23 दिसंबर 2014

मृत्यदंड के बारे में: रोबेस्पिया

(मृत्युदंड का विरोध किस तरह आज से ही नहीं बल्कि फ्रांस की क्रांति के समय से ही समाज के जनवादीकरण से जुडा हुआ है. और यह भाषण आज भी किस तरह प्रासंगिक बना हुआ है. यह 22 जून 1791 को महान क्रांतिकारी रोबस्पेरे द्वारा फ़्रांस की संविधान सभा में दिये गए भाषण का हिंदी अनुवाद है.)

एथेंस में जब खबर पहुंची कि अर्गोस नगर के नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया है तो वहां के लोग भाग कर देवालयों में गए और उन्होंने देवताओं को आह्वान किया कि वे एथेंस के लोगों को ऐसे भयानक और क्रूर विचारों से बचाएं. मेरा आह्वान देवताओं से नहीं कानून निर्माताओं से है, उनसे जो देवत्व के शाश्वत नियमों के संचालक और भाष्यकार हैं, कि ऐसे खूनी कानूनों को फ़्रांस की संहिता से मिटा दे जो न्यायिक हत्याओं को निर्देशित करते हैं और जिनको उनकी नैतिकता और नया संविधान ख़ारिज करते हैं. मैं उनके समक्ष साबित करना चाहता हूँ : 1. कि मृत्युदंड सारतः अन्याय है. और 2. कि यह दण्डो में से सबसे दमनकारी नहीं है और यह अपराधों को रोकने से ज्यादा उन्हें संगुणित करता है.

नागरिक समाज के दायरे से बाहर यदि एक कटु शत्रु मेरा जीवन ख़त्म करने की कोशिश करता है, या बीसियों बार धकेलने पर भी मेरे द्वारा उगाई गई फसल को नष्ट करने वापस आ जाता है. तो क्योंकि मेरे पास विरोध के लिए केवल मेरी व्यक्तिगत शक्ति का ही सहारा है इसलिए मुझे उसे अनिवार्यतः नष्ट करना होगा या उसे ख़त्म कर देना होगा और प्राकृतिक रक्षण का नियम मुझे औचित्य और स्वीकृति प्रदान करता है. लेकिन समाज में, जब सभी की शक्ति केवल किसी एक व्यक्ति के खिलाफ लामबंद है तो न्याय का कौन सा सिद्धांत उसकी हत्या की स्वीकृति दे सकता है? कौन सी अनिवार्यता इसे दोषमुक्त कर सकती है? एक विजेता जो अपने बंदी शत्रु की हत्या करता है बर्बर कहलाता है! एक प्रौढ़ जो किसी बालक को शक्तिहीन कर उसे दंड देने की सामर्थ्य रखता है यदि उसकी हत्या कर दे तो राक्षस समझा जाता है! एक अभियुक्त जिसे समाज द्वारा सजा दी गई है एक पराजित और शक्तिहीन शत्रु के सिवा कुछ भी नहीं है और वह एक प्रौढ़ के सामने बालक से भी ज्यादा असहाय है.

अतः, सत्य और न्याय की नज़र में मौत के ये नज़ारे जिन्हें यह अनुष्ठानपूर्वक आदेशित करता है, कायराना कत्लों के सिवा कुछ भी नहीं है, ये केवल कुछ व्यक्तियों के बजाय समूचे राष्ट्र के द्वारा कानूनी तरीको से किये गये गंभीर अपराध है. कानून चाहे कैसे भी निर्मम और वैभवशाली क्यों न हों, हैरान मत होइए, ये चंद उत्पीड़कों के कारनामों से ज्यादा कुछ नहीं हैं. ये ऐसी काराएं हैं जिनसे मानव जाति को अधोपतित किया जाता है. ये ऐसी भुजाएं हैं जिनसे उसे पराधीन किया जाता है,
ये कानून खून से लिखे गए हैं. किसी भी रोमन नागरिक को मौत की सजा देना वर्जित था. यह जनता द्वारा बनाया गया कानून था. लेकिन विजयी स्काईला ने कहा : वे सभी जिन्होंने मेरे विरुद्ध अस्त्र उठाये मृत्यु के भागी हैं. ओक्टावियन और अपराध में उसके सहभागियों ने इस नए कानून की पुष्टि की.

तिबेरियस की अधीनता में ब्रूटस की प्रशंसा करना मृत्युयोग्य अपराध था. कालिगुला ने उन सबको मृत्युदंड दिया जिन्होंने भी सम्राट के चित्र के समक्ष नग्न होने की धृष्टता की. एक बार जब आतताई शासकों द्वारा राजद्रोह के अपराध – जो अवज्ञापूर्ण या नायकोचित कृत्य हुआ करते थे – का आविष्कार कर लिया गया तो फिर कौन बिना स्वयं को राजद्रोह का भागी बनाए यह सोचने की हिम्मत कर सकता था कि इनकी सजा मृत्युदंड से थोड़ी कम होनी चाहिए?

अज्ञानता और निरंकुशता के राक्षसी मिलन से पैदा हुए उन्माद ने जब दैवीय राजद्रोह के अपराध का आविष्कार कर लिया, जब इसने अपने मतिभ्रम में स्वयं ईश्वर का प्रतिशोध लेने का बीड़ा उठा लिया, तब क्या यह जरुरी नहीं हो गया था कि यह उन्हें रक्त अर्पित करे, और स्वयं को ईश्वर का ही रूप मानने वाले, उसे दरिन्दे की श्रेणी में पहुंचा दें?

पुरातन बर्बर कायदे के समर्थक कहते है कि मृत्युदंड अनिवार्य है, बिना इसके अपराध पर लगाम लगाना संभव नहीं है. यह आपसे किसने कहा? क्या आपने उन सभी अंकुशों का आकलन कर लिया है जिनके द्वारा दंडविधान मनुष्य की संवेदना पर काम करता है? अफ़सोस, मृत्यु से पहले मनुष्य कितना शारीरिक और नैतिक कष्ट सहन कर सकता है?

जीने की इच्छा उस आत्मसम्मान के सामने नतमस्तक हो जाती है, जो ह्रदय पर शासन करने वाले आवेगों में सबसे प्रबल होता है. एक सामजिक मनुष्य के लिए सबसे खतरनाक सजा अपमानित होना है, सार्वजनिक निंदा का पात्र बन जाना है. यदि कानून निर्माता नागरिक को इतनी सारी नाजुक जगहों पर चोट पहुंचा सकता है तो उसे मृत्युदंड के इस्तेमाल करने की हद तक क्यों गिर जाना चाहिए? दंड दोषी को यातना देने के लिए नहीं होता है, वरन वह उसके भय से अपराध को रोकने के लिए दिया जाता है.

जो कानून निर्माता मृत्यु और उत्पीड़नकारी सजाओं को अन्य तरीकों के ऊपर वरीयता देता है वह जनभावनाओं को आहत करता है और शासितों के बीच अपनी नैतिक साख को कमजोर करता है. एक ऐंसे ढोंगी गुरु की तरह जो बार बार की क्रूर सजाओं से अपने शिष्य की आत्मा को जड़ और अपमानित बना देता है. वह कुछ ज्यादा ही जोर से दबाकर सरकार की स्प्रिंगों को ढीला और कमजोर कर देता है.

जो कानून निर्माता म्रत्युदंड का विधान स्थापित करता है वह इस उपयोगी सिद्धांत का निषेध करता है कि किसी अपराध को दबाने का सबसे सही तरीका उन आवेगों की प्रकृति के अनुसार दंड तय करना है जोकि उसको पैदा करते हैं. मृत्युदंड का विधान इन सभी विचारों को धूमिल कर देता है यह सभी अन्तःसम्बन्धों को विघटित कर देता है और इस प्रकार दंडात्मक कानून के उद्देश्य का ही खुलेआम निषेध करता है.

आप कहते हैं कि मृत्युदंड अनिवार्य है. यदि यह सत्य है तो क्यों बहुत सारे लोगों को इसकी जरुरत नहीं पड़ी. विधि के किस विधान के तहत ऐसे लोग ही सबसे बुद्धिमान, सबसे खुश और सबसे स्वतंत्र थे? यदि मृत्युदंड ही बड़े अपराधों को रोकने के लिए सबसे उचित है तो ऐसे अपराध वहां सबसे कम होने चाहिए जहाँ इसे अपनाया और प्रयोग किया गया. किन्तु तथ्य एकदम विपरीत हैं. जापान को देखिये: वहां से ज्यादा मृत्युदंड और यातनाएं और कहीं नहीं दी जाती परन्तु वहां से अधिक संख्या में और वहां से अधिक जघन्य अपराध और कहीं नहीं होते. कोई कह सकता है कि जापानी लोग भीषणता में उन बर्बर कानूनों को चुनौती देना चाहते हैं जो उन्हें आहत और परेशान करते हैं. क्या यूनानी गणतन्त्रों -जहाँ सजाएँ नरम थी और जहां मृत्युदंड या तो बहुत कम थे या थे ही नहीं- में खूनी कानूनों द्वारा शासित देशों से ज्यादा अपराध और कम अच्छाइयां थी? क्या आपको लगता है की रोम में पोर्सियाई ज़माने में जब इसके वैभवशाली दिन थे, जब सारे कड़े कानूनों को हटा दिया गया था, स्काईला जो अपने अत्याचारों के लिए कुख्यात था, के जमाने की तुलना में ज्यादा अपराध होते थे, जब सभी कठोर कानूनों को वापस ले आया गया था? क्या रूस के निरंकुश शासक ने जब से मृत्युदंड को ख़त्म कर दिया है वहां किसी प्रकार का संकट आ खड़ा हुआ है? ऐसा लगता है कि इस तरह की मानवता और दार्शनिकता का प्रदर्शन करके वह लाखों लोगों को अपनी निरंकुश सत्ता के अधीन रखने के जुर्म से दोषमुक्त होना चाहते हैं.

न्याय और विवेक की बात सुनिए. ये आपको चिल्ला कर कह रहे हैं कि मानवीय निर्णय कभी भी इतने निश्चित नहीं होते कि वे कुछ मनुष्यों द्वारा जो कि गलतियाँ कर सकते हैं, किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु के बारे में तय करने के औचित्य का प्रतिपादन कर सकें. यदि आप सबसे सम्पूर्ण न्यायिक फैसले की भी कल्पना कर लें, यदि आप सबसे ज्यादा ज्ञानी और ईमानदार जजों की भी व्यवस्था कर लें तब भी गलतियों की संभावना बची रहती है. आप इन गलतियों को सुधारने के औजारों से स्वयं को क्यों वंचित कर देना चाहते हैं? स्वयं को किसी उत्पीडित निर्दोष की मदद करने में अक्षम क्यों बना देना चाहते हैं? क्या किसी अदृश्य छाया के लिए, किसी अचेतन राख के लिए आपके बाँझ पाश्चाताप का, आपकी भ्रामक भूलसुधार का कोई अर्थ है? वे आपके दंड विधान की बर्बर तत्परता के त्रासद साक्ष्य हैं. अपराध को पाश्चाताप और अच्छे कार्यों के द्वारा सुधार सकने की संभावना को किसी व्यक्ति से छीन लेना, अच्छाई की तरफ उसके लौट आने के सारे रास्ते निर्ममता से बंद कर देना, उसके पतन को शीघ्रता से कब्र तक पहुंचा देना जो अब भी उसके अपराध से दागदार है, मेरी नज़र में क्रूरता का सबसे भयावह परिष्करण है.

एक कानून निर्माता का सबसे पहला कर्तव्य उन सार्वजनिक नैतिक मूल्यों की स्थापना करना और उन्हें बचाए रखना है, जो सभी आज़ादियों और सभी सामाजिक खुशियों के मूल स्रोत हैं. किसी विशिष्ट उद्देश्य को पाने के प्रयास में यदि वह सामान्य और आवश्यक उद्देश्यों को भूल जाता है तो वह सबसे भौंडी और भयानक गलती करता है. अतः राजा को लोगों के सामने न्याय और विवेक का सबसे आदर्श उदहारण पेश करना चाहिए. यदि इस को परिभाषित करने वाली शक्तिशाली, संयत, और उदार सख्ती की जगह क्रोध और प्रतिशोध से काम लेते हैं, यदि वे बिना वजह के खून बहाते हैं, जिसको बचाया जा सकता था और जिसे बहाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं. और वे लोगों के सामने निर्मम दृश्य, और यातना से विकृत लाशों को प्रस्तुत करते हैं तो यह नागरिकों के जेहन में न्याय और अन्याय के विचार को बदल देता है. वे समाज में ऐसे तीखे दुराग्रहों के बीज बो देते हैं जो उतरोतर बढ़ते जाते हैं. मनुष्य, मनुष्य होने की गरिमा खो देता है जब उसके जीवन को इतनी आसानी से जोखिम में डाला जा सकता है. हत्या का विचार तब इतना डरावना नहीं रह जाता जब कानून खुद ही इसे एक मिसाल और तमाशे की तरह पेश करता है. अपराध की भयावहता तब कम हो जाती है जब उसे एक और अपराध के जरिये दण्डित किया जाता है. किसी दंड की प्रभावपूर्णता को उसकी कठोरता की मात्रा से मत आंकिये: ये दोनों एक दूसरे के एकदम उलटी बाते हैं. हर कोई उदार कानूनों की सहायता करता है. हर कोई कठोर कानूनों के खिलाफ षड्यंत्र करता है.

यह देखा गया है की स्वतंत्र देशों में अपराध कम हैं और दंडात्मक कानून ज्यादा उदार हैं. कुल मिलाकर, स्वतंत्र देश वे हैं जहाँ व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान किया जाता है और इसके फलस्वरूप जहाँ के कानून न्यायपूर्ण हैं. जहाँ अतिशय कष्ट देकर मानवता का उल्लंघन किया जाता है यह इस बात का प्रमाण है कि वहां मनुष्यता की गरिमा को अभी पहचाना नहीं गया है, यह इस बात का प्रमाण है कि वहां कानून निर्माता स्वामी है जो दासों को चलाता है और अपनी मर्जी के मुताबिक जब चाहे उन्हें सजाएं देता है. अतः मेरा निष्कर्ष है कि मृत्युदंड को समाप्त कर देना चाहिए.

