15 अक्तूबर 2014

महिषासुर दिवस के मायने

दिलीप ख़ान
(जब जेएनयू में पहली या दूसरी बार महिषासुर दिवस मनाया गया था तो उस वक़्त ये टिप्पणी लिखी थी। मेल से निकालकर यहां पेस्ट कर रहा हूं। इसे सवर्णों से लड़ने के तौर-तरीके की भीतरी आलोचना के तौर पर लिखा गया है।) 

दुनिया और भारत के प्राचीन इतिहास को पढ़ते हुए कोई भी इतिहास का विद्यार्थी कभी किसी दुर्गा नाम के चरित्र से नहीं टकराया। इतिहास के मुताबिक़ ऐसा कोई चरित्र मानव सभ्यता के विकासक्रम में था ही नहीं। अगर होता तो यह अरब या यूरोप-अमेरिका के देशों में रहने वाले वहां के निवासियों के लिए परिचित चरित्र होता। यानी एक ख़ास भूगोल में रहने वाले ख़ास धर्म के भीतर ख़ास तबके ने अपने धर्म की गाथा फैलाने के उद्देश्य से इस चरित्र को गढ़ा। अनेक चरित्र गढ़े गए, जिनमें दुर्गा भी एक हैं। दुर्गा की कहानी अकेले पूरी नहीं हो सकती, तो महिषासुर के अलावा और भी चरित्र बने। अब इस चरित्र को लेकर मोटे तौर पर तीन वर्ग बंटे हैं। पहला, जो दुर्गा की मौजूदा कहानी को मान्यता देता है और उसके साथ है। दूसरा, जो दुर्गा की कहानियों को नए सिरे से डीकोड करके उसमें खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किए गए पात्रों को मौजूदा दमित अस्मिता के साथ खड़ा करता है और दुर्गा को इस आधार पर चुनौती देता है। तीसरा, जो दुर्गा और महिषासुर को काल्पनिक चरित्र मानता है और इन दोनों को खारिज करता है। 

मिथक किसी भी समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। धार्मिक दायरे के भीतर चरित्र जैसे ही घुसता है तो उसके होने-ना होने या फिर कितना होने और कैसा होने के सवाल का आम तौर पर लोप हो जाता है। क्योंकि धर्म के मसले पर सवाल से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है कि आप उसमें वर्णित प्रसंगों को कितना फॉलो करते हैं। जितना यक़ीन, उतने धार्मिक। उतने मिथक के करीब और उतने मिथक बनाने वाले की राजनीति के भी। मिथकों में मौजूद चरित्रों की कहानियों या फिर उनकी प्रस्तुति पर जैसे ही शक शुरू होता है मिथकों का क़िला भी ढहने लगता है। नई व्याख्याओं के ज़रिए हो सकता है कि मिथक के मुख्य (हीरो या हीरोइननुमा) चरित्र की सादगी, राजनीति, सच्चाई और ईमानदारी पर सवाल उठे और मिथक के भीतर उनकी मौजूदगी का लुभावना पक्ष सवालों के घेरे में आ जाए। व्याख्याओं के ज़रिए ऐसा होता है, चाहे वो कहानियों की हो, चाहे फ़िल्मों की। इसलिए व्याख्या अच्छी चीज़ है। समाज जब गतिशील होता है तो व्याख्याओं की संभावना लगातार बनी रहती है। मिथक में खलनायक के तौर पर पेश किए गए चरित्र को बिल्कुल नए सिरे से नायक भी बनाया जा सकता है और नायक/नायिका को खलनायक वाले खांचे में पहुंचाया जा सकता है। 

