30 जुलाई 2015

याकूब मेमन: ''विस्‍थापित आक्रोश'' का ताज़ा शिकार

आर. जगन्नाथन
1993 के मुंबई बम धमाकों में उसकी भूमिका के लिए याकूब मेमन को अगर फांसी पर चढ़ाया जाता है, तो यह एक बहुत भारी नाइंसाफी होगी और इससे बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी और कुछ नहीं होगी। फिलहाल, मेमन की दया याचिका पर महाराष्ट्र के राज्यपाल का फैसला और सुप्रीम कोर्ट में तीसरी अपील ही उसकी गरदन और जल्लाद के फंदे के बीच खड़ी दिखती है। 
आज अचानक उभर कर सामने आ रहे (या दोबारा सार्वजनिक हो रहे) तमाम तथ्य यह दिखा रहे हैं कि मेमन के मामले में हमारी कानून प्रणाली किस कदर नाकाम रही है। मेमन की वापसी से जुड़े रहे गुप्तचर विभाग के एक पूर्व अधिकारी बी. रमन का लिखा और अब रीडिफ डाॅट कॉम द्वारा प्रकाशित एक पत्र तथा बम धमाकों के बाद याकूब की भारत वापसी पर मसीह रहमान नाम के पत्रकार द्वारा 2007 में लिखी गई एक रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि बम धमाकों में मेमन परिवार का सक्रिय हाथ नहीं था।
यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि 1992 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद तुरंत उभरे आक्रोश के ठंडा पड़ जाने पर मेमन परिवार के अधिकतर सदस्य पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का बंधक बनकर नहीं जीना चाहते थे, जिसने धमाकों की साजिश रची थी। मेमन परिवार में फांसी पर लटकाए जाने योग्य टाइगर और अयूब हैं (जो अब भी आइएसआइ की सरपरस्ती में पाकिस्तान में बैठे हैं)। यही दोनों 1993 में तमाम जगहों पर सिलसिलेवार बम धमाके करने की साजिश में लिप्त थे, जिसमें 257 लोग मारे गए थे। अगर खून से किसी के हाथ रंगे हुए हैं तो इन दोनों के हैं, याकूब के नहीं, जो इनका सीधा-सादा भाई था जो अनजाने में जनता के गुस्से का शिकार बना है। ऐसा कहने का मतलब यह नहीं कि वह निर्दोष है, लेकिन बेशक याकूब वो शख्स नहीं है जिसे 1993 में मारे गए लोगों की पीड़ा की सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़े। रमन और मसीह रहमान दोनों को इस बात का पूरा भरोसा है कि 1994 में तीन बार में भारत लौटने वाला मेमन परिवार मोटे तौर पर स्वेच्छा से यहां आया (सिवाय याकूब के, जो या तो बदकिस्मती से पकड़ा गया या फिर किसी सौदे के तहत जिसने आत्मसमर्पण किया)। परिवार को भारत लौटने में सीबीआइ ने मदद की थी। इससे प्रत्यक्षतः यह स्थापित होता है कि भले ही भय और गुस्से के चलते मेमन परिवार ने धमाकों में मदद की (या निष्क्रिय सहयोग दिया) जिसके चलते बाद में वे सब पाकिस्तान निकल लिए, लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि भारत का कानून उनके साथ निष्पक्ष बरताव करेगा।
रमन और रहमान के लिखे से पता चलता है कि याकूब ने अपने भाई के कुकर्मों और पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों पर अहम सबूत मुहैया कराए थे, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से न तो उसे और न ही उसके परिवार को मुकदमे में सरकारी गवाह बनने का लाभ मिल सका जिसके चलते धमाकों में अपनी भूमिका के बदले उनकी सजा कुछ हलकी हो सकती थी।
यह मामला इस बात का एक क्लासिक उदाहरण है कि कैसे एक कमजोर राज्य ने अपनी ताकत कमजोर के ऊपर आजमाने का फैसला किया और इस तरह इंसाफ को चकमा दे डाला। जो राज्य मजबूत होते हैं, वे इंसाफ की राह में जनता के जज्बात और सियासी करामातों को रोड़ा नहीं बनने देते हैं। भारत में मेमन परिवार के खिलाफ जनाक्रोश को तुष्ट करने के सियासी दबाव में नरसिंह राव की ‘‘कमजोर’’ सरकार ने उसके भारत वापस आने की असल वजहों को नकार दिया और याकूब समेत मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों को असली खलनायक बना डाला (वे भले ही अपनी जमीन-जायदाद बचाने के लिए भारत आए रहे हों, लेकिन सच यह है कि वे भारतीय कानून का सामना करने के लिए लौटे थे)।
मनोविज्ञान में इसे ''विस्थापित आक्रोश'' कहते हैं। इसका मतलब यह होता है कि जब आप अपने दोषी पर सीधा वार नहीं कर पाते, तो आप उसे निशाना बना डालते हैं जो आसानी से उपलब्ध हो।
रमन ने याकूब के बारे में यह लिखा थाः ‘‘मेरे खयाल से, मौत की सजा देने से पहले इस सशक्त परिस्थितिगत साक्ष्य को जरूर संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि काठमांडू से उठाए जाने के बाद याकूब ने जांच एजेंसियों को सहयोग करते हुए परिवार के कुछ अन्य सदस्यों को पाकिस्तान से वापस आने और आत्मसमर्पण करने के लिए राजी किया था।’’
