29 जुलाई 2010

विकास तो चाहिए, पर किस तरह?

  • देवाशीष प्रसून

द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति तक साम्राज्यवादी ताक़तों को यह समझ में आ गया था कि अब केवल युद्धों के जरिए उनके साम्राज्य का विस्तार संभव नहीं है। उन्हें ऐसे कुछ तरक़ीब चाहिए थे, जिसके जरिए वे आराम से किसी भी कमज़ोर देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप कर सकें। इसी सिलसिले में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थशास्त्र के फलक पर ’विकास’ को फिर से परिभाषित किया गया। इससे पहले विकास का मतलब हर देश, हर समाज के लिए अपनी जरूरतों व सुविधा के मुताबिक ही तय होता था। पर, संयुक्त राष्ट्र संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश व विश्व व्यापार संगठन जैसे ताकतवर प्रतिष्ठानाओं के उदय के बाद से विकास का मतलब औद्योगिकरण, शहरीकरण और पूँजी के फलने-फूलने के लिए उचित माहौल बनाए रखना ही रह गया। दुनिया भर के पूँजीपतियों की यह गलबहिया दरअसल साम्राज्यवाद के नये रूप को लेकर आगे बढ़ी। इस प्रक्रिया में दुनिया भर में बात तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने की हुई, लेकिन हुआ इससे बिल्कुल उलट।

भारत का ही उदाहरण लें। शुरु से ही विकास के नाम पर गरीबों का अपने ज़मीन व पारंपरिक रोजगारों से विस्थापन हुआ है। जंगलों को हथियाने के लिए बड़े बेरहमी से आदिवासियों को बेदख़ल किया गया जो आज भी मुसलसल जारी है। आँकड़े बताते हैं कि सन ’४७ से सन २००० के बीच सिर्फ़ बाँधों के कारण लगभग चार करोड़ लोग विस्थापित हुए है, अन्य विकास परियोजना के आँकड़े अगर इसमें जोड़ दिए जायें तो विस्थापन का और भयानक चेहरा देखने को मिलेगा। विकास के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सरकारों द्वारा बड़े स्तर पर मानवाधिकार उल्लंघन, सैन्यीकरण और संरचनात्मक हिंसा की घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है।

औद्योगीकरण, शहरीकरण, बाँध, खनिज उत्खनन और अब सेज़ जैसे पैमानों पर विकास की सीढ़ियों पर नित नए मोकाम पाने वाले हमारे देश में इस विकास के राक्षस ने कितना हाहाकार मचाया है, यह शहर में आराम की ज़िंदगी जी रहे अमीर या मध्यवर्गीय लोगों के कल्पना से परे है, पर देश में अमीरी और ग़रीबी के बीच बढ़ता दायरा इस विभत्स स्थिति की असलियत चीख़-चीख़ कर बयान करता है। बतौर बानगी, देश में बहुसंख्यक लोग आज भी औसतन बीस रूपये प्रतिदिन पर गुज़रबसर कर रहे हैं और दूसरी ओर कुछ अन्य लोगों के बदौलत भारत दुनिया में एक मज़बूत अर्थव्यव्स्था के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। अलबत्ता, सरकार अपनी स्वीकार्यता बनाये रखने के लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी सरीखे योजनाएं भी लागू करती हैं। पर, इस तरह की योजनाओं का व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते क्या हश्र हो रहा है, सबको पता है और फिर भी अगर साल भर में सौन दिन का रोज़गार मिल भी जाए तो बाकी दिन क्या मेहनतकश आम जनता पेट बाँध कर रहे? हमारी सरकार विकास को शायद इसी स्वरूप में पाना चाहती है?

