17 अक्तूबर 2013

रात का शहर उनके लिए भय का शहर है

कीर्ति सुन्द्रियाल

संवैधानिक आज़ादी सांस्कृतिक आयामों को बदल नहीं पा रही, बल्कि संस्कृति की पुरानी गुलामी समाज की नब्ज में बहती ही रहती है। महिला मुक्ति के इतने प्रयासों के बावजूद सामूहिक जगहों पर अभी भी पुरूषों का ही कब्जा है,  यह कब्जेदारी किसी जगह भर की नही है,  बल्कि मानसिक विकास के रास्तों पर एक बैरियर सा लगा दिया गया है। महिलायें आज भी बिना काम के सड़कों पर टहलती हुई नजर नहीं आती, उनके घूमने-टहलने और आने-जाने के लिए अभी भी विशेष जगहें और सुनियोजित आयोजन हैं। चौराहों से लेकर शहर की तमाम बैठकों तक पुरुषों का ही बैठना है, उन्हीं के राजनीतिक चर्चे हैं। देश, समाज और आपदा-विपदा उन्हीं की बहसों से शुरू होकर खत्म होती है,  वह खत्म भी नही होती बल्कि उनकी समझदारी को विकसित करती है। महिलाएं इस पूरी प्रक्रिया से वंचित ही रहती हैं। राजनीति, देश, समाज और आपदा-विपदा के सबसे ज्यादा संकट महिलाओं को ही झेलने पड़ते हैं, पर यह उनके बहस का हिस्सा नहीं बन पाता, जैसे देश, राजनीति और विपदा उनकी हो ही न।
पार्कों से लेकर बैठकों तक नए स्थानों को विकसित किया जा रहा है, पर वहाँ एक सांस्कृतिक रुकावट है, सामाजिक भय है, जो इन स्थानों को महिलाओं का नहीं होने देता। वे संडे या किसी छुट्टी पर रिश्तेदारों और परिचितों के आने पर ही शहर का मुंह देख पाती हैं, उनके घूमने की भी एक सीमा निर्धारित होती है जो दिन के उजालों और सीमित घंटो व खास तरह की ‘सुरक्षित’ जगहों के दायरे में बनी होती हैं। रात का शहर उनके लिए भय का शहर है। दिन में भी ऐसा कम ही होता है कि कोई महिला बगैर किसी काम के घूमने निकलती हो। उन्हें स्कूल से बच्चों को लाते, ले जाते, दूध, सब्जी, घर के सामान लाते ही देखा जा सकता  है। वे घर के भीतर और बाहर भी गृहणी होती हैं, उन्हें घूमने के लिए ऐसे  तरीके खोजने होते हैं जिस काम में बाहर ज्यादा समय लग जाए और वे बाहर के दृश्य को देखते हुए लौट आएं, बाहर के समाज में शामिल होने की उनकी इच्छाएं इसी तरह पूरी होती हैं। शहर में उनका जाना सिनेमा देखने जैसा ही है क्योंकि शहर के भीतर सहजता से उनके खड़े होने की जगह ही नहीं है, वहां उन्हें घूरती हुई मर्दों की नजरें हैं जो खड़े होने का कारण पूछती हैं। जैसे उनकी सम्पत्ति के दायरे में कोई और दखल दे रहा हो। बेफिक्री से अकेले किसी महिला को थोड़ी  देर के लिए सारी चीजों से मुक्त करके बाजार चौराहों पर तफरी करते देखना मुश्किल होता है, दोनों तरफ भय जैसा है, मुक्त होने के प्रयासों में एक महिला को लगातार हिंसा का भय बना रहता है। शादीशुदा महिलाएं सामूहिक जगहों के साझीदारी में इतनी बेचारी दिखती हैं कि उन्हें मंदिर और सत्संग वाले बाबा के कीर्तन भजन की मंडलियों में ही देखा जा सकता है, वे एक साथ बड़ी संख्या में जब कभी सड़क पर चलते हुए दिखेंगी तो वह कोई धार्मिक झांकी या कलश यात्रा जैसे आयोजन होंगे। धार्मिक आयोजनों में बाहर जाने के लिए उनका परिवार रोकने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित ही करता है, क्योंकि धर्म उन्हें पुरुषवादी मर्यादाओं और नैतिकताओं से लैस करता है। इसके साथ ही घुटन भरे जीवन में वहां उन्हें आज़ादी, सामूहिकता का क्षण भर एहसास भी हो जाता है, उनकी दबाई गई इच्छाएं और सामूहिकता में जीना इन्हीं जगहों से थोड़े भर दिए जाते हैं, भीतर की दबी हुई अभिव्यक्तियां घर में फटें इसके पहले का यह इलाज है।