मसीह रहमान ने लिखा है कि टाइगर मेमन के पिता को जब पता चला कि उनके बेटे ने मुंबई में बम रखने के लिए पाकिस्तान की सेवाओं का इस्तेमाल किया है, तो उन्होंने उसे बाकायदे ‘‘पीटा’’ था।
स्वेच्छा से भारत लौटने वाले मेमन परिवार को हमारे कानून ने बेइज्जत किया है। हमारे कमजोर नेताओं और कानूनी प्रणाली ने स्वैच्छिक आत्मसमर्पण का इस्तेमाल कर के यह दिखाया कि उन्होंने एक खतरनाक आतंकवादी को पकड़ा है और वे वास्तव में आतंक के खिलाफ गंभीर हैं।

याकूब की कहानी में तीन त्रासदियां पैबस्त हैंः
पहली, यह वास्तविक इंसाफ दिलाने में हमारी राजनीतिक और कानूनी प्रणाली की असमर्थता को जाहिर करती है जो इसके बजाय उस काम पर ज्यादा ध्यान लगाती हैं जो अपेक्षया ज्यादा आसान हो। याकूब एक आसान शिकार था और उसके साथ सिर्फ इसलिए कोई रहम नहीं दिखाया जा रहा ताकि यह साबित किया जा सके कि आतंकवाद से निपटने के मामले में राज्य बहुत गंभीर है। दरअसल, इससे उलटा ही साबित होता है। यह इस बात का सबूत है कि यह राज्य असली दोषियों दाउद इब्राहिम और टाइमर मेमन को दंडित कर पाने में नाकाम है और उनके बजाय किसी और फांसी के तख्ते तक भेजकर खुश है। इससे यही संदेश जाता है स्वेच्छा से आत्समर्पण करने वालों के मामले में अगली बार किसी को भी भारत की कानून प्रणाली पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है कि वह उसकी मदद करेगी और असली अपराधियों को पकड़ेगी।
दूसरे, अभी सामने आ रहे तथ्यों के बावजूद यदि मेमन को फांसी पर लटकाया गया, तो इससे एक बार फिर साबित हो जाएगा कि दोषियों को आसान सजा दिलवाने की कुंजी उनका राजनीतिक समर्थन है। हम अच्छे से जानते हैं कि बलवंत सिंह राजोवाना (पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी) और राजीव गांधी की हत्या के तीन दोषियों के मामले में पंजाब और तमिलनाडु में राजनीतिक समर्थन ने कितनी अहम भूमिका निभाई है। राजोवाना और राजीव के हत्यारों को जिन मामलों में दोषी ठहराया गया है, यदि उससे कम अपराध करने के लिए याकूब को फांसी दे दी जाती है तो यह आकलन सिद्ध हो जाएगा।
तीसरे, इस मामले की आखिरी त्रासदी यह होगी कि आतंकवाद से निपटने में मज़हब एक केंद्रीय मसले के तौर पर स्थापित हो जाएगा। हमारे नेता इस बात को बड़ी शिद्दत से कहते हैं कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता, लेकिन उनका बरताव इसके उलट होता है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि याकूब मेमन का बचाव करने वाला इकलौता नेता एमआइएम का असदुद्दीन ओवैसी खुद मुस्लिम है। सिर्फ सियासी कायरता ही है जिसके चलते बाकी सारे कथित ‘‘सेकुलर’’ दल इस मसले पर खामोश हैं।
बीजेपी और नरेंद्र मोदी की सरकार के ऊपर दक्षिणपंथी होने के नाते मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए उन्हें इस मौके का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए करना चाहिए था कि वे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही नाइंसाफकी के मसले पर आंखें मूंदे हुए नहीं हैं।
यदि याकूब मेमन को वास्तव में फांसी हो जाती है, तो वह अव्वल तो किसी भी तरीके से मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों के सिर पर लगे दोष को कम नहीं कर पाएगी। दूसरे, यह इस देश के लिए तिहरी त्रासदी होगी। मुकदमे को अंजाम तक पहुंचाने का माहौल बनाकर धमाके के पीड़ितों को संतुष्ट करने का मतलब यह नहीं होगा कि भारतीय कानून का सामना करने के लिए भारत आए मेमन परिवार के साथ धोखा नहीं किया गया।
याकूब को लटकाने का एक अर्थ यह भी होगा कि उसे न लौटने की सलाह देने वाला टाइगर मेमन सही था। मसीह रहमान की रिपोर्ट में याकूब को टाइगर की दी हुई चेतावनी कुछ यों हैः ‘‘तुम गांधीवादी बन के जा रहे हो, लेकिन वहां आतंकवादी करार दिए जाओगे।’’
याकूब को फांसी पर लटकाना टाइगर को सही साबित कर देगा। इससे अंत में अगर किसी को खुशी होगी तो वह पाकिस्तान की आइएसआइ है, जो याकूब के आत्मसमर्पण को तो नहीं रोक सकी लेकिन आज भारत एक ऐसे शख्स को मारने जा रहा है जिसने आइएसआइ के सामने घुटने नहीं टेके। क्या सेकुलर भारत यही चाहता है?

