24 दिसंबर 2009

ज़मीन गरम है

नारायणपटना इलाके में इन दिनों दहशत का माहौल है. असल में पिछले महीने की 20 तारीख को उड़ीसा के कोरापुट जिले के इस नारायणपटना थाने में हुई पुलिस फायरिंग में चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेता वाड़ेका सिंगना समेत दो आदिवासियों की मौत के बाद से ही इलाके में दहशत का माहौल है. आरोप है कि 20 नवंबर को कोई 300 लोगों ने नारायणपटना थाने पर प्रदर्शन करते हुए पुलिस के हथियार छिनने की कोशिश की, जिसके बाद पुलिस फायरिंग में दो आदिवासी मारे गये और बड़ी संख्या में लोग घायल हो गये.
हालांकि चासी मुलिया आदिवासी संघ का दावा है कि घटना से एक दिन पहले अर्धसैनिक बल के जवान आसपास के गांवों में कांबिग ऑपरेशन के नाम पर आदिवासियों के साथ मारपीट कर के आये थे, जिसके खिलाफ आदिवासी अपना विरोध जताने पहुंचे थे. निहत्थे आदिवासी जब नारायणपुर थाने के थानेदार से बात कर लौट रहे थे तो उन पर पीछे से गोलियां बरसाई गईं.

पुलिस आदिवासियों पर माओवादियों के उकसावे में कर हिंसक कार्रवाई की बात कह रही है तो आदिवासी नेताओं का आरोप है कि पुलिस हर असहमति और विरोध कोमाओवादप्रचारित कर उसका दमन करने की कोशिश कर रही है. चासी मुलिया आदिवासी संघ इस बात से साफ इंकार करता है कि उसके माओवादियों से कोई संबंध हैं.

ताज़ा घटना के बाद आज तक पुलिस ने 72 आदिवासियों को गिरफ्तार किया है और उनमें से कम से कम 15 ऐसे लोग हैं, जिन पर माओवादी होने का शक है. लगातार चल रही इन गिरफ्तारियों से गांवों में अब सन्नाटा पसरा हुआ है. गांव में मर्द और नौजवान पुलिस के डर से भाग गये हैं. हर रोज सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण थाने पहुंच रहे हैं और लिख कर दे रहे हैं कि चासी मुलिया आदिवासी संघ के साथ उनका कोई संबंध नहीं है.

विद्रोह, आंदोलन और सीएमएएस
इस साल की शुरुवात में सीएमएएस यानी चासी मुलिया आदिवासी संघ पहली बार तब चर्चा में आया, जब उसने नारायणपटना में 2000 एकड़ ज़मीन और बंधुगांव में 1500 एकड़ ज़मीन गैर आदिवासियों सेवापसछुड़ा कर उस पर कब्जा कर लिया. संघ का दावा था कि ये जमीनें गैर आदिवासियों ने ग़लत तरीके से हथियाए थे. संघ ने इन ज़मीनों को भूमिहीन लोगों को बांट दिया, जिनमें गैर आदिवासी भी थे. बाद में इन ज़मीनों पर सामूहिक खेती की गई. इन खेतों से जब धान की फसल कटाई शुरु हुई तो विवाद शुरु हो गया, जिसकी परिणति नारायणपटना थाना कांड के रुप में सामने आयी.

जिन खेतों के लिए सारा विवाद हुआ, उन खेतों में धान की फसल खेतों में ही खड़ी-खड़ी खराब हो रही है. संघ के लोग भागे-भागे फिर रहे हैं और दूसरी ओर इन ज़मीनों के गैर आदिवासीमालिकभी खेत में घुसने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं.

आखिर संघ चाहता क्या है ? आदिवासी और गैर आदिवासियों के बीच संघर्ष के पीछे का सच क्या है ? क्या चासी मुलिया आदिवासी संघ के पीछे सशस्त्र माओवादी हैं ? कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब की तलाश में हम फायरिंग से कुछ ही दिन पहले पहुंचे थे नारायणपटना.

ज़मीन का सच
मैं बहुत खुश हूँ, क्योंकि मैं अब तक भूमिहीन खेतिहर मजदूर था लेकिन अब मैं भी 80 सेंट ज़मीन का मालिक बन गया हूँ.” हालांकि 80 सेंट ज़मीन, ज़मीन का एक छोटा-सा टुकड़ा भर है लेकिन एक भूमिहीन आदिवासी के लिए ज़मीन का महत्व क्या है, यह बात 50 साल के आदिवासी किसान मुसरी मादिंगी की आँखों की चमक से समझा जा सकता है.

नारायणपटना और बन्धुगाँव क्षेत्र में चासी मुलिया आदिवासी संघ की अगुवाई में हो रहे बहुचर्चित भूमि आन्दोलन के चलते जिन लोगों को फायदा हुआ है, उनमें मुसरी भी एक हैं. नारायणपटना-बन्धुगाँव मार्ग पर नारायणपटना से 2 किलोमीटर की दूरी पर पाचिंगी गाँव में सड़क के दाहिनी ओर मिटटी के एक खपरैल घर में अपनी 8 बेटियों, एक बेटे और पत्नी के साथ मुसरी रहते हैं.

उनकी एक बेटी की शादी हो चुकी है और एकमात्र बेटा नारायणपटना में ड्राईवर का काम करता है. अपने परिवार के गुजारे के लिए मुसरी दूसरे आदिवासियों की तरह सड़क के दूसरी ओर स्थित पहाड़ी पर मक्के की खेती करते हैं. वह साल दर साल इस ज़मीन पर खेती करते रहे हैं पर उस ज़मीन का उनके नाम कोई कागजात नहीं है.

पहले इस ज़मीन पर खेती करने की वजह से फारेस्टर हमें धमकी देने के साथ-साथ काफी परेशान करता रहा है, हमें कंध आदिवासी कह कर कई बार काफी गाली-गलौज किया है, लेकिन अब वह कुछ नहीं कह रहे हैं.” मुसरी काफी राहत के साथ एक लम्बी सांस लेते हुए यह सब बताते हैं.

चासी मुलिया आदिवासी संघ का आन्दोलन शुरू होने के बाद से स्थानीय आदिवासियों के प्रति दूसरे लोगों, खासतौर से सरकारी कर्मचारियों के रवैय्ये में आये बदलाव को महसुस करने वालों में मुसरी अकेले नहीं हैं.

यह संघ आने से बहुत अच्छा हुआ है साहब. हमारे जितने ज़मीन-जायदाद, पेड़-पौधे, डोंगर-पहाड़ सब सरकार और साहूकार मिलकर लूट कर ले जा रहे थे. उस पर रोक लग गयी है. हम आदिवासी तो डोंगर किसानी करके कमाने-खाने वाले लोग हैं, अब फिर से वह सब करके सब खुश हैं.” यह बात पट्टामांडा के आदिवासी किसान नारिमदिंगा ने कही.
नारिमदिंगा और उनके भाई के पास कुल 15 एकड़ ज़मीन थी, जिसमें से 5 एकड़ खेत एक गैर आदिवासी के हाथ चली गयी थी. इसके बाद नारिमदिंगा कमाने-खाने के लिए पुरी चले गये थे. आंदोलन के बाद उन्हें उनकी ज़मीन वापस मिल गयी है और अब वे फिर से खेती में जुट गये हैं.

नारीमदिंगा कहते हैं- “शराब आदि देकर गैर-आदिवासी आदिवासियों की ज़मीन हड़प लिए गये थे. कहीं कौड़ी के भाव में तो कहीं बहला-फुसलाकर. लेकिन संघ के इस आन्दोलन के चलते आदिवासी को अपनी खोयी हुयी ज़मीन वापस मिल रही है, जिससे सब एकजुट होकर किसानी कर रहे हैं.” संघ के आंदोलन के बाद से नारायणपटना और बन्धुगाँव में शराब पूरी तरह से प्रतिबंधित हो गयी है.
लेकिन जिन गैर-आदिवासियों से इन ज़मीनों कोछुड़ायागया है, क्या वे फिर इस ज़मीन पर दावा नहीं करेंगे ? क्या फिर से भूमिहीन होने का डर नहीं है?

नारीमदिंगा तर्क गढ़ते हुए कहते हैं- “ डर किस बात की ? जिसकी ज़मीन है, उसका सबसे बड़ा हक है. यह सब हमारी ज़मीन है, जिसे ये लोग ले गए थे. हमारे गाँव में कई आदिवासी हैं, जो पुरखों से डोंगर में खेती करते रहे हैं पर उनका कोई पटा-परचा नहीं है. अब संघ उन लोगों को कागजात दिलाने के लिए प्रशासन से मांग कर रहा है और मांग पूरा कर के भी ला रहा है. ”

हम अब लोपेटा गाँव में थे, जहां चासी मुलिया आदिवासी संघ की बैठक होने वाली थी. यहां तक पहुंचने के लिए पैदल ही नदी पार करनी पड़ी. रास्ते में हमने देखा कि आसपास के गांवों से सैकड़ों महिला-पुरुष बैठक के लिए पहुंच रहे हैं. उनके अलावा लाल रंग की शर्ट, हॉफ पैंट और पैरों में सस्ती स्पोर्ट्स शू पहने अपने पारंपरिक तीर-धनुष से लैश युवक बैठक स्थल पहुंच रहे थे. हमें बताया गया कि ये युवकघेनुआबाहिनीके सदस्य हैं.

आदमखोरों को मारने वाला
घेनुआबाहिनीका नामकरण उड़ीसा में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक भगबती प्रसाद पाणिग्राही के एक प्रसिद्ध ओडिया कहानी के नायक एक हिम्मती आदिवासी युवक घेनुआ के नाम पर किया गया है, जो आदमखोर बाघों को मार कर उनके सिर लेकर आता था और अंग्रेज सरकार से ईनाम लेकर जाता था. एक दिन उसने क्षेत्र में लोगों पर अत्याचार करनेवाले एक बलात्कारी ज़मींदार का सिर कलम कर दिया और अंग्रेजों के पास उसका सिर लेकर पहुंचा. लेकिन उसे ईनाम के बजाय मौत की सजा मिली.

चासी मुलिया आदिवासी संघ का दावा है कि घेनुआबाहिनी में 5000 से ज्यादा सदस्य हैं, जो अपने को घेनुआ कहते हैं.

बैठक स्थल पर ऐसे घेनुओं ने हमें भी रोकने की कोशिश की. बैठक स्थल के आस पास लगातार नज़र रखी जा रही थी. हालांकि हमारे हाथ में कैमरा और स्टैंड था, इसके बावजूद हमसे कड़ी पूछताछ की गयी. हमारे यह कहने पर कि हम उनके नेता नाचिका लिंगा से फ़ोन में बात करके आये हैं, तब कहीं जा कर वे आश्वस्त हुये.

बैठक स्थल पर मौजूद जांगडीबसा गाँव के गांगुली ताड़ी से हमने जानना चाहा कि वह इस आन्दोलन से क्यों जुड़े हैं ? तो उन्होंने झट से जवाब दिया-“ पहले साहूकार और व्यापारी हमारे ज़मीनों को हथिया लिए हैं, हमारे परिवार की 5 एकड़ ज़मीन थी, जिसे हम अब संघ के जरिये वापस लाना चाहते हैं.”

