23 अगस्त 2011

“मेरा पूरा जीवन ही भहरा गया, ऐसी स्थिति में बुरके की परवाह कौन करेगा”.

(अभी-अभी जम्मू कश्मीर में राज्य मानवाधिकार आयोग ने 38 जगहों पर पाए गए 2000 से ज्यादा गैर-चिह्नित कब्रों के जांच का आदेश दिया है. पुलिस और सैन्य बलों का दावा है कि इनमें से अधिकांश कब्र सीमापार के ऐसे आतंकवादियों के हैं जिनकी पहचान संभव नहीं हो पाई. लगभग 600 कब्रों पर स्थानीय लोगों ने दावा किया है कि वे उनके परिजनों के हैं. जम्मू कश्मीर में लोग गायब होते हैं और ऐसे ही किसी कब्र का हिस्सा बन जाते हैं. अज्ञात आतंकवादी के ठप्पे के साथ. गायब होने के राजनीतिक पहलू पर प्रकाश डालता परवीना अहंगर का यह साक्षात्कार आपसे साझा कर रहा हूँ.)
कश्मीर की स्थितियों पर ’ग़ायब लोगों के माता-पिताओं का संघ’, जम्मू और कश्मीर, की संस्थापक और अध्यक्ष परवीना अहंगर का एक साक्षात्कार
[ग़ायब लोगों के माता-पिताओं का संघ (एसोसिएशन ऑफ पैरेंट्स ऑफ़ डिसएपियर्ड पर्संस: एपीडीपी) जम्मू और कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा ’ग़ायब’ किए गए लोगों के संबंधियों का संगठन है. ग़ायब हुए लोगों की स्थिति के बारे में पता लगाने और उन्हें न्याय दिलाने के उद्देश्य से 1994 में इस संस्था का गठन हुआ. इसके गठन में परवीना अहंगर की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी. 1991 में परवीना के बेटे जावेद अहंगर को भारतीय सैन्य बलों ने उठा लिया था जिसके बाद से अब तक उसकी कोई ख़बर नहीं है. सैन्य बलों ने अपने तलाशी-और-घेरेबंदी अभियान में उसे उसके चाचा के घर से उठा लिया था, जहां वह रात में पढ़ाई कर रहा था. तड़के परवीना को यह ख़बर मिली कि उसके बेटे को एक वैन में सैनिक ले गए हैं.
यहीं से अपने बेटे को खोजने की उसकी लंबी और सतत लड़ाई की शुरुआत हुई; अथाह पीड़ा और व्यथा से भरी एक लड़ाई; एक लड़ाई जिसे वह साहस और धैर्य के साथ लगातार लड़ रही है: उस वेदना के बावज़ूद जब उसके 19 वर्षीय बेटे जावेद को उठा लिया गया था, जिसके बारे में वह कहती है कि वह जख्म अभी भी उतना ही ताजा है जितना उस ख़बर को पढ़ते वक़्त था. बर्बरता और दमन के बीच गहरे संकल्प के जरिए उसने अपने लिए रास्ता निकालना सीख लिया है. वह कहती है कि उसके बेटे के साथ ही उसका डर भी ग़ायब हो गया. अपने बेटे को खोजने के लिए वह थाना-दर-थाना, पूछ्ताछ-केंद्र-दर-पूछ्ताछ-केंद्र, कैंप-दर-कैंप, अस्पताल-दर-अस्पताल भटकी. वह अपने जैसे अन्य बहुत लोगों से मिली जो अपने-अपने लाडलों को खोज रहे थे.
1994 में परवीना ने श्रीनगर उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की. नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की मदद से कई-कई याचिकाओं के दायर होने का सिलसिला चालू है. अधिक-से-अधिक ’ग़ायब’ लोगों के परिवारों के सदस्य एकजुट हुए, साथ-साथ न्यायालय गए, साथ-साथ प्रदर्शन किए. उन्हें पकड़ लिया गया, कारागार में रखा गया और यहां तक कि उन लोगों ने पुलिस फायरिंग भी झेली, लेकिन भारतीय राजसत्ता के बर्बर सैन्य बलों का उन लोगों ने साहस और एकजुटता के साथ डटकर मुकाबला किया. इस तरह एपीडीपी के समेकित संघर्ष और प्रयास से ’ग़ायब’ लोगों को खोज निकालने का आंदोलन शुरू हुआ, जो कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है.]
'कावो' की तरफ से करेन गैब्रियल और वसंता ने परवीना अहंगर से बातचीत की जब वह एक सभा को संबोधित करने दिल्ली आई हुई थीं. वार्तालाप के सार को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:
कावो: क्या मौजूदा परिस्थितियों के चलते कश्मीरी महिलाएं इस आंदोलन में शामिल होने को मज़बूर हुईं या वे खुद इसके लिए प्रतिबद्ध हैं, अथवा इसलिए कि इस हद तक युवा मारे गए हैं, और गुम हुए हैं, या फिर उनके दिमाग में कश्मीर के आत्म-निर्णय का सवाल है?