ऐसा करने का सबको बराबर हक़ है। ठीक उसी तरह जैसे प्रेमचंद, निराला या फिर जयशंकर प्रसाद के पात्रों की व्याख्या होती है और नए अर्थ खुलते हैं। व्याख्या करने का हक़ नहीं छीना जा सकता। ये बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार है। अगर किसी को दुर्गा स्थापना करने का हक़ है तो किसी को महिषासुर स्थापना का भी। एक कर रहा है तो दूसरा भी करे। मौजूदा वर्चस्वशाली धार्मिक आख्यान को चुनौती देने के लिए व्याख्याओं के ज़रिए जो प्रति-नायक खड़ा करने की बात है, एक अर्थ में है तो वो ठीक, लेकिन जैसे ही व्याख्याओं से आगे जाकर पूरा मामला उसी तरह श्रद्धा में टिक जाता है, तब मिथकीय घटना दोनों तरफ़ से सच्चाई के तौर पर स्थापित हो जाती है। यानी पूरा मामला ऐसा हो जाता है कि घटना तो घटी थी, मसला सिर्फ़ व्याख्या का है। यानी एक दुर्गा थी, एक महिषासुर थे। अपने समूचे अस्तित्व में वो इतिहास के किसी कालखंड में किसी जगह पर जन्में थे। पता नहीं किस काल में, लेकिन जन्में थे। हड़प्पा के बाद या फिर मौर्य काल में या फिर हद से हद दिल्ली सल्तनत के दौरान।

जब भक्ति का जवाब भक्ति से दिया जाने लगे तो बदले की कार्रवाई जैसा कुछ तो हो सकता है लेकिन एक वैज्ञानिक तर्कशील समाज की रचना की दिशा में बढाया गया कदम नहीं हो सकता। फ़र्ज कीजिए कि कल को 60 करोड़ लोग दुर्गी के बदले महिषासुर को पूजने लगे, क्या फ़र्क पड़ जाएगा? क्या पूजने से राजनीतिक मानस बदल जाएगा? इस देश में पूजा, भक्ति और राजनीति के बीच के बहुस्तरीय संबंध को देखने के बाद इस स्थापना को मान पाना बहुत मुश्किल है। एक वैज्ञानिक समाज बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि श्रद्धा के ऐसे मामलों पर प्रमाण के लिए दबाव बनाया जाए। मसलन जैसे ही कोई बोले कि दुर्गा थी तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुर्गा का जन्म किस ईस्वी में हुआ। ठीक इसी तरह महिषासुर को अगर सच्चाई के रूप में पेश किया जा रहा है तो उनके जन्म और मृत्यु का साल बताया जाना चाहिए। 

दलित-ओबीसी के वास्तविक राजनीतिक संघर्ष को प्रतीकों के ज़रिए श्रद्धा के सवाल पर टांगना चिंताजनक है। ज़रूरी ये है कि मिथक की व्याख्या तो हो, लेकिन व्याख्या के दौरान ये पूरी तरह स्पष्ट हो जाए कि मिथक काल्पनिक चीज़ है। एक डिसक्लेमर हो- इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं।’ 

हिंदी की मुश्किलें कहां हैं

-दिलीप ख़ान

हिंदी दिवस और पखवाड़ा बीत चुका है। लिहाजा, हिंदी पर ‘बातचीत और चिंतन’ की इस सरकारी सक्रियता के बाद के वक़्त में इस पर बात करनी ज़रूरी लग रही है क्योंकि अब अगले सितंबर में ही इस भाषा की सुध लेने की कोशिश होगी। और, इस कोशिश के दरम्यान लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च कर चर्चा और जागरुकता अभियान जैसी कवायद के संकल्प के साथ इसे फिर अगले सितंबर में दोहराने को छोड़ दिया जाएगा। मैं इस बहस में नहीं पड़ रहा हूं कि हिंदी दिवस मनाए कि नहीं मनाए, कि दिवस अमूमन कमज़ोर चीज़ों का मनाया जाता है। मैत्रेयी पुष्पा ने 14 सितंबर को एक संगोष्ठी में इसी पसोपेश के साथ अपनी बातों की शुरुआत की थी। इशारा ये था कि सेठों, पुरुषों और अंग्रेज़ी का दिवस नहीं होता बल्कि इसकी बायनरी में खड़ी चीज़ों (मज़दूरों, स्त्रियों और हिंदी) का होता है। 

