अनिल चमड़िया को हटाये जाने के इस वर्धा प्रकरण में एक वेबसाइट ने उनकी राय जानी और जो बताया गया, उसमें कुछ मसाला जोड़ कर छापा गया। पूरे मामले को जातीय रंग देने की कोशिश की गयी। वीसी का पक्ष भी उसी आधार पर ले लिया गया। यानी जो है, उस पर बात करने के बजाय दूसरी गली पकड़ने का षडयंत्र वीसी और उक्त वेबसाइट ने मिल कर किया। अपनी जाति और दूसरों की जाति और अंतत: जाति के सवाल को लेकर पेश है
विश्वविद्यालय से आपकी सेवा खत्म किये जाने की क्या वजह है?
अनिल चमड़िया : मेरी सेवा समाप्त करने की ये कोई पहली कोशिश नहीं है। 12 अगस्त 2009 को कुलपति वीएन राय ने देर शाम मुझे अपने घर पर बुलाकर कहा था कि आप इस्तीफा दे दीजिए। आप अपने इस्तीफे में ये लिख दीजिए कि आप ये सोचकर यहां आए थे कि यहां अपनी सेवा जारी रखते हुए दिल्ली में पंद्रह-बीस दिनों तक रह सकते है। मैंने कहा कि लगभग एक महीने पहले मैंने ये पद संभाला है और ये झूठ लिखकर इस्तीफा क्यूं दूं। फिर आप मुझे ये झूठ लिखने के लिए क्यों दबाव बना रहे हैं। मैं दिल्ली और अपने परिवार को छोड़कर वर्धा इसीलिए आया था कि यहां की चुनौतियां मुझे अच्छी लगती हैं। मरुस्थल जैसी जगह पर पौधे लगाने और उसे विकसित करने की चुनौती मुझे ताक़तवर बनाती है। बहरहाल सेवा समाप्त करने की कोशिश की एक लंबी पृष्ठभूमि हैं। मेरी डायरी के कई पन्ने इससे भरे हैं। मैं इतना कह सकता हूं कि मैं लगातार प्रताड़ित किया जा रहा था। मैं निजी तौर पर भी और विभाग के प्रोफेसर के तौर पर भी। जो लोग सेवा समाप्त करने की वजहों को नहीं समझना चाहते हैं, उन्हें मैं नहीं समझा सकता। लेकिन जो समझना चाहते हैं, उन्हें प्रचार सामग्री की घेरेबंदी से निकल कर तथ्यों की तरफ लौटना चाहिए। मेरी नियुक्ति एक लंबी प्रक्रिया के बाद हुई। विज्ञापन निकला। मैंने आवेदन किया। आवेदन पत्रों की छंटनी की गयी। छंटनी समिति में विश्वविद्यालय प्रशासन, विभाग और विषय के विशेषज्ञ थे। इस समिति ने चयन समिति से कहा कि मैं साक्षात्कार के लिए आमंत्रित करने के योग्य हूं। चयन समिति में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि, कुलपति, प्रति कुलपति, डीन, रजिस्ट्रार, विषय के तीन विशेषज्ञ कुल नौ लोग थे। उन्होने एकमत से मेरी नियुक्ति का फैसला किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने प्रोफेसर पद के लिए जो योग्यताएं निर्धारित की हैं, उसमें डिग्रीधारियों को भी योग्य बताया गया है और गैर डिग्रीधारियों को भी योग्य माना है। जाहिल लोग नहीं जानते हैं कि जिनके पास डिग्रियां नहीं हैं, उन्हें संस्थानों में प्रोफेसर बनाया जाता रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अचिन विनायक भी ऐसे ही लोगों में हैं और वे देश के सबसे बड़े केंद्रीय विश्वविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) में डीन हैं। मेरी नियुक्ति के सात महीने के बाद ये कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय ने जो विज्ञापन निकाला था, वो गलत था। यह विज्ञापन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 1998 में निर्धारित मानदंड़ों के अनुसार निकाला गया था। लेकिन ये विज्ञापन केवल मेरे पद भर के लिए नहीं था। विभिन्न विभागों में सत्रह शैक्षणिक पदों के लिए था। मास मीडिया में ही उस विज्ञापन के आधार पर चार नियुक्तियां हुई हैं। लेकिन केवल मेरे मामले में ये दोहराया जा रहा है कि विज्ञापन गलत निकला था। जबकि 1998 में जो प्रावधान थे, वो 2009 में भी हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 2000 में जो प्रोफेसर के लिए मानदंड तय किये थे, उन पर भी मैं तकनीकी तौर पर खरा उतरता हूं। वजह ये है कि कुलपति मेरी सेवा समाप्त करना चाहते थे। वे कई महीने पहले से ही कई जगहों पर ये कह चुके हैं। एक ब्लॉग ने तो दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से लिखा है कि कुलपति ने मुझे हटाने के लिए उनसे कहा था। दूसरी बात कि मेरी जगह पर उन्हें लाने का न्यौता भी दिया था। किसी भी प्रशासक की एक कार्य संस्कृति होती है। वो अपनी कार्य संस्कृति के ढांचे में सबको ढालना चाहता है। मैं ऐसे किसी ढांचे के लिए खुद को कच्चा माल बनाने की स्थिति कभी नहीं रहा। मैं यहां विद्यार्थियों को पढ़ाने आया था और इस संस्थान के साथ जो अंतरराष्ट्रीय शब्द जुड़ा है, उसे सार्थक बनाने की कोशिश करना चाहता था। ये बात मैंने अपने चयन के लिए हुए साक्षात्कार के दौरान भी कहा था। मैंने अपनी योजनाएं भी बतायी थी। मैं चाहता था कि हिंदी में मौलिक काम किये जा सकते हैं और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया जा सकता है। दरअसल हिंदी में इतनी ज़डता है कि उसे किसी भी तरह की आधुनिक पहल तत्काल खटकने लगती है। वहां की सत्ता खुद विस्थापित होने की असुरक्षा से घिरा महसूस करने लगती है। मेरे निकाले जाने की वजह में कार्य संस्कृति का सवाल प्रमुख है।
क्या आपको कभी कारण बताओ नोटिस जारी किया गया?
अनिल चमड़िया : नहीं, कोई कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया। 27 जनवरी 2010 को मेरे घर पर शाम को सात बजे चिट्ठी भिजवा दी गयी कि मेरी नियुक्ति को कार्य परिषद के आठ सदस्यों ने 13 जनवरी 2010 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक बैठक कर स्वीकृति प्रदान नहीं की है।
क्या आपको ये बताया गया है कि आपकी सेवा क्यों खत्म की जा रही है?
अनिल चमड़िया : जो मुझे पत्र मिला है, उसमें केवल इतना ही कहा गया है कि कार्यपरिषद ने मेरी नियुक्ति को स्वीकार नहीं किया है। उसमें स्वीकार नहीं किये जाने का कोई कारण नहीं बताया गया है।
वीसी वीएन राय ने कहा कि लोग अनिल चमड़िया के दलित होने के चलते हटाये जाने की बात मुझे बता रहे हैं पर मुझे तो पता भी नहीं है कि अनिल चमड़िया दलित हैं – ये पहली बार पता चल रहा है। वास्तविक स्थिति क्या है?
अनिल चमड़िया : वीएन राय सारी बातें लोगों के हवाले से करते हैं। ये उनकी कार्य संस्कृति का हिस्सा है। कौन लोग कह रहे हैं कि दलित होने के कारण मुझे हटाया गया है। दरअसल प्रचार की इस रणनीति को समझना चाहिए। किसी भी समस्या के केंद्र में क्यों नहीं ऐसी बात ला दी जाए, जिससे की पूरी बहस उल्टे सिर खड़ी हो जाए। मेरी नियुक्ति में कहीं से भी दलित शब्द शामिल नहीं है। फिर इस दलित की बहस को यहां क्यों खड़ा किया जा रहा है। कुलपति को मुझमें इतनी दिलचस्पी रही है कि मैं कितने लोगों के लिए अपने कमरे में खाना बनाता रहा हूं। वे मेरे बारे में इस तरह की सूचनाएं प्राप्त करते रहे कि मैं किस किससे सब्जी मंगवाता हूं। फिर कुलपति की तो वर्ण व्यवस्था के विषय में काफी दिलचस्पी दिखाई देती है। यह विषय उनका एक ब्रांड है। मैं अपने स्तर पर न तो किसी को अपनी जाति बताना जरूरी समझता हूं और ना ही किसी से उसकी जाति पूछता हूं। क्योंकि मैं दो तरह की भाषा नहीं जानता। एक ही भाषा में सभी लोगों से बात करने की योग्यता ही मेरे पास है।
वीसी के दलित विरोधी आचरण और अपनी बर्खास्तगी को आप कैसे जोड़कर देख रहे हैं?
