23 अगस्त 2007

चौथे खम्भे की बिजली कहाँ है?


मीडिया को यदि चौथा खम्भा माना जाए तो मैं उसकी बिजली की तलाश में हू। आखिर इसका उजाला किन घरों में पहुच रहा है?यह अवधारणा कि मीडिया,संस्क्रिति, विचार, दर्शन को समृद्ध करती है , कहाँ है? आज मीडिया ने समाज के समूहों संगठनों ,और कलाओं को कितना समृद्ध किया है? लोगों को जागरूक बनाया है या ऐसे चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है,जहा लोगों के पास भटकने के सिवा कोई रास्ता नही है,बातें यहा से तय होती है कि चौथा खम्भा किसके आंगन में है? पूजी की प्रतिद्वन्दिता के इस युग में मुख्य धारा के माध्यम (खास तौर से इलेक्ट्रानिक माध्यम) जनता का सहयोगी या मार्ग दर्शक बनेगें मेरी नजर में ऐसा मानना बेमानी है। सारी चीजें यहा से तय होती है कि इसकी चाभी किसके हाथ में है , जो इसका मालिक होगा वह तय करेगा कि किस विषय पर क्या परोसा जाय। आध्याfत्मक चौनलों को फ्री टू एयर क्यो किया जाए? कलिंग नगर में आदिवासी गोली से भूने जाए तो उसका रंग कैसे फीका किया जाए? अफजल गुरू को नायक बनाया जाय या खलनायक? यह मीडिया मालिकों के हित और गठजोड़ पर निर्भर करता है। मीडिया ने समाजिक बुनावट को जिस तरह से उधेड़ कर रख दिया है वह एक चिंतनीय विषय है लोक संस्क्रिति,साहित्य विचार यहा तक कि समाचार को भी अपने ढंग से परोस रहा है और दर्शकों के पक्ष को तय करवा रहा है। उसपर से यह हवाला भी दिया जाता है कि यह दर्शकों की माग है,दर्शकों की पसंद है।
एक वाक्य कई प्रश्न खड़ा करता है कि पसंद बनाता कौन है? अचानक से कोई विचार,कोई संस्क्रिति हावी नही होती। हमें उसके लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाता है इसके बाद हमें उसका आदी बना दिया जाता है। यह दर्शकों की माग नही बल्कि मीडिया की चकाचौध का नतीजा होता है फिर देखने की बात यह भी है कि मीडिया किन दर्शकों से यह तय करती है कि वे क्या चाहते है?उन टैम मशीन लगी इमारत वाले पाच हजार दर्शकों से जो जूहू चौपाटी व कनाट प्लेस में रहते है। क्या जूहू चौपाटी और कनाट प्लेस के दर्शकों का वर्ग भारत के बीस करोड़ दर्शकों का प्रतिनिधित्व करता है? क्या उनकी वर्गीय मानसिकता, वर्गीय संस्क्रिति, जीने की कला भारत का प्रतिनिधत्व करती है? शायद सारे उत्तर न में मिलें फिर सीरियलों से लेकर फिल्म तक दिखने वाला वह वर्ग जिनके घर की औरतें गहनों से लदी है ,हर दूसरे रोज तलाक हो रहे है , हर व्यक्ति के पास एक आलीसान गाड़ी है , हर घर में एक इन्डस्ट्री है चमचमाती इमारतें है और करोड़ों में चल रही बातें हैं ,भारत का मध्यम वर्ग यदि इन सब को देख कर पचा ले रहा है तो इसका कारण है कि दर्शकों का इस तरह से मानसिक परिस्कय्ण कर दिया गया है। न्यूज चैनलों की बात की जाए तो इनके पास भूख से मर रहें लोग आत्महत्या कर रहें किसानों के सही आंकड़े भले न पता हो पर एश्वर्या राय की मेंहदी, कंगन,बाली,झुमका,भुतहे बंगलों और बिना ड्राइवर की कारों के बारे में सब कुछ पता होता है। बेरोजगारी , भूख , विस्थापन ,अशिक्षा आदि कि समस्या को कुछ चैनल हास्य कवियों से हसा कर दूर करने का प्रयास करते है। शायद सब कुछ भूलने का इलाज हसी है।

17 अगस्त 2007

आदमी:-

बर्टोल्त ब्रेख्त
बर्टोल्त की कविता में ओ उद्दवेलन है..., जो आदमी को उसके उन व्यहारों से परिचित कराता है ....,जो उनके पास होता है..., जिसे आदमी जानता भी है ...,पर ब्रेख्त का अंदाजे बयान कुछ और ही है ...... उनकी जुबाँ या उनकी लेखनी हमें उससे ज्यादा महसूसियत देती जितने हम होते है....|

जनरल, तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है
वह मटियामेट कर डालता है जंगल को
और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को
लेकिन उसमें एक नुक्स है.
उसे एक ड्राइवर चाहिए।

जनरल, तुम्हारा बमबर्सक मजबूत है
वह तुफान से तेज उड़ता है और ढोता है
हाथी से भी अधिक।
लेकिन उसमें एक नुक्स है.
उसे एक मिस्त्री चाहिए।

जनरल, आदमी कितना उपयोगी है
वह उड़ सकता है और मार सकता है।
लेकिन उसमें एक नुक्स है.
वह सोच सकता है।

ये आजा़दी झूठी है, देश की जनता भूखी है-

15 अगस्त की आजा़दी को को प्रेम कुमार मणि कुछ ऐसा बयान करते है..........
बार-बार मन मे ये सवाल उठता है कि 15 अगस्त 1947 को किस रूप में लें क्या वह भारतीय राष्तवाद के चरम उतकर्स का दिन था-क्योंकि एक गुलाम राष्त उस रोज विदेशी वर्चस्व से मुक्त हुआ था,या कि उसके चरम पतन का दिन -क्योंकि राज्य उस रोज विखंडित हो गया था|ाजादी की लड़ाई में चाहे जितनी अहिंसा बरती गयी, आजादी का आगमन हिंसा की भयावहता के साथ हुआ | अमानवियता की हदे पार करते भीषण सांप्रदायिक दंगे, लूट, बलात्कार, विस्वासघात और क्रूरता को भूल जाना इतिहास के साथ धोखाधड़ी होगी|ऐसे परिद्रिश्य के बीच स्वतंत्रता की व्याख्या हम किस रूप में करें, तय करना मुश्किल होता है|
लेकिन हमारे बुर्जुआ इतिहासकारों, शिक्षको और नेताओं ने बार-बार 15 अगस्त की महानता के इतनें पाठ पढ़ाये हैऔर आज इन सबसे हमारा मन इतना प्रदूषित है कि इतिहास के दूसरे पहलू को हम बिल्कुल भूल चुके है| ताज्जुब होता है कि सूक्ष्म इतिहास बोध के नेता नेहरू ने खून से लथ-पथ आधी रात को जब "नियति से भेट" वाला प्रसिद्ध भाषण दिया तब भी उन पर इस वातावरण का कोइ असर नहीं था|वे तो मानों कविता पाठ कर रहे थे "आधी रात को जब दुनियाँ सो रही होगी,भारत जाग उठेगा..... दुनियाँ सो नहीं रही थी|संसद भवन के बाहर दंगे फसाद हो रहे थे, अस्मतें लूटी जा रही थी और लाखों लोग अपना-अपना वतन छोड़ करा अपनें-अपनें देश की ओर भाग रहे थे|हालांकि तब भी एसे लोग थे जिन्होंने यह आजादी झूठी है का नारा दिया था| उनके हाँथ में अखबार नहीं थे और उनके नारों को सजोकर रखने वाले इतिहासकार भी नहीं थे,इसलिये उनके बारे में नयी पीढी़ को जानकारी भुत कम है| लेकिन सच्चाई है कि भारत के बड़े हिस्से में आजा़दी के प्रति उदासीनता का भाव था|'देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है"जैसे नारे पूरे भारत के गाँव कस्बों में लगाये गये थे|राष्टपिता कहे जाने वाले आजादी के सबसे बड़े सेनानी ने स्वयं को आजादी के उत्सव से अलग रखा था|वह उनके शोक का दिन था|आज साठ साल बाद पूरे घटनाक्रम पर विचार करना एक अजीब किस्म की अनूभूति देता है| आजादी के संघर्ष के इतिहास की जिस तरह भारत-व्याकुल भाव से व्याख्या की गयी है , वह हमे और अधिक उलझाव में डालता है|ुसके अंतर्विरोध को सामने रखना सीधे देश द्रोह माना जा सकता है|किसी देश समाज में इतिहास और नायकों के प्रति ऐसी गलद्श्रुतापूर्ण भक्ति देखने को नही मिलती|इसलिये यह कहा जा सकता है कि पिछले साठ वर्षों में हमारे समाज में मानसिक गुलामी ज्यादा बढी़ है जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तब विभिन्न तबकों ने अपने- अपने ढंग से अपनी भावनावों का इझार किया था| गांधी निःसंदेह बड़े नेता थे और उनका प्रभाव भी था लेकिन उनकी कमजोरियां भी थी| उस समय ही अंबेडकर और जिन्ना ने उनसे जाहिर की आज का समय होता तो सायद दोनों देशद्रोह में जेल में ठूस दिये जाते आंबेडकर ने तो अंग्रेजों से विमुक्तता को ही आजादी मानकर संतुस्ट था-क्योंकि भारत का राज-पाट अब उसके जिम्मे था|भारत के शासक तबके ने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास पर अंग्रेज विरोधी भाव को इतना घनीभूत कर दिया कि हम सामंतवादी ब्रहमणवादी गुलामी को पूरी तरह नजरअंदाज कर गये|इससे समाज के शासक तबके का स्वार्थ सधा और गुलामी का एक बडा़ फलक विकसित हुआ|इसलिये भारत के आधुनिक इतिहास पर नये सिरे से विमर्स की जरूरत है| यहाँ तक की अंग्रेजो की भूमिका पर हमे नये सिरे से चिंतन करना चाहियेआजा़दी की सैद्धांतिकी पर ही सवाल खड़े किये थे| आजादी के संघर्ष और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उन्होंने अंतर किया|तथा कथित स्वतंत्रता आंदोलन में सामिल लोग आजा़दी को सीमित अर्थों में ले रहे थे|अम्बेडकर ने उसे विस्तार में लेने का आग्रह किया भारत का बुर्जुआ तबका, जो जाति के हिसाब से हिन्दू मुसलमानों का सवर्ण असराफ तबका भी था, पलासी का युद्ध अंग्रेज क्यों जीत सके?पेशवा और मराठों का हारना क्यों जरूरी हुआ?1857 के विद्रोहों की सामाजिकता और सैद्धांतिकी क्या थी? कांग्रेस के पूना जलसे पर तिलक के नेत्रित्व में ब्रहमणवादियों का कब्जा कैसे हुआ?कांग्रेस के रेदिकल और माडरेट इकाइयों में कौन प्रगतिशील और कौन्रतिगामी था| गांधी आखिर तक वर्णाश्रम व्यवस्था के पक्षधर क्यों और कैसे बने रहे?जैसे सवालों पर नई पीढ़ी को विस्तार से जानने का हक बनता है | आजा़दी के इतिहास का चालू पाठ इतना एकतरफा और एकरस है कि उसके सहारे हम नई पीढ़ी की स्वतंत्र मानसिकता का विस्तार देने में अक्षम है|फ्रांस की राज्य क्रांति के रूप में स्वतंत्रता का जो संघर्ष हुआ था उसके पाश्र्व में रख कर हमें अपने स्वतंत्रता आंदोलन को खंगालना चाहिये|हमारे संघर्ष में रूसो और वाल्तेयर नहीं है|हमने तो रविंद्रनाथ ठाकुर की भी केवल इसलिये पूजा की कि उन्हे नावेल पुरस्कार मिल गया था| उनके गोरा से हमनें कुछ नहीं सीखा|क्या हमने इस बात पर विचार किया है कि आजा़दी का संघर्ष आज भी अनेक रूपों मे चल रहा है? दलित,पिछणे, मेहनतकस, आज भी आजा़दी की लड़ाइ लड़ रहे है| उनका संघर्ष बुद्ध, कबीर, फुले, मार्क्स, अंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह, जैसे विचारकों के मार्ग दर्शन में हो रहा है|गांधी वादी जमात के लोग या तो तटस्थ है या तो इनके खिलाफ बंदूक औR गीता लेकर खडे़ है|फिर भी लडा़ई चल रही है|आप इस लड़ाई मे किस ओर है?
-प्रेम कुमार मणि जनविकल्प के संपादक है
-जन विकल्प से साभार