देश में विकास में मद्देनज़र ऊर्जा की बहुत अधिक खपत है और विकास के पथ पर बढ़ते हुए ऊर्जा की जरूरतें बढ़ेंगी ही। ऊर्जा के नए श्रोतों में सरकार ने न्यूक्लियर ऊर्जा के काफी उम्मीदें पाल रखी हैं। जबकि कई विकसित देशों ने न्यूक्लियर ऊर्जा के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए इनके उत्पादन के लिए प्रयुक्त रियेक्टरों पर लगाम लगा रखा है, वहीं भारत सरकार को अपने यहाँ इन्हीं यम-रूप उपकरणों को स्थापित करने की सनक है। और अब आलम यह है कि न्यूक्लियर क्षति के लिए नागरिक देयता विधेयक पर सार्वजनिक चर्चा किए बिना ही इसे पारित करवाने की कोशिश की गई। इसमें यह प्रावधान था कि भविष्य में बिजली-उत्पादन के लिए लग रहे न्यूक्लियर संयंत्रों में यदि कोई दुर्घटना हो जाए, तो उसको बनाने या चलाने वाली कंपनी के बजाय भारत सरकार क्षतिपूर्ति के लिए ज़िम्मेवार होगी। अनुमान है कि ऐसी किसी भी स्थिति में भारत सरकार को जनता के खजाने से हर बार कम से कम इक्कीस अरब रूपये का खर्च करने पड़ेंगे। विदेशी निगमों को बिना कोई दायित्व सौंपे ही, उनके फलने-फूलने के लिए उचित महौल बनाए रखने के पीछे हमारी सरकार की क्या समझदारी हो सकती है? सरकार के लिए विकास का यही मतलब है क्या?

छत्तीसगढ़ के दक्षिणी जिलों – बस्तर, दंतेवाड़ा और बीजापुर में उन्नत गुणवत्ता वाले लौह अयस्क प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। यह जगह पारंपरिक तौर पर आदिवासियों का बसेरा है और वे इस इलाके में प्रकृति का संरक्षण करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं। इन आदिवासियों का जीवन यहाँ के जंगलों के बिना उनके रोजगार और सांस्कृतिक व सामाजिक जीवन से विस्थापन जैस होगा। सरकार को विकास के नाम पर यह ज़मीन चाहिए, भले ही, ये आदिवासी जनता कुर्बान क्यों न हो जायें और पर्यावरण संरक्षण की सारी कवायद भाड़ में जाए। इस कारण से जो ज़द्दोजहद है, उसकी परिणति गृहयुद्ध जैसी स्थिति में है। इसमें एक तरफ, आदिवासी लोग जंगल पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ, सरकार के प्रोत्साहन पर केंद्रीय पुलिस बल और उसके द्वारा समर्थित सलवा जुडूम अपनी नौकरी बजा रहे हैं। सूत्रों से पता चलता है कि यह पूरा खूनी खेल टाटा स्टील और एस्सार स्टील के इशारे पर लौह अयस्क से संपन्न गांवों के अधिग्रहण करने हेतु खेला जा रहा है। बहरहाल, आदिवासियों को उनके आजीविका के साधनों, जीवन का आधार और अविवादित रूप से उनकी अपनी संपत्ति - इन जंगलों से महरूम करने वाले इसी व्यवस्था का एकमात्र उद्देश्य विकास करना है। सवाल यह है कि यह विकास किसका होगा और किसके मूल्य पर होगा?

विकास के इस साम्राज्यवादी मुहिम में उलझे अपने इस कृषिप्रधान राष्ट्र में आज खेती की इतनी बुरी स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है? विदेशी निगम के हितों को ध्यान में रखकर वैश्विक दैत्याकार प्रतिष्ठानोंके शह पर हुई हरित क्रांति अल्पकालिक ही रही। जय किसान के सारे सरकारी नारे मनोहर कहानियों सेअधिक कुछ नहीं थे। खेती में अपारंपरिक व तथाकथित आधुनिक तकनीकों के प्रवेश ने किसानों को बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों सिंचाई, कटाई और दउनी आदि कामों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा नियंत्रित उद्योगों के उत्पादों पर निर्भर कर दिया है। हरित क्रांति के आह्वाहन से पहले भारतीय किसान बीज-खाद आदि के लिए सदैव आत्मनिर्भर रहते थे। लेकिन कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा लादे गये आयातित विकास योजनाओं ने किसानों को हर मौसम में नए बीज और खेतीबाड़ी में उपयोगी ज़रूरी चीज़ों के लिए बाज़ार पर आश्रित कर दिया है। बाज़ार पैसे की भाषा जानता है। और किसानों के पास पैसे न हो तो भी सरकार ने किसानों के लिए कर्ज की समुचित व्यवस्था कर रखी है। इस तरह से हमारी कल्याणकारी सरकारों ने आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और संपन्न किसानों को कर्ज के चंगुल में फँसाते हुए ’ऋणं कृत्वा, घृतं पित्वा’ की संस्कृति का वाहक बनाने का लगातार सायास व्यूह रचा है। छोटे-छोटे साहूकारों को किसानों का दुश्मन के रूप में हमेशा से देखा जाते रहा है, पर अब सरकारी साहूकारों के रूप में अवतरित बैंकों ने भी किसानों का पोर-पोर कर्ज मेंडुबाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। कर्ज चुकाने की बेवशी से आहत लाखों किसानों के आत्महत्या का सिलसिला जो शुरु हुआ, ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है।

