31 मई 2010

शुड वी एब्यूज आर......

खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियाँ फिर से गुजरने लगी हैं........ देश की सरकार ने लासों की कीमत अदा करनी शुरु कर दी है..... हर मरने वाले के जिंदगी की कीमत छः लाख रूपये, छः लाख की रकम का मतलब, वह रकम है जिसका आधा भी देश के ८० प्रतिशत लोगों द्वारा उनकी जिंदगी में नहीं कमाया जाता (सेन-गुप्ता कमेटी रिपोर्ट- २० रूपये प्रति दिन × ३६५ एक वर्ष में दिन × ३५ वर्ष एक व्यक्ति के कमाने की उम्र = २५५५०० रूपये). तो क्या आप सरकार की लापरवाहियों के वास्ते मरने के लिये तैयार हैं. इस आंकड़े को थोड़ा और बढ़ाया जाय, २०११ की जनगणना अभी नहीं आयी है इसलिये २००१ की जनगणना में देश की जनसंख्या १ अरब ६ करोड़ को लिया जाय और अगर सरकार को पूरा देश खाली कराना पड़े (अंबानी, मित्तल और अन्य कुछ पूजीपतियों के साथ कुछ नेताओं को देश की जरूरत पड़ जाय तो) तो देश के जनता की कीमत - १ अरब ६ करोड़ × ६ लाख = ६३६०००००००००००० रूपये है (सम्भवतः छः हजार तीन सौ साठ ख़रब रुपये). शायद मुवाबजे के तौर पर यह कीमत अदा की जा सकती है, मसलन जिंदगीयों को रूपये में आंका जा सकता है. हम इसे महज आंक रहे हैं और हमारी सरकार इसे दे भी सकती है, दे सकती है कि पंचवर्षीय परियोजनाओं के बजट जीरो हो जायेंगे कि एक बार देश जनता की तमाम समस्याओं से मुक्त हो जायेगा..... कि हमारे देश के संसद में बैठे नेताओं के लिये...... क्या देश की सबसे बड़ी समस्या देश के लोग नहीं हैं.
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं.........पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं.....शायद अब तक वोट पड़ भी चुके हों. गुजरात में २००२ के साबरमती एक्सप्रेस की घटना याद है, ठीक बाद चुनाव के नतीजे भी याद करिये.... हमारे देश के चुनावों में रेल घटनायें बड़ी अहम भूमिका अदा करती हैं. ममता बनर्जी बहुत निर्भीक रेल मंत्री हैं, पुलिस के रोकने के बावजूद घटना स्थल पर गयी, एन. डी. टी. वी. की पत्रकार ....बनर्जी को जब वे बाइट दे रही थी तो उनकी आवाज़ में गमगीनियत को आपने नहीं सुना? उनकी आंखों में आँसू जैसा कुछ था... अगर वह आँसू नहीं था तो उसे आँसू मान लीजिये, अब रेलमंत्री इस तरह तो नहीं रोयेंगी जैसे कि हादसे में मरने वालों के परिजन......फिर तो मीडिया के लिये स्टोरी ही बदल जाती. अपने आंसुओं के साथ ममता बनर्जी ने सारी तोहमत राज्य सरकार पर लगा दी, और राज्य सरकार ने पी.सी.पी.ए. (पीपुल्स कमेटी अगेन्स्ट पुलिस एट्रोसिटि) पर, घटना स्थल से संगठन के पर्चे भी बरामद कर लिये गये. पी.सी.पी.ए. के साथ ममता बनर्जी के सम्बंध लालगढ़ आंदोलन के समय जगजाहिर थे. यह चुनाव के दरम्यान लोगों की लासों के आंच पर वोट की रोटी का सेंका जाना था..... किसने कितनी रोटियाँ सेंकी, हाल में आने वाले चुनावी नतीजों से इसका पता चल जायेगा. एक अरब से ज्यादा की आबादी में १००-२०० का मरना बड़ी बात नहीं होती..... चुनावों के दरम्यान उस राज्य की यात्रा न करें जहाँ चुनाव होने वाले हों.....
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं......... आइ.बी.एन.सेबन का पत्रकार पटना से चलकर वहाँ सबसे पहले पहुंचा था ऐसा दावा उस चैनल का है..... बस थोड़ी सी चूक हुई और उस थोड़ी सी चूक और थोड़ी देरी का अफसोस हर चैनल को रहेगा और रहना भी चाहिये..... कि वे उन माओवादियों की तस्वीर नहीं ले पाये जिन्होंने हमले किये थे, शायद किसी चैनल के पत्रकार ने इन्हें भागते हुए भी देखा हो.....पर सबूत का आभाव...खैर सबूत कोई मायने नहीं रखते. खबर हमारी और फैसला आपका... देश के गृहमंत्रालय के पास इस बात की खबर भले न हो, देश की आई. बी. को इस बात की जानकारी रही हो या नही, अलबत्ता माओवादी पार्टी के नेताओं को भी इस बात की भनक नहीं थी कि इस घटना को वे अंजाम दे रहे हैं...ट्रेन ड्राइवर बी. के. दास के एफ.आइ.आर. में भले ही यह महज एक दुर्घटना के रूप में दर्ज किया गया हो.... नागपुर पहुंचने वाले उस ट्रेन के यात्री भले ही इनकार करें पर.... यदि घटना को अंजाम देने वालों के बारे में जानकारी थी तो मीडिया चैनलों और अखबारों को उनके पास पुख्ता सबूत थे कि इस घटना को अंजाम माओवादियों ने दिया है, क्या सी.बी.आई. इस बात की तफ्सीस करेगी कि यह जानकारी मीडिया को कैसे थी.... पर यह माओवादियों द्वारा देश में किया गया सबसे बड़ा हमला था, यह बात मीडिया द्वारा स्थापित की जा चुकी है और इस पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई घंटे व प्रिंट मीडिया के कई पन्ने रगें जा चुके हैं, यह इसलिये भी था क्योंकि माओवाद का भूत चैनलों की टी.आर.पी बढ़ाता है, यह इसलिये था क्योंकि झूठ बोलने के एवज में माओवादियों ने अभी तक किसी मीडिया संस्थान पर हमला नहीं किया है.... फिर बात क्यों न भविष्य की आसंकाओं पर की जाय कि यदि माओवादी मीडिया संस्थानों पर झूठ बोलने व मुखबिरी करने के एवज में हमला करें तो उसके क्या-क्या विश्लेषण होंगे? पी.सी.पी.ए. प्रवक्ता असित महतो का बयान आ चुका है जिसे किसी भी मीडिया द्वारा नहीं दिखाया या बताया गया कि इस घटना में उनके हाँथ नहीं है और माओवादी प्रवक्ता और राज्य समिति के सदस्य राकेश व कंचन नाम से भी बयान आ चुके हैं कि यह घटना उनके द्वारा नहीं की गयी है साथ में यह मांग भी कि इसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिये. उनके बयान में यह भी कहा जा चुका है कि रेलविभाग द्वारा जिन रेलगाड़ियों को माओवादियों के भय से रोका जा रहा है या उनके समय में बदलाव किया जा रहा है, उन्हें इस बात से भय मुक्त रहना चाहिये, माओवादियों द्वारा इस तरह की कोई भी जनविरोधी कार्यवाही नहीं की जायेगी.

26 मई 2010

छत्तीसगढ़ में ...(डायरी के कुछ अंश):- - देवाशीष प्रसून

९ दिसंबर
सूचना मिली कि १२ और १३ दिसंबर २००९ को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पूरे देश से लगभग पच्चीस नारी अधिकार संगठनों की कार्यकर्त्ताएँ इकट्ठा होने वाली हैं, जो राज्य सत्ता द्वारा किए जाने वाले दमनों के दौरान किए जाने वाली यौन-हिंसा पर अपनी जानकारियों, अनुभवों और इसके खिलाफ़ किए गए अपने संघर्षों को साझा करेंगी। यह कार्यक्रम २४ और २५ अक्टूबर २००९ को भोपाल में हुए यौन हिंसा एवं राजकीय दमन के विरुद्ध महिलाओं के साझा अभियान की निरंतरता में था। कार्यक्रम के अगले चरण में यह भी यह तय था १४ तारीख को इस सम्मेलन से कुछ प्रतिनिधि दंतेवाड़ा जिले के नेंड्रा गाँव में जाकर बलात्कार-पीड़ित महिलाओं के प्रति अपनी हमदर्दी व्यक्त करेंगी। मैंने निर्णय लिया कि मुझे भी इस आयोजन का एक हिस्सा बनना है। कारण - अव्वल तो ऐसे आयोजनों से देश के सुदूर इलाकों में हो रहें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का पता चलता है। दूसरा यह है कि इन आयोजनों में शिरकत करने से आमलोगों और जनजीवन से जुड़ी उन ख़बरों की जानकारी होती है, जो आज व्यावसायिक मीडिया के जरिए लोगों तक नहीं पहुँच रही हैं। वहाँ जाने का तीसरा और सबसे मह्त्वपूर्ण आकर्षण दंतेवाड़ा जाकर अपने देश के एक ऐसे हिस्से को समझना-बूझना था, जिसे तनावग्रस्त घोषित करके सरकार ने विदेशवत कर दिया है, जहाँ आप प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध नहीं आ-जा सकते हैं।

१२ दिसंबर
सुबह रायपुर पहुँचा। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कार्यकर्त्ताओं ने इस सम्मेलन में ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था संभाल रखी थी। नियत समय पर बैठक शुरू हुई। कार्यक्रम की शुरूआत में ही नारायणपटना में हुई राजकीय दमन पर चिंता व्यक्त की गई। वहाँ के आदिवासियों इस बात के लिए संघर्षरत हैं कि जिन ज़मीनों को उनके पूर्वजों ने जंगल की सफाई करके खेती योग्य बनाया था, उस पर उनका हक़ होना चाहिए। लेकिन पुलिस ने मौज़ूदा ज़मींदारों का साथ दिया। आदिवासियों के प्रति अपने सौतेला रवैये के कारण पुलिस इस आंदोलन को कुलचने में लगी रही। आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू हुई। महिलाओं के खिलाफ यौन-हिंसा की गई। त्राहिमाम करते हुए जब आदिवासी जनता थाने में पहुँची, तब पुलिस ने उन पर गोलियाँ दागनी शुरू की, जिसके कारण दो लोगों की हत्या हुई और पच्चीसों लोग घायल हुए। इस मामले के तह तक जानने के लिए नारी अधिकार आंदोलनों से जुड़ी हुई कुछ महिलाएं उड़ीसा के कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक गई। मैं यह जानकर पहले दंग हुआ और फिर क्रोधित कि किस तरह से ज़मींदारों के गुंडों ने पुलिस की शह पर इस प्रतिनिधिमंडल की महिलाओं पर फब्तियाँ कसी, उन्हें लिंग आधारित गालियाँ दी और उनके वाहन चालक पर जानलेवा हमला किया। आज बैठक के पहले दौर में ही नारायणपटना के इन वारदातों की भर्त्सना करते हुए निंदा प्रस्ताव पारित किया गया।
बैठक के अगले चरण में नारी अधिकार संगठन की प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी समस्याओं और उनसे जूझने के अपने संघर्षों से वाक़िफ़ कराया। अगर मैं नारी अधिकार संगठनों की मौज़ूदा स्थिति में समस्याओं का सूत्रीकरण करूँ तो मैं बाज़ार के वर्चस्व को उनका दुश्मन पाता हूँ। जैसे एक प्रतिनिधि से यह जानकारी मिली कि किस तरह से यौन शक्तिवर्धक दवाओं के कारण स्त्रियों पर उनके पतियों के द्वारा बर्बर यौन-हिंसा के मामले सामने आये हैं। जान कर दिल दहल गया कि एक महिला ने तो अपने पति के यौन-अत्याचारों से तंग आकर अपने योनिद्वार पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग़ लगा लिया। बाज़ार में सर्वत्र उपलब्ध ब्लू फ़िल्मों की सीडी पर चर्चा करते हुए एक प्रतिनिधि कहा कि इन फ़िल्मों के कारण पुरूष दाम्पत्य जीवन में स्त्रियों को उपभोग की वस्तु तक सीमित करके देखने लगे है और इस तरह से महिलाओं पर यौन हिंसा में इज़ाफ़ा हुआ है। पूरे बैठक के दौरान कई नारी अधिकार कार्यकर्ताओं ने कई बार शराब के चंगुल में फँसे पुरूषों द्वारा की जाने वाली हिंसा के लिए चिंता व्यक्त करते हुए इसके ख़िलाफ़ अपने संघर्षों के बारे में अपनी बात रखी।