13 अगस्त 2007

ताजीरात-ए-हिन्द तथा विशेष कानून बनाम दमन-:


मिथिलेश जी महत्मा गांधी अंतरराष्टीय विश्वविद्यालय के छात्र है देश के संविधान में इन्हें अस्पष्टता झलकती है देश मे विशेष कानून तथा उसके आड़ में चल रहा जन-दमन,साथ में लोकतांत्रिकता का ढोंग उजागर करने का प्रयास किया है-

ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के विस्तार एवं औपनिवेशिक जनता पर नियंत्रण के लिए कई फासीवादी नियम कानून बनाये थे। इन्हीं कानूनों के सहारे जनता के असंतोस एवं विद्रोह को कुचला जाता था। सन् 1857 की ऐतिहासिक क्रांति के बाद जनता के बीच उभर रहे प्रतिरोध की संस्कृति को दबाने के लिए अंग्रेजों ने 1860 ई0 में कई नए कठोर कानून बनाकर उसे अपना प्रमुख हथियार बनाया। जन दमन की शुरूआत यहीं से हुई जो भारतीय दंड संहिता के सुविधानुसार उपयोग के बदौलत अब तक चल रही है।
आज सिर्फ कहने के लिए ही मिल्कियत हमारी है। संपत्तिवादी और सत्तावादी व्यक्तियों के गठजोड़ ने ब्रिटिश हुकुमत की नीतियों को फिर से देश में लागू कर दिया है। उसी नक्शेकदम पर चलते हुए भारतीय शासन व्यवस्था ने उन तमाम हथियारों और हथकंड़ों को अपना लिया है जो मनमाने शासन के लिए आवश्यक होते है। अपनी तुगलकी योजनाओं , फैसलों और आदेशों की रक्षा के लिए जहाशासन ने अंग्रजों के समय सन् 1860 में बनी दंड संहिता को अपनी सुविधानुसार थोड़े फेरबदल के साथ हुबहु अपना लिया है, वहीं राज्य सरकारों द्वारा राज्य विशेष में नए.नए कानूनों को भी पारित करवाया जा रहा है।
तात्पर्य यह कि आजाद भारत की सरकार ने अपनी और अंग्रजों की शासनगत नीतियों में किसी प्रकार का कोई र्फक नहीं समझा है। जिस लाठी से कभी अंग्रेज भारतीय आमजन को हा¡का करते थे , वही लाठी वर्तमान शासन व्यवस्था देश को संचालित करने के लिए इस्तेमाल कर रही है।
आज भारतीय दंड संहिता अर्थात ताजीरात.ए.हिंद के मनमाफिक इस्तेमाल से सरकार अपनी राह में रोड़े बनने वालों को आसानी से चूर कर दे रही है। इसकी कई धाराओं का धड़ल्ले से दुरूपयोग हो रहा है। पूरी दंड संहिता में कई जगह `प्रयास करना,सहायता पहु¡चाना, जैसे अस्पष्ट शब्द भरे पड़े हैं। इन्हें व्याख्यायित नहीं किया गया है। इनकी आड़ लेकर किसी भी व्यक्ति को गिरफतार किया जा सकता है। उसपर मनमाने आरोप लगाये जा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप ,भारतीय दंडसंहिता की धारा 402 पुलिस को इसी तरह की मनमानी करने की छूट देती है। यह धा� �ा डकैती की योजना बनाने और उसके इरादे से इकट्ठे होने के संबंध में है। जाहिर है , अस्पष्ट शब्द और पुलिस की अपनी इच्छा किसी भी व्यक्ति को जेल की राह दिखला सकती है।
तुर्रा यह कि भारतीय दंड संहिता के बाद भी संपत्ति और सुरक्षा का हवाला देकर केन्द्र और राज्य सरकारें समय.समय पर नए-नए विशेष कानून पारित करती रहती हैं। कभी आतंकवाद तो कभी नक्सलवाद के बहाने पारित इन विशेष कानूनों से सत्ता को अपने विरोधियों से निपटने में सहायता मिलती है। ये विशेष कानून अपने चरित्र ब्रिटिष शासनकालीन कानूनों से भी अधिक दमनकारी , अलोकतांत्रिक एवं अधिनायकवादी होते है। मसलन `मध्य प्रदेश विशेष क्षे़त्र सुरक्षा अधिनियम 2000 ´तथा इसी तर्ज पर बनी `छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005´ नक्सलियों पर काबू पाने के लिए विशेष कानून तो परित होते ही पूरे प्रदेश पर लागू हो गया है। विडम्बना यह कि कानून को उन हिस्सों में भी पूरी कठोरता के साथ लागू किया गया है जो नक्सल प्रभावित इलाकों में नहीं 'श|मिल हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार इन कानूनों के सहारे किसी भी आम या खास नागरिक को बड़ी सहजता से अपनी पकड में ले सकती है। इसका हालिया उदाहरण पेशे से चिकित्सक डा0 विनायक सेन की गिरफ्तारी है। छत्तीसगढ़ पीपुल्स यूनियन सिविल लिबर्टी (पी0 यू0 सि0 एल0) के उपाध्यक्ष डा0 विनायक सेन केश छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम 2005´ और `अनलॉफुल एfक्टविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट 1967´ के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया है। उन पर नक्सलियों से संबंध होने का मिथ्या आरोप लगाया गया है। डा0 सेन पिछले कई वर्षों से सरकार प्रायोजित अभियान सलवा जुडुम और मनगढंत मुठभेड़ों के मामलों को उठाते रहे हैं। व्यवस्था की काली करतूतों को उजागर करने और मानवाधिकारों की रक्षा में लगे ऐसे कार्यकर्ताओ कों सरकार बेहद आसानी से अपने विशेष कानूनों के दायरे में लपेट रही है। हालांकि डा0 सेन की गिरफ्तारी से छ0 ग0 सरकार के इस निंदनीय कदम की देश भर में जबर्दस्त आलोचना हुई है। विदेशों से इस पर दर्ज की जा रही आपfत्तयों से केन्द्र की भी फजीहत हुई है। अमेंरिकी चिन्तक नोम्स चोमस्की ने भी डा0 विनायक सेन को अविलंब रिहा करने एवं सभी मुकदमें वापस लेने के मांग पत्र पर हस्ताक्षर किया है।
आतंकवाद को मुद्दा बनाकर ऐसा ही एक क्रूर और अप्रजातांत्रिक कानून `आर्मड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट 1958 ´(आफस्पा) कई सालों से उत्तर पूर्व और कश्मीर में लागू है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का दम भरने वाले हमारे देश का बड़ा हिस्सा आफस्पा की वजह से आज भी अघोसित आपातकाल से पीडि़त है। इस कानून के अनुसार राज्य का गर्वनर अथवा किसी भी क्षेत्र को अशांत घोषित कर सकता है। केवल शक के आधार पर किसी को भी गोली मारी जा सकती है। अथवा इतना बल प्रयोग किया जा सकता है कि जिससे उसकी मौत हो जाए। यदि सैन्य बलों को केवल यह आशंका हो जाए कि `अमुक´ चीज को बतौर हथियार इस्तेमाल किया जा सकता है तो उस चीज को प्रतिबंधित बताकर धारक को गिरफ्तार किया जा सकता है। भले ही वे चीजे कृषि औजार , खुरपी , कुदाल क्यों न हो? मात्र शक और आशंका के आधार पर किसी ईमारत को तोड़ दिया जा सकता है , उसकी तलासी ली जा सकती है। हद तो यह है कि सैन्य बलों द्वारा यदि मानवाधिकार का उल्लंघन होता है तो उसके खिलाफ कार्यवाई केन्द्र सरकार की अनुमती के बिना नही की जा सकती है।
आफस्पा के अलावे कुछ अन्य कानूनों ने भी आम नागरीकों को हदसा कर रखा है। पहले टाडा , फिर पोटा और अब यू0ए0पी0ए0....... जनता को आतंकित कर दबाये रखने के लिए सत्ता द्वारा इन क्रूर कानूनों को हमेशा अस्तित्व में रखा जाता है। ऐसा नही कि इन भयानक दमनकारी कानूनों के विरोध में लोग सड़कों पर नही उतरे हैं पर अव्वल तो , सरकार पर इन अहिंसक प्रतिरोधो का असर नहीं पड़ता है (आफस्पा हटायें जाने की मांग को लेकर आसंका शर्मीला की छः वर्षीयभूख हड़ताल) और यदि चौतरफा निंदा और आंदोलनो के बाद यदि सरकार कोई कानून वापस ले भी लेती है तो तुरन्त नाम बदलकर किसी अन्य कानून को लागू कर देती है। कांग्रेस सरकार पोटा का विरोध किया करती थी , जबकि दूसरी ओर उसने महाराष्ट में महाराष्ट प्रिवेंसनट्र ऑफ ऑरगेनाइज्ड क्राइम एक्ट (मकोका) को पारित कर दिया।
इन सारे कानूनों में आतंकवाद , उग्रवाद की परिभाषाए बिल्कुल अस्पष्ट है। लोक प्रगति के लिए खतरा क्या है? या उसे लागू करने के लिए क्या जरूरी है ? या स्थापित कानून की अवज्ञा क्या है? यह सब फैसला सत्ता ही करती है। भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में ही जब सारे लोगों के समेट कर कानूनी कार्यवाहिया की जा सकती है तो इन विशेष कानूनों का क्या औचित्य है?
स्वतंत्रता के पश्चात आवश्यकता तो इस बात की थी कि कानूनों की समीक्षा कर उसे बदला जाना चाहिये था, पर इसके बजाए जनता पर नए-नए विशेष कानून थोपे जा रहे है ।इन विशेष कानूनों के अध्ययन एवं इनसे जुड़े तमाम उदाहरणों से कुछ महत्वपूर्ण सवालात खड़े होते है , मसलन. क्या भारत को लेकर ब्रिटिष शासन और वर्तमान सरकार के ध्येय एक रहे है? क्या अंग्रेजी शासन व्यवस्था एवम् वर्तमान व्यवस्था के जुल्म और दमन की परिभाषा में कोई र्फक नही रहा है? क्या आजादी के पूर्व एवं प'चात दोनों कालों में पूंजी एवं सत्ता की ही प्राथमिकता रही है? क्या जनता पहले भी हाशियें पर थी और आज भी हाशियें पर है? क्या इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र अपने न्यूनतम सीमा रेखा पर अटका है? ये कुछ विचारणीय प्रश्न है जिनका जवाब बड़ी ईमानदारी से सत्ता पक्ष को ढ़ूढ़ना होगा, अन्यथा जनता इसका जवाब जल्द ही ढूढ़ निकालेगी।