धार्मिक आयोजनों में महिलाओं की श्रोता के रूप में व्यापक भागीदारी इसी तरह से होती है, वहां वह समूह में बैठने की अपनी इच्छा और अपने आपको घर परिवार के कामों के अलावा अन्य कामों में लीन हो जाने की जरूरत को पूरा करती हैं, महिलायें इन आयोजनों में भगवान की भक्ति के नाम पर सामूहिक तौर पर गाने गाती हैं, नाचती हैं। यह उनके अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के मौके होते हैं, समाज इसे उनकी भक्ति मानता है, लेकिन इसका मानसिक आधार उनके बंद और ऊब्न से भरे जीवन का होना है। उनके पास अपने को अभिव्यक्त करने का कोई और विकल्प नहीं है, सामान्यतः महिलायें ऐसे ही बिना धार्मिक आयोजन के सामूहिक तौर पर नाच नहीं सकती है, ऐसा करने पर उनके लिए लांछनों से भरे फतवे है जो लगा दिए जाएंगे। यह एक अघोषित सी छूट और प्रतिबंध है जो अधिकांश महिलाओं के जीवन को संचालित करता है।
स्कूल कॉलेज जाने वाली युवतियों की स्थिति महिलाओं की अपेक्षा इस मायने में थोड़ी बेहतर कही जा सकती हैं कि उन्हें बाहर जाने के लिए उत्सवों,  धार्मिक आयोजनों और खरीददारी के बहानों की जरूरत नहीं पडती, क्योंकि घर से बाहर जाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा होता है। घर से स्कूल या कॉलेज जाने के बीच के समय में वह बसों, चौराहों, गलियों, कॉलेज कैंन्टीनों और क्लास रूम से गुजरती हैं, जो उन्हें सामूहिक जगहों से जोड़ता है, जहां वह घर से बाहर की दुनियां को महसूस कर पाती हैं। कई स्थानों पर पुरुष कब्जेदारी वहां भी हैं, डर वहां भी है, पर खासकर जब युवतियां कॉलेज में आती हैं तो वह पुरूषों की बनायी सामूहिक दुनियां में अपना हिस्सा भी तय करना चाहती हैं। वहां स्कूल से ज्यादा खुलापन और आजादी होती है, यह उन्हें सामूहिक जगहों में समय बिताने का मौका देती है, धीरे-धीरे वह इसके महत्व और इसकी चुनौतियों को भी समझने में समर्थ होती हैं। वहां से उनके लिए ऐसा दोराहा भी बना होता है, जहां से जिंदगी अलग-अलग अन्जाम पर पहुंच सकती है। एक रास्ता परम्परागत जिन्दगी का रास्ता है और दूसरा अपने अस्तित्व को ढूंढने का रास्ता, खतरे और रोमांच से भरा रास्ता, जहां सब कुछ उनको ही तय करना होता है, पुरूषों के कब्जेदारी की दुनियां पर अपना दावा पेश करने का साहस पैदा करना होता है। इस दूसरे रास्ते की चाबी ढूंढना अब भी कठिन है, क्योंकि हर युवती का रास्ता एक ही चाबी से नहीं खुलता इसलिए हर बार ताला खोलने का तरीका और चाबी का नम्बर अलग-अलग होता है।