अनुवाद: कुलदीप प्रकाश साभार

15 अक्तूबर 2014

महिषासुर दिवस के मायने

दिलीप ख़ान
(जब जेएनयू में पहली या दूसरी बार महिषासुर दिवस मनाया गया था तो उस वक़्त ये टिप्पणी लिखी थी। मेल से निकालकर यहां पेस्ट कर रहा हूं। इसे सवर्णों से लड़ने के तौर-तरीके की भीतरी आलोचना के तौर पर लिखा गया है।) 

दुनिया और भारत के प्राचीन इतिहास को पढ़ते हुए कोई भी इतिहास का विद्यार्थी कभी किसी दुर्गा नाम के चरित्र से नहीं टकराया। इतिहास के मुताबिक़ ऐसा कोई चरित्र मानव सभ्यता के विकासक्रम में था ही नहीं। अगर होता तो यह अरब या यूरोप-अमेरिका के देशों में रहने वाले वहां के निवासियों के लिए परिचित चरित्र होता। यानी एक ख़ास भूगोल में रहने वाले ख़ास धर्म के भीतर ख़ास तबके ने अपने धर्म की गाथा फैलाने के उद्देश्य से इस चरित्र को गढ़ा। अनेक चरित्र गढ़े गए, जिनमें दुर्गा भी एक हैं। दुर्गा की कहानी अकेले पूरी नहीं हो सकती, तो महिषासुर के अलावा और भी चरित्र बने। अब इस चरित्र को लेकर मोटे तौर पर तीन वर्ग बंटे हैं। पहला, जो दुर्गा की मौजूदा कहानी को मान्यता देता है और उसके साथ है। दूसरा, जो दुर्गा की कहानियों को नए सिरे से डीकोड करके उसमें खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किए गए पात्रों को मौजूदा दमित अस्मिता के साथ खड़ा करता है और दुर्गा को इस आधार पर चुनौती देता है। तीसरा, जो दुर्गा और महिषासुर को काल्पनिक चरित्र मानता है और इन दोनों को खारिज करता है। 

मिथक किसी भी समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। धार्मिक दायरे के भीतर चरित्र जैसे ही घुसता है तो उसके होने-ना होने या फिर कितना होने और कैसा होने के सवाल का आम तौर पर लोप हो जाता है। क्योंकि धर्म के मसले पर सवाल से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है कि आप उसमें वर्णित प्रसंगों को कितना फॉलो करते हैं। जितना यक़ीन, उतने धार्मिक। उतने मिथक के करीब और उतने मिथक बनाने वाले की राजनीति के भी। मिथकों में मौजूद चरित्रों की कहानियों या फिर उनकी प्रस्तुति पर जैसे ही शक शुरू होता है मिथकों का क़िला भी ढहने लगता है। नई व्याख्याओं के ज़रिए हो सकता है कि मिथक के मुख्य (हीरो या हीरोइननुमा) चरित्र की सादगी, राजनीति, सच्चाई और ईमानदारी पर सवाल उठे और मिथक के भीतर उनकी मौजूदगी का लुभावना पक्ष सवालों के घेरे में आ जाए। व्याख्याओं के ज़रिए ऐसा होता है, चाहे वो कहानियों की हो, चाहे फ़िल्मों की। इसलिए व्याख्या अच्छी चीज़ है। समाज जब गतिशील होता है तो व्याख्याओं की संभावना लगातार बनी रहती है। मिथक में खलनायक के तौर पर पेश किए गए चरित्र को बिल्कुल नए सिरे से नायक भी बनाया जा सकता है और नायक/नायिका को खलनायक वाले खांचे में पहुंचाया जा सकता है। 

ऐसा करने का सबको बराबर हक़ है। ठीक उसी तरह जैसे प्रेमचंद, निराला या फिर जयशंकर प्रसाद के पात्रों की व्याख्या होती है और नए अर्थ खुलते हैं। व्याख्या करने का हक़ नहीं छीना जा सकता। ये बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार है। अगर किसी को दुर्गा स्थापना करने का हक़ है तो किसी को महिषासुर स्थापना का भी। एक कर रहा है तो दूसरा भी करे। मौजूदा वर्चस्वशाली धार्मिक आख्यान को चुनौती देने के लिए व्याख्याओं के ज़रिए जो प्रति-नायक खड़ा करने की बात है, एक अर्थ में है तो वो ठीक, लेकिन जैसे ही व्याख्याओं से आगे जाकर पूरा मामला उसी तरह श्रद्धा में टिक जाता है, तब मिथकीय घटना दोनों तरफ़ से सच्चाई के तौर पर स्थापित हो जाती है। यानी पूरा मामला ऐसा हो जाता है कि घटना तो घटी थी, मसला सिर्फ़ व्याख्या का है। यानी एक दुर्गा थी, एक महिषासुर थे। अपने समूचे अस्तित्व में वो इतिहास के किसी कालखंड में किसी जगह पर जन्में थे। पता नहीं किस काल में, लेकिन जन्में थे। हड़प्पा के बाद या फिर मौर्य काल में या फिर हद से हद दिल्ली सल्तनत के दौरान।

जब भक्ति का जवाब भक्ति से दिया जाने लगे तो बदले की कार्रवाई जैसा कुछ तो हो सकता है लेकिन एक वैज्ञानिक तर्कशील समाज की रचना की दिशा में बढाया गया कदम नहीं हो सकता। फ़र्ज कीजिए कि कल को 60 करोड़ लोग दुर्गी के बदले महिषासुर को पूजने लगे, क्या फ़र्क पड़ जाएगा? क्या पूजने से राजनीतिक मानस बदल जाएगा? इस देश में पूजा, भक्ति और राजनीति के बीच के बहुस्तरीय संबंध को देखने के बाद इस स्थापना को मान पाना बहुत मुश्किल है। एक वैज्ञानिक समाज बनाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि श्रद्धा के ऐसे मामलों पर प्रमाण के लिए दबाव बनाया जाए। मसलन जैसे ही कोई बोले कि दुर्गा थी तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुर्गा का जन्म किस ईस्वी में हुआ। ठीक इसी तरह महिषासुर को अगर सच्चाई के रूप में पेश किया जा रहा है तो उनके जन्म और मृत्यु का साल बताया जाना चाहिए। 

दलित-ओबीसी के वास्तविक राजनीतिक संघर्ष को प्रतीकों के ज़रिए श्रद्धा के सवाल पर टांगना चिंताजनक है। ज़रूरी ये है कि मिथक की व्याख्या तो हो, लेकिन व्याख्या के दौरान ये पूरी तरह स्पष्ट हो जाए कि मिथक काल्पनिक चीज़ है। एक डिसक्लेमर हो- इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं।’ 

हिंदी की मुश्किलें कहां हैं

-दिलीप ख़ान

हिंदी दिवस और पखवाड़ा बीत चुका है। लिहाजा, हिंदी पर ‘बातचीत और चिंतन’ की इस सरकारी सक्रियता के बाद के वक़्त में इस पर बात करनी ज़रूरी लग रही है क्योंकि अब अगले सितंबर में ही इस भाषा की सुध लेने की कोशिश होगी। और, इस कोशिश के दरम्यान लाखों-करोड़ों रुपए ख़र्च कर चर्चा और जागरुकता अभियान जैसी कवायद के संकल्प के साथ इसे फिर अगले सितंबर में दोहराने को छोड़ दिया जाएगा। मैं इस बहस में नहीं पड़ रहा हूं कि हिंदी दिवस मनाए कि नहीं मनाए, कि दिवस अमूमन कमज़ोर चीज़ों का मनाया जाता है। मैत्रेयी पुष्पा ने 14 सितंबर को एक संगोष्ठी में इसी पसोपेश के साथ अपनी बातों की शुरुआत की थी। इशारा ये था कि सेठों, पुरुषों और अंग्रेज़ी का दिवस नहीं होता बल्कि इसकी बायनरी में खड़ी चीज़ों (मज़दूरों, स्त्रियों और हिंदी) का होता है। 

हिंदी की तमाम उत्सवधर्मिता और रुदाली के तमाम आख्यानों से निकलकर ठोस ज़मीनी हालात पर बहस करने की ज़रूरत अब भी शेष है। चंद सवाल ऐसे हैं, जिन पर दशकों से चर्चा हो रही हैं और ऐसा लग रहा है कि दशकों ये चर्चा के केंद्र में रहेंगे। इनमें हिंदी का भविष्य क्या है, हिंदी ज्ञान की भाषा क्यों नहीं बन पा रही, हिंदी को दोयम दर्ज़े का बरताव हासिल है, हिंदी बाज़ार और करियर की भाषा बन पा रही है या नहीं आदि प्रमुख हैं। लेकिन इनसे आगे का सवाल ये है कि हिंदी की बेहतरी के लिए क्या किया जाए और हिंदी के नाम पर चल रहे आंदोलनों, प्रदर्शनों और संवेदनात्मक धरातल पर इससे उपजीं खीझ-खिसियाहट की राजनीतिक दिशा क्या हो?
हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग या फिर कई दफ़ा राजभाषा और राष्ट्रभाषा में फर्क नहीं कर पाने की स्थिति में इसे सचमुच राष्ट्रभाषा के तौर पर रेलवे प्लेटफॉर्म सहित कई जगहों पर नीली-लाल स्याही से लिखने की रूमानियत से ना तो हिंदी की बेहतरी मुमकिन है और ना ही ये मज़बूत बनने वाली है। 

हिंदी क्यों राष्ट्रभाषा हो? क्या इसलिए कि ये देश में सबसे ज़्यादा लोगों द्वारा बोली-बरती जाती है? जब इतने लोग बोलते-बरतते हैं तो भाषा की उन्नति का आत्मविश्वास राष्ट्रभाषा जैसे जुमले में क्यों तलाशा जा रहा है? संख्या को आधार बनाए तो फिर समस्या का समाधान ही हो गया। फिर क्यों कम लोगों द्वारा बोले जाने वाली अंग्रेज़ी को आक्रामक भाषा के तौर पर हिंदी पट्टी और हिंदी को लेकर चिंतित लोग देख रहे हैं? जाहिर है कि अंग्रेज़ी को जिस तरह का सरकारी प्रश्रय मिला है और जिस तरह व्यवस्था में अंग्रेज़ी जानने वालों को सिर्फ़ इस आधार पर लाभ मिल रहा है कि वो अंग्रेज़ी में ख़ुद को संप्रेषित कर सकते हैं, वो चिंता का मूल मुद्दा है। यानी, भाषा के आधार पर किसी भी तरह के विभेद को ख़त्म करना हिंदी के भविष्य, चुनौतियों, बेहतरी आदि तमाम प्रश्नों के केंद्र में है।
मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित

इसलिए इस विभेद को ख़त्म करके ‘राष्ट्रभाषा’ हिंदी का प्रभुत्व स्थापित करना हिंदी वालों के लिए लाभदायक, खुशफ़हम लेकिन राजनीतिक तौर पर प्रतिगामी कदम होगा। जब हिंदी के लोग ये अपेक्षा करते हैं कि तमिल, तेलुगू या मणिपुरी जानने वाले लोगों को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए तो ये सवाल पलटकर भी पूछा जा सकता है कि कितने हिंदीभाषी अपनी सहूलियत को त्यागकर दूसरी भारतीय भाषा सीखने की कोशिश करते हैं? हिंदी को लेकर मोह अगर सिर्फ़ इसलिए है कि आप अंग्रेज़ी नहीं जानते और अंग्रेज़ी से मात खा रहे हैं तो इस मोह में भाषाई उन्नति की ईमानदार कोशिश कम और हिंदी में ही सीमित अपने ज्ञान को स्वीकार करवाने की मजबूरी ज़्यादा है।
हिंदी आंदोलन एक ख़ास भौगोलिक हितों की रक्षा के अंतर्निहित भाव का अगर आंदोलन बनता है तो निश्चित तौर पर आगे चलकर ये दूसरी अंग्रेज़ी बनकर रह जाएगी। लेकिन, हालात अभी इसके ठीक उलट हैं। अभी हिंदी और तमाम भारतीय भाषाओं के लोग ज्ञान की धरातल पर भाषा की दीवार को तोड़ने की कोशिश में हैं ताकि अंग्रेज़ी को सिर्फ़ अंग्रेज़ी होने का बेजा लाभ ना मिल सके। 

मसला ये है कि हिंदी की परवाह और चिंता करने वाले लोग कौन हैं? क्यों हिंदी भाषा पर बात करते समय हिंदी साहित्य को इसका पर्याय मान लिया जाता है? क्यों हिंदी के इतिहास की चर्चा में अमूमन साहित्य का ही ज़िक्र होता है? हिंदी की इस चिंतनपद्धति ने भाषा का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है। सिर्फ़ साहित्य की पीठ पर सवार होकर कोई भाषा टिकाऊ नहीं बनी रह सकती। साहित्य बदलाव, रसास्वादन, इंक़लाब और समय काटने का ज़रिया एक साथ बन सकता है और किसी भाषा को टिकाए भी रख सकता है लेकिन उसे समाज की मांगों के अनुरूप इज़्ज़त और रुतबा नहीं दिला सकता। ये इज़्ज़त और बराबरी तब मिलेगी जब ज्ञान के बाक़ी अनुशासनों में हिंदी को व्यावहारिक समानता हासिल हो। 

अगर सरकार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को माध्यम के बतौर प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ाती है तो क्या कारण है कि वही सरकार नौकरियों में अंग्रेज़ी को प्राथमिकता देती नज़र आती है? अगर सरकार को अंग्रेज़ी की ज़रूरत मालूम पड़ती है तो फिर सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी क्यों नहीं है? दरअसल ये व्यवस्था से जुड़ा बुनियादी सवाल है। ये एक साथ भाषा, वर्ग और गांव-शहर के बीच के फासलों से नत्थी सवाल है। लिहाजा ये सामाजिक न्याय का सवाल है। 

गांव में हिंदी माध्यम में पढ़ा कोई दलित-आदिवासी अगर उच्च शिक्षा के लिए देश के किसी अग्रणी विश्वविद्यालय में आरक्षण के अधिकार के बूते नामांकन पाता है, तो क्या कक्षा में अचानक दूसरी भाषा को माध्यम के बतौर अपनाने की हालत में वो सहजता हासिल कर सकेगा? हालांकि ये बात एक साथ आरक्षित-अनारक्षित किसी भी ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी लोगों पर लागू हो सकती है, लेकिन अलग-अलग सर्वेक्षणों के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ें हमें बताते हैं कि सबसे ज़्यादा संख्या में दलित और आदिवासी ही अभी अपनी पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं। 

हिंदी में उच्च शिक्षा नहीं होने के क्या कारण हैं? क्या हिंदी में शिक्षण सामग्री उपलब्ध नहीं है या फिर हिंदी में उच्च शिक्षा की शब्दावली विकसित नहीं हुई है? ये दो सवाल ऐसे हैं जिनका कोई आसान जवाब नहीं है और सबसे ज़्यादा इन्हीं मोर्चे पर काम करने की भी दरकार है। हिंदी में लोग पढ़ना नहीं चाहते, ये सवाल नितांत बेमानी है। सबसे ज़्यादा बिकने वाली हिंदी पत्रिकाओं की सूची पर नज़र दौड़ाइए तो इसमें प्रतियोगिता दर्पण शीर्ष पर हैं। यानी रोज़गार की सामग्री लेपेटे हिंदी अगर लोगों के बीच जा रही है तो लोग उसे अपना रहे हैं। जाहिर है जिस भाषा में रोज़गार नहीं मिलेगा उसमें बोल-चाल और हंसी-मज़ाक से ज़्यादा उन्नति वाले सिरे पर कोई व्यक्ति क्यों ज़ोर लगाएगा? सामाजिक विज्ञान से लेकर दूसरे अनुशासनों में हिंदी माध्यम की सामग्रियों में अल्प मात्रा में आए अनुवादों को छोड़ दें तो मूल लेखन कितने हुए हैं? 