26 जुलाई, 2015 
साभार: फर्स्‍टपोस्‍ट डाॅट काॅम 
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव 

13 जुलाई 2015

डांगावास के निहितार्थ

(राजस्थान में दलित उत्पीड़न की रपट)
बजरंग बिहारी तिवारी
दलितों के उत्पीड़न के मामले में हरियाणा इतना बदनाम है कि पड़ोसी राज्य राजस्थान को अक्सर शांत इलाका मान लिया जाता है. गाहे-बगाहे वहां से जातिवादी हिंसा की जो खबरें आती हैं वे हरियाणा की भीषण वारदातों के समक्ष उपेक्षित-सी रह जाती हैं. लेकिन, मई 2015 में वहां ऐसी बीभत्स घटना हुई कि उसने क्रूरता की सभी हदें पार कर दीं| इस घटना की तहकीकात करने पर मालूम हुआ कि वहां जाति आधारित हिंसा की एक सतत धारा बह रही है. नई सरकार की ताजपोशी ने इस धारा को उत्प्लावित कर दिया है. इसी का नतीजा डांगावास का दलित नरसंहार है.
नागौर जाट बहुल जिला है. इसे जाटलैंड भी कहते हैं. इस जिले के मेड़ता थाने के अंतर्गत एक गाँव है डांगावास. ‘डांग’ जाटों का एक गोत्र नाम है, इसी के आधार पर गाँव का नाम पड़ा है. डांगावास राष्ट्रीय राजमार्ग से सटकर बसा है. देखने से पुराना गाँव लगता है. इस गाँव में जाटों के 1500 घर हैं. इसके बाद संख्या में दलित मेघवाल का स्थान आता है. इनके सवा सौ परिवार हैं. रैगर के 50-60, वाल्मीकि के 100, कुम्हारों के 50 और ब्राह्मणों के 20 घर हैं. बनिया, सुनार, लुहार जैसी जातियां भी गाँव में हैं. संख्या बल के कारण और उससे ज्यादा भूस्वामी वर्ग होने के कारण गाँव में जाट दबंग हैं. जातिगत(जिसमें वर्गगत आधार समाहित है और असल में वही प्रमुख है) हिंसा की तमाम वारदातें इसी जाति से जुड़े लोगों द्वारा अंजाम दी जाती हैं. 14 मई 2015 की घटना में भी यही जाति थी. इस घटना की सूचना लगातार यात्रा पर होने के कारण मुझे देर से मिली. फिर, इंटरनेट पत्रिका ‘हस्तक्षेप’ में भंवर मेघवंशी की विस्तृत रपट ने पूरी घटना से अवगत कराया. जनवादी लेखक संघ (जलेस) के कार्यकारी मंडल की दिल्ली में 23 मई को हुई बैठक में मैं भी शामिल था. इसमें यह तय किया गया कि जलेस की एक टीम राजस्थान के साथी राजेंद्र साईवाल के नेतृत्व में घटनास्थल का दौरा करे और वस्तुस्थिति से अवगत कराए. दिल्ली से टीम ले जाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई. अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों के चलते मैं वहां 6 जून को निकल सका.टीम के अन्य साथियों में शंभु यादव, राम नरेश राम और अतुल थे. राजेंद्र साईवाल को जयपुर से ज्वाइन करना था मगर उस दिन वे उदयपुर में थे तब उनकी जगह जयपुर के कामरेड कामेश्वर त्रिपाठी हमारे साथ रहे. हम लोगों ने पहले अजमेर जाकर जवाहरलाल नेहरू चिकित्सालय में भर्ती घायलों से मुलाकात की फिर वहां से किराए की टैक्सी लेकर नागौर के डांगावास गाँव गए. मुख्यतः पीड़ितों से, भंवर मेघवंशी की रपट से और थोड़ा-बहुत पुलिस वालों से बात करके 14 मई वाली घटना की जो तस्वीर उभरी वह यों है-
रतनाराम मेघवाल को आशंका थी कि गाँव के जाट हमला कर सकते हैं. इसी के चलते उन्होंने 11 मई को मेड़ता थाने जाकर तहरीर दी थी और पुलिस से अपने परिवार की जान-माल की सुरक्षा की मांग की थी. पुलिस को अपने कर्तव्य से ज्यादा अपनी जात-बिरादरी की चिंता थी इसलिए उसने मेघवाल परिवार के गुहार पर कोई कार्यवाही नहीं की. 14 मई की सुबह भूस्वामी जाट डांगावास में इकट्ठे हुए और एक निर्णय लेकर मेघवाल परिवार पर हमला कर दिया. इस हमले में गृहस्वामी रतनाराम को बेहद क्रूरता से मार डाला गया और उन्हीं के साथ पोखरराम तथा पांचाराम को भी मौत के घाट उतार दिया गया. खेमाराम की अजमेर अस्पताल में मृत्यु हो गई. इस हत्याकांड में एक ऐसा व्यक्ति भी मारा गया जिसका इस वाकए से कोई लेना-देना नहीं था. इस व्यक्ति का नाम रामपाल गोसाईं था. इसकी मौत का आरोप मेघवालों पर लगा. मगर, कुछ बुनियादी प्रश्न अब तक अनुत्तरित हैं. यह कि रामपाल गोसाईं यहाँ क्यों आया? उसकी  मृत्यु गोली