23 अक्तूबर 2007

शान्ति पाठ

अखबारों की सुर्खियाँ मिटाकर दुनिया के नक्शे पर
अन्धकार की एक नयी रेखा खींच रहा हूँ ,
मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
उलीच रहा हूँ।
मेरा डर मुझे चर रहा है।
मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।
अपने दिमाग के आत्मघाती एकान्त में
खुद को निहत्था साबित करने के लिए
मैंने गांधी के तीनों बन्दरों की हत्या की हैं।
देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
मैं अपनी ठण्डी मांसपेशियों को विदेशी मुद्रा में
ढाल राह हूँ।
फूट पड़ने के पहले, अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में उबाल रहा हूँ।
ज़रायमपेशा औरतों की सावधानी और संकटकालीन क्रूरता
मेरी रक्षा कर रही है।
गर्भ-गद् गद् औरतों में अजवाइन की सत्त और मिस्सी
बाँट रहा हूँ।
युवकों को आत्महत्या के लिए रोज़गार दफ्तर भेजकर
पंचवर्षीय योजनाओं की सख्त चट्टान को
कागज़ से काट रहा हूँ।
बूढ़ों को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
चमड़े का मुहावरा सिखा रहा हू¡।
गिद्धों की आँखों के खूनी कोलाहल और ठण्डे लोगों की
आत्मीयता से बचकर
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे की बगल में सो रही है
और मैं दुनिया के शान्ति-दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा हूँ।
अपनी आँखों में सभ्यता के गर्भाशय की दीवारों का
सुरमा लगा रहा हूँ।
मैं देख रहा हूँ एशिया में दायें हाथों की मक्कारी ने
विस्फोटक सुरंगें बिछा दी हैं।
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पिश्चम-कोरिया, वियतनाम
पाकिस्तान, इसराइल और कई नाम
उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे हैं।
मगर मैं अपनी भूखी अंतड़ियाँ हवा में फैलाकर
पूरी नैतिकता के साथ अपनी सड़े हुए अंगों को सह रहा हूँ।
भेड़िये को भाई कह रहा हूँ।
कबूतर का पर लगाकर
विदेशी युद्धप्रेक्षकों ने
आज़ादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है।
वह फिर हवा देने लगी है।
न मै कमन्द हूँ
न कवच हूँ
न छन्द हूँ
मैं बीचोबीच से दब गया हूँ।
मै चारों तरफ से बन्द हूँ।
मैं जानता हूँ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
और न बैसाखी
मेरा गुस्सा-
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है।
लन्दन और न्यूयार्क के घुण्डीदार तसमों से
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अंग्रेजी का 8 है।

09 अक्तूबर 2007

खम्माम से रिर्पोट:-



आंध्र प्रदेश के मोदी गोंडा जिले में जुलाई में हुई पुलिस फायरिंग में कई लोगों की जानें गयी। दख़ल पत्रिका मंच के सदस्य के द्वारा की गयी फैक्ट फाइडिंग पर आधारित रिर्पोट-

यह वक्त घबराये हुए लोगों के
शर्म आंकने का नही
और न यह पूंछने का-
कि सन्त और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!


