29 जून 2011

बदला रेतघड़ी के संग सिनेमा

- देवाशीष प्रसून
साहित्य और कलाएँ अपने समय, समाज और संस्कृति की तमाम अभिव्यक्तियों का ख़ूबसूरत जरिया होती हैं। कोई भी कलाकार अपनी कलाकृतियों के जरिए अपने समय के द्वंद्वों, लोगों की आकांक्षाओं और सांस्कृतिक उथल-पुथल को उकेरने की कोशिश भर करता है। साहित्य, संगीत, नृत्य, नाट्य, मूर्तिकला, चित्रकला आदि-आदि इन कलाओं की चाहे एक लंबी-चौड़ी सूची बन जाए, फिर भी मूलतः ये सारी की सारी कलाएँ अपने समय में व्याप्त तमाम तरह के अंतर्द्वंद्वों का अनेक ऊपायों से इज़हार करने का बस एक तरीक़ा हैं।

सिनेमा अपने स्वरूप और बनावट में कोई एक खास कला नहीं है, बल्कि विभिन्न कलाओं से सिंचित एक बहु-आयामी और जटिल संयोग है। साथ ही, बदलते समय के ढर्रे पर सिनेमा का बदलना अन्य कलाओं के बनिस्पत अधिक तेज़ और बारंबार घटने वाली बात रही है। अपने समय से चूका हुआ सिनेमा आम दर्शकों को पल के लिए भी नागवार गुज़रता है। यहाँ समय से चूकने से मतलब फिल्म निर्माण में तकनीकों का इस्तेमाल, भाषा का प्रवाह और दृश्य संयोजन की शैली आदि का नए ज़मानों के दर्शकों के सौंदर्यबोध के दायरे से बाहर होना है। फिल्मों की सफलता के लिए ज़रूरी है कि कला के तमाम पक्षों के साथ-साथ फिल्मों की अंदाज़-ए-बयानी अपने समय के हामी बनी रहे। कोई कला का पारखी व्यक्ति या अध्येता अपने समय से इतर के सिनेमा का आनंद ले सकता है, लेकिन खालिस मनोरंजन के लिए फिल्में देखने गया औसत समझदारी वाले एक दर्शक के लिए वह सिनेमा उबाऊ हो सकती है, जिसकी भाषा, तकनीक और दृश्यों को वह समझ नहीं पा रहा हो, याने वह उसके समय के अनुरूप संप्रेषण नहीं कर रही हो। शरतचंद के उपन्यास देवदास पर हिंदी में तीन फिल्में बनी, तीनों को दर्शकों ने ख़ूब सराहा। लेकिन खास बात यह कि तीनों देवदास का फॉरमेट अपने-अपने समय के अनुसार अलग-अलग था, जिस कारण से एक ही कहानी बार-बार दर्शकों के सामने आने पर भी वह पसंद की गई और उसकी जीवंतता बनी रही। ऐसा ही कुछ फिल्म डॉन के साथ भी हुआ। कई और भी उदाहरण हैं।

समय के साथ बदलते सिनेमा को समझने और इनके कारकों की पड़ताल करने का एक आसान तरीका हिंदी सिनेमा के इतिहास को गहराई से देखना हो सकता है। इस बात को कुछ उदाहरणों से परखा जा सकता है।


अलग-अलग समयों में हिंदी सिनेमा

कुछ पुरानी यादों से ही बात शुरू करें। 1957 में फिल्म निर्देशन के कारोबार से जुड़े ऋषिकेश मुखर्जी अपने समय के बेहतरीन फिल्म निर्देशक रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान हिंदी सिनेमा के फेहरिस्त में एक से बढ़कर एक उम्दा फिल्मों को दर्ज किया। चाहे उनका शुरूआती दौर रहा हो, जब वह राज कपूर को लेकर अनाड़ी बनाते हैं, बलराज साहनी के साथ उनकी फिल्म अनुराधा आती है और देव आनंद अभिनित असली-नक़ली रिलीज होती है। इसी दौरान वह गुरू दत्त को फिल्म सांझ और सवेरा में फिल्माते हैं और धर्मेंद्र और शर्मिला टैंगोर को लेकर बनी उनकी फिल्म सत्यकाम भी आती है। सुनील दत्त की गबन या अशोक कुमार अभिनित आशीर्वाद जैसी फिल्मों को भी ऋषि दा उसी वक्त दर्शकों के सामने ले कर आते हैं। इन सभी एक खास तरह की संज़ीदा फिल्मों को उस समय के दर्शकों ने ख़ूब सराहा। पर फिर उन्होंने बदलते समय के नब्ज़ को पहचाना, जब देश में आज़ादी का उत्साह ठंडा पड़ने लगा था, नेहरू का समय जा चुका है और नई पीढ़ी के पास एक नया समाज बनाने का काम जस का तस पड़ा है। ऋषि दा ने समय की सच्चाईयों को पहचाना और इसलिए उनके सिनेमा में भी एक गज़ब का बदलाव देखा गया, जिसमें संज़ीदगी सिर्फ़ कहानी के मूल भाव में दिखती है और अंदाज़-ए-बयां पूरी तरह से हास्य-विनोद के रस में डूबा मिलता है। उनके ऐसी फिल्मों का अगला दौर था- आनंद, गुड्डी, बावर्ची, अभिमान, नमक हराम, चुपके-चुपके, मिली, गोलमाल, ख़ूबसूरत, नरम-गरम और रंग-बिरंगी का। कहानियों में नयापन और ताज़गी थी। नए-नए उभरते मध्यम वर्गीय परिवार और इससे बावस्ता एक बदलते हुए समाज में परंपराओं में चले आ रहे मूल्यों में से क्या कुछ संजोया जाए और किन-किन रूढ़ियों को झिड़क दिया जाए, इन्हीं कशमकश से जूझती ऋषि दा की ये फिल्में अपने समय और समाज का आईना बन जाती हैं। लेकिन फिर क्या हुआ कि सन बिरासी-तेरासी के बाद से यह माहिर फिल्म निर्देशक चूक गया। उनकी लगभग हर फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। मामला साफ था कि बदलते समय के अनुसार वह खुद को ढाल नहीं पाए। ऐसा सिर्फ ऋषिकेश मुखर्जी के साथ नहीं हुआ। देव आनंद के पूरे करियर में भी लगभग ऐसा ही कुछ चला जो साफ-साफ हर किसी को दिखता है। देव आनंद की कंपनी नवकेतन ने सन पचास से तिहत्तर के बीच हिंदी सिनेमा को बाज़ी, फंटूश, कालापानी, काला बाज़ार, हम दोनों, तेरे घर के सामने, गाइड, प्रेम पुजारी, तेरे मेरे सपने, हरे रामा हरे कृष्णा और हीरा पन्ना सरीखे कई लाज़बाव व हिट फिल्में दी, लेकिन सन तिहत्तर के बाद से नवकेतन की फिल्में लगातार फ्लॉप होती रही। कारण वही था, देव की बाद की फिल्मों ने अपने समय के लोगों तक संवाद करना बंद कर दिया था। जाहिर सी बात है कि ऋषिकेश या देव की तरह के दिग्गज निर्माता या निर्देशक जो एक समय में अपने काम में माहिर रहे थे लेकिन समय के बहाव के अनुरूप अपने फिल्मों का रुख तय नहीं कर पाने के कारण अगले समय के लोगों ने उनकी फिल्मों को ख़ारिज़ कर दिया।