लगने से हुई मगर मेघवालों के पास बन्दूक ही नहीं है तो गोली चलाई किसने? रामपाल की हत्या का मुख्य आरोपी गोविंद मेघवाल को बनाया गया जबकि उस समय वह वहां पर था ही नहीं! रामपाल की लाश पुलिस ने कहाँ से बरामद की? उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट क्या कहती है? एक क्षण के लिए आप यह मान भी लें कि गोसाईं को मेघवालों ने मारा तब सवाल इस हत्या के मकसद का है! गोसाईं को मारकर मेघवालों को क्या मिल सकता था? उससे कोई जाती दुश्मनी भी नहीं थी? कहीं ऐसा तो नहीं कि रामपाल गोसाईं को मारकर दबंगों ने दलितों को हत्याकांड में फंसाने की साजिश रची हो और इसमें पुलिस की भरपूर मिलीभगत हो? आखिर कुछ तो वजह होगी कि अधिकतम 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थाने के सिपाही मौका-ए-वारदात पर तब पहुंचते हैं जब समूचा हत्याकांड हो चुका होता है. महिलाओं के साथ घोर बदसलूकी होती है और सभी 11 दलितों के हाथ-पाँव तोड़कर उन्हें जिंदगी भर के लिए अपंग बना दिया जाता है. मोबाईल फोन के इस जमाने में पुलिस-प्रशासन को पल-पल की खबर न मिल रही हो, ऐसा कैसे हो सकता है! मृतक रतनाराम ने आसन्न संकट की सूचना लगातार दी, ऐसा परिवार के लोग कह रहे थे. फिर, इस हत्याकांड में पुलिस को एक पक्ष में शामिल क्यों न माना जाए? मेड़ताथाने के स्टाफ का मात्र ट्रांसफर करना क्या न्याय का मखौल उड़ाना नहीं है? यहप्रशासनिक मशीनरी की चूक नहीं है बल्कि उसकी हत्याकांड में स्पष्ट भागीदारी है. अगर इस हत्याकांड के सभी मुख्य अभियुक्त अभी भी गिरफ्तार नहीं किए जा सके हैं तो यह उसी पटकथा का हिस्सा है जिसे पुलिस की मदद से पहले ही लिख लिया गया था! हम लोगों को यह जानकर खासा अचरज हुआ कि अभी जो पुलिस मेघवाल मोहल्ले में तैनात है उसमें सबके सब पुलिसकर्मी मेघवाल जाति के हैं! यह कैम्प हत्याकांड के अगले दिन ही लग गया था. यही नहीं, अजमेर के सरकारी चिकित्सालय में भर्ती घायलों की सुरक्षा में भी इसी जाति के पुलिसकर्मियों को लगाया गया है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की यह जातिवादी व्यवस्था है. बिहार के रणबीर सेना की तर्ज़ पर. अब हर जाति की सुरक्षा के लिए उसी जाति के पुलिसकर्मियों की व्यवस्था की जाएगी! इस व्यवस्था के निहितार्थों पर गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है. मान लीजिए हमला किसी ऐसी जाति पर होता हैजिस जाति के पुलिसकर्मी पुलिस विभाग में हैं ही नहीं तब उस स्थिति में सरकार क्या करेगी? हो सकता है कि डांगावास के पीड़ितदलितों की ऐसी जाति आधारित पुलिस व्यवस्था से पूरी सहमति हो और उन्होंने ही मांग की हो कि उनकी जाति के पुलिसकर्मियों को उनकी सुरक्षा में लगाया जाए. सरकारया प्रशासन का ऐसी मांग मान लेना ही यह साबित करता है कि उसका पुलिसतंत्र भारतीय संविधान से नहीं, जाति के नियमों से संचालित होता है.
घटना की पृष्ठभूमि
इस घटना के बीज आधी सदी पहले पड़ गए थे. 1963 में दोलाराम मेघवाल के बेटे बस्ताराम की 23 बीघे 5 बिस्वा जमीन चिमनाराम जाट के कब्जे में चली गयी थी. इसका जो कारण ज्ञात हुआ वह यह कि बस्ताराम ने 1963 में चिमनाराम से डेढ़ हज़ार रूपया क़र्ज़ लिया था. जब मैंने इस परिवार के एक सदस्य गोविंद से इस क़र्ज़ की वजह पूछी तो उन्होंने (क़र्ज़ लेने के तात्कालिक कारण से) अनभिज्ञता जताई. इस क़र्ज़ के बदले बस्ताराम ने अपनी जमीन चिमनाराम के सुपुर्द कर दी. बस्ताराम को कोई औलाद नहीं थी तो उन्होंने अपने दो भाइयों- मीसाराम और शंकरराम के लड़कों में से शंकरराम के बड़े बेटे रतनाराम को गोद ले लिया.बस्ताराम अब नहीं हैं. 16-17 साल पहले जब वे बीमार पड़े थे तब उन्होंने चिमनाराम से अपनी जमीन वापस मांगी थी. चिमनाराम ने रेहन पर राखी जमीन वापस करने से इंकार कर दिया. रतनाराम ने दीवानी का मुकदमा दायर किया. 1997 में अदालत से इस बावत पहली नोटिस जारी हुई. मेघवाल मोहल्ले के बड़े बुजुर्गों ने बताया कि चिमनाराम जाट ने कभी दावा नहीं किया कि जमीन उनकी है.