08 अगस्त 2007

जितनी जल्दी हो इस दुनियाँ को बदल डालो-




छत्तीसगढ़ का बस्तर इन दिनों बेहद गरम है.
वैसे गरम होना बस्तर की तासीर है. 30 फीसदी से भी कम साक्षरता वाले बस्तर के आदिवासी सदियों से अपनी इबारत खुद ही लिखते रहे हैं, जिसमें शोषण का अंतहीन सिलसिला है औऱ इस शोषण के खिलाफ़ अनवरत चलने वाली लड़ाई है.

1857 का कोया विद्रोह हो या उससे पहले 1825 में परलकोट के गेंद सिंह की लड़ाई, बस्तर हमेशा से संघर्ष करता रहा है. 1910 के अंग्रेजों के खिलाफ़ भूमकाल विद्रोह से जुड़े किस्से तो आज भी लोक कथाओं और गीतों के रुप में बस्तर की हवा में तैर रहे हैं, जो हमेशा शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देते रहते हैं.

लेकिन इस बार दृश्य थोड़ा बदला हुआ है.

सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ और औद्योगिक घराने बस्तर में पहली बार संगठित हो कर एक छत के नीचे आए हैं. उनका दावा है कि वे बस्तर के आदिवासियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें साक्षर बनाना चाहते हैं, नागर समाज जो सुख-सुविधाएं भोगता है वह सब कुछ उन्हें उपलब्ध कराना चाहते हैं और यह भी कि वे आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ना चाहते हैं.

देश में सबसे अधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में 70 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है, जो छत्तीसगढ़ की कुल आदिवासी जनसंख्या का 26.76 प्रतिशत है. लेकिन सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ व औद्योगिक घरानों के इस दावे से बस्तर का आदिवासी समाज डरा और सहमा हुआ है और थोड़ा-थोड़ा नाराज़ भी. नाराजगी की यही आग बस्तर में धीरे-धीरे सुलग रही है.
इस मामले की शुरुवात 4 जून 2005 को होती है.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह और टाटा स्टील कंपनी के बीच एक एमओयू में हस्ताक्षर के साथ घोषणा हुई कि टाटा स्टील बस्तर में 10 हजार करोड़ रुपए की लागत से प्रथम चरण में 2 मिलीयन टन और भविष्य में 3 मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट लगाएगा.

महीने भर बाद 5 जुलाई 2005 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एस्सार ग्रुप के साथ एक करार किया, जिसमें एस्सार ने बस्तर में प्रथम चरण में 1.6 मिलीयन टन और फिर 1.6 मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लॉंट लगाने की घोषणा की. खनिज संपदा में बेहद संपन्न छत्तीसगढ़ में इन दोनों ही एमओयू को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हुईं.

ज़ाहिर है, दुनिया की इन दो शक्तिशाली स्टील कंपनियों के साथ हुए एमओयू को लेकर लोगों में भारी उत्सुकता थी. मसलन इन कंपनियों को कितनी ज़मीन दी जाएगी, ज़मीन कहां की और किसकी होगी, अगर आदिवासियों की जमीन ली जाएगी तो जमीन के बदले आदिवासियों को कितना मुआवजा मिलेगा, उनके पुनर्वास की क्या-क्या शर्ते हैं, इन कंपनियों को पानी कहां से मिलेगा, स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर कितने होंगे, आदि-आदि. सवाल कई थे लेकिन इन सारे सवालों पर सरकार चुप थी.

किस्सा एमओयू का

ऐसी स्थिति में सरकार और इन दोनों कंपनियों के एमओयू का खुलासा ज़रुरी था. देश में होने वाले एमओयू अब तक सार्वजनिक दस्तावेज़ माने जाते रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार के साथ हुए एमओयू को सार्वजनिक करने की कौन कहे, इस पर कोई बात भी करने के लिए तैयार नहीं थी.

सूचना के अधिकार के तहत जब लोगों ने इन एमओयू की छाया प्रति सरकार से चाही तो उन्हें जो जवाब मिला वह चौंकाने वाला था. सरकार की तरफ से बताया गया कि एमओयू को किसी तीसरे पक्ष को सार्वजनिक नहीं करने की शर्त भी एमओयू में है, इस लिहाज से एमओयू की प्रति उन्हें नहीं दी जा सकती.

कांग्रेसी विधायकों ने भी ज़ोर-आजमाइश की लेकिन वे भी एमओयू की प्रति हासिल करने में नाकाम रहे. अंततः मामला विधानसभा तक जा पहुंचा. विधान सभा के बजट सत्र में जब विधायकों ने एमओयू की शर्तों के बारे में सरकार से जानना चाहा तो जन प्रतिनिधियों के सामने भी सरकार ने इन दोनों कंपनियों के साथ हुए एमओयू को सदन के पटल पर रखने से इंकार कर दिया.

ज़ाहिर है, यह आकलन करना मुश्किल नहीं था कि सरकार ने प्रलोभन या दबाव में आकर एमओयू में ऐसी शर्तें शामिल की हैं, जो राज्य की जनता के हित में नहीं थीं. इसलिए सरकार इसे सार्वजनिक करने से बचती रही.
बाद में सरकारी दफ्तरों से एमओयू का सच जिस तरह से छन-छन कर सामने आने लगा, उससे यह साबित हो गया कि सरकार ने सारे नियम-कायदे को ताक पर रख कर इन दोनों कंपनियों से समझौता किया है.

तार-तार कानून

छत्तीसगढ़ सरकार ने इन एमओयू में दोनों कंपनियों को बस्तर में कहीं भी ज़मीन चुनने का अधिकार दे रखा था. यानी इन कंपनियों के लिए केंद्र सरकार के उस नियम को धत्ता बता कर ज़मीन देने का आश्वासन दिया गया था, जिसके तहत इस तरह के किसी भी संयंत्र को लगाने से पहले जन सुनवाई के बाद पर्यावरण मंडल की अनापत्ति ज़रुरी होती है. यहां तक कि संयंत्र के रिजर्व फॉरेस्ट के इलाके में इस तरह की अनापत्ति की ज़रुरत की भी राज्य सरकार ने अनदेखी कर दी.

बिजली की कमी से जूझ रहे छत्तीसगढ़ ने इन दोनों कंपनियों को न केवल बिजली वितरण के लिए अधोसंरचना उपलब्ध कराने का आश्वासन इस एमओयू में दिया है, बल्कि बिजली उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी भी सरकार ने ली है. जन सुविधाओं के विस्तार या स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार जैसी कोई भी शर्त इस एमओयू में नहीं शामिल की गई.

एमओयू में सरकार ने कंपनियों को नए आयरन ओर के पट्टों के अलावा ऐसे पट्टे देने का भी आश्वासन दिया है, जिनका लाइसेंस पहले से ही किसी और कंपनी के पास है. इन पट्टों से आयरन ओर निकाल कर उनके निर्यात पर भी किसी तरह का प्रतिबंध एमओयू में शामिल नहीं है, यानी दोनों कंपनियां बस्तर में स्टील प्लांट लगाए बिना आयरन ओर बेचने का काम कर सकती हैं. यह सब कुछ 99 साल तक निर्बाध तरीके से चल सकेगा क्योंकि एमओयू की शर्तें आगामी 99 सालों तक प्रभावशाली हैं.

इन सबों के अलावा एमओयू में इन दोनों कंपनियों को स्टील प्लांट के लिए आवश्यक पानी उपलब्ध कराने का जिम्मा भी सरकार ने लिया है. टाटा स्टील ने 35 मिलीयन गैलन पानी प्रति दिन की जरुरत बताई है तो एस्सार ने पहले 25 मिलीयन गैलन पानी, फिर उससे 2.7 गुणा ज्यादा पानी की मांग रख दी. हालांकि इस एमओयू में स्टील प्लांट के साथ वाटर ट्रिटमेंट प्लांट लगाने का कोई जिक्र नहीं था. बस्तर की शंखिनी और डंकिनी नदी का पानी जिन्होंने देखा होगा, उनके लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल है कि ये नदियां पानी की नदियां हैं. अपने लौह अयस्क की धुलाई के बाद पानी को शंखिनी-डंकिनी में बहाने वाली एनएमडीसी ने इन नदियों को लाल और कीचड़युक्त नाले में बदल दिया है. शंखिनी-डंकिनी को बचाने के लिए लगभग 7 साल पहले एक जनहित याचिका लगाई गई थी लेकिन उस जनहित याचिका पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई.
यहां यह उल्लेखनिय है कि टाटा और एस्सार, दोनों ही कंपनियों को स्टील प्लांट लगाने की स्थिति में इंद्रावती नदी से पानी लेना पड़ेगा, जो पिछले कुछ सालों से सूखे का सामना कर रही है. इंद्रावती के घटते जल स्तर के कारण छत्तीसगढ़ को उड़ीसा पर निर्भर रहना पड़ता है, जहां से 45 टीएमसी पानी इंद्रावती में छोड़ा जाता है. लेकिन हर साल पानी को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है. जानकारों के अनुसार पिछले 10 सालों से इंद्रावती के लगातार घटते जल स्तर के कारण बस्तर के कम से कम 4 हज़ार तालाब सूख चुके हैं. हालत ये है कि आम जनता को अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए भी इस नदी से मुश्किल से पानी मिल पाता है. ऐसे में स्टील प्लांट लगने की दशा में आदिवासियों को इस पानी से भी वंचित होना पड़ेगा.

एस्सार ने 2006 में ही बस्तर के बैलाडीला से विशाखापटनम तक 267 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन का निर्माण किया है. दुनिया की दूसरी सबसे लंबी पाइपलाइन के सहारे हर साल 80 लाख टन लौह अयस्क के चुरे की ढ़ुलाई की जा सकेगी. एस्सार स्टील के महानिदेशक प्रशांत रुइया की मानें तो सड़क मार्ग से लोहे के परिवहन में प्रति टन 550 रुपए के बजाय इस पाइपलाइन से परिवहन में प्रति टन केवल 80 रुपए का खर्चा आएगा. लेकिन इस पाइपलाइन को लेकर भी कम विवाद नहीं हैं.

