18 फ़रवरी 2011

छात्रों की जुबान पर पहरा

रुद्र भानु प्रताप सिंह
छात्रों ने हमेशा ही समाज परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है चाहे वो आजादी का आंदोलन हो या 70 के दशक में नकसलवाड़ी और जेपी का आंदोलन। अपने प्रयास से सदैव ही समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है । इतिहास छात्रों को परिवर्तन के वाहक के रूप में याद करता है। छात्र अस्मिता की राजनीति का आरंभ सन् 65-66 में बीएचयू में समाजवादियों ने किया और जेएनयू ने उसे सन् 1972-73 के बाद से नई बुलंदियों तक पहुँचाया ।परंतु आज छात्र प्रतिरोध की यह संस्कृति धीरे-धीरे दम तोड़ती नजर आ रही है देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्र प्रतिरोध के लिए जगह सिमटती जा रही है। विगत वर्षो में हुए छात्र आन्दोलनों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कैसे देश के इक्के-दुक्के विश्वविद्यालयों में कभी-कभी छात्रों की किसी स्थानीय मांग के लिए छोटी-मोटी आवाज़े तो उठती हैं लेकिन कोई संगठित प्रतिरोध नहीं दिखाई देता । अब यह प्रतिरोध भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जो कभी जीवंत राजनीतिक केन्द्र हुआ करता था, पोस्टर तक नहीं लगाये जा सकते, हालांकि यहां अभी तक छात्र प्रतिवाद की गतिविधियों में शामिल होते हैं. अन्य कैम्पसों के हालात तो और खराब हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में किसी भी किस्म की राजनीतिक गतिविधि - प्रतिवाद प्रदर्शन, परचे, पोस्टर अथवा यहां तक कि छात्रों द्वारा बैठकों का आयोजन करना भी प्रतिबंधित हैं. लखनऊ विश्वविद्यालय में अगर छात्रों को किसी भी किस्म के प्रतिवाद की गतिविधि में शामिल पाया गया तो उनको कठोर दंड दिया जाता है. इन सारे कैम्पसों में पुलिस और अर्ध-सैनिक बल हमेशा तैनात रहते हैं. छात्र आंदोलन चेतना की वह धारा है जो विचारों को कैम्पस के दायरे से बाहर लाने और समूचे देश में लोगों की प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक आकांक्षाओं से घुलमिल जाने में यकीन रखती है. लेकिन छात्र राजनीति की इस धारा पर हमला क्रमशः बढ़ता जा रहा है. शिक्षा नीति को पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के उपयुक्त ढाला जा रहा है और कैम्पसों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। स्पष्ट दिख रहा है कि छात्रों की आकांक्षाओं एवं उनके प्रतिरोध को सत्ता के भूलभुलैया में फंसाने और उसे नेतृत्वहीन कर देने का पूरा प्रयास चल रहा है.प्रसिद्ध चिंतक आचार्य नरेन्द्र देव ने कहीं लिखा भी है कि जब कोई राजनैतिक दल सत्ता प्राप्त कर लेता है तो सबसे पहले वह उन संघर्षशील तत्वों को समाप्त करने का प्रयास करता है जिन्होंने उसकी सत्ता प्राप्ति में सहायता की हो। इसलिए अंग्रेजों के चले जाने के बाद सत्ताधारी तत्वों को छात्र आन्दोलन बेमाइने लगने लगा, और अब तरह-तरह के प्रतिबंध लगा कर छात्र प्रतिरोध को रोकने की कोशिश की जा रही है। इस तरह की शिक्षा नीति का विस्तार हो रहा है जिससे की छात्रों के प्रतिरोध की क्षमता को समाप्त किया जा सके। 