ज़मीन से उजड़े
ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो अपनी ज़मीन पाने के लिए संघ और उसके आंदोलन से जुड़े हुए हैं. इस साल ज़मीन पर कब्जा करके उस पर सामूहिक खेती की जा रही है. लेकिन संघ के आंदोलन के कारण बड़ी संख्या में क्षेत्र के साहूकार, व्यापारी के अलावा छोटे और मध्यम वर्ग के लोग, जिनमें दलित भी शामिल हैं, उन्हें अपनी ज़मीनों से हाथ धोना पड़ा है. कई लोगों को तो घर और गाँव छोड़ कर जाना पड़ा है. उनमें से कई दलित परिवार कोरापुट में शरण लिए हुए हैं.

एक दलित परिवार पोदपद्र के पोस्टमास्टर का भी है, जो फिलहाल नारायणपटना में है. उनकी 4 एकड़ ज़मीन है और भाईयों की भी ज़मीन जोड़ने पर यह 16 एकड़ होती है.वे बताते हैं कि उनकी 4 एकड़ ज़मीन में 2 एकड़ सरकारी ज़मीन थी और एक एकड़ 70 सेंट ज़मीन पर भी संघ ने कब्ज़ा कर लिया है.

वह ज़मीन पहले किसकी थी ? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा- “वह मैं कैसे कह सकता हूँ ? हो सकता है, पहले यह उन आदिवासियों की रही होगी, जिन्होंने किसी कारण से इसे बेच दिया होगा. यह ज़मीन पिछले सौ सालों से तो हमारे ही पास है. ऐसे में मैं इसे किसकी ज़मीन मानूं ? जहाँ तक एक एकड़ 70 सेंट ज़मीन का सवाल है, वह मैंने एक हरिजन चंडाल कुल्दीपिया से ख़रीदी थी.”

पास का ही एक गाँव है- पंगापोलुरु. वहां संघ ने दलितों की ज़मीन ले ली है और उनमें से 2 घरों पर हमला भी किया है. इस पर पडोसी गाँव के आदिवासी नारिमदिंगा कहते हैं- “ उन दो घरों में से एक गैरकानूनी शराब बेचता था, दूसरा पुलिस का चौकीदार था और दोनों लोगों पर जुल्म ढाते थे. उन्हें संघ ने काफी समझाया लेकिन जब वे नहीं मानें तो उन्हें गांव से खदेड़ दिया गया.”

उसी गाँव में सड़क के किनारे एक खेत में 2 महिलायें सब्जी के खेती में काम करते नजर आईं. उनसे बात करने पर पता चला कि वे भी दलित हैं और संघ ने उनकी भी ज़मीन हथिया ली है.
बहुत बेबसी के साथ मालती खुरा कहती हैं- “ हम खेती करके गुजारा करते हैं. संघ ने हमारी खेती की सारी ज़मीन ले ली. हमारे गुहार लगाने पर तरस खाते हुए ज़मीन का यह टुकड़ा हमें दिया है.”

संघ का प्रतिकार
इलाके में बड़ी संख्या में ऐसे लोग लामबंद हो रहे हैं, जो चासी मुलिया आदिवासी संघ से प्रताड़ित हुए हैं. संघ का प्रभाव आगे बढ़े, इसलिए इसे रोकने के लिए पडोसी ब्लाकों में गैर आदिवासी एक जुट होने लगे हैं. संघ के इस विरोध को माइनिंग करने वाली कंपनियों का भी सहयोग मिल रहा है. इलाके की माइनिंग कंपनियां जानती हैं कि संघ अगर और मज़बूत हुआ तो उसके निशाने पर उनके खदान होंगे.

हालांकि इस पहलू का दूसरा सच ये भी है कि इस इलाके में बड़ी संख्या में आदिवासी माइनिंग के कारण भी अपनी ज़मीन से बेदखल कर दिये गये हैं. चासी मुलिया आदिवासी संघ के नेता नाचिका लिंगा कहते हैं- “ देखिये वह ज़मीन किसकी थी-आदिवासियों की या साहूकारों की ? अपना खून पसीना एक करके वह ज़मीन किसके बाप दादाओं ने तैयार की थी ? वह ज़मीन गैर आदिवासी के हाथ कैसे चढ़ गयी ? और उसी ज़मीन का मालिक आदिवासी किसान अब अपने ही खेत में मज़दूरी कर रहा है. जिस खेतों से सैकड़ों लोगों का घर चलता था, उन 20 से 40 परिवारों की ज़मीन को एक-एक साहुकार ने हड़प लिया. हम सरकार को बता रहे हैं कि यह ज़मीन आदिवासियों की थी और इसे किस तरह हड़पा गया. हम सरकार के सामने सच रख रहे हैं कि वह जांच करे और आदिवासियों को ज़मीन वापस मिले.”

इस आन्दोलन के बारे में जिला प्रशाशन क्या सोचती है ? कोरापुट के जिलाधीश गदाधर परिड़ा कहते हैं- “ आदिवासियों की स्वार्थ रक्षा के लिए चासी मुलिया आदिवासी संगठन का गठन हुआ है. आदिवासी अपनी ज़मीन पर अपना अधिकार की मांग कर रहे हैं, जिसे सरकार ने भी मंजूर किया है. यह कानून भी है. अगर किसी आदिवासी की ज़मीन को ठग लिया गया है तब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ज़मीन दुबारा कैसे उस आदिवासी के हाथ में लौटे. हम आदिवासियों से लगातार कह रहे हैं कि इस पर थोड़ा धैर्य रखें. हम काननू सम्मत हर काम करेंगे. लेकिन आदिवासी दूसरे लोगों की बात में पड़ कर आंदोलन कर गलत कदम उठा रहे हैं.”

पुलिस फायरिंग से पहले नारायणपटना आये जाने माने पत्रकार पी.साईंनाथ कहते हैं- “हमारी दुनिया की सबसे पुरानी समस्या यह है कि इसकी 85% आबादी सिर्फ 15% ज़मीन में गुजारा करने के लिए संघर्ष करती नज़र आती है तो दूसरी ओर सिर्फ 5-6 प्रतिशत लोग 60 से 70 प्रतिशत ज़मीनों के मालिक बन बैठे हैं. वह भी अनुसूचित क्षेत्र में, जहाँ किसी भी हालत में आदिवासी से उसकी ज़मीन को अलग नहीं किया जा सकता. लेकिन यहाँ पर यह सोचा ही नहीं जा रहा है कि पिछले कुछ दशकों में ही आदिवासी को उसकी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया है.”

लेकिन साईंनाथ मुद्दे की तह में जाने पर ज़ोर देते हैं. वे कहते हैं- “ आदिवासी जिन ज़मीनों पर अपना दावा कर रहे हैं, उनमें कुछ ऐसे दलित परिवार भी हैं, जो गरीब हैं. ऐसे में बड़ी संख्या में ज़मीनों पर काबिज साहुकार और धनी लोग इस पूरे आंदोलन को आदिवासी बनाम दलित की लड़ाई के रुप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. जो भी हो, आदिवासी आन्दोलनकारी जिस सिद्धांत को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं वह है- जो जुताई कर रहा है, ज़मीन उसकी है. गैरहाजिर ज़मीन मालिक या ज़मींदार मंजूर नहीं. आज की तारीख में आदिवासी नारायणपटना की लगभग सभी ज़मीनों पर दखल कर चुके हैं, इसलिए वहां तनाव है. इससे बचा जा सकता था, लेकिन आखिर एक एक दिन तो यह होना ही था. आप आदिवासियों से इस तरह का व्यवहार करें और उम्मीद करें कि वह प्रतिक्रिया भी करे, ये कैसे संभव है.”

लेकिन इसका कोई समाधान भी तो होगा ?

साईंनाथ कहते हैं-“ पहली बात तो यह है कि आदिवासियों को उनकी ज़मीन का अधिकार और उनकी मांगों का समाधान करना होगा. उन्हें अपनी ज़मीन पर उनका दखल देना होगा. खासकर उन ज़मीनों पर जो लीज के हिसाब से ली गयी हैं, या जो ज़मीन साहूकार और ज़मींदार कर्ज के बदले हड़प लिए हैं. वह सारी ज़मीन सीधा वापस लौटाने चाहिए, जिससे आप इंकार नहीं कर सकते. ऐसा कुछ राज्यों में विधान सभा में फैसला करके कानून बनाया गया है. ऐसा करने से कुछ ज़मीन आदिवासी मालिकों के पास खुद खुद वापस जायेगी. इसके अलावा आपको ज़मीन, जंगल को लेकर स्पष्ट नीति बनानी होगी.”

साईंनाथ विस्तार से कहते हैं- “हमें गैर आदिवासियों के बीच जो गरीब लोग हैं, उनके बारे में भी सोचना होगा. क्योंकि इनमें से कई लोगों के पास दादा-परदादा के ज़माने से ज़मीन होगी, जब भारत का संविधान नहीं होगा या यह क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र में शामिल नहीं हुआ होगा. ऐसे में उनके साथ भी न्याय हो, यह देखना होगा. पर मेरे मन में इस बात को लेकर कोई दुविधा नहीं है कि जो बड़े-बड़े ज़मींदार सैंकड़ों-सैंकड़ों एकड़ ज़मीनों के मालिक बन बैठे हैं, वह सारी ज़मीन आदिवासियों को वापस मिलनी ही चाहिए।
ज़मीन गरम है
पुरुषोत्तम ठाकुर, भुवनेश्वर से
तहलका से साभार

18 दिसंबर 2009

इतिहास में

चीज़ें कितनी तेजी से जा रही हैं इतिहास में
अतीत से कथाओं में,

कथाओं से मिथक में

और समय अनुपस्थित हो गया है

इन मिथकों के बीच से

समकालीन कहाँ रह गया है कुछ भी

इसूरत और बाथे की लाशें

पहुँच गयी हैं मुसोलिनी के कदमों के नीचे

और मुसोलिनी पहुँच गया है मनु के आश्रम में

और यह सब पहुँच गया है पाठ्यक्रमों में।
हमारी संस्कृतियाँ मुक्त हैं सदमों से,


सदमें मुक्त हैं संवेदना से,

संवेदना दूर है विवेक से,

विवेक दूर है कर्म से.....


चीजें कितनी तेजी से जा रही हैं अतीत में

और हम सब कुछ समय के एक ही फ्रेम में बैठाकर निश्चिन्त हो रहे हैं।
भिवंडी की अधजली आत्मायें,

सिंधुघाटी की निस्तब्धतानिस्संगता और वैराग्य के पर्दे में दफ़्न है।इतिहास!
अब तुम्हें ही बनाना होगा समकालीन को ''समकालीन''
अंशु मालवीय

11 दिसंबर 2009

जनता इस तंत्र के खि़लाफ है.