टाटा और एस्सार द्वारा स्टील प्लांट लगाने संबंधी गड़बड़ियों के मुद्दे पर जनहित याचिका लगाने वाले राज्य के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी कहते हैं- एस्सार ने इस पाइपलाइन के लिए भी अब तक मुआवजे का भुगतान नहीं किया है. इसके अलावा इस पाइपलाइन के लिए 8.4 मीटर चौड़ाई की ज़रुरत थी, लेकिन एस्सार कंपनी ने 20 मीटर की चौड़ाई में सारे पेड़ काट डाले.

बहरहाल बस्तर में स्टील प्लांट के एमओयू का मामला राजनीतिक गलियारे में उलझ गया और टाटा व एस्सार ने अपने स्टील प्लांट के लिए बस्तर में ज़मीन तलाशना शुरू कर दिया.

टाटा ने अपने लिए 5 हज़ार एकड़ से अधिक भूमि अधिग्रहण के लिए बस्तर के लोहण्डीगुड़ा इलाके के 10 गांवों का चयन किया, वहीं एस्सार ने अपने लिए दंतेवाड़ा से 20 किलोमीटर दूर धुरली और भांसी में 2500 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण की शुरुवात कर दी. स्टील संयंत्रों की स्थापना के लिए जिस तरह की नई तकनीक आई है, उसमें इतनी अधिक जमीन की जरुरत को लेकर ही सबसे पहले सवाल उठने शुरु हो गए. इससे पहले 1955 में जब भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना की जा रही थी, उस समय भी बड़ी मात्रा में लोगों को विस्थापित करके इस्पात संयंत्र की नींव रखी गई. लेकिन 1972 के आसपास यह समझ में आ गया कि इतनी अधिक जमीनों की जरुरत नहीं थी. अंततः लगभग 50 प्रतिशत जमीनें सरकार को वापस कर दी गई और बाद में औने-पौने भाव में व्यवसायियों ने सरकार से जमीन खरीद ली.

टाटा और एस्सार द्वारा इतनी ज़मीन मांगे जाने के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस जमीन का इस्तेमाल बैंक से लोन लेने के लिए किया जाएगा.

लेकिन बस्तर में जमीन पाना इतना आसान नहीं था.

आदिवासियों ने अपनी सभाएं बुलाई और साफ कर दिया कि टाटा या एस्सार को अपनी ज़मीन नहीं देंगे. सरकार में शामिल विधायक और सांसद भी जनता के साथ आ गए और प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले इलाके की हवा गरम होने लगी.
आज हालत ये है कि लोहण्डीगुड़ा-बेलर और भांसी-धुरली के इलाके में लोग टाटा-एस्सार का नाम सुनते ही भड़क उठते हैं.
किस्से अरबो हैं

असल में लोहण्डीगुड़ा-बेलर में टाटा और भांसी व धुरली में एस्सार के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा अकारण नहीं है. सच तो ये है स्टील प्लांट और लोहे के नाम पर बस्तर ने अब तक जो कुछ देखा और भुगता है, उसे भुला पाना बस्तर के आदिवासियों के लिए संभव नहीं है.

लोहा बस्तर और छत्तीसगढ़ के जन जीवन में रचा-बसा हुआ है. आयरन ओर से इस्पात बनाने की शुरुवात भी यहां पहली बार नहीं हो रही है. आगरिया गौंड़ आदिवासी तो जाने कब से आयरन ओर को गला कर इस्पात बनाने का काम करते रहे हैं. 19वीं शताब्दी के आरंभ में आगरिया आदिवासियों के कम से कम 441 परिवार घरेलू भट्ठियों में आयरन ओर से इस्पात बनाने का काम कर रहे थे.

और तो और, टाटा ने पहले भी बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की पहल की थी. पुराने दस्तावेज़ों की मानें तो 1896 में जमशेदजी टाटा ने भी कुछ भूगर्भ शास्त्रियों के साथ बस्तर का दौरा किया था और बस्तर के लौह खदानों की उपलब्धता व गुणवत्ता के आधार पर बस्तर या उड़ीसा के संबलपुर में स्टील प्लांट लगाने की संभावनाएं तलाशी थीं, लेकिन रेललाइन व दूसरे यातायत के साधनों के अभाव में यह इरादा टालना पड़ा.

इस इलाके में दूसरा कदम रखा एनएमडीसी ने. 15 नवंबर 1958 को स्थापित एनएमडीसी ने 1968 में इसी बस्तर के बैलाडीला से लौह अयस्क का उत्पादन शुरु किया. 14 हिस्सों में बंटे लौह अयस्कों की 2 डिपाजिटों से एनएमडीसी ने उत्खनन शुरु किया और जापान निर्यात करना शुरु कर दिया. प्रति दिन लगभग 1 करोड़ 22 लाख रुपये के 27 लाख टन आयरन ओर का निर्यात किया जा रहा था. लेकिन यह तो तस्वीर का एक पहलू है.

बस्तर में कोंटा इलाके के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं-एनएमडीसी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण ही किया है. आज भी एनएमडीसी में इस इलाके के अधिकतम 15 फीसदी लोगों को रोजगार मिला है.

लेकिन बात केवल रोजगार की नहीं है. एनएमडीसी की खदानों की लीज जब 1995 में खत्म हुई, उसी के आस पास भारत सरकार से संबद्द साइंस एंड टेक्नालॉजी सेल की रिपोर्ट सामने आई. रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर द्वारा इस इलाके की व्यापक जांच और सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रम एनएमडीसी द्वारा लगातार उत्खनन और पर्यावरण की घोर उपेक्षा के कारण माईनिंग एरिया के चारों ओर के 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र का पर्यावरण, फ्लोरा-फाना, बॉयोडायवरसिटी, जंगल, खेती और जीव जगत बुरी तरह प्रभावित हुआ है. यह पूरा इलाका वन रहित हो गया है. केंद्र और राज्य सरकारों ने भी समय-समय पर माना कि एनएमडीसी के उत्खनन के कारण इस इलाके में रहने की परिस्थियां बदत्तर हुई हैं.

इस इलाके के लगभग 100 किलोमीटर के विस्तार में बहने वाली शंखिनी नदी में लौह अयस्क की धुलाई के बाद छोड़े गए पानी के कारण शंखिनी और डंकिनी नदी लाल दलदल वाले क्षेत्र में बदल गईं. लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी ये नदियां मुसीबत बन गईं. गावों में नई-नई बीमारियों का प्रकोप फैलता चला गया. सैकड़ों गावों का पानी प्रदूषित हो गया और सिंचाई की सुविधा छिन गई. इन नदियों के दलदल में सैकड़ों पालतू पशु समा गए. कई बच्चे भी इन नदियों के दलदल में फंस कर अपनी जान गंवा बैठे.

वायदों का सच बनाम नगरनार

इधर 90 के दशक में ही बस्तर के मावलीभाटा और नगरनार में भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने स्टील प्लांट लगाने की जब घोषणा की तो बैलाडीला में जल, जंगल और जमीन की हालत से वाकिफ आदिवासियों ने संगठित हो कर यह सवाल पूछा कि इस स्टील प्लांट से हमें क्या मिलेगा.

ज़ाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. यहां तक कि इस प्लांट के लिए जमीन अधिगग्रहण के दौरान जब आदिवासियों ने अपने पुनर्वास को लेकर सरकारी नीति का खुलासा चाहा तो पता चला कि इस स्टील प्लांट के लिए सरकार ने कोई पुनर्वास नीति बनाई ही नहीं है. लेकिन सरकार के लिए यह स्टील प्लांट तो जैसे नाक की बात हो गई थी. सरकारी दमन चक्र ऐसा चला कि सैकड़ों आदिवासियों के साथ-साथ कई लोग पुलिस और एनएमडीसी के गुंडों के हाथों प्रताड़ित हुए.
भारत जन आंदोलन के नेता व तब के अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त ब्रह्मदेव शर्मा को तो गुंड़ों ने नगरनार का विरोध करने पर लगभग नंगा करके जुलूस निकाला था और सार्वजनिक रुप से उन्हें प्रताड़ित किया था. ये वही ब्रह्मदेव शर्मा थे, जिनकी एक आईएएस के रुप में पूरे बस्तर में तूती बोलती थी.

बहरहाल स्टील प्लांट का विवाद गहराता गया और सरकारी फाइलों का बोझ बढ़ता रहा.

1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तो सरकार ने उन पुरानी परियोजनाओं को खंगालना शुरु किया, जो मध्य प्रदेश से विरासत में मिली थी. इसी क्रम में राज्य बनने के कुछ ही दिन बाद एनएमडीसी ने फिर से बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की और आनन-फानन में दंतेवाड़ा के गीदम के घोटपाल और हीरानार में स्टील प्लांट के लिए आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जा करना शुरु कर दिया.

5वीं अनुसूची लागू होने के करण बस्तर के इस अधिसूचित क्षेत्र में नियमानुसार ग्राम सभा की सहमति से ही ज़मीन ली जा सकती है. लेकिन इस तरह के नियम को ताक पर रख कर जब जमीन अधिग्रहण का काम चालू रहा तो आदिवासी सरकार के खिलाफ लामबंद होने लगे और भूमि अधिग्रहण के मामले की गूंज दिल्ली तक जा पहुंची. छत्तीसगढ़ सरकार ने भी माना कि अधिग्रहण के लिए आवश्यक नियमों का पालन नहीं किया जा सका है. अंततः एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने अपना काम-धाम इस इलाके से समेट लिया। इसके बाद एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बार फिर अपना रुख नगरनार की ओर किया.

बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर है नगरनार. बस्तर के सर्वाधिक घनी आबादी और उत्कृष्ट कृषि योग्य भूमि वाले इस इलाके में जब स्टील प्लांट लगाने के ख्वाब आदिवासियों को दिखाए गए तो उन्हें बताया गया कि इस इलाके के आदिवासियों के लिए रोजगार, आवास, शिक्षा औऱ चिकित्सा के क्षेत्र में संभावनाओं के नए दरवाज़े खुलेंगे लेकिन इसका सच बस्तर की सल्फी से भी कड़वा साबित हुआ.

मई 2001 में जब भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने नगरनार में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की तो आदिवासियों को कई सब्जबाग दिखाए गए. कहा गया कि 40 हज़ार लोगों को रोजगार दिया जाएगा, लोगों को ज़मीन के बदले जमीन दी जाएगी, बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाएगी, खेतों के बदले पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा और यह भी कि सभी लोगों को घर बना कर दिए जाएंगे. लेकिन जब इस स्टील प्लांट के लिए 300 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण का काम शुरु हुआ किया तो एनएमडीसी और राज्य सरकार की नियत आदिवासियों की समझ में आ गई.