अखबार के पन्ने पर जो खबर 29 जुलाई को छायी हुई थी, उससे बेपरवाह, होटल के नौकर ने टेबल पर गिरी चाय को पोंछकर डस्टविन में फेंक दिया। चौराहे के कचड़े से गाय ने उठाकर अपने जबड़ों में उसे निगल लिया। मूंगफली बेंचने वाले के ठोंगों से होती हुई वह खबर किसी दरवाजे के पास पड़ी थी, जिस पर कुत्ते ने मूत दिया। ट्रेन के डब्बे में वह पढ़नें के बाद बिस्तर बनी, झाडू लगाने वाले ने उसे बुहारकर तेज रतार से दौड़ती ट्रेन की पटरियों पर गिराया और वह हवा में धूल के साथ देर तक उड़ती रही।
खबर थी मोदी गोंडा में पुलिस की गोलियों से भूने गये उन लोगों की जो शान्तिपूर्वक धरने पर बैठे हुए थे। मसला था 170 एकड़ जमीन का जो सरकारी कब्जे में थी।
दस हजार की आबादी वाले इस मण्डल में कुल 24 गाँव है, यहाँ के लोग मुख्यता कृषि पर निर्भर है। दरअसल बात यहाँ से शुरू की जाय जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने राज्य से शांति वार्ता के दौरान इस जमीन को भूमिहीनों में बांटने की मांग की। उनकी यह मांग पूरी न हो सकी। अलबत्ता अन्य पार्टीयों व उनके कार्यकत्ताZओं की नजर इसपर जरूर गड़ गयी। कुछ माह बाद जमीन का 35 एकड़ कांग्रेस समर्थकों व कार्यकर्ताओं द्वारा जोत लिया गया जिस पर कोई आवाज इसलिए नहीं उठी क्योकि सरकार कांग्रेस की थी। तत्पश्चात मोदी गोंड़ा के प्रधान जो कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (संसदवादी) के सदस्य है, के कुछ कार्यकर्ताओं व समर्थकों ने भी 16 जुलाई को कुछ जमीन जोतनी शुरू की, मनाही होने पर वे 21 जुलाई को धरनें पर बैठे, धरने को बेअसर देखते हुए 24 जुलाई से उन्होने भूख हड़ताल शुरू की। 27 को हुए लाठी चार्ज के विरोध में 28 जुलाई को बंद का आवाहन किया, बन्द को असरदार बनाने के लिये सड़क पर वाहनों को न चलने देने का फैसला लिया गया। 28 को दोपहर बारह बजे के आसपास पुलिस की एक टुकड़ी ने आकर 1घटें के अंदर प्रदर्शन बंद करने का आदेश दिया। धरने पर बैठे लोग अपनी मांगों को लेकर अडिग रहे, फिर पुलिस के द्वारा लाठी चार्ज शुरू किया गया जबाब में लोगों ने पत्थर फेंकना शुरू किया तो पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी, जिससे सात लोग मारे गये कई लोग घायल हो हुए। 20 लोगों की सूची घायलों में उपलब्ध हो पायी।
लोगों के द्वारा पुलिस के खिलाफ थाने में एफ0 आई0 आर0 जैसी हास्यास्पद बात की कार्यवाही की गयी पर एफ0 आई0 आर0 नामंजूर कर दिया गया। उल्टा पुलिस ने ही लोगों के खिलाफ एफ0 आई0 आर0 दर्ज किया। कुछ समय बाद ए0 पी0 सी0 एल0 सी0 (आध्रप्रदेश सिविल लिबर्टी कमेटी) ने किसी तरह से एक एफ0 आई0 आर0 दर्ज करवाया। जिस पर सिवाय एक-दो तबादलों के कोई कार्यवाही नहीं हुई।
यह एक संक्षिप्त घटनाक्रम था जिसकी तसीस के लिये हम हैदराबाद से सुबह पा¡च बजे निकले। हम कुल सात लोग थे, 220 कि0मी0 की यात्रा तय कर हमें खम्माम पहुंचना था। जहाँ से 15 कि0मी0 दूरी पर बसा था मोदी गोंडा मण्डल, संड़क के चारो तरफ टीलानुमा पहािड़या थी। सड़क के किनारे खेतों में कपास की फसलें लगी हुई थी। हमारी गाड़ी में कोई तेलगू धुन बज रही थी, जिसमें बीच-2 में अग्रेजी के शब्दों की भी दखलंदाजी थी। झोपड़पट्टी, भूख, गरीबी, असमानता को देखकर भारत की अखण्डता में एकता का एहसास हो रहा था जो कन्याकुमारी से जम्मू-कश्मीर तक सर्व व्याप्त है। तस्वीरों को अपनी आंखों में सजोते हुए तीन घंटे का रास्ता तय करके हम खम्माम के लेनिन नगर कस्बे में पहुंचे, जहाँ से हमारे साथ कुछ िशक्षक, वकील मोदी गोंडा के लिये रवाना हुए। इनको साथ में लेने के पीछे कारण यह था कि हम गाँव वालों की तेलगू समझ सकें।
अब हम उस चौराहे पर थे जहाँ लोगों को कुछ दिन पूर्व गोलीयों से भूना गया था। चौराहे पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (संसदवादी) के झंडे लगे हुए थे, जिसके नीचे सार्ट-कट में cpm.znb. (कम्युनिस्ट पार्टी जिन्दाबाद) लिखा हुआ था, किनारे पर अम्बेडकर की मुर्ति लगी थी जो एक हाथ उठा कर आसमान की तरफ इशारा कर रही थी। जिसे हम नहीं समझ सके। चारो तरफ से लोगों ने हमें घेर लिया। लोग हमें घटनाओं का ब्योरा दे रहे थे।
शर्मीला जी, जिसकी म्युजिक सेंटर की दुकान है जिसके बगल में ही लोग धरनें पर बैठे हुए थे। वे हमें अपने दुकान के नजदीक ले गयी, उन्होने अपनी दुकान की शटर बंद करके गोलियों के छर्रों से सटर में हुए छेद के निशान दिखाये। गोलियों से टूटे पी0 सी0 ओ0 के शीशे दिखायैं हमने आसपास की सभी दुकानों के कांउटर, बाक्स, व अन्य समानों में गोलियों के निशान देखे जगह-2 दीवालों के पलस्तर टूट गये थे।