चिमनाराम के दो बेटे हैं- कानाराम और ओमाराम. ओमाराम को कोई संतान नहीं है जबकि कानाराम को एक बेटा है कालूराम. दीवानी का केस चल ही रहा था और साक्ष्यों को देखते हुए इसकी पूरी संभावना थी कि केस में फैसला रतनाराम के पक्ष में होगा. इससे जमीन पर काबिज जाट परिवार में बेचैनी फ़ैल गई. भंवर मेघवंशी की रपट के अनुसार अभी हाल में न्यायालय का निर्णय रतनाराम के हक में आया. रतनाराम ने तब उस जमीन पर एक पक्का और एक कच्चा मकान बनवा लिया और वहीं रहने भी लगे. यह खेत गाँव से थोड़ी दूर पर है. इस बीच अप्रैल 2015 में कानाराम ने उस जमीन पर अपना कब्ज़ा साबित करने के लिए जेसीबी मशीन से तालाब खुदवाना शुरू कर दिया. खेत के कुछ हरे पेड़ (खेझड़ी)भी कटवा लिए. चिंतित रतनाराम ने इसकी मेड़ता थाने में लिखित शिकायत की. जैसी आशंका थी, पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की. तब पीड़ित पुलिस अधीक्षक, अजमेर के पास पहुंचे. उनकी दखल से 1 मई को एफआइआर दर्ज हुई. तालाब का खुदना रुक गया. 10 मई को जाट समुदाय के लोग गाँव में इकट्ठे हुए. इस पंचायतसे मेघवाल मोहल्ले में दहशत का माहौल बन गया. रतनाराम का परिवार खासतौर पर घबराया हुआ था. पंचायत के दिन रतनाराम किसी दूसरे गाँव गए हुए थे. तब चौधरी लोग किसनाराम, मुन्नाराम को ले गए. ‘पंचों’ने इन्हें यह कहते हुए वापस कर दिया कि वे अभी नासमझ हैं. पंचायत में सिर्फ बड़े ही आ सकते हैं. गाँव लौटने पर अगले दिन रतनाराम सरपंच के घर मिलने गए. गाँव के सरपंच का नाम रामकरण कमेड़िया (जाट) है. लोगों ने बताया कि कागज पर सरपंच के रूप में वैसे तो उनकी पुत्रबधू सुनीता का नाम है लेकिन सरपंची रामकरण करते हैं. सुनीता ओमप्रकाश की पत्नी हैं. रामकरण ने रतनाराम को बताया कि जो फैसला होना था हो चुका. पंचायत अब नहीं होगी. गांववालों से मेघवाल परिवार को खबर मिली कि पंचायत ने सात दिनों का समय दिया है. अगर रतनाराम ने जमीन नहीं खाली की तो दोबारा पंचायत बैठेगी. 11 मई को ही गाँव के जाट इकट्ठे होकर एसडीएम, डिप्टी एसपी, कलक्टर के पास गए. वहां उन्होंने क्या किया या कहा यह किसी को नहीं मालूम. 14 मई की सुबह दबंग अचानक गाँव में इकट्ठा हुए. यह पंचायत नहीं थी बल्कि हमले की योजना के लिए बुलाई गई बैठक थी. मेघवाल मोहल्ले में हमें बताया गया कि गाँव के दलितों की तकरीबन एक हज़ार बीघे जमीन इसी तरह जाटों के कब्जे में है. अपनी रपट में भंवर ने टिप्पणी की है कि रतनाराम परिवार को नष्ट करने का मतलब था कि शेष दलित समझ जाएं और अपनी जमीन वापस लेने का ख्वाब देखना बंद करें.
14 मई का घटना-क्रम
     राजस्थान में मई की झुलसा देने वाली गर्मी सुबह से ही शुरू हो जाती है. रतनाराम का परिवार यों तो आशंकाग्रस्त था और इस संदर्भ में औपचारिकता के लिए सही, प्रशासन को अवगत भी करा दिया था, (सूचनानुसार उस 14 मई की सुबह एसडीएम को हमले की आशंका की खबर दे दी गई थी) मगर आज की इस तरह की आसन्न आपदा का उन्हें अनुमान नहीं था. पंचायत की सात-आठ दिन वाली मोहलत की उड़ती अफवाह ने एक भिन्न मनःस्थिति भी बना दी थी. सुबह की अचानक बटोर के बाद जो तय हुआ उसके अनुरूप गाँव से 300-350 लोगों की भीड़ हमले के लिए तैयार होकर चल पड़ी. इस भीड़ में गाँव के जाट तो थे ही, उनके रिश्तेदार और कुछ दूसरे लोग भी शामिल हो गये थे. प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि हमलावरों के पास 4-5 ट्रैक्टर, 4-5 पिक-अप गाड़ियाँ, 2-3 बोलेरो, 30-40 मोटरसाइकिलेंथीं. उनके पास धारदार हथियार,कुल्हाड़ी, फर्शी, सरिया, लोहे की पाइप और बंदूक भी थी. जब हमलावर खेत पर पहुंचे उस समय वहां 16 लोग थे. खेत गाँव से दो किमी की दूरी पर है.