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों की दीवाल पत्रिका दख़ल की दुनिया ने आपरेशन ग्रीन हंट के परिप्रेक्ष्य में दंतेवाडा में कार्यरत गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार को बोलने के लिए आमंत्रित किया। प्रस्तुत है इस कार्यक्रम में हिमांशु का वक्तव्य।

अभी हमारे प्रधान मंत्री जी ने कहा इस समय देश के सामने सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद है और नक्सलवाद का केन्द्र अभी छत्तीसगढ़ है और छत्तीसगढ़ में भी दान्तेवाड़ा तो उसका हेड क्वार्टर माना जाता है इसलिये वहाँ जो कुछ हो रहा है उसके लोकल डायनामिक के बारे में मैं ज्यादा जानता हूं इसलिये आपको वहाँ के डायनामिक से परिचित कराने की कोशिश करूंगा. आप लोगों को मालूम ही है कि सन २००० में मध्यप्रदेश से काटकर छत्तीसगढ़ राज्य बनाया गया और छत्तीसगढ़ राज्य मूलतः आदिवासी प्रदेश है जहाँ-जहाँ आदिवासी हैं इत्तेफाक से वहीं-वहीं खनिज भी हैं और ये एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत हुआ है. इस पूरे भारतीय उप महाद्वीप पर पहले जो मूल निवासी रहते थे उनको बाद में सेन्ट्रल एशिया से जो प्रजातियां आयी उन्हें ढकेला और समतल जमीनों पर बाहर से आयी हुई प्रजातियों ने कब्जा किया और आदिवासी जंगल की तरफ चले गये और हम लोग भी भारत के मूल निवासी बन गये अब जहाँ जहाँ आदिवासी हैं वे जंगलों में हैं उबड़ खाबड़ जमीनों पर हैं और इत्तेफक से उनके नीचे खनिज है तो २००० में जब छत्तीसगढ़ बना तो छत्तीसगढ़ की सरकार ने बहुत सारे एम.ओ.यू. उन खनिजों के उत्खनन के लिये किये कई सारी कम्पनियों के साथ जिसमे भारतीय कम्पनियाँ भी हैं और अंतरराष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी हैं और उसको अब याद आया कि नक्सलवाद समस्या है .
कुछ इत्तेफाक ऐसा होता है कि ४ जून २००५ को वह एक एम.ओ.यू. साइन करती है एक बहुत बड़ी कम्पनी के साथ और ५ जून से नक्सलियों को समाप्त करने का एक गाँधी वादी स्व स्फूर्त आंदोलन चलाती है जिसका नाम सलवा-जुडुम होता है. जिसको सरकार कहती है कि यह स्व स्फूर्त आंदोलन है लेकिन नवम्बर २००४ में ही उसकी पूरी रूपरेखा और बजट और प्रस्तावना कलेक्टर दांतेवाड़ा राज्य शासन को भेजते हैं कि स्व स्फूर्त आंदोलन शुरू किया जाना है जिसका इतना बजट लगेगा और ये उसकी स्टेटजी होगी और वो स्व स्फूर्त आंदोलन अचानक फूट पड़ता है और आंदोलन में क्या होता है उसमे कुछ आपराधिक किस्म के तत्वों को इकट्ठा किया जाता है गुंडे बदमासों को लगाया जाता है फोर्स उनके साथ जोड़ी जाती है बहुत सारे आदिवासी नवजवानों को बंदूकें दी जाती हैं और उन्हें कहा जाता है हि ये विशेष पुलिस अधिकारी हैं और इन लोगों का काम ये होता है कि ये गाँव में जाते हैं और गाँव में जाकर आदिवासियों से कहते हैं क्योंकि तुम लोग नक्सलियों की मदद करते हो इन्हें खाना देते हो इसलिये तुम्हें सड़क के किनारे जो थाने के चारो तरफ कैम्प बनाया गया है उसमे चलकर रहना पड़ेगा और हमारे मुख्यमंत्री टी.वी. पर कहते हैं कि जो लोग सरकार के साथ हैं वो सलवाजुडुम कैम्प में आ गये हैं और जो सरकार के साथ नहीं है वो अभी भी जंगलों में रह रहे हैं.
जब ये सलवा-जुडुम गाँव में जाता है तो ये जाकर लोगों को पकड़ने की कोशिश करता है लोग इससे बचने के लिये जंगलों की तरफ भागते हैं और इन भागते हुए लोगों पर गोली चलायी जाती है आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है बहुत सारे लोगों की हत्या कर दी गयी बहुत सारे लोगों को जेलों में ठूस दिया गया और इस तरह से लगभग ७०० गाँव जलाये गये और एक गाँव पर कोई एक बार नहीं २०-२० बार हमला किया गया लगातार इससे बचने के लिये बहुत सारे गाँव के लोगों ने अपने नौजवान लड़के लड़कियों से कहा कि जब पुलिस आये........ अब हालत ये है तो यह देखते हैं कि बार-बार अपने घरों को बनाने की कोशिश की आदिवासियों ने और फिर जला दिया जाता है फिर वो कोशिश करते हैं अपनी फसल उगाने की फिर फसलें जला दी जाती हैं फिर वो लोग पाहाड़ों में जाकर गड्ढा खोदकर अपना धान दबाते हैं छुपाते हैं फिर ये फोर्सेज जाती हैं और ढूढ़-ढूढ़ कर उनका धान जलाती हैं....... तो उन्होंने अपने लड़के लड़कियों से कहा कि तुम लोग जब पुलिस आये तो बता देना ताकि हम लोग भाग जायेंगे तो वो अपना तीर धनुष डण्डे वगैरह लेकर गाँव के बाहर पहरे देते हैं तो हमारी भारत सरकार कहती है कि देखिये इन्होंनें भारत राष्ट्र के खिलाफ हथियार उठा लिये हैं.
अब हम हेलीकाप्टर में मशीन गन लगाकर हमारी जो इलिटेस्ट फोर्स है भारतीय फौज की, सबसे बेहतरीन जो कमाण्डो दस्ता है वो हम इनको मारने के लिये भेजेंगे हमने उनसे कहा कि आपने एक बार इनको मारने के लिये सलवा-जुडुम शुरू किया था तथाकथित रूप से नक्सलियों को मारने के लिये आज पुलिस की रिपोर्ट कहती है कि नक्सलियों की संख्या में सलवा-जुडुम के बाद २२ गुना का इज़ाफा हो गया है क्योंकि जब आपने गावों पर हमला किया तो बार-बार के हमलों से बचने के लिये लोग जंगलों में जब गये तो नक्सली उनके साथ आ गये और उन्होंने कहा कि ठीक है अब जब हमला होगा तो हम आपके साथ हैं तो लोगों को अब सरकार हमलावर लगती है और नक्सली बचाने वाले लगते हैं तो वो उनके नेचुरल और परिस्थितिगत दोस्त हो गये तो बहुत सारे लोग नक्सली हो गये तो हमने कहा कि आप जनता को नक्सलियों की तरफ ढकेल क्यों रहे हैं आप फिर से हमला करेंगे तो अभी जो थोड़े बहुत आदिवासी बचे हुए हैं वो पूरी तरह से नक्सली हो जायेंगे आप इअनकी संख्या में बढ़ावा हो ऐसा काम क्यों करते हैं आप कुछ ऐसा काम करिये जिससे शान्ति बढ़े और हम लोगों ने कोशिश की सुप्रीम कोर्ट गये सुप्रीम कोर्ट में ये अप्लीकेशन डाली गयी है और याविका में कहा कि साब इस तरीके से वहाँ किया गया है तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जितने भी आदिवासियों के घरों को जलाया गया है सलवा-जुडुम के द्वारा उन सबको पुनर्वासित किया जाय सबको कम्पलसेसन दिये जायें सारी एफ.आई.आर. लिखी जाय जिन पुलिस के खिलाफ हो, जिन एस.पी.ओज. के खिलाफ हो लेकिन आज तक सरकार ने एक भी आदिवासी को न तो बसाया, न कम्पलसेसन दिया न एक भी एफ.आई.आर. लिखी. हम लोगों ने जब बसाने की कोशिश की हमने ३० गाँव को करीब-करीब पुनर्वास किया तो उसमे लगातार अड़चने डाली गयी बार-बार जाकर उन गाँव में अभी भी हमला कर रहे हैं और दहसत की वज़ह से फिर से मुझे खबरें आ रही हैं कि फिर से वहाँ भगदड़ मच रही है हम लोगों ने करीब १००० के लगभग एफ.आई.आर. कराने की कोशिश की और वो एफ.आई.आर. एक की भी नहीं दर्ज की गयी हम लोगों ने एस.पी को कम्प्लेन लिखी और वो सारी कम्प्लेन बहुत सीरियस किस्म की हैं उसमे बलात्कार हैं, हत्यायें हैं, घर जलाना है, सम्पत्ति लूटना है, लेकिन भारत का जो सी.आर.पी.सी. है क्रिमिनल कोर्ट उसकी धारा १५४ कहती है कि जब एक पुलिस अधिकारी को किसी काग्नीजेबल अफेंस के बारे में सूचित किया जायेगा तो वो तुरंत एफ.आई.आर लिखेगा और उनकी जाँच शुरू करेगा लेकिन हमारा एस.पी. हाई कोर्ट में कहता है कि चूंकि ये लोग झूठी शिकायतें करते हैं इसलिये हम एफ.आई.आर. नहीं लिखते हम अपने स्तर से जाँच करते हैं और उसके बाद वो झूठी पायी जाती हैं सुप्रीम कोर्ट का इंस्ट्रेकसन है कि पुलिस इस बात का फैसला नहीं करेगी कि उसको जो शिकायत की गयी है वो सच है या झूठ ये फैसला कोर्ट करेगी लेकिन हमारे यहाँ का एस.पी. ये बात लिखकर दे रहा है कोर्ट में और खतरे की बात ये है कि कोर्ट इसको स्वीकार कर रहा है और ऐसे मामले है....अभी सिंगारा में एक काण्ड हुआ जिसमे १९ लोगों को मार डाला गया और ये कहा गया कि ये इनकाउंटर हुआ है जिसमे ४ लड़कियां थी. मेरे पास फोटो थे उसमे पहला फोटो जिस लड़की है उसकी आंतें बाहर आयी हुई हैं. हमने कहा कि जब इनकाउंटर होता है तो वो उधर से गोली मारते हैं ये इधर से गोली मारते हैं ये आंत तो बाहर तब आती है जब आप चाकू मारकर.....मुझे एक पुलिस आफिसर ने बताया कि ये तब बाहर आती है जब चाकूमारकर घुमाकर बाहर निकाला जाता है और ये बहुत ट्रेंड लोग होते हैं ये हमे ट्रेनिंग दी जाती है कि चाकू कैसे मारना है.
इन्होंने पकड़ा था उनको और पकड़कर ४ लड़कियों को अलग ले गये उनके साथ रेप किया और चाकू से मारके मार डाला और बाकी को लाइन में खड़ा करके गोलियों से उड़ा दिया हम उस केस को कोर्ट में लेके गये उस केस में हम एक साल से इसलिये लड़ रहे हैं कि साहब इसकी जाँच कर लो और एफ.आई.आर. कराने का आदेश दे दो और कोर्ट एफ.आई.आर. कराने का आदेश नहीं दे रहा है वो बार-बार तारीखें टाल रहा है. आप आदिवासियों के लिये कोर्ट का दरवाजा बंद कर देंगे? पुलिस उनके लिये नहीं है सरकार उनके लिये नही है मीडिया उनके बारे में लिखता नहीं है आदिवासियों के लिये आपने क्या रास्ता छोड़ा है? कहाँ जायें वो? किसके पास जायें? और ये सब कर कौन रहा है हम लोग कई बार कहते हैं, यहाँ तक कि हमारे कम्युनिस्ट साथी कि ये जो रूलिंग क्लास है ये इसका अत्याचार है गरीब जनता पर हमने कहा अच्छा ये बताइये ये रूलिंग क्लास क्या है? चिदम्बरम? क्या चिदम्बरम रूलिंग क्लास हैं? क्या चिदम्बरम कर रहा है ये सब? कौन कर रहा है ये और ये सिर्फ बस्तर में हो रहा है ऐसा थोड़ी है अभी मैं बंगलौर गया वहाँ पर सैकड़ों एकड़ जमीन पर बुल्डोजर चला दिया गया क्योंकि वो जमीन सरकार को चाहिये आप अपने देश के लोगों की फसलों पर बुल्डोजर चला देंगे? क्योंकि वो गरीब हैं क्योंकि आपको उनकी जमीने चाहिये नर्मदा घाटी में लोंगों की जमीनों पर बुल्डोजर चला दिया गया जब वहाँ पर खेती करके फसल उगाने की कोशिश की गयी तो. उनके लिये कोर्ट बंद, सरकार उनकी नहीं, पुलिस नहीं तब वो क्या करेंगे इस घोर विवशता की स्थिति में आप सोचिये कि आप हों तो आप क्या करेंगे.
हम लोग आपस में ये समझने की कोशिश करते हैं कि ये किसके लिये किया जा रहा है कौन कर रहा है? तो हम लोग एक शब्द प्रयोग करते हैं कि रूलिंग क्लास, तो रूलिंग क्लास कौन है चिदम्बरम...मनमोहन सिंह या फिर पार्लियामेंट भी है रूलिंग क्लास में मुख्यमंत्री भी कार्पोरेट भी मल्टिनेशनल कम्पनियां फिर उसमे काम करने वाले लोग फिर सप्लायर, बैंकर, ट्रांसपोर्टर उनके कन्ज्यूमर यानि हम सब मतलब कि हम सब मिलकर रूलिंग क्लास बनते हैं और हमारे लिये इन आदिवासियों को मारा जाता है हम जो मिडिल क्लास हैं हमारी लिविंग स्टैंडर्ड को मेनटेन रखने के लिये क्योंकि हम ही सरकार हैं जब हम कहते हैं कि सरकार ये कर रही है तो हम जो मिडिल क्लास हैं हमारे लिये इनके ऊपर हमला किया जाता है इसको थोड़ा और समझने की कोशिश करेंगे एक शब्द है एक्सट्रक्चरल वाइलेंस तंत्रगत हिंसा ये क्या है दुनिया के जितने भी संसाधन हैं ये किसके हैं जमीने पानी हवा किसकी है इसका मालिक कौन हैं अगर प्राकृतिक दृष्टिकोण से देखे तो जितने भी लोग इस दुनिया में हैं ये सबकी है किसकी कितनी है यदि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत से देखें तो सबकी बराबर है यानि सबकी बराबर होनी चाहिये लेकिन बराबर है क्या आज के समाज में यह बराबर नहीं है हम तय करते हैं चूंकि मैं एम.ए. पास हूं इसलिये मेरे पास ज्यादा होगा तुम चूंकि बिना पढ़े लिखे हो इसलिये तुम्हारे पास कम होगा मैं बड़ी जाति का हूँ इसलिये मेरे पास ज्यादा जमीन होगी तुम छोटी जाति के हो इसलिये तुम्हारे पास कम होगी. मैं बड़े शहर में रहता हूँ इसलिये मेरे पास ज्यादा सम्पत्ति होगी तुम दांतेवाड़ा में रहते हो इसलिये तुम्हारे पास कम होगी.