१३ दिसंबर
सुबह नाश्ते के वक्त भोपाल से आयी एक कार्यकर्ता से बातों-बातों में बताया कि लेधा के मामले में आगे क्या हुआ? तारीख ठीक-ठीक याद नहीं है, लेकिन यह मामला सन २००५-६ का रहा होगा। लेधा की शादी सरगुजा जिले के रमेश नगेशिया से हुई थी। चूँकी रमेश माओवादी विचारधारा का समर्थक था, इसलिए पुलिस ने लेधा पर भी नक्सली होने का ठप्पा लगाकर तीन सीआरपीफ जवानों की हत्या के अरोप में धर लिया। गिरफ़्तारी के वक्त वह गर्भवती थी। वकील अमरनाथ पाण्डेय की कोशिशों के बल पर उसे प्रसव के लिए एक महीने की जमानत मिली, लेकिन कुल ढेड़ साल के कारावास के बाद ही उसे झूठे आरोप से मुक्त करवाया जा सका। पुलिस के बहलाने-फुसलाने पर लेधा ने अपने पति को आत्मसमर्पण के लिए राजी कर लिया। परंतु जब रमेश आत्मसमर्पण के लिए थाने में उपस्थित हुआ तो पुलिस अधीक्षक एस आर पी कल्लूरी के इशारे पर उसे गोली मार दी गई। लेधा का मुँह बंद करने के लिए उसे भी मारने क आदेश कल्लूरी ने दिया, लेकिन फिर यह कह कर उसकी हत्या नहीं की गई कि एक औरत की जान लेने की क्या ज़रूरत है? उसे चुप करने के लिए मौत से बड़ी प्रताड़ना भी हो सकती है। भय और शोक में लेधा तीन महीनों के लिए अपने मायके अंबिकापुर चली गयी। उसके लौटने पर घात लगा बैठी पुलिस उसे बलरामपुर थाने ले गई, जहाँ कल्लूरी ने उस पर यौन-अत्याचार किया। विद्रुप मानसिकता के पुलिस कर्मियों ने उसके योनि में हरी मिर्च डाल कर हैवानियत की सारे हदें लाँघ ली। लगातार दस दिनों तक यह सिलसिला चलते रहा। इस इलाके का कुख्यात एसपीओ धीरज जायसवाल एक ऐसा अतातायी है, जो जब चाहे किसी के साथ बलात्कार कर सकता है या किसी को भी नक्सली बताकर उसकी हत्या कर दे। धीरज ने भी थाने में लेधा के साथ शराब पी कर बलात्कार किया। पीयूसीएल की मदद से लेधा ने कल्लूरी और अन्य के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में मुकदमा किया था। भोपाल की जिस महिला से मैं लेधा के बारे में बातें कर रहा था, उन्होंने बड़े अफ़सोस के साथ बताया कि दवाब में आकर लेधा ने अपनी शिक़ायत वापस ले ली है।


१४ दिसंबर को दंतेवाड़ा जाने की योजना पर बातचीत होने पर पता चला कि वहाँ पहुँच कर हम हिमांशु कुमार के वनवासी चेतना आश्रम में जायेंगे और फिर वहाँ की आदिवासी महिलाओं से मुलाक़ात होगी। यह भी पता चला कि हिमांशु दंतेवाड़ा के नेंड्रा से शांति स्थापना और न्याय का माहौल बनाने की अपील के साथ पदयात्रा शुरू करने वाले हैं। हिमांशु एक गांधीवादी कार्यकर्ता है, जो अपने एनजीओ वनवासी चेतन आश्रम के जरिए जनकल्याण की सरकारी योजनाओं को पूरा करते रहे है। लेकिन जब से हिमांशु ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार आदिवासियों को शिविरों से निकाल कर वापस गाँवों में उनका पुनर्वास करने का मुहिम छेड़ी है, तब से सरकार और व्यापारी वर्ग उन्हें नक्सली संबोधित करने लगा है। एक अख़बार से पता चला कि १० दिसंबर, मानवाधिकार दिवस के रोज राज्य समर्थित प्रतिक्रियावादी व्यापारियों के समूह ने माँ दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच के नाम से हिमांशु की गिरफ़्तारी की माँग की। जबकि विडंबना यह है कि वनवासी चेतना आश्रम के कार्यकर्ता दंतेवाड़ा में जो काम कर रहे हैं, उसे छत्तीसगढ़ सरकार को ही करना चाहिए था। इसके बरअक्स, सरकार आश्रम के कार्यकर्ताओं का दमन कर रही है। आश्रम के एक युवा कार्यकर्ता सुखनाथ पर विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की गई। १० दिसंबर की ही बात है कि लगभग दिन के ढ़ाई बजे भैरामपुर पुलिस थाने के टीआई आश्रम से स्वयंसेवी कोपा कुंजाम को दंतेवाड़ा पुलिस कोतवाली में पूछताछ के बहाने ले गये। अल्बन टोप्पो एक अधिवक्ता हैं और इस समय आश्रम में मौज़ूद थे। क़ानूनविद होने के नाते उन्होंने कोपा के साथ कोतवाली जाना ज़रूरी समझा। उन दोनों को दंतेवाड़ा के बदले जबरन बीजापुर ले जाया गया, जहाँ दोनों की बुरी तरह पिटाई की गई।


१३ दिसंबर की रात और १४ का पूरा दिन
रात को ग्यारह बजे चार गाड़ियों पर सवार हम दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुए। हमारे दल में ३४ महिलाएँ और ५ पुरूष थे। हमलोग आराम से रायपुर से निकले और धमतरी में भी हमें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही हम कांकेर की सीमा पर पहुँचे प्रतिकूल स्थितियाँ सामने आने लगी ।

रात के साढ़े बारह बज रहे थे। यह चारामा बस पड़ाव था। पड़ाव के सामने ही पुलिस की चौकी थी, जहाँ हमें रोका गया था। पहले लगा कि यह रूटीन जाँच-पड़ताल है, फिर महसूस होने लगा कि हमें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा है। ज्यादातर पुलिस वाले नशे में थे। एक वर्दीधारी कहता है कि महिलाओं वाली गाडी को जाने दो और बाकी को रोक लो। हमने विरोध किया, वैसे भी सभी गाड़ियों में महिलाएँ थी। खैर, फिर चारों गाड़ी के चालकों को थाने के अंदर ले जाया गया। हमारे साथ आए लोगों को नाम, उम्र, पिता का नाम, पता आदि दर्ज किया जाने लगा। वह भय का माहौल बना रहे थे। लड़कियों से जानकारी लेते वक्त उनके लहज़े से अश्लीलता झलकती थी। एहतियातन जब मैं एक पुलिसकर्मी के पीछे जाकर खड़ा हो गया, यह देखने के लिए कि वह महिला साथियों से कैसा व्यवहार कर रहा है तो उसने बड़े सहज भाव में मुझसे कहा कि “नाम ही लिख रहे हैं, रेप नहीं कर रहे हैं”। मैं स्तब्ध रह गया। कितना आसान है इस आदमी के लिए महिलाओं पर क्रूरतम अत्याचार करना। मैं समझ गया कि यह उनके लिए आम बात थी। आये दिन वो ऐसी ज़्यादतियाँ करते होंगे। मैं सहम कर कुछ देर वही खड़ा रहा। कुछ देर बाद मैं एक और पुलिसकर्मी से बात करने लगा। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ का है। वह कानपुर का था। मैंने जब यह जानना चाहा कि उसे इस तनावग्रस्त इलाके में अपने घर से दूर रह कर काम करना कैसा लगता है, तो मेरी उम्मीद के विपरीत उसने कहा कि बहुत मज़ा आता है, क्योंकि यहाँ लड़ने के मौके खूब मिलते हैं। आत्ममुग्धता के साथ उसने बताया कि दस नक्सलियों को मार कर ही वह हवलदार बना है। मैंने जानना चाहा कि वह कैसे आम ग्रामीण आदिवासी और नक्सली के बीच में फ़र्क़ करता है तो वह निरुत्तर हो गया। कुछ देर के रुक कर उसने कहा कि मेरा काम मारना है, बस मारना। घंटे भर में हमारे साथ के सभी लोगों का परिचय लिखा जा चुका था। पुलिस ने हमारी चार गाड़ियों में से एक गाड़ी के दस्तावेज़ अधूरे पाये और एक चालक का लाइलेंस नहीं था। मज़बूरन हमारी एक गाड़ी को रोक लिया गया। बाकी की तीन गाड़ियाँ अपने-अपने सवार को लेकर आगे बढ़ीं और जिस गाड़ी को रोक लिया गया था, उसके सवार बस से आगे बढ़े।

लगभग बीस मिनट में हम माकड़ी में थे। डेढ बज रहे थे। बाकी के तीनों चालकों ने आगे जाने को एमदम मना कर दिया। शायद उन्हें चारामा थाने में बहुत डराया-धमकाया गया हो। और पुलिस को भी जो दस्तावेज़ चाराम में ठीक लग रहे थे, यहाँ गड़बड़ लगने लगे थे। जो भी हो, हम अब बिना गाड़ी के थे। महेंद्रा कंपनी की दो बसें माकड़ी ढाबे पर लगी हुई थी। उसके चालकों ने सवारियों को चढ़ाने की पहलकदमी दिखायी। हमें भी दंतेवाड़ा पहुँचाने को कोई जरिया चाहिए था, सो हमने तय किया कि हम आगे की सफ़र इन्हीं बसों से करेंगे। ढाई-तीन बजे हम माकड़ी ढाबे से निकले। लगभग बीस किलोमीटर की ही दूरी तय की होगी कि केशकाल में हमें फिर रोका गया, हमसे हमारी पूरी जानकारी दोबारा ली गई। केशकाल के बाद फरसगाँव में भी जाँच-पड़ताल की पुनः सारी औपचारिकताएँ पूरी की गई। वो हमें रोक नहीं सकते थे तो लग रहा था कि वो हमें ज्यादा से ज्यादा जितना विलंब करवा सकते थे, करवा रहे थे ।


बस में हल्की झपकी लगी होगी कि ऐसा महसूस किया कि बस रुकी हुई है। सुबह साढ़े पाँच-छ बज रहे थे। हमारी बस को कोंडागाँव पुलिस चौकी के नज़दीक रोक दिया गया था। फिर से वही जाँच-पड़ताल। साथ के लोग जो हमारे दल का हिस्सा नहीं थे, वे असहज महसूस करने लगे थे। वे लोग इस रास्ते से हमेशा गुज़रते रहते थे। कंडक्टर ने कहा कि पुलिस का हमारी कंपनी के बस के साथ पिछले पाँच सालों में पहली बार ऐसा व्यवहार रहा है। साथी सवारियों में गुस्सा बढ़ रहा था। उन्हें बताया गया कि माकड़ी से चढ़े ३९ लोग जब तक बस में रहेंगे, उन्हें ऐसे ही परेशान किया जायेगा। तब इन लोगों ने हम पर बस से उतर जाने का दबाव बनाया। हमें लगा कि पुलिस हमसे बस छोड़ने को कह रही है, इसलिए हम ३९ लोग तत्काल बस से उतर गए। सामने ही कोंडागाँव पुलिस चौकी थी। हमारे पूछने पर पुलिस के एक कर्मचारी ने कहा कि हमने तो आपको उतरने के लिए नहीं कहा है, हम तो बस रुटीन जाँच-पड़ताल करे रहे थे। हमलोग ठगे से रह गए। वापस लौट कर हमने बस को पकड़ना चाहा, लेकिन जाहिर है पुलिस का दवाब बस वाले पर बना हुआ था। दरअसल पुलिस जाहिर तौर पर हमें रोक नहीं रही थी, सिर्फ़ बार-बार किए जाने जाँच-पड़ताल के नाम पर हमें समय पर दंतेवाड़ा पहुँचने नहीं देना चाहती थी, लेकिन बिना जाहिर किए वह बस वालों पर दवाब बनाकर हमें रोक भी रही थी। फिर हमने थाना प्रभारी के समक्ष अपनी सारी बातें रखी और छ्त्तीसगढ़ की आथितेय को धिक्कार देते हुए उस पर दवाब बनाने की कोशिश की। हमारे कुछ साथी उससे अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे। उन्हें बार-बार कहा गया कि पूरे देश में इसका बहुत ग़लत संदेश जायेगा। तब अचानक हमसे हमदर्दी जताते हुए हमारे लिए तीन जीप की व्यवस्था की गई। हमें यह भी कहा गया कि आगे कोरेनार के पास तीन-चार हज़ार लोग रास्ता जाम किए हुए हैं और पुलिस उनसे हमारी रक्षा नहीं कर सकती है। यह इशारा था कि पुलिस से आप तो बच सकते हैं, लेकिन सलवा जुडूम से आपको कौन बचायेगा?

