14 फ़रवरी 2011

शाहिद आज़मी को याद करते हुए

महताब आलम
बीते साल ग्यारह फ़रवरी को रात के क़रीब नौ का वक़्त रहा होगा. दिल्ली की कुख्यात सर्दी से बचने के लिए, मैं बंद दीवारों के रहम पर घर के भीतर ही रहने का इरादा रखता था. लेकिन ऑफिस के बचे  काम को पूरा  करने के लिए ओखला के जामिया नगर इलाके में एक साइबर कैफे में बैठा हुआ था. ओखला, वह इलाक़ा है जहां मैं अपने कस्बे से  चौदह साल की उमर में  देश के अन्य हिस्सों से आए मुस्लिम विधाथियों की तरह, आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए आया और तब से वही रह रहा था. बशारत पीर ने उचित ही लिखा है, "भारत के मुस्लिम दिल्ली नहीं जाते, वे ओखला जाते हैं.'
मोबाइल की घंटी बजी तो मैंने काम छोड़कर फ़ोन उठाया. फ़ोन मुंबई में रहने वाले मेरे एक मित्र का था जिसने ये ख़बर बताने के लिए फ़ोन किया था कि देर शाम शाहिद आज़मी की हत्या उनकी ऑफ़िस में कुछ 'अनजान' बंदूक़धारियों द्वारा गोली मार का कर दी गई है. इस दुखद खबर ने मुझे हिला कर रख दिया और कुछ पल के लिए मुझे भरोसा ही नहीं हुआ. मैं अविश्वास से अवाक रह गया.

शाहिद आज़मी
शाहिद जब शहीद हुए तब वे महज 32 साल के थे. यूँ तो शाहिद की पारिवारिक जड़े आज़मगढ़ में थीं. लेकिन, वे मुंबई के देवनार इलाक़े में जन्मे और पले-बढ़े. ये इलाका  टाटा इस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (TISS) के लिए जाना जाता है. उनकी हत्या के सिर्फ़ एक हफ़्ते पहले ही मैं आज़मगढ़ गया था. वहां मैंने हर उमर के लोगों को उनके बारे में बहुत ऊंची भावनाओं के साथ बोलते हुए पाया था और महसूस किया कि लोग उन्हें काफ़ी सम्मान के साथ देखते हैं. शाहिद को 1994 में भारत के चोटी के नेताओं की हत्या की 'साज़िश' के आरोप में पुलिस ने उन्हें उनके घर से गिरफ़्तार कर लिया था. इसका एक मात्र साक्ष्य उनका क़बूलनामा था जिसे उन्होंने कभी किया ही नहीं था. फिर भी, उन्हें पांच साल की क़ैद हुई. दिल्ली के तिहाड़ जेल में रहते हुए शाहिद ने स्नातक के लिए अपना दाख़िला कराया और अन्य क़ैदियों की क़ानून के अदालत में उनके मामलों के निबटारे के लिए मदद करना शुरू कर दिया. 2001 में जब वे रिहा हुए तो घर आए और पत्रकारिता और क़ानून के स्कूल में साथ साथ दाखिला लिया. तीन साल बाद, उन्होंने वक़ील मजीद मेनन के साथ काम करने के लिए वेतन वाले उप-संपादक पद को छोड़ दिया. यहां उन्होंने बतौर जूनियर दो हज़ार रुपये महीने पर काम शुरू किया. बाद में, उन्होंने अपनी ख़ुद की प्रैक्टिस शुरू कर दी जिसने एक निर्णायक फ़र्क़ पैदा किया. बतौर वक़ील महज सात साल के अल्प समय में उन्हें न्याय की अपनी प्रतिबद्धता के लिए शोहरत और बदनामी दोनों मिली. यह कहना अनुचित नहीं होगा कि, वे एक ऐसे इंसान थे जो इस व्यवस्था द्वारा उत्पादित किए गए, इस्तेमाल किए गए और बाद में 'ठिकाने' लगा दिए गए.