चौराहे पर, घटना के दौरान मारे गये लोगो की याद में एक 38 फुट ऊचा स्मारक बनाया गया था। जिसकी बीस फुट-लम्बे व बीस फुट चौड़े आधार पर गुम्मदनुमा बनाया गया था। इसमें घटना में मारे गये उन सात लोगों की तस्वीरें मढ़ी गयी थी और नीचे उनके नाम लिखे हुए थे, गाँव के एक व्यक्ति ने तेलगू में लिखे उन नामों को पढ़ कर सुनाया जो इस प्रकार थे (उसकेला गोपया, वनका गोपीया, चिट्दूरीबाबू राव, छगम बाला स्वामी, एलागन तुला वीरन्ना, कट्टूला पेदूदा लक्ष्मी, पुस्थलति कुटुम्बराव) इन सात लोगों में छ: लोग घटना स्थल पर ही मारे गये जबकि छगम बाला स्वामी ने 31 जुलाई को अस्पताल में दर्द से कराहते हुए दम तोड़ा।
स्मारक के बगल में उन सोलह लोगों के भी नाम थे जो इस घटना में घायल हुए थे। लोगों ने हमें बताया की 300 से 400 गोलियां पुलिस के द्वारा चलाई गयी। हम स्मारक में जड़े गये उन सात मृतकों के चित्र देख रहे थे।
रमेश जिसकी उम्र तकरीबन 15 साल होगी, ने हमें बताया कि उसकी मां बट्टू राम बाई के पैर में गोली लगी है जिससे उनके पैर में स्टील का छड़ डाला गया है वे अब चल नहीं सकती। चौरहे पर वे ठेला लगाकर केले बेचती थी। पिता उपेन्द्र जो कि दूध बेंचते है अब घर का काम देखते है। रमेश ने हमसे पूछा कि क्या मैं उसे कोई नौकरी दिला सकता हू! जिसका मेरे पास कोई जबाव न था।
चौराहे से 100 मी0 की दूरी पर कोटेश्वर राव का घर था, जिसके हाथ में गोली लगी थी और स्टील के छड़ से उसे बांधा गया था। कोटेश्वर ने हमें बताया कि पहली गोली उसके सर्ट की जेब पर लगी, जेब में डायरी रखी हुई थी जिससे वे बच गये। उन्होंने वह डायरी दिखाई, जो फट गयी थी। कोटेश्वर कह रहे थे कि डायरी न होती तो उस स्मारक में उनका भी फोटो लगा होता।
हम घटना में मृत वीरन्ना की पत्नी ऊषा से मिले, ऊषा 28 बर्ष की एक दुबली-पतली महिला है, जिनके आंखो के ऑसू सूख चुके थे पर तबाही के मंजर व पति के मृत होने का दर्द अभी-भी किसी कोनें में छुपा था। ऊषा अपने 3 व 4 बर्ष के बच्चों के साथ इस वक्त अपनें बहन के घर में रहती थी। ऊषा ने हमें बताया कि वीरन्ना धरनें में शामिल नही थे हादसे के वक्त वे देखने के लिये घर से गये थे और नाहक ही मारे गये।
चौरहे के बगल में भा0 क0 पा0 (संसदवादी) के आफिस में हम गये। हशिये-हथौड़े का एक बड़ा चिन्ह दीवाल पर लाल रंग से पेंट किया हुआ था। चिन्ह देखकर नंदी ग्राम की याद आ गयी जहाँ हशिया किसानों का गला काटने व हथौड़ा मजदूरों का सिर काटने पर उतारू था। आफिस में हमें घटना के समय कैमरें में कैद की गयी कुछ तस्वीरें दिखायी गयी लोगों की अफरा-तफरी, रोते-कराहते चेहरों के साथ फोटो मौन थे। कोई चीख नहीं थी, कोई आवाज नही थी। कैमरे में कैंद किये गये चित्रों को तारतम्यता से घटनानुसार रखा गया था- खेत जोतते किसानों के चित्र, धरने पर बैठे लोग, भूख हड़ताल पर बैठे लोग, बंदी के दिन शांति पूर्वक बैठे लोग, पुलिस के साथ बातचीत करते लोग, पुलिस की गोलियों से भूनें जाते लोग, एस0 एल0 आर0 और ए0 के0 47 लिये सिविल डेªस में पुलिस, इसके बाद सड़क पर बिखरी लाशें थी। एक फोटो ऐसा था जिसमें छ: लाशों को एक साथ रखा गया था, उन्हे भा0 क0 पा0 (संसदवादी) के झंडे से लपेटा गया था। उसे देखकर यह लगा कि इन पार्टीयों के लिये लाश भी वोट मांगेगी। कल उनके बड़े-2 बैनर बनेंगे, सड़क, चौराहे, मुहल्लें, गलियों में वे चिपकाये जायेंगे। गोपीया, बाबू राव, लक्ष्मी, वीरन्ना सब इनके लिए वोट मांगने का काम करेंगे। मृतकों को पाँच लाख रू0 व घायलों को पचास हजार रू0 की रािश सरकार के द्वारा विभिन्न तरीकों से बांटी गयी लेकिन लोगों के यह सवाल भी थे कि क्या जिंदगी की कीमत पैसे से तौली जा सकती है? क्या गोपीया, वीरन्ना को 6 लाख रू0 में लौटाया जा सकता है? क्या कागज के टुकड़ों से ऊषा के आंसू व दर्द पोछें जा सकते है? क्या दमन व हत्या पुलिस की आदत बन चुकी है? धमाके की अवाज वहाँ नही थी। बीते हुए कल के साथ लोगों ने घटना को अपने घरों में, बच्चों ने अपनी चीखों में, सड़क ने अपनी धूल के नीचे दबा दिया था। तबाही के बाद सब कुछ शांत था। स्मारक पर एक दिया जलते-2 बुछ चुका था जिसकी राख इधर-उधर बिखरी हुई थी।