हम इन सारी चीजों को स्वीकार करते हैं ये हमारे वैल्यू सिस्टम का पार्ट हो गया है ये ठीक लगने लगा है और ठीक लगता लगता है यानि मेरा अमीर होना भी ठीक है उसका गरीब होना भी ठीक है ये भी ठीक वो भी ठीक और हमारे इस वैल्यू सिस्टम को एंडोर करता है हमारा पोल्टिकल सिस्टम. ठीक है हमारे सम्पत्ति की रक्षा राज्य करेगा पुलिस आपके अमीरी की रक्षा करेगी गरीब आदमी आपकी सम्पत्ति नहीं छू सकता किसी समान वितरण की बात अब नहीं उठायी जायेगी आपके पिता जी ने जितनी सम्पत्ति आपके लिये छोड़ी है उसकी रक्षा अब पुलिस करेगी तो हम लोगों को तो ठीक लग रहा है क्योंकि हम तो मजे में हैं हमको तो मिल गया है लेकिन जो इस संरचना के बाहर है और जिसकी जमीनों पर बुल्डोजर चलवाया जा रहा है जिसके गाँव जलाये जा रहे हैं यही स्ट्रक्चरल वायलेंस है कि आप गरीब को गरीब रखते हैं और अमीर अमीर होता है. चूंकि हम सब इसके लाभार्थी हैं इसलिये हम इसके खिलाफ नहीं है लेकिन जो इस हिंसा को झेल रहा है जो दिन भर मेहनत करने के बाद भूखा सोता है जिसकी जमीन पर बुल्डोजर चलाया जा रहा है जिसके गाँव को जलाया जा रहा है मल्टीनेशनल और बड़े-बड़े कार्पोरेशन के लिये और हमारे लिये वि इस स्ट्रक्चरल वायलेंस के खिलाफ़ लड़ रहा है वो पूरे सट्रक्चर के खिलाफ खड़ा है वो इस गैरबराबरी-गैरवितरण को स्वीकार नहीं कर रह है वो आपके स्ट्रक्चर को चैलेंज कर रहा है वो आपके वैल्यू सिस्टम, आपके पोलिटिकल सिस्टम को चेलेंज कर रहा है और इकोनामिक सिस्टम को भी चेलेंज कर रहा है और लड़ रहा है और हम फिर नैतिकता पर प्रश्न ऊठाने लगते हैं कि वो वायलेंस कर रहा है.
उसकी वायलेंस हमे दिखती है हमारी वायलेंस हमे दिखती नहीं है जो बहुत छिपी हुई है और लम्बे समय से परंपरा और मूल्यों के खोल में चली आ रही है. जिसे हम संस्कृति का नाम दे दिये हैं इस संस्कृति के नाम पर राष्ट्र के नाम पर हम उसे मारते हैं और कैसे मारते हैं उसको गरीबी में मारते हैं भुखमरी में मारते हैं उसको भूख से मारते हैं वो मरता जा रहा है दिनों-दिन उसे हाशिये पर ढकेला जा रहा है ये जो हाशिये पर ढकेले जाने की प्रक्रिया है यह बहुत साफ हो गयी है. चूंकि विज्ञान की तरक्कीयों के कारण कम्युनिकेशन की प्रक्रिया तेज हो गयी है और ये सारे संघरष एक दिन में हमको दिख जाते हैं पूरे देश में जहाँ-जहाँ संघर्ष हो रहे हैं वो हमको साफ दिख रहा है. तो हाशिये पर ढकेल दिये गये लोगों के संघर्षों को.......अच्छा हमारी एक पत्रकार मित्र हैं कहने लगी कि यू.पी. में भी तो गरीब हैं वहाँ तो नक्सलवादी नहीं है हमने कहा कि तीन तरह के गरीब समाज में हैं पहली तरह के गरीब वो हैं जो आपकी अमीरी से खुश हैं. यानि व जो आपके यहाँ कपड़े साफ करते हैं, जो गुब्बारे बेंचते हैं वे कहते हैं कि साब आप लोग अमीर हैं तो हमारा भी पेट पलता है. दूसरी तरह के गरीब वो हैं जो मानते हैं कि हमारी किस्मत में ही गरीबी लिखि है, हम छोटी जाती के हैं, हम कम पढ़े लिखे है इसलिये वे अपनी गरीबी से समझौता करके बैठे हैं. तीसरी तरह के गरीब वो है जो जंगलों में रहता था आपसे कुछ नहीं माग रहा था आप अपनी अमीरी को बरकरार रखने के लिये जाकर के उस पर हमला किया है अब वो लड़ता बढ़्ता चला आ रहा है मुश्किल ये हो गयी कि इनके साथ कुछ पोल्टिकल आइडियोलाजी के लोग भी जुड़ गये हैं वे उससे कह रहे हैं कि अब तुम पलट के वार करो लड़ो ये लड़ाई है और ये तुम्हें सत्ता तक पहुंचायेगी अब मुश्किल जो आने वाली है वो ये कि बाकी के जो दो तरह के गरीब हैं अगर इनके साथ मिल गये तो समस्या बहुत बड़ी हो जायेगी हमारा जो वर्ग है उसी तरह से उनका भी है.
ऐसी स्थिति में या तो वर्ग संघर्ष होगा या वर्ग समन्वय हो सकता है जो गाँधी की लाइन है वो तब हो सकता है जब हम समझे इसको और स्वीकार करें कि हां ये हमारे लिये मारे जा रहे हैं और हम इस पोल्टिकल स्ट्रक्चर के एक्सप्लायटेशन को नकारते हैं और हम उनके ऊपर होने वाले हमलों के खिलाफ़ हैं या तो हम अपने वर्ग को छोड़ करके उस वर्ग में मिल जायें और कहें कि हम इनके साथ खड़े हैं जिनके ऊपर हमला हो रहा है और अगर नहीं समझे तो विनोवा ने कहा था कि तीन रास्ते हैं भाई समाज में ये जो चल रहा है संघर्ष या वयलेंस इसको मिटाने का पहला तरीका है कानून का यानि कानून से गैरबराबरी को मिटा दो दूसरा तरीका है करुणा का यानि कम्पेसन जिससे लोग समझ जाय कि ये नहीं चल सकता दुनिया सबकी है और सबकी बराबर है और इसमे सबको जीने का बराबरी का अधिकार है कोई किसी को छीन कर नहीं जियेगा कोई किसी को मारकर नहीं जियेगा और तीसरा रास्ता है कत्ल का यानि कानून, करुणा और कत्ल. फिर जब आप उनको समझेंगे नहीं उन पर हमले करेंगे, उनका शोषण करेंगे तो हिंसा होगी और उसको कोई नहीं टाल सकता और अब तो हम हमला कर रहे हैं हमने सोच लिया है कि हमारी जो क्लास है हम इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं हम अपनी अमीरी को नहीं छोड़ेंगे और विकास के नाम पर ये सब करेंगे हम अंधाधुंध मायनिंग भी करेंगे और अंधाधुंध विकास भी करेंगे हम इसी माडल को रखेंगे. एक सर्वे ये कहता है कि ये जो हमारा इकोनामिक ग्रोथ का माडल है इसमे सिर्फ ४०% लोग एकमोडेट हो सकते हैं बाकी के ६०% लोग नहीं हो सकते आपको ये प्रक्रियायें अपनानी पड़ेगी इस गैरबराबरी के जीवन को जीने के लिये. सबके लिये इस तरह का जीवन जीने का संसाधन है ही नहीं तो आपको विकास के एक दूसरे माडल के बारे में सोचना पड़ेगा और अभी सोचना पड़ेगा और उसे लागू करवाना पड़ेगा हम लोग जो मजे में हैं हम बहुत थोड़े हैं वो ज्यादा हैं वो करोड़ों है जिनको हम मारने की कोशिश कर रहे हैं यानि आप अपनी उच्चतम स्थिति तक जाने के बाद ६०% को मारना पड़ेगा और जब आप इन्हें मारेंगे तो वो आसानी से मर जायेंगे? चुपचाप मर जायेंगे? वो रेजिस्ट नहीं करेंगे? वो लड़ेंगे और विनोवा कहते थे कि अब आने वाले समय में अगर लड़ाई हुई तो जीत हार नहीं होगी अब तो सर्वनाश होगा देखिये हम लोग प्रकृति की बहुत कमजोर कड़ी हैं मनुष्य किसी एक ग़लती से खत्म हो सकते हैं. कल्पना कीजिये अगर ये वंचित किये गये शोशित तबके की बात नहीं सुने और इसी तरह से आगे बढ़्ते गये और किसी सिरफिरे के हाथ में परमाणु हथियार आ गया तो क्या होगा. वायलेंस जो आज के जमाने में डेवलपमेंट का एक अनिवार्य अंग बन गयी है इससे हमे निज़ात पानी पड़ेगी सारी दुनिया इससे चिंतित है लेकिन रूट तक हम पहुंच नहीं पा रहे हैं.
आप मीडिया से जुड़े हुए लोग हैं आप भी एक क्लास का प्रजेंटेशन ही करते हैं हमसे बहुत से लोग कहते हैं कि ये बात मीडिया में क्यों नहीं आयी हम कहते हैं कि ये तो मीडिया वालों से पूछो. चूंकि वो आदिवासियों की मीडिया नहीं है वहाँ तो राही सावंत, रविशंकर, बाबा रामदेव हैं और नौजवान तबके के लिये गुलाबी पर्दे लगा दिये गये जैसे बहुत खूबसूरत हो दुनिया हिंदुस्तान के करोड़ों लोग किस हालत में हैं और किस तरह से संघर्ष कर रहे हैं वो तो नौजवान पीढ़ी को देखने ही नहीं दिया जा रहा है वो हमेशा आपको मूल प्रश्नों से हटाने की कोशिश कर रहे हैं. तो समस्या दूर नहीं है, अलग नहीं है दुनिया दो नहीं है एक ही है जुड़ी हुई है अगर दुनिया में कुछ होगा तो असर हम पर पड़ेगा अगर हिन्दुस्तान का प्रधानमंत्री कह रहा है कि नक्सलवाद सबसे बड़ी समस्या है तो हमको पूछना चाहिये कि ये समस्या पैदा क्यों हुई क्योंकि अगर आपको समस्या को हल करना है तो उसे आपको समझना होगा यदि नहीं समझते और उस पर कुछ कार्यवाही करेंगे तो हल के बजाय आप उसको बिगाड़ देंगे, आप हल नहीं कर पायेंगे और यही हुआ है अभी एक बार गलत तरीके से हल करने की कोशिश की तो उसे २२ गुना बड़ा दिया अब ये दुबार कत्ल की कोशिश कर रहे हैं लाखों लोगों को उस तरफ ढकेल रहे हैं और इससे ये सामाजिक हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं इसलिये हम जो देश में सोचने वाले लोग हैं वो समझें, संघर्ष के कारणों को समझे, संघर्ष की परिस्थितियों को समझें संघर्ष में जो लोग पीड़ा में हैं उनको समझें और जाकर उनके साथ खड़े हो जाय कि हम इनको ऐसे नहीं मारने देंगे इनकी बात जायज है ये इन जमीनों के मूल निवासी हैं ये जमीने इनकी हैं आप इन्हें ऐसे कैसे मार सकते हैं आखिर जमीन लेने का एक कानून है एक तरीका है मैने वहाँ के डी.जी.पी. से बात की छत्तीसगढ़ के मैने कहा आप किसकी रक्षा कर रहे हैं आपको तो भारत के संविधान की रक्षा करनी है आपकी नियुक्ति भारत के संविधान ने की है और भारत का संविधान कहता है कि अगर आपको आदिवासियों की जमीन चाहिये तो जो नियम है.
नियम न. १ आपको गाँव के ग्राम सभा की अनुमति लेनी होगी
नियम न.२ आपको एक आदर्श पुनर्वास नीति बनानी होगी और इसके लिये पूरा गाँव बैठता है और तय करता है कि किसके पास कितनी जमीन है और जमीन के बदले में किसको कितनी जमीन दी जायेगी. इसका लड़का कितना पढ़ा है उस मुताबिक उसको उद्योग में नौकरी दी जायेगी. कुआं है उसके बदले रूपया दिया जायेगा. इस तरीके से प्रत्येक परिवार की एक आदर्श पुनर्वास नीति बनेगी वो बुक बनेगी और बुक को विधान सभा अंगीकृत करेगी और पहले पुनर्वास किया जायेगा इसके बाद माइनिंग शुरू करेंगे होता क्या है ?
धुरली गाँव में जिस दिन वहाँ एस्सार के लिये ग्राम सभा की गयी पूरे गाँव के २० कि.मी. तक पुलिस की घेरा बंदी लगा दी गयी कोई अंदर नहीं जायेगा लोगों को जबरन गर्दन पकड़ कर ग्राम सभा में ले जाया गया और ग्राम सभा क्या थी एक कमरे में एस.पी. साहब कलेक्टर साहब और प्रतिपक्ष के नेता महेन्द्रकर्मा बैठे थे और तीनों बैठे थे सामने रजिस्टर रखा था और उसमे लिखा था कि मैं अपनी जमीन स्वेक्षा से देने के लिये सहमत हूं और इस पर अंगूठा लगाओ और इधर से निकलो ये ग्राम सभा थी उस दिन तक वहाँ नक्सलाइट नहीं थे और अगले दिन से आ गये. करिये आप लीजिये जबरदस्ती जमीनें और आज तक एस्सार की हिम्मत नहीं हुई की खोल दे प्लांट क्योंकि वहाँ नक्सलाइट आ गये. आप ऐसे ही मार डालेंगे आप गर्दने पकड़ कर ग्राम सभा करायेंगे और आप समझते हैं वो कुछ नहीं करेंगे इसमे से शान्ति निकलेगी वो हाथ जोड़कर खड़ा हो जायेगा कि आइये साहब मुझे मारिये और मेरी जमीन ले जाइये मेरा घर जला दीजिये वो लड़ेगा मुझसे कई बार लोग कहते हैं आप जस्टिफाइ कर रहे हैं वायलेंस को मैंने कहा मैं स्थितियों को बता रहा हूं तुम मेरे मुंह में मिट्टि भर दो बिनायक सेन को जेल में डाल दो क्योंकि वि सलवा-जुडुम को ऊजागर करते हैं मेरा आश्रम तोड़ देते हो क्योंकि मैं कहता हूँ गाँवों को मत जलाइये. तुम कहते हो यह डेमोक्रेसी है गाँव जालाओगे, घर जलाओगे, लिखने नहीं दोगे और कहोगे कि डेमोक्रेसी है. ऐसी डेमोक्रेसी को जनता नहीं रखेगी आज आप देखिये कि संघर्ष हो किसके बीच रहा है पुलिस बनाम जनता जनता क्यों लड़ रही है इस तंत्र के खिलाफ़. हम कभी सोचते नहीं थे कि राजशाही जायेगी लेकिन चली गयी. ये तंत्र अगर जनता की नहीं सुनेगा जनता इसे नहीं रहने देगी ये जनतंत्र खतरे में है ये जो तथाकथित जनतंत्र है इसे बचाना है तो बचा लिजिये. मै तो कमेंटेटर हूँ और आप कमेंटेटर पर गुस्सा कर रहे हैं. तुम्हारी टीम ग़लत खेल रही है तो हारेगी ही. मैं तो बता रहा हूँ आज बस्तर में क्या हो रहा है आदिवासी सरकार को दुश्मन और नक्सलियों को दोस्त मान रहे हैं.
रोम बहुत विकसित सभ्यता थी लेकिन गुलामों के ऊपर टिकी हुई थी एक दिन उन्हीं गुलामों ने इस पर हमला करके इसे नष्ट कर दिया अब आप कहें कि आप रोमन साम्राज्य के पतन की बातें मत बताइये. वहाँ तो गुलाम प्रथा थी वहाँ भी लोकतंत्र था लेकिन गुलामों को वोट डालने की आज़ादी नहीं थी और आज हम वोट खरीद लेते हैं. गाँधी ने दो बातें कही थी कि तुम्हारी ये सभ्यता दो चीजों को जन्म देगी एक पर्यावरण विनाश को दूसरे युद्ध को.