पब्लिक स्पेस कई तालों की चाबी है। इस बात को इस तरह से समझा जा सकता है कि पब्लिक स्पेस का मतलब सिर्फ नुक्कड़ व दुकानों पर खाना-पीना ही नहीं होता है, यह तो बहाने होते हैं जिनसे कारण सधते हैं, यहां लोगों से मिलना-जुलना और संवाद होता है, जो आपको नये अनुभवों से समृद्ध करता है। करियर,  दुनियादारी और परिवार के नियमों से बंधी जिन्दगी के बीच, यही वह जगह होती है जहां आप अपना क्वालिटी टाइम बिता रहे होते हैं। यह सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण करता है और जीवन को तरोताजा बनाये रखता है। ऐसी जगहों पर देश, दुनियां, राजनीति पर सहमति और असहमति का मौका मिलता है, यही जगहें हैं जहां सभ्यता और दुनियां जहान के मौखिक इतिहास का पाठ चल रहा होता है जिस इतिहास और संस्मरण से जीवन का बखान भी लोग करते है। कथाओं और कल्पनाओं की दुनिया भी यहीं बनती है, यह ऐसी क्लास होती है जहां सभी जानकार होते हैं और जीवन के अन्य जगहों से ज्यादा स्पेस मुहैया हो पाता है। सिलेबस बस और कक्षाओं के अलावा यह समाज का वास्तविक अध्ययन होता है, लेकिन इसके दरवाजे युवतियों के लिए पूरी तरह से खुले नहीं हैं। नुक्कड़ पर, सड़क किनारे के ठेलों पर, उनका जाना और बैठना अभी ठीक से शुरू ही नहीं हुआ है।  फिर ऊपर से घूरती नजरें उनका स्वागत करती हैं, यह उन्हें हर बार पब्लिक स्पेस में जाने से रोक देता है। शहर में ऐसी जगहें भी कम होती हैं जहां युवा-युवतियां इत्मिनान से बैठ सकें। रेस्टोरेंट, पार्क, सड़कें, कॉलेज सबमें विभाजन हैं, जहां महिलाओं के लिए स्थान सीमित होता जाता है।
देश के हर शहर में इस तरह का बंटवारा पाया जाता है। धर्म, जाति और वर्ग की ही तरह शहरों को लैंगिक आधार पर भी बांटा गया है। शहर के भूगोल का विभाजन प्राकृतिक होता है, लेकिन हमारी मानसिकता का भूगोल शहर के स्पेस को तय करता है। छोटा ही सही एक ऐसा समूह हर शहर में मौजूद होता है जो शहर की जगहों के बंटवारे को तोड़ता है, वह वर्जित जगहों पर जाना पसंद करता है, शहर को अपने विस्तार के तौर पर देखता है। समाज द्वारा किये गये बाकी बंटवारों की तरह वह लैंगिक बंटवारे की परवाह भी नहीं करता। एक वैकल्पिक राजनीति की तरह ही शहर में ऐसे समूह का दखल ही, शहरों में वैकल्पिक स्पेस का निर्माण करता है जो आने वाले समय के लिए एक उम्मीद की जगह बनाता है।
संपर्क: kirtisundriyal.ht@gmail.com

15 अक्तूबर 2013

दातिया जैसे हादसे का जिम्मेदार कौन?

सुनील कुमार
पूंजीवाद की बेतहासा लूट से लोगों की जीवन दिन प्रतिदिन कठिन होता जा रहा है। जीवन के संकट के डोर को लोग आस्था से जोड़ कर देख रहे हैं, जिसके कारण आये दिन नये-नये बाबाओं उदय हो रहा है। इसी अंधभक्ति का फायदा उठाकर आसराम, निर्मलबाबा रामदेव जैसे गुरूओं की बाढ़ चुकी है। इस आस्था को बढ़ाने में इलेक्ट्रानिक मिडिया का भी बड़ा हाथ है जो पूंजीवादी घरानों द्वारा चलाये जाते हैं। इसी आस्था में सरोबार होकर लोग कुंभ और माता मंदिर, बाबाओं के दर्शन के लिए जाते हैं। धर्म में प्रचारित किया जाता है कि मनुष्य अपने पिछले जन्म के कर्मों को जीता है। इसी अंध विश्वास में लोग इस जन्म के कष्ट को अपने पिछले जन्म का पाप मानते हैं और अगले जन्म को अच्छा बनाने के लिए धार्मिक स्थानों पर जाते हैं। इनमें ज्यादातर वे गरीब होते हैं जो किसी तरह दो जून की रोटी जुटा पाने में सक्षम होते हैंं। वे सामुहिक रूप से ट्रैक्टर ट्रालियों टैम्पों में ऐसे मौके पर स्नान