सच मानिए तो इन विधाओं में हिंदी में जिस तरह रवां-दवां तरीके से लेखन हो रहे हैं उसमें बौद्धिक स्तर का अभाव, सिद्धांतों-अवधारणाओं का लोप और सतहीपन ज़्यादातर मौक़ों पर साफ़ झलकता है। पुरानी कुछ किताबों को छोड़ दीजिए तो हाल में हिंदी की कितनी श्रेष्ठ किताबें इन विधाओं में लिखी गई हैं? हिंदी की बेहतरी की दिशा में कोशिश करने की बजाए लेखक बनने की छटपटाहट और किताब लिखने से विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक बनने की दावेदारी के मज़बूत होने की कवायद ज़्यादा झलकती हैं। जो समाज वैज्ञानिक हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों जानते हैं और हिंदी में लिख सकने के बावजूद अंग्रेज़ी में लिखते हैं वो हिंदी में रॉयल्टी की मात्रा से परिचित हैं लिहाजा अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से ये उनका ये फ़ैसला बिल्कुल मुफ़ीद है। 

हिंदी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा उच्च शिक्षा और रोज़गार में इसके साथ बरते जाने वाला भेद-भाव है। वरना, हिंदी बाज़ार में फर्राटेदार दौड़ रही है। कटरीना कैफ़ सरीखी अभिनेत्री अगर पेशानियों पर ज़ोर डालकर हिंदी के संवाद याद करती हैं तो इसलिए कि बॉलीवुड में हिंदी को मथने से पैसा निकलता है। भारत (और पाकिस्तान भी) के बड़े हिस्से में पहुंच अंग्रेज़ी की बदौलत नहीं बनाई जा सकती। बॉलीवुड अपनी सुविधा, अपने मुनाफ़े के लिए हिंदी को पकड़े हुए है और इसमें कोई भी ऐसी क्रांतिकारी इच्छाशक्ति नहीं है कि वो हिंदी का प्रचार करे। फर्ज कीजिए कि किसी दिन अंग्रेज़ी ने हिंदी को अपदस्थ कर दिया, तो बॉलीवुड के लिए अंग्रेज़ी में स्विच करना बहुत देरी वाला काम नहीं होगा। हिंदी चिंतन और रोज़गार की भाषा जब तक नहीं बनेगी और जब तक एकाग्र होकर इस दिशा में ज़ोर नहीं लगाया जाता तब तक हिंदी के नाम पर तमाम चिंतन-मनन अधूरी और बेमानी रहेगा। 

इसे दुरुस्त करने के लिए दो प्रयासों के ज़िक्र को दोहराने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। पहला, सरकार उच्च शिक्षा में इसे बराबरी का दर्ज़ा दे और दूसरा हिंदी के लिए चिंता करने की बजाए इस भाषा को जानने-समझने वाले लोग इसमें ज्ञान का सृजन करें। यह सृजनात्मकता अगर स्थगित रही तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में हिंदी का कोई भी बेहतर लेखन पाठकों को ये भरोसा दिलाने में नाकामयाब रहेगा कि वो सचमुच मौलिक और बौद्धिक स्तर पर उच्च मानदंड पर खरा उतरने वाला लेखन है। क्योंकि, इस दौरान हिंदी में इतनी लद्धड़ क़िस्म की किताबें इसी रफ़्तार से छपनी जारी रही तो सचमुच हिंदी में इन अनुशासनों को पढ़ने से विश्वास ही उठ जाएगा। 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के दौरान जब पत्रकारिता के हिंदी माध्यमों की किताबों में नारद मुनि को आदि पत्रकार के मिसाल के बतौर हम पढ़ते थे तो हंसी, विस्मय, जुगुप्सा और अजीब सी उदासी हमें घेर लेती थी। हर साल इस तरह की किताबों में इजाफ़ा हो रहा है। लिहाजा, हिंदी को बाहर के साथ-साथ भीतरी चौहद्दी में भी लड़ने की ज़रूरत है। अगर ये लड़ाई नहीं लड़ी गई तो हिंदी में ज्ञान के नाम पर नकली चीज़ें परोसी जाती रहेंगी और दूसरी तरफ़ एक अच्छे सुबह रैपीडैक्स हिंदी को निगलकर डकार मारते हुए चलता बनेगा। 

11 सितंबर 2014

सरकारी विदेश दौरे और मीडिया

-दिलीप ख़ान


फोटो राज्य सभा टीवी से साभार
पिछले दिनों कुछ टेलीविज़न चैनलों पर एक साथ कई पत्रकारों ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की कि मौजूदा प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर पत्रकारों को साथ नहीं ले जा रहे। अलग-अलग मसलों पर शामिल स्टूडियो परिचर्चा में जो सूत्र इन पत्रकारों को जोड़ता है वो यही बात है। चिंता ये जताई गई कि इससे पत्रकारिता को नुकसान पहुंच रहा है और फर्स्ट हैंड ऑब्जर्वेशन के अभाव के चलते आधिकारिक बयानों का ही सहारा लेना पड़ रहा है। एक हद तक इस बात से सहमति जताई जा सकती है कि किसी इवेंट में पत्रकारों की मौजूदगी नहीं होने के चलते ख़बरों के संकलन पर इसका असर पड़ सकता है, लेकिन मीडिया उद्योग के लिए इस सवाल के सिरे को पलट कर देखना चाहिए।
क्या लगातार विस्तार पा रहा भारत का मीडिया उद्योग किसी इवेंट में शिरकत के लिए ख़ुद अपने बूते पत्रकार नहीं भेज सकता? क्या वजह है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री के साथ विदेश दौरे पर जाने के लिए मीडिया संस्थान उत्साही रवैया दिखाता है? क्या ये महज पत्रकारिता के लिए ख़बरों के संकलन तक सीमित मामला है या फिर इसके जरिए सैर-सपाटा, सत्ता के गलियारे में जान-पहचान और व्यावसायिक गुणा-गणित भी साधने की कोशिश होती है। इस बात को प्रमुखता से इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि इन दौरों पर कई मौक़ों पर सक्रिय पत्रकार के बदले मीडिया संस्थान के मालिक ख़ुद शामिल हो जाते हैं।

जापान में मोदी. फोटो- Salon.com से साभार
अगर चिंता पत्रकारिता संबंधी है तो फिर पूरे साल नफ़ा-नुकसान की गणना करने वाले मालिक के मन में अचानक रिपोर्टिंग की भावना कैसे पनप जाती है? दूसरी बात ये कि अगर चिंता सचमुच पत्रकारिता और ख़बरों के संकलन की है तो मीडिया संस्थानों को सत्ता गलियारे की रिपोर्टिंग के अलावा देश-विदेश के बाक़ी मुद्दों की खोज-बीन पर साल भर ध्यान देना चाहिए। लेकिन देश के कथित राष्ट्रीय टीवी चैनलों का कोई भी स्थायी रिपोर्टर पड़ोस के किसी भी देश में नहीं है और ना ही देश के सभी राज्यों में। रिपोर्टिंग के ख़र्च को जिस तरह कतरब्यौंत किया जा रहा है उससे वो पत्रकार भी सहमत दिखते हैं जो विदेश यात्रा पर पत्रकारों को नहीं ले जाने को लेकर चिंताभाव प्रकट कर रहे हैं।

पिछले 5-6 साल में भारत का मीडिया उद्योग लगभग दोगुना विस्तार पा चुका है। केपीएमजी और फ़िक्की के आंकड़ों के मुताबिक़ 2008 में मीडिया का कुल बाज़ार 58,000 करोड़ रुपए का था, जो 2013 में बढ़कर 91,800 करोड़ तक पहुंच गया। अनुमान है कि 2018 में यह बाज़ार 1,78,600 करोड़ तक पहुंच जाएगा। अगर बाज़ार इतना विस्तार पा रहा है तो पत्रकारिता के सिमटते दायरे का सवाल इस धंधे में लगे मालिकों के सामने उछाला जाना चाहिए। विश्व कप फुटबॉल कवर करने अगर कोई मीडिया संस्थान दो-तीन रिपोर्टर भेज सकता है तो इराक़-सीरिया कवर करने एक अदना रिपोर्टर क्यों नहीं भेज सकता? अगर विदेशों की रिपोर्टिंग प्रधानमंत्री दौरे के इंतज़ार में स्थगित रहती है तो ये मीडिया उद्योग में घटते पेशेवर रवैये पर सवाल है। दूसरी बात ये कि मीडिया संस्थान अगर अपने ख़र्च से पत्रकारों को इन दौरों की रिपोर्टिंग के लिए भेजते हैं तो उसकी वस्तुनिष्ठता कहीं अलहदा क़िस्म की होगी। लिहाजा सवाल करने और असंतोष प्रकट से पहले ये बेहद ज़रूरी है कि वो वाक़ई ईमानदार क़िस्म की हो और जिस उद्योग की तरफ़ से सवाल उठाए जा रहे हैं उसके भीतर भी सवाल उठे।
                   [राज्य सभा टीवी से साभार]

03 सितंबर 2014

मीडिया ओनरशिप के मसले और मौजूदा हालात

-    दिलीप ख़ान
ट्राई ने 12 अगस्त को मीडिया ओनरशिप पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट दी
जिस पर मीडिया में चर्चा नहीं हुई। फोटो- मिंट से साभार

भारत में मीडिया को लेकर हाल के वर्षों में जो चिंता जताई गई है उस पर मीडिया के बाहर और भीतर लगातार चर्चा हुई, लेकिन उसे दुरुस्त करने की दिशा में कदम ना के बराबर उठे। पिछले पांच-छह वर्षों में बड़े निगमों ने जिस स्तर पर मीडिया में निवेश किया है उसकी वजह से इसका चरित्र भी तेज़ी से बदला है। बिल्कुल नई क़िस्म की चुनौतियां इसके सामने खड़ी हुईं जो पहले या तो नहीं थीं, या फिर थीं भी तो सतह पर नहीं दिखती थीं। लेकिन इसके सूक्ष्म चारित्रिक बदलाव को अगर छोड़ भी दें तो तीन-चार ऐसे विचलन हैं जो असल में मीडिया की संरचना के साथ सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इनमें मीडिया के मालिकाने में आया बदलाव, निजी संधियां और पेड न्यूज़ सबसे अहम हैं। इन तीन समस्याओं के इर्द-गिर्द ही बाक़ी मुश्किलों की झोपड़ियां बसती हैं। इन तीनों के संबंध को भी अगर आपस में तलाशा जाए तो मीडिया ओनरशिप सबसे अहम चुनौती के तौर पर दिखता है। अब सवाल ये है कि जब मीडिया में इन बदलावों को साफ़ तौर पर चौतरफ़ा नोटिस किया जा रहा है तो इस पर लगाम कसने की कोई ठोस रणनीति क्यों नहीं बन पा रही? क्या सरकार और संसद की तरफ़ से कोताही बरती जा रही है या फिर मीडिया नाम के उद्योग की संरचना को लेकर ये पसोपेश कायम है कि इसे बाक़ी उद्योगों से अलग किस रूप में अलगाया जाए? ज़्यादा पीछे ना जाए तो पिछले 6 साल में संसद, सरकार और इसके अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं ने मीडिया को लेकर दर्ज़न भर से ज़्यादा रिपोर्ट्स जारी की हैं, पचासों टिप्पणियां की हैं और सैंकड़ों बार चिंता जताई हैं।
 
अभी हाल में 12 अगस्त को भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने मीडिया ओनरशिप पर अपनी सिफ़ारिश सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सौंप दी। इस मसले पर ट्राई का ये तीसरा अध्ययन है। सबसे पहले साल 2008 में मंत्रालय ने ट्राई को मीडिया ओनरशिप के पैटर्न का अध्यन करने के बाद सुझाव देने को कहा था। 25 फ़रवरी 2009 को प्राधिकरण ने मीडिया पर चंद लोगों के नियंत्रण से उपजे हालात और क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर अपने सुझाव सौंप दिए। इसमें ख़ास तौर पर क्रॉस मीडिया ओनरशिप के ख़तरों से मंत्रालय को अवगत कराया गया था और बताया गया था कि देश के भीतर इसके चलते ख़बरों और विचारों की बहुलता किस तरह प्रभावित हो रही है। साथ ही विदेशों में इस पर बने नियम-क़ायदों से भी मंत्रालय को अवगत कराया गया था। 16 मई 2012 को मंत्रालय ने ट्राई को अपने इन सुझावों का पुनर्वालोकन करने को कहा जिसमें कुछ तकनीकी मसलों पर विस्तार देने की बात अंतर्निहित थी।
 
मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित
मिसाल के लिए होरिजोंटल ओनरशिप और वर्टिकल ओनरशिप। होरिजोंटल क्रॉस मीडिया ओनरशिप का मतलब हैं एक ही समूह का प्रसारण के अलग-अलग माध्यमों पर कब्जा होना। यानी अख़बार, टीवी, रेडियो और पत्रिका अगर एक ही मालिक निकाल रहा हो तो ये होरिजोंटल ओनरशिप है। इसी तरह वर्टिकल ओनरशिप उसको कहेंगे जिसमें प्रसारण और वितरण के अलग-अलग व्यवसाय एक ही मालिक के कब्जे में हो। यानी अगर एक ही समूह का टीवी चैनल भी है और उसके वितरण के लिए डीटीएच और केबल प्रसारण भी तो ये वर्टिकल ओनरशिप है। इन दोनों मसलों की तहकीकात करते हुए 15 फ़रवरी 2013 को ट्राई ने मंत्रालय को एक परामर्श पत्र सौंपा जिसमें कुछ अंतिम टिप्पणियां की गईं थी। परामर्श पत्र सौंपने के बाद 22 अप्रैल से लेकर 29 अप्रैल 2013 तक प्राधिकरण ने मीडिया मालिकों के अलग-अलग पक्षों से पूरे मामले पर टिप्पणियां मांगी। 33 पक्ष में और 6 विपक्ष में आईं दलीलें थीं जो ट्राई की वेबसाइट पर चस्पां कर दी गईं। यही नहीं, इसके बाद देश के अलग-अलग पांच शहरों में खुली बहस भी कराई गईं। इसमें ट्राई के नज़रिए से अहमति जताते हुए जो तर्क आए उनमें सबसे प्रमुख ध्वनि ये थी कि भारत दुनिया के अन्य मुल्क़ों से कुछ महत्वपूर्ण अर्थों में भिन्न है। यहां पर जितनी भाषाओं में और जितनी तादादा में अख़बार और टीवी चैनल हैं उतने कहीं और मुमकिन नहीं, लिहाजा विचारों और ख़बरों की बहुलता यहां प्रभावित नहीं हो रही है। लेकिन ट्राई ने इस 12 अगस्त को जो अंतिम सिफ़ारिश सौंपी है उसमें ऐसे तमाम तर्कों के जवाब दिए गए हैं।
 
देश में अख़बारों, टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों की बड़ी तादाद के बावजूद ये महसूस किया गया है कि असर और प्रसार के मामले में सब बराबर नहीं हैं। प्राधिकरण ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया है। रिपोर्ट में दिल्ली से निकलने वाले अख़बारों के उदाहरण से बताया गया है कि भले ही यहां दर्जन भर से ज़्यादा अख़बार निकलते हो, लेकिन दो-तीन अख़बार यहां के बाज़ार पर वर्चस्व बनाए हुए है, इसलिए उसकी तुलना छोटे-मझोले अख़बारों से करना ख़बरों की विविधता के अर्थ में बेमानी है। विविधता के मसले और कॉरपोरेट ओनरशिप के साथ-साथ धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं तथा राजनीतिक ओनरशिप पर विस्तार से टिप्पणी की गई है। ये बात देश में अब शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यदि किसी ख़ास राजनीतिक पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के हाथ में मीडिया हो तो वो उसका इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने या फिर विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ प्रोपेगैंडा के लिए करता है। आंध्र प्रदेश में दो-तीन महीने पहले टीवी चैनलों और केबल प्रसारण पर राजनीतिक पार्टियों के बीच तकरार इतना तेज़ हो गया था कि तेलंगाना और आंध्र के कुछ इलाकों में हिंसक झड़पों के साथ-साथ ये मसला संसद में भी उठा। राजनीतिक मालिकाने को आम तौर पर दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के साथ लोग जोड़कर देखते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ये अख़िल भारतीय चलन के तौर पर उभरा है।
रिलायंस का 'इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट' क्रॉस मीडिया ओनरशिप
की बड़ी मिसाल है। फोटो- इंडिया टुडे से साभार
 
पार्टी मुखपत्र को लोग उसी राजनीतिक दायरे और पार्टी लाइन का मानते हुए पढ़ते हैं, लिहाजा मुखपत्र में छपी बातों पर वो अपने तर्कों के ज़रिए राजनीतिक विभेद ढूंढ लेते हैं, लेकिन सामान्य समाचार मीडिया ने जो अपनी साख स्थापित की है, उसमें सेंधमारी के ज़रिए अगर कोई राजनेता ख़बरों को मरोड़ता है तो एक दर्शक/पाठक के लिए उसको नकार पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन ये सब ना सिर्फ़ जारी है, बल्कि इसे लगातार विस्तार दिया जा रहा है। ट्राई की सिफ़ारिश में इसको तत्काल प्रभाव से बंद करने की बात कही गई है और बताया गया है कि अगर पहले से कोई ऐसा मीडिया चालू हालात में है तो उसे बंद करने के रास्ते निकाले जाए।
 
रिपोर्ट में होरिजोंटल और वर्टिकल क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर भी एक हद तक पाबंदी की बात कही गई है। इसमें दो-तीन फॉर्मूलों के जरिए नियंत्रण की बात कही गई है और सुझाया गया है कि अगर प्रसारण और वितरण दोनों में किसी समूह का 32 प्रतिशत से ज़्यादा शेयर है तो किसी एक में उसे घटाकर 20 प्रतिशत के स्तर तक लाना होगा। इसी तरह अगर एक से अधिक मीडिया में उसका निवेश है तो उसे ‘प्रासंगिक बाज़ार में उसके असर’ को देखते हुए कतरा जाना चाहिए। प्रासंगिक बाज़ार की परिभाषा इस तरह की है कि अगर कोई मीडिया तेलुगू माध्यम का है तो ग़ैर-तेलुगू लोगों के लिए उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वो मीडिया ग़ैर-तेलुगू भाषी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। इसलिए भाषावार और क्षेत्रवार ऐसे प्रासंगिक बाज़ार तलाशे गए हैं। इसमें हिंदी बाज़ार के दायरे में 10 राज्यों को रखा गया है। लेकिन मुश्किल ये है कि प्राधिकरण की इस सिफ़ारिश से छोटे बाज़ार में सक्रिय मीडिया उद्यमियों पर तो लगाम लग जाएगा, लेकिन जो बड़े समूह है और जिनका एक साथ हिंदी, अंग्रेज़ी से लेकर दो-तीन भाषाओं के बाज़ार में दख़ल है उसके लिए मुश्किल उतनी बड़ी नहीं होगी क्योंकि उनके लिए हर बाज़ार में अलग-अलग हिस्सा तय होगा। 
 
मीडिया में जिस तरह गुपचुप तरीके से निवेश का चलन बढ़ा है उससे कई दफ़ा असली मालिक का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इसको देखते हुए भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने रिलायंस के मीडिया समूह इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट का उदाहरण देते हुए दो साल पहले ये कहा था कि मीडिया उद्योग में ‘नियंत्रण’ को भी ओनरशिप की तरह देखा जाना चाहिए। अगर अध्ययनों का ही ज़िक्र किया जाए तो भारतीय प्रेस परिषद की 2009 में आई पेड न्यूज़ की रिपोर्ट के बाद संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल इसी मसले पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट सौंपी। विधि आयोग ने मई 2014 में इस पर एक परामर्श पत्र दिया। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया ने अपने अध्ययन के ज़रिए इस पर रोशनी डाली। भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने इस चलन पर नए क़िस्म के तौर-तरीके अपनाने की वकालत की।
 
एक ही मालिक के हाथ में सारे मीडिया होने के चलते
विचारों की बहुलता ख़त्म हो रही
लेकिन इन तमाम अध्ययनों के बावजूद कोई ठोस रूप-रेखा अब तक तैयार नहीं हो पाई। ट्राई ने जो हाल में सूचना प्रसारण मंत्रालय को अपनी सिफ़ारिशें सौंपी है, उसके बाद दो तथ्यों को देखते हुए उम्मीद जगती है। पहला, जब पहली दफ़ा मीडिया ओनरशिप पर ट्राई  ने 2008 में सुझाव दिए थे तो उस वक़्त इसके अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्रा थे, जो अब मोदी सरकार में प्रमुख सचिव हैं। दूसरा, संसद की स्थाई समिति ने पिछले साल जो पेड न्यूज़ पर रिपोर्ट दी थी उसके तत्कालीन अध्यक्ष राव इंद्रजीत सिंह अब कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और अब सत्ताधारी पार्टी के हिस्सा हैं। लेकिन मीडिया पर किसी भी तरह की कार्यवाही ना करने के पिछले कई साल के रिकॉर्ड को देखते हुए यही लग रहा है कि ये सरकार भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने का काम आगे के लिए टाल देगी। टीवी में आत्म नियमन के तमाम निकाय बुरी तरह असफ़ल रहे हैं और प्रिंट के लिए भारतीय प्रेस परिषद कितना कारगर है ये मीडिया से जुड़ा हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है। ट्राई ने अपनी सिफ़ारिश अब सरकार को सौंप दी है। गेंद अब सरकार के पाले में है। लिहाजा देखना दिलचस्प होगा कि क्या उस गेंद पर शॉट भी लगाए जाते हैं या फिर पाले में आई हुई गेंद रखे-रखे पुरानी हो जाएगी।
 
                                


26 जून 2014

बसपा का शीराजा क्यों बिखरा: आनंद तेलतुंबड़े

आनंद तेलतुंबड़े ने अपने इस लेख में बसपा की पराजय का आकलन करते हुए एक तरफ मौजूदा व्यवस्था के जनविरोधी चेहरे और दूसरी तरफ उत्पीड़ित जनता के लिए पहचान की राजनीति के खतरों के बारे में बात की है. अनुवाद: रेयाज उल हक

पिछले आम चुनाव हैरानी से भरे हुए रहे, हालांकि पहले से यह अंदाजा लगाया गया था कि कांग्रेस के नतृत्व वाला संप्रग हारेगा और भाजपा के नेतृत्व वाला राजग सत्ता में आने वाला है. वैसे तो चुनावों से पहले और बाद के सभी सर्वेक्षणों ने भी इसी से मिलते जुलते राष्ट्रीय मिजाज की पुष्टि की थी, तब भी नतीजे आने के पहले तक भाजपा द्वारा इतने आराम से 272 का जादुई आंकड़ा पार करने और संप्रग की सीटें 300 के पार चली जाने की अपेक्षा बहुत कम लोगों ने ही की होगी. खैर, भाजपा ने 282 सीटें हासिल कीं और संप्रग को 336 सीटें. महाराष्ट्र में शरद पवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार जैसे अनेक क्षेत्रीय क्षत्रप मुंह के बल गिरे. लेकिन अब तक चुनाव नतीजों का सबसे बड़ा धक्का यह रहा कि बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश की अपनी जमीन पर ही पूरी तरह सफाया हो गया. लोग तो यह कल्पना कर रहे थे, और बसपा के नेता इस पर यकीन भी कर रहे थे, कि अगर संप्रग 272 सीटें हासिल करने नाकाम रहा तो इसके नतीजे में पैदा होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल में मायावती हैरानी में डालते हुए देश की प्रधानमंत्री तक बन सकती हैं. इस कल्पना को मद्देनजर रखें तो बसपा का सफाया स्तब्ध कर देने वाला है. आखिर हुआ क्या?

नतीजे आने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने दावा किया कि दलितों और निचली जातियों में उनका जनाधार बरकरार है और चुनावों में खराब प्रदर्शन की वजह भाजपा द्वारा किया गया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है. उन्होंने कहा कि जबकि ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों को भाजपा ने अपनी तरफ खींच लिया और मुसलमान समाजवादी पार्टी की वजह से बिखर गए. बहरहाल उन्होंने इसके बारे में कोई व्याख्या नहीं दी कि ये चुनावी खेल अनुचित कैसे थे. मतों के प्रतिशत के लिहाज से यह सच है कि बसपा उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 2.29 करोड़ वोट मिले जो कुल मतों का 4.1 फीसदी है. 31.0 फीसदी मतों के साथ भाजपा और 19.3 फीसदी मतों के साथ इससे आगे हैं और 3.8 फीसदी मतों के साथ सापेक्षिक रूप से एक नई पार्टी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस इससे पीछे है. 15वीं लोकसभा में बसपा की 21 सीटें थीं जिनमें से 20 अकेले उत्तर प्रदेश से थीं. बसपा से कम मत प्रतिशत वाली अनेक पार्टियों ने इससे कहीं ज्यादा सीटें जीती हैं. मिसाल के लिए तृणमूल कांग्रेस को मिले 3.8 फीसदी मतों ने उसे 34 सीटें दिलाई हैं और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को इससे भी कम 3.3 फीसदी मतों पर तृणमूल से भी ज्यादा, 37 सीटें मिली हैं. यहां तक कि आम आदमी पार्टी (आप) महज 2.0 फीसदी मतों के साथ चार सीटें जीतने में कामयाब रही. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी मत मिले हैं जो भाजपा के 42.3 फीसदी और सपा के 22.2 फीसदी के बाद तीसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. इसमें भी एक खास बात है: चुनाव आयोग के आंकड़े दिखाते हैं कि बसपा इस विशाल राज्य की 80 सीटों में 33 पर दूसरे स्थान पर रही.