आठ-नौ बजे तक स्पष्ट हो गया कि हमें दंतेवाड़ा पहुँचने के लिए कुछ और उपाय करने होंगे। कोंडागाँव का बस पड़ाव नज़दीक ही था। हमने तय किया कि अब वहीं से जगदलपुर के लिए बस करेंगे। जगदलपुल में एसपी से मिलकर आगे की योजना के बारे में सोचा जायेगा। स्थितियों को देखते हुए या तो आगे जाया जायेगा या वहीं प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके वापस रायपुर लौटना पड़ेगा। कुछ देर बाद हम जगदलपुल जाने वाली एक बस पर चढ़े, लेकिन अभी सभी लोग चढ़े भी नहीं होंगे कि बस मैनेजर ने कहा कि वह हमलोगों को जगदलपुर नहीं ले जा सकता है। कारण पूछने पर कोई जवाब नहीं मिला, फिर पता चला कि उसे पुलिस ने निर्देशित किया है। हम बुरी तरह थक चुके थे और दंतेवाड़ा जाने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। आखिरकार, वापस रायपुर जाने के अलावा कोई उपाय नहीं था। देखते ही देखते कोंडागाँव बस पड़ाव पर कुछ पत्रकार जमा होने लगे। उनमें कौन पत्रकार था और खुफ़िया पुलिस यह जानना बहुत मुश्क़िल था। आसपास के लोगों और तथाकथित पत्रकारों से हमारे दल के लोगों ने बातचीत कर अपने पक्ष से उनलोगों को अवगत कराया।

फिर हम सब एक बस पर बैठे, जो हमें वापस रायपुर ले जाती। बस जब कांकेर के नये बस अड्डे पर पहुँची तो १५-२० लोगों वहाँ हमारा इंतज़ार कर रहे थे। हमें देखते ही वह नारा लगाने लगे कि “नक्सलियों के नेता वापस जाओ”, “नक्सल समर्थक वापस जाओ”। हम हतप्रभ थे। मेरे मन में एक सवाल कौंधा कि क्या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में सोचना नक्सली होना है? आश्चर्य है इस राज्य के मानवता पर ! नारे लगाते कुछ लोगों में से यह भी सुनने में आया कि “उतारो उनको, मारो सालों को”। स्वाभाविक है, हम डर गये थे। कांकेर के पुराने बस अड्डे पर आते ही तुरंत तीन-चार लोग कैमरा ले कर बस में घुस गये और हमारे दल की युवा लड़कियों की तस्वीरें लेने लगे। मेरे विरोध करने पर उनमें से एक ने कहा कि “हम पत्रकार हैं, हमें अपना काम करने दो, तुम अपना काम करो”। इसी तथाकथित पत्रकार ने नीचे उतर कर बस के पहिये का हवा निकाल दिया। जाहिर है, वो पत्रकार नहीं कोई लंपट असामाजिक तत्व ही थे। इसी तरह कुछ देर तक जूझने के बाद हमारी बस आगे बढ़ी। इस बार हम सही-सलामत रायपुर पहुँच गये।

लेकिन, मामला यहाँ ख़त्म नहीं हुआ था। जब शाम को हम रायपुर में प्रेस से मुख़ातिब होना चाह रहे थे, तो भाजपा के कुछ नेताओं ने प्रेस का ध्यान बँटाने के लिए फिर वही बेबुनियादी नारे लगाने शुरू किए, जो कांकेर के बस अड्डे पर लग रहे थे।

18 मई 2010

संसद की बातें और युद्ध का सच --- अनिल चमड़िया

लाल कृष्ण आडवाणी ने नवंबर 1999 में जब ये कहा कि आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करने के लिए सैनिक बलों की संख्या पर्याप्त नहीं है तो राज्यसभा में इस बाबत एक सवाल किया गया।तब सरकार ने जवाब दिया था कि इस समय जम्मू कश्मीर में मिलिटेंसी से प्रभावित जिलों की संख्या 12 है। इंसर्जेसी से प्रभावित उत्तर पूर्व के चार राज्यों के 44 जिले है। वाम उग्रवाद से पीड़ित आंध्र प्रदेश के 6 , बिहार के 10, मध्यप्रदेश के 7, महाराष्ट्र के तीन एवं उड़ीसा के 5 जिले प्रभावित हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा संख्या देश के विभिन्न राज्यों के 112 जिले साम्प्रदायिक स्तर पर संवेदनशील बताए गए थे। जातीय तनाव की चपेट में मात्र 24 जिलें थे। लेकिन 15 अगस्त 2006 को देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले की प्राचीर से आतंकवाद और नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में घोषित किया। महज छह वर्षों में नक्सलवाद का तेजी से इतना विकास कैसे हो गया ? कैसे मिटिलेंसी, इंसर्जेसी, वाम उग्रवाद आदि शब्द एक होकर आतंकवाद के पर्याप्य के रूप में माओवाद सामने आ गया ?

अजात शत्रु के बारे में पढ़ते हुए एक वाक्या आता हैं। उसे पिता को कैद में रखना था। लेकिन पिता को कैद में रखने के रूप में कोई फैसला लिया जाता तो लोगों के बीच उसका गलत संदेश जाता। लिहाजा राजा ने अपने फैसले की भाषा बदल दी। उसने फैसला किया कि वह अपने पिता को कड़ी सुरक्षा में रखना चाहता है और उसने उनके इर्द गिर्द सख्त पहरा बैठा दिया।उस पिता के लिए कैद और सुरक्षा शब्दों में क्या फर्क था?किसी फैसले की भाषा से राजनीतिक उद्देश्य समझ में नहीं आता है। उस फैसले के क्या परिणाम निकलने वाले है, उसके राजनीतिक उद्देश्यों को समझने के लिए उस पर गौर करना ही महत्वपूर्ण होता है। राज्यसभा में छोटे लोहिया के रूप में विख्यात जनेश्वर मिश्र ने 17 मई 2000 को सरकार से एक सीधा सवाल किया कि क्या नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए टास्क फोर्स के गठन के बाद से देश में नक्सलियों के प्रभाव और उसके कार्यक्षेत्र में तेजी से विस्तार हुआ है? दूसरा क्या झुठे मुठभेड़ के नाम पर नक्सलियों को मारने की घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई है?अब ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते हैं।अब सूचनाएं मांगी जाती है कि सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए क्या कर रही है। सरकार के पास जनेश्वर मिश्र के दूसरे प्रश्न का जवाब नहीं था। सीधा जवाब पहले प्रश्न का भी नहीं था। सरकार ने केवल इतना बताया कि 1998 में नक्सलवादी प्रभावित राज्यों के बीच पुलिस वालों की एक समन्वय समिति बनाई गई हैं। अब सवाल यहां ये पूछा जा सकता है कि क्या देश में नक्सलवाद से निपटने के नाम पर राज्यों को केन्द्र द्वारा पैसा मुहैया कराने का सिलसिला शुरू किया गया है या फिर नक्सलवाद को एक बड़े खतरे के रूप में पेश करने के लिए विनियोग किया जाता रहा है? यह सवाल जनेश्वर मिश्र के सवाल से जुड़कर ज्यादा महत्वपूर्ण और गौरतलब हो जाता है।

संविधान के मुताबिक कानून एवं व्यवस्था राज्य का विषय है। राज्यों की माली हालत खराब बिगड़ती चली गई है।कमजोर होते राज्यों को केन्द्र सरकार ने सुरक्षा के नाम पर राज्यों के कई तरह से राशि मुहैया कराती रही है। एक तो पुलिस बलों के आधुनिकीकरण के नाम पर राशि दी जाती रही है।दूसरे सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत पचास प्रतिशत राशि मुहैया कराई जाती रही है। 1999-2000 में केन्द्र सरकार ने सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत आंध्र प्रदेश को सबसे ज्यादा 30.46 करोड़ रूपये मुहैया कराया था। आज जिन आदिवासी प्रदेशों झारखंड , मध्यप्रदेश, उड़ीसा को माओवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित बताया जा रहा है उन राज्यों में तब की स्थिति क्या थी, ये यहां गौर तलब है। तब संयुक्त बिहार को 9 करोड़, मध्यप्रदेश को 5 करोड़ और उड़ीसा को 3.58 करोड़ रूपये इस मद में मुहैया कराए गए थे। उपर इन राज्यों में वाम उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या भी बतायी गई है।

संसद में सरकार ने 2010 तक माओवाद और नक्सलवाद की जो तस्वीर देश को बतायी है, उस पर भी गौर करें। सरकार ने पुलिस ढांचे के आधुनिकीकरण के लिए आंध्र प्रदेश को 2008-09 में 83.83 करोड़, बिहार16.24 करोड़, छत्तीसगढ़ को 41.72 करोड़, झारखंड़ को 50.95 करोड़, मध्यप्रदेश को 57.68 करोड़, महाराष्ट्र को 75.86 करोड़, उड़ीसा को 42.52 करोड़ यानी बाकी दो राज्यों उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल को कुल मिलाकर 515.05 करोड़ रूपये राशि मुहैया करायी है। सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत उपरोक्त राज्यों को 10433.20 लाख रूपये की कार्य योजना को मंजूरी दी गई । एक तीसरा नया खर्चा और जुड़ा है। वाम उग्रवाद से निपटने के लिए कई तरह के ढांचे खड़े करने के लिए विशेष ढांचागत योजना के तहत राज्यों को राशि मुहैया करायी जा रही है। छत्तीसगढ़ के केवल वीजापुर और दंतेवाड़ा के लिए क्रमश- 1615 लाख और 1135 लाख रूपये दिए गए।बिहार के गया और औरंगाबाद के लिए 986 लाख और 619 लाख रूपये और झारखंड के चतरा जिले के लिए 960 लाख एवं पलामू के लिए 1420 लाख रूपये दिए गए। कुल 9999.92 लाख रूपये उपरोक्त राज्यों के अलावा आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश को सुरक्षा के ढांचे खड़े करने के लिए दिए गए। इसमें दो तरह की राशि शामिल है। राशि एक तो सहायता के नाम पर तो दूसरे कर्ज के रूप में होती है।राज्यों पर केन्द्र का कर्ज बढ़ता चला गया है।

नक्सलवाद के विस्तार को किस रूप में देखा जाए। सरकारी दस्तावेजों में नक्सलवाद का जो विस्तार पिछले पांच वर्षों के दौरान दिखाई देता है वह किस वजह से है? आखिर देश में ऐसी क्या परिस्थितियां पैदा हुई है कि इतनी तेजी के साथ नक्सलवाद का विस्तार दिखाई देता है।जब सारी दुनिया में वाम खासतौर से क्रांतिकारी वाम की समाप्ति की घोषणा की जा रही हो उस समय नक्सलवाद का इतनी तेजी से बढ़ते प्रभाव का दावा सरकार द्वारा किया जा रहा है ।खुद मनमोहन सिंह इस बात को दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद के प्रति बुद्दिजीवियों में आकर्षण खत्म हुआ है। बुद्दिजीवी किसी वाद के विस्तार के मापक है तो फिर नक्सलवाद का इस रूप में विस्तार उनके द्वारा क्यों बताया जा रहा है।

अमेरिका ने रीगन के कार्यकाल के दौरान 80 के दशक में राज्य पोषित आतंकवाद को दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने की योजना बनाई थी। लेकिन वह आकार नहीं ले सकी।क्योंकि उस समय आतंकवाद के नाम पर निशाने की एक शक्ल तैयार नहीं की जा सकी थी।लगभग यही स्थिति भारत के संदर्भ में है।नई आर्थिक नीतियों के संभावित बुरे नतीजें जब सामने आने लगे तब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने नक्सलवाद को देखने के नजरिये में परिवर्तन लाना शुरू किया।उसने नक्सलवाद को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।लेकिन अमेरिका उस समय आतंकवाद को एक इस्लामी आतंकवाद के रूप में खड़ा कर रहा था।कहा जाए कि भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद बुश के जमाने में आतंकवाद को एक ठोस शक्ल दी गई।एनडीए ने उसी तर्ज पर मार्क्स-माओ और मुल्ला के रूप में विकसित कर आतंकवाद के सिक्के के दो पहलू के रूप में उसे पेश करने की कोशिश की थी।मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल में आर्थिक नीतियों के विस्तार की जो योजना तैयार की उसे आतंकवाद की समस्या से जोड़े बिना आगे बढ़ाना संभव नहीं था। देश के जिन अमीर इलाकों में कब्जा जमाने से उसका विस्तार हो सकता था वो बदकिस्मती से दुनिया के सबसे बदहाल आबादी आदिवासियों के पैर के नीचे था।लेकिन यह संभव नहीं था कि आदिवासियों को विकास के बाधक के रूप में खड़ा करके उनके खिलाफ अभियान चलाया जा सकें। उसे एक नए वैचारिक शक्ल में पेश करना जरूरी था। माओवाद इसका चेहरा बना और उसे सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाने लगा। दुनिया भर में भूमंडलीकरण के दौर में सत्ता का चरित्र बदला हैं और उसके तदानुरूप उसकी भाषा के अर्थ भी बदले हैं। यदि बुश जिस आतंकवाद को दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया यह उनका आकलन नहीं था। बल्कि यह उनकी भूमंडलीकरण की परियोजना का एक हिस्सा था।जैसे जब शरद पवार मंहगाई के संदर्भ में इस तरह का बयान देते है कि वह कितने महीने तक बनी रह सकती है तो वह आकलन नहीं संदेश के रूप में होता है। संदेश उन आर्थिक वर्ग के लिए जो मंहगाई की व्यवस्था को सुदृढ़ कर और लाभ उठा सकें।इस तरह से संदेश देने की रणनीति का विकास हुआ है। विकास का जब संदेश दिया जाता है तो विकास से लाभ उठाने वालों के लिए वह और आक्रमक और संगठित होने का आह्वान होता है। मनमोहन सिंह ने जब नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया तो यह दमन के लिए प्रशिक्षित नौकरशाही के लिए संदेश के रूप में सामने आया। एक लंबा सिलसिला देखा जा सकता है जब सत्ता अपनी प्रशिक्षित मशीनरी के सामने अपने एजेंडे को पेश करने का इस तरह का तरीका विकसित किया है।