ऐतिहासिक तौर पर हिंदी सिनेमा में होने वाले बदलावों को दूसरे नज़रिए से भी देखा जा सकता है। देश के राजनीतिक फेरबदल को केंद्र में रखकर देखें तो मामला बिल्कुल साफ हो जाएगा कि हर समय में बदलते सियासी माहौल ने सिनेमा को किस क़दर प्रभावित किया है। बरतानी हुक़ुमत के दौरान जो ज्यादाकर फिल्में आयीं, उसने या तो समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया, या नहीं तो उसके केंद्र में धार्मिक कथाएँ और मिथकीय फंतासियाँ रहीं। प्रतिनिधि के तौर पर देखिए कि 1931 की बनी हिंदी की पहली बोलती फिल्म आलम आरा किसी पौराणिक व काल्पनिक राजा-रानी की कहानी है, लेकिन फिल्म के निहितार्थ सत्ता के अंतर्विरोधों को ही दर्शाते हैं, जो मूल रूप से बरतानी सरकार के छत्रछाया में पर रहे राजे-रजवाड़ों पर एक सांकेतिक हमला था। इस तरह की फिल्में उस समय के लोगों की पसंद तो थी ही पर इससे अहम बात यह थी कि इन फिल्मों का केंद्रीय चरित्र तत्कालीन मौजूदा राजशाही और उसके अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक उत्पाद था। आलम आरा ही क्यों, उस दौर की अछूत कन्या, देवदास, जीवन नैया, दुनिया न माने, किसान कन्या जैसी और अन्य फिल्में भी इसका नमूना हैं। प्रेम विषयक फिल्मों का बोलबाला सिनेजगत में हमेशा रहा, लेकिन फिर भी अलग अलग समय में प्रेम को भी फिल्मों ने अलग अलग तरीके से दिखाया और परिभाषित किया है। मसलन फौरी तौर पर आलम आरा भी एक प्रेम कहानी है, पर इसका अंदाज़-ए-बयां या जिसे ट्रीटमेंट कहते हैं, आज के प्रेम कथाओं से कितना अलग और कभी-कभी तो कुछ मामलों में परस्पर विरोधी भी दिखता है।

आज़ादी के बाद से सन सत्तर तक एक दूसरा दौर था, जिसमें एक आज़ाद मुल्क़ अपने आप को राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सतहों पर गढ़ रहा था। इस गढ़न में फिल्में भी अपना योगदान कर रही थीं। इस दौर की फिल्मों में तकनीकी स्तर पर लोगों के पसंद को और ज़हीन बनाया था। इस दौर की क़ाबिल-ए-ग़ौर फिल्में रहीं- दो बीघा ज़मीन, बूट पॉलिश, जागृति, झनक झनक पायल बाजे, मदर इंडिया, मधुमति, सुजाता, मुग़ल-ए-आज़म, जिस देश में गंगा बहती है, साहब, बीबी और ग़ुलाम, बंदिनी, दोस्ती, हिमालय की गोद में, गाइड, उपकार, ब्रह्मचारी, अराधना, खिलौना, आनंद, बेईमान, अनुराग और रजनीगंधा। यह उस दौर की सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्में थीं। इन फिल्मों ने कहानी, तकनीक, संगीत, कथ्य के स्तर पर कहें तो कुल मिलाकर हिंदी सिनेमा को एक आकार प्रदान किया। ज़रा कल्पना किजीए, अगर आर्देशिर ईरानी सत्तर के दशक में जब गज़ब की तकनीकी समझदारी के साथ फिल्में बन रही थी तब आलम आरा को बिल्कुल वैसे बनाते जैसे उन्होंने सन ’31 में बनाई थी तो नए सौंदर्यबोध वाले दर्शकों में से कौन होता जो पुरानी तकनीकी से बनी फिल्म देखने के लिए अधन्नी खर्च करता। शायद कोई नहीं। बहरहाल, बात का सिलसिला आगे बढ़ाते है तो दिखता है कि सन सत्तर के बाद से हिंदी सिनेमा में एक समांतर धारा बहती है, जो व्यवस्था के विरुद्ध सवाल उठाना शुरू करती है। हिंदी फिल्मों के इतिहाल में बड़ा परिवर्तन सन ‘90 – ’91 के बाद से दिखना शुरू होता है।


भारत का खुलता बाज़ार और सिनेमा

भारत में सन ’91 के बाद समाज के कई पहलूओं में अमूलचूल बदलाव आए। कारण था देश का आर्थिक उदारीकरण। सन ’47 के बाद से अब तक भारत का बाज़ार सरकार के नियंत्रण में था। इसका मतलब यह है कि विदेश से कौन सी चीजें, कितनी मात्रा में आयातित करनी है और कौन सी चीजें बिल्कुल नहीं आयातित करनी है, यह सरकार तय करती थी। भारतीय अर्थव्यवस्था का अपने आप में स्वतंत्र इकाई थी और बाज़ारों पर सरकार का बहुत हद तक नियंत्रण था। लेकिन, सन ‘91 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत की अर्थव्यवथा को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया। यह भारत में बाज़ार के उदारीकरण और अर्थव्यवस्शा के वैश्वीकरण की शुरूआत थी। इसका राजनीति, समाज, संस्कृति और जनमानस पर दूरगामी और गहरा छाप पड़ा, जिसका परावर्तन स्वतः ही हिंदी फिल्मों में देखने को मिलता है।

सन ’92 में खास यह हुआ कि भारत में पहली बार भारत में विदेशी टेलीवीज़न चाइनलों का प्रवेश हुआ। यह अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के नतीज़न प्रसारण नीतियों में आए बदलावों के कारण संभव हुआ। सबसे पहले भारत में लोगों को रुपर्ट मर्डोक की कंपनी स्टार टीवी नेटवर्क के स्टार प्लस, स्टार मूवीज़ और एमटीवी आदि से साबिका पड़ा। कालांतर में इन विदेशी चाइनलों ने बड़े ज़ोर शोर और योजनाबद्ध तरीक़े से लोगों के पसंद को प्रभावित करने का काम किया। इन्हीं चाइनलों के साथ आया ज़ीटीवी भी दर्शकों के मन में एक अलग और उदारीकरण का हमराही टेस्ट विकसित कर रहा था। उपभोक्तावादी समाज बनाने की क़वायद इन चाइनलों का मुख्य एजेंडा थी, यह बात समझ में आती है। हॉलीवुड की फिल्में पहले जहाँ सरकारी छन्नियों से छन कर भारतीय दर्शकों तक पहुँचती थीं, वहीं अब इन विदेशी चाइनलों ने हॉलीवुड के फिल्मों की बाढ़ सी ला दी थी। और तो और, नक़ली विडियो कसैट की आसान और प्रचुर उपलब्धता ने भी भारतीय जनमानस को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। हॉलीवुड की फिल्मों का भारतीय सिनेदर्शकों और सिनेबाज़ार पर ख़ासा असर तो पड़ा ही, साथ ही, हॉलीवुड की फिल्मों की सफलता के वशीभूत होकर बॉलीवुड में भी विदेशी तकनीकों और दृश्य संयोजन की अनुकरण शुरू हो गया।