परवीना अहंगर: नहीं, यह सिर्फ़ पुरूषों का आंदोलन नहीं है. यह हर व्यक्ति का आंदोलन है और हर कोई इसको समर्थन दे रहा है. लेकिन ऐसी कश्मीरी महिलाएं बड़ी तादाद में हैं जिन्होंने अपने बच्चे खोए हैं अथवा ’ग़ायब’ होते देखे हैं. मिसाल के तौर पर, एक महिला ने अपने गुमशुदा बच्चे की तलाश में राज्य के सभी कारागारों को छान लिया. इसलिए ऐसी स्थितियों ने उन्हें मज़बूर किया है. उन्हें अपने बेटों की तलाश करनी पड़ती है और उनसे संबंधित किसी भी समाचार के लिए संघर्ष करना पड़ता है, और यह उनकी मजबूरी है. लेकिन जहां तक आंदोलन को समर्थन देने का सवाल है, हर कोई इसके पक्ष में है और कश्मीर की महिलाएं कोई अपवाद नहीं हैं.
कावो: कश्मीर की महिलाओं पर भारतीय सैन्य जमावड़े का क्या असर पड़ा है, इस संबंध में आप कुछ विचार दे सकती हैं?
परवीना: महिलाओं ने काफी सहा है, और इसका एक लंबा इतिहास है. कोनन केशपुरा बलात्कार केस को लीजिए, जहां यौन हिंसा की शिकार को गहरा मानसिक आघात और सामाजिक दबाव झेलना पड़ा था, और कोई भी उससे शादी करने को तैयार नहीं था. पिछले साल भी शोपियां में बलात्कार और हत्या का मामला देखने को आया. किसी भी तरह से सही जांच नहीं हुआ और भारतीय सैन्य बलों द्वारा किए गए अत्याचार को कालीन के नीचे दबा दिया गया.
कावो: क्या मौजूदा सैन्य जमावड़े के संदर्भ में यह कहना सही होगा कि इसमें पुरूषों के मुकाबले महिलाओं को अलग तरीके से भुगतना पड़ रहा है?
परवीना: हां. महिलाएं ने अनेक तरीकों से भुगता है, और ठीक इसी तरह उनकी प्रतिक्रियाएं भी कई तरीकों से जाहिर हुई है. उन्होंने अपने बेटों को खोया है, अपने ग़ायब अथवा मृत पिताओं की वेदना से वे गुजरीं हैं. महिलाओं का एक और टुकड़ा है जो अर्ध-विधवा है, वे जो अपने ग़ायब पति के घर लौटने का इंतजार कर रही है. वे पीड़ित लोग हैं. ऐसे बच्चों की संख्या भी बड़ी तादाद में हैं जिन्होंने अपने जिंदा पिता का मुंह नहीं देखा, जिनके पिता भारतीय सैन्य बलों द्वारा पहले ही मार गिराए गए. जब उनसे पूछा जाता है कि, तुम्हारे पिता कौन है? वे अपने पिता को नहीं पहचान पाते. इसलिए, कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में स्मारक बनाए गए हैं ताकि ऐसे बच्चे कम-से-कम स्मारक को पहचान पाए कि उनके पिता कहां है. यहां तक ऐसी महिलाएं, जो सामान्य तरीके से अपना गुजर-बसर कर रही थी, अत्याचारों से पीड़ित होकर उन्हें भी बाहर निकलना पड़ा है. कई महिलाएं, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया, असहाय भटकी हैं क्योंकि उसके बाद कोई उनकी मदद करने वाला नहीं था. वे बाहर काम और रोजगार ढूंढने के लिए विवश हुईं है, जबकि किसी सामान्य स्थिति में ऐसा नहीं होना चाहिए.
कावो: आपके खयाल से, आज़ादी के संघर्ष ने महिलाओं की जीवन को किस तरह बदला है?
परवीना: बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं अथवा वे जो आज़ादी के संघर्ष को क़ायम रखने का दावा करते हैं. लेकिन व्यक्तिगत रूप से, मैंने खुद अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष का रास्ता चुना है. हमें यह जानने के लिए आज़ादी की ज़रूरत है कि उन दस लाख से अधिक कश्मीरियों के साथ क्या हुआ जो बिना किसी सुराग के वर्षों से ’ग़ायब’ हैं, ताकि हम उनका नसीब जान पाए और कम से कम उनको सही तरीके से दफ़ना सके और उन्हें आरामगाह में पहुंचा सके. निजी स्तर पर हमारे लिए, खास तौर से उनके लिए जो गुमशुदगी के मसले पर काम कर रहे हैं, आज़ादी के बड़े संघर्ष का हिस्सा होते हुए यह न्याय और अपने प्रियजनों को क्या हुआ है, इसको जानने का भी संघर्ष है.
