30 मार्च 2012

सी. आर. पी. एफ.-- देश के ये जो देश भक्त जवान हैं.


आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, झारखण्ड के मानवाधिकार संगठनों के १७ सदस्य जांच दल ने २५ से २९ मार्च २०१२ के बीच तीन जिलों लातेहार, गढ़वा, और पलामू का दौरा किया. इस दौरे में मानवाधिकार हनन के कुछ नए मामलों के साथ-साथ कुछ पुराने मामलों में हुई कार्यवाही की भी जांच की गयी. पिछले दिनों झारखण्ड राज्य जल जंगल ज़मीन के अधिकारों के संघर्षों और ओपेराशन ग्रीन हंट के लिए चर्चा में रहा है. जहां जनता के संघर्ष चल रहे हैं वह उन्ही इलाकों में पुलिस पिकेट, सी आर पी एफ कैंप आदि के रूप में सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती की गयी है . यह इस बात का एक लक्षण मात्र है की किस प्रकार राज्य जन विरोधी विकास नीतियों के खिलाफ जनता के संघर्षों को कुचलने का प्रयास कर रहा है . जिन मामलों की छान बीन हमने की उससे सरकार की अमीर परस्त विकास नीति उजागर हो जाती है जिससे कई और मुद्दे भी सामने आ जाते हैं.

दल ने कुल दस मामलों की मौके पर छान बीन करने का प्रयास किया. इनमे से कुछ निम्नलिखित हैं:


१. संजय प्रसाद, बरवाडीह, लातेहार- हमारा जांच दल जैसे अपने दौरे पर लातेहार के एक स्थान से निकल पड़ा था, संजय प्रसाद के पिता और भाई उसकी आपबीती सुनाने हमारे पास चले आये. २१ मार्च २०१२ को किसी पूछताछ के सिलसिले में थाणे ले जाया गया था. चार दिनों तक उसे पुलिस हिरासत में ही रखा गया जब की परिजनों को बताया जा रहा था की उसे पहले ही दिन छोड़ दिया गया है. दो दिन बाद संजय को मंडल और चेमु संय कके बीच के जंगलों से गिरफता दिखाया गया. २६ मार्च को जब अखबारों में संजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट छपी तो पुलिस ने कहा की उसे माओवादी और मंडल-चेमु संय के जंगल में बम्ब लगाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है. विदित है की २०१२ में अब तक उस क्षेत्र में कही भी कोई बम्ब विस्फोट हुआ ही नहीं है.


२. जसिंता देवी, लादी गाँव, लातेहार - २७ अप्रैल २०१० को इस गाँव में माओवादियों और सी आर पी एफ के बीच एक मुट्ठबेढ़ हुई. तत्काल बाद अपने तलाशी अभियान के दौरान से आर पी एफ ने जसिनता देवी के छिपे होने का आरोप लगाया. घर को आग लगाने की धमकी देकर उन्होंने घर के सभी जनों को बाहर आने का फरमान दिया. जसिनता देवी घर के पिछवाड़े में लेटे हुए अपने बूढ़े चरवाहे को बुलाकर लाने की इजाज़त मांगी. जैसे ही वह बूढ़े चरवाहे के साथ आँगन में पहुंची उस तीन बच्चो की माँ को वही ढेर कर दिया गया और चरवाहा भी ज़ख़्मी हो गया. घर के अन्दर और छत पर आज भी गोलियों के निशाँ देखे जा सकते हैं और पीड़ितों के साथ आज तक कोई न्याय भी होता दिखाई नहीं देता. पुलिस के हाथों मारे जाने के कारण उसे ५ लाख रूपए और एक नौकरी अंतरिम राहत के तौर पर दी जानी चाहिए थी. लेकिन अब तक उस परिवार को सिर्फ १ लाख रूपए ही मिले हैं. दोषी पुलिस अफसरों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है. यहाँ तक की पीड़ित की शिकायत पर कोई प्रथिमिकी भी दर्ज नहीं हो पायी है.

३. लुकास मिंज, नवर्नागो, लातेहार - लुकास मिंज नाम का नवर्नागो का निवासी जो न सुन सकता था और न ही बोल सकता था, १ फ़रवरी २०१२ को सी आर पी एफ की गोली का शिकार बना. गाँव के पास की कोयल नदी पर अपने गाय-भैंस चराने गया था जबकि इसी दौरान पुलिस अपने अभियान पर थी. पुलिस के सवालों का जवाब न दे पाने के कारण, वह मारा गया. पाच दिन बाद उसकी लाश बालू में दबी पायी गयी. परिवार को आज तक कोई मुहाफ्ज़ा नहीं मिला है और न ही किसी पुलिस कर्मी के खिलाफ कोई कायवाही हुई है.

४. बलिगढ़ और होमिया, गढ़वा- इन गावों में स्थानीय सामंती तत्वों की मिलीभगत से एसार और जिंदल जैसी बढ़ी कंपनियों के नाम सैंकड़ों एकड़ ज़मीन कर दी गयी है. पिछले एक साल के दौरान आदिवासी और दलित समेत कुछ स्थानीय किसानो की ज़मीन राम नारायण पाण्डेय उर्फ़ फुल्लू पाण्डेय एवं कुछ अन्य व्यक्तियों के द्वारा फर्जी कागजात बनवाकर इन कंपनियों के नाम कर दी गयी है. इसमें भूदान की वह ज़मीन भी शामिल है जिसे खरीदा बेचा नहीं जा सकता. इस फर्ज़िबाड़े के तेहत जिस ज़मीन की लगान गाँव के किसानो के नाम वर्षों से वसूली जा रही थी उसका मालिकाना फुल्लू पण्डे के नाम लिखवा लिया गया. इस प्रकास होमिय में ११५ एकड़ और बलिगढ़ में ३३८ एकड़ ज़मीन उन गरीब किसानो से हथिया ली गयी जिन्होंने लगभग पच्चीस साल तक अपने संघर्षों की बदौलत इसका अधिकार प्राप्त किया था. उक्त फुल्लू पाण्डे पर इस गाँव कई सारे बलात्कारों आदि को अंजाम दिए जाने का आरोप है परन्तु किसी एक मामले में भी उसको कोई सज़ा नहीं हुई है. कोर्पोराते कम्पनियों और पुलिस अर्धसैनिक बालों के आगमन के साथ बदले शक्ति संतुलन के कारण आज एक बार फिर इस क्षेत्र के १०,००० निवासियों पर जीवन, आजीविका और सुरक्षा का खतरा मंडरा रहा है.

५. रामदास मिंज और फ़िदा हुसैन, गढ़वा- २१ जनवरी २०१२ को ग्राम पंचायत के मुखिया रामदास मिंज और उसी गाँव के फ़िदा हुसैन को तीन अन्य लोगों के साथ माओवादियों को भोजन खिलाने के आरोप में थाणे ले जाया गया. उसी दिन ग्राम पंचायत की एक ज़मीन पर निर्माणाधीन उप-स्वास्थय केंद्र के विरोध में एक शान्ति पूर्ण धरना भी चल रहा था. गाँव के लोग इसी ज़मीन पर आस पास के कई गावों पर लोगो के साथ मिलकर अपने वन उपज बेचा करते थे. जन उपरोक्त पांच व्यक्तियों की पूछताछ थाणे में हो रही थी, उसी दौरान उसी इलाके में माओवादियों ने एक बारूदी सुरंग का विस्फोट कराया. पुलिसवालों ने इसका दोष हिरासत में लिए गए ५ व्यक्तियों पर मढ़ा और आरोप लगाया की गांववालों का शान्तिपूर्वक धरना माओवाद्यों के बम्ब विस्फोट के लिए एक आढ़ था इन्हें जानवरों की तरह पीता गया और कुछ दिन बाद पांच में से तीन को छोड़कर रामदास और फ़िदा को संगीन आरोपों में जेल भेज दिया गया. यह घटना इस बात का ज्वलंत उदहारण है की किस प्रकार माओवादियों के खिलाफ लड़ने की आड़ में गाँव के गरीबों के जायज़ संघर्षों को दबाया जाता है.


६. कुटकू-मंडल बाँध परियोजना, ग्राम सान्या, गढ़वा- सान्या गाँव झारखण्ड के वीर नायक नीलाम्बर और पीताम्बर का पुश्तैनी गाँव है. उसी नीलाम्बर-पीताम्बर की जोड़ी का जिन्होंजे ने भूमि अधिकारों के लिए अंग्रेजों से लोहा लेकर अपनी जान कुर्बान की थी. आज यह गाँव कुटकु मंडल बाँध परियोजना के डूब क्षेत्र के बत्तीस गाँव और अन्य प्रभावित १३ गाँव में से एक है. मुहवाज़े के मानदंड कईं दशकों पहले हुए सुर्वे के आधार पर निर्धारित किये गए थे. बीते दशकों के दौरान उस क्षेत्र में बसे परिवारों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है जिनमे से बहुत ही कम परिवारों को मुवाव्ज़े के पात्र माना गया है. यहाँ के लोगों का पुनर्वास मर्दा में किया जा रहा है जहां की ज़मीन खेती के लिए कतई उपयुक्त नहीं है. यह क्षेत्र दरअसल सी आर पी एफ और पुलिस के दमन अभियानों के सबसे ज्यादा प्रभावित इलाको में से एक है.


७. राजेंद्र यादव, थाना छत्तरपुर, पलामू- इन्हें ३० दिसंबर २००९ को पौ फटने से पहले ही थाना ले जाया गया. थाणे लेजाकर लगातार तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के निवास पर पीट पीट कर मार डाला गया. राजेंद्र को क्यों शिकार बनाया गया, यह तो अभी भी स्पष्ट रूप से कहना संभव नहीं है. मगर यह बात की दो साल से चल रही उच्च स्तारिये पुलिस जांच के निष्कर्ष अभी तक सामने नहीं आये हैं, अपने आप में बहुत कुछ कह जाती हैं. इस दरमियान राजेंद्र की विधवा को कठिन संघर्ष के बाद सरकारी नौकरी मिल गयी है मगर सरकार दोषी पुलिस अफसरों को सजा देना तो दूर, दोष स्वीकारने को भी तैयार नहीं है. हर साल जब राजेंद्र की बरसी मनाई जाती है तो उसके परिजनों और मित्रो को तरह तरह से धमकाया जाता है और कार्यक्रम में अवरोध उत्पन्न किये जाते हैं.

८. बेह्रातांड, निकट सरयू पहाड़, लातेहार- ६ फ़रवरी २०१२ को ग्राम प्रधान बीफा पर्हैय्या समेत गाँव के ९ व्यक्तियों को सी आर पी ऍफ़ द्वारा उठाकर अपने कैंप में यातनाएं दी गयी. प्रधान बीफा की दाहिनी आँख पर गंभीर चोट लग गई और इन लोगों को केवल इसलिए पीटा गया की अर्धसैनिक बालों को यह शक हो गया था की उन्होंने माओवादियों को खाना खिलाया होगा. इस तरह के हमलों का खतरा तब तक मदरता रहेगा जब तक माओवादियों के खिलाफ ऐसे अभियान चलते रहेंगे.

९. बिरजू उरांव, मुर्गीदी ग्राम, लातेहार- इस गाँव के युवक बिरजू उरांव को सी आर पी ऍफ़ ने चत्वा करम नामक बाज़ार में धर दबोचा जब वह रात में किसी पारिवारिक समारोह से गत फ़रवरी माह में लौट रहा था. सुरक्षा बालों ने उसको न केवल बुरी तरह पीटा बल्कि तार काटने वाले औज़ार से उसकी सभी अँगुलियों के छोर को बेदर्दी के साथ काट दिया. बाद में मामला उठने पर स्थानीय पत्रकारों की मौजुद्गो में उसे मुहफ्ज़े के तौर पर एक बोरा चावल दिया गया. लेकिन जब इस घटना की खबर दूर तक फैली तब पुलिस ने मामे को दबाने के लिए प्रेस वार्ता आयोजित कर बिरजू से जबरन ये बयान दिलवाया की उस समय वह शराब पिया हुआ था इसलिए यह स्पष्ट रूप से नहीं बता पा रहा है की हमलावर सी आर पी एफ के ही थे.

कुल मिलाकर जांच दल अपनी जांच से पुलिस और सी आर पी एफ की ओर से हुए असंख्य अनावश्यक हत्याओं के मामले पाए. जहां भी ऐसी घटनाएं घटी थी वहाँ पीड़ितों और प्रभावित परिवारों को न्याय मिलने के मामले में भी कोई प्रगति नहीं हुई थी. इससे स्पष्ट होता है की इस पुरे क्षेत्र में पोलिस की मनमानी किस कदर कायम है और आम लोगों की निगाह में तरह तरह के सुरक्षा बालों के असंख्य करमचारी का दर्ज़ा कुछ समाज विरोधी तत्वों से अलग नहीं है.