इन सबके साथ बदलते समय के साथ लोगों के पसंद का बदलना और इस कारण हिंदी सिमेना का बदलने में जो एक बड़ा कारण था, वह था भारतीय मध्यवर्ग का निर्माण और विस्तार। भारत में उदारीकरण के मद्देनज़र ऐसे लोगों का एक वर्ग तैयार हुआ, जिनके खीसे में लाखों-करोड़ों की रक़म और मन में अरबों-खरबों रुपए का सपना था। ऐसा ही एक विशाल आयवर्ग हिंदी सिनेदर्शकों का लक्षित दर्शक बना, क्योंकि इनके पास पूँजीवादी उत्पादन तंत्र, जिसका वे अंग है, से स्वभाविक रूप से उपजने वाले जीवन के उबाऊपन से उबरने के लिए एक सपने की ज़रूरत थी। यह सपना दिखाने का काम सिनेमा कर रहा था। सन ’91 के बाद आई फिल्मों के चरित्र पर ग़ौर करें तो यह बात और स्पष्ट हो जाएगी।

चाहे जो जीता वही सिकंदर हो या हम हैं राही प्यार के या बाज़ीग़र, इन फिल्मों में कई सपने हैं, भारतीय मध्यवर्ग की जो और अधिक जीतना चाहता है। जीत को ज़िंदगी का रूप में परिभाषित करती हैं, इस समय की हिंदी फिल्में। सच्चाई, प्रेम, ईमानदारी और नैतिकता जैसे मानवीय मूल्य इस जीतने की प्रबल इच्छा के बाद दिखते हैं। उस समय की सबसे पसंद की गई सन ’94 की फिल्म हम आपके हैं कौन...! सन ’82 की सुपरहिट फिल्म नदिया के पार का रिमेक थी। दोनों फिल्मों का एक ही निर्माता कंपनी ने बनाई थी। पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि कहानी में समय के अनुसार फेरबदल किए गए, गो कि नदिया के पार जहाँ मध्यवर्ग किसान परिवार की कहानी है तो हम आपके हैं कौन...! एक अमीर उद्योगपति परिवार की कहानी। आप तकनीक के स्तर पर हम आपके हैं कौन...! में एक भव्यता का एहसास कर सकते हैं, जो हम आपके हैं कौन...! के समय को परिभाषित करता है।

सन ’97 तक यह भव्यता और अभिजात्यता दिल तो पागल है में और आगे चल कर कुछ कुछ होता है, कभी खुशी कभी ग़म आदि महंगी बजट या प्रवासी भारतीयों पर बनी फिल्मों में अधिक गहरी होती दिखाई देती है। यही सिलसिला धीरे-धीरे और गहराते जाता है और आज के फिल्मों का चेहरा तैयार होता हो। एक ख़ास बात यह है कि आज का हिंदी सिनेमा उदारीकरण के तुरंत बाद वाला सिनेमा नहीं है, जिसमें तकनीकों का अंधानुकरण दिखता है, बल्कि आज हिंदी सिनेमा में अंतर्वस्तु के स्तर पर भी परिपक्वता देखी जा सकती है। इसका उदाहरण, हम तुम, ब्लैक, बंटी और बबली, पेज़ थ्री, लगे रहो मुन्नाभाई, चक दे इंडिया, जब वी मेट, तारे ज़मीन पर और थ्री इडिएट जैसी हिंदी फिल्में हैं। कुल मिला कर इन सब कारकों ने मिलकर हिंदी सिनेदर्शक के टेस्ट में पहले के बरअक्स बहुत बदलाव लाए हैं और अब हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद वैश्विक हो गया है। एक साथ कई संस्कृतियों की फिल्मों तक उसकी पहुँच है। वह कई तरह के सिनेमा को समझने का माद्दा रखता है। उसके पसंद का बहुत फलक चौड़ा हुआ है।

बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है और हिंदी सिनेमा की कहानी में बदलता हुआ बहुत कुछ है, जो अभी कहना बाकी है। यह सिलसिला फिर कभी आगे बढ़ाएंगे...


अहा! ज़िंदगी सिनेमा विशेषांक (जून 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें-
अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)

25 जून 2011

राष्ट्रपति के बयान पर माओवादी पार्टी की प्रेस विज्ञप्ति.

कल छत्तीसगढ़ की विधान सभा को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने माओवादियों से हिंसा का रास्ता छोड़ने को कहा जिसके जबाब में माओवादी पार्टी द्वारा यह प्रेस विज्ञप्ति मेल से प्राप्त हुई है जिस हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं.