लेकिन देश में तीसरी सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी का संसद में कोई वजूद नहीं होने की सबसे बड़ी वजह हमारी चुनावी व्यवस्था है, जिसके बारे में बसपा कभी भी कोई शिकायत नहीं करेगी. सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाली यह चुनावी व्यवस्था (एफपीटीपी) हमें हमेशा ही हैरान करती रही है, इस बार इसने कुछ ज्यादा ही हैरान किया. भाजपा कुल डाले गए वोटों में से महज 31.0 फीसदी के साथ कुल सीटों का 52 फीसदी यानी 282 सीटें जीत सकी. चुनाव आयोग के आंकड़े के मुताबिक कुल 66.36 फीसदी वोट डाले गए, इसका मतलब है कि भाजपा को जितने वोट मिले उनमें कुल मतदाताओं के महज पांचवें हिस्से (20.5 फीसदी) ने भाजपा को वोट दिया. इसके बावजूद भाजपा का आधी से ज्यादा सीटों पर कब्जा है. इसके उलट, हालांकि बसपा तीसरे स्थान पर आई लेकिन उसके पास एक भी सीट नहीं है. जैसा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं, एफपीटीपी को चुनने के पीछे हमारे देश के शासक वर्ग की बहुत सोची समझी साजिश रही है. तबके ब्रिटिश साम्राज्य के ज्यादातर उपनिवेशों ने इसी चुनाव व्यवस्था को अपनाया. लेकिन एक ऐसे देश में जो निराशाजनक तरीके से जातियों, समुदायों, नस्लों, भाषाओं, इलाकों और धर्मों वगैरह में ऊपर से नीचे तक ऊंच-नीच के क्रम के साथ बंटा हुआ है, राजनीति में दबदबे को किसी दूसरी चुनावी पद्धति के जरिए यकीनी नहीं बनाया जा सकता था. एफपीटीपी हमेशा इस दबदबे को बनाए रखने में धांधली की गुंजाइश लेकर आती है. इस बात के व्यावहारिक नतीजे के रूप में राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस या भाजपा का दबदबा इसका सबूत है. अगर मिसाल के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व (पीआर) व्यवस्था अपनाई गई होती, जो प्रातिनिधिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं द्वारा चुनावों के लिए अपनाई गई अधिक लोकप्रिय और अधिक कारगर व्यवस्था है, तो सभी छोटे समूहों को अपना ‘स्वतंत्र’ प्रतिनिधित्व मिला होता जो इस दबदबे के लिए हमेशा एक खतरा बना रहता. दलितों के संदर्भ में, इसने आरक्षण कहे जाने वाले सामाजिक न्याय के बहुप्रशंसित औजार की जरूरत को भी खत्म कर दिया होता, जिसने सिर्फ उनके अस्तित्व के अपमानजनक मुहावरे का ही काम किया है. कोई भी दलित पार्टी एफपीटीपी व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठाएगी. बसपा तो और भी नहीं. क्योंकि यह उन सबके नेताओं को अपने फायदे के लिए धांधली करने में उसी तरह सक्षम बनाती है, जैसा यह शासक वर्गीय पार्टियों को बनाती आई है.

दूसरी वजह पहचान की राजनीति का संकट है, जिसने इस बार पहचान की राजनीति करने वाली बसपा से इसकी एक भारी कीमत वसूली है. बसपा की पूरी कामयाबी उत्तर प्रदेश में दलितों की अनोखी जनसांख्यिकीय उपस्थिति पर निर्भर रही है, जिसमें एक अकेली दलित जाति जाटव-चमार कुल दलित आबादी का 57 फीसदी है. इसके बाद पासी दलित जाति का नंबर आता है, जिसकी आबादी 16 फीसदी है. यह दूसरे राज्यों के उलट है, जहां पहली दो या तीन दलित जातियों की आबादी के बीच इतना भारी फर्क नहीं होता है. इससे वे प्रतिद्वंद्वी बन जाते हैं, जिनमें से एक आंबेडकर के साथ खुद को जोड़ता है तो दूसरा जगजीवन राम या किसी और के साथ. लेकिन उत्तर प्रदेश में जाटवों और पासियों के बीच में इतने बड़े फर्क के साथ इस तरह की कोई प्रतिद्वंद्विता नहीं है और वे एक साझे जातीय हित के साथ राजनीतिक रूप से एकजुट हो सकते हैं. इसके बाद की तीन दलित जातियों – धोबी, कोरी और वाल्मीकि – को भी उनके साथ मिला दें तो वे कुल दलित आबादी का 87.5 फीसदी बनते हैं, जो राज्य की कुल आबादी की 18.9 फीसदी आबादी है. कुल मतदाताओं में भी इन पांचों जातियों का मिला जुला प्रतिशत भी इसी के आसपास होगा. यह बसपा का मुख्य जनाधार है. इन चुनावी नतीजों में कुल वोटों में बसपा का 19.6 फीसदी वोट हासिल करना दिखाता है कि बसपा का मुख्य जनाधार कमोबेश बरकरार रहा होगा.

दूसरे राज्यों के दलितों के उलट जाटव-चमार बाबासाहेब आंबेडकर के दिनों से ही आर्थिक रूप से अच्छे और राजनीतिक रूप से अधिक संगठित रहे हैं. 1957 में आरपीआई के गठन के बाद, आरपीआई के पास महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश में सबसे मजबूत इलाके रहे हैं, कई बार तो महाराष्ट्र से भी ज्यादा. यह स्थिति आरपीआई के टूटने तक रही. महाराष्ट्र में आरपीआई के नेताओं की गलत कारगुजारियों के नक्शेकदम पर चलते हुए उत्तर प्रदेश में आरपीआई के दिग्गजों बुद्ध प्रिय मौर्य और संघ प्रिय गौतम भी क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ गए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में कदम रखे तो एक दशक या उससे भी अधिक समय से वहां नेतृत्व का अभाव था. उनकी रणनीतिक सूझ बूझ ने उनकी बहुजन राजनीति की संभावनाओं को फौरन भांप लिया. उन्होंने और मायावती ने दलितों को फिर से एकजुट करने और पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबकों को आकर्षित करने के लिए भारी मेहनत की. जब वे असल में अपनी इस रणनीति की कामयाबी को दिखा पाए, तो उन्होंने पहले से अच्छी तरह स्थापित दलों को एक कड़ी टक्कर दी और उसके बाद सीटें जीतने में कामयाब रहे. इससे राजनीतिक रूप से अब तक किनारे पर रहे सामाजिक समूह भी बसपा के जुलूस में शामिल हो गए. मायावती ने यहां से शुरुआत की और उस खेल को उन्होंने समझदारी के साथ खेला, जो उनके अनुभवी सलाहकार ने उन्हें सिखाया था. जब वे भाजपा के समर्थन के साथ मुख्यमंत्री बनीं, तो इससे बसपा और अधिक मजबूत हुई. ताकत के इस रुतबे पर मायावतीं अपने फायदे के लिए दूसरे राजनीतिक दलों के साथ बातचीत करने लगीं.

कुछ समझदार दलित बुद्धिजीवियों ने इस पर अफसोस जाहिर किया है कि बसपा ने दलितों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया है. लेकिन इस मामले की असल बात यह है कि इस खेल का तर्क बसपा को ऐसा करने की इजाजत नहीं देता है. जैसे कि शासक वर्गीय दलों के लिए यह बेहद जरूरी है कि वे जनसमुदाय को पिछड़ेपन और गरीबी में बनाए रखें, मायावती ने यही तरीका अख्तियार करते हुए उत्तर प्रदेश में दलितों को असुरक्षित स्थिति में बनाए रखा. वे भव्य स्मारक बना सकती थीं, दलित नायकों की प्रतिमाएं लगवा सकती थीं, चीजों के नाम उन नायकों के नाम पर रख सकती थीं और दलितों में अपनी पहचान पर गर्व करने का जहर भर सकती थीं लेकिन वे उनकी भौतिक हालत को बेहतर नहीं बना सकती थीं वरना ऐसे कदम से पैदा होने वाले अंतर्विरोध जाति की सोची-समझी बुनियाद को तहस नहस कर सकते थे. स्मारक वगैरह बसपा की जीत में योगदान करते रहे औऱ इस तरह उनकी घटक जातियों तथा समुदायों द्वारा हिचक के साथ वे कबूल कर लिए गए. लेकिन भेद पैदा करने वाला भौतिक लाभ समाज में ऐसी न पाटी जा सकने वाली खाई पैदा करता, जिसे राजनीतिक रूप से काबू में नहीं किया सकता. इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि एक दलित या गरीब परस्त एजेंडा नहीं बनाया जा सकता था. राजनीतिक सीमाओं के बावजूद वे दिखा सकती थीं कि एक ‘दलित की बेटी’ गरीब जनता के लिए क्या कर सकती है. लेकिन उन्होंने न केवल अवसरों को गंवाया बल्कि उन्होंने लोगों के भरोसे और समर्थन का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया.

बाद में उनकी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षाएं उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गईं, जिसमें उन्होंने अपना रुख पलटते दिया और उनमें दलितों के लिए जो भी थोड़ा बहुत सरोकार बचा था, उसे और खत्म कर दिया. तब अनेक विश्लेषकों ने यह अंदाजा लगाया था कि दलित मतदाता बसपा से अलग हो जाएंगे, लेकिन दलित उन्हें हैरानी में डालते हुए मायावती के साथ पहले के मुकाबले अधिक मजबूती से खड़े हुए और उन्हें 2007 की अभूतपूर्व सफलता दिलाई. इसने केवल दलितों की असुरक्षा को ही उजागर किया. वे बसपा से दूर नहीं जा सकते, भले ही इसकी मुखिया चाहे जो कहें या करें, क्योंकि उन्हें डर था कि बसपा के सुरक्षात्मक कवच के बगैर उन्हें गांवों में सपा समर्थकों के हमले का सामना करना पड़ेगा. अगर मायावती इस पर गर्व करती हैं कि उनके दलित मतदाता अभी भी उनके प्रति आस्थावान हैं तो इसका श्रेय मायावती को ही जाता है कि उन्हें दलितों को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वे इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं अपना सकते. निश्चित रूप से इस बार भाजपा ने कुछ दलित जातियों को लुभाया है और वे संभवत: गोंड, धानुक, खटिक, रावत, बहेलिया, खरवार, कोल आदि हाशिए की जातियां होंगी जो दलित आबादी का 9.5 फीसदी हिस्सा हैं. मुसलमान भी ऐसे ही एक और असुरक्षित समुदाय हैं जिन्हें हमेशा अपने बचाव कवच के बारे में सोचना पड़ता है. इस बार बढ़ रही मोदी लहर और घटती हुई बसपा की संभावनाओं को देखते हुए वे सपा के इर्द-गिर्द जमा हुए थे उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा. 2007 के चुनावों में उत्तर प्रदेश की सियासी दुनिया में फिर से दावेदारी जताने को बेकरार ब्राह्मणों समेत ये सभी जातियां बसपा की पीठ पर सवार हुईं और उन्होंने बसपा को एक भारी जीत दिलाई थी, लेकिन बसपा उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी. तब वे उससे दूर जाने लगे जिसका नतीजा दो बरसों के भीतर, 2009 के आम चुनावों में दिखा जब बसपा की कुल वोटों में हिस्सेदारी 2007 के 30.46 फीसदी से गिरकर 2009 में 27.42 फीसदी रह गई. इस तरह 3.02 फीसदी वोटों का उसे नुकसान उठाना पड़ा. तीन बरसों में यह नुकसान 1.52 फीसदी और बढ़ा और 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की हिस्सेदारी गिरकर 25.90 पर आ गई. और अब 2014 में यह 19.60 फीसदी रह गई है जो कि 6.30 फीसदी की गिरावट है. यह साफ साफ दिखाता है कि दूसरी जातियां और अल्पसंख्यक तेजी से बसपा का साथ छोड़ रहे हैं और यह आने वाले दिनों की सूचना दे रहा है जब धीरे धीरे दलित भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलेंगे. असल में मायावती की आंखें इसी बात से खुल जानी चाहिए कि उनका राष्ट्रीय वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर इस बार सिर्फ 4.1 फीसदी रह गया है.

जबकि जाटव-चमार वोट उनके साथ बने हुए दिख रहे हैं, तो यह सवाल पैदा होता है कि वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे. मायावती उनकी असुरक्षा को बेधड़क इस्तेमाल कर रही हैं. न केवल वे बसपा के टिकट ऊंची बोली लगाने वालों को बेचती रही हैं, बल्कि उन्होंने एक ऐसा अहंकार भी विकसित कर लिया है कि वे दलित वोटों को किसी को भी हस्तांतरित कर सकती हैं. उन्होंने आंबेडकरी आंदोलन की विरासत को छोड़ कर 2002 के बाद के चुनावों में मोदी के लिए प्रचार किया जब पूरी दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी. उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए. लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं. लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं. उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया. उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं. मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है. उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है. यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं.

जातीय राजनीति की कामयाबी ने बसपा को इस कदर अंधा कर दिया था कि वह समाज में हो रहे भारी बदलावों को महसूस नहीं कर पाई. नई पीढ़ी उस संकट की आग को महसूस कर ही है जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके लिए पैदा की हैं. देश में बिना रोजगार पैदा किए वृद्धि हो रही है, और सेवा क्षेत्र में जो भी थोड़े बहुत रोजगार पैदा हो रहा है उन्हें बहुत कम वेतन वाले अनौपचारिक क्षेत्र में धकेल दिया जा रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्रों के सिकुड़ने से आरक्षण दिनों दिन अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. दूसरी तरफ सूचनाओं में तेजी से हो रहे इजाफे के कारण नई पीढ़ी की उम्मीदें बढ़ती जा रही हैं. उन्हें जातिगत भेदभाव की वैसी आग नहीं झेलनी पड़ी है जैसी उनके मां-बाप ने झेली थी. इसलिए वे ऊंची जातियों के बारे में पेश की जाने वाली बुरी छवि को अपने अनुभवों के साथ जोड़ पाने में नाकाम रहते हैं. उनमें से अनेक बिना दिक्कत के ऊंची जातियों के अपने दोस्तों के साथ घुलमिल रहे हैं. हालांकि वे अपने समाज से रिश्ता नहीं तोड़ेंगे लेकिन जब कोई विकास के बारे में बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ खींचेगा. और यह खिंचाव पहचान संबंधी उन बातों से कहीं ज्यादा असरदार होगा जिसे वे सुनते आए हैं. दलित नौजवान उदारवादी संस्कृति से बचे नहीं रह सकते हैं, बल्कि उन्हें व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद, उपयोगवाद वगैरह उन पर असर डाल रहे हैं, इनकी गति हो सकता है कि धीमी हो. यहां तक कि गांवों में भीतर ही भीतर आए बदलावों ने निर्वाचन क्षेत्रों की जटिलता को बदल दिया है, जिसे हालिया अभियानों में भाजपा ने बड़ी महारत से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी शैली की जातीय और सामुदायिक लफ्फाजी में फंसे रहे. बसपा का उत्तर प्रदेश के नौजवान दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाना साफ साफ दिखाता है कि दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे में से केवल 9 लाख ने ही बसपा को वोट दिया.