गृहस्वामी रतनाराम मेघवाल (उम्र65 वर्ष) पर हमलावरों का गुस्सा सर्वाधिक था. इस गुस्से के शिकार पोखरराम भी बने. रतनाराम के दिवंगत बेटे नौरतराम के साले पोखरराम(45 वर्ष) अपने छोटे भाई गणपतराम (35 वर्ष) के साथ बेवाबहन पप्पूड़ीदेवी (32 वर्ष) से मिलने आए हुए थे. भंवर ने इन्हें मजदूर नेता बताया है. मेघवाल मोहल्ले में इस बावत पूछा तो लोगों ने अनभिज्ञता प्रकट की. ये दोनों भाई पुरोहितवासनी पाटुकला गाँव के हैं.रतनाराम पर पहले कुल्हाड़ी से वार किया गया फिर आँखों में जलती लकड़ियाँ डाल दी गईं. पोखरराम के ऊपर पहले तो ट्रैक्टर चलाया गया फिर उनकी आँखों में अंगारे डाल दिए गए. इनदोनो की मौके पर ही मौत हो गई. पांचाराम मेघवाल (55) को भी ट्रैक्टर से कुचला गया. फिर धारदार हथियार से उनका सिर फाड़ दिया गया. इनकी मौत अजमेर के अस्पताल में हुई. पोखरराम के भाई गणपतराम की आँखों में आक का दूध डाला गया. फिर उसे निर्ममता से कुचला गया. जान फिर भी बची रही. पहले मेड़ता फिर अजमेर के अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते गणपतराम ने 23 मई को आखिरी सांस ली. भंवर की रिपोर्ट के अनुसार गणपतराम की लाश को लावारिस बता कर गुपचुप पोस्टमार्टम कर दिया गया. गणेशराम (21) की मौत 28 मई को अजमेर के अस्पताल में हुई. रामपाल गोसाई को भी जोड़ लें तो अब तक 6 लोग इस हत्याकांड की भेंट चढ़ चुके हैं. हमलावरों ने महिलाओं के साथ बहुत घिनौना सुलूक किया. ज्यादातर महिलाओं के हाथ-पाँव तोड़ दिए गए. उनके गहने लूट लिए गए और कुछ महिलाओं के गुप्तांगों में लकड़ियाँ घुसेड़ दी गईं. घर पर रखी 4 मोटरसाइकिलें जला दी गईं. ट्रैक्टर उठा ले गए और ट्राली को आग के हवाले कर दिया. हमलावरों ने खेत में बने दोनों नवनिर्मित कच्चे और पक्के मकान गिरा दिए. अब यह खेत पुलिस ने कुर्क कर लिया है. हमले के सबूत, घटनास्थल पर बिखरे हुए अवशेष और ढहाए गए मकान का मलबा पुलिस जाने कहाँ उठा ले गई है! ऐसी तत्परता शक के दायरे में आती है. फोरेंसिक साक्ष्य जितने कम होंगे, हमलावरों के बच निकलने की उतनी ही गुंजाइश रहेगी. राज्य पुलिस को अंदाज तो रहा ही होगा कि मामला देर-सबेर सीबीआई को सौंपा जा सकता है. प्राप्त सूचनानुसार मेड़ता थाने का लगभग पूरा स्टाफ, थानेदार (पूनाराम रूड़ी), सीआइ (नंगाराम चौधरी), पुलिस उपाधीक्षक, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक सब हमलावरों की जाति के हैं. इसी बिरादरीवाद के बल पर हमलावरों ने पुलिस की मौजूदगी में मेड़ता अस्पताल में भर्ती घायलों पर 14 मई को ही फिर से हमला करदिया. पुलिस मूकदर्शक की भूमिका में रही. हस्तक्षेप.कॉम पर उपलब्ध भंवर मेघवंशी की रपट बताती है कि दलितों की ओर से जो एफ़आइआर दर्ज हुई वह बहुत लचर है और उसमें महिलाओं से बदसलूकी की बात शामिल ही नहीं की गई है, न ही रतनाराम, पोखरराम आदि की वीभत्स तरीके से की गई हत्या का विवरण है. दूसरी तरफ रामपाल गोस्वामी की मौत का पूरा इल्जाम दलितों पर डालते हुए सशक्त एफआइआर लिखी गई है. इसमें घायलों सहित कुल 16 लोगों को नामजद किया गया है. भुक्तभोगियों को सबक सिखाने का इससे अधिक अचूक तरीका और क्या हो सकता है? सीबीआइ के रास्ते आसान नहीं हैं. न्याय की आशा धुंधलके में कैद कर दी गई है.
घायल क्या कहते है?
अजमेर के जवाहरलाल नेहरू चिकित्सालय में भर्ती घायलों ने बताया कि जब हमें मेड़ता अस्पताल से 14 मई को यहाँ लाया गया तो उसी रात डाक्टरों ने पांच घायलों को डिस्चार्ज कर वापस घर जाने को कह दिया. अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल.पुनिया के हस्तक्षेप से उन्हें पुनः एडमिट किया गया. अस्पताल में भर्तीघायलों के नाम इस प्रकार हैं- 1.खेमाराम(43) पुत्र शंकरराम, 2.मुन्नाराम (30) पुत्र रतनाराम, 3.अर्जुनराम (27) पुत्र रतनाराम, 4.पप्पूड़ी देवी (32) पत्नी नौरतराम, 5.बीदामी (60) पत्नी रतनाराम, 6.सोनकी देवी (55) पत्नीपांचाराम, 7.किसनाराम (23) पुत्र पांचाराम, 8.श्रवणराम (32) पुत्र रतनाराम (ये रतनाराम दूसरे हैं, खाड़की गाँव के), 9.जसोदा (30) पत्नी श्रवणराम, 10.भंवरी (27) पत्नी मुन्नाराम, और, 11.शोभादेवी (25) पत्नी गोविंदराम.