अपने रायपुर प्रवास के दौरान राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा पाटिल ने आज, यानी 24 जून 2011 को हमारे सामने यह प्रस्ताव रखा है कि ‘माओवादी हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आएं और मुख्य धारा से जुड़ जाएं ताकि आदिवासियों के विकास में शामिल हुआ जा सकें’। राष्ट्रपति का प्रस्ताव ऐसे समय सामने आया है जबकि भारतीय सेना के करीब एक हजार जवान बस्तर क्षेत्र के तीन जिलों में अपना पड़ाव डाल चुके हैं ताकि देश की निर्धनतम जनता पर जारी अन्यायपूर्ण युद्ध - ऑपरेशन गी्रनहंट में शिरकत कर सकें। वे ऐसे वक्त ‘वार्ता’ की बात कह रही हैं जबकि खनिज सम्पदा से भरपूर देश के कई इलाकों से प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बाबत् सरकारों और कार्पोरेट कम्पनियों के बीच वार्ता के कई दौर पूरे हो चुके हैं और लाखों करोड़ रुपए के एमओयू पर दस्तखत किए जा चुके हैं। वे ‘वार्ता’ की बात तब कह रही हैं जबकि बस्तर क्षेत्र में 750 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र, जिसके दायरे में दर्जनों गांव और हजारों माड़िया आदिवासी आते हैं, सेना के हवाले करने का फैसला बिना किसी वार्ता के ही लिया जा चुका है।
देश की ये सर्वप्रथम महिला राष्ट्रपति हमें ऐसे समय हिंसा छोड़ने की हिदायत दे रही हैं जबकि इसी छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी छोर पर स्थित ताड़िमेट्ला, मोरपल्ली, पुलानपाड़ और तिम्मापुरम गांवों में सरकारी सशस्त्र बलों के हाथों बलात्कार और मारपीट की शिकार महिलाओं के शरीर पर हुए जख्म भरे ही नहीं। वे ऐसे समय हमें हिंसा त्यागने की बात कह रही हैं जबकि न सिर्फ इन गांवों में, बल्कि दण्डकारण्य, बिहार-झारखण्ड, ओड़िशा, महाराष्ट्र, आदि कई प्रदेशों में, खासकर माओवादी संघर्ष वाले इलाकों या आदिवासी इलाकों में सरकारी हिंसा रोजमर्रा की सच्चाई है। दरअसल सरकारी हिंसा एक ऐसा बहुरूपिया है जो अलग-अलग समय में विभिन्न रूप धारण कर लेता है। जैसे कि अगर आज का ही उदाहरण लिया जाए, तो रातोंरात मिट्टी तेल पर 2 रुपए, डीज़िल पर 3 रुपए और रसोई गैस पर 50 रुपए का दाम बढ़ाकर गरीब व मध्यम तबकों की जनता की कमर तोड़ देने के रूप में भी होती है जो पहले से महंगाई की मार से कराह रही थी। लेकिन राष्ट्रपति को इस ‘हिंसा’ से कोई एतराज नहीं!
भारत की यह प्रथम नागरिक हमें उस ‘मुख्यधारा’ में लौटने को कह रही हैं जिसमें कि उस तथाकथित मुख्यधारा के ‘महानायकों’ - घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, कार्पोरेट दैत्यों और उनके दलालों के खिलाफ दिल्ली से लेकर गांव-कस्बों के गली-कूचों तक जनता थूं-थूं कर रही है। वो ऐसी ‘मुख्यधारा’ में हमें बुला रही हैं जिसमें मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि के लिए अन्याय, अत्याचार और अपमान के अलावा कुछ नहीं बचा है।
और श्रीमति प्रतिभा पाटिल हमें उस पृष्ठभूमि में वार्ता के लिए आमंत्रित कर रही हैं जबकि ऐसी ही एक पेशकश पर हमारी पार्टी की प्रतिक्रिया सरकार के सामने रखने वाले हमारी पार्टी के प्रवक्ता और पोलिटब्यूरो सदस्य कॉमरेड आजाद की हत्या इसी सरकार ने एक फर्जी झड़प में की थी। इत्तेफाक से उनकी शहादत की सालगिरह ठीक एक हफ्ता बाद है जबकि साल भर पहले करीब-करीब इन्हीं दिनों में चिदम्बरम और उनका हत्यारा खुफिया-पुलिस गिरोह उनकी हत्या की साजिश को अंतिम रूप दे रहे थे। कॉमरेड आजाद ने वार्ता पर हमारी पार्टी के दृष्टिकोण को साफ तौर पर देश-दुनिया के सामने रखा था और उसका जवाब उनकी हत्या करके दिया था आपकी क्रूर राज्यसत्ता ने। और उसके बाद भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पकड़कर जेलों में कैद करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है।
60-70 साल पार कर चुके वयोवृद्ध माओवादी नेताओ ं को जेलों में न सिर्फ अमानवीय यातनाएं दी जा रही हैं, बल्कि उन्हें बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से भी वंचित रखकर प्रताड़ित किया जा रहा है। उन पर 10-10 या 15-15 राज्यों के झूठे केस लगाए जा रहे हैं ताकि ताउम्र उन्हें जेल की कालकोठरियों में बंद रखा जा सके।
इसलिए, देश की जनता से हमारा आग्रहपूर्वक निवेदन है कि - आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘शांति वार्ता’ की पेशकश करने से पहले उनकी सरकार जनता पर जारी युद्ध - ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद करे; बस्तर में सेना का ‘प्रशिक्षण’ बंद करे; और तमाम माओवाद-प्रभावित इलाकों से सेना व अर्धसैनिक बलों को वापस ले। अगर सरकार इसके लिए तैयार होती है तो दूसरे ही दिन से जनता की ओर से आत्मरक्षा में की जा रही जवाबी हिंसा थम जाएगी।
आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘विकास’ की बात करने से पहले उनकी सरकार कार्पोरेट घरानों और सरकारों के बीच हुए तमाम एमओयू रद्द करे। बलपूर्वक जमीन अधिग्रहण की सारी परियोजनाओं को फौरन रोके; उनकी सरकार यह मान ले कि जनता को ही यह तय करने का अधिकार होगा कि उसे किस किस्म का ‘विकास’ चाहिए।
आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘मुख्यधारा’ में जुड़ने की बात करने से पहले सरकार सभी घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों को गिरफतार कर सजा दे। विदेशी बैंकों में मौजूद सारा काला धन वापस लाए। घोटालों और अवैध कमाई में लिप्त तमाम मंत्रियों और नेताओं को पदों से हटाकर सरेआम सजा दे।
(अभय)
प्रवक्ता
केन्द्रीय कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)

21 जून 2011

बीबीसी हिंदी के संवाददाता सलमान रावी को एक माओवादी का खुला खत

यह पत्र हमे मेल के जरिए प्राप्त हुआ एक लम्बे वक्त तक इन्टरनेट से दूर होने के कारण यह खत देर से प्रकाशित हो सका। माडरेटर