अनिल चमड़िया : वीसी को आप दलित विरोधी कह रहे हैं, मैं नहीं कह रहा हूं। मेरे पास उन्हें देने के लिए कई विशेषण हैं। मैं अपनी बर्खास्तगी भी नहीं मानता हूं। लेकिन आपके इस सवाल की जो मूल भावना है, उसे मैं अपने तरीके से समझ कर जवाब देना चाहता हूं। मैं अपने लेखन, कर्म और व्यवहार के लिए अलग-अलग आईना लेकर नहीं घूमता हूं। हिंदी समाज का सत्ताधारी वर्ग इस मायने में दुनिया में सबसे ज्यादा योग्य है कि वो लिखने और व्यवहार के लिए अलग-अलग भाषा को बरतना जानता है। लिखता कुछ है और व्यवहार उसके विपरीत करता है। अपनी सारी पक्षधरता, व्यभिचार, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए एक मुखौटा तैयार कर लेता है। वह मुखौटा वामपंथी होने का हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष होने का हो सकता है। विश्वविद्यालय में दलित और महिलाएं अपने अनुकूल स्थितियां नहीं महसूस करती हैं। विश्वविद्यालय के दलित छात्र संगठन द्वारा जारी दलित चार्जशीट में अब तक के दलित उत्पीड़न की घटनाएं जगजाहिर हैं। दलित प्रोफेसर प्रो कारुण्यकारा को दी गयी नोटिस की खबर समाचार पत्रों में छपी है। लिहाजा दलित विरोधी आचारण के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरी सेवा समाप्त करने की कोशिश का संबंध पूरी कार्यसंस्कृति से है। उसमें कई तरह के आचरण शामिल हैं। मैंने जब से यहां अपनी सेवा शुरू की, तब से कुलपति को ये लगता रहा है कि विश्वविद्यालय में मास मीडिया के प्रमुख को जिस तरह से चोर गुरू के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, उसमें मेरी भूमिका है। ये बात उन्होंने कई लोगों से कही भी है। जब भी विद्यार्थियों के बीच किसी तरह का असंतोष पनपा और वे संगठित होकर विरोध करने के लिए तैयार हुए, उन्हें लगता रहा कि उसमें मेरी भूमिका है। वे विरोध के कारणों या जो बातें प्रकाशित होती हैं, उन्हें संज्ञान में नहीं लेना चाहते हैं। ये उनकी कार्यसंस्कृति है। पुलिस का काम किसी घटना को अपराध के रूप में स्थापित करना और उसका किसी अपराधी से संबंध जोड़ने का होता है। वह घटना के कारणों को दूर नहीं करना जानती है। उन्होंने एक बार मुझसे फोन पर कहा कि मैं चाहूंगा तो विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अपना विरोध आंदोलन समाप्त कर सकते हैं। दरअसल विश्वविद्यालय में कदम रखने के पहले घंटे में ही कुलपति ने मुझे विद्यार्थियों से दूर रहने का निर्देश दे दिया था। मैं छात्रावासों में नहीं जा सकता और न विद्यार्थियों से हाथ मिला सकता था।
वीसी का कहना है कि आपको हटाने का फैसला ईसी का है और इस फैसले से उनका कोई लेना देना नहीं है। आपकी इस पर क्या प्रतिक्रिया है?