कृषि में विकास का कहर यहाँ थमा नहीं है, हाल में पता चला है कि हरित क्रांति के दूसरे चरण को शुरु करने को लेकर जोर-शोर से सरकारी तैयारियाँ चल रही है। छ्त्तीसगढ़ में धान की कई ऐसी किस्में उपलब्ध हैं, जिनकी गुणवत्ता और उत्पादन हाइब्रिड धान से कहीं अधिक है और कीमत बाज़ार में उपलब्ध हाइब्रिड धान से बहुत ही कम। फिर भी, दूसरी हरित क्रांति की नए मुहिम में कृषि विभाग ने निजी कंपनियों को बीज, खाद और कीटनाशक दवाइयों का ठेका देने का मन बना लिया है। ठेका देने का आशय यह है कि उन्हीं किसानों को राज्य सरकार बीज, खाद या कीटनाशक दवाइयों के लिए सब्सिडी देगी, जो ठेकेदार कंपनियों से ये समान खरीदेंगे, अन्यथा किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलेगी। गौरतलब है कि इस तरह से ये निजी कंपनीयां किसानों को अपने द्वारा उत्पादित बीज महंगे दामों पर बेचेगी और एक बड़ी साजिश के तहत किसानों के पास से देशी बीज लुप्त हो जायेंगे। बाद में फिर किसानों को अगर खेतीबाड़ी जारी रखनी होगी तो मज़बूरन इन कंपनियों से बीज वगैरह खरीदने को बाध्य होना पड़ेगा। यह किसानों को खेती की स्वतंत्रता को बाधित करके उन्हें विकल्पहीन बनाने का तरीका है। कुल मिलाकर खेतीबाड़ी को एक पुण्यकर्म से बदल कर अभिशाप में तब्दील करने के लिए सरकार ने कई प्रपंच रचे हैं। जिससे कोफ़्त खाकर लोग आत्मनिर्भर होने के बजाये पूँजीवादी निगमों की नौकरियों को अधिक तवज्जों देने को मज़बूर हो।

विकास के तमाम उद्यमों के वाबज़ूद, हमारा देश पिछले कुछ महीनों से कमरतोड़ महंगाई के तांडव को झेलता आ रहा है। दाल, चावल, खाद्य तेलों और सब्जियों जैसी ज़रूरी खाद्य वस्तुओं के आसमान छूती कीमतों के आगे सरकार हमेशा घुटने टेकती ही दिखी। पेट्रोल व डीज़ल के उत्पाद के बढ़ते दाम से ज़रूरत की अन्य चीज़ों की कीमत महंगे ढुलाई के कारण बढेगी ही और यों बढ़ रही कीमतों से पूरा जनजीवन त्राहिमाम कर रहा है। बेहतर जीवन स्थिति बनाना भर ही सरकार का काम है। असामान्य रूप से बढ़ती कीमतों के लिए एक तरफ अपनी लाचारी दिखाते हुए सरकार दूसरी ओर, यह डींग हाँकने से परहेज़ भी नहीं करते कि देश ने इतना विकास कर लिया है कि भारत की गिनती अब विश्व के अग्रनी देशों में हो रही है। अगर किसी देश की अधिकतर जनता को यह नहीं पता हो कि वह जी-तोड़ मेहनत के बाद वह जितना कमायेगा, उसमें उसका और उसके परिवार का पेट कैसे भर पायेगा, तो इससे ज्यादा अनिश्चितता क्या हो सकती है? बढ़ती महंगाई को एक सामान्य परिघटना के रूप में प्रस्तुत करना सर्वथा अनुचित है। देश की सरकार की नैतिक ज़िम्मेवारी है, कि देश की जनता को अपना जीवन सुचारू रूप से चलाने के लिए वह अनुकूल परिस्थिति बनाए रखे, जिसमें विकासवादी सरकारों को कोई मतलब नहीं दिखता। लोग सोचने को मज़बूर हो रहे हैं कि इस देश में विकास तो रहा है, जोकि बकौल सरकार होना ही चाहिए, लेकिन यह किस तरह और किनके लिए हो रहा है?