हमारे इस ग्रामीण सर्वेक्षण के दौरान हमारी भाकपा(माओवादी) के एक सशत्र दल के साथ एक अनियोजित मुलाकात हुई. झारखण्ड की इस दुर्दशा के बारे में उनका दृष्टिकोण क्या है यह humein जाने का मौका मिला. इसका विस्तृत ब्यौरा हम अपनी सम्पूर्ण रिपोर्ट में सांझा करेंगे. लेकिन यहाँ हम केवल इसी मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं की किस प्रकार टी पी सी, जे पी सी, पी एल एफ आई, जे जे एम् पी, जे एल टी, जैसे सर्कार द्वारा प्रायोजित लड़ाकू दलों को पुलिस से आश्रय मिलता है जबकि आम तौर पर इन्हें नाक्सल्वादी समूहों के रूप में जाना जाता है. और यह भी गलत धारणा बनती है की यहाँ नक्सलवादी समूहों के बीच आपसी झडपे होती हैं. यह दरसल सलवा जुडूम झार्कंदी संस्करण मालुम होता है जो की यहाँ की ठोस परिस्थितियों में यहाँ के पुलिस ने इजाद किया है. भाकपा(माओवादी) के अनुसार इन गिरोहों को उनका सफाया करने के उद्देश्य से तो तैनात किया गया है ही लेकिन साथ ही यह इसलिए भी किया जा रहा है की पुलिस द्वारा प्रायोजित इनकी असामाजिक गतिविधियों की ज़िम्मेदारी नक्सलवादियों के मत्थे डाली जा सके. यहाँ यह बात भी गौरतलब है की सरकार १९०८ के सी एल ए कानून और हाल के यु ए पी ए क़ानून के सहारे नक्सलवादियों और माओवादियों के साथ साधारण अपराधी जैसा बर्ताव कर पाती है जब की माओवादियों की रणनीति और कार्यनीति जो भी हो, वे किसी राजनैतिक आन्दोलन की सरपरस्ती करते दिखाई देते हैं.

हमें इस बात की ख़ुशी है की भाकपा माओवादी ने हमसे मिलने और बातचीत करने की अपनी तैय्यारी बतायी किन्तु इस बात का खेद है की पुलिस के आला अफसरान ने पूछे जाने पर इसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई.

हमारी जांच के दौरान कई सारे मुद्दों की वास्तविकता उजागर हुई. समयकित एक्शन प्लान (आई ए पी) जिस तरह से लागू किया जा रहा है वहाँ से लेकर कुद्कू बाँध परियोजना तक की असलियत सामने आई जिसमे की सैंकड़ों गांववालों की ज़मीन डूबने के कगार पर है. सान्या गाँव में समस्या यह भी है की बाँध परियोजना तो वस्तुतः ठप्प पड़ी है जबकि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के सन्दर्भ में परियोजना अभी जारी है. नतीजतन वहाँ के बत्तीस प्रभावित गावों में आंगनवाडी, स्कूल, प्राथिमिक वास्थ्य केंद्र आदि कार्यक्रमों का कोई नामो निशाँ नहीं है. दूसरी समस्या वहाँ यह है की वहाँ की उर्वर ज़मीन जहां पहले साल में दो फसलें देती थी आज पानी के स्वाभाविक प्रभाव और भूगर्भीय जल की कमी के कारण एक फसल भी बड़ी मुश्किल से दे पा रही है.

जांच दल ने यह पाया की छोटानागपुर और संथाल परगाना के रयत अधिनियमों (सी एन टी और एस. पी. टी. ) और विलकिंसन नियम के अनुसार जनता को जो अधिकार मिलने चाहिए उन्हें भी सरकार नहीं दे रही है. और अब राज्य सर्कार केंद्र की शह पर सी.एन.टी. क़ानून का संशोधन करने जा रही है जिससे लम्बर संघर्षों के बाद आदिवासियों को हासिल हुए भूमि अधिकार भी छीने जायेंगे. वन अधिकार अधिनियम भी यहाँ लागू होता नहीं दिखाई दिया. यह बात बाँध परियोजना के कारण डूब क्षेत्र में लागू होती है तो बलिगढ़ और होमिय जैसे उन गावों में लागू होती है जहां गुप चुप तरीके से ज़मीन जिंदल और एसार को बेचीं जा रही है. आज तक इस कानून के तेहत गाओ स्टार पर कमेटियों को गठित करने का काम शुरू भी नहीं हुआ है. ग्राम समाज के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों की अनदेखी की जा रही है.

उपरोक्त जांच से यह भी पता चलता है की इस तरह लोगों पर फर्जी मुकद्दमे थोप कर ज़मीन के अधिकार से वंचित किये जाने के विरोध में जन संघर्षों को दबाने का प्रयास किया जाता है. लोगों को माओवादी या माओवादी समर्थक होने का आरोप लगाया जाना भी इसी क्रम में पोलिस का एक हथकंडा ही है. ओपेराशन ग्रीन हंट की आड़ में, जिसके तेहत पुलिस के किसी भी अपराध के लिए कोई दंड दिए जाने का सवाल नहीं उठता, एक अनियंत्रित, कानून से परे शक्ति बनी हुई है.

यह कहना ज़रूरी है की हमने जितने मामलों की जांच की है वे केवल चाँद उदहारण मात्र ही हैं. असलियत इससे कहीं ज्यादा गंभीर और व्यापक है. क्योंकि हम जहां भी जाते थे वहाँ हमारे पास ऐसे अनगिनत मामले आ जाते थे जिनकी जांच करना इस टीम के समय और संसाधनों की सीमा के कारण संभव नहीं था. इसीलिए यहाँ जो छिटपुट मामलों का ब्यौरा दिया गया है, वो वास्तव में झारखण्ड के स्टार पर व्याप्त एक आम परिघटना का परिचायक ही है. पुराने मामलों में हुई कार्यवाही की जांच हमने की वह पता चलता है की न्याय हासिल करना यहाँ के लोगों के लिए कितना बड़ा मुश्किल और असंभव सा काम हो गया है .

सी आर पी एफ जैसे बालों की छत्रछाया में फलने फूलने वाले बड़े बड़े ज़मींदार, व्यापारी, ठेकेदार और बड़ी बड़ी कंपनियां पूरी तरह क़ानून के परे हो गयी हैं . हमे इस बात की गहरी चिंता है की इन समस्याओं के साथ साथ लोग सरकार की किस्म किस्म की नयी नीतियों के कारण ही अपने अधिलारों से यहाँ के लोग वंचित किये जा रहे हैं जैसे की सी एन टी एक्ट को संशोधित करने के लिए केंद्र और राज्य की ओर से की जा रही हाल की कार्यवाही.

जनता को यहाँ न केवल दशकों से उपेक्षित रखा गया है बल्कि आने वाले दिनों में उनके सामने अस्तित्व का संकट गहराता जा रहा है.

सी आर पी एफ के पिकेट, बेस कैंप आदि जिस गति से स्थापित होते जा रहे हैं और स्चूलों और कॉलेजों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है उससे इन जिलों का नज़ारा किसी रणभूमि के सामान ही हो चूका है. जनता यहाँ पल पल इस भय में जीती रहती है की कब इस भयंकर पुलिस तैनाती की गाज उस पर गिरेगी. महुआ, तेंदू पत्ता और अन्य वन उपज का संग्रहण करने के लिए जब लोग निकलते हैं तो यह खतरा कदम कदम पर उनके सामने खडा रहता है. इससे ना केवल उनकी आजीविका का स्त्रोत बल्कि उनकी पूरी जीवन शैली ही बुरी तरह प्रभावित हो रही है. अतः हम मांग करते हैं की:


१. ऑपरेशन ग्रीन हंट को तत्काल रोक दिया जाए.

२. सी आर पी एफ को इन क्षेत्रों से हटाया जाए.

३. सी एन टी एक्ट का संशोधन ना किया जाए..

४. वनों पर आधारित गाँव वासियों के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकार प्रदान करने वाले वन अधिलर अधिनियम को लागू किया जाए.

५. सार्वनिक निगमों और कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा लागू की जा रही विभिन्न प्रयोजनाओं के विरोध में जनता के ओर से उठ रही आवाज़ के मद्दे नज़र इन पर पुनर्विचार किया जाए ताकि जनता के विरोध को उसकी जायज़ एहमियत मिले.

६. सी आर पी एफ और पुलिस की ज्यादतियों के सभी मामलों की न्यायोचित जांच पूरी की जाए और दोषी कर्मचारियों के खिलाफ यथाशीघ्र की जाए.

23 मार्च 2012

भगत सिंह को लेकर कुछ गैरवाजिब चिंताएं

सुधीर विद्यार्थी

1. भगत सिंह को अकादमिक चिंतन या बौद्धिक विमर्श की वस्तु न बनाया जाये। यह याद रखा जाना चाहिए कि प्रगतिशील और बुद्धिजीवियों के मध्य चर्चा का बिन्‍दु बनने से बहुत पहले भगतसिंह लोक के बीच नायकत्व हासिल कर चुके थे। उन पर सर्वाधिक लोकगीत रचे और गाये गये। मुझे खूब याद पड़ता है कि अपनी किशोरावस्था में गाँवों में मेलों और हाटों में पान की दुकानों पर आइने के दोनों तरफ और ट्रकों के दरवाजों पर भगतसिंह की हैट वाली तथा चन्द्रशेखर आजाद की मूँछ पर हाथ रखे फोटुएं हुआ करती थीं। शुरुआत में जनसंघ के लोगों ने भी उन्हें इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते हुए बम फेंकने वाले एक बहादुर नौजवान, जो हँसते हुए फाँसी का फंदा चूमता है, के रूप में जिन्‍दा बनाये रखा। प्रगतिशीलों के विमर्श में तो वे बहुत देर से आये। जानना यह होगा कि भगतसिंह या आजाद की जगह लोक के मध्य है। वहीं से दूसरा भगतसिंह पैदा होगा, अकादमीशियनों के बीच से नहीं।


2. इस समय को पहचानिए कि जहाँ बिग बी के साथ भोजन करने की नीलामी दस लाख रुपये तक पहुँच रही हो, जिस समाज में मुन्नी बदनाम होती है तो फिल्म हिट हो जाती है यानी बदनाम होने में अब फायदा है सो इसे हम बदनाम युग की संज्ञा दे सकते हैं, कॉमनवेल्थ खेलों में जहाँ पग-पग पर हमें गुलाम होने का अहसास कराया जाता हो और हम गुलाम रहकर खुशी का अनुभव भी कर रहे हों; इसी कॉमनवेल्थ का तो कवि शंकर शैलेंद्र ने अपने मशहूर गीत ‘भगतसिंह से’ में विरोध किया था जिसमें कहा गया था- मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से/ रुत ऐसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से। कामनवेल्थ कुटुंब देश का खींच रहा है मंतर से/प्रेम विभोर हुए नेतागण रस बरसा है अंबर से) तो ऐसे निकृष्ट संस्कृति विरोधी और इतिहास विरोधी समय में हमें बहुत सतर्क रहने की जरूरत है कि भगतसिंह को याद करने अर्थ केवल एक समारोह अथवा प्रदर्शनप्रियता में तब्दील होकर न रह जाये। मैं मानता हूँ कि भगतसिंह को सेमिनारों और जेएनयू मार्का विश्‍वविद्यालयी चर्चाओं से बाहर निकाल कर उन्हें जनता के मध्य ले जाने की पहल करने का उपयुक्त समय भी यही है।

3. मेरा निवेदन है कि भगतसिंह को कृपया देवत्व न सौंपें और न उन्हें क्रान्‍ति‍ का आदिपुरुष बनायें। भगतसिंह कोई व्यक्ति नहीं थे, अपितु उनके व्यक्तित्व में संपूर्ण भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास बोल रहा है। सत्तर साल लम्‍बे क्रान्‍ति‍कारी आंदोलन ने भगतसिंह को पैदा किया। भगत सिंह उस आंदोलन को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने वाले एक व्यक्ति ही थे। वे स्वयं विकास की प्रक्रिया में थे। कल्पना करिए कि यदि भगतसिंह की जेल में लिखीं चार पुस्तकें गायब न हो गई होतीं तब उनके चिंतन और बौद्धिक क्षमताओं का कितना बड़ा आयाम हमारे सम्मुख प्रकट हुआ होता। दूसरे यह कि आगे चलकर भारतीय क्रान्‍ति‍ के मार्ग पर उन्हें और भी बौद्धिक ऊँचाई हासिल करनी थी। पर इस सबको लेकर उनके मन में कोई गर्वोक्ति नहीं थी,बल्कि एक विनीत भाव से उन्होंने स्वयं सुखदेव को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या तुम यह समझते हो कि क्रान्‍ति‍ का यह उद्यम मैंने और तुमने किया है। यह तो होना ही था। हम और तुम सिर्फ समय और परिस्थितियों की उपज हैं। हम न होते तो इसे कोई दूसरा करता। और कितना आत्मतोष था उस व्यक्ति के भीतर जिसने बलिदान से पूर्व यह भी कहा कि आज मैं जेल की चहारदीवारी के भीतर बैठकर खेतों, खलिहानों और सड़कों से इंकलाब जिंदाबाद का नारा सुनता हूँ तो लगता है कि मुझे अपनी जिन्‍दगी की कीमत मिल गई। ….और फिर साढ़े तेईस साल की इस छोटी सी जिन्‍दगी का इससे बड़ा मोल हो भी क्या सकता था।