शुरुवात तो ग्राम सभा से से ही हुई जहां ज़मीन अधिग्रहण से पहले गांव वालों की सहमति लेनी थी. सरकार ने तो जैसे तय कर रखा था कि नियम-क़ायदा को ताक पर रख कर चाहे जैसे भी हो एनएमडीसी के लिए आदिवासियों की ज़मीन हासिल करनी है. लेकिन जब आदिवासियों से बंदूक की नोंक पर सहमति बनाने के प्रयास शुरु हुए तो लोगों ने विरोध करना शुरु कर दिया.

24 अक्टूबर 2001 को ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ आदिवासियों ने जब एनएमडीसी और सरकार का विरोध करना शुरु किया तो पुलिस ने पहले तो निहत्थे लोगों पर बर्बरता से लाठियां बरसाई और जब बात उससे भी नहीं बनी तो गोलियां चलाई गई. महिलाओं समेत 50 से अधिक लोग बुरी तरह हताहत हुए.

लेकिन आदिवासियों का विरोध इस तरह की कार्रवाई से भी कम नहीं हुआ. 2 मार्च 2002 को आदिवासियों ने अपनी ग्रामसभा की और तय किया कि एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट के लिए ज़मीन अधिग्रहण का काम नियम-क़ानून के दायरे में हो और विस्थापित होने वाले आदिवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था के अलावा उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाए, जिससे उनकी आजीविका चलती रहे.

उम्मीद की जा रही थी कि सरकार आदिवासियों की इन मांगों पर विचार करेगी और मामला सुलझ जाएगा. लेकिन किसी भी क़ीमत पर एनएमडीसी को नगरनार में ज़मीन दिलवाने पर अड़ी हुई सरकार को आदिवासियों का यह विरोध नहीं जंचा. इस ग्रामसभा के अगले दिन से ही पुलिस ने विस्थापित होने वाले आदिवासियों को धमकाना शुरु कर दिया. विस्थापित आदिवासियों को मनमाने तरीके से तय किए गए मुआवजे के चेक जबरदस्ती लेने के लिए पुलिस ने सारे हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए.

कस्तूरी, नगरनार या आमागुड़ा जैसे प्रभावित गांव के लोगों के जेहन में आज भी 10 मार्च की याद ताज़ा है. अपनी 5 एकड़ ज़मीन एनएमडीसी के हवाले करने वाले नगरनार गांव में हड्डियों के ढ़ांचे की तरह दिखने वाले रुपसाय हल्बी में बताते हैं- “पुलिस ने उस रात अपनी बर्बरता की सारी हदें लांघ दी थीं.”

गांव वालों के अनुसार एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले गांवों में पुलिस ने देर रात को धावा बोला और गांव में महिलाओं और बच्चों समेत जो भी नज़र आया, उन्हें बेतहाशा पीटना शुरु किया. घरों में सो रहे लोगों के दरवाज़े तोड़ डाले गए और लोगों को गांव की गलियों में घेर-घेर कर जानवरों की तरह मारा गया. महिलाओं समेत लगभग 300 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.

लेकिन इसके बाद कुछ भी नहीं हुआ.

यह “कुछ नहीं होना” नगरनार के लोगों के लिए एक ऐसा नासूर बन गया, जिसका जख्म लगातार रिसता रहता है.
जिस स्टील प्लांट के लिए एनएमडीसी और सरकार ने आदिवासियों पर इतने जुल्म ढ़ाए, उस प्रस्तावित इलाके में एनएमडीसी ने रातों-रात चाहरदिवारी बना दी और अपने बोर्ड टांग दिए. इस बात को लगभग 5 साल होने को आए, लेकिन चाहरदिवारी के अलावा स्टील प्लांट का काम आगे नहीं बढ़ा.

जिन आदिवासियों की ज़मीन छीनी गई, उनके पास कोई साधन नहीं बचा. खेती वे कर नहीं सकते थे, क्योंकि ज़मीन एनएमडीसी के कब्जे में है और वायदे के मुताबिक उन्हें नौकरी तो मिली ही नहीं, क्योंकि स्टील प्लांट का काम ही शुरु नहीं हुआ. 303 विस्थापित परिवारों में से 43 परिवार तो ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजे की राशी भी नहीं मिली.

नगरनार में एनएमडीसी की चाहरदिवारी में ही बने राज्य के पहले आईएसओ थाना के सहायक उपनिरीक्षक प्रमोद मिश्रा अपनी कुर्सी पर लगभग पसरते हुए कहते हैं- “अभी भी शायद आदिवासियों के ख़िलाफ़ कुछ मामले लंबित हैं.”

ज़ाहिर है, अपना सब कुछ गंवा देने के बाद अब आदिवासियों के हिस्से अदालतों के चक्कर हैं, भूख है, बदहाली है और वायदों के ढेर तो हैं ही, जिसके पूरे होने की उम्मीद अब सभी लोग छोड़ चुके हैं.

एनएमडीसी के टेक्नीकल डायरेक्टर पीएस उपाध्याय और नगरनार परियोजना के प्रबंधक आलोक मेहता बताते हैं कि अब नगरनार में स्टील प्लांट के बजाय एक लाख टन वार्षिक उत्पादन की क्षमता का स्पंज ऑयरन संयंत्र लगाया जाएगा. इसके अलावा 10 मेगावाट क्षमता वाले केप्टिव पावर प्लांट की भी स्थापना की जाएगी.

लेकिन बस्तर में अब इस बात पर भरोसा करने को कोई तैयार नहीं है. वैसे भी स्टील प्लांट की तुलना में स्पांज ऑयरन संयंत्र में लोगों को कितना रोजगार मिलेगा, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है.

लोहा गरम है

टाटा स्टील ने जब लोहण्डीगुड़ा में अपने संयंत्र के लिए ज़मीन अधिग्रहण की घोषणा की तो प्रस्तावित संयंत्र से विस्थापित होने वाले 10 गांवों के लोगों को बैलाडीला और नगरनार की बदहाली याद आ गई. टाकरागुड़ा, कुम्हली, बड़ांजी, बेलर, सिरिसगुड़ा, बड़ेपरौदा, दाबपाल, धूरागांव, बेलियापाल और छिंदगांव के लोगों ने साफ कर दिया कि वे जिस भूमि पर बरसों से खेती करते आए हैं, उसे किसी भी हालत में स्टील प्लांट को के लिए नहीं देंगे.

टाटा के प्रस्तावित संयंत्र के लिए इस इलाके की 2161 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण किया जाना था. हालांकि जब जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई शुरु की गई तब टाटा ने अपने प्रस्तावित इस्पात संयंत्र की प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी पेश नहीं की थी. 3906000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले बस्तर में केवल 27.5 प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है. स्थानीय लोगों की मानें तो इस मामले में जगदलपुर का हिस्सा और भी पिछड़ा है, जहां 56 प्रतिशत किसानों के पास एक एकड़ या उससे भी कम ज़मीन है. इसमें भी लोहण्डीगुड़ा के इलाके में सबसे अधिक कृषि योग्य भूमि है. टाटा की प्रस्तावित स्टील प्लांट की 2161 हेक्टेयर जमीन में से 1861 हेक्टेयर जमीन आदिवासियों की कृषि भूमि है. ग्रामीण टाटा द्वारा प्रस्तावित मुआवजे से भी असंतुष्ट थे.
हालांकि टाटा के अनुसार-सीमित विकल्पों के बावजूद इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर रखकर, भूखंड को सही स्वरूप देकर एवं भूखंड की सीमा के यथोचित निर्धारण के जरिए विस्थापन को न्यूनतम किया जाए। टाटा स्टील ने आदिवासियों को पुनर्वास के पर्चे भेजे हैं, उसके अनुसार-अपनी 75 % से ज्यादा जमीन से वंचित होने वाले प्रभावित जमीन मालिकों की संख्या लगभग 840 है और प्रभावित होने वाले घरों की संख्या लगभग 225 है। पुनर्स्थापना एवं पुनर्वास का यह पैकेज मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ के समक्ष विगत 15 दिसम्बर 2005 को एवं जिला पुनर्वास समिति के सदस्यों के समक्ष 26 दिसम्बर 2005 को प्रस्तुत किया गया था। जिला पुनर्वास समिति के सुझाव को ध्यान में रखते हुए, प्रशिक्षण एवं नियोजन से संबंधित प्रावधानों की यथासंभव व्याख्या की गई है।... भू-अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुरुप मुआवजा जिसमें तोषण, ब्याज तथा छत्तीसगढ़ सरकार की पुनर्वास नीति 2005 के अनुसार अनुग्रह राशि भी सम्मिलित है।
टाटा के अनुसार ऊसर जमीन के लिए 50 हज़ार रुपए प्रति एकड़, एकल फसल वाली असिंचित जमीन के लिए 75 हज़ार रुपए प्रति एकड़ और दोहरी फसल वाली सिंचित जमीन के लिए 1 लाख रुपए प्रति एकड़ मुआवजे का प्रावधान रखा गया है.
लेकिन ग्रामीणों की मांग थी कि उन्हें इस तरह के मुआवजे के साथ-साथ स्टील प्लांट में शेयर भी मिले. इसके अलावा मांगों की एक लंबी फेहरिस्त थी, जिसको लेकर टाटा स्टील और जिला प्रशासन कोई आश्वासन देने के मूड में भी नहीं था. ऐसे में जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राज्य बनने की पांचवीं वर्षगांठ का उत्सव चल रहा था, उस समय माड़िया आदिवासी बहुल लोहण्डीगुड़ा के लोग टाटा और टाटा के पक्ष में खड़ी सरकार के ख़िलाफ लामबंद हो रहे थे.

5 नवंबर 2005 को हज़ारों लोगों ने बेलर में एक आमसभा की. भाजपा विधायक लच्छू कश्यप, बैदुराम कश्यप और भाजपा के ही सांसद बलीराम कश्यप ने सभा को संबोधित करते हुए लोगों को आश्वस्त किया कि मुख्यमंत्री से चर्चा कर के टाटा के इस्पात संयंत्र के लिए कहीं और जगह तलाश की जाएगी.

लेकिन भाजपा सांसद कुछ ही रोज में टाटा संयंत्र के सुर में सुर मिलाने लगे. सरकार के प्रतिनिधि गांव वालों को समझाने में लग गए कि उन्हें संयत्र लगने से क्या-क्या फायदा होगा. टाटा संयंत्र के खिलाफ लोग संगठित होते रहे और सरकार ने भी जमीन अधिग्रहण का अपना एजेंडा लागू करना आरंभ किया.

उधर एस्सार के खिलाफ भी दंतेवाड़ा के भांसी और धुरली में इसी तरह का माहौल बन रहा था. एस्सार ने भांसी और धुरली गांव के आस पास 1254 हेक्टेयर जमीन अपने स्टील प्लांट के लिए चिन्हांकित की थी. लेकिन जनता ने एस्सार के प्रस्तावित स्टील प्लांट का विरोध शुरु कर दिया. मुद्दे भांसी-धुरली में भी वही थे.