भारत के संदर्भ में इस बात को आकलन किया जा सकता है कि जिस समय मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने का सिलसिला शुरू किया उस समय उसे इस रूप में पेश करने के क्या ठोस आधार थे।उस समय गृह मंत्रालय के आंकड़े बता रहे थे कि 2005 में नक्सलवादी हिंसा की 1608, 2006 में 1509, 2007 में 1565 और 2008 में 1591 घटनाएं हुई।लेकिन इन संख्याओं के भीतर भी घुसने की कोशिश करनी चाहिए। मसलन जब बिहार में नक्सलवादी हिंसा को लेकर विधानसभा में बातचीत होती थी तो सरकार जो आंकडे पेश करती थी उसमें कपूर्री ठाकुर सरीखे नेता पूछा करते थे कि नक्सलवादी हिंसा में मारे गए दलितों की संख्या कितनी है।नक्सली के नाम पर मारे गए जवानों में कितनी संख्या पिछड़े व दलितों की है। बहरहाल कुल घटनाओं की मात्रा में कोई बड़ा अंतर नहीं दिखाई दे रहा था जिसके आधार पर नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाए।तब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने तो उस समय कहा कि कई राज्यों में नक्सलवादी हिंसा में कमी आई है।उन्होने बताया कि केवल झारखंड और छत्तीसगढ़ में स्थिति बदत्तर है।उन्होने तो यहां तक कहा कि नक्सलवाद के खतरे को देखने के अपने अपने नजरिये हो सकते हैं।संसद में सरकार कहती रही है कि नक्सलवादियों को बाहरी मुल्क से किसी तरह के हथियार वगैरह मिलने की खबर नहीं है। उनकी आय का बड़ा हिस्सा अपने इलाके में जमा किए जाने वाली लेवी से आता है।प्रचार तंत्र ने रेड कैरिडोर का हौवा जरूर तैयार किया हो लेकिन सरकार ने ये कई मौके पर स्पष्ट किया है कि उसे रेड कैरिडोर बनाने जैसी कोई जानकारी नहीं है।प्रधानमंत्री के खतरे वाले बयान से पहले संसद में देशभर में हथियार बंद नक्सलियों की संख्या लगभग नौ सौ बतायी गई थी। दंतेबाडा में 75 केन्द्रीय पुलिस के जवानों के मारे जाने के बाद पी चिंदबरम उस संख्या के बढ़कर 14-15 हजार होने की बात कह रहे हैं।नक्सलियों के पास हथियारों के संबंध में जो आंकड़े पेश किए गए थे वे देश के पांच सात बड़े जिलों में लाईसेंसधारी हथियारों से ज्यादा नहीं बताए गए है।तब क्या इस आधार पर नक्सलवाद को सुरक्षा के लिहाज से सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाना चाहिए था?दरअसल नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप पेश करने के पीछे भले कोई ठोस बात नहीं हो लेकिन नौ फीसदी की विकास दर को जिन इलाकों पर कब्जे के जरिये हासिल किया जा सकता था उसकी ठोस योजना थी और उसमें आने वाली बाधाओं का भी आकलन था।जब गृह मंत्री दो राज्यों के हालात बदत्तर बता रहे थे तो इसका अर्थ उन दोनों राज्यों के संपूर्ण हिस्से में भी बदत्तर हालात नहीं बता रहे थे।क्या देश के किसी वाद के कारण कुछेक जिलों में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बदत्तर होने के आधार पर उसे आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जा सकता है।1999 में साम्प्रदायिकता से ग्रस्त जिलों की संख्या सबसे ज्यादा बताई गई है क्या उसे आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया गया ? देश में इस समय सबसे ज्यादा मौतें सड़कों पर होती है । एक लाख से ज्यादा लोग मारे जाते हैं। क्या इस आधार पर इसे इस समय की सबसे बड़ी समस्या के रूप में पेश किया जाना चाहिए।हिंसा और मौत खतरे का पैमाना नहीं होता है।किसी राजनीतिक व्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को चुनौती देना होता है। भूमंलीकरण की नीतियों की वाहक राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये रही है कि वह कैसे विरोध की तमाम तरह की धाराओं का एक चेहरा तैयार कर दें।कैसे तमाम तरह के विरोधों को दबाने का एक नाम तैयार कर लें। माओवाद और आतंकवाद इसी दो तरह के प्रयासों के रूप में सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आया।

नक्सलवाद के सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित होने के क्या अर्थ हो सकते हैं, इस प्रश्न पर लोकतंत्र के बारे में तनिक भी संवेदनशील रहने वाले लोगों को सोचना पड़ेगा। इन वर्षों में क्या हुआ है। सरकार का संसद में ही जवाब है कि सरकार ने वाम उग्रवाद से निपटने के लिए एक ऐसे नजरिये को स्वीकार किया है जिसमें कई बातें शामिल हैं। इसमें सुरक्षा, विकास और लोगों की समझ के पहलू शामिल हैं।लोगों की समझ का पहलू अब जुड़ा है। ऐसा पहली बार हुआ है कि गृह मंत्रालय गरीब इलाकों में माओवादियों को लेकर तरह तरह के विज्ञापन जारी कर रहा है। कई शहरों में बतौर विज्ञापन होर्डिंग लगाए गए हैं।यदि इन विज्ञापनों की सामग्री का विश्लेषण किया जाए तो सत्ता के वास्तविक चरित्र को और खोलकर सामने रखा जा सकता है।विज्ञापन ये नहीं होता है कि विकास के इतने बड़े दावे के बीच आदिवासियों के बीच अंग्रेजों के जमाने से भी बदत्तर बदहाली की स्थिति बनी हुई है। बहरहाल फिलहाल विज्ञापन विषय नहीं है। केन्द्र सरकार के अनुसार राज्य सरकारें अपने यहां नक्सलवाद से जुड़े कई पहलूओं पर सक्रिय रहती है और केन्द्र सरकार कई तरह से उन्हें मदद करती हैं। इसमें केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती, रिजर्व बटालियन की स्वीकृति , आतंकवाद विरोधी और काउंटर इंसर्जेंसी स्कूलों की स्थापना , राज्य की पुलिस की सेना द्वारा ट्रेनिंग के लिए रक्षा मंत्रालय से मदद, सामुदायिक पुलिस लोगों को कार्रवाई में उतारने के लिए मदद उपर उल्लेखित पुलिस के आधुनिकीकरण आदि स्कीमों के तहत दी जाने वाली राशि के अलावा है।यहां जिस सामुदायिक और नागरिकों को कार्रवाई में उतारने के लिए मदद देने की बात जो कहीं गई है उसके बारे में स्पष्ट कर लेना चाहिए। सरकार ने ही स्वीकार किया है कि देश के विभिन्न हिस्सों में उसने नागरिक सुऱक्षा समितियों के गठन में मदद करती है। देश के कई हिस्सों में ग्रामीण सुरक्षा समितियां सक्रिय है जिन्हें सरकारी फंड के अलावा हथियार और संरक्षण मिलता है।दूसरा छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ने बताया था कि केन्द्र के कहने पर ही उनके राज्य में विशेष पुलिस अधिकारी नियुक्त किए गए हैं।मुख्यमंत्री के मुताबिक अब उनकी बटालियन तैयार करने पर विचार किया जा रहा है। असंतोष से भरे इलाके में गरीब और जागरूक युवाओं को एक राजनौतिक जगह जमा होने से रोकने की सरकारी नीति के तहत कई तरह की योजनाएं चलती रहती है। एसपीओ यानी विशेष पुलिस अधिकारी, सुरक्षा समितियां उनमें एक हैं। स्थानीय युवाओं के एक हिस्से को सेना या अर्द्धसैनिक बलों में ले लिया जाता है।जैसे कश्मीर के दो हजार युवाओं को सेना में लेने का फैसला किया गया। असम में जिस समय असंतोष गहराया उस समय वहां के युवाओं को सेना में भर्ती करने का सिलसिला तेज किया गया। अभी आदिवासी इलाकों में ये सिलसिला तेज हुआ है। पुलिस और सेना में भर्ती के लिए लंबी लाइनें लग जाती है।आदिवासी बटालियन बनाने की प्रक्रिया तेज हुई है। देश में असंतोष से भरे राजनीतिक आंदोलनों के दौरान इस तरह की योजनाओं का एक लंबा सिलसिला हैं।लेकिन युवाओं की चाहें जितनी भर्ती सेना या पुलिस में कर ली जाए उससे समस्या के खिलाफ असंतोष के घनत्व को तो कमजोर किया जा सकता है लेकिन समस्याएं कैसे खत्म हो सकती है? वह तो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों के आधार पर ही हो सकती है।नई आर्थिक नीति और राजनीतिक सरोकार इसकी इजाजत नहीं देते हैं। लोकतंत्र में हासिल अधिकार इसका विरोध करने की इजाजत देते है।सैन्य ढांचा इसी लोकतंत्र से निपटने की दूरगामी योजना का हिस्सा है।

नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किए बिना आतंकवाद विरोधी ढांचे का निर्माण नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसे आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक समस्या मानने के दृष्टिकोण के रहते ऐसा करना संभव नहीं हो सकता था।इस नजरिये के बिना विभिन्न तरह के राजनीतिक पर्दों में छिपे लोकतंत्र विरोधी तमाम शक्तियों को एकजूट नहीं किया जा सकता था। इसके बिना उस छोटे से बौद्धिक वर्ग पर भी हमले की स्थितियां तैयार नहीं की जा सकती है जो भूमंडलीकरण के तमाम दबावों के बावजूद अपनी संवेदनशीलता और सरोकारों को बचाए हुए है। इसीलिए देखा जा सकता है कि कल राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से जुड़े संगठन बौद्धिक आतंकवाद के नाम पर लोकतांत्रिक समूहों पर हमला बोलते थे अब मनमोहन सिंह के स्वर में स्वर मिलाने वाले आर्थिकवादी गृहमंत्री पी चिंदबरम भी बौद्धिक वर्ग पर माओवाद के समर्थन के लिए सबसे जोरदार हमला बोलते हैं।जैसे सल्वा जुड़ुम में भाजपा और कांग्रेस साथ साथ हो गई। अमीर परस्त आर्थिकवादियों का राजनीतिक लक्ष्य एक ही होता है। गणतंत्र में राज्यों की ताकत को कमजोर नही किया जा सकता है।ये अब दावे के साथ कहा जा सकता है कि राज्यों के नाम कानून एवं व्यवस्था केवल एक विषय के रूप में रह गया है जैसे देश के नाम समाजवादी संविधान रह गया है।राज्य के नाम केवल विषय है , निपटने के लिए सारी योजनाएं केन्द्र की है। नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने में गरीब और राजनीतिक तौर पर कमजोर राज्यों के भीतर लालच की प्रवृति का बढ़ना स्वभाविक है। अमेरिका ने मुशर्रफ के कार्यकाल में पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम तब तब बहुत पैसा दिया जब जब पाकिस्तान ने अपने यहां आतंकवादी घटनाओं में तेजी के साथ इजाफा दिखाया।सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने में लोकतंत्र की कार्रवाईयों पर चोट करने में सबसे ज्यादा आसानी होती है। देश के लोकतंत्र में पहली बार एक पुलिस अधिकारी रिबेरो ने साहस किया कि बुलेट का जवाब बुलेट से देंगे।लेकिन उस समय सवाल उठे तो उसने कई बार सफाई दी। उसकी झिझक आज एक शोर के रूप में सुनायी पड़ रही है। हर राज्य का पुलिस अधिकारी बुलेट का बुलेट से देने के लिए दहाड़ रहा है। पहले एक गिल थे जो धरना प्रदर्शन को आतंकवाद की शुरूआत मानते थे। अब देश के किसी भी हिस्से में घरना प्रदर्शन असंभव होता जा रहा है।राजनीतिक नेता लोकतंत्र में बातचीत की प्रक्रिया से इंकार कर रहे हैं।लोकतंत्र के सैन्यकरण की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया और होती कैसी है? इसके अलावा कोई दूसरा रूप नहीं होता। मात्र दस वर्ष में नक्सलवाद के नाम पर पर युद्ध छेड़ने की बात सुनाई पड़ने लगी है।ठीक वैसे ही अमेरिका ने आतंकवाद की एक शक्ल तैयार करने के बाद उसके खिलाफ युद्द छेड़ने की घोषणा कर दी। युद्ध किसके खिलाफ हुए? अफगानिस्तान और इराक ने क्या बिगाड़ा था। क्या वकाई नक्सलवाद की विचारधारा में इतनी ताकत है कि उसके सामने सभी राजनीतिक धाराएं लगातार खुद को बौना महसूस कर रही है ? क्या भूमंडलीकरण में एक तरफ सभी सत्ताधारी धाराएं एक हो गई है और दूसरी तरफ विरोध का एक चेहरा तैयार कर लिया गया है? युद्ध के लिए हथियार बंद चेहरा चाहिए और नक्सलवाद व माओवाद बहाना है। सबसे सुंदर कहावत गढ़ी जा रही है कि सबसे कमजोर लेकिन सबसे अमीर लोगों को लूटने के लिए सबसे सुंदर बहाना क्या हो सकता है?कमजोर हिंसक नहीं हो सकता और अमीर होने का तो उसे एहसास भी नहीं। तब ऐसी कहावत का उत्तर क्या होगा? कमजोर और अमीर एक साथ होना इस समयका सबसे बड़ा खतरा हैं।