प्रिय सलमान रावी,
लाल सलाम।
बीबीसी में 18 और 19 मई को लगातार प्रसारित आपकी दो रिपोर्टें सुनने के बाद मैं खुद को यह खत लिखने से रोक नहीं पा रहा हूं। जाहिर है ये दोनों ही रिपोर्टें सलवा जुडूम और एसपीओ के बारे में थीं। आपने उनकी समस्याओं और उनके दिलों को हुए जख्मोंका बड़ी संजीदगी के साथ जिक्र किया। उनकी तनख्वाहों और तकलीफों का काफी संवेदना के साथ बयान किया। आमतौर पर मीडिया और पत्राकारिता को लेकर यह बताया जाता है कि पत्रकारों को दोनों पक्षों के बारे में लिखना चाहिए। निष्पक्षऔर तटस्थहोना चाहिए जिसकी आप और आपकी बीबीसी हर दूसरे दिन ढिंढ़ोरा पीटते हैं। लेकिन आपकी इन दो रिपोर्टों ने - बाकी को अगर छोड़ भी दें तो - साफ तौर पर साबित कर दिया कि आपके ये दावे कितने खोखले हैं। पर इसकी चर्चा से पहले कुछ और बातें की जाएं।
सलवा जुडूम के बारे में अब यह स्थापित हो चुका है कि यह कुछ और नहीं था बल्कि सरकार द्वारा खड़ा किया गया एक आतंकी अभियान था। केन्द्र व राज्य सरकारों ने - यानी केन्द्रीय गृह मंत्रालय, सेना व पुलिस के आला अधिकारियों ने साझे तौर पर इसकी योजना बनाई थी। इसके लिए लोगों को अलग-अलग तरीके से इकट्ठा कर गिरोह बनाए गए थे। इन गिरोहों से पैदा हुए एसपीओ और कोया कमाण्डो को बाकायदा प्रशिक्षित किया गया ताकि विद्रोह- विरोधी कार्रवाहयों (counter-insurgency operations) में इन्हें कारगर ढंग से आजमाया जा सके। इनके साथ सुविधा यह है कि इन्हें एक साथ कई मोर्चों पर लगाया जा सकता है और इन्हें अनेक नामों से बुलाया जा सकता है। पत्रकारों को रुकवाना है या स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों पर अंडे फिकवाना है तो इन्हें सलवा जुडूमआंदोलनसे जुड़े हुए लोगों के रूप में पेश किया जा सकता है। किसी माओवादी कैम्प या दस्ते पर हमला करना है तो इन्हें बहादुर कोया कमाण्डोके रूप में पेश किया जा सकता है। और आदिवासियों की हत्या, बलात्कार, गांव-दहन आदि करतूतों को मुख्य रूप से इन्हीं लोगों के जरिए अंजाम दिलवाना कई मायनों में सरकार के लिए सुविधाजनक होगा। मैं नहीं समझता कि इन सभी पहलुओं से आप वाकिफ नहीं होंगे।
जब राजसत्ता ने लोकतंत्रका चोला ओढ़ रखा हो, ऐसे में जनसंघर्षों का दमन करने में उसके सामने कुछ पेचीदगियां होती हैं। उसे अलग-अलग संगठनों को सामने लाने पर मजबूर होना पड़ता है ताकि अपने दमनकारी व तानाशाहाना चेहरे को ढंक दिया जा सके। कभी-कभी अपने दूसरे अंगों, जैसे कि अदालतों या अन्य आयोगों के द्वारा उसके सामने मुश्किलें खड़ी की जाती हैं क्योंकि सभी अंगों पर लोकतंत्र का दिखावा करने का दबाव रहता है। इसलिए शासक वर्ग सलवा जुडूम को लाते भी हैं और किसी परिस्थिति में उससे मुकर भी जाते हैं। फिर उसे दण्डकारण्य शांति संघर्ष मोर्चाका नाम देते हैं या फिर मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंचया बस्तर स्वाभिमान मंचका नाम दे देते हैं। उदाहरण के लिए चिंतलनार काण्ड में कोया कमाण्डो और एसपीओ को आगे किया गया। और उन्होंने इस सच्चाई को सफाई के साथ छुपा दिया है कि दरअसल इसकी योजना केन्द्रीय गृहमंत्रालय के निर्देश पर बनाई गई थी और इसे रमनसिंह, विश्वरंजन व लांगकुमेर के मार्गदर्शन में एसएसपी कल्लूरी के हाथों अंजाम दिलवाया गया था। जनता को हमेशा भ्रम की स्थिति में रखना इनका मकसद होता है ताकि व्यवस्था पर लोकतंत्रका मुखौटा बने रहे। फिर मामला जब तूल पकड़नेलगता है तो राजसत्ता तुरंत ही अपने दूसरे अंगों को मोर्चे पर लगा देती है जैसा कि चिंतलनार की घटना में कलेक्टर और कमिशनर को उतारा गया और बाद में जांच के लिए एक आयोग का गठन किया गया। यह सारी कवायद वह इसलिए करती है ताकि मामले को ठण्डाकिया जा सके और अपने लोकतंत्रका मखौल उड़ने से बचाया जा सके।
सलवा जुडूम कुछ और नहीं था, बल्कि मछलियों को पकड़ने के लिए तालाब से पानी खाली करवानेकी दरिंदगी भरी नीति थी, जिसका केन्द्र बिंदु आदिवासियों को उनके रिहायशी इलाकों से, जहां वे हजारों सालों से रहते आ रहे हैं, बाहर निकालकर रणनीतिक बसावटों (strategic hamleting) की योजना के तहत सड़कों के किनारे सरकारी कैम्पों में बसाना था। लेकिन कोई यूं ही आदिवासियों को अपनी जगहों से खदेडा नहीं जा सकता। उपनिवेशकाल से भी अगर देखेंगे तो पाएंगे कि आदिवासी अपने जंगल और जमीन के लिए जान दे सकता है, लेकिन कभी उससे अलग नहीं हो सकता। और वर्तमान संदर्भ में, ये आदिवासी पिछले 25 वर्षों (1980-2005) तक युद्ध से संगठित हो रहे थे। ऐसे में इन्हें जंगलों से खदेड़ना और राहतशिविरों में घसीटना भला कैसे मुमकिन?
मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं ताकि कुछ बुनियादी मामलों पर आपको स्पष्टता दिलाई जा सके। दुनिया के काउंटर इंसर्जेन्सी आज काउंटर टेर्ररिज़्म सिद्धांत को आपने पढ़ा ही होगा। मलया में 1940 के दशक में इसी नीति को लागू किया गया था। उसके बाद भारत के महान तेलंगाना किसान संघर्ष मेंब्रिग्सयोजना के नाम से इसी नीति को लागू किया गया था। और पेरू जैसे कई लातिनी अमेरिकी देशों में भी इसे लागू किया गया था। बस्तर में भी सलवा जुडूम के नाम से इसी नीति को आजमाने की कोशिश की गई ताकि आदिवासियों को जंगलों से खाली करवाया जा सके तथा टाटा, एस्सार वगैरह-वगैरह को बिठाया जा सके। और साथ ही, इसके एवज में रमनसिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल, महेंद्र कर्मा और विश्वरंजन जैसों को हासिल करनी है मोटी दलाली। दुनिया भर में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और भारत के दलाल कार्पोरेट घराने संसाधनों की लूटखसोट के लिए कितने उतावले हैं और मौजूदा वैश्विक संकट के चलते यह उनके लिए कितना जरूरी हो गया, यह बात आप भी जानते हैं।