अनिल चमड़िया :प्रचार के लिए आप अपनी सामग्री को किसी भी तरह प्रस्तुत कर सकते हैं। विश्वविद्यालयों की संस्कृति के बारे में जो जानते हैं, उन्हें पता है कि कुलपति के चाहने और नहीं चाहने का क्या अर्थ होता है। मुझे पता है कि ईसी की मीटिंग में कुलपति ने ईसी के माननीय सदस्यों से क्या कहा। ईसी की अध्यक्षता कुलपति ही करते हैं। दरअसल किसी तरह की कार्रवाई के बाद सबसे ज्यादा सावधानी इस बात को लेकर बरतनी पड़ती है कि उस कार्रवाई के साथ किस तरह के संदेश को लोगों के बीच भेजा जाए। संदेश की ऊपरी सतह पर मूल बात नहीं होती है। जो ये कहता रहा हो कि उसने एक महान काम किया है और फिर जब उसके सामने ये संकट खड़ा हो कि उसे इस महानता को पचाना मुश्किल है, तो वह क्या कर सकता है। किसी की आड़ लेकर बात कहने की अपनी एक विशेष संस्कृति होती है। ईसी न तो मेरी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को जानती रही है न ही उसकी दिलचस्पी बारह नियुक्तियों में किसी एक पर खासतौर से हो सकती है जब तक कि उसे खास नहीं बना कर पेश किया जाए। ईसी के कुलाध्यक्ष द्वारा मनोनीत सदस्य कुलाध्यक्ष के मनोनीत प्रतिनिधि द्वारा चयनित किसी व्यक्ति की नियुक्ति को क्या इतनी आसानी से अस्वीकार कर सकते हैं? दरअसल इस मामले में जो बारीकी नहीं जानना चाहता है और मुझे गालियां निकालने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है, तो मैं उसमें क्या कर सकता हूं। मैं धैर्यवान व्यक्ति हूं। हमलों से मजबूत होता हूं।
मोहल्ला से साभार
ताक़तवर जुगाड़ियों को परास्त करने का समय है यह- चंदन पांडेय (चर्चित युवा कथाकार)
इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाए, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जाए, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गयी। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलायी गयी और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।
हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक सटीक उदाहरण है। बचपन की बात है, गांव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ-सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी-कभी पीट भी देते थे। किसी न किसी बहाने से, उन बच्चों को जान-बूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे, मैं कहना क्या चाहता हूं?
वजहें जो भी हों, सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने-समझने के लिए विश्वविद्यालय तैयार नहीं था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छह महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गयी एकमात्र सही नियुक्ति को खा गया। (मैं चाहता हूं कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पांडेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडंबना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ संबंधों का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं, जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।
आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये : अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी? इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशें व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है, जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाए। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिए।
ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय संबंधों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहराएगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है, उन्हें भी उनका हिस्सा दिया जाएगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूं, पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नहीं देखी, जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हां, उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है, जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डालें” जैसे लेख लिखती हैं। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नहीं रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाएं।
अनिल जी, हमलोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में न लाना कि आपसे कोई चूक हो गयी। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिए। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।
विश्वविद्यालय से आपकी सेवा खत्म किये जाने की क्या वजह है?