13 मई 2010

छत्तीसगढ़ में हुयी शांति-न्याय यात्रा

देवाशीष प्रसून
एक तरफ, वर्षों से शोषित व उत्पीड़ित आदिवासी जनता ने माओवादियों के नेतृत्व में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नाकाफी समझते हुये हथियार उठा लिया है। दूसरी तरफ, असंतोष के कारण उपजे विद्रोह के मूल में विद्यमान ढ़ाँचागत हिंसा, लचर न्याय व्यवस्था, विषमता व भ्रष्टाचार को खत्म करने के बजाए केंद्रीय व राज्य सरकारों ने अपने सशस्त्र बलों के जरिये विद्रोह को कुचलने की प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही है और नक्सलवादी मौज़ूदा सरकारी तंत्र को इंसानियत के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। हालाँकि, यह जग जाहिर है कि सारी लड़ाई विकास के अलग एवं परस्पर विरोध अवधारणाओं को ले कर है। विकास किसका, कैसे और किस मूल्य पर? इन्हीं प्रश्नों के आधार पर देश के न जाने कितने ही लोगों ने स्वयं को आपस में अतिवादी साम्यवादियों और अतिवादी पूँजीवादियों के खेमों में बाँट रखा है। यह अतिवाद और कुछ नहीं, हिंसा के रास्ते को सही मानने और मनवाने का एक तरीका है बस। ऐसे में, देश का आंतरिक कलह गृहयुद्ध का रूप ले रहा है। इस गृहयुद्ध में छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल व विदर्भ म्रें फैला हुआ एक बहुत बड़ा आदिवासी बहुल इलाका जल रहा है। लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बन गये हैं।
इस विकट परिस्थिति से परेशान, देश के लगभग पचास जाने-माने बुद्धिजीवी ५ मई २०१० को छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में इकट्ठा हुये। नगर भवन में यह फैसला लिया गया कि वे छत्तीसगढ़ में फैली अशांति और हिंसा के विरोध में रायपुर से दंतेवाड़ा तक की शांति-न्याय यात्रा करेंगे। यह भी तय हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य हर तरह के हिंसा की निंदा करते हुये सरकार और माओवादियों, दोनों ही से, राज्य में शांति और न्याय बनाये रखने की अपील करना होगा। शांति की इस पहल में कई चिंतक, लेखक, पत्रकार, वैज्ञानिक, न्यायविद, समाजकर्मी शामिल हुये। इनमें गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यलय के कुलाधिपति प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ़ फिशर पीपुल्श के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा राधा बहन भट्ट, रायपुर के पूर्व सांसद केयर भूषण, सर्वसेवा संघ के पूर्वाध्यक्ष, लाडनू जैन विस्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, नैनीताल समाचर के संपादक राजीवलोचन साह व यात्रा के संयोजक प्रो. बनवारी लाल शर्मा जैसे वरिष्ठ लोगों ने अगुवाई की।
यात्रा शुरू करने से पहले इन लोगों ने रायपुर के नगर भवन में इस यात्रा के उद्देश्य, देश में शांति की अपनी राष्ट्रव्यापी आकांक्षा व विकास की वर्तमान अवधारण को बदलने की प्रस्ताव को रायपुर के शांतिप्रिय जनता के सामने व्यक्त करने के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया। जनसभा के दौरान कुछ उपद्रवी तत्व सभा स्थल में ऊल-जुलूल नारे लगाते पहुँचे और कार्यक्रम में व्यवधान डालना चाहा। प्रदर्शनकाररियों द्वारा इन लब्धप्रतिष्ठित गांधीवादी, हिंसा-विरोधियों वक्ताओं को नक्सलियों का समर्थक बताते हुये छत्तीसगढ़ से वापस जाने को कह रहे थे। प्रदर्शनकारियों को इन बुद्धिजीवियों के द्वारा ऑपरेशन ग्रीन हंट के विरोध पर आपत्ति थी। उनका कहना था कि नक्सली एक तो विकास नहीं होने देते, दूसरे पूरे राज्य में हिंसक माहौल बनाये हुये हैं। अतः इन्हें चुन-चुन के मार गिराना चाहिए। प्रदर्शनकारी ऐसे में किसी तरह की शांति पहल को नक्सलवादियों का मौन समर्थन समझ रहे थे। हालाँकि, यह बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि इस प्रदर्शन में भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ व्यापारिक समुदाय के मुट्ठी भर लोग थे, पर इन चंद लोगों के साथ विरोध में कोई मूल छत्तीसगढ़ी जनता नहीं दिखी। इस खींचातानी के माहौल के बाद भी सभा विधिवत चलती रही और सुनने वाले अपने स्थान पर टिके रहे।
तमाम तरह की धमकियों की परवाह किये बगैर, शांति और न्याय के यात्रियों ने अगले सुबह महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे नमन करने के बाद दंतेवाड़ा की ओर अपनी यात्रा को शुरू किया। दोपहर बाद यात्रा के पहले पड़ाव जगदलपुर में काफ़िला रुका, जहाँ भोजनोपरांत एक प्रेस वार्ता का आयोजन किया गया था। शांति यात्री ज्यों ही पत्रकारों से मुख़ातिब हुये, जगदलपुर के कुछ नौजवानों ने इस शांति-यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। लगभग दो दर्जन लोगों की इस उग्र भीड़ ने वहीं सारे तर्क-कुतर्क किये जो रायपुर के जनसभा में प्रदर्शनकारियों ने किये थे। इन लोगों के सर पर खून सवार था।
इसी दौरान पत्रकारों के साथ वार्ता के दौरान प्रो. बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि यह अशांति सिर्फ़ छत्तीसगढ़ की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की समस्या है। इस विकट समस्या का कारण देश में आयातित जनविरोधी विकास की नीतियाँ है। सरकार को चाहिए कि वह निर्माण-विकास की नीतियों पर फिर से विचार करे और जनहित को ध्यान में रखते हुये भारतीय प्रकृति व जरूरतों के हिसाब से विकास की नीतियों का निर्माण करे। उन्होंने जोर देते हुये कहा कि हिंसा से सत्ता बदली जा सकती है, व्यवस्था नहीं। अतएव नक्सलवादियों द्वारा की जाने वालि प्रतिहिंसा का भी उन्होंने विरोध किया। नारायण भाई देसाई ने कहा कि शांति का मतलब बस यह नहीं होता कि आप किसी से नहीं डरें, बल्कि ज़रूरी यह भी है कि आपसे भी कोई नहीं डरे। उन्होंने कहा कि हम शांति का आह्वाहन इसलिये कर रहे हैं, क्योंकि हम निष्पक्ष, अभय और निर्वैर हैं। थॉमस कोचरी ने हिंसा के तीनों ही प्रकारों- ढाँचागत, प्रतिक्रियावादी व राज्य प्रयोजित हिंसा - की भर्स्तना की।
इधर शांति और न्याय का अलख जगाने के लिये पत्रकारों के समक्ष शांति के विभिन्न पहलूओं पर विमर्श चल ही रहा था कि उधर शांति यात्रियों के वाहनों के पहियों से हवा निकाल दिया गया, बस यही नहीं, अपितु टायरों को पंचर कर दिया गया। शांति की बातें शांति-विरोधियों को देशद्रोह और अश्लील लग रही थी। फिर, इन प्रबुद्ध यात्रियों के द्वारा वार्ता के आह्वाहन करने पर जगदलपुर के प्रदशनकारियों और यात्रियों के बीच एक लंबी बातचीत हुयी। इसके बाद भी, जगदलपुर के नौजवानों का रवैया सब कुछ सुन कर अनसुना करने का रहा और उन्होंने शांति यात्रियों को आगे न जाने की हिदायत दे डाली।
अगले दिन, शांति और न्याय के लिए निकला यह काफ़िला जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ओर रुख्सत हुआ। जगदलपुर के एस.पी. ने शांति यात्रियों के सुरक्षा की जिम्मेवारी लेते हुये पुलिस की एक गाड़ी शांति यात्रियों के वाहन के साथ लगा दिया था। बावज़ूद इसके गीदम में स्थानीय व्यापारियों व साहूकारों ने शांति का मंतव्य लिये जा रहे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को रोका ही नहीं, दहशत का माहौल बनाने का भरसक प्रयास किया। महंगी गाड़ी से उतर कर एक आदमी ने लगभग डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मियों के सामने शांति यात्रियों के वाहन चालक को यह धमकी दी, कि अगर वह एक इंच भी गाड़ी दंतेवाड़ा की ओर बढ़ायेगा तो बस को फूँक दिया जायेगा। माँ-बहन की गालियाँ देना तो इन लपंटों के लिए आम बात थी। पुलिस की मौज़ूदगी में स्थानीय व्यापारियों का तांडव तब तक जारी रहा, जब तक दंतेवाड़ा डी.एस.पी. ने आकर सुरक्षा की कमान नहीं संभाली।
इसके बाद काफिला दंतेवाड़ा के शंखनी और डंकनी नदियों के बीच में बना माँ दंतेश्वरी की मंदिर में जाकर ठहरा, जहाँ इन लोगों ने प्रदेश में शांति एवं न्याय के स्थापना के लिए शांति प्रार्थना किया। फिर एक पत्रकार गोष्ठी व जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया था, जहाँ स्थनीय व्यापारियों ने नक्सलवाद के कारण अपने परेशानियों से शांतियात्रियों से रु-ब-रु करवाया। तत्पश्चात इन लोगों ने आस्था आश्रम में भी शिरकत किया, जो कि राज्य संचालित अति संपन्न विद्यालय है। हालाँकि, यहाँ विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या और उनका अनुपात इस विद्यालय के प्रासंगिकता पर कई सवाल खड़े कर रहे थे। आश्रम के बाद शांति यात्री सीआरपीएफ़ के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने उनके कैंप में गये और अपनी संवेदना व्यक्त की।
दंतेवाड़ा में शांतियात्रियों का आखिरी पड़ाव चितालंका में विस्थापित आदिवासियों का शिविर था। पुलिस के अनुसार इस शिविर में बारह गाँवों से विस्थापित १०६ विस्थापित परिवार गुज़र बसर कर रहे हैं। पुलिस की उपस्थिति में इन विस्थापित आदिवासियों ने नक्सलवादी हिंसा के कारण उन पर हुये अत्याचर का दुखड़ा रोया। उन्होंने बताया कि नक्सलवादी कितने क्रूर और तानाशाह होते हैं। गौर किजिये कि इस विस्थापित लोगों के शिविर में ज्यादातर पुरूषों को नगर पुलिस व विशेष पुलिस अधिकारी(एसपीओ) की नौकरी मिल गयी है, तो कुछ सरकारी कार्यालयों में चतुर्थ श्रेणी के रूप में काम कर रहे हैं। औरतों के लिये संपन्न लोगों के घरों में काम करने का विकल्प खुला हुआ है।
अपने दंतेवाड़ा तक की यात्रा में शांतियात्रियों की बातचीत हिंसा-प्रतिहिंसा के दूसरे पक्ष नक्सलवदियों से कोई संपर्क नहीं हो सका। राजनीतिक कार्यकर्ता व व्यापारिक समुदाय के लोगों के नुमाइंदों के अलावा किसी की मूल छत्तीसगढ़ी आमजनता की जनसभा को संबोधित करने में शांतियात्री कामयाब नहीं रहे। फिर भी, इस शांति व न्याय यात्रा को एक पहल के रूप में सदैव याद रखा जायेगा कि देश के कुछ चुनिंदा शांतिवादियों ने शांति और न्याय के मंतव्य से छत्तीसगढ़ की यात्रा की। उम्मीद है कि इस पहल से प्रभावित हो कर शांति और न्याय के प्रयास के लिए लोगों में हिम्मत बढेगा और भविष्य में कुछ परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
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संप्रति: पत्रकारिता एवं शोध
संपर्क-सूत्र: रामायण, बैद ले आउट, सिविल लाइन्स, वर्धा-442001दूरभाष: 09555053370, ई-मेल:
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12 मई 2010