मैंने शाहिद के बार में पहली बार 2008 के आख़िर में एडवोकेट प्रशांत भूषण के निवास पर हुई एक बैठक में सुना था, जहां हमें बताया गया था कि महाराष्ट्र में आतंक से संबंधित मामलों के आरोपियों की सूची के लिए वे उपयुक्त व्यक्ति होंगे क्योंकि वे उनमें से कई मामलों में वक़ील थे. बाद में, जामिया टीचर्स सोलिडैरिटी असोसिएशन द्वारा आयोजित एक स्मृति सभा में एडवोकेट प्रशांत भूषण ने, शाहिद के साथ अपने जुड़ाव और कुछ मुलाक़ातों को याद करते हुए कहा था, "शाहिद, न्याय के लिए एक असाधारण प्रतिबद्धता वाले बेहतरीन वक़ील थे."
जनवरी 2009 के शुरुआती दिनों में, शाहिद और मैं असोसिएशन फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स (APCR) के महाराष्ट्र ईकाई की ओर से क़ानूनी मामलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं की जानकारियों के लिए आयोजित कार्यशाला में बतौर रिसोर्स पर्सन मुंबई आमंत्रित किए गये थे. एपीसीआर, एक नागरिक अधिकार समूह है जिसमें मैं झारखंड आने से पहले तक काम कर रहा था. लेकिन एक दिन देर से पहुंचने के कारण मैं उनसे नहीं मिल सका था. मुझे याद है कि कार्यशाला के प्रतिभागी उनके प्रस्तुतिकरण और उनके व्यक्तित्व से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे. मुझे शाहिद की दोस्त और फ़िलहाल, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (TISS) से जुड़ी मोनिका सकरानी के शब्द याद आते हैं. इकॉनमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक श्रृद्धांजलि लेख में वे लिखती हैं, "वह चीज़ों को व्याख्यायित करने में माहिर था. वह टाटा इंस्टीट्यूट में बतौर अतिथि अध्यापक पढ़ाने भी आता था. उसकी ईमानदारी, विस्तृत ज्ञान, विनम्र व्यवहार, अच्छा लुक,  ख़ुश होने का बच्चों जैसा अंदाज़, कोमल आवाज़ और विनोदी स्वभाव विद्यार्थियों का दिल जीत लेते थे. वे उसे जाने नहीं देना चाहते थे, और हर साल लोगों का ख़याल होता था कि उसकी कक्षाएं अब तक की हुई कक्षाओं में सबसे बेहतर थीं." बाद में, जब मैंने उस कार्यक्रम के वीडियो देखे तो महसूस किया कि मैं उनसे किसी तरह असहमत नहीं हूं.
"कमिटी फ़ॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स (CPDR) और इंडियन असोशिएशन ऑफ़ पीपुल्स लॉयर (IAPL), जिसके वह सक्रिय सदस्य थे, दोनों जगह हरेक लोग उसके ज्ञान और अनुभव के लिए उसका सम्मान करते थे जो उसकी नौजवानी की उमर से कहीं ज़्यादा था. और इसीलिए लोग क़ानूनी मामलातों के साथ साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर उसे अपना वक़ील बनाते थे." लेकिन वे हमें याद दिलाती हैं कि, "उसका काम सिर्फ़ इतना ही नहीं था कि वह ऐसे मामलों का बचाव करता था जिनसे उसे बदनामी हासिल होती थी. उसने मिठी नदी के सौंदर्यीकरण परियोजना की वजह से किनारे बसे विस्थापित लोगों और रिक्शे ठेले वालों के मामलों को भी सक्रियता से उठाया था. वह ख़ुद को मामलों के सारांश पढ़ने और उनकी बेहतर रक्षा करने तक सीमित नहीं रखता था बल्कि उन्हें विश्लेषित भी करता था. वह अपनी पीएचडी और आतंक के मामलों का दस्तावेज़ीकरण करना चाहता था. आतंकवाद, प्रति-आतंकवाद और राज्य के काम करने के तौर तरीक़ों के बारे में मुंबई में, वह संभवतः सर्वाधिक जानकार व्यक्ति था. बैठकों में, वह नम्रता, धीरे और मुद्दों पर संक्षेप में बोलता था और अपने मज़बूत और गहन विश्लेषण से हरेक का ध्यान आकर्षित करता था."