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संप्रति: पत्रकार और शोधार्थी
संपर्क-सूत्र: रामायण, बैद ले आउट, सिविल लाइन्स, वर्धा-442001,
दूरभाष: 09555053370

26 जुलाई 2010

संसदीय लोकतंत्र का नैतिक पतन

चन्द्रिका
बिहार विधान सभा में हुए हंगामा न तो पहला है न ही आखिरी बिहार के अलावा भी यदि अन्य राज्यों की एक सूची बनाई जाय तो लम्बी फेहरिस्त बनेंगी. अलबत्ता इस घटना के बाद ६७ सांसदों को निलम्बित कर दिया गया है. इस पूरी घटना को क्या इस रूप में लिया जाना चाहिये कि विपक्ष, नितीश सरकार के द्वारा की गयी ११,४१२ करोड़ की कथित अनियमितता को उजागर करना चाहता था जिसकी प्रतिरोध स्वरूप यह हंगामा किया गया या फिर यह संसदीय राजनीति का क्रमवार नैतिक पतन है. दरअसल यह एक नाटक है जो संसदीय राजनीति में खेला जाना जरूरी हो गया है और तब इसकी अहमियत और भी ज्यादा बढ़ जाती है जब चुनाव नजदीक हों. जिस सी.ए.जी. की रिपोर्ट को लेकर यह हंगामा हुआ वह जुलाई २००९ में ही सदन में प्रस्तुत की गयी थी तब से लेकर अब तक कोई खास विरोध विपक्ष के द्वारा नहीं किया गया. अब जबकि बिहार में चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो ऐसी स्थिति में यह नाटक खेला जाना राजनीतिक परिदृष्य में एक अहम भूमिका अदा करेगा और मीडिया के जरिये इन्हें प्रचार या कुप्रचार मिल सकेगा. यह ऐसा ही मसला है जैसे कुख्याति की भी एक ख्याति होती है और अब तक इसे देश की राजनीति में कई आपराधिक तत्व इस प्रवृत्ति को भुनाते रहे हैं. अपने आपराधिक कुख्यातपन को ख्याति में बदल कर भीड़तंत्र का समर्थन हासिल करने में वे कामयाब हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में मीडिया सर्वसुलभ होती है जिसके जरिये परिदृष्य से वर्षों से गायब एक नेता लोगों के सामने दृष्यमान हो उठता है, वह भी प्रतिरोध करता हुआ, अनियमितताओं के खिलाफ जूझता हुआ, कुमारी ज्योति की तरह जो शारीरिक अक्षमता के बावजूद गमले तोड़े जा रही थी.

कुछ वर्ष पूर्व ही जब बिहार विधान सभा में एक पत्रकार के प्रसाशनिक दमन के बाद पत्रकारों ने सदन से वहिस्कार का फैसला लिया था ऐसी स्थिति में सदन के सदस्यों द्वारा यह कहा गया था कि मीडिया की अनुपस्थिति में शोर सराबे का कोई मतलब नहीं है और उस दिन शोर सराबा स्थगित रहा, तो क्या यह मान लिया जाय कि सदन में किया जाने वाला शोर सराबा मीडिया के लिये किया जाता है ताकि नेताओं और विपक्षि दलों के दिखावटी विरोध लोगों तक मीडिया के जरिये पहुंच सके और लोगों को लगे कि उनके नेता मुद्दों के प्रति कितने जुझारू हैं. निश्चित तौर पर सदन के प्रतिरोध महज दिखावटी ही रह गये है क्योंकि सत्तारूढ़ और विपक्ष दोनों ही इस संरचना में एक पॉलिसी के तहत कार्य कर रहे हैं जहाँ विपक्ष के लिये प्रतिरोध एक अनुष्ठानिक कार्यक्रम बन जाता है.
विधायिका संसदीय राजनीति का एक अहम स्तम्भ है पर इसमे क्रमवार गिरावट देखी जा सकती है राज्य सभा के सभापति के रूप में जब डा. शंकर दयाल शर्मा को रोते हुए यह कहना पड़े कि “लोकतंत्र की हत्या न करें चाहें तो मेरी जान ले लें” इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि सदन के कार्यवाही की स्थितियां किस रूप में विद्रूप होती चली गयी हैं. जबकि वास्तविक स्थिति ये है कि सदन के कार्यवाहियों का जो हिस्सा मीडिया के जरिये प्रस्तुत किया जाता है वह सम्पादित किया हुआ रहता है. जिसमे सदन में हुए अशोभनीय आचरण को पहले ही निकाला जा चुका होता है. आखिर देश की जनता जिन नेताओं को चुनाव कर अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेजती है उनके आचरण को ठीक उसी रूप में देखने का हक क्यों नहीं मिल पाता जिस रूप में वे सदन में आचरण करते हैं.