4. आवश्यक तौर पर देखा यह भी जाना चाहिए कि भगतसिंह के साथ पूरी क्रान्‍ति‍कारी पार्टी थी। हम पार्टी और संपूर्ण आंदोलन को क्यों विस्मृत कर जाते हैं। हम यह क्यों नहीं याद रखते कि भगत सिंह के साथ चन्द्रशेखर आजाद का सर्वाधिक क्षमतावान और शौर्यमय नेतृत्व था। क्या भारतीय क्रान्‍ति‍कारी आंदोलन का मस्तिष्क कहे जाने वाले कामरेड भगवतीचरण वोहरा पार्टी के कम महत्वपूर्ण व्यक्ति थे जिन्होंने बम का दर्शन जैसा तर्कपूर्ण और बौद्धिक प्रत्युत्तर देने वाला पर्चा ही नहीं लिखा, बल्कि नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन के घोषणापत्र आदि उन्होंने लिपिबद्ध किये। हमने विजय कुमार सिन्हा, जिन्हें दल में अंतरराष्ट्रीय संपर्कों और प्रचार-प्रसार की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई थी, को भी हमने भुलाने योग्य मान लिया। यह सच है कि हम विजय दा से भगतसिंह की एक फुललेन्थ की जीवनी की अपेक्षा कर रहे थे जो उनेक जीवित रहते पूरी नहीं हो पाई। पर मेरा यहाँ जोर देकर कहना यह है कि हमने बटुकेश्‍वर दत्त से लेकर सुशीला दीदी, धन्वंतरि, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य मास्टर रुद्रनारायण सिंह आदि सबको भुलाने देने में पूरी तरह निर्लज्जता का परिचय दिया। हमने इनमें से किसी की शताब्दी नहीं मनाई। यह सब स्वतंत्र भारत में जीवित रहे पर हमने इनमें से किसी क्रान्‍ति‍कारी की खैर खबर नहीं ली। क्या पूरी पार्टी और उसके सदस्यों के योगदान और अभियानों को विस्मृत करके अपनी समारोहप्रियताओं के चलते भगतसिंह को हम उस तरह का तो नहीं बना दे रहे हैं- उतना ऊँचा और विशाल, जिसकी तस्वीर को फिर अपने हाथों से छूना मुश्किल हो जाये हमारे लिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपनी आत्ममुग्धताओं में ही डूबे यह सब देख समझ ही न पा रहे हों। इससे भविष्य के क्रान्‍ति‍कारी संग्राम को बड़ा नुकसान होगा क्योंकि इतिहास के परिप्रेक्ष्य में संघर्ष की पूरी और सही तस्वीर को देख पाने में हम सर्वथा असमर्थ होंगे।

5. भगतसिंह के स्मरण के साथ एक खतरा यह भी है कि पिछले कुछेक वर्षों से हम देख रहे हैं कि उन्हें पगड़ी पहनाने का षड्यन्त्र बड़े पैमाने पर किया जाने लगा है। पर पंजाब के उस क्रान्‍ति‍कारी नौजवान का सिर इतना बड़ा हो गया कि अब उस पर कोई पगड़ी नहीं पहनाई जा सकती है। हम वैसा भ्रम भले ही थोड़ी देर को अपने भीतर पाल लें। यद्यपि शताब्दी वर्ष पर तो यह खुलेआम बहुत बेशर्मी के साथ संपन्न हुआ। देखा जाये तो हुआ पहले भी था जब मैं पंजाब के मुख्यमंत्री श्री दरबारा सिंह के आमंत्राण पर 1982 में चण्डीगढ़ में उनसे मिलने आया तो देखा कि उनके कार्यालय में भगतसिंह का जो चित्र लगा है उसमें उन्हें पगड़ी पहनाई गई है। अब विडंबना देखिए कि कोई आज उस पगड़ी को केसरिया रंग रहा है तो कोई लाल। इसमें आरएसएस से लेकर हमारे प्रगतिशील मित्र तक किसी तरह पीछे नहीं हैं। एक सर्वथा धर्मनिरपेक्ष क्रान्‍ति‍कारी शहीद को धर्म के खाँचे में फिट किये जाने की कोशिशों से सवधान रहना चाहिए। यहाँ अपनी बात कहने का हमारा अर्थ यह भी है कि सब भगतसिंह को अपने अपने रंग में रंगने का प्रयास कर रहे हैं। कोई कहता हे कि वे जिन्‍दा होते तो नक्सलवादी होते। उनके परिवार के ही एक सदस्य पिछले दिनों उन्हें आस्तिक साबित करने की असफल कोशिशें करते रहे। यह कह कर कि भगतसिंह की जेल नोटबुक में किसी के दो शेर लिखे हुए हैं जिनमें परवरदिगार जैसे शब्द आए हैं जो उनकी आस्तिकता को प्रमाणित करते हैं। सर्वाधिक तर्कहीन ऐसे वक्तव्यों की हमें निंदा ही नहीं, अपितु इसका विरोध करना चाहिए। यादविन्दर जी को भगतसिंह का लिखा ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ जैसा आलेख आँखें खोल कर पढ़ लेना चाहिए। मैं यहाँ निसंकोच यह भी बताना चाहता हूँ कि दूसरे राजनीतिक दल भी बहुत निर्लज्ज तरीके से इस शहीद के हाथों में अपनी पार्टी का झण्‍डा पकड़ाने का काम करते रहे जो कामयाब नहीं हुआ। धार्मिक कट्टरता और पुनरुत्थानवाद के इस युग में भगत सिंह की वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की बड़ी पैरोकारी की हम सबसे अधिक जरूरत महसूस करते हैं। लेकिन ऐसे में जब गाँधी और जिन्ना को भी डंके की चोट पर धर्मनिरपेक्ष बताया जा रहा हो, और भाजपा के अलंबरदार स्वयं को खालिस और दूसरों को छद्म धर्मनिरपेक्ष बताते हों तब वास्तविक धर्मनिरपेक्षता जो नास्तिकता के बिना सम्‍भव नहीं है, उसका झण्‍डा कौन उठाए? यह साफ तौर पर मान लिया जाना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सर्वधर्मसमभाव कतई नहीं है जैसा कि हम बार-बार, अनेक बार प्रचारित करते और कहते हैं। यह हमारा सर्वथा बेईमानी भरा चिंतन है जिसका पर्दाफाश किया जाना चाहिए। विचार यह भी किया जाना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता आखिर कितनी तरह की? रघुपति राघव राजाराम जपने वाले गाँधी भी धर्म निरपेक्ष थे, मजहब के नाम पर मुस्लिम होमलैंड ले लेने वाले जिन्ना भी धर्मनिरपेक्ष थे और भगतसिंह भी। तब इनमें से कौन सही धर्मनिरपेक्ष है, और धर्मनिरपेक्षता आखिर है क्या बला?


6. इधर भगतसिंह को संसद का पक्षधर साबित करने के भी प्रयत्न हुए और हो रहे हैं। संसद में भगतसिंह का चित्र या मूर्ति लगवाने का क्या अर्थ है। जिस संसदीय चरित्र और उसकी कार्यवाहियों के विरोध में उन्होंने, दल के निर्णय के अनुसार पर्चा और बम फेंका, क्या आज उस संसद और उसके प्रतिनिधियों की चाल-ढाल और आचरण बदल कर लोकोन्मुखी और जनपक्षधर हो गया है। यदि नहीं तो क्यों भगतसिंह पर काम करने वाले उन पर पुस्तकें जारी करवाने के लिए किसी सांसद अथवा मंत्री की चिरौरी करते हुए दिखाई पड़ते हैं। क्या हम वर्तमान संसदीय व्यवस्था के पैरोकार या पक्षधर होकर भगतसिंह को याद कर सकते हैं। आखिर क्यों भगतसिंह की शहादत के 52 वर्षों बाद उनकी बहन अमर कौर को भारत की वर्तमान संसद के चरित्र और उसकी कार्यप्रणाली पर उँगली उठाते हुए वहाँ घुसकर पर्चे फेंकने पड़े, जिसमें उठाए सवालों पर हमें गौर करना चाहिए। पर इस मुक्त देश में पसरा ठंडापन देखिए कि किसी ने भी 8 अप्रैल 1983 को अमर कौर की आवाज में आवाज मिलाकर एक बार भी इंकलाब जिंदाबाद बुलंद नहीं किया, जबकि यह दर्ज रहेगा कि इसी गुलाम देश ने तब भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के स्वर में अपना स्वर बखूबी मिला दिया। जानने योग्य यह भी है कि पिछले दिनों संसद में भगतसिंह की जो प्रतिमा लगी उसमें वे पगड़ी पहने हुए हैं और वहाँ उनके साथ बम फेंकने वाले उनके अभिन्न बटुकेश्‍वर दत्त नदारद हैं।

7. जरूरी है कि भगतसिंह को याद करने और उनकी पूजा या पूजा के नाटक में हम फर्क करें। आज सारे जनवादी और प्रगतिशील राजनीतिक व सांस्कृतिक सामाजिक संगठन भगतसिंह को याद कर रहे हैं। दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी भी। यह चीजों को घालमेल करने की घिनौनी कोशिशें हैं ताकि असली भगतसिंह अपनी पहचान के साथ ही अपना क्रान्‍ति‍कारित्व भी खो बैठें। आखिर क्या कारण है कि भगतसिंह आज तक किसी राजनीतिक पार्टी के नायक नहीं बन पाए। यह सवाल बड़ा है कि आजाद की शहादत के बाद हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ को पुनर्जीवित करने के कितने और कैसे प्रयास हुए और वे कामयाब नहीं हुए तो क्यों? और क्यों आजादी के बाद कोई राजनीतिक दल हिसप्रस का झण्‍डा पकड़ने का साहस नहीं कर सका?

8. विचार यह करिए कि अब भावी इंकलाब का आधार क्या होगा। आजाद के नेतृत्व में भगतसिंह और दूसरे सारे युवा क्रान्‍ति‍कारी अधिकांशतः मध्यवर्ग से आए थे। आज पूँजीवादी व्यवस्था और बाजार के अनापशनाप विस्तार ने मध्यवर्ग को नागरिक से उपभोक्ता में तब्दील कर दिया है। नई पीढ़ी पूरी तरह कैरियर में डूबी है। उसके सपनों में अब देश और समाज नहीं है। वहाँ नितांत लिजलिजे व्यक्तिगत सपनों की कंटीली झाडि़याँ उग आई हैं। समाज टूट रहा है तो सामाजिक चिंताएं कहाँ जन्मेंगी। निम्न वर्ग जिन्‍दगी जीने की कशमकश में डूबा रह कर दो जून की रोटी मुहैया नहीं कर पा रहा है तो दूसरी ओर उच्च वर्ग क्रान्‍ति‍ क्यों चाहेगा? क्या अपने विरुद्ध? ऐसा तो सम्‍भव ही नहीं है। तब फिर क्रान्‍ति‍ का पौधा कहाँ पनपेगा और उसे कौन खाद-पानी देगा। यह बड़ा सवाल हमारे सामने मुँह बाये खड़ा हुआ है और हम हवा में मंचों पर क्रान्‍ति‍ की तलवारें भाँज रहे हैं। हम जो थोड़ा बहुत क्रान्‍ति‍ के नाम पर कुछ करने की गलतफहमियाँ पाल रहे हैं, क्या वह हमारा वास्तविक क्रान्‍ति‍कारी उद्यम है। कौन जानता है हमें। जिनके लिए क्रान्‍ति‍ करने का दावा हम करते रहे हैं, वे भी हमसे सर्वथा अपरिचित हैं। आप जेएनयू के किसी एअरकंडीशंड कमरे में तीसरी मंजिल पर बैठकर तेरह लोग क्रान्‍ति‍ की लफ्फाजी करेंगे तो देश की जनता आपको क्यों पहचानेगी। याद रखिए कि जेएनयू देश नहीं है। पूछिए इस मुल्क के लोगों से छोटे शहरों, कस्बों, देहातों में जाकर अथवा सड़क पर चलते किसी आम आदमी को थोड़ा रोककर इन बौद्धिक विमर्श करने वाले लोगों के बारे में पूछिए तो वह मुँह बिचकाएँगे। वे तो इनमें से किसी को भी जानते बूझते नहीं। तो आप कर लीजिए क्रान्‍ति‍। इस देश की साधारण जनता आपसे परिचित नहीं है। न आप उसके साथ खड़े हैं, न ही वह आपके साथ। ऐसे में क्या आप जनता के बिना क्रान्‍ति‍ करेंगे? लगता है कि इस देश में अब थोड़े से हवा हवाई लोग ही क्रान्‍ति‍ की कार्यवाही को संपन्न करने का ऐतिहासिक दायित्व पूरा कर लेंगे। जनता अब उनके लिए गैरजरूरी चीज बन गई है।