08 दिसंबर 2009

छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्या

मेरी सरकार ने आते ही “छ्त्तीसगढ़ किसान आयोग” का गठन किया है जो किसानों और खेतिहर मजदूरों के खुशहाली की अनुसंसा करेगा. (छत्तीसगढ़ के प्रथम राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय का छत्तीसगढ़ बनने के बाद १५ दिसम्बर २००० को दिये गये जन सम्बोधन से)
जब तक हमारे किसान और खेतिहर मजदूर खुशहाल नहीं होंगे तब तक छत्तीसगढ़ आगे नहीं बढ़ सकता। (९ नवम्बर २००० को राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी द्वारा छत्तीसगढ़ की जनता को दिये गये प्रथम सम्बोधन से)

इन वाक्यों के सहारे मैं इतिहास में लौटना चाहता हूँ बल्कि थोड़ा पीछे मुड़कर वहाँ से झांकना चाहता हूँ, जब एक अलग राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ बनाया गया और राज्य के किसानों और खेतिहर मजदूरों की खुशहाली को लेकर उपरोक्त दावे किये गये. उसके बाद किसानों की आत्महत्या क्रमशः-
२००१-१४५२
२००२-१२३८
२००३-१०६६
२००४-१३९५
२००५-१४१२
२००६-१४८३
२००७-१५९३ रही है. स्रोत-राज्य अपराध ब्यूरो
इन आंकड़ों के जरिये मैं अभी किसान आत्महत्या के कारणों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, जिसे आगे तफ़्सील से किया जायेगा. बल्कि नये राज्य गठन के बाद किसान व खेतिहर मजदूरों की खुशहाली के दावे के बरक्स इन्हें पेश कर रहा हूँ. इन आंकडों को पेश करते हुए यह दिखाने का प्रयास कर रहा हूँ कि प्रथम मुख्यमंत्री जिनकी खुशहाली के बदौलत छत्तीसगढ़ को आगे ले जाना चाहते थे, वह किस चौराहे पर खड़ा है और किधर जाने को मुड़ा है.
यहाँ मैं पूरे छत्तीसगढ़ की चर्चा नहीं करूंगा, मैं विदेशी कम्पनियों द्वारा वहाँ के खनिज के लूट की बात नहीं करूंगा, न ही उन जंगलों की जिनकी पीठ पर हस्ताक्षर किया जा चुका है. मैं बात करूंगा बिलासपुर के उन किसानों की जिनकी आत्महत्यायें राज्य के अपराध ब्यूरो द्वारा दर्ज की गयी हैं, और जिनके घर जाकर हमने आत्म हत्या के कारणों को जानने की कोशिश की. पर कुछ तथ्य ऐसे हैं जिनके लिये मैं कोई सरकरी स्रोत प्रस्तुत नहीं कर सकता अलावा इसके की आप मेरी बात पर यकीन करें.
गाँव में घूमते हुए कुछ ऐसे किसानों की आत्म हत्या के मामले सामने आये जो राज्य के किसी रिकार्ड में दर्ज नहीं हैं, कारण पूछने पर लोगों ने बताया कि आत्महत्या के बाद राज्य उस व्यक्ति का जीवन तो लौटा नहीं सकता, पुलिस को सूचित करने पर पूरे परिवार का जीवन अलबत्ता सांसत में फंस जाता है. और पुलिस रोज-बरोज उन्हें और उनके सम्बन्धियों को परेशान ही करती है.

छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्या को लेकर वहाँ के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों में लम्बी बहसे हो चुकी हैं जिसमे सरकारी आंकडो या फिर अन्य आधारों पर किसान आत्महत्या को स्थापित व ख़ारिज़ किया जाता रहा है पर बिलासपुर के १८ किसानों पर किये गये इस सर्वे से ख़ारिज़ होते दिखते हैं बल्कि एक अन्य तथ्य यह उभर कर आया कि यदि उन आत्महत्याओं को जो सरकारी आंकडे में शामिल नहीं है को सम्मलित किया जाय तो छत्तीसगढ़ में प्रतिदिन ४ किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा और बढ़ जायेगा. पर छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या का स्वरूप वह नहीं है जो कि विदर्भ या आंध्र प्रदेश में है यानि ज्यादातर मामले ऐसे हैं जहाँ प्रत्यक्ष तौर पर किसान अपने कृषि संकट से परेशान होकर ही आत्महत्या नहीं कर रहा है. चूकि किसान की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी है अतः उसकी बदहाली का आधार भी कृषि ही बनेगी. और इनमे से अधिकांस आत्महत्याओं की कहानी इसी स्वरूप को पुष्ट कर रही है.
छत्तीसगढ़ में कृषि से जुडे कुछ महत्वपूर्ण आंकड़े-
· राज्य के ८०% लोग कृषि पर निर्भर हैं.
· छत्तीसगढ़ में ५६.४४ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती होती है.
· राज्य में ७५% सिर्फ धान की खेती होती है. धान के लिये अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक पानी की जरूरत होती है पर सिचाई की व्यवस्था महज़ २०.३% ही है.
· राज्य में औसतन ३८.०७ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की फसल उगायी जाती है.
· राज्य में औसतन ४७ लाख मीटरिक टन चावल का उत्पादन होता है.
· धान का उत्पादन प्रति हेक्टेयर १३-१४ क्विंटल है जो राष्ट्रीय औसत का आधा है पर इसके बावजूद छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है क्योंकि यहाँ धान की तकरीबन २२,९७२ प्रजातियां पायी जाती हैं.
बिलासपुर-
· बिलासपुर का क्षेत्रफल ६३७६.७६ वर्ग किलोमीटर है.
· कुल सात तहसीलें (बिलासपुर, मस्तूरी, पेंड्रा रोड, कोटा, तखतपुर, लोरमी, मुंगेली) हैं.
· कुल १० विकास खण्ड (बिल्हा, मस्तूरी, मरवाही, गोरेला-१, गोरेला-२, कोटा, तखतपुर, मुंगेली, पथरिया, लोरमी) हैं.
· कुल जनसंख्या १९९३०४२ है. (९८४०३५-महिला, १००९००७-पुरुष) जिसमे ७५% जनसंख्या आदिवासी, पिछड़े और हरिजनों की है.
बिलासपुर जिले में हुई किसान आत्महत्याओं में से १८ किसानों के यहाँ जाकर उनकी आत्महत्या के कारण जानने की कोशिश की गयी जिसमे यह बात निकल कर सामने आयी कि १८ में से १२ किसानों ने अपनी तंगहाल स्थिति व अभावग्रस्तता से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुना. ये १२ किसान निम्न लिखित हैं-
विक्रम सूर्यवंशी- मटियारी गाँव
हेमंत पटेल- दर्राभाटा
भीखमलाल ढोगेश्वर- निपनिया
अयोध्या प्रसाद पटेल- दर्राभाटा
ज्ञानदास- खाड़ा
जेठूराम- गुड़ी
रामसिंह पोर्ते- लूतरा
फिरन सिंह- खाड़ा
चंदन सिंह गोड़- भरारी
वेदराम मरावी- खुरदुर
दाइद अहमद- बरेला
गिरिवर- बरेला थे.
ये कुल १२ किसान छोटे दर्जे के किसान थे. जिनके पास २-३ हेक्टेयर तक जमीने थी. घरवालों व आसपड़ोस से बात करने के बाद इनकी आत्महत्या के पीछे जो बात मुख्य रूप से उभर कर आयी वह अलग-अलग परिदृष्य की थी पर उनकी प्रकृति एक थी, वह थी तंगहाली. आत्महत्या के अलग-अलग कारणों की वज़ह अभाव ग्रस्तता थी. जिसके कारण इनके घर में आपसी कलह बढी या पति-पत्नी के बीच लड़ाईयां हुई. और इन सब का निदान इन किसानों ने आत्महत्या में खोजा. इनमे से कुछ किसान ऎसे भी थे जो दिहाड़ी के मजदूर या आस-पास के किसी रोजगार परक कार्य में भी लगे हुए थे पर ये रोजगार इनके अभाव ग्रस्त जिन्दगी में कोई सुधार न ला सके. इनमे से अधिकांस किसान अपने घर के मुखिया थे और घर में आने वाले आय का एक मात्र सहारा. आत्महत्या के बाद इनके घर की स्थिति और भी बदहाल हो चुकी है और अधिकांस घर कर्ज में डूब गये हैं. इनकी मौत के बाद न तो सरकार की तरफ से कोई मुवावजा मिल सका है न ही कोई अन्य सहयोग.
इसके अलावा एक अन्य किसान राजकुमार जोकि नरगोड़ा के निवासी थे उनकी आत्महत्या का जो कारण उभर कर आया वह एक सामंती समाज के व्यक्ति को आत्मसम्मान को ठेस लगने से था जिसमे उनकी बहू क्षमा उपाध्याय के द्वारा दहेज मांगने के आरोप में थाने में रिपोर्ट दर्ज करायी गयी. पुलिस की पूछताछ और गाँव में बदनामी के चलते इन्होंने अपनी आत्महत्या कर ली.
जबकि भरारी के किसान बाबूलाल की कहानी कुछ अलग है. इन्होंने घर चलाने के लिये पहले अपनी जमीन का हिस्सा बेंचा पर मंहगायी के कारण स्थितियां और भी बिगड़ती गयी. जिसके चलते ग्रामीण बैंक से इन्हें कर्ज लेना पड़ा. कर्ज धीरे-धीरे बढ़ता रहा और चुकता करने की कोई स्थिति नहीं बन पायी और इन सब से तंग आकर एक दिन उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी.
बिन्द कुंवर बाई एक महिला थी जो बरेला की निवासी थी. इनके पति जन्तराम खेती में कोई काम नहीं करते थे. अतः घर और खेती दोनों को ये संभालती थी. पति अक्सर सराब पीकर आता था और कुंवर बाई को मारता पीटता था इस पति प्रताड़ना से अज़िज़ आकर बिंद कुंवर बाई ने एक दिन जहर खाकर आत्महत्या कर ली. जबकि आरती कुमार जोकि बरेला के निवासी हैं . इन्होंने खेती में भाईयों से हुए विवाद के आधार पर ट्यूबेल के बटवारे के झगड़े के कारण आत्महत्या की.
इससे अलग दो किसान उमेद कुमार जरहागाँव के निवासी थे, तीरथ राम जोकि बरेला के निवासी थे को असाध्य रोग था जिसका इलाज कराने के पैसे भी उनके पास नहीं थे और वे इतने पीड़ा की स्थिति में जी रहे थे कि इससे बेहतर विकल्प के रूप में उन्होंने न जीने का फैसला किया और आत्महत्या कर ली.
इस संक्षिप्त विवरण के माध्यम से यह देखा जा सकता है किसानों के द्वारा हो रही आत्महत्याओं में सभी के पीछे का कारण महज़ कृषि नहीं है पर १८ में से १२ किसानों के मौत का संबध उनकी आर्थिकी जिस पर टिकी है जिसके वज़ह से वे अभाव ग्रस्त हो रहे हैं वह कृषि ही है. अतः छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्या को पूरी तरह से झुठलाया नहीं जा सकता बल्कि मटियारी के सूनूराम सूर्यवंशी जैसे किसान जिनकी आत्महत्यायें सरकार के किसी आंकड़े में दर्ज नहीं हैं दर्ज किये जाने और उनके आत्महत्या के कारणों की तफ्सील से जाच किये जाने की जरूरत है.
आंकड़ों के स्रोत- देशबंधु प्रकाशन विभाग/ संदर्भ छत्तीसगढ़/सं. आलोकपुतुल