करने या मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं जिनमंे महिलाओं बच्चों की संख्या       अधिक होती है। इन स्थानों पर ज्यादातर गरीब लोगों के जाने के कारण प्रशासनिक व्यवस्था उस तरह से नहीं की जाती है जिस तरह से इतने भीड़ के लिए व्यवस्था करना चाहिए, पुलिस फोर्स भी नाम मात्र की होती है। जो थोड़ा बहुत प्रशासनिक व्यवस्था पुलिस फोर्स होती है वे अधिकांशतः आने वाले वीआईपी लोगों की ड्यूटी में लगा होता है तो कुछ पुलिसकर्मी आने वाले वाहनों, दुकनदारों से अवैध कमाई करने में लगा रहता है। यही कारण है कि .प्र. के दतिया जिले के रतनगढ़ माता मन्दिर में 5 लाख लोगों के लिए 250 पुलिस वालों की तैनाती की गई थी। जबकि प्रशासन को मालूम था कि यहां पर नवरात्रि में लाखों की संख्या में लोग आते हैं। रतनगढ़ माता मन्दिर में 2006 की भगदगड़ की पुनरावृत्ति हुई है जिसमंे कि 50 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। उस घटना से .प्र. शासन-प्रशासन ने किसी तरह का सबक नहीं सिखा था और 5 लाख लोगों के लिए कोई व्यवस्था नहंी की। इस भगदड़ में अभी तक 115 लोगों की मरने की अधिकारिक पुष्टि हो चुकी है (कई सारे लोग सिंध नदी में बह भी गये होंगे) और 150 लोग घायल हैं। स्थानीय पत्रकार रामाशंकर नागरिया के अनुसार जब वह घटना स्थल पर पहुंचे तो ‘‘कोई भी प्रशासन का व्यक्ति वहां नहीं था दो घंटे बाद एसडीओ वहां पहुंचे। बहुत सारे लोग अपने परिजनों के लाश को ले गये कुछ लोग नदी में बह गये इन सभी लोगों की गीनती नहीं की गई है। उन्हीं मृतकों की गिनती हो पाई है जो घटना स्थल पर मौजूद थे।’’ यह घटना प्रशासन की लपरवाही गैर जिम्मेदारी से घटी है इतने मौतों के जिम्मेदार दतिया का प्रशासन है। जब सुबह 8 बजे के करीब बड़ी संख्या में लोग रतनगढ़ माता मन्दिर की तरफ जा रहे थे तो भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस द्वारा लाठीचलाई गई जिससे लोग भागने लगे इसी में किसी ने कहा कि पुल टूट गया है इसलिए पुलिस भगा रही है यह सुनकर लोग बेताहासा इधर से उधर भागने लगे। जान बचाने के लिए लोग सिंध नदी में धोती, साड़ी, दुपटे रस्सी के सहायता से उतरने लगे तो कुुछ सिधे नदी में कुद गये यहां तक कि लोग अपने बच्चों को पुल से निचे अपने परिजनों के हाथ में फेंक रहे थे। इस तरह नदी में गिरने से बहुत लोगों की मृत्यु हो गई तो कुछ भगदड़ में कुचल गये। मरने वालों में ज्यादातर संख्या महिलाओं की है। .प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान दोषी अधिकारियों/कर्मचारियों को दंडित करने तक का नाम भी नहीं लिया बस मृतकों को डेढ़ लाख रु. तो घायलों को 50 से 25 हाजर रु. देने की घोषणा कर और घाटना स्थल का दौरा कर अपने कर्तव्य पूरा कर देना चाहते हैं।
धार्मिक स्थलों में अनेकों बार भगदड़े हो चुकी हैं जिसमें कई सौ लोगों की जाने गई हैं। लेकिन शासन-प्रशासन ने उसे सबक नहीं लिया है कि ऐसे धार्मिक स्थानों पर किस तरह से भीड़ को नियंत्रित किया जाये ऐसे हादसों से बचने के लिए पुलिस को किसी तरह की ट्रेनिंग तक नहीं दी जाती है। दातिया या दातिया जैसे हादसे का जिम्मेदार कौन है?