अब यह सवाल अप्रासंगिक हो चुका है कि सलवा जुडूम एक आंदोलन था या नहीं था। इसके पीछे शोषक शासक वर्गों की रणनीति क्या रही, यह एक बार स्पष्ट कर लेने के बाद अब उसके बाकी पहलुओं को समझना मुश्किल नहीं है। यहां एक तरफ माओवादी और दूसरी तरफ सरकार (मीडिया की भाषा में) या फिर एक तरफ आदिवासी और दूसरी तरफ सरकार जिसके पीछे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आदि - इन्हीं दो खेमों में बंटा हुआ नहीं है सब कुछ। विभिन्न प्रकार के मानवाधिकार संगठन (दोनों सरकारी और गैर-सरकारी) तथाकथित नागरिक समाज, मीडिया आदि-आदि कई दूसरे पहलू हैं इस मसले के। तो क्या दिखलाकर या क्या बताकर इन सभी को चुप किया जा सकता था? या कम से कम इनके विरोध या प्रतिरोध को कम किया जा सकता था? यही सोचकर बड़े सुनियोजित तरीके से यह प्रचार शुरू किया गया था कि बस्तर में माओवादियों की नीतियों से नाराज आदिवासियों ने अपने आपको संगठित कर सलवा जुडूमआंदोलन शुरू किया। बार-बार दोहराकर यह बताया गया था कि माओवादी सड़कें बनाने नहीं देते हैं, तेंदूपत्ता तोड़ने नहीं देते हैं, आदिवासी संस्कृति के साथ छेड़छाड़ करते हैं आदि-आदि। उसके बाद शुरू हुआ बस्तर में एक काला अध्याय जिसकी तुलना में बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। क्योंकि इसमें एक साथ घर जलाए गए। लोगों को काट-काटकर मार डाला गया। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। लोगों की लाशें नदियों में फेंक दी गईं। सम्पत्ति लूटी गई और बाहरी दुनिया को इस बारे में कुछ भी पता चलने नहीं दिया गया। हालांकि, सरकारी हिंसा और भी कई जगहों में हुई थी, लेकिन यहां जिस ढंग से हुई, इसके उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलेंगे। जैसे कि एक ही गांव को एक बार नहीं, बल्कि कई बार किश्तों में जलाया गया। कुछ गांवों पर 30-35 बार तक हमले हुए। हर बार कुछ-कुछ लोगों को मार डाला गया। एक-एक गांव में 2-3 से लेकर 15-20 तक लोगों की हत्या की गई। सिंगारम, गोमपाड़, सिंगनमडुगु, पालाचेलमा, कोतरापाल, मनकेली, हरियाल, ताकिलोड़, ओंगनार और भी दर्जनों गांव ऐसे हैं जहां सरकारी बलों के हाथों मारे जाने वालों की संख्या दस-पंद्रह से ऊपर है। साम, दाम, भेद और दण्ड के सभी हथकण्डे अपनाकर हर बार कुछ परिवारों को शिविरों में ले जाया गया।
लेकिन, जैसा कि इतिहास में कई बार देखा गया, इतनी भारी हिंसा और बर्बरता के बावजूद भी लोगों ने घुटने नहीं टेके। आंदोलन खत्म नहीं हुआ, बल्कि मजबूत हुआ। माओवादी लड़ाकों के हौसले पस्त नहीं हुए, बल्कि वे इस भीषण संग्राम में तपकर फौलाद बन गए। हालांकि इसके दूसरे पहलू भी हैं - कई जवान लड़के (चाहकर भी और न चाहते हुए भी) एसपीओ बन गए और कई लोग एक विकट परिस्थिति में जनता के ऊपर की गई सरकारी हिंसा और अत्याचारों में भागीदार बन गए और वहां से पीछे आने का कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसी मशीनरी (machinery) का हिस्सा बनकर तथाकथित राहत शिविरों में रह गए। कुछ तो पहले से लम्पट किस्म के थे, कुछ ऐसे थे जिन्हें या जिनके परिवार के सदस्यों को क्रांतिकारी संघर्ष के दौरान किसी न किसी रूप से दण्डित किया गया था। कुछ नौजवान ऐसे भी थे जिन्हें दरअसल हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना चाहिए था, जिनके साथ मारपीट कर या जान से मारने की धमकियां देकर जबरन एसपीओ बनाया गया। और इस तरह न चाहते हुए भी वे क्रांति के विरोधी खेमे में चले गए।
बहरहाल, इस तर्क को अब रद्दी के टोकरे में पहुंचा दिया जा चुका है कि माओवादियों कीगलतियोंया ज्यादतियोंके चलते सलवा जुडूम आंदोलनशुरू हुआ था। आप पूछ सकते हैं कि क्या माओवादियों की कोई गलती नहीं रही? क्यों नहीं रहेगी? किसी भी आंदोलन के दौरान गलतियां होना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन गांवों को जलाना, घरों को लूटना, लोगों के शरीर के अंगों को काट-काटकर हत्या करना, महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या - यह सब माओवादियों की किस गलतीको सुधरने के लिए किया गया ? माओवादियों की किन गलतियोंके कारण जनता को ऐसीसजाएंदी गईं? इस आरोप में उतना ही दम है जितना कि बुश की उस दलील में था कि चूंकि इराक के पास मानव संहार के हथियार थे, इसलिए उन्हें हमला करना पड़ा। और इसमें उतनी ही सच्चाई थी जितनी कि उसके उत्तराधिकारी ओबामा के इस दंभ में है कि लीबिया में उन्हें इसलिए बमबारी शुरू करनी पड़ी क्योंकि वहां पर गद्दाफी लोगों को मार रहा था।
और आदिवासी समाज के अंदर सलवा जुडूम से सांस्कृतिक विनाश जिस हद तक हुआ उसका अंदाजा तक लगाना मुश्किल है। एक ही परिवार का एक भाई क्रांतिकारी संघर्ष में है तो दूसरे को किसी न किसी तरीके से एसपीओ बनाया गया। ऐसे कई परिवार हैं। पढ़िए - बी.डी. दमयंती की किताब ’हरी-भरी जिंदगी पर कहर बरपाता राज्य’। तो इसलिए, एसपीओ और कोया कमाण्डो सिर्फ माओवादियोंके दुश्मन नहीं हैं जैसाकि आपने अपनी रिपोर्ट में कहा है। वो पूरे बस्तर के आदिवासी समाज के दुश्मन बने हैं। बस्तर की संस्कृति के दुश्मन बने हैं। कुल मिलाकर बस्तरिया जन जीवन के दुश्मन बने हैं।
हालांकि इसका दूसरा पहलू भी है। एसपीओ के साथ निपटने में क्रांतिकारी आंदोलन की नीति हमेशा वर्गीय दृष्टिकोण पर ही आधरित रही। मजबूरी में जनता के खिलाफ अपराधों में शामिल होने वालों को भी वापस गांवों में आने पर माफ किया गया। कई लोग जो एसपीओ बनकर या राहत शिविर में शामिल होकर प्रति-क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो चुके थे, ऐसे लोगों के भी खेतों, फसलों, मवेशियों और घरों को बचाकर रखा गया और जब वे माफी मांगकर वापस आ गए तो उन्हें उनके सुपुर्द कर दिया गया। कई एसपीओ वापस आ गए और गांवों में पहले जैसा रहने लगे हैं। और एकाध लोग अपनी रायफल के साथ भी भागकर चले आए। सिर्फ कट्टर और जालिम किस्म के एसपीओ के साथ सख्ती से निपटा जा रहा है जोकि जनता के हितों की रक्षा के लिए जरूरी भी है।
