चन्द्रिका
(मूलरूप से द वायर में प्रकाशित)
वे गाय को बचा रहे हैं और गांव को खत्म कर रहे हैं. गांव बचेगा तो गाय खुद ही बच जाएगी. वैसे यह कहना भी ख़तरनाक हो गया है. फिलहाल कुछ भी कहना ख़तरनाक हो गया है. सुनने के लिए दो लोगों के नाम बचे हैं और इसी के उन्माद में जाने कितने लोग फंसे हैं. फंसे हैं कि उन्हें लगता है कि यही है जो उन्हें उबार देगा. उन्हें उनके दुख और डर से निकाल लेगा. वे भीतर से डरे हुए लोग हैं जो उन्मादी हो गए हैं. हत्या और उन्माद के लिए उन्हें वहीं से ताकत मिल रही है. जबकि एक को दूसरे से शोहरत मिल रही है.
जहां कोई नाम बहुत बड़ा बना दिया जाता है. उसकी मान्यता बढ़ा दी जाती है और एक समूह भक्त बन जाता है. धर्म, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी कहीं भी इसे देखा जा सकता है. वे एक अदृश्य ताकत के बल पर फलते-फूलते हैं और तलवार की तरह समाज के चेहरे पर झूलते हैं. वे, जो गाय की रट लगाए हुए हैं. वे जो कोई भी मांस न खाने की हठ लगाए हुए हैं. वे गाय प्रेमी नहीं हैं. अगर होते तो गाय और गांव के संबध को समझते. कि वह गांव खत्म हो रहा है जहां गाय रह पाती थी. गांव वह बच रहा है जहां गाय की जगह दो गऊ जैसे बूढ़े ही बच पा रहे हैं. इसी विकास की प्रक्रिया ने गाय पालने वाले लोगों को गांव से बाहर कर दिया है. खेतीबाड़ी तबाह कर उन्हें शहर में भर दिया है. शहरों और शहरों के बीच अथाह भरे हुए इलाकों के बीच जो रिक्त स्थान है, वही गांव है. इन रिक्त स्थानों को गाय से नही भरा जा सकता. गाय से कोई भी रिक्त स्थान नहीं भरा जा सकता. फिलहाल जहां-जहां गाय लिखा जा रहा है, जहां-जहां गाय बोला जा रहा है. नफरत का कोई और ही चीज घोला जा रहा है. दो समुदायों के बीच जो बना हुआ, बचा हुआ रिश्ता था उसका धागा खोला जा रहा है.
गाय के बहाने वे उससे अपनी नफरत जता रहे हैं. सुअर (बाराह) जो उनके मिथक में ईश्वर था उसके खाए जाने, मारे जाने पर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं. सवाल नहीं उठना चाहिए. न गाय पर न सुअर पर. खानपान के अलग-अलग भौगोलिक, सांस्कृतिक कारण हैं. वैसे उन्हें किसी की संस्कृति का सम्मान नहीं है. उन्हें किसी से प्यार नहीं है. न मुल्क से, न गाय से, न गांव से, न गोरू से. क्योंकि गांव और गाय वाले मुल्क का बचना एक अलग तरह से बसना है. पूरी तरह से एक अलग अर्थव्यवस्था को रचना है. जिसे उजाड़ा गया और उजाड़ा जा रहा है. गाय से प्यार बगैर चरागाहों के नहीं हो सकता. गाय से प्यार बिना बैलों और हरवाहों के नहीं हो सकता. शहर चरागाह नहीं बना सकते. वहां हम हल बैल नहीं चला सकते. वहां तो हम खुद ही हर रोज कातिक के बैल बने हुए हैं. शहर जितने बड़े हैं हम उतना ज्यादा मिट्टी में सने हैं. इन घनी बस्तियों की बहुतायत आबादी जमीन से ऊपर सीढ़ियों वाले छतों की है. जानवरों ने अभी अपने को इस मुताबिक नहीं बनाया. सीढ़ियों पर चढ़ने और छतों पर रहने के लायक खुद को नहीं ढाला. हम हैं कि यह सब नहीं सोचते. अपनी ज़िंदगी और अपनी आंख से न देखकर गाय और गोबर में अड़े हुए हैं.