भाजपा और आरएसएस ने मिल कर दलित और पिछड़ी जातियों के वोटों को हथियाने की जो आक्रामक रणनीति अपनाई, उसका असर भी बसपा के प्रदर्शन पर दिखा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के अभियान के संयोजक अमित शाह ने आरएसएस के कैडरों के साथ मिल कर विभिन्न जातीय नेताओं और संघों के साथ व्यापक बातचीत की कवायद की. शाह ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमले का इस्तेमाल पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में लुभाने के लिए किया. उसने मोदी की जाति का इस्तेमाल ओबीसी वोटों को उत्साहित करने के लिए किया कि उनमें से ही एक इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. इस रणनीति ने उन इलाकों की पिछड़ी जातियों में सपा की अपील को कमजोर किया, जो सपा का गढ़ मानी जाती थीं. इस रणनीति का एक हिस्सा बसपा के दलित आधार में से गैर-जाटव जातियों को अलग करना भी था. भाजपा ने जिस तरह से विकास पर जोर दिया और अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के तहत बसपा की मौकापरस्त जातीय राजनीति को उजागर किया, उसने भी बसपा की हार में एक असरदार भूमिका अदा की. लेकिन किसी भी चीज से ज्यादा, बसपा की अपनी कारगुजारियां ही इसकी बदतरी की जिम्मेदार हैं. यह उम्मीद की जा सकती है कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए बसपा आत्मविश्लेषण करेगी और खुद में सुधार करेगी.

11 जून 2014

खेल शुरू हो चुका है: आनंद तेलतुंबड़े


गरीबों-उत्पीड़ितों की हिमायत के ऐलान के साथ मोदी सरकार के बनते ही भगाणा के आंदोलनकारी दलित परिवारों को जंतर मंतर से बेदखल करने की कोशिशों और पुणे में एक मुस्लिम नौजवान की हत्या में आनंद तेलतुंबड़े ने आने वाले दिनों के संकेतों को पढ़ने की कोशिश की है. अनुवाद: रेयाज उल हक.

अब इस आधार पर कि लोगों ने भाजपा की अपनी उम्मीदों से भी ज्यादा वोट उसे दिया है और नरेंद्र मोदी ने ‘अधिकतम प्रशासन’ की शुरुआत कर दी है, बहुत सारे लोग यह सोच रहे थे कि हिंदुत्व के पुराने खेल की जरूरत नहीं पड़ेगी. अपने हाव-भाव और भाषणों के जरिए मोदी ने बड़ी कुशलता से ऐसा भ्रम बनाए भी रखा है. इसके नतीजे में मोदी के सबसे कट्टर आलोचक तक गलतफहमी के शिकार हो गए हैं. यहां तक कि जिन लोगों ने भाजपा को वोट नहीं दिया है, उनमें से भी कइयों को ऐसा लगने लगा है कि मोदी शायद कारगर साबित हों. लेकिन संसद के केंद्रीय कक्ष में, भावनाओं में लिपटी हुई लफ्फाजी से भरे ऐलान के आधार पर यह यकीन करना बहुत जल्दबाजी होगी कि मोदी सरकार गरीबों और उत्पीड़ितों के प्रति समर्पित होगी. तब भी कइयों को लगता है कि चूंकि वे एक साधारण पिछड़ी जाति के परिवार से आते हैं और पूरी आजादी से काम करते हैं, इसलिए हो सकता है कि गरीबों और उत्पीड़ितों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हों. नहीं भी तो वे मुसलमानों (जिन्होंने मोदी को वोट नहीं दिया है) और दलितों (जिन्होंने भारी तादाद में उन्हें वोट दिया है) के प्रति संवेदनशील होंगे. यही वे दो मुख्य समुदाय हैं जिनसे मिल कर वह गरीब और उत्पीड़ित तबका बनता है, जिसके प्रति मोदी समर्पित होने की बात कह रहे हैं. 

लेकिन इस हफ्ते हुई दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने इन उम्मीदों को झूठा साबित कर दिया. दलितों के बलात्कारों और हत्याओं की लहर तो चल ही रही थी, उनके साथ साथ घटी इन दो घटनाओं ने ऐसे संकेत दिए हैं कि शायद पुराना खेल शुरू हो चुका है.

दलितों की नामुराद मांगें

भगाणा की भयानक घटना देश को शर्मिंदा करने के लिए काफी थी: घटना ये है कि हरियाणा में 23 मार्च को 13 से 18 साल की चार लड़कियों को नशा देकर रात भर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के ये अपराधी उन्हें ले जाकर भटिंडा रेलवे स्टेशन के पास झाड़ियों में फेंक आए. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह कहीं अधिक घिनौना और शर्मनाक है. लड़कियों को मेडिकल जांच के दौरान अपमानजनक टू फिंगर टेस्ट से गुजरना पड़ा, जिसका बलात्कार के मामले में इस्तेमाल करने पर आधिकारिक पाबंदी लगाई जा चुकी है. हालांकि पुलिस को दलित समुदाय के दबाव के चलते शिकायत दर्ज करनी पड़ी, लेकिन उसने अपराधियों को पकड़ने में पांच हफ्ते लगाए. जबकि हिसार अदालत में उनको रिहा कराने की न्यायिक प्रक्रिया फौरन शुरू हो गई. और यह गिरफ्तारी भी तब हुई जब भगाणा के दलितों को उन लड़कियों के परिजनों के साथ इंसाफ के लिए धरने पर बैठना पड़ा. ये दलित परिवार अपने गांव वापस लौटने में डर रहे हैं क्योंकि उन्हें जाटों के हमले की आशंका है. भगाणा के करीब 90 दलित परिवार, जिनमें बलात्कार की शिकायतकर्ता लड़कियों के परिवार भी शामिल हैं, दिल्ली के जंतर मंतर पर 16 अप्रैल से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. इसके अलावा 120 दूसरे परिवार हिसार के मिनी सचिवालय पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. इन प्रदर्शनों के दौरान ही नाबालिग लड़कियों के बलात्कारों की अनेक भयानक खबरें निकल कर सामने आई हैं. जैसा कि एक हिंदी ब्लॉग रफू ने प्रकाशित किया है, पास के डाबरा गांव की 17 साल की एक दलित लड़की का जाट समुदाय के ही लोगों ने 2012 में सामूहिक बलात्कार किया था जिसके बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. एक और 10 वर्षीय बच्ची का एक अधेड़ मर्द ने बलात्कार किया था. इसके अलावा एक और लड़की का एक जाट पुरुष ने बलात्कार किया जो आज भी सरेआम घूम रहा है और उल्टे पुलिस ने लड़की को ही गिरफ्तार करके उसे यातनाएं दीं. ये सारी लड़कियां इंसाफ के लिए निडर होकर लड़ रही हैं और इन विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं.

जंतर मंतर पर 6 जून को सुबह करीब 6 बजे, जब ज्यादातर प्रदर्शनकारी सो रहे थे, पुलिसकर्मियों का एक बड़ा समूह आया और उसने प्रदर्शनकारियों के तंबू गिरा दिए. उन्होंने उनके तंबुओं को जबरन वहां से हटा दिया और चेतावनी दी कि वे लोग दोपहर 12 बजे तक वहां से चले जाएं. हिसार मिनी सचिवालय में भी विरोध करने वाले इसी तरह हटाए गए. दोनों जगहों पर पुलिस ने उन्हें तितर बितर कर दिया और उनका सामान तोड़ फोड़ दिया. छोटे-छोटे बच्चों समेत ये निर्भयाएं (बलात्कार से गुजरी लड़कियों के लिए मीडिया द्वारा दिया गया नाम) सड़कों पर फेंक दी गई, लेकिन पुलिस ने उन्हें वहां भी नहीं रहने दिया. वहां पर जुटे महिला, दलित और छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों तथा दो शिकायतकर्ता लड़कियों की मांओं को साथ लेकर प्रदर्शनकारी दोपहर 2 बजे संसद मार्ग थाना के प्रभारी अधिकारी को यह ज्ञापन देने गए कि उन्हें जंतर मंतर पर रुकने की इजाजत दी जाए क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन इस समूह को थाना के सामने बैरिकेड पर रोक दिया गया. जब महिलाओं ने जाने देने और थाना प्रभारी से मिलने की इजाजत देने पर जोर दिया तो पुलिसकर्मी उन्हें पीछे हटाने के नाम पर उनके साथ यौन दुर्व्यवहार करने लगे. वुमन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन की कल्याणी मेनन सेन के मुताबिक, जो प्रदर्शनकारियों का हिस्सा थीं, पुलिस ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के गुप्तांगों को पकड़ा और उनके गुदा को हाथ से दबाया. शिकायतकर्ता लड़कियों की मांओं और अनेक महिला कार्यकर्ताओं (समाजवादी जन परिषद की वकील प्योली स्वातीजा, राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन की सुमेधा बौद्ध और एनटीयूआई की राखी समेत) पर इसी घटिया तरीके से हमले किए गए. बताया गया कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चिल्ला रहा था, ‘अरे ये ऐसे नहीं मानेंगे, लाठी घुसाओ.’ इस घिनौने हमले के बाद अनेक कार्यकर्ताओं को पकड़ कर एक घंटे से ज्यादा हिरासत मे रखा गया.

इस नवउदारवादी दौर में जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक जगहें सुनियोजित तरीके से खत्म कर दी गई हैं और इन जगहों को राज्य की राजधानियों के छोटे से तयशुदा इलाके और दिल्ली में जंतर मंतर तक सीमित कर दिया गया है. लोग यहां जमा हो सकते हैं और पुलिस से घिरे हुए वे अपने मन की बातें कह सकते हैं, लेकिन वहां उनकी बातों की सुनवाई करने वाला कोई नहीं होता. यह भारतीय लोकतंत्र का असली चेहरा है. इस बदतरीन मामले में गांव के पूरे समुदाय को दो महीने तक धरने पर बैठना पड़ा है, अपने आप में यही बात घिनौनी है. उनकी जायज मांग की सुनवाई करने के बजाए – वे अपने पुनर्वास के लिए एक सुरक्षित जगह मांग रहे हैं क्योंकि वे भगाणा में नहीं लौट सकते – सरकार लोकतंत्र की इस सीमित और आखिरी जगह से भी उन्हें क्रूरतापूर्वक बेदखल कर रही है. यह बात यकीनन इसे दिखाती है कि ये दलितों के लिए वे ‘अच्छे दिन’ तो नहीं हैं, जिनका वादा मोदी सरकार ने किया था. दिल्ली पुलिस सीधे सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आता है और यहां पुलिस तब तक इतने दुस्साहस के साथ कार्रवाई नहीं करती जब तक उसे ऐसा करने को नहीं कहा गया हो. यह बात भी गौर करने लायक है कि हरियाणा और दिल्ली की पुलिस ने, जहां प्रतिद्वंद्वी दल सत्ता में हैं, समान तरीके से कार्रवाई की है. तो संदेश साफ है कि विरोध वगैरह जैसी बातों की इजाजत नहीं दी जाएगी. क्योंकि अगर जंतर मंतर और आजाद मैदान जैसी जगहें आबाद रहीं तो फिर कोई ‘अच्छे दिनों’ का नजारा कैसे कर पाएगाॽ

पहला विकेट गिरा

ऊपर की कार्रवाई तो सरकार की सीधी कार्रवाई थी, लेकिन कपट से भरी ऐसी अनेक कार्रवाइयां ऐसे संगठनों ने भी की हैं, जिनके हौसले भाजपा की जीत के बाद बढ़े हुए हैं. भगाणा के प्रदर्शनकारियों को उजाड़े जाने से ठीक दो दिन पहले 2 जून को पुणे में एक मुस्लिम नौजवान को हिंदू राष्ट्र सेना से जुड़े लोगों की भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला. दशक भर पुराना यह हिंदू दक्षिणपंथी गिरोह फेसबुक पर शिव सेना के बाल ठाकरे और मराठा प्रतीक छत्रपति शिवाजी की झूठी तस्वीरें लगाए जाने का विरोध कर रहा था. पुणे पुलिस के मुताबिक, इन झूठी तस्वीरों वाला फेसबुक पेज पिछले एक साल से मौजूद था और उसको 50,000 लाइक मिली थीं. भीड़ को उकसाने के लिए हिंदू राष्ट्र सेना के उग्रवादियों ने इस बहुप्रशंसित पेज के लिंक को चैटिंग के जरिए तेजी से फैलाया. उनका कहना था कि यह पेज एक मुसलमान ‘निहाल खान’ द्वारा बनाया गया और चलाया जाता है, लेकिन पुलिस के मुताबिक यह असल में एक हिंदू नौजवान निखिल तिकोने द्वारा चलाया जाता है, जो काशा पेठ के रहने वाले हैं. फिर इस गड़बड़ी का अहसास होते ही इस पेज को शुक्रवार को सोशल नेटवर्किंग साइटों से हटा लिया गया और तब इस मुद्दे पर विरोध को हवा देने की जरूरत नहीं रह गई थी. लेकिन हिंदू राष्ट्र सेना और शिव सेना के गुंडे सोमवार को प्रदर्शन करने उतरे. पुणे के बाहरी इलाके हदसपार में शाम उन्होंने एक बाइक रोकी, इसके सवार को उतारा और उसके सिर पर हॉकी स्टिक और पत्थरों से हमला किया और दौरे पर ही उसे मार डाला. मार दिया गया वह व्यक्ति मोहसिन सादिक शेख नाम का एक आईटी-प्रोफेशनल था और उसका उन तस्वीरों से कोई लेना देना नहीं था. लेकिन चूंकि उसने दाढ़ी रख रखी थी और हरे रंग का पठानी कुर्ता पहन रखा था हमलावरों ने उसे मार डाला. शेख के साथ जा रहे उनके रिश्ते के भाई बच गए जबकि दो दूसरे लोगों अमीन शेख (30) और एजाज युसूफ बागवान (25) को चोटें आईं. पुलिस ने पहले हमेशा की तरह इस रटे रटाए बहाने के नाम पर इस मामले को रफा दफा करने की कोशिश की कि हमलावर शिवाजी की मूर्ति का अपमान किए जाने और एक हिंदू लड़की के साथ मुस्लिम लड़कों द्वारा बलात्कार किए जाने की अफवाह के कारण वहां जमा हुए थे. मानो इससे एक बेगुनाह नौजवान की हत्या जायज हो जाती हो.