9. आज भाषा का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा है। यह आजादी के सवाल से गहरे तक जुड़ा हुआ है। अपनी भाषा के बिना आप आजादी की कल्पना नहीं कर सकते। पर आज सब ओर गुलामी की भाषा सिर माथे और उसकी बुलंद जयजयकार। भाषा का मामला सिर्फ भाषा का नहीं होता, वह संस्कृति का भी होता है। भगतसिंह ने यों ही भाषा और लिपि की समस्या से रूबरू होते हुए अपनी भाषाओं की वकालत नहीं की थी। क्या हम अंग्रेजी के बिना एक कदम भी आगे नहीं चल सकते? भाषा आज सबसे अहम मुद्दा है। हम उस ओर से आँखें न मूंदें और न ही उसे दरकिनार करें। भाषा के बिना राष्ट्र अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता।


10. अब तीन अन्य गौर करने वाली बातों पर हम अपना पक्ष और चिंताएं प्रकट करेंगे। वह यह कि आज भी ईमानदारी से भगतसिंह को याद करने वालों को वर्तमान सत्ता और व्यवस्था उसी तरह तंग और प्रताडि़त करती है, जिस तरह साम्राज्यवादी हुकूमत किया करती थी। शंकर शैलेंद्र का ‘भगतसिंह से’ गीत गाने पर संस्कृतिकर्मियों पर यह कह कर प्रहार किया जाता है कि यह गीत 1948 में सरकार ने यह कह कर जब्त किया था कि यह लोकप्रिय चुनी हुई सरकार के विरुद्ध जनता के मन में घृणा पैदा करता है। मैं स्वयं जानना चाहता हूँ कि क्‍या शंकर शैलेंद्र के इस गीत पर से 1948 के बाद से अभी तक सरकारी पाबंदी हटी है अथवा नहीं। यदि ऐसा हुआ है तो कब? दूसरा यह कि कई वर्ष पहले पाकिस्तान की फौज हुसैनीवाला से भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के स्मारकों को तोड़कर ले गई। हमने क्यों नहीं अब तक उन स्मारकों की वापसी की मांग पाकिस्तान सरकार से की। क्या वह हमारा राष्ट्रीय स्मारक नहीं था। और तीसरा विन्दु यह है कि कुछ वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक महोत्सव हुआ था, मेला लगा था। यह तब की बात है जब भगतसिंह पर एक साथ कई-कई फिल्में आई थीं यानी हमारे बॉलीवुड को भी क्रान्‍ति‍ करने का शौक चर्राया था। बाजार और बॉलीवुड में यदि भगतसिंह को बेचा जा सकता है तो इसमें हर्ज क्या है। बाजार हर चीज से मुनाफा कमाना चाहता है। पर मैं यहाँ फिल्मों में भगतसिंह को बेचने की बात नहीं कर रहा, न ही इस बात पर चिन्‍ता प्रकट कर रहा हूँ कि उन्होंने तुडुक तुडुक और बल्ले बल्ले करके भगतसिंह जैसे क्रान्‍ति‍कारी नायक को पर्दे पर नाचना दिखा दिया। मैं यहाँ बात कुछ दूसरी कहना चाहता हूँ। लखनऊ के उस मेले में एक रेस्त्रां बनाया गया था जिसका दरवाजा लाहौर जेल की तरह निर्मित किया गया। उसमें बैरों को वह ड्रेस पहनाई गई थी जिसे जेल के भीतर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव ने पहना था। पानी जो वहाँ परोसा जा रहा था उसे काला पानी का नाम दिया गया था और घिनौनापन देखिए कि खाने के नाम पर स्वराज्य चिकन और काकोरी कबाब। यह हद से गुजर जाना है। लखनऊ एक प्रदेश की राजधानी है–सांस्कृतिक संगठनों और राजनीतिक दलों का केंद्रीय स्थान। पर सब कुछ कई दिनों तक उस जगह ठीक ठाक चलता रहा। कोई हलचल नहीं। कोई विरोध नहीं। क्या हम वास्तव में मर चुके हैं, क्या हमारे भीतर कोई राष्ट्रीय चेतना शेष नहीं है। क्या हमें अपने राष्ट्रीय नायकों और शहीदों का अपमान कतई विचलित नहीं करता। क्या इतिहास के सवाल हमारे लिए इतने बेमानी हो गए हैं कि वे हमारे भीतर कोई उद्वेलन पैदा नहीं करते। कुछ लोग थोड़े वर्षों से तीसरा स्वाधीनता आंदोलन नाम से एक संगठन चला रहे हैं। शहीदेआजम भगतसिंह के दस्तावेजों को सामने लाने लाने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम करने वाले प्रो. जगमोहन सिंह जी भी उससे जुड़े हैं। पर इस संगठन के चिंतन के प्राथमिक बिन्‍दु पर गौर करिए कि आंदोलन चलाने से पहले ही उसने घोषित कर दिया कि इंडिया गेट को ध्वस्त कर वहाँ शहीदों की बड़ी मीनार बनाना है। क्या यही इस देश का तीसरा स्वतंत्राता युद्ध होगा। कल तक हम अपने बीच बचे रहे जिन्‍दा शहीदों को कोई सम्मान और आदर नहीं दे पाए, उनकी ओर आँख उठाकर भी हमने देखा नहीं, उन्हें ठंडी और गुमनाम मौत मर जाने दिया पर आज उनके ईंट पत्थर के बुत खड़े करने में हमारी गहरी दिलचस्पी है। भगतसिंह को याद करने वाले संगठन कितनी गलतफहमियों में जी रहे हैं यह देखने के लिये आँखों को ज्यादा फैलाने की आवश्यकता नहीं है। क्या यह भी गौर करने लायक सच्चाई और त्रासदी नहीं है कि वामपंथी और साम्यवादी आंदोलन ही नहीं भगतसिंह के अनुयायी कहे जाने वाले लोगों और संस्थाओं ने भी सैद्धांतिक मीनमेख और थोड़े विमर्शों में स्वयं को अधिक उलझा लिया है। उनके बीच निर्लज्ज किस्म की संकीणताएं भी विद्यमान हैं। भगतसिंह का नाम स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिए लिया जाना कतई ठीक नहीं।

(समकालीन तीसरी दुनि‍या/मार्च 2012 से साभार)

19 मार्च 2012

मौजूदा बजट का जेंडर विश्लेषण


-दिलीप ख़ान

जेंडर बजट या जेंडर सेंसिटिव बजट बीते दो-तीन दशकों में दुनिया के पटल पर उभरा शब्द है। इसके जरिए राष्ट्र-राज्य की कोशिश होती है कि किसी भी सरकारी योजना के लाभ को महिलाओं तक इस तरह पहुंचाया जाए ताकि लैंगिक तौर पर पुरुषों और महिलाओं के बीच जो विकास की खाई बनी हुई है उसको पाटा जा सके। महिलाओं को बेहतर जीवन-स्तर मुहैया कराने की कोशिश की जाती है जिससे सामाजिक तौर पर पुरुषों की तुलना में वो पीछे न छूटे। अवधारणा के बतौर ये महिला सशक्तिकरण का ही विस्तार है जिसमें महिलाओं के विकास को स्वतंत्र रूप से न देखकर पुरुषों के बराबर पहुंचाने की कोशिश की जाती है।
जेंडर बजट या वीमेंस बजट का यह मतलब कतई नहीं है कि महिलाओं के लिए अलग से बजट पेश किया जाए बल्कि इसका मतलब यह है कि मुख्य बजट में ही कुछ ऐसी व्यवस्था की जाए ताकि सामाजिक लैंगिक दरार को भरने में ये मदद कर सके। सरकारी पैसे को किस मद में कितना ख़र्च किया जाए और कहां से पैसा जमा किया जाए बजट में कुल जमा यही दो काम होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे किसी परिवार में मासिक और वार्षिक ख़र्च-आमदनी का लेखा-जोखा रखा जाता है। इसी ख़र्च और आमदनी को सरकार यदि इस तरह व्यवस्थित करती है ताकि उसके लाभ से सामाजिक विकास में पीछे छूटती आधी आबादी को मदद पहुंच सके तो उसे लैंगिक तौर पर संवेदनशील बजट कहा जाता हैं। इसमें वंचित, कमज़ोर और बेसहारा महिलाओं पर ज़्यादा ज़ोर होता है। प्रयोग के स्तर पर ऑस्ट्रेलिया से इसकी शुरुआत मानी जाती है जहां पर 1980 के दशक में पहली बार इसका इस्तेमाल किया गया। इस समय भारत सहित दुनिया में तकरीबन 70 देश ऐसे हैं जहां जेंडर बजट के प्रयोग हो रहे हैं। भारत में औपचारिक तौर पर 1997-98 के बजट में इसको पेश किया गया लेकिन सातवें पंचवर्षीय योजना से ही महिला एवं बाल विकास विभाग के तहत इसको लेकर प्रयास शुरू हो चुके थे।
बजट का पिटारा दिखाते वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी

2004 में वित्त मंत्रालय ने जेंडर बजटिंग को लेकर कुछ सिफ़ारिशें की जिनके तहत कई सरकारी मंत्रालयों में अंतर-विभागीय समितियां बनाईं गईं जिन्हें जेंडर बजट सेल के नाम से जाना जाता है। ये समितियां इन विभागों के दायरे में आने वाले विषयों में महिला उत्थान को लेकर सक्रिय रहते हैं।
बीते 16 मार्च को प्रणब मुखर्जी द्वारा पेश किए बजट का अगर जेंडर विश्लेषण करें तो इसे बहुत उत्साही बजट नहीं कहा जा सकता। बीते 6 साल से सरकारी मंत्रालयों और विभागों ने जिन 33 मांगों को जेंडर बजट की खातिर पेश किया उसमें इस बार भी किसी तरह की बढ़ोतरी नहीं देखी गई। नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अलावा किसी भी विभाग के लिए नई पहलक़दमी नहीं हुई। पुरानी योजनाओं के मद को ज़रूर बढ़ाया गया लेकिन योजनाओं की नए सिरे से समीक्षा नहीं की गई। बजट के कुल आकार में हुई बढ़ोतरी के मुताबिक इन योजनाओं में भी वृद्धि हुई। ये एक तरह से आनुपातिक और स्वाभावित वृद्धि है। मिसाल के तौर पर सबला योजना के मद को बढ़ाकर 750 करोड़ कर दिया गया। स्वर्णजयंती ग्राम रोज़गार योजना को राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत लाने के बाद इसमें उप-घटक के तौर पर महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना को इसमें शामिल किया गया था। इस परियोजना के लिए बीते बजट में आवंटित 2914 रुपए को इस बार बढ़ाकर 3915 करोड़ कर दिया गया। हालांकि खेती-बारी में संलग्न महिला श्रम के आकार को देखते हुए ये बहुत सुकूनदेह तस्वीर अब भी नहीं है। इसी तरह महिला स्व-सहायता समूह विकास निधि के मद को 200 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 300 करोड़ रुपए कर दिया गया। इसके अलावा बच्चों और महिलाओं में व्यापक रूप से फैले कुपोषण पर लगाम कसने की ख़ातिर वित्त मंत्री ने सोया प्रोटीन पर सीमा शुल्क घटाकर 10 फ़ीसदी कर दिया। हालांकि कुपोषित महिलाओं और बच्चों तक इस सोया प्रोटीन को किस तरह पहुंचाया जाएगा इसकी कोई रूप रेखा सरकार द्वारा अब तक पेश नहीं की गई है। जब तक कुपोषित आबादी को लेकर ठोस योजना नहीं बनेगी तब तक सीमा शुल्क के घटे दर का सीधे तौर पर इनके बीच कोई मज़बूत प्रभाव नहीं पड़ सकता। असल सवाल ये है कि किस तरह देश में बड़ी तादाद में मौजूद इस आबादी की क्रय शक्ति को इस रूप में बढ़ाया जाए कि वो सोया खाद्य-पदार्थों को अपने रोज़मर्रा के भोजन में शामिल कर सकें।
जेंडर नज़रिए से देखें तो कामकाजी महिलाओं को प्रोत्साहित किए जाने की पुरानी योजना में कतरब्योंत के साथ ये बजट हमारे बीच पेश हुआ है। आत्मनिर्भरता को लेकर महिलाओं के बीच जिस आत्मविश्वास  को, हल्के स्तर पर ही सही, राज्य द्वारा समर्थन दिया जा रहा था, मौजूदा बजट में उससे हाथ खींच लिया गया। दफ़्तर में काम करने वालीं निम्न-मध्यवर्गीय महिलाओं के लिए यह बजट एक तरह से हताश करने वाला है। बीते साल सामान्य लोगों के लिए टैक्स माफ़ी की न्यूनतम सीमा 1.80 लाख और महिलाओं के लिए 1.90 लाख थी। इस तरह महिलाओं के 10 हज़ार रुपए की अतिरिक्त कमाई को राज्य ने करमुक्त कर रखा था। ये एक तरह से काम-काजी महिलाओं के आत्मविश्वास को हल्का बेहतर करने वाली कवायद थी। वित्त वर्ष 2012-13 के लिए पेश मौजूदा बजट में कर माफ़ी की जो न्यूनतम सीमा रखी गई है उसमें पहले के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। इसे बढ़ाकर 2 लाख रुपए कर दिया गया, लेकिन अब महिला और सामान्य श्रेणी के बीच के अंतर को ख़त्म कर दिया गया। इसे दूसरे तरीके से देखें तो अगर सामान्य श्रेणी के लोगों को वित्त मंत्रालय ने साल में 2000 रुपए के बचत की सुविधा दी है तो महिलाओं को महज 1000 रुपए की। इस तरह लैंगिक संवेदनशीलता के जरिए समाज में बराबरी की जो कोशिश थी उसे वेतन और कर में मिलने वाली छूट में बराबरी के स्तर पर ला दिया गया! वित्त मंत्रालय के मुताबिक समाज की असमानता अब भी बरकरार है लेकिन महिलाओं को कर सीमा में मिलने वाली 1000 रुपए के अतिरिक्त छूट को मंत्रालय ने कतर लिया। बजट में ऐसी कोई ताजी पहलकदमी और दृष्टिकोण भी नहीं झलकता जिसके बिनाह पर ये कहा जा सके कि सरकार महिला मुद्दों पर मंथन की प्रक्रिया में है। बीते एक दशक में बजट में शामिल विषयों और उसकी प्रकृति में स्थिरता बरकरार है और उसमें समय के साथ कुछ नई चीज़ें शामिल करने की जो उम्मीद इस बजट में की जा रही थी उसे झटका ही लगा है।  