टिप्पणिया¡:-

एक आदिवासी गांव की यात्रा-








पिछले माह महत्मागांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्व विद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा विदर्भ के कई गांवों का सर्वे किया गया। गांव की स्थिती व आंतरिक, सामाजिक संरचना पर आधारित आदिवासी गांव बानरचूहा से यह रिर्पोट-
सरकार के शब्दकोश में/हम हैं कमजोर वर्ग के आदमी/जैसा कि आकाशवाणी, दूरदर्शन और/ अखबारों में आते हैं/सरकार के बयान/दतर में अपने सहकर्मियों के बीच/हम चपरासी, क्लर्क या अधिकारी/नहीं हैं/हम हैं मंदबुद्धि पियक्कड़/या फिर रिजर्व कोटे के आदमी/स्कूल कॉलेज में पढ़ते/छोटे भाई हमारे/पुलिस की निगाहों में छात्र नहीं/लूटेरे हैं, डकैत हैं/या फिर उग्रवादी/संविधान की भाषा में हम/अनुसूचित जाति या/अनुसूचित जनजाति हैं/मनु की भाषा में शूद्र/ कम्युनिस्टों की भाषा में शोषित/भाजपाईयों की भाषा में/पिछड़े हिन्दू/मैं पूछता हू तुम सबसे/आखिर इस देश में इस प्रजातंत्र में/हम क्या हैं हम क्या हैं।