बंदूक की नोंक पर संविधान

फिर शुरु हुआ ग्राम सभा का खेल यानी बंदूक की नोक पर संविधान.

अनुसूचित क्षेत्र Scheduled Area के लिए 1996 में पारित हुए पंचायत राज विस्तार कानून पेशा (Provisions of the Panchayats Extension to Scheduled Area PESA) सबसे पहले लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों की रक्षा के लिए सामने आया.

ग्रामीणों के विरोध प्रदर्शन के बीच सरकार ने टाटा स्टील के लिए सबसे पहले 10 मई 2006 को लोहण्डीगुड़ा-बेलर की ग्राम सभाओं का विशेष सम्मेलन आयोजित किया था लेकिन ग्रामीणो ने पुनर्वास के विरोध में अपनी आपत्ति दर्ज कराई और अपनी 13 सूत्री मांग रखी। गांव वालों ने जिला प्रशासन को 13 सूत्री मांग पत्र सौंपकर स्पष्ट कर दिया कि था जब तक ये मांगें मानी नहीं जाती हैं, तब तक ये गांव खाली नहीं होगे. बेलर-लोहण्डीगुड़ा के लोगों की मांग थी कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा स्टील प्लांट में 49 प्रतिशत शेयर की व्यवस्था के अलावा बंजर जमीन का 5 लाख, एकफसली जमीन का 7 लाख और दो फसली जमीन का 10 लाख रुपए मुआवजा, प्रभावित परिवारों में से एक को अनिवार्य रुप से नौकरी जैसी शर्तें रखी गई थीं.
लेकिन अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए ग्रामीणों के व्यापक विरोध को देखते हुए ग्राम सभाओं के सम्मेलन रद्द कर दिए गए. दुबारा 7 जून को ग्राम सभा की कोशिश भी असफल साबित हुई.

इसके बाद 20 जुलाई 2006 को ग्राम सभा का आयोजन किया गया. इससे 2 दिन पहले जिला प्रशासन ने ग्रामीणों की बैठक ली. बड़ांजी और बेलर के सरपंच के अनुसार कलेक्टर ने इस बैठक में बताया कि पुनर्वास को लेकर हमारी सारी मांगें मान ली गई हैं. कलेक्टर की इस घोषणा के बाद कुछ ग्रामीण मांगों को लेकर हुई सहमति का जब लिखित प्रमाण लेने पर अड़ गए तो फिर से ग्राम सभा पर संकट के बादल मंडराने लगे.

लेकिन जिला प्रशासन किसी भी तरह ग्राम सभा निपटाने के मूड में था. इसके बाद प्रशासन ने पूरे इलाके में धारा 144 लागू कर दिया और 55 ग्राम प्रमुखों के खिलाफ मामला दायर कर दिया गया। 17 लोगों को तो गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया गया। लेकिन इसके बाद भी 20 जुलाई को हुए ग्रामसभा में गतिरोध कायम रहा. 2 ग्राम पंचायतों में तो सभा हो ही नहीं पाईं. जिन 8 गांवों में ग्रामसभाएं हुईं, उनमें भी 3 पंचायतों में ग्रामीणों के फैसले ग्रामसभा की पंजी में दर्ज ही नहीं हुए. बाद में सरकारी अधिकारियों द्वारा ग्रामसभा में अनुपस्थित लोगों को सभापति बता कर पंजी में मनमाने निर्णय दर्ज कर लिए गए.

इसके बाद 3 अगस्त 2006 को इस इलाके में सशर्त ग्रामसभा आयोजित की गई. गांव वालों की मानें तो अब तक हुए ग्रामसभाओं में भारी पुलिस बल का इस्तेमाल कर लोगों पर दबाव बनाया गया. इस ग्राम सभा में आदिवासियों को बुला कर उन्हें पर्ची दी गई और उनसे अंगूठे का निशान लगवा कर उनसे जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण के लिए सहमति ले ली गई.
कुम्हली गांव में एक चौराहे पर बैठे एक बुजुर्ग वेणुधर कहते हैं- अगर बंदूक के बल पर आयोजित सभा को आप ग्रामसभा कहते हैं, तो मुझे कुछ नहीं कहना है.

उनके साथ बैठे दूसरे बुजुर्ग घासूराम, धनीराम, हीरा आदि भी कहते हैं कि ग्रामसभा के नाम पर खानापूर्ति हुई है. खेती पर आश्रित ये सभी लोग टाटा के संयंत्र के खिलाफ हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव के सभी लोग संयंत्र के खिलाफ हैं.
गांव में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके नाम पर कोई जमीन ही नहीं है और ऐसे सभी लोग इस इलाके में संयंत्र के पक्ष में हैं. एक पंचायत सचिव बताते हैं कि सरकारी योजनाओं से किसी भी तरह जुड़े हुए लोग टाटा के संयंत्र का विरोध नहीं कर सकते. ऐसा करने का साहस जिन लोगों ने किया, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया.

लोहंडीगुड़ा में टाटा के पक्ष में जिला प्रशासन द्वारा 2 ग्रामसभाओं के बाद माना जा रहा था कि अब टाटा के लिए स्टील प्लॉंट का रास्ता साफ हो गया लेकिन इसके बाद आदिवासियों ने 24 फरवरी 2007 को अपनी ग्रामसभा बुलाई. जाहिर तौर पर सरकार के लिए यह चुनौती थी. टाकरागुड़ा और बेलर में आमसभा के बाद आदिवासियों पर पुलिस का कहर बरपा और आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व भाकपा के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम समेत कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए.
बस्तर एक बार फिर सुलग उठा और लोहण्डीगुड़ा और बेलर में आंदोलन तेज होने लगा. सरकार और आदिवासी आमने-सामने आ गए. दोनों ने एक दूसरे पर हमला बोलना शुरु कर दिया. कई पुलिस वाले आदिवासियों के आक्रोश के शिकार हुए. दूसरी ओर आंदोलन से नाराज जिला प्रशासन द्वारा आदिवासियों को मारा–पीटा गया, लाठियां बरसाई गईं. इससे भी मन नहीं भरा तो आदिवासियों को गिरफ्तार कर के जेलों में भर दिया गया. लेकिन इससे आदिवासियों के हौसले में कमी नहीं आई. आदिवासी आज भी अपनी मांग के लिए अड़े हुए हैं.

लोहण्डीगुड़ा और उसके आसपास के गांवों में एक अजीब-सा आक्रोश पसरा हुआ है, जिसका शिकार कोई भी हो सकता है. हालत ये है कि लोग अपनी जान देने पर तुले हुए हैं.

आज से 45 साल पहले लोहण्डीगुड़ा में 31 मार्च 1961 को सरकारी लेवी के खिलाफ लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों ने उग्र आंदोलन शुरु किया और 13 आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. जिन आदिवासियों ने जनता के मुद्दे पर अपनी जान दे दी थी, उनमें कुम्हली गांव के अजम्बर सिंह भी शामिल थे. शायद इतिहास अपने को दुहराता है. अजम्बर के बेटे बल्देव सिंह इस बार लोहण्डीगुड़ा में टाटा के खिलाफ ताल ठोंककर खड़े हैं.

बल्देव कहते हैं- “मेरे पास पांच एकड़ जमीन है और मेरी पूरी जमीन ली जा रही है. जनता और अपने स्वाभिमान की लड़ाई में अगर मेरी जान भी चली जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं है. मैं एक ही बात जानता हूं-लड़ाई जारी रहनी चाहिए.”
लेकिन इलाके के भाजपा सांसद बलीराम कश्यप इस तरह की लड़ाई को गैरजरुरी बताते हुए कहते हैं कि लोहण्डीगुड़ा में बाहरी हस्तक्षेप के कारण माहौल बिगड़ा है. कश्यप का मानना है कि टाटा का विरोध करने वाले असल में विकास के विरोधी हैं.
हालांकि उनकी ही पार्टी के स्थानीय विधायक लच्छुराम कश्यप और डाक्टर सुभाउ कश्यप पूरे मामले में जिला प्रशासन की भूमिका को संदिग्ध बताते हैं। लच्छुराम कश्यप कहते हैं- “ ग्रामसभा के लिए ग्राम पंचायतों पर दबाव डाल कर बैठक बुलाई गई. जिला प्रशासन द्वारा जबरिया जमीन अधिग्रहण के लिए लिए अदिवासियों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे अपनी जमीन टाटा को दे दें.”

दोनों विधायकों ने टाटा का यह मामला विधानसभा में भी जोर-शोर से उठाया है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार अपनी ही पार्टी के विधायकों द्वारा उठाए गए मुद्दे को लेकर चिंतित है.

टाटा-एस्सार भाई-भाई

उधर एस्सार की ग्रामसभा का किस्सा भी लोहण्डीगुड़ा से अलग नहीं है.

दंतेवाड़ा के धुरली और भांसी में सरकार ने जब एस्सार के लिए जमीन अधिग्रहण का काम शुरु किया तो ग्राम सभा के लिए पूरे इलाके को पहले पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया. उसके बाद भांसी की 280 हेक्टेयर और धुरली की 109.5 हेक्टेयर भूमि के लिए 10 जून 2006 और 3 अगस्त 2006 को ग्रामसभा की राय ली गई.

10 जून को हुई विशेष ग्रामसभा में राज्य के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा एस्सार का साथ देने के लिए पहुंचे. नक्सलियों के खिलाफ बस्तर में सरकारी संरक्षण में सलवा जुड़ूम नामक आंदोलन चलाने वाले आदिवासी विधायक महेंद्र कर्मा का तर्क था कि एस्सार के स्टील प्लांट से इस इलाके का विकास होगा लेकिन ग्रामीणों ने उनकी बात तक नहीं सुनी और नारेबाजी करते हुए सभा का बहिष्कार कर दिया.

महेंद्र कर्मा का आरोप था कि भाकपा के लोग ग्रामीणों को भड़का रहे हैं और जनहित के मुद्दे पर राजनीति की जा रही है.
इस बीच लगभग 1300 ग्रामीणों ने कलेक्टर को पत्र लिख कर स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी जमीन एस्सार को नहीं देंगे.
जाहिर है, प्रताड़ना और दबाव का दौर यहां भी चला. 9 सितंबर 2006 को जब भांसी में विशेष ग्राम सभा का आयोजन किया गया तो इस छोटे से गांव में सशस्त्र बल की दो कंपनियां तैनात कर दी गईं. इसके अलावा जिला पुलिस बल के 100 से अधिक जवान गांव के चप्पे -चप्पे पर तैनात कर दिए गए.

दंतेवाड़ा जिला आदिवासी महासभा के सचिव रामा सोरी का आरोप है कि भूअर्जन के लिए अनैतिक तरीका अपनाया गया और ग्रामसभा के लिए भी जबरदस्ती की गई.