14 मार्च 2012

काज़मी केस: आतंकवाद का नया फॉर्मूला


-दिलीप खान

बीते एक दशक से आतंकवाद को लेकर खुफ़िया एजेंसियों के बीच दुनिया भर में तमाम प्रयोग हो रहे हैं। भारत में इस आधार पर 9/11 के बाद के समय को तीन भागों में बांटकर देखा जा सकता है। पहले भाग में वह दौर है जब किसी भी बम विस्फ़ोट के बाद पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। इसमें सब कुछ पाकिस्तानी इशारों पर देश में घटित होता है। पाकिस्तान से आतंकवादी आते हैं, बम फोड़कर चले जाते हैं या फिर पुलिस की गिरफ़्त में आ जाते हैं। जिन मामलों में कोई सबूत नहीं मिलते उसमें मीडिया पाकिस्तान की ओर उंगली उठाना शुरू कर देता है और पुलिस और ख़ुफिया महकमों में मीडिया ख़बरों के आधार पर पाकिस्तान पर दोष मढा जाता है। फिर पुलिस के हवाले से आई ख़बर को मीडिया प्रमाणिकता के साथ लोगों के बीच पेश करता है।

26/11 के बाद यह दौर सुस्त पड़ गया, लेकिन अब भी पाकिस्तान निशाने में नंबर वन है। दूसरा दौर 2008 के आस-पास शुरू होता है और इसमें विदेश से आए आतंकवादी की जगह होम ग्रोन टेररिस्ट ले लेते हैं। इंडियन मुजाहिद्दीन नाम का एक ख़ौफ़नाक आतंकी संगठन ज़्यादातर बम विस्फोट को अंजाम देता है। जयपुर धमाके में पहली बार इस संगठन का नाम आता है। इस संगठन के साथ-साथ ही एक और संगठन अस्तित्व में आता है-हूजी। जयपुर और बंगलौर धमाके में इन दोनों के नाम लिए जाते हैं। कभी आईएम तो कभी हूजी। लेकिन बीते 9 (और उससे पहले के 3 यानी सभी) मामलों में हूजी को लेकर एक भी सबूत खुफिया एजेंसियां इकट्ठा नहीं कर पाई है। हूजी के अड्डे को लेकर खुफ़िया एजेंसी भी अभी तक साफ़ नहीं है कि इसका मुख्यालय कराची में है या ढाका में, लेकिन ये ज़रूर स्थापित किया जा रहा है कि आईएम और हूजी देश में आतंकवाद का जखीरा तैयार कर रहा है। बड़े पैमाने पर इन संगठनों के नाम पर देश में गिरफ़्तारियां हुईं। मालेगांव से लेकर मक्का मस्जिद तक, हर मामले में मुसलमानों को पकड़ा जाता है। (बाद में 2006 के मालेगांव मामले में 5 साल से ज़्यादा जेल काटने के बाद 7 लोगों को रिहा किया जाता है। उधर आंध्र प्रदेश सरकार अपनी ग़लती सुधारने के लिए चरित्र प्रमाणपत्र जारी कर लोगों को रिहा करती है और हर्जाना भी भरती है।)

मालेगांव विस्फोट मामले में फ़र्ज़ी गिरफ़्तारी के 5 साल बाद निर्दोष
करार दिए गए अभियुक्त

इसी दौर में एक नया खुलासा होता है। समझौता एक्सप्रेस में पाकिस्तानी हाथ होने का हल्ला मचाने वाला मीडिया और ख़ुफ़िया बाद में उससे मुकरते हैं और असीमानंद एंड कंपनी अपना जुर्म कबूल कर जेल जाती है। आंतरिक आतंकवाद का मामला बड़े स्तर पर हमारे बीच उपस्थित होता है। असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा जैसे उदाहरणों के बावजूद आतंकवादी के रूप में मोटे तौर पर मुस्लिमों को ही हमारे बीच पेश किया जाता है। ख़ुफ़िया एजेंसी आंतरिक आतंकवाद को इस समय विदेशी आतंकवाद से ज़्यादा बड़ा ख़तरा करार दे रहे हैं। ये दोनों दौर एक-दूसरे को ओवरलैप करते हुए चलते हैं लेकिन ट्रेंड में आ रहे अंतर को साफ़-साफ़ महसूस किया जा सकता है।

लेकिन आतंकवाद के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर दुनिया में बहुचर्चित ओसामा-बिन-लादेन की प्रचारित हत्या के बाद देश में नया प्रचलन देखने को मिल रहा है। अब आंतरिक आतंकवाद, पाकिस्तानी-बांग्लादेशी आतंकवाद के साथ-साथ भारतीय आतंकवाद के नेटवर्क को वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के साथ जोड़ने की कोशिश चल रही है। दिल्ली हाई कोर्ट बम विस्फोट में पहले हूजी और फिर आईएम का नाम आया और अब हिज़बुल मुजाहिद्दीन का नाम बताया जा रहा है। लेकिन शुरुआती दौर में दो स्कैच जारी करने के बाद इसकी जांच प्रक्रिया में कोई ठोस प्रगति नहीं देखी गई। स्कैच को लेकर भी एनआईए ने बाद में आपत्ति जाहिर की थी कि वो स्कैच ठीक नहीं है और नए खेप में स्कैच बनाने के लिए मुंबई से टीम बुलाई गई थी। हमेशा की तरह एनआईए सहित बाकी जांच एजेंसियों ने अब तक कोई ठोस सबूत हासिल नहीं किए हैं, लेकिन अपनी जांच-पड़ताल के समय ही खुफ़िया विभाग ने ये बारीक इशारा ज़रूर कर दिया था कि अब देश में आतंकवाद के नेटवर्क को कहां से जोड़ा जाएगा! हाई कोर्ट बम विस्फ़ोट में सबसे ज़्यादा एनआईए और मीडिया ने जिस बात पर ज़ोर दिया वो था विस्फोटक के तौर पर पीईटीएन का इस्तेमाल। पीईटीएन को अलक़ायदा के ट्रेड-मार्क के तौर पर सुरक्षा विशेषज्ञों और खुफ़िया सहित पुलिस विभाग ने लोगों के बीच पेश किया। इस घटना के बाद भारत में आतंकवाद को पहली बार अलक़ायदा से सीधे-सीधे जोड़ा गया और इस तरह दुनिया में जिस आतंक के ख़िलाफ़ वार ऑन टेरर छेड़ा गया है भारत के साथ उसका सिरा जुड़ जाता है।

अमेरिका और यूरोपीय देशों में अलकायदा का जो भूत नाच रहा है वो अब भारत पर भी नाचने लगा। इस तरह इन देशों के बीच कुछ साझापन-सा बन गया है। इसके बाद दिल्ली में इज़रायली दूतावास के सामने कार में विस्फोट होता है। दिल्ली पुलिस की घोषणा से पहले ही इज़रायल ये घोषणा करता है कि इसमें ईरान का हाथ है। रॉयटर्स से ईरान को लेकर ख़बरें चलने लगती हैं। इसके ठीक एक दिन बाद बैंकॉक में तीन विस्फोट होते हैं। फिर ईरान का हाथ बताया जाता है। इज़रायल-ईरान के रिश्तों पर मैं यहां सिर्फ़ एक वाक्य में चर्चा करूंगा कि नाभिकीय बम के बहाने ईरान पर अमेरिका और इज़रायल उसी तरह आक्रमण करने के फिराक में है जिस तरह जैविक हथियार के बहाने इराक पर किया था। दिल्ली पुलिस ये बताती है कि कोई मोटरसाईकिल सवार कार से बम चिपकाकर भाग गया। फिर लाडो सराय से एक लाल बाईक पकड़ी जाती है। बाद में पुलिस कहती है कि वो ग़लत बाईक पकड़ ली थी।  
पत्रकार काज़मी की गिरफ़्तारी खुफिया विभाग के नए और ज़्यादा
ख़तरनाक फॉर्मूले की तरफ़ इशारा कर रहा है।

इसके बाद ख़बर आती है कि सीसीटीवी में किसी भी बाईक सवार को नहीं देखा गया। बाईक फॉर्मूले को पुलिस छोड़ देती है और फिर अचानक काज़मी को गिरफ़्तार करते समय पुलिस ये तर्क देती है कि काज़मी के घर से लावारिस स्कूटी बरामद हुई है। बाईक फॉर्मूले को पुलिस फिर से जीवित करती है जो सीसीटीवी वाली बात के मुताबिक झूठी है। जिन आरोपों के आधार पर काज़मी को पकड़ा गया उसकी चर्चा इससे पहले वाली रिपोर्ट में की जा चुकी है।

अब सवाल है कि काज़मी को गिरफ़्तार करने के पीछे क्या हित हो सकते हैं? असल में भारत इस समय सबसे ज़्यादा तेल ईरान से खरीद रहा है, जाहिर है ईरान के साथ भारत के आर्थिक हित जुड़े हुए हैं इसलिए इस बम विस्फ़ोट को लेकर इज़रायली बयान के बाद गृह मंत्रालय ने ये सफ़ाई दी थी कि उसे ईरान के हाथ होने के सबूत नहीं मिले हैं। राजनीतिक और कूटनीतिक तौर पर भारत ईरान के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता। लेकिन भारत इज़रायल से सबसे ज़्यादा हथियार खरीदता है और अमेरिका के साथ अपने संबंध को हमेशा मधुर देखना चाहता है। जाहिर है दूसरे पक्ष को यह बिल्कुल इग्नोर नहीं कर सकता। तो खुफिया स्तर पर जांच-पड़ताल के बाद काज़मी को पकड़ा गया।

काज़मी को गिरफ़्तार कर देश में पहली बार ईरानी आतंकवाद के साथ सीधे संबंध को स्थापित किया जा रहा है। आतंकवाद को लेकर देश में ये सबसे नया ट्रेंड है। एक नए दौर की शुरुआत। ऐसे में राजनीतिक तौर पर भारत ईरान को ये जवाब देने की स्थिति में अब है कि ये तो खुफिया विभाग की कार्रवाई है और पूरा मामला राजनीतिक दबाव से मुक्त है। दूसरा, आतंकवाद और नक्सलवाद के नाम पर अब शहरी और शिक्षित लोगों को गिरफ़्तार करने की गति तेज हुई है और काज़मी भी इसी कड़ी का हिस्सा हैं। इस गिरफ़्तारी के बाद अब देश में ये तस्वीर बन गई कि भारत वैश्विक आतंकवाद के साथ सीधा जुड़ा हुआ है। इस स्थापना के लिए एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो अपनी वैश्विक पहुंच रखते हो और काज़मी इसके लिए उपयुक्त थे!