अनिल चमड़िया : मेरी सेवा समाप्त करने की ये कोई पहली कोशिश नहीं है। 12 अगस्त 2009 को कुलपति वीएन राय ने देर शाम मुझे अपने घर पर बुलाकर कहा था कि आप इस्तीफा दे दीजिए। आप अपने इस्तीफे में ये लिख दीजिए कि आप ये सोचकर यहां आए थे कि यहां अपनी सेवा जारी रखते हुए दिल्ली में पंद्रह-बीस दिनों तक रह सकते है। मैंने कहा कि लगभग एक महीने पहले मैंने ये पद संभाला है और ये झूठ लिखकर इस्तीफा क्यूं दूं। फिर आप मुझे ये झूठ लिखने के लिए क्यों दबाव बना रहे हैं। मैं दिल्ली और अपने परिवार को छोड़कर वर्धा इसीलिए आया था कि यहां की चुनौतियां मुझे अच्छी लगती हैं। मरुस्थल जैसी जगह पर पौधे लगाने और उसे विकसित करने की चुनौती मुझे ताक़तवर बनाती है। बहरहाल सेवा समाप्त करने की कोशिश की एक लंबी पृष्ठभूमि हैं। मेरी डायरी के कई पन्ने इससे भरे हैं। मैं इतना कह सकता हूं कि मैं लगातार प्रताड़ित किया जा रहा था। मैं निजी तौर पर भी और विभाग के प्रोफेसर के तौर पर भी। जो लोग सेवा समाप्त करने की वजहों को नहीं समझना चाहते हैं, उन्हें मैं नहीं समझा सकता। लेकिन जो समझना चाहते हैं, उन्हें प्रचार सामग्री की घेरेबंदी से निकल कर तथ्यों की तरफ लौटना चाहिए। मेरी नियुक्ति एक लंबी प्रक्रिया के बाद हुई। विज्ञापन निकला। मैंने आवेदन किया। आवेदन पत्रों की छंटनी की गयी। छंटनी समिति में विश्वविद्यालय प्रशासन, विभाग और विषय के विशेषज्ञ थे। इस समिति ने चयन समिति से कहा कि मैं साक्षात्कार के लिए आमंत्रित करने के योग्य हूं। चयन समिति में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि, कुलपति, प्रति कुलपति, डीन, रजिस्ट्रार, विषय के तीन विशेषज्ञ कुल नौ लोग थे। उन्होने एकमत से मेरी नियुक्ति का फैसला किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने प्रोफेसर पद के लिए जो योग्यताएं निर्धारित की हैं, उसमें डिग्रीधारियों को भी योग्य बताया गया है और गैर डिग्रीधारियों को भी योग्य माना है। जाहिल लोग नहीं जानते हैं कि जिनके पास डिग्रियां नहीं हैं, उन्हें संस्थानों में प्रोफेसर बनाया जाता रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अचिन विनायक भी ऐसे ही लोगों में हैं और वे देश के सबसे बड़े केंद्रीय विश्वविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) में डीन हैं। मेरी नियुक्ति के सात महीने के बाद ये कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय ने जो विज्ञापन निकाला था, वो गलत था। यह विज्ञापन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 1998 में निर्धारित मानदंड़ों के अनुसार निकाला गया था। लेकिन ये विज्ञापन केवल मेरे पद भर के लिए नहीं था। विभिन्न विभागों में सत्रह शैक्षणिक पदों के लिए था। मास मीडिया में ही उस विज्ञापन के आधार पर चार नियुक्तियां हुई हैं। लेकिन केवल मेरे मामले में ये दोहराया जा रहा है कि विज्ञापन गलत निकला था। जबकि 1998 में जो प्रावधान थे, वो 2009 में भी हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 2000 में जो प्रोफेसर के लिए मानदंड तय किये थे, उन पर भी मैं तकनीकी तौर पर खरा उतरता हूं। वजह ये है कि कुलपति मेरी सेवा समाप्त करना चाहते थे। वे कई महीने पहले से ही कई जगहों पर ये कह चुके हैं। एक ब्लॉग ने तो दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से लिखा है कि कुलपति ने मुझे हटाने के लिए उनसे कहा था। दूसरी बात कि मेरी जगह पर उन्हें लाने का न्यौता भी दिया था। किसी भी प्रशासक की एक कार्य संस्कृति होती है। वो अपनी कार्य संस्कृति के ढांचे में सबको ढालना चाहता है। मैं ऐसे किसी ढांचे के लिए खुद को कच्चा माल बनाने की स्थिति कभी नहीं रहा। मैं यहां विद्यार्थियों को पढ़ाने आया था और इस संस्थान के साथ जो अंतरराष्ट्रीय शब्द जुड़ा है, उसे सार्थक बनाने की कोशिश करना चाहता था। ये बात मैंने अपने चयन के लिए हुए साक्षात्कार के दौरान भी कहा था। मैंने अपनी योजनाएं भी बतायी थी। मैं चाहता था कि हिंदी में मौलिक काम किये जा सकते हैं और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया जा सकता है। दरअसल हिंदी में इतनी ज़डता है कि उसे किसी भी तरह की आधुनिक पहल तत्काल खटकने लगती है। वहां की सत्ता खुद विस्थापित होने की असुरक्षा से घिरा महसूस करने लगती है। मेरे निकाले जाने की वजह में कार्य संस्कृति का सवाल प्रमुख है।
क्या आपको कभी कारण बताओ नोटिस जारी किया गया?
अनिल चमड़िया : नहीं, कोई कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया। 27 जनवरी 2010 को मेरे घर पर शाम को सात बजे चिट्ठी भिजवा दी गयी कि मेरी नियुक्ति को कार्य परिषद के आठ सदस्यों ने 13 जनवरी 2010 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक बैठक कर स्वीकृति प्रदान नहीं की है।
क्या आपको ये बताया गया है कि आपकी सेवा क्यों खत्म की जा रही है?
