय सेना ये कहती है कि कश्मीर में वे सेना द्वारा हुए मानवाधिकार हनन की जांच खुद अपनी संस्था के मार्फ़त करवाएगी! इसे किस रूप में लिया जाना चाहिए?
.....कश्मीर की हालत बेहद ख़स्ता है और इस लिहाज से पीयूडीआर ने जो काम किया है उसकी हमें ज़रूरत है। कश्मीर के बारे में लोगों के पास अब सूचनाएं आने लगी हैं। इसलिए कई दफ़ा सुधिजन ये कहने लग जाते हैं, अरे यार, क्या होगा इन आंकड़ों और बातों का, क्या फ़ायदा होने जा रहा? लेकिन ऐसे मुश्किल हालात में काम करने वालों को लगातार काम करते रहना चाहिए क्योंकि इन कामों के पुलिंदों में असर छुपा होता है। 

मुझे नर्मदा घाटी की एक बात याद आ रही है: एक गांव में आदिवासी लोग अपने खेत में रोपनी कर रहे थे। वो गांव डूब क्षेत्र में आने वाला था, तो मैंने पूछा कि जब फ़सल डूबनी ही है तो वो क्यों रोपनी कर रहे हैं? गांव वालों ने जवाब दिया कि वो जानते हैं कि फ़सल डूब जाएगी, लेकिन वे और कर क्या सकते हैं। फ़सल रोपना उनका काम है और वो ऐसा करेंगे। इसलिए डुबोने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपना काम करते रहिए। 
बहरहाल, ये रिपोर्ट महज इन आंकड़ों की सूची और घटनाओं का संग्रहण नहीं है कि कितने लोग कश्मीर में मारे गए और कितनों को यातनाएं मिलीं, बल्कि ये हमारे सामने कहीं ज़्यादा गंभीर सवाल उछालती है। ये हमें बताती है कि वास्तव में सैन्य कब्जेदारी का नतीजा किस रूप में सामने आ रहा है। सैन्य अत्याचार की इन घटनाओं को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। ऐसा नहीं है कि एक सेना का जवान आया और यातना बरसा गया, एक सेना का जवान आया और ख़ून बहा गया, वास्तव में ये सांस्थानिक मसला है। ये घटनाएं भटकाव या अपवाद को रेखांकित नहीं करतीं। उनको उन्हीं खातिर तैयार किया गया है और वे जो वहां कर रहे हैं वही उनका कर्तव्य है!
मैं कई बार कश्मीर गई हूं और मैंने देखा है वहां के लोगों की आंखों में क्या है? आफ़्सपा जैसे क़ानून के साए में जी रहे कश्मीर में अत्याचार के कैसे-कैसे वारदात अंजाम दिए जाते हैं ये इधर के लोगों की कल्पना से परे हैं। कश्मीर के (तकरीबन) किसी भी घर में चले जाइए वहां दस्तावेज़ों से भरा प्लास्टिक का थैला आपको मिल जाएगा। लोग आपको बताएंगे,- मैंने यहां एफआईआर किया, वहां अर्जी डाली, फिर ऊपर गया, अदालतों के चक्कर काटे, लेकिन कुछ नहीं हुआ। ऐसी निराशा हर घर में पसरी मिलेगी। दस्तावेज़ों के पुलिंदों के बावज़ूद कुछ नहीं हो रहा! पूरी अवाम के साथ ये किस तरह का बरताव है?