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा उपेक्षित

देश का कोई भी संस्थान जब नयी नीतियां पारित करता है तो यह अपेक्षा की जाती है कि नयी नीतियों के तहत बनने वाले नियम, कानून, पहले की अपेक्षा ज्यादा सरल और जन सुलभ होंगे. उच्च शिक्षा के विकास के लिये जब १९५३ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) बनाया गया तो उसके आधार में १९४८-४९ में शिक्षा को लेकर बनायी गयी राधाकृष्णन कमेटी की वह रिपोर्ट थी जिसमें कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसें की गयी थी. उन सिफारिसों में शिक्षा को लोगों के जीवन से जोड़ते हुए उसे लोगों की आवश्यकता और अभिरुचि के मुताबिक बनाना था. इसमे राष्ट्रीय समरसता कायम करने और लोगों की उत्पादकता को बढ़ाते हुए आधुनिक शिक्षा पर जोर देने की बात कही गयी थी. पिछले ५७ वर्षों के अपने इतिहास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई महत्वपूर्ण काम भी किये. मसलन जहाँ देश में १९४७ के वक्त महज २० विश्वविद्यालय थे उनकी संख्या बढ़कर आज ४०० से अधिक हो चुकी है, ५०० से कालेज की संख्या २० हजार से ऊपर पहुच गयी है और पाँच लाख से अधिक अध्यापक उच्च शिक्षा में अध्यापन कर रहे हैं, भले ही इनकी गुणवत्ता में कमी हो पर संसाधन के तौर पर यह एक बेहतर स्थिति बन पायी.
राधाकृष्णन आयोग के बाद उच्च शिक्षा को लेकर १९६४-६६ में “कोठारी आयोग” बनाया गया. उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिये उसने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसे की थी. जिसमे जी.डी.पी. का ६ प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाने की बात कही गयी थी ताकि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में बृद्धि की जा सके और समान व समता परक शिक्षा उपलब्ध करायी जा सके. इसके पीछे निहित उद्देश्य यह थे कि ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में जो विभेदीकृत शिक्षा प्रणाली है उसे सुधारा जा सके. चूंकि एक बड़ा तबका है जो गाँवों में रहते हुए उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहा था. कोठारी आयोग की ज्यादातर सिफारिसे कागजों पर धरी रह गयी और गांवों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र यू.जी.सी. द्वारा कई अन्य वंचनाओं का शिकार होते गये.
२००६ में राष्ट्रीय मान्यता मूल्यांकन परिषद (एन.ए.ए.सी.) ने उन कालेजों की गुणवत्ता पर एक सर्वे किया जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंतर्गत थे, जिनकी संख्या १४ हजार के करीब थी. इनमे से महज ९ प्रतिशत कालेज ही ऐसे थे जो उच्च गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करा रहे थे. निम्न गुणवत्ता के ज्यादातर कालेज ग्रामीण क्षेत्रों से ही थे.
सुखदेव थोराट के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आध्यक्ष बनने के बाद कुछ जरूरी कदम इस तौर पर उठाये गये जिससे समता व समानता आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिला. यहाँ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों व महिलाओं की कम भागीदारी को न सिर्फ चिन्हित किया गया बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्रों के असमान अनुपात को भी चिन्हित किया गया. जहाँ २००३ में ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या ७.७६ थी वहीं शहरी क्षेत्रों से २७.२० प्रतिशत छात्र उच्च शिक्षा में प्रवेश पा रहे थे. नवम्बर २००६ में मुम्बई के अपने एक उद्बोधन में सुखदेव थोराट द्वारा इस असमानता को दूर करने की घोषणायें भी की गयी पर उसके लिये जो प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये थी वह नहीं अपनायी गयी बल्कि उसके विपरीत कुछ ऐसे नीतियां अपनायी गयी जिससे ग्रामीण क्षेत्र से उच्च शिक्षा लेना महज डिग्रीधारी होना ही रह जाता है.
गत वर्ष नेट और जे.आर.एफ. परीक्षाओं के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई बदलाव किये जिसमे आवेदन पत्रों को आन लाइन कर दिया गया ऐसी स्थिति में बड़ी तादात में वे छात्र जो गाँवों में रहते हैं और इंटरनेट जैसी आधुनिक सुविधाओं से वंचित है आवेदन करने से भी वंचित रह गये. उच्च शिक्षा में अध्यापन की पात्रता सुनिश्चित करने वाले इस परीक्षा में आवेदन प्रक्रियाओं को पहले से भी ज्यादा जटिल बना दिया गया. आखिर किसी भी संस्थान द्वारा प्रक्रिया को जटिल बनाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. क्या इसे इस तौर पर नहीं देखा जाना चाहिये कि इन जटिलताओं के बढ़ने से एक बड़ा समुदाय अपने को प्रक्रिया से बहिस्कृत पायेगा. इन परीक्षाओं के लिये जब इंटरनेट के आवेदन पत्र अनिवार्य किये गये तो क्या उन ग्रामीण क्षेत्रों का भी खयाल नहीं रखा जाना चाहिये था जो दूर दराज के इलाकों में बसे हैं क्या नीति निर्माताओं को इस बात का भान बिल्कुल नहीं था कि आज भी देश के कई हिस्सों में बिजली नहीं पहुंच पाती. दरअसल यह नीति निर्माताओं की चिंतन प्रणाली के बाहर इसलिये हो जाता है कि उनके ज़ेहन में शिक्षा का सम्बंध शहरं से ही जुड़ पाता है. ग्रामीण क्षेत्र इंटरनेट की पहुंच से बाहर हैं साथ में एक बड़ा वर्ग एस.सी., एस.टी., ओबीसी जो अधिकांसतः इन्हीं ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा बमुश्किल पा रहा है वह ऐसी परीक्षाओं से वंचित रह जायेगा. चूंकि आधुनिक तकनीक के रूप में न तो इंटरनेट इनकी पहुंच में न ही इनकी इसमे दक्षता है. लिहाजा विश्वविद्यालयों में अध्यापन के लिये जिस मापदण्ड को जरूरी किया गया है उसे पूरा करने में यह ग्रामीण वर्ग अक्षम ही रह जायेगा. इसके साथ-साथ एक नये तरह का आरक्षण अघोषित रूप में लागू हो चुका है जिसमें उच्च शिक्षा में अध्यापन के लिये आपका शहरी क्षेत्रों से होना अनिवार्य हो है, जहाँ इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक मौजूद हो और उसमे दक्षता भी.

06 मई 2010

नारको टेस्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने नारको टेस्ट पर कानूनी प्रतिबंध लगाते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया है. नारको टेस्ट का मामला व्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन से जुड़ा है जिसमे उसे बोलने या चुप रहने दोनों का अधिकार दिया जाता है. एक आरोपी को अपने ऊपर लगे आरोप को कुबूल करने या न कुबूल करने दोनों का अधिकार होना चाहिये, जिसका उलंघन ब्रेन मैपिंग के आधार पर किये जाने वाले इस तरह की जाँच में अब तक होता रहा. इस निर्णय के बाद एक अहम सवाल यह है कि अब तक किये गये नारको टेस्ट व उन बयानों के आधार पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गयी तफ्सीस को किस रूप में देखा जायेगा. पिछले वर्ष जब माओवादी आंदोलन के कथित कार्यकर्ता अरूण फ़रेरा का नारको टेस्ट किया गया था तो उसके दौरान आये बयान और उस पर शिवसेना की टिप्पणी ने कई प्रमुख सवाल खड़े कर दिये थे. जिसमे अरुण फ़रेरा ने अपने नारको टेस्ट में पूछे गये सवाल के जवाब में ए.बी.बी.पी. व बालठाकरे से मदद मिलने की बात कही थी और शिवसेना ने उसे सिरे से खारिज भी किया था. शिवसेना का सिरे से खारिज करना इस बात को इंगित करता है कि दोनों में से एक गलत है. वैचारिक रूप से शिवसेना और वामपंथी आंदोलन दो ध्रुव हैं जिस बात को शिवसेना ने स्वीकार करते हुए किसी तरह कि मदद से इनकार किया था. ऐसे में नारको परीक्षण से सच उगलवाने को लेकर मानवाधिकार संगठनों ने कुछ अहम सवाल उठाये थे और इस पर प्रतिबंध की मांग की थी. पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट (एक मानवाधिकार संगठन) ने अरुण फरेरा के नारको परीक्षण को लेते हुए एक रिपोर्ट जारी की है जिसमे कहा गया था कि नारको टेस्ट एक प्रताणना के अलावा और कुछ नही है क्योंकि इस तरकीब से सच उगलवाना संभव नहीं है.पर इन सारे आधारों की अनदेखी की गयी और अरुण फरेरा आज भी नागपुर जेल में कैद हैं.
हाल के वर्षों में देश में बढ़ते नारको परीक्षण की सच्चाई यह रही है कि बंग्लूरू में स्थापित टेस्ट सेंटर मे अब तक ३०० से अधिक नारको परीक्षण हो चुके हैं जिसके कोई खास नतीजे सामने नहीं आये हैं और पुलिस उन सबूतों के बल पर कुछ भी करने में अक्षम रही है. इसके पीछे ठोस कारण ये है कि नारको परीक्षण के जरिये पुख्ता सबूत निकालने में ५% मदद ही मिल पाती है और यह भी कई बातों पर निर्भर करता है. नारको परीक्षण के दौरान जिन नशीले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है उसमें सोडियम पेंटोथाल, सेकोनाल, सोडियम एमिटोल, स्कीपोलामाइन है. अब तक इस दावे के आधार पर नारको टेस्ट होते रहे कि इसके प्रयोग से आरोपी अपने विचारों को बदलने में असमर्थ हो जाता है और वह सब कुछ उगलता है जो कि उसके मस्तिस्क में होता है परन्तु तथ्य यह भी हैं कि यदि उसने टेस्ट के पहले ही जिद बना ली है कि वह झूठ बोलेगा या कुछ और बोलेगा तो दवा का प्रवाह उसकी इस जिद को बलवती बनाता है. इस टेस्ट का तरीका इतना अमानवीय होता है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित शारीरिक शोषण के अन्तर्गत आने वाले लगभग सभी तरकीबों का प्रयोग अभियुक्त पर किया जाता है और प्रयोग किये गये सीरम से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन भी गड़बड़ हो जाता है. जिसका सीधा प्रभाव उसकी यादास्त और स्वसन क्रिया पर पड़ता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनियाँ के कई देशों ने इस अमानवीय तरीके को अपनाना बंद कर दिया.
१९२२ में जब टेक्सास में पहली बार राबर्ट अर्नेस्ट द्वारा वहाँ के दो बंदियों पर यह तरीका अपनाते हुए कोर्ट में उन्हें पेश कर बयान दिलाया गया तो अभियुक्तों के अपराध स्वीकारने के बावजूद भी न्यायाधीस ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि नशे की हालत में दिया गया यह बयान अवैधानिक है. १९३० तक ही दुनियाँ के कई देश की न्यायालयों ने नारको टेस्ट से जुटाये गये सबूतों को अमान्य कर दिया और १९५० तक कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. भारतीय कानून में धारा १६४ के अनुसार बिना किसी दबाव के न्यायाधीस के सामने दिये गये ही बयान न्यायालय को मान्य होंगे. इस आधार पर भारतीय न्यायालय परीक्षण के आधार पर जुटाये गये सबूत को मानती भी नही. परन्तु दुनियाँ के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में इस प्रक्रिया का जारी रखना और ड्रग का इश्तेमाल कर शारीरिक यातना अभी तक जारी रही. नारको टेस्ट अवैज्ञानिक इस लिहाज से भी था कि सीरम के प्रयोग के बाद अभियुक्त से प्रश्न पूछने की शैली भी अभियुक्त के जवाब को निर्धारित करती है. यानि इसके मुताबिक जाँचकर्ता वह सब उगलवा सकता है जो वह उगलवाना चाहे. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के इस अहम फैसले के बाद जाँच एजंसियों द्वारा अभियुक्त पर की जा रही अमानवीयता पर फर्क जरूर पड़ेगा. पर सवाल नारको टेस्ट द्वारा अब तक अभियुक्तों पर हो चुकी अमानवीयता और मानवाधिकार हनन का भी है. कुछ मामले ऐसे है जिनमे अभियुक्त को छः-छः बार परीक्षण करवाना पडा़ है. आरुसी हत्या मामले में कम्पाउंडर कृष्णा की दो बार नारको टेस्ट हुई जिसका कोई खास नतीजा सामने नही आया ऐसे में टेस्ट के आधार पर जिन अभियुक्तों की तफ्सीस को आगे बढ़ाया जा रहा होगा उनका क्या होगा.
अब तक भारतीय न्यायालय जाँच में इसकी भूमिका को सही ठहराती रही क्योंकि वह मानती थी कि इससे पुलिस को कुछ पुख्ता सबूत मिलते हैं. पर इसके अलावा अब तक हुए ३०० से अधिक परीक्षण व इससे भी कहीं अधिक की गयी मांगों में न्यायालय व पुलिस का रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है. तेलगी प्रकरण में किये गये नारको परीक्षण के दौरान कई बडे़-बडे़ नेता और आला अधिकारियों के नाम पूछ-ताछ के दौरान लिये गये थे पर अब तक उन सुरागों का पुलिस ने कही इस्तेमाल नही किया है. यहाँ तक कि इन नेताओं और अधिकारियों से पुलिस ने सवाल-जबाब तक नहीं किये. दूसरे मामले में यदि न्यायालय का रुख देखें जिसमें शेख शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ और कौसर बी की हत्या पर गुजरात की अदालत ने आई.पी.एस. अधिकारियों जिसमे डी.जी.पी. बजारा समेत अन्य छः पुलिस कर्मी भी सम्मलित थे, के नारको टेस्ट की याचिका खारिज कर दिया था. ये घटनाये यह स्पष्ट करती हैं कि अब तक नारको टेस्ट किसका होता रहा है और सबूत किनके लिये जुटाये जाते हैं और कौन हरबार बचा लिये जाते रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अभियुक्तों के साथ हो रहे अमानवीय व अलोकतांत्रिक व्यवहार पर लगाम लगाने की दिशा में देर से ही सही एक महत्वपूर्ण कदम है.