02 दिसंबर 2009

गोयबल्स (पी.चिदम्बरम) के झूठ

गोयबल्स (पी.चिदम्बरम) अपने झूठ को दिनों दिन बदल रहे हैं और आज इन्हें सौ बार नहीं बल्कि एक बार बोलने की जरूरत है. बाकी, संचार माध्यम १०० के आंकड़े से कई गुना आगे निकल जाते हैं. पी. चिदम्बरम का अभी हाल में बयान आया कि ग्रीन हंट मीडिया द्वारा फैलाया गया गया झूठ है. पर २५ तारीख को बनवासी चेतना आश्रम के निर्देशक हिमांशु कुमार को आदिवासी विकास खण्ड सुकमा, दक्षिण बस्तर की तरफ से एक पत्र दिया गया जिसमे आश्रम के कार्यकर्ताओं को आपरेशन ग्रीन हंट चलाये जाने के कारण फील्ड में न जाने का निर्देश दिया गया है. किसी छोटे अधिकारी के बरक्स गृहमंत्री पर विश्वास किया जाना चाहिये और इस लिहाज से क्या हिमांशु कुमार को दिये गये पत्र को झूठा मान लिया जाय?
दांव पर हैं एक बेहतर समाज और जीवन की आकांक्षा आपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जनता के खिलाफ युद्ध देश के अनेक इलाकों में शुरू हो चुका है. मीडिया में भले इसकी खबरें नहीं आ रही हों, उन इलाकों से आनेवाले अनेक लोग-जैसेकि फिल्मकार गोपाल मेनन-बताते हैं कि कैसे आदिवासियों के उत्पीडन और विस्थापन में किस तरह भयावह तीव्रता आई है. जनता के खिलाफ चल रहे इस युद्ध के विरोध में दिल्ली में फोरम अगेंस्ट वार ऑन पीपुल नाम का एक फोरम बना है, जिसमें अरुंधति राय, सरोज गिरी, गौतम नवलखा जैसे अनेक जाने-माने लोग और पीयूसीएल, पीयुडीआर, भाकपा माले (लिबरेशन), आरडीएफ़ जैसे अनेक संगठन शामिल हैं. फोरम ने एक अपील जारी की है. उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं.
जनता पर युद्ध के खिलाफ अखिल भारतीय कन्वेंशनसुबह 9 बजे-शाम 6 बजे तक, 4 दिसंबर 2009 (शुक्रवार)राजेंद्र भवन, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, आइटीओ के नजदीक, दिल्लीजैसा कि आप आगे पढ़ेंगे, भारतीय राजसत्ता द्वारा एक नवंबर से शुरू हो चुके जनता के खिलाफ युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। मारे जानेवाले आदिवासियों-जो भारत सरकार के इस शिकार के प्रमुख पीड़ित हैं-की संख्या बहुत बढ़ गयी है. युद्ध क्षेत्र से कभी कभार आ जानेवाली मीडिया खबरों के मुताबिक मृतकों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है. उसी तरह जलाये गये गांवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है. हमने सुना है कि सीआरपीएफ, कोबरा, सी-60, ग्रेहाउंड्स, भारत तिब्बत सीमा पुलिस, नक्सल विरोधी टास्क फोर्स और अर्ध सैनिक बलों और पुलिस बलों के संयुक्त दल ने वायुसेना के हेलिकॉप्टरों और अमेरिकी खुफिया सैटेलाइटों की मदद से सेना के शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में दंडकारण्य और इसके आसपास के इलाकों में ऑपरेशन शुरू कर दिया है. नवंबर के मध्य में 12 से अधिक गांव पूरी तरह मिटा दिये गये, उनके निवासियों को जंगल में और अधिक भीतर शरण लेने पर मजबूर किया गया. दंडकारण्य में दो अलग-अलग और उड़ीसा में एक जनसंहार की घटनाएं सामने आयीं, जिनमें 17 से अधिक आदिवासी सरकारी सैन्य बलों द्वारा मारे गये. लालगढ़ में ताजा हमले में सैकड़ों प्रतिरोधरत आदिवासियों के बेघर कर दिया है. यदि भारत सरकार इस सैन्य हमले को तुरंत नहीं रोकती है तो इसकी बहुत आशंका है कि मारे गये और घायल लोगों के साथ विस्थापित लोगों और नष्ट कर दिये गये गांवों की संख्या में आनेवाले हफ्तों में इजाफा ही होगा.भारत सरकार महीनों से इस व्यापक सैन्य हमले की तैयारी करती रही है, जिसमें लगभग एक लाख सैनिकों की तैनाती, उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस करना, वायुसेना को हवाई हमलों की इजाजत देना और भारतीय सेना को न सिर्फ प्रशिक्षण और समन्वय के लिए बल्कि ऑपरेशन के नेतृत्व के लिए और अगर जरूरी हुआ तो सक्रिय हिस्सेदारी के लिए भी तैयार करना शामिल है. ऐसी खबरें भी हैं कि अमेरिकी खुफिया और सुरक्षा अधिकारियों ने भारत सरकार को यह युद्ध चलाने के लिए 'सलाह मशविरा' दिया है. मीडिया खबरों के मुताबिक मध्य और पूर्वी भारत के पूरे जंगली इलाके को सात ऑपरेटिंग एरिया में बांटा गया है, जिसे सरकार पांच सालों के भीतर माओवादियों सहित हर तरह के प्रतिरोध से 'साफ' करना चाहती है. इस युद्ध का खर्च पहले ही 7300 करोड़ रुपये आंका जा चुका है.जनता के खिलाफ इस युद्ध के उद्देश्यों के बारे में कोई भ्रम नहीं है. यह युद्ध कॉरपोरेट्स की तरफ से उनके फायदे के लिए भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के जीवन को निशाना बनाते हुए लड़ा जा रहा है. विश्वव्यापी साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था अभी 1929 के बाद से सबसे गंभीर संकट झेल रही है, अपनी सभी निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के दलदल में और गहरे तक डुबोते हुए. सैन्य औद्योगिक तंत्र-जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और भारत के बड़े व्यावसायिक हित हैं-युद्ध चाह रहा है, जिसके जरिये वह संकटग्रस्त बाजार में अपने उत्पादों के लिए एक कृत्रिम मांग पैदा कर सके. इससे भी अधिक घरेलू और विदेशी कॉरपोरेशन देश की खनिज संपदा को हथियाने के लिए बेताब हैं, जिसकी कीमत अरबों डॉलर है, जो कि मध्य और पूर्वी भारत के व्यापक जंगली इलाके में फैला हुआ है. एक बार हाथ लग जाने के बाद यह संपदा इन कॉरपोरेशनों के लिए अगले कई दशकों तक बेतहाशा मुनाफे की गारंटी कर देगी. माइनिंग कॉरपोरेशनों द्वारा राज्य सरकारों से इस इलाके की जनता की संपदा को पूरी आजादी से लूटने की इजाजत देनेवाले सैकड़ों समझौते और करार (एमओयू) पहले ही किये जा चुके हैं. कॉरपोरेशनों ने इस प्राकृतिक संपदा को हथियाने की राह में खड़ी सभी कानूनी बाधाएं आसानी से दूर कर ली हैं. एकमात्र बाधा जो उनके और इस अपार संपदा के बीच में खड़ी है, वह है जनता का हर तरह का प्रतिरोध, भले ही वह हथियारबंद हो या बिना हथियारों के. नंदीग्राम से लेकर नियमगिरी तक, लालगढ़ से दंडकारण्य तक, कोरापुट से कलिंगनगर तक जनता 'विकास' के नाम पर सरकार द्वारा थोपी जा रही नवउदारवादी नीतियों की महज शिकार होने से इनकार कर रही है. पुलिसिया दमन से लेकर सलवा जुडूम तक, हर तरह के बल प्रयोगों के बाद, जो जनता के आंदोलनों को रोक पाने में विफल रहे, भारत सरकार ने अब न सिर्फ माओवादी आंदोलन के खिलाफ-जो कि 'सबसे बड़ा आंतरिक खतरा' बताया जा रहा है-बल्कि सभी जनांदोलनों के खिलाफ, जो सरकार की नीतियों को चुनौती देते हैं, युद्ध छेड़ दिया है. ऐसा करके, वह न केवल हर तरह की असहमत आवाजों और जनवादी अधिकारों को ध्वस्त करने की कोशिश कर रही है, बल्कि एक बेहतर समाज और सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की शोषित-उत्पीड़ित जनता की आकांक्षाओं को भी नष्ट करना उसका उद्देश्य है. Forum Against War on People