एक आदिवासी कवि महादेव टोप्पो के कलम से लिखी गयी ये पंक्तियाँ महोगांव ग्रामपंचायत के एक आदिवासी गांव बानरचूहा जाते वक्त वगैर तारतम्यता के मुझे याद आ रही थी। टुटी सड़कों व झाड़ियों के बीच धूल उड़ाते हुए हम गांव के उस मोड़ पर खड़े थे। यहाँ एक बोर्ड पर किसी पेंटर की कूची के बजाय किसी व्यक्ति की उंगुली से तेल और सिंधूर से लिखा था ``बानरचूहा´´। इस गांव को जिला कार्यालय से सूचना के अनुसार एक विकसित गांव के रूप में रखा गया है।

गांव के पहले कदम पर हनुमान जी का एक मंदिर था बाद में पता चला कि गांववालों ने चन्दा कर इसे बनवाया है। सामने पीपल के छायादार पेड़ की जड़ों को लपेटे हुए एक चबूतरा था जिसपर गांव के ढेर सारे लोग बैठे हुए थे। वहाँ पहुंचकर हमने ग्रामसरपंच के बारे में पता लगाने की कोशिश की पर पता चला कि वे यहाँ से पाँच किलोमीटर दूर रहती हैं। हमनें उनसे मिलनें की कोशिशें छोड़ दी और गांववालों से बातचीत करने में मशगूल हो गये। तकरीबन कुल 50 घरों के इस गांव में 3-4 मकान ही पक्के दिखे। हम गांव के कुछ लोगों के साथ बातचीत करते हुए गांव की सड़कों पर घूम रहे थे। एक घर के सामने हम थोड़ी देर के लिए रूके जहाँ लकड़ियाँ चीर कर दरवाजे और खिड़की बनाये जा रहे थे, बातचीत के दौरान पता चला कि ये लकिड़या काफी मंहगे दाम पर वन विभाग से खरीद कर लायी गयी हैं। उन लोगों का यह भी कहना था कि गांववालों के द्वारा लगाये गये पेड़ या खुद-ब-खुद उगे हुए पेड़ों की देखभाल गांव के लोग करते हैं पर बड़ा होने पर वन विभाग के द्वारा उसे हड़प लिया जाता है। एक महिला मक्का की सफाई कर रही थी, यह गांववालों का प्रमुख आहार है। थोड़ी ही देर में गांव के कई लोग इकठ्ठा हो गए, पूछने पर उनका कहना था कि गांव में औसतन खेती कि जमीन दो-तीन एकड़ प्रति परिवार है पर खेती का कोई भरोसा नहीं है, हर साल बाढ़ आती है और पूरी खेती बर्बाद हो जाती है। जब अपने खेत में काम करने से गांव वालों को फुर्सत मिलती है तो बगल के गांव में बड़े कास्तकारों के यहाँ वे मजदूरी के लिए जाते हैं। गांव में खेती के लिए पानी की कोई सुविधा नहीं है, यह पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर है। गांव में पंचायत द्वारा 5-6 नलों की टोटी लगाई गयी है और एक सामूहिक मोटर से पानी चलाया जाता है। समय-समय पर गांव का एक आदमी पानी चलाता है जिससे पीने के पानी की पूर्ति हो पाती है। गांव में सीमेंट से बनी पक्की सड़क है जो काफी साफ-सुथरी दिख रही थी। पूरा गांव पेड़ों की आड़ में ढका हुआ है, गांव में सरीफे के कई पेड़ है जिसे गांव के लोग सीताफल कहते थे। सन् 1989 के पहले ही गांव में बिजली आ चुकी है, अभी कई लोगों के पास तो टी.वी. भी है पर गांव के लोग सिर्फ सीरियल या फिल्म देखना ही पसंद करते हैं। गांव के नजदीक में एक प्रायमरी स्कूल भी है जिसमें गांव के बच्चें पढ़ने जाते हैं, इससे ऊपर की पढ़ाई करने के लिए उन्हें तीन किलो मीटर दूर जाना पड़ता है। गांव में एक मात्र व्यक्ति नौकरी करता है, जो की सरपंच का चपरासी है। गांव में सबसे ज्यादा शिक्षा पाने वाले एक मात्र व्यक्ति राजू हैं जिन्होंने 12वीं तक शिक्षा पायी है। राजू एक अच्छे कलाकार भी हैं। हम देर तक उनसे बातें करते रहे, उनका कहना था कि जब खाने के लिए घर में कुछ नहीं है तो पढ़ने से क्या फायदा? पढ़ कर ही सबको नौकरी कहाँ मिल जा रही है? बड़ी-बड़ी कक्षाओं तक पढ़कर शहरों में भी लोग बेकार पड़े हुए हैं।