हालांकि एस्सार के प्रतिनिधि विजय क्रांति इस तरह के दबाव और प्रताड़ना को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि जमीन अधिग्रहण का काम हमारा नहीं सरकार का है. इसके लिए सरकार क्या-क्या तरीका अपनाती है, यह सरकार मामला है.
हालांकि वे यह नहीं बताते कि 10 जून 2006 की सभा में सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ एस्सार के क्षेत्रीय निदेशक समेत कई महत्वपूर्ण अधिकारी क्यों उपस्थित थे.

एस्सार के विस्थापितों के मुद्दे पर पुनर्वास समिति की बैठक की अध्यक्षता करने वाले राज्य के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री केदार कश्यप के अनुसार एस्सार स्टील परियोजना के शुरु होने से यहां एक लाख 30 हजार से अधिक स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे.

ज्ञात रहे कि देश भर में एस्सार स्टील के लगभग 15 हज़ार कर्मचारी हैं. ऐसे में अकेले बस्तर में सवा लाख से अधिक लोगों को रोजगार क्या संभव है? केदार कश्यप की मानें तो 1700 लोगों को एस्सार के स्टील प्लांट में नौकरी दी जाएगी, इसके अलावा लगभग 5 हजार लोग स्टील प्लांट के दूसरे काम में लगेंगे. स्टील प्लांट के शुरु होने के बाद लगभग 1 लाख 25 हजार लोगों को स्टील प्लांट के विभिन्न सहायक उद्योगों में रोजगार मिल जाएगा.

आयरन ओर ऊर्फ दिल्ली दूर है


लेकिन बस्तर के विभिन्न मुद्दों पर पिछले कई सालों से क़ानूनी लड़ाइयां लड़ने वाले अधिवक्ता प्रताप नारायण अग्रवाल स्टील प्लांट की स्थापना और रोजगार के मुद्दे को किनारे करके देखने की बात करते हैं. उनका तर्क है कि बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील प्लांट लगाने के बजाय मूल रुप से आयरन ओर का उत्खनन करने और उसके निर्यात में इनटरेस्टेड हैं.
दोनों ही इस्पात कंपनियों के साथ हुए एमओयू में सरकार ने उन्हें उनकी सुविधानुसार आयरन ओर के पट्टे उपलब्ध कराने के लिए आश्वस्त किया है. इसके अलावा सरकार ने उन्हें बस्तर से आयरन ओर के उत्खनन, निर्यात और बिक्री की छूट भी दी है. प्रताप नारायण अग्रवाल को आशंका है कि ये दोनों कंपनियां अपने दूसरे संयंत्रों के लिए कच्चा माल यहां से ले जाएंगी.
बस्तर के लोहे पर अभी तक एनएमडीसी का कब्जा रहा है, जिसका एकाधिकार खत्म करने के लिए पिछले चार दशकों में कई कोशिशें हुईं.

आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के शुरुवाती दौर में एनएमडीसी को बीमार बना और बता कर बैलाडीला की लोहे की खदानों को निजी हाथों में देने की कई कोशिशें की गईं. इस मुद्दे को मीडिया में जोरशोर से उठाने वाले पत्रकार सुदीप ठाकुर कहते हैं- तत्कालीन इस्पात व खान मंत्री संतोष मोहन देव और प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने बैलाडीला की सबसे कीमती खदान 11 बी को मित्तल समूह की निप्पन डेनरो के हवाले करने के लिए कई योजनाएं बनाईं. प्रधानमंत्री के इशारे पर सबसे पहले एनएमडीसी और निप्पन डेनरो में करार करवा कर एक नयी कंपनी बनवाई गई. इस नई कंपनी बैलाडीला मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड में हास्यास्पद तरीके से निप्पन डेनरो की 89 प्रतिशत साझेदारी थी और एनएमडीसी के हिस्से केवल 11 प्रतिशत.
सुदीप ठाकुर का दावा है कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव की कोशिशों के बाद बैलाडीला की लौह खदानों पर निजीकरण ने अपना शिकंजा कसना शुरु कर दिया.

दूसरी ओर एनएमडीसी के हाथों से लौह खदानों को लेकर निजी हाथों में दिए जाने की वकालत करते हुए टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक एम बी मुथुरमन कहते हैं कि एनएमडीसी अब तक सारे अयस्क जापान जैसे देशों को निर्यात करता रहा है. यह राष्ट्रहित के खिलाफ है. ऐसे में अगर बस्तर के लौह खदानों की लीज बस्तर में ही संयंत्र लगाने वालों को दी जाएगी, तो इससे अच्छा और क्या होगा.

ताज़ा मामले में टाटा और एस्सार समूह ने भी राज्य सरकार के साथ एमओयू करने के बाद सबसे पहले बैलाडीला की लौह खदानों पर अपनी नजरें टिकाई. 27 अक्टूबर 2005 को एस्सार ने और 13 मार्च 2006 को टाटा ने लौह खदानों के लिए अपना आवेदन दिया. इससे पहले भी इस इलाके में खदानों की लीज के लिए 25 आवेदन आए थे, लेकिन सरकार ने उन आवेदनों को निरस्त करते हुए 1 नवंबर 2006 को केवल एस्सार समूह को 2285 हेक्टेयर क्षेत्र का हिस्सा देने की अनुशंसा भारत सरकार को अनुमोदन के लिए भेज दी. लगभग 2 महीने बाद 28 दिसंबर को ही केंद्र सरकार ने इसे अपनी हरी झंडी दे दी.

लेकिन 25 अन्य आवेदनों पर विचार क्यों नहीं हुआ, इसके जवाब में मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं- “क्योंकि दूसरे लोग बस्तर में उद्योग नहीं लगा रहे हैं.”

नो मेंस लैंड

आम तौर पर अशांत इलाकों में पूंजी निवेश से उद्योगपति हमेशा से बचते रहे हैं. ऐसे में देश में सर्वाधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में टाटा और एस्सार की दिलचस्पी ने कई सवाल खड़े किए हैं. हालांकि कहा यही जा रहा है कि बस्तर के अपार खनिज का मोह कोई छोड़ना नहीं चाहता. दूसरी ओर सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी है.

लेकिन लोगों की निगाह सरकारी संरक्षण में नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा द्वारा नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे सलवा जुड़ूम यानी शांति अभियान और टाटा-एस्सार के समीकरण की ओर भी है.

टाटा-एस्सार ने जिस समय छत्तीसगढ़ सरकार से एमओयू किया उसके आसपास ही जून 2005 से बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुड़ूम अभियान शुरु हुआ. इस अभियान के बाद नक्सलियों ने अपना हमला तेज़ किया और आज हालत ये है कि पिछले 22 महीनों में कश्मीर समेत देश के किसी भी दूसरे हिस्से से ज्यादा लोग मारे गए हैं.

जगदलपुर के पत्रकार राजेंद्र तिवारी के अनुसार टाटा ने फरसपाल, मासोड़ी, कुंदेपाल, दारापाल, चिदरापाल व फूलगट्टा की 2690 हेक्टेयर जमीन सरकार से लीज पर मांगी थी. सलवा जुड़ूम शुरु होने के बाद 50 हज़ार से अधिक लोग अपने गांवों को छोड़ कर सरकारी शिविरों में रह रहे हैं, लगभग 40 हज़ार लोगों को बस्तर छोड़ कर पड़ोसी राज्यों उड़ीसा और महाराष्ट्र में शरण लेनी पड़ी है. सैकड़ों गांव खाली हो गए हैं.

नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी के महासचिव गणपति ने सलवा जुड़ूम को लेकर पहले ही कई गंभीर आरोप लगाए हैं. Independent Citizens’ Initiative को लिखे एक पत्र में गणपति का कहना है- “ There is immense wealth in the areas inhabited by adivasis from Jharkhand to AP and all the big guns have their greedy eyes fixed on this wealth. Hence they leave no stone upturned to grab this wealth even if it means massacring the indigenous people, razing entire villages to the ground and suspending all fundamental rights of the people. In just the three states Chattisgarh, Jharkhand and Orissa over three lakh crores of rupees are likely to be pumped in to extract several times more wealth to fill the coffers of these steel and aluminium barons of India and imperialist countries.. ... This is the logic behind salwa judum.”

लेकिन नक्सली संगठन इस मुद्दे पर खामोश हैं कि सरकारी कैंपों में जो लोग रह रहे हैं, वे नक्सलियों की दहशत के कारण अपना गांव छोड़ कर शरणार्थी बनने को मजबूर हुए हैं. एक तरफ सलवा जुड़ूम में शामिल नहीं होने वाले आदिवासियों को सलवा जुड़ूम समर्थकों के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है, तो दूसरी ओर सलवा जुड़ूम का साथ देने वालों को नक्सली अपना निशाना बना रहे हैं. पिछले दो साल में 700 से अधिक लोग इन दो पाटों के बीच फंस कर अपनी जान गंवा चुके हैं.
नक्सल प्रभावित बस्तर के कोंटा विधानसभा के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं- “बस्तर में पहली बार आम जनता इतनी दहशत में है. हमें ऐसा नया राज्य तो नहीं चाहिए था. नक्सली, सरकार और उद्योगपतियों ने आदिवासियों को जिस तरह प्रताड़ित किया है, उससे अगर आदिवासियों के लिए अलग बस्तर राज्य की मांग तेज हो जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.”

कवासी लखमा की आवाज़ कोई सुन रहा है?

(PANOS SOUTH ASIA के लिए किए गए अध्ययन का हिस्सा)

मोहल्ला से साभार-

06 अगस्त 2007

रोजगार पर ओ0 ई0 सी0 डी0 रिर्पोट का सच :





रोजगार का सवाल एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है, निजीकरण के बढ़ावे के साथ पूजी का केन्द्रीकदण बढ़ रहा है,फलस्वरूप अधिकाधिक मुनाफे के लिए रोजगार कम किये जा रहे हैं। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होनें के बाद रोजगार बढ़ने की बात की जा रही थी, लेकिन वह संसदवादी पार्टीयों द्वारा हमेशा की तरह दिये जाने वाले खोखले नारों जैसी ही साबित हो रही है और सत्ता इसे जनसंख्या वृfद्ध के कारण सम्पूर्ण रोजगार न उपलब्ध करा पाने की मजबूरी बता रही है। एवज में रोजगार गारंटी योजना, स्वत: रोजगार योजना जैसे कसीदे युवा वर्ग के सामने पेश किये जा रहे हैं। हाल में यू0 एन0 ओ0 की सस्था ओ0 ई0 सी0 डी0 के एक सर्वेक्षण में यह बताया गया कि अन्य देशों की अपेक्षा भारत में रोजगार बढ़ रहे है, इस सर्वेक्षण के बाद मीडिया में इस पर गर्मागरम बहसे हुई, आखिर इस बढ़ते रोजगार का सच क्या है? और स्थिति कहा¡ है? पूंजी, सत्ता,शिक्षा, व रोजगार एक दूसरे से जुड़े हुए है और इनका सीधा संबध है शिक्षाकी बात करे जिसे रोजगार पाने के लिए जरूरी माना जाता है भले ही वह दो कौड़ी की हो और पाठ्यक्रम भी कचड़े व साम्प्रदायिक हो और यह भी मान लिया जाए की बिना शिक्षा के रोजगार संभव नही है तो देखना जरूरी लगता है कि शिक्षा किसको मिल रही है। निजिकरण के इस दौर मे शिक्षा संस्थानों में शिक्षा को खरीद.फरोख्त की वस्तु बना दिया गया है जिसके करण ऐसी स्थिति है कि शिक्षा एक विशेष वर्ग के हाँथों में आज भी सीमित है जिसके पास पूंजी है उसके पास शिक्षा है और उसी के पास रोजगार भी, यानी पूंजी प्रधान इस युग में शिक्षा व रोजगार उन्ही के लिये है जो पैसे से सक्षम हो। यद्यपि प्रायमरी स्तर तक शिक्षा को निःशुल्क किया गया है पर इसके पीछे सत्ता की साजिसे साफ झलकती है। उन प्रायमरी विद्यालयों में कहीं अघ्यापक नहीं तो कहीं छत नहीं , किताबों की तो बात ही छोड़ दी जाये। क्या इन सरकारी संस्थानों के बच्चें कान्वेंट स्कूल की बराबरी आगे कर पायेगें? हा¡ इतना जरूर होगा कि ये शिक्षित होने के बजाय साक्षर हो जायें और सरकारी साक्षरता के आंकड़े को कुछ प्रतिशत और बढ़ा दे, पर रोजगार के लिये जिन महंगी तकनीकी शिक्षा की जरूरत हैं , उसमें ये लोग अशिक्षित मजदूर, या बेरोजगार ही पड़े रहेंगे।