04 मई 2010

मजदूरों का बंधुआ बनना जारी है...

- देवाशीष प्रसून

अगर भारत सरकार या देश के किसी भी राज्य सरकार से पूछा जाये कि क्या अब भी हमारे देश में मजदूरों को बंधुआ बनाया जा रहा है, तो शायद एक-टूक जबाव मिले - नहीं, बिल्कुल नहीं। सरकारे अपने श्रम-मंत्रालयों के वार्षिक रपटों के जरिए हमेशा ऐसा ही कहती हैं। सन 1975 से देश में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन का कानून लागू है। इस कानून के लागू होने के बाद से सरकारों ने अपने सतत प्रयासों के जरिए बंधुआ मजदूरी की व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंका है, सरकारी सूत्रों से बस इस तरह के दावे ही किए जाते हैं। हालाँकि, हकीकत इसके बरअक्स कुछ और ही है।

गौर से देखें तो आज ठेके पर नौकरी का मतलब ही बंधुआ मजदूरी है। कारपोरेट जगत में भी एक नियत कालावधि के लिए कांट्रेक्ट आधारित नौकरी में अपने नियोक्ता के बंधुआ बनते हुये कई पढ़े-लिखे अतिदक्ष प्रोफेसनल्स देखने को मिल जायेंगे। क्योंकि एक तो उनके पास विकल्पों का आभाव है और दूसरा नौकरी छोड़ने पर एक भाड़ी-भड़कम रकम के भुगतान की बाध्यता। लेकिन श्रम के असंगठित क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरी व्यवस्था का होता नंगा नाच दिल दहला देने वाला है।

बीते दिनों, बीस राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के कई शहरों में हुये एक सर्वेक्षण आधारित अध्ययन ने देश में बंधुआ मजदूरी के मामले में सरकारी दावों की पोल खोल रख दी है। असंगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिये बनायी गई राष्ट्रीय अभियान समिति के अगुवाई में मजदूरों के लिए काम कर रहे कई मजदूर संगठनों व गैर-सरकारी संगठनों के द्वारा किये गये इस राष्ट्रव्यापी अध्ययन से पता चलता है कि देश में बंधुआ मजदूरी अब तक बरकरार है। भले ही इसका स्वरूप आज के उद्योगों की नयी जरूरतों के हिसाब से बदला है, लेकिन असंगठित क्षेत्रों में हो रहा ज्यादातर श्रम, किसी न किसी रूप में, बंधुआ मजदूरी का ही एक रूप है। बार-बार यह तथ्य सामने आया है कि आज देश के ज्यादातर इलाकों में बंधुआ मजदूरी की परंपरा के फिर से जड़ पकड़ने के पीछे पलायन और विस्थापन का अभिशाप निर्णायक भूमिका निभा रहा है।

किसी मजदूर को अपना गाँव-घर छोड़ कर दूसरी जगह मेहनत करने इसलिये जाना पड़ता है, क्योंकि उसके अपने इलाके में आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। कहीं सूखा, कहीं बाढ़ और तो किसी के पास खेती के लिए अनुपयुक्त या नाकाफी जमीन, ऐसे में, वे लोग, जो बस खेतिहर मजदूर हैं, अपने इलाकों में खेती के बदतर स्थिति के कारण एक तो मजूरी बहुत कम पाते हैं और दूसरे समाज में विद्यमान सामंती मूल्यों के अवशेष भी उन्हें बार-बार कुचलते रहते हैं। बेहतरी की उम्मीद में ही वे पलायन करने को मजबूर होते हैं। बंधुआ मजदूरी का नया स्वरूप जो सामने आया है, उसमें मजदूरों का सबसे बड़ा हिस्सा पलायन किये हुये मजदूरों का है।

खेती, ईंट-भट्टा, निर्माण-उद्योग और खदानों जैसे कई व्यवसायों में अपना खून-पसीना एक करने वाले मजदूरों को बडे ही सुनियोजित तरीके से बंधुआ बनाया जाता हैं। मजदूरों को नियुक्त करवाने वाले दलाल शुरुआत में ही थोड़े से रूपये बतौर पेशगी देकर लोगों को कानूनन अपना कर्जदार बना देते हैं। रूपयों के जाल में फँसकर मजदूर अपने नियोक्ता या इन दलालों का बंधुआ बन कर रह जाता है।

अधिकतर मामलों में, ये दलाल संबंधित उद्योगों के नजर में मजदूरों के ठेकेदार होते हैं। इन ठेकेदारों से प्रबंधन अपनी जरूरत के मुताबिक मजदूरों की आपूर्ति करने को कहता है और मजदूरों के श्रम का भुगतान भी आगे चलकर इन्हीं ठेकेदारों के द्वारा ही किया जाता है। बाद में ये ठेकेदार या दलाल, आप इन्हें जो भी संज्ञा दें, मजदूरों के श्रम के मूल्यों के भुगतान में तरह तरह की धांधलियाँ करते हैं। नियोक्ता और श्रमिक के बीच में दलालों की इतनी महत्वपूर्ण उपस्थिति मजदूरों के शोषण को और गंभीर बना देती है। दलाल मजदूरों का हक मारने में किसी तरह का कोई गुरेज नहीं करते है, उन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देना तो दूर की बात है। मजदूरों का मारा गया हक ही इन दलालों के लिए मुनाफा है। ऐसी स्थिति में मजदूरों के प्रति किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी, जैसे कि रहने और आराम करने के जगह की व्यवस्था, स्वास्थ्य सुविधाएं, बीमा, खाने के लिए भोजन और पीने के लिए पानी को सुलभ बनाना और दुर्घटनाओं के स्थिति में उपचार आदि से अमूमन नियोक्ता अपने आप को विमुख कर लेता है। नियोक्ता इन सब के लिए ठेकेदारों को जिम्मेवार बताता है तो ठेकेदार नियोक्ता को और ऐसे में मजदूर बेचारे बडे बदतर स्थिति में यों ही काम करने को विवश रहते हैं।

सबसे पहले, महानगरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियों का उदाहरण लें। गरीबी और भूख के साथ-साथ विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित हो रहे छत्ताीसगढ़ और झाड़खंड के आदिवासी रोजी-रोटी के लिए इधर उधर भटकते रहते हैं। ऐसे में आदिवासी लड़कियों को श्रम-दलाल महानगरों में ले आते हैं। उन्हें प्रशिक्षित करके दूसरों के घरों में घरेलू काम करने के लिए भेजा जाता है। इन घरों में ऐसी लड़कियों की स्थिति बंधुआ मजदूरों से इतर नहीं होती। अठारह से बीस घंटे रोज मेहनत के बाद भी नियोक्ता का व्यवहार इनके प्रति अमूमन अमानुष ही रहता है और इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन महिला मजदूरों का यौन शोषण भी होता होगा। इतने प्रतिकूल परिस्थिति में भी इनके बंधुआ बने रहने का मुख्य कारण आजीविका के लिए विकल्पहीन होने के साथ-साथ नियोक्ता के चाहरदीवारी के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञता भी है। मजबूरन अत्याचार सहते रहने के बाद भी घरेलू नौकरानियाँ अपने नियोक्ता के घर में कैद रह कर चुपचाप खटते रहने के लिए बाध्य रहती हैं, क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है।

श्रमिकों पर होने वाला शोषण यहाँ रुकता नहीं है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों में महिलाओं के साथ-साथ पुरूष और बच्चे भी काम करते हैं। इन्हें भी काम दिलाने वाले दलाल गाँवों-जंगलों से कुछ रूपयों के बदौलत बहला फुसला कर काम करवाने के लिए लाते हैं। ईंट भट्टे का काम एक मौसमी काम है। पूरे मौसम इन श्रमिकों के साथ बंधुआ के तरह ही व्यवहार किया जाता है और इन्हें न्यूनतम दिहाड़ी देने का चलन नहीं है। और तो और, अध्ययन के अनुसार महिलाओं के प्रति यौन-हिंसा ईंट भट्टों में होने वाली आम घटना है। ईंट-भट्टों में काम करने वाले मजदूरों की खस्ताहाल स्थिति पूरे देश में एक सी है।

अति तो तब है, तब मजदूरों पर यह होता अन्याय एक तरफ सरकारों को सूझता नहीं, दूसरी ओर, खुलेआम सरकार अपने कुछ योजनाओं के जरिए बंधुआ मजदूरी को प्रश्रय भी देती हैं। बतौर उदाहरण लें तो बंधुआ मजदूरी का एक स्वरूप तमिलनाडु में सरकार के प्रोत्साहन पर चल रहा है। बंधुआ मजदूरी का यह भयंकर कुचक्र सुमंगली थित्ताम नाम की योजना के तहत चलाया जाता है। इस योजना को मंगल्या थित्ताम, कैंप कूली योजना या सुबमंगलया थित्ताम के नामों से भी जाना जाता है। इसके तहत 17 साल या कम उम्र की किशोरियों के साथ यह करार किया जाता है कि वह अगले तीन साल के लिए किसी कताई मिल में काम करेगी और करार की अवधि खत्म होने पर उन्हें एकमुश्त तीस हजार रूपये दिये जायेंगे, जिस राशि को वह अपनी शादी में खर्च कर सकती हैं। तमिलनाडु के 913 कपास मिलों में 37000 किशोरियों का इस योजना के तहत बंधुआ होने का अंदाजा लगाया गया है। इनके बंधुआ होने का कारण्ा यह है कि करार के अवधि के दौरान अगर कोई लड़की उसके नियोक्ता कपास मिल के साथ काम न करना चाहे और मुक्त होना चाहे तो उसके द्वारा की गयी अब तक की पूरी कमाई को मिल प्रबंधन हड़प कर लेता है। साथ ही, कैंपों में रहने को विवश की गयी इन लड़कियों के साथ बड़ा ही अमानवीय व्यवहार होता है। इन्हें बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग रखा जाता है, किसी से मिलने-जुलने की इजाजत नहीं होती है। एक दिन में 17-18 घंटों का कठोर परिश्रम करवाया जाता है। हफ्ते में बस एक बार चंद घंटे के लिए बाजार से जरूरी समान खरीदने के लिए छूट मिलती है। इनके लिए न तो कोई बोनस है, न ही किसी तरह की बीमा योजना और न ही किसी तरह की स्वास्थ्य सुविधा। दरिंदगी की हद तो तब है, जब एकांत में इन अल्पव्यस्कों को यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक में आयी एक खबर के मुताबिक शांति नाम की गरीब लड़की को ढ़ाई साल मिल में काम के बाद भी बदले में एक कौड़ी भी नहीं मिली। उलटे, मिल के मशीनों ने उसे अपाहिज बना दिया और प्रबंधन का यह बहाना था कि दुर्घटना के बाद शांति के इलाज में उसकी पूरी कमाई खर्च हो गई।

बंधुआ मजदूरी की चक्कर में फँसने वाले अधिकतम लोग या तो आदिवासी होते हैं या दलित। आदिवासियों का बंधुआ बनने का कारण उनके पारंपरिक आजीविका के उन्हें महरूम करना है। तमिलनाडु की एक जनजाति है इरुला। ये लोग पारंपरिक रूप से सपेरे रहे हैं, लेकिन साँप पकड़ने पर कानूनन प्रतिबंध लगने के बाद से कर्ज के बोझ तले दबे इस जनजाति के लोगों को बंधुआ की तरह काम करने के लिए अभिसप्त होना पड़ा है। चावल मिलों, ईंट-भट्टों और खदानों में काम करने वाली इस जनजाति को हर तरह के अत्याचारों को चुपचाप सहना पड़ता है। तंग आकर जब रेड हिल्स के चावल मिलों में बंधुआ मजदूरी करने वाले लगभग दस हजार लोगों ने अपना विरोध दर्ज किया तो उन्हें मुक्त कराने के बजाए एक सक्षम सरकारी अधिकारी ने उन्हें नियोक्ता से कह कर कर्ज की मात्रा कम करवाने के आश्वासन के साथ वापस काम पर जाने को कहा। सरकारी मशीनरी की ऐसी भूमिका मिल मालिकों और अधिकारियों की साँठ-गाँठ का प्रमाण है।

कुल मिला कर देखे तो बंधुआ मजदूरी के पूरे मामले में एक बहुत बड़ा कारण आजीविका के लिए अन्य विकल्पों और अवसरों का उपलब्ध नहीं होना है। साथ ही, अब तक जो हालात दिखे हैं, उनके आधार पर सरकारी लालफीताशाही के मंशा पर भी कोई भरोसा नहीं किया जा सकता है। बंधुआ मजदूरी का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण स्थायी नौकरी के बदले दलालों के मध्यस्था में मजदूरों के श्रम का शोषण करने की रणनीति अंतर्निहित है। ऐसे में संसद और विधानसभा में बैठ कर उन्मूलन के कानून बनाने के अलावा सरकार को इसके पनपने और फलने-फूलने के कारणों पर भी चोट करना पड़ेगा।

संप्रति: पत्रकारिता एवं शोध

संपर्क-सूत्र: रामायण, बैद ले आउट, सिविल लाइन्स, वर्धा-442001

02 मई 2010

पंकज विष्ट कों एक खुला ख़त

समयांतर के मार्च, 2010 अंक में नवीन पाठक के नाम से आपने पृश्ठ 39 पर लिखा है:

... इधर उभरे वामपंथी प्रकाषनगृहों से मुख्य तौर से वे किताबें नए सिरे से छप कर आई हैं जो सोवियत रूस के जमाने में प्रगति प्रकाषन मास्को से छपती थीं. इनकी लोकप्रियता देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि हिंदी में वामपंथी साहित्य का बड़ा बाजार है. कुछ ऐसे प्रकाषक भी थे जो साहित्य के नाम पर अनुवादों से पटे थे और ये अनुवाद 19 वीं और बीसवीं सदी के अंग्रेजी के लेखकों की रचनाएं थीं. यह अच्छा धंधा है क्योंकि इसमें किसी को रॉयल्टी नहीं देनी होती. जहां तक अनुवादों की गुणवत्ता का सवाल है उन पर जो न कहा जाए थोड़ा है...