25 नवंबर 2009

लोकतंत्र का नेतृत्व करेगी सेना

अनिल चमड़िया
भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह के राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल रहे हैं उसने एक बहस लोगों के बीच खड़ी कर दी है। संसद के लिए चुनाव तो होंगे लेकिन उसका नेतृत्व सेना के हाथों में होगा? श्रीलंका में लिट्टे का सफाया करने वाली सेना के प्रमुख सारथ फोन्सेका ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और वे अप्रैल में राष्ट्रपति के लिए होने वाले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी को सुनिश्चित करने में लगे हैं। महिन्दा राजपाकसा ने ये सोचा था कि लिट्टे पर जीत दर्ज करने का दावा कर वे अगले चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित कर चुके हैं।अब भले ही चुनाव में जिसे कामयाबी मिले लेकिन श्रीलंका में सेना एक राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हो चुकी है। पाकिस्तान में जब चुनाव होते हैं तो सत्ता अप्रत्यक्षत सेना के नियंत्रण में होती है। बांग्ला देश में भी सेना का सत्ता पर नियंत्रण साफ दिखता है।इस तरह की स्थितियों के कारण साफ हैं। लोकतंत्र के बने रहने की अनिवार्य शर्त हैं कि लोगों की सुनी जाए।उनकी भागेदारी और हिस्सेदारी तय की जाए। इसे ही लोकतंत्र का विस्तार कहा जाता है। उल्टी स्थिति तब पैदा होती है जब समाज का कोई वर्ग लोकतंत्र पर अपने कब्जे का दावा पेश करने लगता हैं। तब वह वर्ग अपनी जमीन को बचाए रखने की लड़ाई में जोर जबरदस्ती और अपनी सेना के इस्तेमाल पर जोर देने लगता है।जबकि लोकतंत्र का यह स्वभाव है कि उसे लोगों के बीच उसके निरंतर विस्तार की स्थितियां मौजूद हो। इसी पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। लेकिन पहले एक बात यहां साफ कर लेनी चाहिए कि न तो लोकतंत्र की जमीन अचानक तैयार होती है और ना ही सैन्य शासन के अनुकूल स्थितियां खड़ी हो जाती है। उनका क्रमश विकास होता है। हम इस बात को याद कर सकते हैं कि आजादी के संघर्षों की परंपरा के नेता ये दावा करते रहे हैं कि भारत इतना विशाल देश है वहां कभी भी सैन्य शासन नहीं हो सकता है। लेकिन इस तरह के भाववादी दावे के बजाय हमें ठोस तर्कों के आधार पर इसकी पड़ताल करनी चाहिए। भारत में आज ऐसे कितने राज्यों के संख्या हो गई है जहां के संवैधानिक प्रमुख यानी राज्यपाल पुलिस या सेना की पृष्ठभूमि के हैं ?इसके जवाब के लिए राज्य सभा में एक प्रश्न महीनों से इंतजार कर रहा हैं। लेकिन जो दिखाई दे रहा है उसमें एक बात बहुत साफ हैं कि ऐसे राज्यों की संख्या आज भी अच्छी खासी है और पिछले कुछ वर्षों में इस संख्या के विकासक्रम को देखें तो ये कहा जा सकता है कि इस तरह के राज्यों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। जिस भी इलाके में कथित अशांति का दावा किया जाता है वहां शांति तो वापस नहीं आई लेकिन वहां संवैधानिक प्रमुख के रूप में सैन्य पृष्ठभूमि स्थायी रूप से काबिज हो गई। इसके कारण साफ है। सैन्य अपने आप में एक विचारधारा है और दूसरी किसी भी विचारधारा की तरह यह भी अपनी सत्ता को बनाए रखने की योजना बनाए रखती है।अशांति के बने रहने से ही वह अपने बने रहने के तर्क दे सकती है।अब इसके साथ ये भी देखा जा सकता है कि भारत जैसे देश में लगातार कथित अशांति के इलाकों का विस्तार हो रहा है और जहां जहां सत्ता ऐसे इलाकों को चिन्हित करती है उसे सैनिकों के हवाले करने की योजना में लग जाती है।देश के कई ऐसे इलाकों में सैन्य अड्डे स्थापित किए भी जा चुके हैं।सत्ता का सांस्कृतिक आधार लोक के बजाय सैन्य हो चुका है। दूसरी तरफ लोकतंत्र की स्थिति के लिए ये भी देखा जा सकता है कि चुनाव को ही लोकतंत्र मान लिया गया है और चुनाव में लोगों की हिस्सेदारी लगातार कम होती जा रही है।महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के दौरान गढ़चिरोली में सैन्यकर्मियों द्वारा लोगों को मतदान के लिए मतदान केन्द्रों तक ले जाने की तस्वीर काफी चर्चित हुई थी। जाहिर सी बात है कि जब लोक राजनीति की जगह नहीं बनेगी तो लोक सत्ता नहीं बनी रह सकती है। ऐसी स्थितियों में भारत के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि जो स्थितियां श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्ला देश जैसे छोटे देश में जितनी जल्दी विकसित हुई है उसकी तुलना में बड़ा देश होने के कारण यहां वैसी स्थिति के स्थापित होने में कुछ देर से हो सकती है। लेकिन अभी ये दावा किया जा सकता है कि आम जनजीवन में सैन्य हस्तेक्षप का तेजी से विस्तार हो चुका है।इसके कई उदाहरण देखे जा सकते है लेकिन यहां एक ही उदाहरण काफी है। आज जब भी लोकतांत्रिक चेतना की बची खुची ताकत के बूते पर कोई लोकतंत्र विरोधी कार्रवाईयों के लिए आवाज उठाता है तो उसे हिसंक कार्रवाईयों के समर्थक के रूप में पेश किया जाता है। जिस देश के बौद्धिक समाज को लोकतंत्र के लिए खतरा बने सवालों को उठाने पर ये कह दिया जाता है कि ये आतंकवाद की हिंसा का समर्थन है तो सत्ता कितनी सैन्य संस्कृति में डूब चुकी है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अमेरिका ने जब इराक पर हमला किया तो बुश ने यही तो कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवाद के साथ हैं। दरअसल पूरी दुनिया में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बन रही है उसमें लोकतंत्र के सवाल भी भूमंडलीकृत हुए हैं।लोकतंत्र का संकट किसी देश का अकेले संकट के रूप में नहीं रह गया है। किसी ताकतवर वर्ग के वर्चस्व वाले देश की चिंता ये नहीं है कि दुनिया में लोकतंत्र का विस्तार हो। हर ताकतवर देश अपने उपर किसी भी स्तर पर निर्भर अपेक्षाकृत कमजोर देश में वैसी ही सत्ता चाहता है जिससे कि उसके हित पूरे हो सके।ऐसी स्थितियों में वैसे देशों के लिए सैन्य रणनीतियों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं रह जाता है।इसीलिए अपेक्षाकृत कमजोर देशों में लगातार सैन्य सत्ता की स्थितियां बनती जा रही है। इस परिपेक्ष्य में एक अलग उदाहरण हमारे सामने आता है तो वह नेपाल का है। नेपाल में जिन माओवादियों को हिंसक आंदोलन का समर्थक कहा जाता था वे ही लोकतंत्र के लिए वहां संघर्ष कर रहे हैं। वहां वे एक ऐसी सेना के गठन की मांग पर अड़े हुए हैं जिससे देश में लोक-तंत्र स्थायीत्व ग्रहण कर सके। ऐसी सेना का निर्माण सर्वथा लोकतंत्र के हित में नहीं है जिसका कि लोकतंत्र की आवाज को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाए। जहां तक हिंसा की बात है उसमें तो सत्ता व उसकी कार्रवाईयों का विरोध करने वाली शक्तियां दोनों ही करती है। हिंसा की परिस्थितियों और उन परिस्थितियों में की गई हिंसा का आखिरकार क्या उद्देश्य उभरकर सामने आता है, ये सवाल आज सबसे ज्यादा मौजूं है। लिट्टे ने हिंसा की तो श्रीलंका की सेना ने भी हिंसा की। लेकिन श्रीलंका की सेना की कार्रवाईयों के बाद से सत्ता लोगों के हाथों से निकलकर कहॉ जा रही है?आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें और सत्ता की संगठित हिंसा दो अलग अलग तरह की सत्ता का स्वरूप निर्धारित करती है। सत्ता की हिंसा और आंदोलन के दौरान की हिंसक वारदातें दो अलग तरह की बहसों की मांग करती है।सत्ता हमेशा चाहती है कि हिंसा की बहस का दृष्टिकोण वह विकसित करें।चूंकि वह संगठित होती है इसीलिए उसका दृष्टिकोण बहस के केन्द्र में रहता है जबकि लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि आंदोलन की हिंसक वारदातों पर अपने दृष्टिकोण से बहस खड़ी की जाए।

24 नवंबर 2009

उच्च शिक्षा में शोध की राजनीति

-विवेक जायसवाल (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के
मीडिया विभाग में शोधार्थी व स्वतन्त्र लेखन संपर्क- v.mgahv@gmail.com 09975771385
)



विद्वानों का मानना है कि शोध ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है. आज भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में हो रहे शोधों की स्थिति को देखें तो वे ज्ञान निर्माण को आगे तो नहीं पर पीछे जरूर ले जा रहे हैं. सरकार लगातार देश में उच्च शिक्षा के लिए बेहतर प्रयास करने के रट लगाती रहती हैं पर क्या सरकारी प्रयासों पर ही हमारे ज्ञान निर्माण की नींव टिकी है? उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में सरकारी दावे तो अपनी जगह हैं पर यदि हम ध्यान दें कि इन संस्थानों में जो लोग शोध कराने के लिए बैठाए गये हैं वे क्या भूमिका निभा रहे हैं. ये आखिर ऐसी किस राजनीति में मशगूल हैं जिससे भारतीय ज्ञान परम्परा की गति कछुए जैसी हो गयी है.

आज यदि हम सामाजिक शोध कराने वाली संस्थाओं में हो रहे शोधों की प्रकृति पर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे कि या तो वे पूर्व में हुए किसी शोध की नकल हैं या विदेशों में हुए शोधों के कट-पेस्ट हैं. अधिकत्तर शोधों की यही हालत है. इन शोधों के पीछे केवल इतना ही मामला नहीं है कि ये मौलिक हैं या नहीं. पहला सवाल तो यह है कि शोध के लिए किन लोगों को चुना जाता है. अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थानों में खासकर राज्याधीन विश्वविद्यालयों में शोध करने के लिए बिना किसी प्रवेश प्रक्रिया को अपनाए नामांकन कर लिया जाता है. ये नामांकन किस आधार पर होता है इसका पता किसी को नहीं. इनमें आरक्षण का प्रावधान है कि नहीं इसका भी पता किसी को नहीं है. पता है केवल उनको जिनको शोध करना है और जिनको शोध कराना है. आप किसी भी राज्याधीन विश्वविद्यालय की वेबसाइट को खंगालिए आपको शोध की डिग्री से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं मिलेगी. यदि मिलेगी भी तो केवल इतनी कि पी-एच.डी. के सम्बन्ध में सम्बन्धित विभाग से सम्पर्क करें. अब एक दूर-दराज के गावों में रहने वाला छात्र कहां-कहां के सम्बन्धित विभाग में चक्कर लगाएगा. हां जानकारी तब मिलती है जब आप अखबारों में पढेंगे कि फलां को, फलां विषय में, फलां विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि मिली तभी आप जानेंगे कि अमुक विश्वविद्यालय के अमुक विभाग में पी-एच.डी. की भी डिग्री मिलती है. यह उच्च शिक्षा की एक बड़ी राजनीति और खेमेबन्दी का हिस्सा है. एक तरफ जहां मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान लागू करने के निर्देश दिए हैं वहीं दूसरी तरफ ये शोध संस्थान छात्रों को जानकारी के अभाव में इन वर्गों के छात्रों को शोध करने से वंचित करने के प्रयास में लगे हुए हैं. आरक्षण की इस नियमावली से ऐसे शोध संस्थानों पर कुंडली मारकर बैठे सवर्ण बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है. इस राजनीति का एक हिस्सा यह भी है कि जो छात्र जिस जाति का होगा उसको उसी जाति का ही निर्देशक उपलब्ध होगा. कहने का आशय यह कि विद्वता की सारी पोटली जो उच्च वर्गीय गुरुओं के पास है वह केवल उच्चवर्ग के चेलों के लिए है.

अब यदि हम शोध के विषयों की जांच पड़ताल करें खासकर मानविकी विषयों की, तो सारे के सारे शोध उन्हीं लोगों के कार्यों पर केन्द्रित होंगे जिनकी कृपा से ऐसे सवर्णवादी मानसिकता के नुमाइंदो को उनकी जगह मिली है. हिन्दी जैसे विषय के शोधों की यही हालत है. वे ऐसा कोई नया विषय शोधार्थियों को नहीं बताते जिससे वे ज्ञान को आगे बढ़ाने में सकारात्मक रूप से भागीदार हों. आप फलां लेखक, फलां साहित्यकार, फलां सामाजिक कार्यकर्ता आदि विषयों पर अपना शोध पूरा कीजिए तभी आपके शोध का महत्त्व है अथवा नहीं. यदि आप उनके मन का नहीं करते हैं तो वे आपकी पी-एच.डी जीवन भर नहीं पूरी होने देंगे. यदि आपने उनके घर के काम-काज नहीं किए तो भी आपकी पी-एच.डी. रह गयी अधूरी. भले ही आपका नामांकन हो गया हो और आप कितने ही योग्य क्यों न हों. आपने ये सारे काम नहीं किए तो आपकी सारी की सारी योग्यता धरी की धरी रह जाएगी.

अब सवाल आता है शोध के निष्कर्ष का. शोध का निष्कर्ष वही होना चाहिए जो शोध निर्देशक निकलवाना चाहता है. उसने जिस कथाकार, साहित्यकार, कार्यकर्ता आदि के कार्यों पर शोध करने के लिए आपको कहा है उसका निष्कर्ष उसको महिमामंडित करते हुए दिखना चाहिए भले ही उसका कार्य समाज के लिए प्रासंगिक हो या न हो. उसके द्वारा किए गए कार्यों को आपने अपने निष्कर्ष में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं लिखा तो चली आएगी आपकी थीसिस वापस और आपको उसे फिर से सुधारने के लिए कहा जाएगा और उसमें उन बातों को लिखने के लिए कहा जाएगा जो आपके गले के नीचे नहीं उतरेगी. मरता क्या न करता की हालत में आप अन्तिम चरण में वही करेंगे जो आपके निर्देशक महोदय कहेंगे. ऐसी स्थिति में शोध में मौलिकता और तटस्थता कहां से आएगी आप कल्पना कर सकते हैं.

सरकार दिनोंदिन उच्च शिक्षा और शोध के नए-नए संस्थान तो खोल रही है पर जब तक इसके पीछे होने वाली राजनीति और इस राजनीति को अंजाम देने वाले लोगों पर लगाम नहीं कसी जाएगी तो हम वहीं के वहीं रह जाएंगे जहां हमारी स्थिति सैकड़ों वर्ष पहले थी. शोधार्थियों को भी चाहिए कि वे ऐसी राजनीति के शिकार न हों और उनका डटकर मुकाबला करने का हर सम्भव प्रयास करें तभी उनका शोध समाज के लिए प्रासंगिक होगा और एक बेहतर भविष्य की कल्पना साकार हो सकेगी.