13 मार्च 2012

काज़मी की रिहाई को लेकर आंदोलन तेज


-दिलीप ख़ान

मैंने उम्मीद की थी कि यही कोई सौ-दो सौ लोग जुटेंगे, लेकिन इंडिया गेट पर शाम के सात बजते-बजते सात-आठ सौ लोग इकट्ठा हो चुके थे और आधे घंटे के भीतर लखनऊ और बाकी जगहों से आने वाले लोग भी इसमें शामिल हो गए। जुलूस जब घूमकर गेट के ठीक सामने पहुंचा तो मैंने अनुमान लगाया कि दो हज़ार से ज़्यादा लोग सैयद मोहम्मद अहमद काज़मी की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे थे। छोटे वाले लाउडस्पीकर, जोकि बीच में काम करना बंद कर दिया, के सहारे बारी-बारी से लोगों को संबोधित करने वाले नेता, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार जब लोगों से मुखातिब हो रहे थे तो इसके समानांतर अलग-अलग कोनों में अमरीका मुर्दाबाद और इज़रायल मुर्दाबाद के नारे भी साथ-साथ अपनी उपस्थिति दिखा रहे थे। कह लीजिए कि लोगों के भीतर आक्रोश को साफ़ पढ़ा जा सकता था। एकदम बीच में बैठकर या किनारे खड़े होकर। असर बराबर का पड़ रहा था।

जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाई कर रहे खुर्शीद अंसारी के चेहरे पर आक्रोश और पीड़ा का मिला-जुला भाव था, ‘‘देश में किसी भी घटना के बाद मुसलमानों को उठाकर ये साबित क्या करना चाहते हैं? कई ऐसे वारदात हैं जिसमें आतंक [वादी] के नाम पर पकड़े गए लोग बाद में बेकसूर साबित हुए। मालेगांव से लेकर अभी हाल में रिहा हुए मो. आमिर तक का नाम इस कड़ी में गिनाया जा सकता है, लेकिन जो नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है वो ये कि अब हाई-प्रोफाइल लोगों को गिरफ़्तार कर पूरी कौम के भीतर ख़ौफ़ को और गहरा किया जा रहा है।’’
इंडिया गेट पर काज़मी के समर्थन में प्रदर्शन करते लोग

हाल के महीनों में आतंकवादी के नाम पर गिरफ़्तार हुए लोगों के छूटने से लोगों के भीतर संघर्ष और लड़ाई का भाव ज़्यादा मज़बूत हुआ है। ऐसी गिरफ़्तारियों से भारतीय राज्य का सांप्रदायिक चेहरा तो उभर कर सामने आया ही है साथ ही इसने सांप्रदायिकता को दो स्तर पर मज़बूत करने का भी काम किया है। पहला, हर दाढी-टोपी वाले लोगों को गैर-मुस्लिम धार्मिक लोगों के बीच शक की निगाह से देखा जा रहा है और प्रगतिशील बनते-बनते चूक जाने वाले लोग ये सवाल उठाते फिरते हैं कि अगर मुस्लिम कौम ठीक-ठाक है तो आखिरकार क्यों तकरीबन हर केस में मुसलमान ही गिरफ़्तार होते हैं। दूसरा, ऐसी हर गिरफ़्तारी के बाद पूरे मुस्लिम समुदाय में धर्म के नाम पर एकजुट होने की संभावना लगातार बढ़ती जाती है। इंडिया गेट पर काज़मी की रिहाई की मांग करने वाले लोगों को भी दो अलग-अलग खांचों में बांटकर साफ़ देखा जा सकता है। एक तो वे थे जो धर्मनिरपेक्ष, तरक्कीपसंद, फ़ासीवाद-विरोधी और राजकीय दमन के ख़िलाफ़ बोलने में यक़ीन करते हैं। दूसरे वो थे, जो काज़मी की गिरफ़्तारी को धर्म की ज़मीन पर खड़े होकर देख रहे थे और इस तरह धार्मिक गोलबंदी के जरिए सरकार पर दबाव बनाने की तैयारी में हैं।

इमाम बुखारी के बेटे ने इंडिया गेट से आवाज़ लगाई कि यदि काज़मी को जल्द ही नहीं छोड़ा जाता है तो देश भर के मुसलमान इस सवाल पर प्रदर्शन करेंगे और जामा मस्जिद से इसकी नई शुरुआत होगी। दूरदर्शन और ईरानी रेडियो सहित कई जगहों पर काम कर चुके एम.ए. काज़मी की गिरफ़्तारी को लेकर पुलिस ने जो वजहें बताईं हैं वो बेहद कमज़ोर है। पुलिस के मुताबिक काज़मी के घर से लावारिस स्कूटी बरामद हुई है। परिवार वालों का कहना है कि वो स्कूटी काज़मी के भाई की है और उनके यहां साल भर से पड़ी हुई थी। पुलिस ने जो दूसरी वजह बताई है वो ये कि काज़मी के नंबर से ईरान फोन किया गया। काज़मी इराक युद्ध कवर करने के अलावा ईरानी रेडियो के लिए काम कर चुके हैं तो जाहिर है कि उस इलाके में वो लगातार बात करते रहते हैं। तीसरा तर्क पुलिस का ये है कि काज़मी ने बम फोड़ने वाले को अपने घर में शरण दी है। पुलिस का सबसे हास्यास्पद तर्क यही है क्योंकि अब तक बम फोड़ने वाले शख्स की न तो शिनाख्त हुई है और न ही उसके बारे में कुछ भी स्पष्ट विवरण ही पुलिस दे पाई है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब बम फोड़ने वाले का ही पता नहीं है तो उसको शरण देने वाले को किस बिनाह पर गिरफ़्तार किया गया। ये कुछ उस तरह की कवायद है गोया टायर हाथ लगने की वजह से कोई साईकिल खरीदने की सोचे!

 राज्यसभा सांसद मो. अदीब ने ये आश्वासन दिया है कि वो संसद के भीतर इस सवाल को उठाएंगे और पूरी कोशिश करेंगे कि काज़मी को पूरे सम्मान के साथ रिहा किया जाए। इससे दो दिन पहले 100 से ज़्यादा पत्रकारों और समाजिक कार्यकर्ताओं ने काज़मी की गिरफ्तारी की भर्त्सना की। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी सहित कई नेताओं को भी चिट्ठी लिखी गई है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी ने काज़मी को तत्काल रिहा करने और मामले की जांच कराने की अपील की है। इंडिया गेट पर लोगों के भीतर जिस तरह की बातचीत चल रही थी और नारों का जो शक्ल था उससे ये साफ़ लग रहा था कि मुस्लिमों को ज़्यादा लंबे समय तक वोट का स्रोत मानने वाली पार्टियों से उनका मन बिल्कुल उखड़ा हुआ है कि मुस्लिम अब देश के भीतर आतंकवाद के नाम पर हो रही फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियों के प्रति न सिर्फ़ सतर्क हो रहे हैं बल्कि एक सूत्र में ये आपस में बंध भी रहे हैं कि अमरीका के वार ऑन टेरर, नाटो के रेसपांसिबिलिटी टू प्रोटेक्ट और इज़रायल की इराक़-ईरान विरोधी नीतियों को न सिर्फ यहां के मुसलमान समझ रहे हैं बल्कि वैश्विक मामलों में खुद को ग्लोबल आइडेंटिटी के बतौर भी देख रहे हैं।

काज़मी की गिरफ़्तारी कई मायनों में नई किस्म की है और आतंकवाद को लेकर देश (दुनिया) के खुफिया विभाग के नए प्रचलन की तरफ़ भी इशारा कर रही है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में हेडक्वार्टर रखने वाले आतंकी संगठनों के साथ पहले ही कई भारतीयों के नाम नत्थी किए जा चुके हैं। आंतरिक आतंकवादी वाला फॉर्मूला भी बीते कई सालों से चल रहा है लेकिन ये पहला वाकया है जब सीधे-सीधे ईरान और अरब के साथ भारतीय आतंकवाद का लिंक जोड़ा जा रहा है। इस मामले में काज़मी की गिरफ़्तारी का जितना असर भारत के लोगों पर पड़ेगा उससे ज़्यादा असर ईरान पर पड़ने वाला है।

मुझे ठीक-ठीक याद है कि इज़रायली दूतावास के सामने हुए बम विस्फ़ोट के बाद और गिरफ़्तीर से पहले जब राज्यसभा टीवी के लिए हमने एमए काज़मी को मीडिया और आतंकवाद पर बात करने बुलाया था तो शो रिकॉर्ड होने के बाद मुझसे बातचीत करते हुए वो भी आतंकवाद के नाम पर होने वाली गिरफ़्तारियों को ईरान की तरफ़ शिफ्ट करने को लेकर इशारा कर रहे थे। उस समय मैंने दूर-दूर तक ये कयास नहीं लगाया था कि जिस व्यक्ति से इज़रायली दूतावास के सामने हुए बम विस्फ़ोट पर मैं बात कर रहा हूं उसी को हफ़्ते भर बाद उसी मामले के साजिशकर्ता के तौर पर गिरफ़्तार कर लिया जाएगा! मैं काज़मी की समझदारी का कायल हूं और जिस मामले को लेकर उनकी गिरफ़्तारी हुई है उसके नाकाफ़ी, अस्पष्ट और फ़र्ज़ी सबूतों की वजह से इस बात की संभावना और ज़्यादा देख रहा हूं कि इफ़्तिख़ार गिलानी की तरह काज़मी भी जल्द ही रिहा होंगे। सांसद मो. अदीब ने जुलूस में लोगों के सामने भारतीय राज्य की बर्बरता पर टिप्पणी करते हुए कहा,जब काज़मी जैसे लोग पकड़े जा सकते हैं तो समझ लीजिए कि हमे और आपको कभी भी पकड़ कर जेल में ठूंसा जा सकता है।   
    
आतंकवाद को लेकर दुनिया भर में वैश्विक राजनीति का चेहरा देश के लोगों और ख़ासकर मुसलमानों के बीच अब उघड़ने लगा है और यही वजह है कि इंडिया गेट पर जो नारे सबसे तेज़ आवाज़ में सबसे ज़्यादा बार लगाए जा रहे थे वो थे- अमेरिका मुर्दाबाद, इज़रायल मुर्दाबाद और विदेशी इशारों पर देश चलाना बंद करो।

04 मार्च 2012

मध्य-पूर्व: पश्चिमी युद्धाभ्यास का नया अड्डा


-दिलीप ख़ान
देशों केबीच नए गठजोड़ बनने लगे हैं और हम इस वक्त इतिहास के बेहतरीन और अद्भुत दौर मेंहैं। खाड़ी का संकट एक तरह से हमें आपस में ऐतिहासिक सहयोग की ओर ले जा रहा है। इसकठिन घड़ी से एक नई विश्व व्यवस्था झांक रही है: एक ऐसी दुनिया जो आतंक से मुक्त है, ज़्यादा न्यायपूर्ण है और शांति केलिए ज़्यादा प्रयासरत है। एक ऐसा समय जहां उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम चारों दिशाओंके देश खुशहाली और भाईचारे से एक साथ रह रहे हैं।

--प्रथम खाड़ी युद्ध के बाद की स्थिति पर जॉर्जबुश सीनियर।


ये बयान बुश उस दौर में दे रहे थे जबसोवियत रूस के विघटन और शीत युद्ध के औपचारिक खात्मे के बाद अमेरिका के सामने कोईमज़बूत चुनौती नहीं रह गई थी और अमेरिका ने दुनिया को दुरूस्त करने का साराजिम्मा अपने माथे ले लिया था। बीते दो दशक को भू-राजनैतिक तौर पर देखें तो शांति बहाली के लिए सबसे ज़्यादा प्रयास जिन इलाकों में हुआ है वो ठीकवही इलाके हैं जहां से उत्पन्न संकट के दरवाज़े से जॉर्ज बुश सीनियर बेहतर विश्वका अक्स देख रहे थे। और नई विश्व व्यवस्था के देखे गए सपने के एक दशक बाद उनकेबेटे जॉर्ज बुश (जू) ने शांति बहाली की नई तालीम कीशुरुआत भी इसी इलाके में की। वार ऑन टेरर के मानवतावादी नारे के साथ।पश्चिमी एशिया की इस पूरी पट्टी में उसके बाद बम की आवाज़ के बिना कोई शाम नहींगुज़री है। क्या बीते दो दशक में मध्य-पूर्व वैश्विक राजनीति का सबसे बड़ा अड्डा बन गया है? क्या सोवियत संघके तौर पर अपने चिह्नित दुश्मन के टूट जाने के बाद अमेरिका मध्य-पूर्व के इलाके कोआजमाईश के लिए तैयार कर रहा है? क्या एक-ध्रुवीय शक्ति समीकरण के बाद अमेरिकी हुक्म को पूरा करना आज केवैश्विक राजनीति का अंतर्निहित अर्थ है? क्या अमेरिका स्वभावत: एक आतंकी राज्य है? ऐसे कई सवाल है जो अरब दुनिया के मौजूदा हालात को देखते हुए दुनिया केसामने उपस्थित होते हैं।