यह जानने की बलवती इच्छा हुई कि --

1. प्रथम टिप्पणी किस / किन वामपंथी प्रकाषनों के बारे में है?
2. आपने पुस्तकों के बड़े ‘बाजार’ षब्द का उल्लेख किया है. तो यह बताएं कि बाजार क्या होता है, उसके घटक क्या होते हैं, प्रोडक्षन से लेकर और इस्तेमाल तक किसी वस्तु के वितरण में प्रयुक्त शृखला किस स्थिति में बाजार कहलाती है? और अंत में यह बताएं कि 10 प्रांतों के 50 करोड़ की हिंदी भाशी आबादी के बीच पुस्तकों के इस तथाकथित बाजार की ‘स्ट्रेंथ’ कितनी है? यह ‘बाजार’ कितनी प्रतियों या कितने लाख / करोड़ रुपयों का है?
3. यह सारी बातें आपने विष्व पुस्तक मेले के संदर्भ में कही हैं, जो दो साल में एक बार 9 दिनों के लिए होता है. बेषक इस मेले में स्टॉलों पर भीड़ दिखती है, और पुस्तकें भी खरीदी जाती हैं. परंतु इसका दूसरा यह पहलू यह भी है कि ‘बाजार’ किसी भी उत्पाद को षहर, गांव, कस्बे तक उसके ग्राहक के लिए सुलभ बनाता है. और मान्यवर बाजार का अर्थ मार्केट प्लेस मात्र नहीं होता, यह किसी उत्पाद के वितरण की पूरी प्रक्रिया होती है, जिसमें संलग्न ढेरों परिवारों का पालन पोशण इस पर निर्भर होता है. तो दूसरा पहलू यह है मान्यवर, कि गांव कस्बे तो दूर बड़े-बड़े षहरों तक में हिंदी की किताबें उपलब्ध नहीं हैं, वामपंथी पुस्तकों की तो बात ही छोड़िए. बहुत से लोगों के विष्व पुस्तक मेले में किताबें खरीदने का एक मुख्य कारण यह भी है कि बाद में ये किताबें उन्हें सहज रूप से मिल नहीं पाएंगी. विष्व पुस्तक मेले की भीड़ और पाठकों द्वारा पुस्तक खरीद से कुछ भी सिद्ध नहीं होता, मान्यवर.
4. जहां तक मेरी जानकारी है, यदि हिंदी पुस्तकों के व्यापार की बात की जाए तो यह आपकी ही भाशा में दो तरीके के ‘बाजारों’ में गतिषील है --
1- वैयक्तिक पाठकों के बीच
2- पुस्तकालय खरीद के देषव्यापी नेटवर्क के बीच जिसकी षक्ति में हिंदी के राश्ट्रभाशा होने के कारण सरकारी पैसा बड़े पैमाने पर षामिल है.

5. तो मान्यवर, यदि आपका यह लेख और इसमें की गई आप्त टिप्पणियों का स्रोत यदि सचमुच उस मनस् में है जो हिंदी पुस्तकों की दुनिया और इससे पाठक के संबंध को लेकर जेनुइन तरीके से चिंतित है तो आपको इस दूसरे विशय पर लिखना चाहिए -- यानी स्पश्ट रूप से इस विशय पर कि हिंदी पुस्तकों के नाम पर पाठकों से छल करते हुए किस तरह की थोक पुस्तकालय खरीद की धंधेबाजी और कालाबाजारी चल रही है और इसमें हिंदी के बड़े बड़े लेखक और संस्थाएं सहअभियुक्त हैं. जबकि आप इस एकमात्र करणीय काम को छोड़ कर ठीक उल्टा काम कर रहे हैं, कि जो भी लोग निजी प्रयासों से हिंदी पुस्तकों और पाठकों के बीच एक सेतु बनाने के संघर्श में लगे हैं, आप उनका अप्रत्यक्ष रूप से चरित्र-हनन कर रहे हैं.
6. जहां तक मेरी जानकारी है आप जब धंधा, बाजार आदि षब्दों का इस्तेमाल करते हुए हिंदी के कुछ प्रकाषनों की आलोचना कर रहे हैं, तब आपकी बातों से यह स्पश्ट नहीं हो पाता कि आप उपरोक्त दो तरह के बाजारों में से किस बाजार की बात कर रहे हैं? क्योंकि यह स्पश्ट है कि सरकारी खरीद का बाजार अरबों रुपए का है, और बहुत बड़ा है और हिंदी के कतिपय बड़े प्रकाषकों का इस पर पूर्ण एकाधिकार है. बेषक यह एकाधिकार बड़े प्रकाषकों का है, परंतु इसके संचालन की एक अत्यंत प्रभावी धुरी हिंदी के स्वनामधन्य बड़े लेखकों का एक षक्तिषाली समूह भी है, जिनमें कई आपके मित्र भी हैं, और एक तो अत्यंत घनिश्ठ और समयांतर के अतिथि संपादक भी.
7. आप जिन प्रकाषकों को लक्षित कर रहे हैं, वे इस भ्रश्ट सरकारी खरीद से बिल्कुल बाहर के संघर्शषील और सचमुच मिषन की भावना से काम करने वाले प्रकाषक हैं.
8. अब आप यदि प्रकाषन, पुस्तक खरीद और पाठक के इस मुद्दे पर सचमुच ईमानदार हैं, और सिर्फ सनसनी पैदा कर समयांतर के एक प्रतिबद्ध पाठक-समुदाय के बीच झूठी आत्मगरिमा से संतुश्ट नहीं हो जाना चाहते तो आपका दायित्व है और आपके लिए अपने संपर्कों, हिंदी लेखन-प्रकाषन से लंबी संबद्धता के कारण यह बहुत आसान भी है कि थोक सरकारी खरीद के इस बाजार के बारे में -- इससे गलत ढंग से लाभान्वित होने वाले प्रकाषकों और निष्चय ही इसके जरिए ही षक्तिषाली होने वाले लेखकों / बुद्धिजीवियों पर तथ्यपरक लेख समयांतर में लिखें और बताएं कि कैसे हिंदी में नकली लेखकों का पूरा एक वर्ग उभर आया है, कैसे प्रकाषकों को इस बात से कुछ लेना देना नहीं रह गया है कि वह जो छाप रहे हैं, वह सचमुच पढ़ा जाने लायक / बिकने लायक है या नहीं. और इस पूरी तफतीष में यह भी लिखें कि समयांतर में छपे आपके लेखों का पुस्तकाकार संग्रह पुस्तक रूप में छापे जाने की क्या आवष्यकता थी? और वह भी हार्डबाउंड में और इसकी मंहगी कीमत का खरीदार कौन था? आप अपनी ही सिर्फ इस एक किताब के जरिए हिंदी के पूरे पुस्तक बाजार का यथातथ्य चित्र खींच सकते हैं.
9. हिंदी पुस्तकों की थोक सरकारी खरीद के रैकेट का बाजार कितना है, उसमें हिंदी के कौन कौन से लेखक षामिल हैं और इस थोक खरीद की चयन-समितियों में बैठकर वे किन प्रकाषकों को उपकृत करते हैं -- यदि इस पर पड़ताल कर थोड़ा लिख सकें तो हिंदी के वर्तमान परिदृष्य में एक महत्वपूर्ण काम होगा. इस संबंध में आपको काफी जानकारियां थोक सरकारी खरीद के अरबों रुपए का कारोबार जिस मानव संसाधन मंत्रालय के तहत आता है उसके पूर्व मंत्री अर्जुन सिंह पर दो दो किताबें लिखने वाले और उस मंत्रालय के उस संस्थान -- राजा राममोहन राय फाउंडेषन, कोलकाता, जो अरबों रुपए की सरकारी खरीद का संचालक है की समिति में रह चुके आपके मित्र, समयांतर के लेखक और समयांतर के अतिथि संपादक श्री रामषरण जोषी जी प्रचुर मात्रा में मुहैया करवा सकते हैं और वे प्रकाषक भी ये जानकारियां उपलब्ध करवा सकते हैं, जहां से स्वयं आपकी मौलिक किताबें छपी हैं.
10. यदि आप सचमुच चिंतित हैं, तो हिंदी में पुस्तक खरीद के जो-जो रैकेट हैं, उन्हें उजागर करें न कि अपनी सीमा भर हिंदी में कुछ बेहतर करने का संघर्श कर रहे प्रकाषकों पर एकसार ढंग से लाठी घुमा दें. अब आप बताएं कि --
11. अनुवाद से पटे ये प्रकाषक कौन हैं?
12. ये अनुवाद से पटे प्रकाषक क्या सचमुच इसलिए किताबें निकाल रहे हैं कि इन पर रॉयल्टी नहीं देनी पड़ती और यह अच्छा धंधा है?
13. आपको यह कैसे पता कि किन किताबों पर रॉयल्टी दी जाती है और किन पर नहीं, और क्या आपने इन प्रकाषनों द्वारा छापी गई प्रत्येक किताब के बारे में आवष्यक तफतीष कर ली है?
14. हिंदी की मौलिक पुस्तकों पर आने वाले खर्च से इन किताबों पर आने वाले खर्च कम नहीं कई गुना ज्यादा पड़ते हैं -- क्या इस तथ्य को आप जानते हैं? और इस तथ्य को भी कि हिंदी की मौलिक किताबों को सरकारी खरीद में बिकवाने के लिए उसका लेखक या उसके संपर्क मददगार हो सकते हैं, परंतु ‘19 वीं सदी का’ कोई लेखक या उसका कोई षागिर्द अपनी पुस्तक भारत की राश्ट्रभाशा स्कीम की थोक खरीद में नहीं बिकवा पाएगा. इस बात को और स्पश्ट करना चाहें तो आपकी ही पत्रिका में नियमित विज्ञापन देने वाले ग्रंथषिल्पी की 10 किताबें चुनें और उसी वर्श उतने ही पेज की हिंदी के किसी बड़े स्थापित ‘मौलिक कृतियों’ के प्रकाषक की 10 मौलिक किताबें चुनें और उन पर आई लागत और उनकी बिक्री की तुलना करें. विष्वास करें चित्र अपने आप स्पश्ट हो जाएगा. लंतरानियां, तथ्यों का स्थानापन्न नहीं होतीं.
15. हिंदी में मौलिक या अनूदित सभी प्रकार की गंभीर साहित्यिक पुस्तकें आपके अनुमान से कुल कितनी बिक जाती होंगी?
16. आपने अपने लेख में एक तरह से अनूदित साहित्य के बरक्स हिंदी के समकालीन मौलिक साहित्य को रखने की चेश्ट की है. हालांकि इसकी न तो कोई जरूरत थी और न ही संदर्भ. दरअसल दुख की बात तो यह है कि हिंदी में विष्व भर का अनूदित साहित्य अब भी बहुत कम है. जिस बड़े पैमाने पर उसका अनुवाद और प्रसार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. बहरहाल यह एक गंभीर और व्यापक विशय है. इस पर फिर कभी. फिलहाल तो आप सिर्फ इतना जनहित में बता दें कि हिंदी की सभी विधाओं में पिछले पांच वर्शों में वे कौन सी महत्वपूर्ण मौलिक कृतियां आई हैं (कृपया सभी विधाओं से दस-दस कृतियों का नाम देने का कश्ट करें) महोदय जान पड़ता है हिंदी के समकालीन मौलिक साहित्य को लेकर आप काफी उत्साही हैं, पर यह उत्साह आप की किसी भी सार्वजनिक गतिविधि में कभी दिखाई नहीं पड़ा. और क्या यह सच नहीं है कि हिंदी का समकालीन मौलिक लेखन एक गंभीर संकट काल से गुजर रहा है. यह भी एक वृहत्तर विशय है. इस पर भी फिर कभी.
17. हिंदी प्रकाषन, पाठक, लेखक की वास्तविक समस्याएं क्या हैं? उनका समाजिक-सांस्कृतिक कारण क्या है? ये गंभीर सवाल हैं, कृपया इनसे गंभीरता से ही मुखातिब हों, और सच्चे हृदय से उपजी वास्तविक चिंता के साथ, न कि हिसाब चुकाने की भावना से प्रेरित हो कर या सस्ती लोकप्रियता पाने के इरादे से.

-आलोक श्रीवास्तव
मुंबई