कुछ बड़े भगदड़ की घटनाएं
11 फरवरी, 2013:  इलाहाबाद महांकुंभ के समय रेलवे स्टेशन पर भगदड़ 36 लोगों की मौत करीब 40 लोग घायल।
20 नवम्बर, 2012:  बिहार में छठ पूजा के लिए बना अस्थायी पुल टूटा 18 लोगों की मौत, कई घायल।
09 नवम्बर, 2011:  हरिद्वारा की हरकी पैड़ी के पार नीलाधरा के निकट भगदड़ मचने से 20 लोगों की मौत।
14 जनवरी, 2011:  केरल के सबरीमाला मंदिर में मची भगदड़ 106 लोगों की मौत 100 से ज्यादा लोग घायल।
04 मार्च, 2010 :      प्रतापगढ़ कृपालुजी महाराज के मनगढ़ मंदिर में 65 लोगों की मौत और अन्य घायल।
30 सितम्बर, 2008:  जोधपुर के चामुंडा देवी मंदिर में भगदड़ 224 लोगों की मौत, 400 से अधिक घायल।
03 अगस्त 2008  :  श्रावण पार्क के मौके पर हिमाचल प्रदेश के नैनादेवी मंदिर में भगदड़ 150 से अधिक लोगों की मौत, सैकड़ लोग घायल।
01 अक्टूबर, 2006:  नवरात्र के मौके पर करके मंदिर दर्शन के लिए जा रहे 50 तिर्थयात्रियों की मौत।
2006 (तारिख मालूम नहीं):  दातिया के भगदड़ में 50 से अधिक लोगों की मौत, और सैकड़ों घायल।
26 जनवरी, 2005 :  महाराष्ट्र के सतरा जिले के मंधेरी देवी मंदिर परिसर की भगदड़ में 340 लोगों की मौत, 200 से ज्यादा घायल।
27 अगस्त, 2003:  नासिक कुंभ में भगदड़ से 40 लोगों की मौत, कई घायल।

ये तो चंद कुछ बड़े हादसों के उदाहरण हैं छोटी-छोटी हादसा होती रहती है जिसका रेकॉर्ड नहीं मिल पात है। दिल्ली में ही मूर्ति विर्सजन के दौरान हर वर्ष कई लोगों की मौत हो जाती है। 2013 में ही गणेश मूर्ती विर्सजन के दौरान 8 लोगों की मौत हो गई।
पूंजीवाद अपनी लूट को बनाये रखने के लिए अंध भक्ति को बढ़ावा देता हैं और धर्म का प्रचार जोर-शोर से करता है क्योंकि धर्म के आड़ में वे अपने को छिपा कर रख सके और इससे लाखों करोड़ की कमाई भी कर लेता है। इस तरह धर्म के नाम पर एक पंथ दो काज हो जाता है। हम सभी देख रहे है कि किस तरह सावन माह (अगस्त) के समय में बोल बम के नारों से सड़क भरे होते हैं, जगह-जगह पंडाल दिख जाते हैं जहंा पर कांवरिया रूके होते हैं। बोल-बम में जाने वाले अधिकांशतः 18-30 वर्ष के युवा होते हैं। जहां पहले बोल बम में कुछ लोग जाते थे वहीं अब इनकी संख्या में कई गुना इजाफा हुआ। पहले लोग डंडे का बना हुआ कांवर साधारण रूप से सिले हुए वस्त्र पहन कर जाते थे। लेकिन पूंजीवाद ने इसका प्रचार-प्रसार कर रेडिमेड कंावर (जिसकी हजारों डिजाइनें है) और रेडिमड वस्त्रों की भरमार लगा दी। इसी तरह कई प्रकार के मुखौटे, शंकर के जाटा इत्यादि तरिके से लोगों के जेब से पैसा खिंच लेता है। रास्ते में इन कांवड़ियों की सेवा के लिए राजनीतिक पार्टियों, वेलफेयर सोसाईटियों क्लबों द्वारा इन कांवरियों की रूकने, खाने-पीने, नहाने-धोने की व्यवस्था की जाती है। ये कांवड़िया सड़कों पर उत्पात मचाते रहते हैं। हाथों में डंडे, हाकी, वेसबाल यहां तक रॉड (लोहे का डंडा) लेकर  चलते हैं किसी वाहन से छू जाने पर ये मार-पिट पर आमदा हो जाते हैं।
इस तरह की धार्मिक भावनाएं केवल भारत में ही नहीं है जैसा कि मक्का में मुस्लिम समुदाय के लोग हज के लिए जाते हैं और शैतान को पत्थर मारने में भगदर होती है और बहुत सारे लोग दब कर मर जाते हैं। इस तरह से धर्म का प्रचार-प्रसार करके पूंजीवाद अपने को छिपाने और आम जनता को बरगलाने में कमायब रहा है। जब तक लोगों की आंखों पर धर्म की पट्टी बंधी रहेगी दातिया जैसे भगदड़ होते रहेंगे और उसके असली गुनाहगारों का पता भी नहीं चल पायेगा।


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