हिंदी की तमाम उत्सवधर्मिता और रुदाली के तमाम आख्यानों से निकलकर ठोस ज़मीनी हालात पर बहस करने की ज़रूरत अब भी शेष है। चंद सवाल ऐसे हैं, जिन पर दशकों से चर्चा हो रही हैं और ऐसा लग रहा है कि दशकों ये चर्चा के केंद्र में रहेंगे। इनमें हिंदी का भविष्य क्या है, हिंदी ज्ञान की भाषा क्यों नहीं बन पा रही, हिंदी को दोयम दर्ज़े का बरताव हासिल है, हिंदी बाज़ार और करियर की भाषा बन पा रही है या नहीं आदि प्रमुख हैं। लेकिन इनसे आगे का सवाल ये है कि हिंदी की बेहतरी के लिए क्या किया जाए और हिंदी के नाम पर चल रहे आंदोलनों, प्रदर्शनों और संवेदनात्मक धरातल पर इससे उपजीं खीझ-खिसियाहट की राजनीतिक दिशा क्या हो?
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग या फिर कई दफ़ा राजभाषा और राष्ट्रभाषा में फर्क नहीं कर पाने की स्थिति में इसे सचमुच राष्ट्रभाषा के तौर पर रेलवे प्लेटफॉर्म सहित कई जगहों पर नीली-लाल स्याही से लिखने की रूमानियत से ना तो हिंदी की बेहतरी मुमकिन है और ना ही ये मज़बूत बनने वाली है। 

हिंदी क्यों राष्ट्रभाषा हो? क्या इसलिए कि ये देश में सबसे ज़्यादा लोगों द्वारा बोली-बरती जाती है? जब इतने लोग बोलते-बरतते हैं तो भाषा की उन्नति का आत्मविश्वास राष्ट्रभाषा जैसे जुमले में क्यों तलाशा जा रहा है? संख्या को आधार बनाए तो फिर समस्या का समाधान ही हो गया। फिर क्यों कम लोगों द्वारा बोले जाने वाली अंग्रेज़ी को आक्रामक भाषा के तौर पर हिंदी पट्टी और हिंदी को लेकर चिंतित लोग देख रहे हैं? जाहिर है कि अंग्रेज़ी को जिस तरह का सरकारी प्रश्रय मिला है और जिस तरह व्यवस्था में अंग्रेज़ी जानने वालों को सिर्फ़ इस आधार पर लाभ मिल रहा है कि वो अंग्रेज़ी में ख़ुद को संप्रेषित कर सकते हैं, वो चिंता का मूल मुद्दा है। यानी, भाषा के आधार पर किसी भी तरह के विभेद को ख़त्म करना हिंदी के भविष्य, चुनौतियों, बेहतरी आदि तमाम प्रश्नों के केंद्र में है।
मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित

इसलिए इस विभेद को ख़त्म करके ‘राष्ट्रभाषा’ हिंदी का प्रभुत्व स्थापित करना हिंदी वालों के लिए लाभदायक, खुशफ़हम लेकिन राजनीतिक तौर पर प्रतिगामी कदम होगा। जब हिंदी के लोग ये अपेक्षा करते हैं कि तमिल, तेलुगू या मणिपुरी जानने वाले लोगों को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए तो ये सवाल पलटकर भी पूछा जा सकता है कि कितने हिंदीभाषी अपनी सहूलियत को त्यागकर दूसरी भारतीय भाषा सीखने की कोशिश करते हैं? हिंदी को लेकर मोह अगर सिर्फ़ इसलिए है कि आप अंग्रेज़ी नहीं जानते और अंग्रेज़ी से मात खा रहे हैं तो इस मोह में भाषाई उन्नति की ईमानदार कोशिश कम और हिंदी में ही सीमित अपने ज्ञान को स्वीकार करवाने की मजबूरी ज़्यादा है।
हिंदी आंदोलन एक ख़ास भौगोलिक हितों की रक्षा के अंतर्निहित भाव का अगर आंदोलन बनता है तो निश्चित तौर पर आगे चलकर ये दूसरी अंग्रेज़ी बनकर रह जाएगी। लेकिन, हालात अभी इसके ठीक उलट हैं। अभी हिंदी और तमाम भारतीय भाषाओं के लोग ज्ञान की धरातल पर भाषा की दीवार को तोड़ने की कोशिश में हैं ताकि अंग्रेज़ी को सिर्फ़ अंग्रेज़ी होने का बेजा लाभ ना मिल सके। 