यही नहीं बल्कि सदन में कई बार प्रतिनिधियों के साथ वर्गीय व जातीय आधार पर भेदभाव के मसले भी खुलकर सामने आये और हंगामा भी हुआ पर उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर करार दिया गया है. चाहे वह झारखंड में आदिवासी विधायक करिया मुंडा के हड़िया पीकर सदन में आने का मसला हो या उत्तर प्रदेश में गाजीपुर के विधायक काशीनाथ यादव के बिरहा गाने का. झारखंड में आदिवासी विधायक करिया मुंडा के हड़िया पीकर आने पर सदन के कई सदस्यों द्वारा उनका उपहास किया गया था और मुंडा रोते हुए बोले थे कि जब कोई सदस्य व्हिस्की और रम पीकर आ सकता है तो वे हड़िया पीकर क्यों नहीं आ सकते, उन पर कोई आवाज क्यों नहीं उठाता. इसी तौर पर गाजीपुर के विधायक काशीनाथ यादव ने कुछ वर्ष पूर्व सदन में कहा कि वे अपनी बात बिरहा से शुरू करना चाहते हैं और सदन में हो हल्ला मचने लगा लालजी टंडन ने तो यहाँ तक कहा कि सदन में एक पतुरिया की कमी और रह जायेगी कहिये तो उसे भी पूरी कर दें ऐसी स्थिति में अध्यक्ष ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि जब लोग सदन में दुष्यंत कुमार, निदा फाजली, गालिब से अपनी बात शुरू कर सकते हैं तो बिरहा में बात क्यों नहीं रखी जा सकती जबकि यह एक लोक विधा है. ये ऐसी घटनायें हैं जो देश के उस सदन में घटित होती हैं जो समता, समानता के नारे की संरचना निर्मित करता है और अपनी कार्यप्रणाली में असमानता की संस्कृति को बनाये हुए है.