आखिरकार सलवा जुडूम पराजित किया गया। इसका श्रेय बुनियादी तौर पर बस्तरिया जनता के प्रतिरोधी संघर्ष को जाता है। और साथ ही जाता है उन तमाम जनवाद पसंदों , प्रगतिशील ताकतों और जनवादी संगठनों को जिन्होंने अपनी जान को जोखिम में डालकर भी अथक प्रयासों और कानूनी लड़ाइयों से सलवा जुडूम के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया। सलवा जुडूम के पराजित होने का मतलब यह है कि वह आज उस रूप में नहीं रहा जैसाकि वह 2005-08 के बीच हुआ करता था। सलवा जुडूम गया, लेकिन उसके द्वारा पैदा किए गए एसपीओ अभी भी हैं, बल्कि उन्हें अब और ज्यादा संगठित और विस्तारित किया गया।
अब फिर मैं आपकी रिपोर्टों की तरफ आता हूं जहां से मैंने इस खत की शुरूआत की। आपने बड़ी संजीदगी के साथ कह दिया है कि एसपीओ की कई समस्याएं हैं। हां जी, हत्यारों की भी समस्याएं जरूर होती हैं ! गुण्डों और बलात्कारियों को भी जरूर कोई न कोई समस्या होगी ही। 2 साल के बच्चे सरकारी सशस्त्र बलों ने 1 अक्टूबर 2009 को गोमपाड़ गांव के दो साल के नन्हे सुरेश की उंगलियां काट दीं और अक्टूबर 2005 में मूकावेल्ली गांव के एक डेढ़ साल के नन्हे बच्चे के सिर में गोली मारी से लेकर 80 साल की बूढ़ी तक को गोली मारकर, गांवों को जलाकर, घरों से मुरगे, बकरों से लेकर जेवर, कपड़े, बरतन तक लूटने वाले डकैतों और दरिंदों की भी समस्याएं होती हैं। समस्याएं सभी की हो सकती हैं। गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम करने वाले बाबू बजरंगी जैसे भाड़े के टट्टुओं को भी समस्याएं होंगी ही। यह आप पर है कि आप उनकी समस्याओं के प्रति कितना इत्तेफाक रखते हैं और कितनी संवेदना दिखाते हैं।
हां, यह बात भी अपनी जगह दुरुस्त है सलमान जी! एसपीओ की भी तनख्वाएं बढ़नी चाहिए! उन्हें भी पक्के मकान मिलने चाहिए! बल्कि उन्हें पुलिस में ले लेना चाहिए! मीडिया के लगातार कवरेज से सरकार भी जरूर इस पर ध्यान देगी। देगी भी क्यों नहीं? आखिर माओवादियों का खात्मा जो करना है। उसके बाद क्या होगा? सलमान जी! आप खुद से सवाल कर लीजिए कि ऐसी रिपोर्टों से क्या आप गुण्डों, हत्यारों, डकैतों और बलात्कारियों कोसुविधओंकी बात तो नहीं कर रहे? जाने या अनजाने में कहीं आप इस बात की हिमायत तो नहीं कर रहे कि उनकी करतूतों में और ज्यादा इजाफा हो? क्या आपको एहसास है कि दोनों पक्षों की रिपोर्टिंगया निष्पक्ष रिपोर्टिंगके फेर में आपने खुद को किस जगह पहुंचा दिया?! आप उन लोगों की समस्याओं और सुविधाओं की चर्चा कर रहे हैं जिन लोगों की नियुक्ति व प्रशिक्षण तथा हथियारबंद कर आदिवासियों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने आपत्ति की और छत्तीसगढ़ सरकार की खिंचाई की?! जरा खुद से पूछ लीजिए कि आप कहां खड़े हैं?
सलमान जी! आपसे हमारा सीधा सवाल है कि क्या आपने अपने करीब एक साल के छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान ऐसे किसी सलवा जुडूम से पीड़ित आदिवासी का कभी इंटरव्यू लिया जिसका घर जलाया गया हो या लूटा गया हो, या फिर जिसका कोई परिवार सदस्य मारा गया हो। चिनारी और ओंगनार गांवों के लोगों की बमुश्किल 10 सेकण्ड वाली एक आडियो क्लिप को को छोड़ दें तो आज तक आपने कभी भी किसी आदिवासी की आवाज अपनी रिपोर्ट में नहीं सुनाई जो सरकारी बलों की बर्बरता का शिकार हुआ हो। क्या आपने किसी ऐसी महिला की आपबीती सुनने की कोशिश की जिसके साथ तथाकथित सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया हो। क्या आपने तिम्मापुरम, मोरपल्ली, ताड़िमेट्ला और पुलानपाड़ के सरकारी हिंसा से पीड़ित लोगों के दिलों में हुए ताजा जख़्मों को छूने की कोशिश की? क्या आपने यह देखने की कोशिश की कि घर जलाए जाने के बाद वे किन हालात में जी रहे हैं? उनकी क्या समस्याएं हैं और क्या परेशानियां हैं, उन्हें खाने को कुछ मिल भी रहा है या नहीं, क्या आपने इसकी रिपोर्ट करने की कोशिश की? जब ताडमेटला और उसके आसपास के ग्रामीणों के शरीर पर हुए गहरे जख्म, दिलों के जख्मों का भरना तो नामुमकिन है भरे तक नहीं, आपका अपनी रिपोर्ट में यह कहना कि सलवा जुडम के कैम्पों में रहने वाले अपने दिलों में कई जख्मों को लिए जी रहे हैं’, क्या बस्तर के दसियों हजार लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना नहीं है?
तटस्थया निष्पक्षरिपोर्टिंग से बड़ा भद्दा मजाक कुछ और नहीं हो सकता। यहां लकीरें साफ तौर पर खींची हुई हैं। एक तरफ बस्तरिया जनता है जो अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए और अपने घरों को, खेतों को, फसलों को और बच्चों को बचाने के लिए लड़ रही है जिसका नेतृत्व माओवादी पार्टी और उसकी सेना पीएलजीए कर रही हैं। दूसरी तरफ सोनिया, मनमोहन, चिदम्बरम, प्रणब मुखर्जी, मोंटेक सिंह, रंगराजन, रमनसिंह, महेंद्र कर्मा, विश्वरंजन, लांगकुमेर, कल्लूरी जैसे लोग हैं जो दरअसल टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल, अम्बानी आदि बड़े कार्पोरेट आकाओं और साम्राज्यवादियों, खासकर अमेरिकी साम्राज्यवादियों के दलाल हैं। पुलिस, अर्धसैनिक, कोबरा, एसटीएफ, कोया, एसपीओ, सलवा जुडूम, शांति संघर्ष मोर्चा, मां दंतेश्वरी स्वाभिमान मंच-चाहे जो भी नाम हो-सभी भाड़े के टट्टू उनकी राज मशीनरी के अलग-अलग पुरजे हैं। इन परस्पर विरोधी खेमों के बीच ऐसी कोई जगह ही नहीं है जिसे तटस्थकहा जा सके और जहां पर खड़े होकर रेफरी का काम किया जा सके।
वैसे ताड़मेटला, चिंतलनार और मोरपल्ली गांवों में उड़ रही राख से भरी धूल और खण्डहरों में तब्दील हुए घरों के बीच खड़े होकर आप क्या निष्पक्षरिपोर्टिंग करेंगे? यही न कि यहां का पूरा इलाका बारूदी सुरंगों से पटा पड़ा हैऔर यहां जाने वाली सड़कों में कदम-कदम पर मौत बिछी हुई है। आप मीडिया वालों को माओवादी हिंसाका शब्द मुंह से निकालने में तनिक भी देर नहीं लगती! लेकिन आंखों के सामने मची बर्बरता को देखने के बाद भी एसपीओ से आप बड़े प्यार से पूछते हैं कि अच्छा, तिम्मापुरम में घरों को कौन जलाया था। जब आपको सरकार द्वारा बरती गई हिंसा पर मजबूरी में कुछ कहना भी पड़ता है तब भी आप बड़ी सावधनी से कथितशब्द जोड़ना नहीं भूलते हैं, जबकि इसके आपके पास पर्याप्त सबूत मौजूद होते हैं, जिसके आधर पर आप साफतौर पर कह सकें कि हां, घरों को कोया कमाण्डो, एसपीओ और कोबरा बलों ने चिदम्बरम, रमनसिंह, शेखर दत्त और विश्वरंजन द्वारा रची गई साजिश के तहत ही जलाया था।