मोनिका द्वारा शाहिद को आतंकवाद और प्रति-आतंकवाद के बारे में मुंबई में सर्वाधिक जानकार व्यक्ति का दर्ज़ा दिए जाने की पुष्टि ह्यूमन राइट्स वाच (HRW) द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट "राष्ट्र-विरोधी" भारत में आतंकवाद के संदिग्धों की गिरफ़्तारी और यातना, से भी होती है. शाहिद मुंबई के एक मात्र ऐसे वक़ील हैं जिनका इस रिपोर्ट में आभार माना गया है और जिन्हें कई जगह पर उदृधत किया गया है. लेट्टा टेलर, HRW में आतंकवाद और प्रति-आतंकवाद कार्यक्रम की  शोधार्थी और रिपोर्ट की लेखिकाओं-लेखकों में से एक, ने मुझे बताया कि शाहिद से वे जून 2009 में मिली थीं और उन्होंने अपने मुसलमान क्लाइंट्स को दी जाने वाली कथित यातनाओं को बक़ायदे व्याख्यायित किया जो 2008 में दिल्ली, अहमदाबाद और जयपुर में हुए भयानक बम विस्फ़ोट के सिलसिले में आरोपी थे. "जैसा कि मैं उनके शब्दों को सुन रही थी, पर कोई मदद नहीं कर सकती थी लेकिन उनके भविष्य के लिए डर रही थी. वे जो उजाला फैला रहे थे वह असंभव तौर पर उज्जवल दिखता था." वे यादों में  चली जाती हैं,  "जेल में पांच से ज़्यादा साल तक रहने के दौरान, आज़मी ने हमें बताया था कि, उन्होंने तय किया कि अन्याय से लड़ने का सर्वाधिक कारगर रास्ता कानून के शासन के जरिये है." आगे वे जोड़ती हैं, "लेकिन उन्होंने न्याय की जिस खोज को प्रेरित किया वह बुझाई नहीं जा सकती है."
यह सच है कि शाहिद हमारे बीच नहीं है, और उनकी बे-वक़्त और हिंसक मौत ने इंसाफ़ में दिलचस्पी रखने हम सभी लोगों के लिए, हमारे सामने की बड़ी संभावनाओं का गला घोंट दिया है. लेकिन असलियत यह है कि उनकी शहादत के पिछले बारह महीनों में मेरे एक दिन भी ऐसे नहीं हैं जो उनके बारे में सोचे बग़ैर गुज़रे हों. बीते साल के दौरान, जब भी मैं अदालतों में गया या लोगों को वक़ीलों का पहनावा पहने देखा तो मुझे शाहिद की याद आई और मेरी उनके नक़्शेक़दम पर चलने की इच्छा मज़बूत होती जाती है.

अगर कभी पल भर के लिए वे मेरे ज़ेहन से चले भी जाते हैं तो मेरे वरिष्ठ दोस्त अजीत साही, जिन्होंने शाहिद के साथ काम किया है, के शब्द मुझे याद दिलाते हैं कि, "शाहिद मरे नहीं हैं और कभी नहीं मरेंगे." 
शहीद हेम चन्द्र पांडेय ने सही कहा था,         
"इंसाफ की लड़ाई में, मौत कोई शिकस्त नहीं होती,
शहीदों को कही अलविदा, कभी पस्त नही होती।
जिन्दगी के लिए दाँव चढ़ी जिन्दगी, कभी खत्म नहीं होती।"
(लेखक मानवाधिकार मुद्दों पर काम करते हैं )
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