वन बीएचके में कोई कैसे गाय बसाएगा. बस वह अपनी दौड़ती-फिरती ज़िंदगी में जब भी गाय का नाम सुनेगा भावुक हो जाएगा. उसके लिए वन बीएचके की भी जरूरत नहीं. ट्रेन की सीट पर भी बैठकर गाय को लेकर भावुक हुआ जा सकता है. गाय को पालने और बचाने की बात वहीं पर ठहरी हुई है और हररोज ट्रेन हमे शहर की तरफ लिए जा रही है. शहर की भीड़ हररोज और बढ़ रही है. आसपास के गांव को अपने भीतर कर रही है. इंसान का ही रहना यहां मुहाल है. यह तो गाय को बचाने और बसाने का सवाल है.
गाय के बहाने वे उससे अपनी नफरत जता रहे हैं. सुअर (बाराह) जो उनके मिथक में ईश्वर था उसके खाए जाने, मारे जाने पर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं. सवाल नहीं उठना चाहिए. न गाय पर न सुअर पर. खानपान के अलग-अलग भौगोलिक, सांस्कृतिक कारण हैं. वैसे उन्हें किसी की संस्कृति का सम्मान नहीं है. उन्हें किसी से प्यार नहीं है. न मुल्क से, न गाय से, न गांव से, न गोरू से. क्योंकि गांव और गाय वाले मुल्क का बचना एक अलग तरह से बसना है. पूरी तरह से एक अलग अर्थव्यवस्था को रचना है. जिसे उजाड़ा गया और उजाड़ा जा रहा है. गाय से प्यार बगैर चरागाहों के नहीं हो सकता. गाय से प्यार बिना बैलों और हरवाहों के नहीं हो सकता. शहर चरागाह नहीं बना सकते. वहां हम हल बैल नहीं चला सकते. वहां तो हम खुद ही हर रोज कातिक के बैल बने हुए हैं. शहर जितने बड़े हैं हम उतना ज्यादा मिट्टी में सने हैं. इन घनी बस्तियों की बहुतायत आबादी जमीन से ऊपर सीढ़ियों वाले छतों की है. जानवरों ने अभी अपने को इस मुताबिक नहीं बनाया. सीढ़ियों पर चढ़ने और छतों पर रहने के लायक खुद को नहीं ढाला. हम हैं कि यह सब नहीं सोचते. अपनी ज़िंदगी और अपनी आंख से न देखकर गाय और गोबर में अड़े हुए हैं.
वन बीएचके में कोई कैसे गाय बसाएगा. बस वह अपनी दौड़ती-फिरती ज़िंदगी में जब भी गाय का नाम सुनेगा भावुक हो जाएगा. उसके लिए वन बीएचके की भी जरूरत नहीं. ट्रेन की सीट पर भी बैठकर गाय को लेकर भावुक हुआ जा सकता है. गाय को पालने और बचाने की बात वहीं पर ठहरी हुई है और हररोज ट्रेन हमे शहर की तरफ लिए जा रही है. शहर की भीड़ हररोज और बढ़ रही है. आसपास के गांव को अपने भीतर कर रही है. इंसान का ही रहना यहां मुहाल है. यह तो गाय को बचाने और बसाने का सवाल है.
सारे रोजगार, सारे संस्थान शहर में हैं. सारी मुफलिसी, सारी तंगी घर में है. एक को तो छोड़ देना पड़ेगा. या इस विकास के रास्ते को ही मोड़ देना पड़ेगा. शहर टूटेंगे गांव तभी बस पाएगा. गाय तभी बस पाएगी. जब गाय सिर्फ धरम के लिए नहीं होगी. जब गोमूत्र सिर्फ पीने के लिए नहीं होगा. जब गोबर सिर्फ हवन के लिए नहीं होगा. वह खेतों में खाद के लिए होगा, उपजाऊं अनाज के लिए होगा. हमारे जीवन की पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होगा. होंगे सारे जानवर. गाय जैसा होगा उनका भी होना.