मसला ये है कि हिंदी की परवाह और चिंता करने वाले लोग कौन हैं? क्यों हिंदी भाषा पर बात करते समय हिंदी साहित्य को इसका पर्याय मान लिया जाता है? क्यों हिंदी के इतिहास की चर्चा में अमूमन साहित्य का ही ज़िक्र होता है? हिंदी की इस चिंतनपद्धति ने भाषा का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है। सिर्फ़ साहित्य की पीठ पर सवार होकर कोई भाषा टिकाऊ नहीं बनी रह सकती। साहित्य बदलाव, रसास्वादन, इंक़लाब और समय काटने का ज़रिया एक साथ बन सकता है और किसी भाषा को टिकाए भी रख सकता है लेकिन उसे समाज की मांगों के अनुरूप इज़्ज़त और रुतबा नहीं दिला सकता। ये इज़्ज़त और बराबरी तब मिलेगी जब ज्ञान के बाक़ी अनुशासनों में हिंदी को व्यावहारिक समानता हासिल हो। 

अगर सरकार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को माध्यम के बतौर प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ाती है तो क्या कारण है कि वही सरकार नौकरियों में अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देती नज़र आती है? अगर सरकार को अंग्रेज़ी की ज़रूरत मालूम पड़ती है तो फिर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी क्यों नहीं है? दरअसल ये व्यवस्था से जुड़ा बुनियादी सवाल है। ये एक साथ भाषा, वर्ग और गांव-शहर के बीच के फासलों से नत्थी सवाल है। लिहाजा ये सामाजिक न्याय का सवाल है। 

गांव में हिंदी माध्यम में पढ़ा कोई दलित-आदिवासी अगर उच्च शिक्षा के लिए देश के किसी अग्रणी विश्वविद्यालय में आरक्षण के अधिकार के बूते नामांकन पाता है, तो क्या कक्षा में अचानक दूसरी भाषा को माध्यम के बतौर अपनाने की हालत में वो सहजता हासिल कर सकेगा? हालांकि ये बात एक साथ आरक्षित-अनारक्षित किसी भी ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी लोगों पर लागू हो सकती है, लेकिन अलग-अलग सर्वेक्षणों के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ें हमें बताते हैं कि सबसे ज़्यादा संख्या में दलित और आदिवासी ही अभी अपनी पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। 

हिंदी में उच्च शिक्षा नहीं होने के क्या कारण हैं? क्या हिंदी में शिक्षण सामग्री उपलब्ध नहीं है या फिर हिंदी में उच्च शिक्षा की शब्दावली विकसित नहीं हुई है? ये दो सवाल ऐसे हैं जिनका कोई आसान जवाब नहीं है और सबसे ज़्यादा इन्हीं मोर्चे पर काम करने की भी दरकार है। हिंदी में लोग पढ़ना नहीं चाहते, ये सवाल नितांत बेमानी है। सबसे ज़्यादा बिकने वाली हिंदी पत्रिकाओं की सूची पर नज़र दौड़ाइए तो इसमें प्रतियोगिता दर्पण शीर्ष पर हैं। यानी रोज़गार की सामग्री लेपेटे हिंदी अगर लोगों के बीच जा रही है तो लोग उसे अपना रहे हैं। जाहिर है जिस भाषा में रोज़गार नहीं मिलेगा उसमें बोल-चाल और हंसी-मज़ाक से ज़्यादा उन्नति वाले सिरे पर कोई व्यक्ति क्यों ज़ोर लगाएगा? सामाजिक विज्ञान से लेकर दूसरे अनुशासनों में हिंदी माध्यम की सामग्रियों में अल्प मात्रा में आए अनुवादों को छोड़ दें तो मूल लेखन कितने हुए हैं? 