     हमारी टीम जब अजमेर अस्पताल घायलों से मिलने पहुंची तो उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी हमें दिल्ली से आया जानकर संभ्रम में उठ खड़े हुए. मामला क्योंकि केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया गया है इसलिए शायद ऐसी प्रतिक्रिया हुई होगी. यह जानकर कि हम एक लेखक संगठन की तरफ से आए हैं, उन्होंने पूछताछ के उपरांत वापस चलते वक्त रजिस्टर में हमारा नाम-पता लिखवाया. हमारी बात मुख्य रूप से खेमाराम से हुई. खेमाराम पर भी ट्रैक्टर चलाया गया था. उनके दोनों पैर टूटे हुए है. पाँव के अंदर स्टील राड डालकर प्लास्टर किया हुआ है. बातचीत के क्रम में खेमाराम ने हमें बताया कि कल (5 मई) अस्पताल ने हम सबको डिस्चार्ज कर दिया है और गाँव जाने को बोल दिया है. हम अभी नहीं जा रहे क्योंकि हमें वहां खतरा है. निर्देश के बावजूद हम अस्पताल में हैं. हमारी मानसिक हालत समझी जानी चाहिए. “रामपाल गोसाईं की हत्या का आरोप हम पर लग रहा है मगर यह बताइए कि हम ऐसे व्यक्ति को क्यों मारेंगे जिससे न तो हमारी कोई अदावत है और न जिसके मरने से हमें किसी तरह का कोईफायदा पहुंचेगा. पुलिस हमें बताए कि गोसाईं की लाश उसे कहाँ मिली? जिस बंदूक से उसे मारा गया है वह कहाँ है? हम लोगों के पास तो कोई गोली-बंदूक है नहीं! जिसका इस केस से कोई ताल्लुक नहीं, वह थर्ड पार्टी घटनास्थल पर कैसे थी?” पीड़ितों में एक व्यक्ति ने अपना दुख साझा करते हुए कहा कि पुलिस प्रशासन तो उन्हीं का है फिर हमारी कौन सुनेगा. मेड़ता अस्पताल में जब हमपर हमला हुआ तो पुलिस वहीं पर होने के बावजूद खामोश क्यों रही? उसने क्यों नहीं हमलावरों को वहीं पर गिरफ्तार कर लिया?“हमले वाले दिन भी हमने सुबह पुलिस को सूचित कर दिया था तब हमारी रक्षा में वह क्यों नहीं आई? वह चाहती तो हमले के वक्त ही जाटों को गिरफ्तार कर लेती. मगर 10-15 मिनट का रास्ता इतना लंबा कैसे हो गया?” एक अन्य भुक्तभोगी ने बताया कि थाने से पुलिस समय पर निकली मगर उसने सीधे आने की बजाए दूर का चक्कर काटकर आना उचित समझा. घायल महिलाओं में हमने पप्पूड़ीदेवी सेबात की. उन्होंने बताया कि उनका पाँव लाठी से तोड़ा गया. “बहुत गलियाँ दीं. बदतमीजी की. धमकाया कि यहाँ से भग जाओ नहीं तो सबको मार डालेंगे. उन्होंने मेरे पेट के अंदर लकड़ियाँ डाल दीं. फिरमैं बेहोश हो गई. उसके बाद क्या हुआ पता नहीं.” बगल वाले बेड पर भंवरी हैं. उनके दोनों हाथ तोड़ दिए गए हैं. सिर पर घाव है. बायां पैर जख्मी है.“उन्होंने हमारे साथ जोर-जबरदस्ती की”, भंवरी ने बताया. सभी महिलाएं घूंघट में हैं. पर्दा प्रथा राजस्थान की पहचान बन गई है. शोभा का बेड भंवरी और पप्पूड़ी के बीच में है. शोभा का दाहिना हाथ और दाहिना पाँव लाठी से तोड़ा गया है. “मैं बेहोश हो गई थी”, भाव-शून्य आवाज में शोभा ने बताया. जसोदा के दोनों हाथ टूटे हुए हैं. गाँव की मारवाड़ी बोली में जसोदा ने कहा, “उन्होंने मेरे पैरों में मारा. कपड़े फाड़ दिए. जांघ में डंडा चलाया.” बुजुर्ग बादामी अपने बिस्तर पर. हिलना-डुलना मुश्किल. लाठी से उनके दोनों हाथ तोड़ दिए गए हैं. “वे गलियाँ बोल रहे थे.” “कैसी गलियाँ?” –शंभू यादव पूछते हैं. बादामी गिरी आवाज में गालियाँ गिनाते हुए कहती हैं- “साड़ी (साली), कुत्ती, रांडा (रांड़, बेवा), नीच, बेड़नियाँ, बामनी.” आखिरी छोर पर सोनकी का बेड है. सोनकी की पीठ में दो टाँके लगे हैं. दाहिना पाँव तोड़ दिया गया है. दोनों हाथ चोटिल. “मारते हुए वे लगातार गाली दे रहे थे.” –सोनकी बोलती हैं. “आपने हमलावरों में किसी को पहचाना?” “हम हमेशा पर्दा करते हैं. गाँव में किसी (आदमी) को नहीं पहचानते. फिर, बेहोश भी हो गए थे.” हमारे साथ खड़े महेश मेघवाल चाहते हैं कि उनके वाट्सएप्प पर आए संदेश देख लूँ. जाहिरा तौर पर यह संदेश दबंगों की ओर से जारी हुआ है. कई लंबे-लंबे धमकाऊ टेक्स्ट हैं. कुछ पंक्तियाँ बानगी के लिए- “एससी एक्ट का नाजायज फायदा उठाया जा रहा है.”, “हमने उन्हें रगड़-रगड़ कर मारा.”, “27 वीर जाटपुत्र नामजद हुए हैं.”, “आखिर ऊँट आ ही गया जाट के नीचे.”, “सरकार इन्हें कानूनी सरंक्षण देना बंद करे.”, “हमसे जो टकराएगा वह ऐसे ही मिट जाएगा.” “कहीं ऐसा न हो कि ये भी गुर्जरों की तरह विलुप्त प्रजाति बन जाए.” “जाट से भिड़ने का अंजाम मुजफ्फरनगर में दिखा था, अब डांगावास में दिखाई पड़ रहा है.” इन संदेशों की भाषा बीच-बीच में ठेठ स्थानीय है. महेश और दूसरे लोग उसका अर्थ समझाते हैं. शंभू को लगता है कि वर्चस्व का ताना-बाना समझने में इन संदेशों की भाषा से सहायता मिल सकती है. राम नरेश के पास रिकार्डर है और कैमरा भी. वे अपने काम मेंलगे हैं और पीड़ितों को ध्यान से सुनते हुए बड़े सटीक प्रश्न पूछते हैं. अतुल मेरी तरह नोटबुक में सबकी बातें लिख रहे हैं. कामरेड कामेश्वर के चेहरे पर लगातार गुस्सा है. राजस्थान में घोर सामंतवाद की मौजूदगी का वे बार-बार जिक्र करते हैं.