...सवाल ये है कि हम इस रिपोर्ट का क्या करें, हमें कश्मीर के बारे में क्या करना चाहिए? चलिए एक सामान्य उदार भारतीय के लिए इसके मायने ढूंढते हैं। आप देखिए न, अन्ना हज़ारे के साथ और दिल्ली बलात्कार कांड के विरोध में हुए आंदोलन में डूबते-उतराते लोग कहां खड़े हैं? कौन बोल रहा है कश्मीर पर? उनके पोजिशन और मुद्दे साफ़ हैं। कश्मीर से उनको क्या लेना-देना? लेकिन एक उदार राजनीति के व्यक्ति को भी इस मुद्दे पर साथ होना चाहिए। मैं तो कहूंगी कि राष्ट्रवादियों को भी सोचना चाहिए कि कश्मीर के मुद्दे उनके लिए क्यों महत्वपूर्ण है! मैं कारण बताती हूं। आज़ादी के 60 साल बाद तक पुलिस, भारतीय सेना, सीआरपीएफ़ और बीएसफ़ ने नागालैंड, मणिपुर और कश्मीर में कब्जेदारी की बदौलत जिस तरह से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई है और इस दौरान उन्होंने जो भूमिका निभाई है, उसने सांस्थानिक रूप ले लिया। राष्ट्रवादियों को बस मैं ये बताना चाहती हूं कि रक्षा बलों ने जो कसरत उन इलाकों में की है वे अब भारत की “मुख्यभूमि’ में उनका इस्तेमाल करने लग गई हैं। छत्तीसगढ़ में यही कार्रवाई हो रही है और धीरे-धीरे इसकी परास बढ़ती जा रही है.....

....रक्षा बलों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं पर तो सवाल भी नहीं उठते। बड़ी आबादी यातना देने वालों की पांत के साथ खुद को नत्थी पाती है, इस महसूसियत में एक तरह का वर्चस्व का पुट शामिल होता है, इसलिए ये मज़ा देता है। मुझे संसद भवन पर हुए हमले के तुरंत बाद हुए एक टीवी शो की याद आ रही है जो शायद सीएनएन-आईबीएन पर प्रसारित हुआ था, उसमें एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कह रहे थे,  “हां, ये सच है कि अफ़जल गुरू को मैंने यातनाएं दी है, मैंने उसकी गुदा में पेट्रोल डाला है, मैंने उसको बेतरह पीटा है, लेकिन अफसोस उसने कुछ नहीं कबूला।” उस चर्चा में कई राजनीतिक विश्लेषक, टिप्पणीकार और पत्रकार भी थे, शायद राजदीप सरदेसाई शो को एंकर कर रहे थे, लेकिन किसी ने पुलिस अधिकारी की आपकबूली पर एक वाक्य नहीं बोला। पुलिस अधिकारी ने दावा ठोका कि उसने राष्ट्रहित में ऐसा किया है।....इसलिए मेरा ये मानना है कि ये रिपोर्ट ऐसे कॉरपोरेट मीडिया के लिए नहीं है और न ही उन लोगों के लिए है जिन्हें ऐसी यातनाओं को देखने-सुनते में मज़ा हासिल होता है। 

ये उन लोगों के लिए है जो वाकई इन यातनाओं को संदर्भ सहित जानने-समझने की चाह रखते हैं, जो ये समझना चाहते हैं कि बीते छह दशकों में कश्मीर में वाकई हुआ क्या है? बड़ी आबादी की राजनीति को खारिज करने से उपजे सवाल को लेकर कई लोग असहज और परेशान हो जाते हैं। लेकिन ये ढोंग नहीं है, राजनीति है। मैं एक बात और कहना चाहती हूं कि आज यदि एक कश्मीरी पंडित 200 लोगों का संदर्भ देकर एक किताब लिखता है तो लोग उसको हाथों-हाथ लेते हैं, कश्मीर का एक भयावह चेहरा लोगों के सामने नमूदार होने लगता है। लेकिन आज ही अगर आप हज़ारों पेज के दस्तावेज़ के साथ उसी कश्मीर पर सैंकड़ों पेज का किताब लिखेंगे तो लोग तवज्जो तक नहीं देंगे। यही राजनीति है। राजनीति यही है कि बहुसंख्य आबादी को क्या रास आ रहा है और लोग किस मुद्दे के साथ तादात्मय बना पा रहे हैं। लेकिन ऐसे काम लगातार होते रहना चाहिए, कश्मीर पर ये बढ़िया रिपोर्ट है, जिसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
(अंग्रेज़ी भाषण को सुनते समय हिंदी अनुवाद: दिलीप खान)