14 जुलाई 2010

मैं माओवादी नहीं हूं, मुझे फंसाया जा रहा है : लिंगाराम

छत्तीसगढ़ पुलिस की तरफ से घोषित किये गये माओवादी मास्टरमाइंड लिंगाराम कोडोपी ने खुद को बेगुनाह बताया है। नम आंखों के साथ दिल्ली के प्रेस क्लब में एक प्रेस कानफ्रेंस में लिंगाराम ने कहा कि वो बेगुनाह हैं और उनका कांग्रेस नेता अवधेश सिंह गौतम के घर पर हुए हमले से कोई लेना-देना नहीं है। लिंगाराम नोएडा के इंटरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं और उनके मुताबिक मई के बाद से वो एनसीआर छोड़ कर कहीं नहीं गये।
एक दिन पहले छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के एसएसपी एसआरपी कल्लुरी ने दावा किया था कि छह जुलाई को कांग्रेस नेता के घर पर हुए हमले का मास्टरमाइंड लिंगाराम कोडोपी है। पुलिस ने यह भी दावा किया था कि कोडोपी के रिश्ते अरुंधती रॉय, मेधा पाटकर, हिमांशु कुमार और नंदिनी सुंदर से है। कल्लुरी के उस दावे के बाद सोमवार को लिंगाराम कोडोपी की यह प्रेस कानफ्रेंस हुई। कोडोपी के साथ मानवाधिकार की आवाज़ बुलंद करने वाले जाने-माने वकील प्रशांत भूषण और सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश थे।
पत्रकारों से बात करते हुए लिंगाराम के आंसू निकल गये। उन्होंने बताया कि उनका माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस बस उन्हें परेशान कर रही है। उनका उत्पीड़न कर रही है। पिछले साल सितंबर में पुलिस ने उन्हें उनके गांव से बिना बात उठा लिया और 40 दिन तक हिरासत में रखा। पुलिसवाले उन्हें जबरन स्पेशल पुलिस ऑफिसर बनाना चाहते थे। और उन्हें तब छोड़ा गया घरवालों ने बिलासपुर हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। लिंगाराम के वकील ने कहा कि उन्हें पूछताछ से इनकार नहीं है, लेकिन उत्पीड़न नहीं होना चाहिए। लिंगाराम ने कहा कि वो माओवादी नहीं है और इस आरोप में पुलिस का उत्पीड़न झेलने की बजाय वो मर जाना पसंद करेंगे।
प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने कहा है कि वो पुलिस के ख़िलाफ़ मानहानि का मुकदमा करने का मन बना रही हैं। यह पुलिसिया रवैया बेहद अपमानजनक और ख़तरनाक है। इस बीच छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) विश्वरंजन ने कहा है कि जांच खुफिया जानकारियों के आधार पर चल रही है और एक मुखबिर ने उन्हें जो सूचना दी, उसी के आधार पर एसएसपी कल्लुरी ने बयान दिया था। उन्होंने कहा कि लिंगाराम की गिरफ्तारी बिना पूछताछ के नहीं होगी। किसी सबूत के आधार पर नहीं होगी।


अरुंधती और मेधा के ख़िलाफ भूमिका बना रही है पुलिस
अगर यह खबर सही है तो छत्तीसगढ़ पुलिस एक बेहद खतरनाक साजिश रच रही है। यह साजिश है मानवाधिकार की आवाज उठाने वाले लोगों की ईमानदारी और नीयत पर सवाल उठा कर उन्हें फंसाने की। इंडियन एक्सप्रेस की खबर और पीटीआई की तरफ से जारी रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ पुलिस ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की है। इस प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि छह जुलाई को बस्तर में कांग्रेस नेता के घर पर हुए हमले की साजिश रचने वाले शख्स का अरुंधती रॉय, मेधा पाटकर और गांधीवादी तरीके में यकीन रखने वाले एनजीओ वनवासी चेतना आश्रम के हिमांशु कुमार से रिश्ता है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक पुलिस की तरफ से भेजे गये बिना हस्ताक्षर वाली प्रेस रिलीज में दावा किया गया है कि कांग्रेस नेता अवधेश गौतम के घर पर हमले की साजिश लिंगाराम को़डोपी में रची थी। को़डोपी दिल्ली और गुजरात में आतंकी गतिविधियों की ट्रेनिंग ले चुका है। माओवादी नेता चेरुकरी राजकुमार उर्फ आजाद के मारे जाने के बाद को़डोपी को छत्तीसगढ़ का प्रभारी बना दिया गया है।
सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने पुलिस के इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ में बहुत से लिंगाराम हैं और वो नहीं जानती की पुलिस किसकी बात कर रही है। उन्होंने कहा कि पुलिस के आरोप फर्जी हैं और उनमें कोई दम नहीं है।
यह पहला मौका नहीं है जब छत्तीसगढ़ पुलिस ने मानवाधिकार की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर निशाना साधा है। इससे पहले भी पुलिस के आला अधिकारी अरुंधती रॉय और हिमांशु कुमार पर नक्सलियों से साठगांठ के आरोप लगाते रहे हैं। लेकिन अब उन्होंने मेधा पाटकर को भी इसमें लपेट लिया है। मतलब साफ है… जो भी नक्सलवाद के खिलाफ चल रहे अभियान में पुलिस और प्रशासन के साथ नहीं है, बारी-बारी उन सभी के खिलाफ कार्रवाई की भूमिका तैयार की जा रही है।
mohalla live se.