गांव की एक 70 वर्षीय महिला जिसके आधे शरीर में लकवा लग गया था बार-बार बड़ी निरीहता के साथ कह रही थी- बाबू़.......उसकी आंखे बहुत कुछ कह रही थी। पूरे गांव के लोगों में हमसे कुछ पाने की ललक दिख रही थी। गांव के किसी भी वृद्ध को बी.पी.एल. कार्ड नहीं मिला था। फिर इस महिला का क्या? वहाँ से जब हम चल रहे थे तो वह महिला हमारे हाथ पकड़ कर देर तक हमें निहारती रही, पर हम बेबस थे। सिवाय उनकी स्थितियों को जानने के हमारे पास उसे बदलने के लिए कुछ भी न था। गांव के ढेर सारे लोग हमारे साथ हो लिए थे फिर हम सब उस स्थान पर आये जहाँ गणपति की मूर्ति सजायी गयी थी। वहाँ कुछ लड़के बैठ कर ताश के पत्ते खेल रहे थे, मुझे पिछले गांव मंगरूल की याद आयी जहाँ लोग नशे में धुत हो कर कई टोलियों में दिन भर पत्ते खेला करते हैं, पर यहाँ वैसा नहीं था। यह जानकर हमें आश्चर्य भी हुआ कि गांव में किसी भी प्रकार का नशा नहीं मिलता। उन लोगों का कहना था कि जब खाने के लिए ही पैसा नहीं है तो लोग नशे के बारे में कैसे सोचेंगे। बातचीत के दौरान पता चला कि गणपति की जो मूर्ति बनायी गयी है वह गांव के ही एक युवक ने बनाया है। बहरहाल हम मूर्ति देखकर ही समझ गये थे कि यह किसी कारीगर के द्वारा बनी मूर्ति नहीं है क्योंकि मूर्ति के चेहरे में शहरीपन का भाव नहीं था।
धीरे-धीरे गांव के तकरीबन सभी पुरूष और दो-चार महिलायें वहाँ पर जमा हो गयी। उन लोगों का कहना था कि गांव में किसी भी योजना का पता नहीं चल पाता सब लोग वोट मांगने के लिए यहाँ आते हैं वर्ना सरपंच भी नहीं दिखाई पड़ती। रोजगार गारंटी योजना पर बात करते हुए पता चला कि 50 से अधिक लोगों ने फार्म भरा है पर अभी तक किसी को न तो रोजगार मिला न ही बेरोजगारी भत्ता। कुछ लोगों ने हमें फार्म भरने का रीसीविंग भी दिखाया। उनका यह भी कहना था कि काम अगर आयेगा भी तो सरपंच अपने गांव के लोगों को देगें। हमने उनको रोजगार गारंटी योजना, वृद्धा पेंशन आदि के बारे में विस्तार से बताया जिन बातों की उन्हें बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी। हमने उन्हें सरपंच से मिलकर इसका लाभ लेने के लिए भी बताया। वे सब सहमत थे।
गांव के कुछ युवाओं ने मिट्टी की कुछ अद्भुत कलाकृतियां बनायी हुई थी जिसने हमें काफी आकर्षित किया। उन मूर्तियों में विशेष तौर पर एक राक्षस की मूर्ति बनायी गयी थी जिसके पेट को डब्बे से बनाया गया था वे उसमें आग सुलगा कर रख देते थे जिसका धुआँ राक्षस के मुंह से निकलता था। लौटते वक्त उन लोगों ने हमें चीनी चूड़े का प्रसाद भी दिया। खाते-खाते मैने सोचा कि क्या गणपति इनकी स्थितियां बदल सकता है? हम गांव से धीरे-धीरे दूर होते जा रहे थे और मुंह से प्रसाद की मिठास भी।