पर ऐसा नहीं होगा इस सरकार से. इससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा और उससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा. क्योंकि इस मुल्क के विकास के लिए उनके पास वही खाका है. जिससे बना न्यूयार्क है, जिससे बना ढाका है. मुल्क हमारे अलग हैं पर उनका विकास, हमारा विकास एक है. गाय के मामले में वे हमसे ज्यादा नेक हैं. हम बड़ी आबादी वाले देश को बगैर गांव के नहीं जीना था. हमारे कपड़े अलग थे हमे अपने तरीके से सीना था. हम न्यूयार्क नहीं हो सकते, हम जापान नहीं हो सकते. कई मुल्कों की लाशों पर चमकता हुआ शहर दुनिया में बहुत कम बन सकता है. अमेरिका बनना कई मुल्कों के इतिहास, भूगोल को निगल जाना है. अमरीका बनना कई मुल्कों का पड़ोसी मुल्कों से युद्ध कराते रहना है. अमेरिका होना दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार तैयार करना है. हथियार तैयार करना भविष्य में तबाही और भय की उम्मीद को ज़िंदा रखना है. दुनिया में हम सबको असुरक्षित रखने का ही नाम है सबसे विकसित देश का नाम. हम उसी का पीछा करते हुए कुछ दशक पीछे हैं. शायद हम हमेशा पीछा करने वाले देश ही रहेंगे. हम आगे तभी जा सकते हैं जब वह पीछे जाए. इस एक लाइन वाली दुनिया की व्यवस्था में ऐसे ही सबको खड़े होना है. आगे जाने के लिए कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि अपने से आगे वाले को पीछे छोड़ा जाए, इसके लिए उसकी बांह मरोड़ा जाए.
हमे भारत बनाना था. जहां सबको बसना था. जहां इतिहास में सबके हिस्से थे. जहां जातीयों के जुल्म के भी किस्से थे. हमे उसे खतम करना था. हमने वह नहीं किया. हमने वह नहीं सोचा. दुनिया के उन मुल्कों के उधारी विकास को हमने अपनी मिल्कियत बना ली. अब जो है वह भयावह है. उनके विकास का ही मॉडल शहर है कि हमे भी उसे ज़हर की तरह पीना पड़ रहा है. मौत के पहले हर रोज की मौत को जीना पड़ रहा है. युवा उम्र के लोग अफवाह की तरह फैल गए हैं, इन शहरों में. निराधार, हर रोज बदल दिए जाने वाली ख़बर की तरह. पहले उन्हें नौकरी न पाने के ख़तरे हैं, नौकरी पाने के बाद इसके छिन जाने के ख़तरे हैं. इन खतरों से जो बचा हुआ मोहलत का वक्त होता है उसमे वे खुद भी खतरनाक हो जाते हैं. कहीं उन पर ख़तरा है तो कहीं वे उससे उबरने के लिए खुद खतरा बन रहे हैं. उन्माद यहीं से पैदा होता है. व्यवस्था उन्हें खतरे में डालती है और उससे उबरने के लिए उन्हें खतरनाक बनाती है. तब गाय ही सबसे बड़ा सवाल बना दिया जाता है. गांव वहां से फिर भी हट जाता है.
जिन्हें इतनी असुरक्षाओं के बीच ज़िंदा रहना और बचे रहना है उन्हें नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती. नैतिकता उस ढांचे से पनपती है जहां आप जीवन जी रहे होते हैं. अर्थतंत्र पर टिकी इस दुनिया में आर्थिक तंगी के बीच आप किसी को ईमानदार नहीं बना सकते. ईमानदार बनाने की धारणा बना सकते हैं. इस आधार पर एक राजनैतिक पार्टी बना सकते हैं. सदी के सबसे बड़े झूठ को सच बना सकते हैं. और भी बहुत कुछ बना सकते हैं पर ईमानदार इंसान नहीं बना सकते. क्योंकि इंसान अपने समाज की जरूरतों और ढांचों से अपने मूल्य बनाता है. न कि उसके मूल्य के आधार पर ढांचा बन पाता है. बहते हुए नाले का पानी अगर साफ हो तो सारी चीजें अपने मूल रंग में दिख सकती हैं. एक-एक चीज को निकालकर उसे धुलकर उसका रंग दिखाना सिर्फ बहकावा है. ऐसे बहकावे में ही उन्माद भी है, हिंसा भी है और वह सबकुछ है जो पूर्णता में किसी चीज को देखने से रोक देगा. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा और हर कोई परेशान रहेगा.
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