     हमले का राजनीतिक आयाम पीड़ित ही खोलते हैं. “हम लोग कांग्रेस के वोटर हैं. हमला करने वाले सब बीजेपी के थे. पास के गाँव नेतड़ियाँ का ही विधायक है सुक्खाराम. हमारी ही जाति का है, मेघवाल. वह गाँव के सरपंच का साथ दे रहा है. एक बार भी मिलने, हाल जानने नहीं आया.” पुलिस ने उस खेत की कुर्की कर दी जिसमें हमारा मकान बना था, “मगर जिन्होंने हम पर हमला किया और फरार हैं उनके मकानों की कुर्की नहीं हुई.” “कायदे से तो उन्हीं फरार अभियुक्तों के घर की कुर्की होनी चाहिए थी”, डांगावास में हमारे साथ मोहल्ले के तमाम लोगों के बीच में बैठा राजस्थान पुलिस का एक वरिष्ठ सदस्य कहता है. वहीं गबरूराम मेघवाल भी बैठे हैं. इनके बेटे मदनलाल को 9-10 महीने पहले जाट लड़कों ने निशाना बनाया था. “रात तीन बजे वे आए और हॉकी से मदन के पैर तोड़ दिए.” “क्यों मारा?” मेरा प्रश्न है. “वजह कुछ नहीं थी.पिछली रात जाट लड़के शराब पीकर हल्ला कर रहे थे. मदन ने बस इतना कहा कि हल्ला न करो. यह बात उन्हें लग गई.” “आपने पुलिस में रिपोर्ट किया?” “हाँ, नामजद रिपोर्ट लिखाई. पप्पूराम खदाव, दीपूराम डांगा के नाम थे.” “पुलिस ने क्या कार्यवाही की?” गबरूराम थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले- “कुछ नहीं किया. उलटे हमें डरा-धमका कर गांववालों ने सुलह समझौता करवा दिया. कोई मददगार नहीं हमारा.”
     हमलोग कोर कमेटी के सदस्यों से मिलना चाहते थे. यह कमेटी डांगावास के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए बनी है. कोर कमेटी में चार सदस्य हैं- रेणु मेघवंशी, डॉ.अशोक मेघवाल, गोपालदास वाल्मीकि और क्षेत्रमणि टेपण (खटीक समाज के अध्यक्ष). कमेटी के सदस्य अजमेर में रहते हैं. हम रात हुए डांगावास से लौटे. मिलने या फोन करने का वक्त नहीं था. मैंने दिल्ली आकर रिपोर्ट तैयार करने से पहले कोर कमेटी की सर्वाधिक सक्रिय मेंबर रेणु को फोन किया. विस्तार से बात हुई. रेणु ने बताया कि कमेटी ने 18 सूत्री मांग पेश की है. जो मुआवजा दिया गया है वह सामान्य परिस्थितियों का है. “डांगावास के मृतक जहर खाकर नहीं मरे. उन्होंने अपने हाथ-पाँव खुद नहीं तोड़े. उन पर ट्रैक्टर चलाकर मारा गया है. मृतकों के आश्रितों को जो पांच लाख बासठ हज़ार और पांच सौ का चेक दिया गया है, हम मांग कर रहे हैं कि उन्हें कम से कम पचीस लाख का मुआवजा मिले. इसके साथ एक आश्रित को नौकरी दी जाए. जो जमीन अभी दबंगों के कब्जे में है उसे वास्तविक हकदारों के अधिकार में लाया जाए. दलितों की जान-माल की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया जाए...”
     रतनाराम का परिवार तो अब शायद ही कभी संभल सके. लेकिन क्या इस परिवार को न्याय मिल पाएगा? क्या अपराधी दंडविधान के दायरे में लाए जाएंगे? क्या नागौर में दलितों का उत्पीड़न रुकेगा? क्या देश में संविधान का शासन चलेगा?
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