नाभिकीय हथियार के बहाने ईरान पर अमेरिकी नज़र
मध्य-पूर्व की राजनीति को यदि 9/11 के बाद परखा जाएतो उस इलाके के लिए बीते कई दशकों का ये सबसे खतरनाक दौर साबित हुआ है। 9/11 एक तरह से अमेरिकाऔर उनके सहयोगियों के लिए हमला करने का बहाना साबित हुआ है। असल में एक हमले केबाद उकी क्षतिपूर्ति के लिए जवाबी हमला करना अमेरिकी रणनीति का पुराना हिस्सा रहाहै। 1898 में हवाना हार्बर पर हमले के बाद अमेरिकी-स्पेनिश युद्ध शुरू हुआ, लुसिटानियाकी घटना को लेकर पहले विश्वयुद्ध में अमेरिका शामिल हुआ। पर्ल हार्बर हमले के बादअमेरिका ने जापान पर नाभिकीय बम बरसाए। हालांकि कई शोधकर्ता ये मानते हैं कि पर्लहार्बर के बारे में पेंटागन को पहले से जानकारी थी और अमेरिका ने जान-बूझकर इसेनज़रअंदाज किया। 1964 में टांकिन खाड़ी की घटना के बाद वियतनाम को अमेरिका नेतहस-नहस करने की कोशिश की और फिर 9/11 आया, जिसपर कार्रवाई फिलवक्त जारी है।

अफ़गानिस्तान और इराक पर फ़तह पाने के बादअमेरिका सहित तमाम पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का मध्य-पूर्व में कौन सा देशनिशाने पर है, ये बेहद अहम सवाल है। जैविक हथियार के बहाने, जो बाद में झूठे साबितहुए, अमेरिका लगभग एक दशक से इराक को कब्जाया हुआ है। वहां इराकी सेना की बराबरसंख्या में अमेरिकी सैन्य अड्डे बने हुए हैं। सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर प्रचारितसद्दाम हुसैन को फांसी दी जा चुकी है लेकिन अमेरिकी सेना को वहां पर और ज़्यादा शांति की दरकार है।इसलिए वो अभी वहां अपने पैर भविष्य में भी जमाए रखना चाहता है। अफ़गानिस्तान मेंभी आतंकियों को पूरी तरहनिर्मूल करने के बाद ही अमेरिका वहां से हटेगा, चाहे इसमें शताब्दियां लग जाए। 2012 तक नाटो फ़ौज कीवापसी के बारे में जो बयान पहले जारी हो रहे थे उस पर संशोधन शुरू हो गया है।बताया जाने लगा है कि काबुल की स्थिति अभी स्वतंत्र रहने की नहीं है।और अब ईरान को लेकर दुनिया भर में माहौल बनाया जा रहा है।

एनबीसी न्यूज़ के साथ बात करते हुए बराकओबामा ने फ़रवरी की शुरुआत में कहा था कि ईरान पर इजरायल के साथ गठजोड़ कर हमलाकरने की सारी तैयारी लगभग पूरी कर ली गई है। इसके बाद ईरान को लेकर इजरायल ने जिसतरह का वैश्विक (कु)प्रचार अभियान की शुरुआत की उसका सिरा भारत में इज़रायलीदूतावास के सामने कार में हुए धमाके से लेकर उसके ठीक अगले दिन बैंकॉक में हुए तीनसिलसिलेवार धमाकों से जाकर मिलता है। दिल्ली पुलिस की खोजबीन से पहले ही तेल अवीवने ब्रिटिश समाचार एजेंसी रॉयटर्स के जरिए ये घोषित कर दिया कि दोनों धमाकों केपीछे ईरानी हाथ है।

ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम की वजह सेपश्चिमी देशों के निशाने पर है। पश्चिमी देशों ने कभी भी परमाणु मुक्त दुनिया कासवाल नहीं उठाया है बल्कि उनका ज़ोर हमेशा इस दिशा मे रही है कि उनकी इजाजत के साथदुनिया के देश परमाणु कार्यक्रम में आगे बढ़े। जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिएइज़रायल-अमेरिका सबसे ज़्यादा ज़ोर लगा रहा है उसे अब तक आईएईए ने ग़लत करार नहींदिया है। लेकिन अमेरिका और इज़रायल सहित यूरोपीय संघ ईरान पर लगातार दबाव बनाने कीकोशिश में हैं। यूरोपीय संघ ने ईरान की मौजूदा हालात के मद्देनज़र 23 जनवरी कोविदेश मंत्री स्तरीय बैठक की और उसमें ये तय किया कि ईरान से तेल का आयात वो जुलाईसे बंद कर देंगे। यूरोपीय संघ को ये भरोसा था कि आयात रुकने से ईरानी अर्थव्यवस्थाकी हालत बिगड़ेगी और आर्थिक नाकेबंदी के जरिए अंतत: ईरान को पश्चिमी फांस में दबोच लिया जाएगा। लेकिनइस बैठक के तुरंत बाद ईरान ने घोषणा की कि वो ब्रिटेन और फ्रांस को तेल आयात करनाबंद कर रहा है। ईरान ने जुलाई का इंतज़ार किए बगैर खुद ही पांच देशों के आयात पर16 फरवरी से पाबंदी लगा दी। ईरानी समाचार एजेंसी एफएनए के मुताबिक़ यूरोपीय संघ केजवाब में ईरान ने ये फैसला लिया है। इस फैसले की हिम्मत ईरान ने एशियाई बाज़ार केप्रति जाहिर भरोसे से पाई है। चीन और भारत जैसे देश इस मौके का सबसे ज्यादा फ़ायदाउठाने की स्थिति में है ..और शायद यही वजह है कि दिल्ली धमाके के बाद भारतीय विदेशमंत्रालय ने इज़रायल की घोषणा के तुरंत बाद कोई उत्साही बयान नहीं दिया।

अमेरिका सहित यूरोपीय संघ के देशों नेबेतुके तर्क के साथ ईरानी केंद्रीय बैंक को सील करने का फैसला लेकर अंतरराष्ट्रीयमौद्रिक व्यवस्था से उसे बिल्कुल अलग-थलग करने का भरपूर प्रयास किया है। ईरान कीमुद्रा की कीमत 35 फ़ीसदी से ज़्यादा कम हो गई। आज के हिसाब से आर्थिक युद्ध एक तरह से पूरेदेश को पंगु बनाने का कारगर हथियार है। अमेरिका-इजरायल-यूरोपीय संघ ने अपने इसअभियान में दुनिया भर के देशों को जोड़ने की कोशिश की। मिसाल के तौर पर ईरान ने जबपश्चिमी देशों को तेल आयात करना बंद किया और पश्चिमी देशों ने ईरान पर आर्थिकपाबंदियां लगाई तो अमेरिका ने भारत पर बेतरह दबाव बनाया कि भारत भी ईरानी तेल काआयात कम करे और ईरान पर आर्थिक पाबंदी लगाए, लेकिन बीते साल वैश्विक आर्थिक संकटसे बचने वाला भारत जानता है कि विश्व बाज़ार की बिगड़ती हालात का भारत पर यदि कमअसर हुआ तो उसकी बड़ी वजह यही एशियाई देश थे। जब सारी कूटनीतिक और रणनीतिक दांव हीअर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द खेले जा रहे हों तो ऐसी स्थिति में ईरान के साथ खड़ारहने में ही भारत का फ़ायदा है। असल में ये भारत की मजबूरी है। और ईरान के लिएभारतीय और चीनी बाज़ार विदेशी मुद्रा का बड़ा स्रोत! इस तरह ईरान के साथ भारत और चीन का संबंधपारस्परिक हितों में बंधा है। कुछ महीने पहले ही बराक ओबामा ने कहा था कि वैश्विकबाज़ार में अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी चीन है। और तथ्य ये है कि चीन इससमय ईरान का लगभग 20 फीसदी तेल आयात कर उस इलाके में अपना वर्चस्व पुख्ता कर रहाहै। चीनी वर्चस्व को ध्वस्त करने के लिए ईरान में पैर फैलाना अमेरिका के लिए बेहदज़रूरी हो गया है।


200 से ज़्यादा परमाणु हथियार रखने वाला इज़रायल किस आधार पर ईरान के
हथियार का विरोध कर रहा है, ये समझ से परे है।
30 जनवरी को राष्ट्रपति बराक ओबामा नेजॉर्जिया के राष्ट्रपति से लंबी बात की। जॉर्जिया ईरान का पड़ोसी मुल्क है और आकारऔर आबादी में छोटा होने के बावजूद वह अमेरिका से वित्तीय सहायता पाने वाला तीसरासबसे बड़ा देश है। इस बैठक को लेकर कई पश्चिमी विश्लेषकों का मानना है कि ईरान केसाथ किसी भी संभावित युद्ध के दौरान जॉर्जिया की ज़मीन इस्तेमाल करने को लेकरओबामा ने बात की। हालांकि ईरान को लेकर अमेरिका से ज़्यादा तत्परता इज़रायल दिखारहा है और इज़रायली सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बेनी गांट्ज ने तो यहां तक कहदिया कि अगर बाकी देश ईरान को लेकर सख्ती नहीं दिखाते तो वो अकेले ही ईरान पर हमलाकरने को तैयार है। हालांकि इज़रायल अपनी इस धमकी को ज़मीन पर उतारने मेंहिचकिचाएगा और ईरान पर हमला करने के लिए वह निश्चित तौर पर अमेरिका और नाटो देशोंका सहयोग चाहेगा, क्योंकि इज़रायल ने जब 2006 में लेबनान पर हमला किया था तोहिजबुल्लाह जैसे गुट ने इज़रायल की हालत ख़राब कर दी थी। इसलिए पूरे ईरान केख़िलाफ़ अकेले लड़ने की हिम्मत इज़रायल अकेले नहीं करेगा। इज़रायल के इस मनोभाव कोईरान अच्छी तरह जानता है और इसलिए अपनी सैन्य मज़बूती दिखाने के लिए वो सीरिया,लेबनान और जॉर्डन को सैन्य मदद पहुंचा रहा है। लेकिन इसके बावजूद अगर भविष्य मेंईरान पर अमेरिका, इजरायल और नाटो देश हमला करते हैं तो उसके लिए वो इस तरह केबहाने दुनिया के सामने रखेंगे-

· ईरान नाभिकीय हथियार बना रहा है और ये दुनिया के लिए ख़तरनाक है।

· ईरान जिद्दी देश है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की वो बात नहीं सुनता है।

· ईरान के भीतर तानाशाही पसर रही है और जनता की आवाज़ को कुचला जा रहा है।

· ईरान दुनिया भर में इजरालयी लोगों और प्रतीकों पर बम बरसा रहा है।

इसलिए नाटो को बचाव की जिम्मेदारी के तहत ईरान में सैन्य हस्तक्षेप करनाचाहिए। परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करने की अमेरिका जोमांग कर रहा है उसकी फ़ेहरिश्त अंतहीन है। कई देशों के साथ कई दौर की बातचीत केबाद अमेरिका ने आईएईए के मानकों को सबसे अहम बताया, जिसके दायरे में ईरान कोनाभिकीय कार्यक्रम चलाना था। 29-31 जनवरी को आईएईए के अधिकारियों ने ईरान का दौराकिया और उसकी रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है लेकिन उस दौरे के ठीक बादपश्चिमी मीडिया तेहरान पर ग़ैरज़िम्मेदार होने और इस तरह की जांच-पड़ताल के जरिएसमय ख़राब करने के आरोप लगाना शुरू कर दिया। ईरान पर अगला कदम बढ़ाने को लेकरइजरायल और अमेरिका बेहद उतावले हैं। यह महज संयोग नहीं है कि आईएईए ने 5 मार्च कोईरान पर बैठक बुलाई है और इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन न्टान्याहू उसी दिनअमेरिका में एआईपीएसी (अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी) की मीटिंग में अमेरिकाके साथ मध्य-पूर्व की रणनीति पर बात करेंगे। दरअसल किसी भी संभावितमौके को देखते हुए हमला करने की तैयारी में अमेरिका काफ़ी पहले से मुश्तैद है।अमेरिका ने हाल ही में अपने पूर्वी तट पर भारी-भरकम युद्धाभ्यास किया। बोल्डएलीगेटर 2012 नाम के इस अभ्यास को दक्षिणपंथी इज़रायली प्रकाशन डेबकैफिल ने पश्चिम का बीतेएक दशक का सबसे जबर्दस्त दृश्य बताया।