अनिल चमड़िया : जो मुझे पत्र मिला है, उसमें केवल इतना ही कहा गया है कि कार्यपरिषद ने मेरी नियुक्ति को स्वीकार नहीं किया है। उसमें स्वीकार नहीं किये जाने का कोई कारण नहीं बताया गया है।
वीसी वीएन राय ने कहा कि लोग अनिल चमड़िया के दलित होने के चलते हटाये जाने की बात मुझे बता रहे हैं पर मुझे तो पता भी नहीं है कि अनिल चमड़िया दलित हैं – ये पहली बार पता चल रहा है। वास्तविक स्थिति क्या है?
अनिल चमड़िया : वीएन राय सारी बातें लोगों के हवाले से करते हैं। ये उनकी कार्य संस्कृति का हिस्सा है। कौन लोग कह रहे हैं कि दलित होने के कारण मुझे हटाया गया है। दरअसल प्रचार की इस रणनीति को समझना चाहिए। किसी भी समस्या के केंद्र में क्यों नहीं ऐसी बात ला दी जाए, जिससे की पूरी बहस उल्टे सिर खड़ी हो जाए। मेरी नियुक्ति में कहीं से भी दलित शब्द शामिल नहीं है। फिर इस दलित की बहस को यहां क्यों खड़ा किया जा रहा है। कुलपति को मुझमें इतनी दिलचस्पी रही है कि मैं कितने लोगों के लिए अपने कमरे में खाना बनाता रहा हूं। वे मेरे बारे में इस तरह की सूचनाएं प्राप्त करते रहे कि मैं किस किससे सब्जी मंगवाता हूं। फिर कुलपति की तो वर्ण व्यवस्था के विषय में काफी दिलचस्पी दिखाई देती है। यह विषय उनका एक ब्रांड है। मैं अपने स्तर पर न तो किसी को अपनी जाति बताना जरूरी समझता हूं और ना ही किसी से उसकी जाति पूछता हूं। क्योंकि मैं दो तरह की भाषा नहीं जानता। एक ही भाषा में सभी लोगों से बात करने की योग्यता ही मेरे पास है।
वीसी के दलित विरोधी आचरण और अपनी बर्खास्तगी को आप कैसे जोड़कर देख रहे हैं?
अनिल चमड़िया : वीसी को आप दलित विरोधी कह रहे हैं, मैं नहीं कह रहा हूं। मेरे पास उन्हें देने के लिए कई विशेषण हैं। मैं अपनी बर्खास्तगी भी नहीं मानता हूं। लेकिन आपके इस सवाल की जो मूल भावना है, उसे मैं अपने तरीके से समझ कर जवाब देना चाहता हूं। मैं अपने लेखन, कर्म और व्यवहार के लिए अलग-अलग आईना लेकर नहीं घूमता हूं। हिंदी समाज का सत्ताधारी वर्ग इस मायने में दुनिया में सबसे ज्यादा योग्य है कि वो लिखने और व्यवहार के लिए अलग-अलग भाषा को बरतना जानता है। लिखता कुछ है और व्यवहार उसके विपरीत करता है। अपनी सारी पक्षधरता, व्यभिचार, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए एक मुखौटा तैयार कर लेता है। वह मुखौटा वामपंथी होने का हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष होने का हो सकता है। विश्वविद्यालय में दलित और महिलाएं अपने अनुकूल स्थितियां नहीं महसूस करती हैं। विश्वविद्यालय के दलित छात्र संगठन द्वारा जारी दलित चार्जशीट में अब तक के दलित उत्पीड़न की घटनाएं जगजाहिर हैं। दलित प्रोफेसर प्रो कारुण्यकारा को दी गयी नोटिस की खबर समाचार पत्रों में छपी है। लिहाजा दलित विरोधी आचारण के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरी सेवा समाप्त करने की कोशिश का संबंध पूरी कार्यसंस्कृति से है। उसमें कई तरह के आचरण शामिल हैं। मैंने जब से यहां अपनी सेवा शुरू की, तब से कुलपति को ये लगता रहा है कि विश्वविद्यालय में मास मीडिया के प्रमुख को जिस तरह से चोर गुरू के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, उसमें मेरी भूमिका है। ये बात उन्होंने कई लोगों से कही भी है। जब भी विद्यार्थियों के बीच किसी तरह का असंतोष पनपा और वे संगठित होकर विरोध करने के लिए तैयार हुए, उन्हें लगता रहा कि उसमें मेरी भूमिका है। वे विरोध के कारणों या जो बातें प्रकाशित होती हैं, उन्हें संज्ञान में नहीं लेना चाहते हैं। ये उनकी कार्यसंस्कृति है। पुलिस का काम किसी घटना को अपराध के रूप में स्थापित करना और उसका किसी अपराधी से संबंध जोड़ने का होता है। वह घटना के कारणों को दूर नहीं करना जानती है। उन्होंने एक बार मुझसे फोन पर कहा कि मैं चाहूंगा तो विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अपना विरोध आंदोलन समाप्त कर सकते हैं। दरअसल विश्वविद्यालय में कदम रखने के पहले घंटे में ही कुलपति ने मुझे विद्यार्थियों से दूर रहने का निर्देश दे दिया था। मैं छात्रावासों में नहीं जा सकता और न विद्यार्थियों से हाथ मिला सकता था।
वीसी का कहना है कि आपको हटाने का फैसला ईसी का है और इस फैसले से उनका कोई लेना देना नहीं है। आपकी इस पर क्या प्रतिक्रिया है?