कारण वस इन अशिक्षितो को अपने हक ,अधिकार , हो रहे शोषण, देश के गर्भगृह में चल रहे युद्ध , व सत्ता व सत्ताधारीयों की साजिशों की न तो उन्हें सच्चाई पता हेागी और न ही असलियत।स्थिति यह है कि देश में एक खाई सी बन गयी है एक तरफ साक्षर अशिक्षित व बहुसंख्यक मजदूर जनता का अंसगठित क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों या देश की निजी कम्पनियों के द्वारा श्रम अधिकार का शोषण हो रहा है तो दूसरी तरफ शिक्षित जन है जो चंद लोगों के लिये इनके श्रम के शोषण में मध्यस्थ या दलालल की भूमिका अदा कर रहे है। इन सबके आवजूद भी करोड़ों युवा बेरोजगार पड़े है , देश के कई राज्यों में रोजगार गारंटी योजनायें शुरू की गयी है जिसमें रोजगार की गारंटी जैसे कसीदे गढ़े गये है और मीडिया के द्वारा इनका खूब प्रचार.प्रसार करवाया जा रहा है वर्ष में सौ दिन की रोजी पक्की अथवा बेरोजगारी भत्ता की बात कही जा रही है यह उन युवाओं के लिये है जो स्नातक कर चुके है। देश में मात्र 4 प्रतिशत से कुछ ज्यादा युवा ही ऐसे है जो स्नातक कर पाते है , इसके बाद बेरोजगार होने पर उन्हे 500रू0 प्रति माह की दर से बेरोजगारी भत्ता मिल ही जाये (कितनों की पहुच है , कितनों को भत्ता मिल पाता है , इन बातों को छोड़ दिया जाय) तो महंगाई के इस दौर में 500 रू0 में महीने भर गुजारा किया जा सकता हे क्या? दरअसल सत्ता की यह चालबाजी कुछ.कुछ एन0 जी0 ओ0 के सिद्धांतों से मिलती.जुलती लगती है। जिसमें देश का सबसे बड़ा युवा वर्ग जो अमूमन 54 करोड़ की संख्या में है , के आक्रोश को शांत करने का प्रयास है ताकि वे इसी बात में फसें रहे और वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह न करें।
जनसंख्या वृfद्ध को पूर्ण रोजगार न दे पाने की मजबूरी बताना , व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है।अमर्त्य सेन के शब्दों में कहें तो मानव एक उदर के साथ दो हाथ व एक मस्तिस्क लेकर पैदा होता है और यह सत्ता व व्यवस्था की सफलता , असफलता , होती है कि वह उसका किस तरह से प्रयोग कराती है या तो उसके हाथ व मस्तिस्क से मानव समाज के विकास की ओर बढ़ा जा सकता है और व्यवस्था को सुद्रण किया जा सकता है अन्थया वह इसे व्यस्था परिवर्तन के हथियार के रूप में प्रयोग करेगा जहां उसे सम्पूर्ण रोजगार,सम्पूर्ण सुविधायें , व समानता की उम्मीद होगी।

इन परिस्थितियों के बावजूद , स्वत: रोजगार जैसे टूल्स इन बेरोजगार युवाओं को झासें में रखने के लिये प्रयुक्त किये जा रहे है और भविष्य में युवाओं की बढ़ती तादात व आक्रोश को दबाने के लिये आगे भी इस तरह की कई प्रयोग किये जायेंगे। पर क्या समानता , पूर्णरोजगार , पूर्णशिक्षा, स्वास्थ , व अन्य विभेद विहिन समाज की मौजूदगी इस व्यवस्था में दिखती है। शायद नहीं , जगह.जगह बढ़ते जन आक्रोश और दमन में संघर्ष और बदलाव ही एक रास्ता दिखता है और इनकी एक जरूरत।

01 अगस्त 2007

गुप्तांगों की पूजा का देश-




मानव के विकास के साथ ही विज्ञान के विकास की प्रक्रिया ' शुरू हुई और देवी देवताओं की संकल्पना भी, मानव ने अपनी सोच व समझ के अनुसार इन देवी.देवताओं को मूर्ति या प्रतीक के रूप में निर्मित किया। जिन चीजों को वह नहीं समझ पता था , जिन तक पहुंचना मुश्किल था व जिनकी प्रक्रिया और कारणों का उसे ज्ञान नहीं था मानव ने उसे किसी ' शक्ति या 'शक्ति के द्वारा संचालित माना , उसे देवी.देवता की उपाधी दी गयी। इस तरह से मानव के लिये लाभ प्रदच वायु , पानी , सूर्य , पृथ्वी , आकाश, सब देव के रूप में हो गये और मानव ने उनके प्रतीकों को बनाया ताकि उन्हे एक दूसरे से अलग किया जा सके। भारत में देवी.देवताओं की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता का यह साक्ष्य है।
कबीलें की संकल्पना के अनुरूप कबीलाई समाज ने इन ढ़ेर सारे दवी.देवताओं को कबीलानुमा संरचित किया और कबीले के मुखिया की तरह इंद्र को उनका राजा घोषित किया , यह विकास का एक क्रम था जिसे आज की वैज्ञानिक परिभाषा के खांचे में फिट नही किया जा सकता, लेकिन विज्ञान के विकास का एक हिस्सा माना जा सकता है , जो मानव समाज के सोचने.समझने की प्रक्रिया को दर्शाता है। इन्ही संकल्पनाओं में गुप्तागों के द्वारा बच्चें की उत्पति भी मानव के लिये एक आश्चर्यजनक घटना थी , जो इसकी समझ के परे थी , और उसने स्त्री.पुरूष सहवासिक स्थित की पूजा करना 'शुरू कर दी और गुप्तांगों की सहवासिक स्थिति का प्रतीक या मूर्ति बनायी जो आज भी कहीं बर्फ , कहीं पत्थर , तो कहीं मक्खन का बनाकर शिव लिंग के रूप में पूजा जाता है और हजारों.करोड़ों रूपये का लाभ एक विशेष वर्ग को होता है। इस रूढ़ीवादी मानसिकता का एक नमूना अमरनाथ की पहाडि़यों में बर्फ से पनपने वाले उस त्रिकोंड़ आकृति जिसे बाबा अमरनाथ का शिवलिंग कहते है, में देखा जा सकता है , हाल में यह खबरों में छाया रहा, कारण इस अकृति का निर्मित न होना था , इसके पीछे का सच यह था कि उस क्षेत्र में भूकम्प आने से (जिसमें पाकिस्तान के कई लोग मारे गये थे) उन दरारेा का व सुराख का बंद होना था जहां से बर्फ गिरती थी और इस आकृति का निर्माण होता है। अत: लाभधारी वर्ग ने इसे हस्त निर्मित किया , अब प्रश्न यह उठता है कि आस्था पर टिके देश के बड़ तीर्थ स्थलों में से सबसे बड़े देव के निवास स्थान के पास , जो पूरी दुनियां चला रहा है भूकम्प आया ही क्यों? पाक ,कश्मीर की इतनी जनता मरी तो महामहिम शिव ने बचाया क्यो नहीं? माना पाक की जनता मुसलमान थी और शिव हिन्दू के देव , तो बाबा को हिन्दुओं की आस्था का तो ख्याल रखना था। असलाहाधारी देव थे भूकम्प की उथल.पुथल के बाद अपने त्रिशूल से एक सुराख बना देते ताकि उनका बर्फीला लिंग स्वस्थ बना रहता और हिन्दुओं की आस्था बच जाता पर ऐसा कुछ नही हुआ। शिवसेवकों ने कलियुग का प्रकोप व अत्याचारियों के बढ़ने की बात कही पर ऐतिहासिक साक्ष्य गवाह है और आंकड़े कि आज के समय से ज्यादा शिव भक्त दुनियां में कभी नहीं थे फिर दुनियां को चलाने वाले इस देव मे क्या इतनी कूबत नही कि वह अत्याचारियों पर लगाम लगा सके , उन्हे अपना भक्त बना सके ? तो क्या वह इन अत्याचारियों से हारा हुआ एक पराजित 'शक्ति है? यदि है तो।
आज जब मानव विकास के करोड़ों वर्षों में हमने यह जान लिया है कि सूर्य ,चन्द्रमा ,पानी , हवा ,क्या है? हमने यह जान लिया है कि पृथ्वी शेषनाग के फनों पर नही मजदूरों के हाथों पर टिकी है , इसके बावजूद इस मनसिकता से ग्रसित रहना नागवार लगता है। दुनिया की जनसंख्या का छठा भाग होने पर भी खोज, अविष्कार ,निर्माण में सबसे पिछड़े देश को अपने धर्म,देवों, के देश से नावाजे जाने की उपाधि पर गर्व है जबकि पिछड़ेपन के पीछे धर्म व तथाकथित 84 करोड़ देवी.देवताओं का बड़ा हाथ रहा है। यही नही बल्कि शोषणकारी 'व्यक्तियों को बढ़ावा देने , समाज में विभेद उत्पन्न करने , सम्प्रदायिक ' व्यक्तियों की प्रयोगशाला के रूप में भी इनका बखूबी प्रयोग किया गया है। शोषकों ने कारणवश यह तर्क उत्पन्न किया कि ईश्वर सब दुछ देख रहा है , गलत करने वालों को सजा देगा , शोषित जनता ईश्वर के देखने पर टिकी है और उसके ऊपर लगातार अत्याचार होते जा रहे है पर आज तक ईश्वर न्याय नही कर पाया। तो क्या ईश्वर को चश्में की जरूरत है या हमें पुर्नविचार की ?