1990 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से ही हमारे शिक्षा नीति में व्यापक बदलाव किए जा रहे हैं विश्वविद्यालयों से माविकी पाठ्यक्रमों के स्वरूप को बदला जा रहा है और इसकी जगह व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है । जानबूझ कर पाठ्यक्रमों के स्वरूप को इस कदर जटिल बनाया जाता है कि छात्रों को कहीं और ध्यान देने का मौका ही नहीं मिले । अपने विषय में ही उलझे रहने के कारण छात्रों को यह तक जानने का मौका नहीं मिल पता है कि उनके समाज में क्या हो रहा है । इनकी दुनिया को पढ़ाई और प्लेसमेंट तक सीमित कर दिया जा रहा है। बीते दो दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण व व्यवसायीकरण का बोलबाला हो गया है। यदि आपके पास पैसा है तो हर प्रकार की डिग्रियां मिल सकती हैं, यदि पैसे नहीं हैं तो बैंक से कर्ज की व्यवस्था है। यानी कि शिक्षा के इन दुकानदारों का मुनाफा जारी रहेगा। अब तो शिक्षा को घोषित रूप से मुनाफे का धंधा मान लिया गया है। उद्योगपतियों की ओर से सरकार को सौंपी गई बिरला-अम्बानी रिपोर्ट इसका नायाब उदाहरण है। सरकार इनको मुफ्त जमीन उपलब्ध कराती है, सुविधाएं देती है और ये लोगों की जेबों से लाखों की उगाही करते हैं। शिक्षा अमीरों के लिए पैसे कमाने नायाब व्यवसाय चुकी है। वास्तव में भारत की शिक्षा नीति पूरी तरह अमेरिकी अर्थव्यावस्था को ध्यान मे रख कर बन रही है । वहाँ किस तरह के प्रोफेसनल्स की आवश्यकता है , कौन सी नई इंडस्ट्री विकास कर रही है, उसमें किस तरह के रोजगार की संभावना है । उसके आधार पर हमारे यहां के संस्थानों में पाठ्यक्रमों की शुरुवात की जाती है। अभी पिछले दिनों ही हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री ने घोषणा की कि अगले दस वर्षों में अमेरिका में एसे प्रोफेसनल्स कि मांग होगी जो तकनीकी रूप से दक्ष होंगे। और शुरू हो गई कोशिश। हाल ही में प्रस्तावित विदेशी शैक्षणिक संस्थागत नियामक विधेयक 2010 का बचाव करते हुए पिछले दिनों एक टेलीविजन चैनल पर करण थापर को साक्षात्कार देते वक्त सिब्बल ने अपने शिक्षा सुधारों को 1990 के दशक के शुरुआत के आर्थिक सुधारों से जोड़ा। उन्होंने कहा कि प्रस्तावित विदेशी शिक्षा बिल का विरोध उन्हीं खेमों की तरफ से हो रहा है जो 1991 में आर्थिक उदारीकरण की आलोचना में जुटे थे। देखिए आज भारत कहां खडा है। सिब्बल समझाते हुए कहते हैं कि आज जिस चीज की आलोचना की जा nरही है वहीं आने वाले समय में हमारे लिए फायदेमंद होगी। ये व्यवस्था कितनी फायदेमंद होगी इस पर सोचने की जरूरत है। ये शिक्षा नीति छात्रों को बेशक रोजगार दिला दे लेकिन छात्रों से उनके सोचने-समझने की क्षमता छीन रही है। छात्रों की सामाजिक चेतना प्रभावित हो रही है। जिन युवाओं के बल पर हम एक भ्रष्टाचार मुक्त लोकतान्त्रिक समाज का निर्माण करना चाहते हैं उन्हें सरकार एक ऐसा मशीन बनाना चाहती है जो किसी रिमोट के इशारे पर काम करें । सरकार उस कैंपस संस्कृति को ख़त्म करना चाहती है जहाँ से समाज में घटने वाली हर घटना के ऊपर प्रतिक्रिया होती है, जहां से सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की शुरुआत होती है । इसीलिए प्रोफेसनल्स पैदा करने के नाम पर सरकार इस तरह की शिक्षा नीति को लागू करने का प्रयास कर रही है। ताकी संस्थानों से ऐसे छात्र पैदा किए जा सके जो पूरी तरह से प्रोफेसनल हों । जिन्हें सामाजिक सरोकारों की कोई फिक्र न हो । जो बस अपने ही धुन में खोये रहें और सरकार बड़ी ही आसानी से अपनी बजारवादी नीतियाँ लागू करती रहे ।

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