शेख की हत्या के फौरन बाद, आनेवाले दिनों के बारे में बुरे संकेत देता हुआ एक एसएमएस पर भेजा गया जिसमें मराठी में कहा गया था: पहिली विकेट पडली (पहला विकेट गिरा है). इस संदेश को मद्देनजर रखें और शेख को मारने के लिए इस्तेमाल किए गए हथियारों पर गौर करें तो यह साफ जाहिर है कि यह एक योजनाबद्ध कार्रवाई थी. पुलिस ने रोकथाम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए हैं. हालांकि उसको बस इसी का श्रेय दिया जा सकता है, खास कर संयुक्त आयुक्त संजय कुमार का, कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र सेना के प्रमुख धनंजय देसाई समेत 24 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया है और उनमें से 17 पर हत्या का मुकदमा दर्ज किया है. देसाई पर शहर के विभिन्न थानों में पहले से ही दंगा करने और रंगदारी वसूलने के 23 मामले दर्ज हैं. लेकिन इस फौरी कार्रवाई को इसके मद्देनजर भी देखना चाहिए कि आने वाले विधानसभा चुनावों में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए महाराष्ट्र की कांग्रेस-राकांपा सरकार अपना धर्मनिरपेक्ष मुखौटा दिखाने की कोशिश करेगी. लेकिन चूंकि मोदी सरकार इस पर चुप है, इसलिए संकेत अच्छे नहीं दिख रहे हैं.

ऐसा लगता है कि खेल शुरू हो गया है. देखना यह है कि नरेंद्र मोदी इस खेल में किस भूमिका में उतरते हैं.

10 जून 2014

इस जनादेश के पीछे

-दिलीप ख़ान

महीने भर से ज़्यादा लंबी चली मतदान प्रक्रिया के बाद आख़िरकार नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया। 1984 के बाद ये पहला मौका है जब किसी एक पार्टी के पास सरकार बनाने लायक सांसदों की गिनती है। राजग के घटक दलों को मिला दें तो नई सरकार काफ़ी आरामदायक हालत में पहुंच जाती है, जहां किसी भी तरह के जोड़-तोड़ और गुणा-गणित की कोई भी संभावना नज़र नहीं आती। हालत ये है कि इस चुनाव में जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है उनके पास मुख्य विपक्षी दल की मान्यता हासिल करने के लिए ज़रूरी 10 प्रतिशत सीट भी नहीं हैं। कांग्रेस की ये अब तक की सबसे शर्मनाक पराजय है। यही हाल कई और पार्टियों के हैं, जिनमें वाम दलों के अलावा डीएमके, एनसीपी और बहुजन समाज पार्टी भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में 19 प्रतिशत वोट हासिल करने के बाद भी बसपा खाता खोलने में नाकाम रही। समाजवादी पार्टी की तरफ़ से मुलायम सिंह और उनके कुनबे ने मिलकर 5 सीटें जीतीं और कांग्रेस को सोनिया और राहुल गांधी ने सूपड़ा साफ़ होने से बचा लिया।
जीत का जश्न (फोटो- इंडियन एक्सप्रेस)

26 मई को एनडीए के पूर्व घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने औपचारिक तौर पर भारत के प्रधानमंत्री की शपथ ले ली। चुनाव नतीजों और नई सरकार बनने के बाद देश के हालात पर पड़ने वाले असर को लेकर इस दौरान कई विश्लेषण आ चुके हैं। समर्थकों को उम्मीद है कि यूपीए-2 के दौरान जो भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले उजागर हुए वो मोदी राज में शून्य के स्तर पर पहुंच जाएंगे, शीघ्र ही भारत दुनिया के चोटी के शक्तिशाली देशों की सूची में धमक के साथ जगह बना लेगा और विदेशों से लौट आने वाले कालेधन के साथ ही भारत की ग़रीबी छू-मंतर हो जाएगी। कुल मिलाकर महंगाई, भ्रष्टाचार और दैनंदिन की अनेक समस्याओं के निजात दिलाने वाले के तौर पर वो नए प्रधानमंत्री की तरफ़ करिश्माई उम्मीद लगाए बैठे हैं। लेकिन मुश्किल ये है कि 60 महीने के लिए ‘सेवक’ चुनने के वायदे के साथ जनता को ‘अच्छे दिन’ का रिटर्न गिफ़्ट जो बीजेपी चुनाव परिणाम तक देने का भरोसा दिला रही थी, नतीजे के बाद उन्हीं 60 महीने को अचानक कैलकुलेटर पर दो से गुणा कर दिया गया। बीजेपी अब 120 महीने यानी 10 साल का समर्थन चाह रही है ताकि वो ‘अच्छे दिन’ के रथ को पूरे देश भर में दौड़ा सके।

निश्चित तौर पर ये अब तक के सबसे दिलचस्प चुनावों में एक था, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का किसी ख़ास पार्टी को प्रत्यक्ष समर्थन हासिल होने के साथ-साथ, पार्टी से बड़ी भूमिका में एक व्यक्ति को खड़ा करने और हिंदुत्व की उग्र राजनीति के सबसे उग्र चेहरे के तौर पर देश भर में मान्यता प्राप्त करने वाले नेता ने अपने भाषणों में हिंदुत्व से ज़्यादा विकास के सपनों को बेचा। बीजेपी के चुनाव अभियान में हिंदुत्व की रणनीति की कितनी मज़बूत तरंग देशभर में फैली थी, इस पर हम बाद में बात करेंगे, लेकिन ये पहली मर्तबा था जब इतनी बड़ी संख्या में लोग नरेन्द्र मोदी को भारतीय कार्यपालिका की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठने का खुलकर विरोध कर रहे थे। 

राजनीतिक पार्टियों के अलावा स्वतंत्र विचारक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक-कवि और देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे तमाम लोग थे जिन्हें नरेन्द्र मोदी से खुली नाराजगी थी/है। देवेगौड़ा ने मोदी की जीत के बाद कर्नाटक और राजनीति छोड़ने की बात कही थी तो यू आर अनंतमूर्ति ने देश छोड़ने की। कई लेखकों ने मिलकर लोगों से आह्वान किया था कि भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिहाज से नरेन्द्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना होगा। हालांकि वो तमाम कवायदें बेअसर साबित हुईं और नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए। ‘अब की बार मोदी सरकार’ बनी।
यू आर अनंतमूर्ति: मोदी को नापसंद करने वाले, लेकिन इकलौते नहीं

आख़िरकार ऐसा क्या है कि इस बार तीव्र समर्थन के साथ-साथ तीव्र विरोध साथ-साथ देखे गए? बीजेपी कोई पहली बार चुनाव नहीं लड़ रही थी। विरोध में खड़े लोगों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी था जिन्हें बीजेपी से नहीं बल्कि मोदी से दिक़्क़त थी। तो, इसकी वजह क्या है और मोदी में ऐसा क्या है? इन दोनों सवालों के सिरे आपस में गुंथे हुए हैं। पहली बात तो ये कि बीजेपी से ज़्यादा मोदी विरोध के कई स्पष्ट कारण थे। देश के पश्चिमी राज्य गुजरात में केशुभाई पटेल के बाद पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पदनशीं हुए हुए नरेन्द्र मोदी उस वक़्त प्रदेश से बाहर एक अजनबी नाम थे। उतने ही अजनबी जितने इस वक़्त आनंदीबेन पटेल हैं। उनकी पहली राष्ट्रीय पहचान 2002 में बनी, गुजरात दंगों के बाद। तब से लेकर आज तक नरेन्द्र मोदी के नाम के साथ 2002 चिपका हुआ है। हिंदुत्व की राजनीति में यक़ीन रखने वालों के लिए नरेन्द्र मोदी का नाम पावर बूस्टर का काम करता है जबकि सामाजिक सुरक्षा और जम्हूरियत में दबी आवाज़ों को मुखर करने वालों के लिए नरेन्द्र मोदी रोड ब्रेकर का। जाहिर है दोनों के लिए उनकी पहचान का प्रस्थान बिंदु 2002 है। इस पहचान में विकास-पिछड़ापन, गुजरात मॉडल की सफ़लता-विफलता से लेकर वो तमाम बातें महज पुछल्ले की तरह जुड़ी हैं लेकिन मूल नहीं हैं।

दूसरी बात ये कि बीजेपी से ज़्यादा आलोचना के घेरे में नरेन्द्र मोदी इसलिए आए क्योंकि पार्टी ने चुनाव के दरम्यान ख़ुद ही ऐसी रणनीति बनाई जिसमें पार्टी गौण हो गई और नरेन्द्र मोदी पार्टी के ऊपर चढ़ बैठे। 9 जून 2013 को गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष चुना गया। विरोध में पार्टी के बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफ़े और अगले दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत की समझाइश के बाद पार्टी में वापसी के छोटे प्रहसन के बावजूद बीजेपी ने नरेन्द्र मोदी में आस्था दिखाई और उनके कद को लगातार बढ़ाया गया। सितंबर 2013 में औपचारिक तौर पर नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। 

जाहिर है नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक धुरी 2002 के जिस इतिहास के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती है वही इतिहास उनकी कद को पार्टी में बढ़ाने का कारण भी बना और उसी चलते बीजेपी के तीखे विरोध में लोगों ने अपनी आवाज़ें ज़ाहिर की। नरेन्द्र मोदी इस देश के हॉट केक बन गए तो दिल्ली में शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने वाराणसी में मोदी के ख़िलाफ़ उतरने का एलान कर दिया। आम आदमी पार्टी इस बार सबसे ज़्यादा सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली पार्टी बनी। 432 सीटों पर 'आप' ने चुनाव लड़ा और इनमें से 414 सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई। इस पार्टी को देश भर की 414 सीटों पर जमानत जब्ती के कारण 1 करोड़ 3 लाख रुपए गंवाने पड़े।
कांग्रेस लड़ाई से बाहर थी

दिल्ली से सबसे ज़्यादा उम्मीद पालने वाली आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई, अलबत्ता पंजाब में 4 सीट जीतने में वो कामयाब रही। दिल्ली ने पिछली बार की तरह इस बार भी ये संदेश दिया कि वो किसी एक पार्टी को सारी सीटें देने में भरोसा रखती है। 2009 में कांग्रेस ने सातों सीटें जीती थी, इस बार ये सीटें बीजेपी की झोली में आईं। कांग्रेस किसी भी सीट पर मुकाबले में नहीं रही। तीन कैबिनेट मंत्रियों को छोड़ दें तो सारे मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा। नतीजतन पार्टी के भीतर हार के कारणों को लेकर कई तरह की व्याख्याएं पेश हुईं। ये चर्चा भी ज़ोर पकड़ी कि क्या ऐसी शर्मनाक पराजय के बाद कांग्रेस में कुछ आमूल-चूल परिवर्तन हो सकते हैं? क्या कांग्रेस टूट सकती है? 