सच मानिए तो इन विधाओं में हिंदी में जिस तरह रवां-दवां तरीके से लेखन हो रहे हैं उसमें बौद्धिक स्तर का अभाव, सिद्धांतों-अवधारणाओं का लोप और सतहीपन ज़्यादातर मौक़ों पर साफ़ झलकता है। पुरानी कुछ किताबों को छोड़ दीजिए तो हाल में हिंदी की कितनी श्रेष्ठ किताबें इन विधाओं में लिखी गई हैं? हिंदी की बेहतरी की दिशा में कोशिश करने की बजाए लेखक बनने की छटपटाहट और किताब लिखने से विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक बनने की दावेदारी के मज़बूत होने की कवायद ज़्यादा झलकती हैं। जो समाज वैज्ञानिक हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों जानते हैं और हिंदी में लिख सकने के बावजूद अंग्रेज़ी में लिखते हैं वो हिंदी में रॉयल्टी की मात्रा से परिचित हैं लिहाजा अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से ये उनका ये फ़ैसला बिल्कुल मुफ़ीद है। 

हिंदी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा उच्च शिक्षा और रोज़गार में इसके साथ बरते जाने वाला भेद-भाव है। वरना, हिंदी बाज़ार में फर्राटेदार दौड़ रही है। कटरीना कैफ़ सरीखी अभिनेत्री अगर पेशानियों पर ज़ोर डालकर हिंदी के संवाद याद करती हैं तो इसलिए कि बॉलीवुड में हिंदी को मथने से पैसा निकलता है। भारत (और पाकिस्तान भी) के बड़े हिस्से में पहुंच अंग्रेज़ी की बदौलत नहीं बनाई जा सकती। बॉलीवुड अपनी सुविधा, अपने मुनाफ़े के लिए हिंदी को पकड़े हुए है और इसमें कोई भी ऐसी क्रांतिकारी इच्छाशक्ति नहीं है कि वो हिंदी का प्रचार करे। फर्ज कीजिए कि किसी दिन अंग्रेज़ी ने हिंदी को अपदस्थ कर दिया, तो बॉलीवुड के लिए अंग्रेज़ी में स्विच करना बहुत देरी वाला काम नहीं होगा। हिंदी चिंतन और रोज़गार की भाषा जब तक नहीं बनेगी और जब तक एकाग्र होकर इस दिशा में ज़ोर नहीं लगाया जाता तब तक हिंदी के नाम पर तमाम चिंतन-मनन अधूरी और बेमानी रहेगा। 

इसे दुरुस्त करने के लिए दो प्रयासों के ज़िक्र को दोहराने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। पहला, सरकार उच्च शिक्षा में इसे बराबरी का दर्ज़ा दे और दूसरा हिंदी के लिए चिंता करने की बजाए इस भाषा को जानने-समझने वाले लोग इसमें ज्ञान का सृजन करें। यह सृजनात्मकता अगर स्थगित रही तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में हिंदी का कोई भी बेहतर लेखन पाठकों को ये भरोसा दिलाने में नाकामयाब रहेगा कि वो सचमुच मौलिक और बौद्धिक स्तर पर उच्च मानदंड पर खरा उतरने वाला लेखन है। क्योंकि, इस दौरान हिंदी में इतनी लद्धड़ क़िस्म की किताबें इसी रफ़्तार से छपनी जारी रही तो सचमुच हिंदी में इन अनुशासनों को पढ़ने से विश्वास ही उठ जाएगा। 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के दौरान जब पत्रकारिता के हिंदी माध्यमों की किताबों में नारद मुनि को आदि पत्रकार के मिसाल के बतौर हम पढ़ते थे तो हंसी, विस्मय, जुगुप्सा और अजीब सी उदासी हमें घेर लेती थी। हर साल इस तरह की किताबों में इजाफ़ा हो रहा है। लिहाजा, हिंदी को बाहर के साथ-साथ भीतरी चौहद्दी में भी लड़ने की ज़रूरत है। अगर ये लड़ाई नहीं लड़ी गई तो हिंदी में ज्ञान के नाम पर नकली चीज़ें परोसी जाती रहेंगी और दूसरी तरफ़ एक अच्छे सुबह रैपीडैक्स हिंदी को निगलकर डकार मारते हुए चलता बनेगा।