सीरिया और लीबिया में अमेरिकी मनसूबों को जिस तरह कामयाबी मिली है ईरान कोलेकर उसका उत्साह उतना ही बढ़ गया है। लीबिया में गद्दाफी के ख़िलाफ़ ऑपरेशन मेंनाटो ने ये हास्यास्पद दावा किया कि उनके बरसाए गए तकरीबन 2 लाख से ज़्यादा बमों कीवजह से कोई भी सिविलियन नहीं मारा गया। गद्दाफी को बागी सेना द्वारा मारने और फिरमांस बेचने वाली फ्रिज में बंद कर खुला प्रदर्शन के जो दृश्य लाईव रिपोर्टिंग केजरिए पश्चिमी मीडिया ने दुनिया भर में पहुंचाई, उसके साथ एक तरह से ये संदेश नत्थीथा कि लीबिया में अब पश्चिम की हितैषी सरकार बनेगी। ठीक उसी तरह जैसे सऊदी अरब,इराक, तुर्की या फिर जॉर्जिया में हैं। सत्ता परिवर्तन के लिए नाटो देश इस पूरी पट्टी में अपने सारे दांव खेल रहेहैं। सीरिया में लड़ रही फ्री सीरियन आर्मी को अमेरिका और नाटो ने खड़ा किया है।बंदूक और बम के अलावा टैंकों से सीरिया की गलियां पाट दी गई है। और नाटो का तर्कहै कि वो ये सब सुरक्षा की ज़िम्मेदारीके तहत कर रहा है। मध्य-पूर्व के नक्शे पर एक नज़र दौड़ाने पर आप पाएंगेकि ईरान के चारों तरफ हर देश में अमेरिकी सैन्य अड्डे बड़ी संख्या में बने हुएहैं। सऊदी अरब, इराक, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, बहरीन औरकुवैत। इसके अलावा ज़ॉर्जिया और इजरालय उसके निकट सहयोगी देश है। सीरिया में सत्तापरिवर्तन के बाद अपने मुताबिक माहौल ढालने की कोशिश में पूरी ताकत के साथ वो लगाहुआ है। जाहिर है इस पट्टी में ईरान ही एकमात्र बड़ा ऐसा देश है जो अमेरिकी रणनीतिमें फिट नहीं बैठ रहा है। इसके अतिरिक्त अन्य कई देशों के मुकाबले समृद्ध तेलभंडार होने के बावजूद अमेरिका न केवल इसका दोहन करने में नाकामयाब साबित हो रहा हैबल्कि ईरान ने अमेरिकी सलाह को ताक पर रखते हुए परमाणु कार्यक्रम पर काम लगातारजारी रखा है। इसके एवज में ईरान ने बीते 2 साल में 5 बड़े वैज्ञानिकों की जानगंवाई है। ईरानी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मुस्तफ़ा अहमदी रोशन की हत्या इसकीआखिरी कड़ी है। मुस्तफ़ा की हत्या के तरीके को हू-ब-हू दिल्ली में इजरायली दूतावासके पास कार बम विस्फोट में उतारा गया। और इसके बाद ये स्थापित करने को कोशिश हुईकि मुस्तफ़ा के बदले में ईरान ये कार्रवाई कर रहा है।


निशान में मध्य-पूर्व के उन जगहों को दिखाया गया है जहां अमेरिकी सैन्य अड्डे हैं।
ईरान, जॉर्डन, सीरिया और लेबनान अमेरिकी दख़लअंदाजी से अब तक अछूते हैं।
बार-बार ईरान ने ये स्पष्टीकरण दिया है किवो शांतिपूर्ण उद्देश्य की खातिर नाभिकीय कार्यक्रम चला रहा है लेकिन इज़रायल कोईरान के परमाणुयुक्त होने पर सबसे ज़्यादा आक्रोश है। इज़रायल का कहना है कि ईंधनकी ओट में ईरान नाभिकीय बम बना रहा है। हालांकि मोटे अनुमान के मुताबिक़ 200 सेज़्यादा परमाणु बम रखने वाला इज़रायल किस नैतिक आधार पर ईरान में परमाणु बम काविरोध कर रहा है इसका उत्तर न तो अमेरिका देगा और न ही पश्चिमी मीडिया।

ईरान के पास वैश्विक प्राकृतिक गैस कालगभग 10 फीसदी भंडार है और इराक व सऊदी अरब के बाद सबसे बड़ा तेल भंडार। अगर ईरानकाबू में आता है तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गाड़ी में इन तीनों देश के तेल भरे जासकेंगे। अमेरिका और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ये मजबूरी है कि ईरान को वो इराकमें तब्दील करें क्योंकि अमेरिका के भीतर वैश्विक तेल भंडार का महज 2 फीसदी हिस्साही है।

ईरान को लेकर अमेरिका लंबे समय से अपनीरणनीति बना रहा है। इसके अलावा बीते दिनों नाटो, तुर्की और सऊदी अरब के बीच भी इसपर महीनों बातचीत चली है कि सीरिया में उनके हस्तक्षेप का स्वरूप क्या होगा? ब्रिटिश विदेश मंत्रालय ने ये साफ़ किया था कि सीरिया को लेकर संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में वो पहले ज़ोर लगाएंगे। हालांकि पश्चिमी मीडिया ने ही येखुलासे किए कि ब्रिटिश और फ्रांसीसी विशेष सैन्य बल फ्री सीरियन आर्मी को तुर्कीके सैन्य अड्डे में प्रशिक्षण दे रहे हैं। इस प्रशिक्षण के क्या मायने हैं? क्या सीधा हमला करना ही हमला कहलाएगा, क्या सीरिया के भीतर सैन्य प्रदर्शनकरने वाले गुटों को प्रशिक्षण देना हमले का दूसरा रूप नहीं है? असद सरकार से असहमत बड़ी आबादी सीरिया में चल रहे प्रदर्शन से नाराज हैंऔर उन्हें लगता है कि इस तरह सीरिया के भीतर पश्चिमी दख़लअंदाजी बढ़ जाएगी। सीरियामें सत्ता परिवर्तन को जिस तरह अमेरिका और इजरायल अपने मुताबिक मोड़ना चाहते हैंवो ईरान के लिए भी बराबर चिंता का विषय है, क्योंकि उस इलाके में सीरिया, जॉर्डनऔर लेबनान ही दो ऐसे देश हैं जिनके साथ ईरान के दोस्ताना संबंध हैं और जोमध्य-पूर्व की राजनीति में पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ साझी रणनीति रखते हैं।

सीरिया में अमेरिकी राजदूत कोफिर से बहाल किया जाना और इसके लिए रॉबर्ट एस फोर्ड को चुना जाना अमेरिकी मंसूबेको उनके बीच बेहद स्पष्ट कर देता है जो फोर्ड की पृष्ठभूमि जानते हैं। फोर्ड 2004 से2005 के बीच इराकी जनसंहार के दौरान अमेरिका की तरफ़ से बग़दाद में नंबर दो कीपोजीशन में थे। सीरिया में फोर्ड के अनुभव का अमेरिका लाभ उठाना चाहता है! बग़दाद के सारे अनुभवियों को अमेरिका आजकल महत्वपूर्णजिम्मेदारी दे रहा है। जनरल डेविड पेट्रॉस को ओबामा ने हाल ही में सीआईए का प्रमुखबनाया है। पेट्रॉस का 2004 के बग़दाद दमन में प्रदर्शन बेहद शानदार था। सीआईए प्रमुख कीजिम्मेवारी संभालने के बाद ही पेट्रॉस ने सीरिया और ईरान को सबसे प्रमुख मुद्दाबताते हुए ये साफ कर दिया था कि अमेरिका की प्राथमिकता में अभी कौन सा इलाका सबसेअहम है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी निशाने पर रहे साम्यवाद समर्थक देशोंके बजाए बीते दो दशक में इस्लामिक देश अमेरिका के निशाने पर सबसे आगे है। सैम्युअलहटिंगटन जैसे सिद्धांतकारों ने अपने सिद्धांत के जरिए अमेरिका क इस चाल को अवश्यंभावीकरार देते हुए वैश्विक शक्ति समीकरण के लिए ज़रूरी बताया था। लेकिन सभ्यताओं का टकराव जैसे सिद्धांत के जरिएहटिंगटनने आलोचनात्मक चिंतन को गलत दिशा में मोड़ दिया। असल मेंमसला कभी भी इस्लाम बनाम ईसाईयत का नहीं रहा है। वास्तव में मध्य-पूर्व के संदर्भमें भी लड़ाई साम्यवाद बनाम पूंजीवाद का ही है और चरमराती पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाकी लगाम को मज़बूत करने के लिए ही अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी पूंजीवादी देशमध्य-पूर्व के देशों के संसाधन का ओट ले रहे हैं। यदि मध्य-पूर्व केसंसाधन का दोहन करने में अमेरिका नाकामयाब रहा तो पूंजीवाद की हालत ज़्यादा जर्जरहो जाएगी और स्वाभाविक रूप से विकल्प के तौर पर लोग साम्यवाद की ओर मुंह करेंगे।इस स्थिति को रोकने के लिए अमेरिका मध्य-पूर्व में ज़ोर लगा रहा है और विरोध करनेवाले देशों पर बम बरसा रहा है। ऐसे में विरोध करने वाला देश यदि अमेरिका के सामनेतनकर खड़ा होता है तो इसे इस्लाम बनाम पश्चिमी देश के तौर पर नहीं देखा जानाचाहिए। अगर मामला ऐसा होता तो अमेरिका उन गुटों को समर्थन ही नहीं देता जो सत्तापरिवर्तन के लिए इन देशों में लड़ रहे हैं और अपने पूरे मिजाज में इस्लामी कट्टरपंथीहैं।

असल में अमेरिकाऔर नाटो मध्य-पूर्व की राजनीति को पुरातन विचारधारा की आगोश में डालने की पूरीकोशिश में हैं। मिस्र के जिस आंदोलन को अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों का समर्थनहासिल था उसकी परिणति सैन्य और फिर इस्लामी राजनीतिक पार्टी मुस्लिम ब्रदरहुड केउभार के रूप में हुई। लीबिया में तालिबान समर्थित संगठनों ने सत्ता परिवर्तन कीलड़ाई लड़ी और पूरे इलाके के एक मात्र बचा धर्मनिरपेक्ष राज्य सीरिया के सत्तापरिवर्तन के लिए भी ऐसी ही शक्ति को अमेरिका, इज़रायल और नाटो देश समर्थन दे रहे हैं।क्याअद्भुत संयोग है कि सीरिया के भीतर दुनिया में अल-कायदा को अपना सबसे बड़ा दुश्मनमानने वाले अमेरिका और अलकायदा दोनों का लक्ष्य एक ही है। बीते दिनों अलकायदा नेताअयमान अल-जवाहरी ने एक वीडियो जारी कर सीरिया के पड़ोसी मुल्कों से ये आह्वान कियाथा कि सीरिया के असद सरकार के ख़िलाफ़ वो संगठित हो। अगरसीरिया में भविष्य में सत्ता (या व्यवस्था) परिवर्तन होता है तो उसका स्वरूप या तोइस्लामी गणतंत्र का होगा या फिर अमेरिकापरस्त लोकतंत्र का।

मध्य-पूर्व को अमेरिका अपनेसैन्य अड्डे के तौर पर इस रूप में विकसित करना चाहता है जो रणनीतिक तौर पर अमेरिकीहित में सबसे ज़्यादा मुफीद हो और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को संवर्धित करने मेंमददगार हो। हमले के बाद इन देशों में कठपुतली सरकार बनाकर अमेरिकाअपनी रणनीति में काफी हद तक कामयाब भी हो रहा है। जो देश हमला नहीं झेलना चाहते वोसीधे-सीधे अमेरिकी दोस्ती को अमेरिकी शर्त पर निभा रहे हैं। हाल ही में सऊदी अरबद्वारा इतिहास में अब तक का सबसे ज़्यादा मूल्य यानि 50 अरब डॉलर के हथियार खरीदनेको इसी रूप में देखा जाना चाहिए। सीरिया में यदि सत्ता परिवर्तन होता है तो यह ईरान को उस इलाके में बिल्कुल अलग-थलग कर देगा। और एक तरह से ईरान के लिए यह बड़ी हार होगी। ईरान पर सीधे हमला करने से पहले अमेरिका और इजरायल की कोशिश यही होगी कि सीरिया को पहले अपने अनुकूल बना लिया जाए।