लेकिन हुआ कुछ नहीं, सोनिया और राहुल गांधी ने हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफ़े की पेशकश की और जैसा कि पूर्वानुमान था पार्टी ने यह पेशकश ठुकरा दी। मिलिंद देवड़ा ने राहुल गांधी की टीम पर भारतीय राजनीति की ज़मीन को नहीं समझ पाने का आरोप लगाया तो कई और नेताओं ने उसपर सहमति जाहिर कर दी। राहुल गांधी घिर गए, लेकिन पलटवार हुआ और पार्टी के दूसरे धरे ने ये दलील दी कि मिलिंद देवड़ा भी उस कोर टीम के हिस्सा थे, लिहाजा उन्हें किसी टीम पर आउटसाइडर की तरह हमला करने का कोई हक़ नहीं। यानी कांग्रेस हार मानने के बावजूद ये तय नहीं कर पा रही है कि इसका दोषारोपण भीतरी तौर पर कहां करे।

असल में कांग्रेस पूरे चुनाव अभियान के दौरान कभी जीतने की कोशिश करती भी नहीं दिखी। उनके नेताओं की देह भाषा और भाषणों के हर्फ़ पराजय भाव से भरे नज़र आ रहे थे। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सेमिफाइनल कहे जाने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद से कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही थी। चुनाव से पहले ही दिग्विजय सिंह और कुमारी शैलजा जैसे नेताओं को राज्य सभा भेजने के फ़ैसले से ये जाहिर हो रहा था कि कांग्रेस मैदान में मज़बूत दावेदारी पेश करने से कतरा रही है। पी चिदंबरम ने अपने बदले बेटे को चुनाव लड़वाया और वो चौथे स्थान पर रहे। यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ जो सत्ता विरोधी लहर थी उससे कांग्रेस सहित बाकी सहयोगी पार्टी वाकिफ़ तो थी लेकिन ये अंदाजा शायद ही किसी को था कि चुनाव नतीजों में उन्हें इतनी कम सीटों पर सिमटना पड़ेगा।

चुनावी नतीजे में मोदी लहर और मोदी सुनामी से ज़्यादा महत्वपूर्ण ये तथ्य है कि जनमानस के बीच मौजूदा सरकार को लेकर नकार का भाव बहुत ऊंचे स्तर तक पैठा था। बीजेपी ने इसकी बेहतर पैकेजिंग की। चुनाव के दौरान उनका सबसे ज़्यादा फोकस महंगाई और भ्रष्टाचार पर ही था। अन्ना हज़ारे के प्रदर्शन के बाद से भ्रष्टाचार बड़े चुनावी मुद्दे के तौर पर हर चुनाव में हावी रहा और आम आदमी पार्टी ने इस एजेंडे को और बढ़ाया। लेकिन, जनता के बीच कांग्रेस को हराने की जो सबसे मज़बूत दावेदारी पेश करने वाली पार्टी थी, वो थी बीजेपी। जाहिर तौर पर बीजेपी के पक्ष में लोग लामबंद हुए। पश्चिम बंगाल के कई इलाकों से ऐसी ख़बरें आईं कि वाम दलों के सुस्त प्रचार अभियान उनके पारंपरिक मतदाताओं को ये भरोसा दिलाने में नाकामयाब रही कि वो सचमुच राज्य में तृणमूल कांग्रेस के रथ को रोक सकते हैं। 

मुज़फ़्फ़रनगर में दंगे भड़काने पर गिरफ़्तार हुए इन विधायकों
को बीजेपी ने मंच पर सम्मानित किया
चुनाव में किसको जिताना है के बराबर ही महत्वपूर्ण मसला होता है कि किसको हराना है। वाम समर्थकों के एक बड़े हिस्से को लगा कि जिस आक्रामकता के साथ ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में ख़ुद को पेश कर रही है कि उसका जवाब सीपीएम और सीपीआई नहीं हो सकतीं। तो, जो वाम थे उन्होंने नरेन्द्र मोदी की आक्रामकता में आस्था दिखाई और मिदनापुर, आसनसोल से लेकर दार्जिलिंग तक गांव के गांव लेफ़्ट समर्थक बीजेपी की तरफ़ मुड़ गए। नतीजा ये हुआ कि राज्य में पिछले चुनाव में 4 फ़ीसदी वोट जीतने वाली बीजेपी इस बार 16 फ़ीसदी वोट जीत गई। अब ये सचमुच मोदी लहर का नतीजा है या फिर तृणमूल कांग्रेस को रोकने के लिए सही विकल्प ढूंढ़ने की छटपटाहट में एक मज़बूत विपक्ष की तलाश करते मतदाताओं का स्वाभाविक चुनाव, इस पर विशेषज्ञों में अब भी दो-फाड़ है।

लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच मोदी के पक्ष में जो राजनीतिक माहौल बना वो स्वाभाविक था या फिर निगमीकृत मीडिया ने उन्हें अपने कंधे पर उठा रखा था? सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ के एक अध्ययन का हवाला ले तो लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को प्राइम टाइम में एक तिहाई से भी ज़्यादा का समय मिला। अध्ययन के मुताबिक़ नरेन्द्र मोदी को 2,575 मिनट यानी 33.21 प्रतिशत और राहुल गांधी को 4.33 प्रतिशत वक़्त मिला।

अगर इस गणित के लिहाज से देखे तो बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े सात गुणा ज़्यादा समय टीवी चैनलों पर हासिल हुआ और जीती गई सीटों पर इस गणित को लागू करे तो नतीजा ये निकलता है कि बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले साढ़े 6 गुनी ज़्यादा सीटें हासिल हुईं। क्या हम ये माने कि इस बार चुनाव प्रचार दोहरे स्तर पर देखा जा रहा था? चुनाव क्षेत्र में और मीडिया के पर्दे पर। टीवी मीडिया ने हरसंभव कोशिश की कि चुनाव मद्दों की बजाए व्यक्तित्व केंद्रित हो जाए। 16 मई को जब चुनाव नतीजे जाहिर हो रहे थे तो एबीपी न्यूज़ ने पार्टी के बजाए मोदी, राहुल और केजरीवाल की तालिका बना रखी थी, जिसमें इनकी पार्टियों द्वारा जीती गई सीटों के आंकड़ें अपडेट हो रहे थे। पूरी रिपोर्टिंग बयान, आलोचना और प्रहसन, उपहास को उभारती नज़र आई। मोदी लार्जर दैन द पिक्चर के तौर पर टीवी पर्दे पर नज़र आए। 

ओपिनियन पोल पर लगे प्रतिबंध के वक़्त टीवी चैनलों पर नरेन्द्र मोदी के साक्षात्कार चलते थे। टाइम्स नाऊ पर बिना किसी अंतराल के लगातार तीन बार इंटरव्यू प्रसारित हुआ। शायद यह टीवी न्यूज़ मीडिया में यह पहली बार हुआ कि कोई साक्षात्कार लगातार घंटों रिपीट होता रहा। टीवी मीडिया पर जिनका मालिकाना हक़ है उनका बड़ा इस बार मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की योजना में शामिल थे। ज़ी मीडिया के मालिक सुभाष चंद्रा हरियाणा में बीजेपी की एक रैली में मंच पर मौजूद थे और वहां से उन्होंने बीजेपी के पक्ष में वोट करने की अपील की। हालांकि इसके पीछे दो कारण बताए जा रहे हैं। पहला कारण तो सीधे राजनीतिक पक्षधरता का है, लेकिन दूसरा कारण ज़्यादा दिलचस्प है। जबसे ज़ी-जिंदल विवाद हुआ उसके बाद से मीडिया उद्योग पर नवीन जिंदल की बढ़ती दिलचस्पी के कारण सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल के बीच ब्लैकमेलिंग और मानहानि का टकराव बिजनेस हितों तक पहुंच गया। अब दोनों एक बाज़ार में प्रतिस्पर्धी के तौर पर आमने-सामने खड़े हैं। दोनों के बीच जिस तरह के तीखे संबंध हैं उसके चलते ये बताया जा रहा है कांग्रेस के उम्मीदवार नवीन जिंदल को हराने में मदद पहुंचाने के लिहाज से सुभाष चंद्रा ने बीजेपी के पक्ष में हरियाणा रैली में शिरकत की।  

मीडिया पर कई पार्टियों ने इस बार नाखुशी जाहिर की। लेकिन क्या मीडिया के समर्थन और एंटी इनकंबैंसी के बीच बीजेपी की मूल राजनीति में पैबस्त हिंदुत्व पीछे छूट गया? क्या सचमुच जाति और धर्म से ऊपर उठकर 'विकास की राजनीति' के पक्ष में लोगों के लामबंद होने का जो दावा बीजेपी कर रही है, वो सच है? भाषणों पर जाएंगे तो हिंदुत्व आपको गौण दिखेगा। ये शब्द बीजेपी से ज़्यादा विरोधी पार्टियों और आलोचकों के बयानों में ज़्यादा दिखेगा। हिंदुत्व, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता बीजेपी के शब्दकोश में इस बार कम इस्तेमाल होने वाले शब्द थे। लेकिन पार्टी की समूची रणनीति में ये काफी प्रमुख था। उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक 71 सीट जीतने वाली इस पार्टी ने ऐसा क्या कमाल किया कि बीएसपी जैसी पार्टी को खाता तक खोलना मुनासिब नहीं हो पाया? पश्चिमी उत्तर प्रदेश कभी भी पारंपरिक तौर पर बीजेपी का वोटर नहीं रहा, लेकिन पहली बार उस पूरी पट्टी पर बीजेपी का कब्जा रहा। 
हिंदुत्व कार्ड: अमित शाह के हाथ में यूपी का कमान 

अमित शाह को जबसे उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया उसके बाद से राज्य में यह संदेश गया कि बीजेपी इस बार हिंदुत्व पर उग्र रूप अख़्तियार करने वाले नेताओं में भरोसा जता रही है। जाहिर तौर पर ये योजना काम कर गई। मुज़फ़्फ़रनगर और आस-पास के ज़िलों में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में बीजेपी के तीन नेताओं के नाम एफआईआर होने के बाद उनमें से एक को जिस तरह आगरा में नरेन्द्र मोदी की रैली में सम्मानित किया गया, उसके स्पष्ट राजनीतिक संदेश थे। ऐसे संदेश में भाषणों में बरते जाने वाले शब्दों से ज़्यादा असर होता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह सहित उनकी पार्टी का सफाया हो गया। मुज़फ़्फ़रनगर के बाद जाट वोट छिटकने के डर से यूपीए सरकार पर अजित सिंह ने दबाव बनाकर जाट को देश भर में ओबीसी का दर्जा दिया गया। लेकिन सब सिफर। जाट सहित तमाम हिंदुओं ने ख़ुद को हिंदुत्व के कंबल तले ढंक लिया। दरअसल नतीजे के बाद अमित शाह ने ने बड़ी दिलचस्प बात कही। उनसे जब पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म पर राजनीति करने की रवायत रहने के बावजूद बीजेपी ने किस तरह हर वर्ग के वोट में सेंध लगाई, तो उनका जवाब था कि बीजेपी के खिलाफ रहने वाले तबके से ज़्यादा बड़ी संख्या उन लोगों की है जो बीजेपी के पक्ष में हैं। यानी, मुसलमानों, दलितों और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में यकीन रखने वाले मतदाताओं से कहीं बड़ी संख्या उन लोगों की है जो हिंदुत्व की अस्मिता में यक़ीन रखते हैं। बीजेपी का ज़ोर इसी पर था। ज़मीन पर धार्मिक आधार पर गोलबंदी और भाषणों में रोज़गार, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यूपीए सरकार को घेरना।
ये पहली मर्तबा है जब उत्तर प्रदेश से एक भी मुसलमान नहीं जीत सका। बीजेपी ने 282 सीटें जीती लेकिन इनमें एक भी मुसलमान शामिल नहीं है। गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का पूरा इलाका एक भी मुसलमान नहीं जिता सका। ये आज़ाद मुल्क़ में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के लिहाज से सबसे ख़राब आंकड़ा है। इस बार मात्र 22 मुस्लिम सांसद बन पाए हैं जिसने 1957 के 23 के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया। आखिर क्या संदेश है इस जनमत का? क्या नरेन्द्र मोदी का अनुवाद हिंदुत्व के रूप में नहीं हुआ? आख़िर क्यों एक नेता के नाम पर समूची पार्टी ने ख़ुद को लो-प्रोफाइल रखा? आख़िर क्यों सुषमा स्वराज ने जब ये कहा कि 'अब की बार बीजेपी सरकार' उचित होगा तो पार्टी के भीतर उनको अलग-थलग करने की कोशिश शुरू हुई? मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के तजुर्बे को किस बिनाह पर नरेन्द्र मोदी के सामने झुठला दिया गया?

26 मई को जब नरेन्द्र मोदी और उनका मंत्रीमंडल शपथ ले रहा था तो वहां मौजूद रहने वाले चेहरे में साध्वी रितंभरा से लेकर अशोक सिंघल तक हिंदुत्व के वो तमाम चेहरे शामिल थे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के मिले-जुले स्वप्न के ड्राइवर फोर्स हैं। यानी पार्टी संरचना में हिंदुत्व की पैठ साफ है। लेकिन, नरेन्द्र मोदी इस राजनीति को सतह पर इसलिए नहीं आने देना चाहते कि कहीं 2002 का जिन्न फिर से ना निकलकर उनके सामने खड़े हो जाए, इसलिए उदारवादी चेहरा ओढ़ते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को न्यौता भेज दिया।  
शपथ ग्रहण में पहुंचे मेहमान

अब जबकि नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन चुके हैं और ये साफ़ लग रहा है कि कांग्रेस से अलग उनकी कोई आर्थिक नीति नहीं है तो चिंता का मूल विषय बन जाता है सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव। क्या बारीक स्तर पर आरएसएस देश की चेतना को हिंदुत्व की तरफ़ मोड़ने की कोशिश करेगा? नतीजों के बाद जिस तरह संघ के बड़े नेताओं के साथ बीजेपी के तमाम आला नेताओं की भेंट-मुलाकात का सिलसिला चल रहा था उसके बाद इससे इनकार करना तो मुश्किल हो जाता है कि पार्टी के राजनीतिक मामलों में संघ की दख़लंदाज़ी नहीं है। क्या आईटी एक्ट बनने के बाद से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जो हमले शुरू हुए हैं वो ज़्यादा तेज़ होंगे? प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मोदी की आलोचना में फेसबुक और व्हाट्स एप पर संदेश भेजने वाले दो लोगों को जेल हो चुकी है। 

मीडिया से तमाम समर्थन हासिल होने के बावजूद और कई लोगों द्वारा मौजूदा चुनाव में मीडिया की स्पष्ट पक्षधरता को सबसे बड़ी बड़ी घटना करार दिए जाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी ने मीडिया के एक धड़े पर हमला जारी रखा। उन्होंने कई दफ़ा 'न्यूज़ ट्रेडर्स' की आलोचना की। उनकी आलोचना में जो मीडिया रिपोर्ट्स थीं उनको उन्होंने वस्तुनिष्ट नहीं बताया। इसलिए आख़िर में हिटलर को याद करना असंगत नहीं होगा जिन्होंने कहा था कि कथित उदार प्रेस का काम जर्मनी के लोगों की बेहतरी की राह में गढ़ा खोदना है। तो, विकास की रफ़्तार तेज़ रहनी चाहिए, विकास से हटकर मीडिया को कोई और घटना याद नहीं करना चाहिए और शपथग्रहण समारोह में बैठे अंबानी-अडानी अगर देश की तरक्की में योगदान दे रहे हैं तो उनके पर्दे के पीछे की कोई ऐसी कहानी जाहिर नहीं होनी चाहिए जिससे ये रफ़्तार सुस्त हो।  

(समकालीन तीसरी दुनिया के नए अंक में प्रकाशित)