यह रिपोर्ट लिखते-लिखते 26 मई को छत्तीसगढ़ में बारूदी सुरंगों के बारे में भी आपकी रिपोर्ट आ गई रेडियो बीबीसी हिंदी में। और आपने गरियाबंद में मारे गए पुलिस वालों के जनाजे की ही नहीं, बल्कि आपने एक प्रकार से उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्टतक पेश कर दी अपनी रिपोर्ट में, यह कहकर कि लाशों को देखने से ऐसा लगता है कि मरने के बाद माओवादियों द्वारा धरदार हथियारों से काट दिया गया होगा;माओवादियों के कट्टर दुश्मन दैनिक भास्कर तक ने ऐसा लिखने का साहस नहीं किया। मेरा आपसे एक और सीध सवाल है कि क्या आपने ऑपरेशन ग्रीनहंट के दौरान अगस्त 2009 से दिसम्बर 2010 तक सरकारी बलों द्वारा मारे गए 181 बस्तरिया आदिवासियों में से किसी एक की भी लाश के बारे में कभी रिपोर्ट पेश की? छोड़िए, किसी आदिवासी की लाश को अपनी आंखों से देखा?
और जहां तक आपकी बारूदी सुरंग वाली रिपोर्ट का सवाल है, उसमें यह दोहराने के चक्कर में कि यहां कदम-कदम पर बारूदी सुरंगों का खतरा हैआप इस कठोर सच्चाई को पूरी तरह नजरअंदाज कर गए कि दरअसल शोषक शासक वर्गों ने टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल जैसे कार्पोरेट घरानों को यहां आमंत्रित कर बोधघाट, रावघाट जैसी विनाशकारी परियोजनाएं शुरूकर तथा इन्हें बिना किसी विरोध के आगे बढ़ाने की मंशा से पहले सलवा जुडूमऔर बाद में ऑपरेशन ग्रीन हंटशुरू कर बस्तरिया जनता की जिंदगी को पहले से एक महा विस्फोट के मुहाने पर ला खड़ा किया है। किसी चीज के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक पहलुओं की तह तक जाने की कोशिश किए बगैर सतही व सनसनीखेज बातों तक सीमित होना, क्या यही है तटस्थताजिसका दावा बीबीसी बार-बार करती है? जब 20-25 झोंपड़ियों वाले किसी गांव को चारों तरफ से अत्याधुनिक मारक हथियारों से लैस 500 से लेकर 1000-1200 तकसुरक्षाबल घेर लेते हैं जो भी आदमी मिलता है तो उसे मार डालते हैं जहां महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार एक आम बात है, जहां फर्जी मुठभेड़ रोजमर्रे की सच्चाई है घरों में आग लगाना जहां एसपीओ, कोया कमण्डो और सीआरपीएपफ का रूटीन का काम है - ऐसी जगह पर लोगों के पास बचाव के क्या उपाय बचे हैं, जरा हमें बताइए। क्या जनता को आत्मरक्षा करने का अधिकार नहीं है? जरा आप खुद को उस जगह पर खड़े करते हुए एक बार कल्पना कीजिए - क्या ऐसी परिस्थितियों में आप किसी न किसी तरीके से प्रतिरोध करेंगे या नहीं? इसके लिए कोई न कोई औजार या हथियार ढूंढ़ेंगे या नहीं? बस, बस्तर की जनता भी यही कुछ कर रही है। इसी पृष्ठभूमि में बस्तरिया जनता के पास प्रेशर बम’, ‘टिफिन बम’, ‘बूबी ट्रैप’, ‘बारूदी सुरंगआदि अस्त्र-शस्त्र आ गए। किसी इलाके पर कब्जा करने के लिए नहीं, किसी का घर उजाड़ने के लिए नहीं, किसी की जमीन छीनने के लिए नहीं... सिर्फ और सिर्फ अपने आपको जिंदा रखने के लिए उन्हें ये सब इकट्ठा करने पड़ रहे हैं। हालात ने ही जनता को हथियार उठाने और बारूद बिछाने पर मजबूर किया। लेकिन एक बात साफ है। अगर जनता का यह प्रतिरोध, खासकर 2005 से लेकर अभी तक जारी संगठित व सक्रिय प्रतिरोध नहीं रहा, तो यहां आज कुछ भी नहीं बचता। कॉर्पोरेट दैत्यों के विकासबुलडोजर तले पिसकर अब तक आधे बस्तर कब्रिस्तान में तब्दील हो चुका होता। जगदलपुर में टाटा, एस्सार, जिंदल, मित्तल जैसी बड़ी-बड़ी कार्पोरेट कम्पनियों के अलीशान दफ्तर खुल चुके होते जिसके इर्द-गिर्द कॉर्पोरेट मीडिया के लोग वफादार कुत्तों की तरह पूंछ हिलाते हुए घूमते रहते!
हां, बमों या बारूदी सुरंगों के इस्तेमाल में कभी-कभी गलतियां हो रही हैं। कुछ घटनाओं में आम लोग मारे गए हैं। हमें खेद है। जो खून बहा है वह हमारा ही था, हमारे अपने ही लोगों का था। इतना ही नहीं, बारूद के इस्तेमाल और प्रयोगों के दौरान मारे गए हमारे कार्यकर्ताओं और जन मिलिशिया की संख्या भी कम नहीं है। हम ऐसी हर गलती से सीख ले रहे हैं। लेकिन किसी गलती को दिखाकर पूरे संघर्ष पर और उसके औचित्य पर उंगली उठाना कहां तक जायज है, जरा सोचिए। गलती के लिए हमारी आलोचना कीजिए। हमारी खामियों और कमियों की चर्चा कीजिए। आपका हमेशा स्वागत है। बहस को असली समस्याओं पर फोकस करने वाले ईमानदार और निर्भीक लोग ही यह काम कर सकते हैं।
बस्तर, कुल मिलाकर दण्डकारण्य का संघर्ष आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंच चुका है। इस संघर्ष को कुचलने के लिए शासक वर्ग एड़ी-चोटी एक कर रहे हैं। अब सेना भी उतार दी गई है। भारतीय सेना और बस्तरिया जनता के बीच एक भीषण संग्राम शुरू होने में ज्यादा वक्त नहीं बचा है। इस पर सभी की नजरें हैं। खासकर उन कॉर्पोरेट गिरोहों की जो यहां एक बार आदिवासियों या माओवादियों का सफाया होते ही इस पूरी धरती को दबोचने के लिए ताक में बैठे हुए हैं। ये इतने खतरनाक हैं कि इनके पास देशों तक को खरीद सकने वाली दौलत मौजूद है। इनकी पहुंच काफी दूर तक है। मीडिया पर पूरा इन्हीं लोगों का नियंत्रण है जोकि आप भी जानते हैं। देश की निधर्नतम जनता के खिलाफ कॉर्पोरेट वर्गों द्वारा छेड़े गए इस युद्ध में कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा संचालित मनोवैज्ञानिक युद्ध एक अहम हिस्सा है। अंत में, आपको, आप जैसे उन तमाम पत्रकारों को, जो निष्पक्षताया तटस्थताका झण्डा उठाए हुए हैं मेरी अपील है कि आप इस गलतफहमी से बाहर आइए। क्योंकि न्याय और अन्याय के बीच तटस्थतानहीं रहती। क्योंकि शोषकों और मेहनतकशों के बीच निष्पक्षनहीं रहता।


विनम्रता के साथ,
अमन,
दण्डकारण्य से
1
जून २०११