अनिल चमड़िया :प्रचार के लिए आप अपनी सामग्री को किसी भी तरह प्रस्तुत कर सकते हैं। विश्वविद्यालयों की संस्कृति के बारे में जो जानते हैं, उन्हें पता है कि कुलपति के चाहने और नहीं चाहने का क्या अर्थ होता है। मुझे पता है कि ईसी की मीटिंग में कुलपति ने ईसी के माननीय सदस्यों से क्या कहा। ईसी की अध्यक्षता कुलपति ही करते हैं। दरअसल किसी तरह की कार्रवाई के बाद सबसे ज्यादा सावधानी इस बात को लेकर बरतनी पड़ती है कि उस कार्रवाई के साथ किस तरह के संदेश को लोगों के बीच भेजा जाए। संदेश की ऊपरी सतह पर मूल बात नहीं होती है। जो ये कहता रहा हो कि उसने एक महान काम किया है और फिर जब उसके सामने ये संकट खड़ा हो कि उसे इस महानता को पचाना मुश्किल है, तो वह क्या कर सकता है। किसी की आड़ लेकर बात कहने की अपनी एक विशेष संस्कृति होती है। ईसी न तो मेरी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को जानती रही है न ही उसकी दिलचस्पी बारह नियुक्तियों में किसी एक पर खासतौर से हो सकती है जब तक कि उसे खास नहीं बना कर पेश किया जाए। ईसी के कुलाध्यक्ष द्वारा मनोनीत सदस्य कुलाध्यक्ष के मनोनीत प्रतिनिधि द्वारा चयनित किसी व्यक्ति की नियुक्ति को क्या इतनी आसानी से अस्वीकार कर सकते हैं? दरअसल इस मामले में जो बारीकी नहीं जानना चाहता है और मुझे गालियां निकालने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है, तो मैं उसमें क्या कर सकता हूं। मैं धैर्यवान व्यक्ति हूं। हमलों से मजबूत होता हूं।
मोहल्ला से साभार
ताक़तवर जुगाड़ियों को परास्त करने का समय है यह- चंदन पांडेय (चर्चित युवा कथाकार)
इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाए, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जाए, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गयी। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलायी गयी और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।
हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक सटीक उदाहरण है। बचपन की बात है, गांव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ-सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी-कभी पीट भी देते थे। किसी न किसी बहाने से, उन बच्चों को जान-बूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे, मैं कहना क्या चाहता हूं?
वजहें जो भी हों, सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने-समझने के लिए विश्वविद्यालय तैयार नहीं था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छह महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गयी एकमात्र सही नियुक्ति को खा गया। (मैं चाहता हूं कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पांडेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडंबना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ संबंधों का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं, जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।
आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये : अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी? इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशें व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है, जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाए। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिए।
ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय संबंधों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहराएगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है, उन्हें भी उनका हिस्सा दिया जाएगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूं, पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नहीं देखी, जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हां, उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है, जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डालें” जैसे लेख लिखती हैं। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नहीं रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाएं।
अनिल जी, हमलोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में न लाना कि आपसे कोई चूक हो गयी। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिए। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।
nice
जवाब देंहटाएंमै कुलपति के इस अन्यायपूर्ण कदम का तीखा विरोध करता हूं।
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