कावो: 1990 की तुलना में हालिया समय के जन-प्रदर्शनों में महिलाओं की संख्या में क्या कोई वृद्धि हुई है? अगर ऐसा है तो यह क्या रेखांकित करता है?
परवीना: आज़ादी के आंदोलन का एकदम शुरुआत से ही महिलाएं अखंड हिस्सा रही है और किसी भी स्तर पर इसमें कोई बदलाव नहीं है. आपने गौर किया होगा कि पत्थर फेंकने के प्रतिरोध के चरम पर उस पत्थर फेंकने वाले समूह में महिलाओं की भी भागीदारी थी. विभिन्न तरीके के संघर्षों में महिलाएं सदैव मौजूद रही हैं.
कावो: यदि एक स्वतंत्र कश्मीर बनता है तो इसके निर्माण में क्या महिलाओं की कोई ख़ास भूमिका रहेगी?
परवीना: एक उदाहरण लेते हैं, शिक्षित होने के बाद कश्मीर की महिलाएं खामोश नहीं बैठेगी. आंदोलन में अपनी भूमिका को लेकर मैं जागरूक हूं और गुमशुदा व्यक्तियों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष चालू रखने की ज़रूरत से भी. मेरे घर में मेरे बीमार पति हैं जो दस ऑपरेशनों से गुजर चुके हैं. फिर भी, अपने सभी निजी व्यथाओं और पीड़ाओं के बावज़ूद, मैं एक विस्तृत कारण के लिए समर्पित हूं जिसे मैं भली-भांति समझती हूं और इसके लिए मैं हमेशा संघर्ष करूंगी.
कावो: क्या कश्मीर में मौजूदा सैन्य जमावड़ों और इसके साथ चलने वाली हिंसाओं, जिसके चलते हज़ारों कश्मीरी पुरूष ग़ायब हो चुके हैं, उसने महिलाओं पर बेतरह आर्थिक बोझ डाला है, और वे ऐसी स्थिति से कैसे निबटती हैं?
परवीना: लोग, ख़ासकर महिलाएं, जिनके परिजन ’ग़ायब’ हो चुके हैं, कई कठिनाईयों का सामना करते हैं. अपने संगठन की तरफ से ऐसी महिलाओं की हम किसी-किसी तरीके मदद करते हैं, और अपने तरफ से इसके लिए हम हरसंभव कोशिश करते हैं.
कावो: कश्मीर के समाज में शिक्षित महिलाएं कितने फीसदी हैं? मौजूदा राजनीतिक स्थिति ने शिक्षा तक महिलाओं की पहुंच और अवसर को किस तरह प्रभावित किया है? क्या कश्मीर का आंदोलन महिलाओं तक शिक्षा की पहुंच को उपलब्ध कराने की ज़रूरत के प्रति जागरूक है?
परवीना: आज पूरी दुनिया शिक्षित और साक्षर है, लेकिन यदि आप मेरे बारे में पूछेंगी, तो मैं नहीं हूं. ज्ञान प्रकाश है. अगर मैंने पढ़ाई की होती तो आपके साथ बातचीत करने के लिए मुझे अनुवादक की ज़रूरत नहीं होती और अपना ई-मेल चेक करने के लिए किसी व्यक्ति की, और शायद मैं कुछ और योगदान देने में सक्षम होती.
कावो: भू-सुधार के बाद लैंगिक रूप से संपत्ति संबंध में क्या बदलाव आए? क्या संपत्ति का वे बारिस बन सकती हैं?
परवीना: हां, इस संबंध में कुछ दिक्कतें हैं. मैं इसे एक उदाहरण के जरिए कह सकती हूं. एक विवाहित महिला को उसके पति के ’गुमशुदा’ होने के बाद उसका घर छोड़ना पड़ा. उसके पास एक पांच साल का बच्चा था. उसे उसके माता-पिता के घर वापस जाने को मज़बूर किया गया, और हमारी संस्था ने उसे रोजगार दिलाने में मदद की. इसलिए समय-समय पर ऐसी समस्याएं उठती रहती हैं. हालांकि अपने माता-पिता की संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार है, और पुरूष के साथ वह भी संपत्ति का बारिस हो सकती है. यदि एक बेटे को संपत्ति का दस हिस्सा दिया जाता है तो एक बेटी को पांच हिस्सा. बेटी अपने ससुराल की संपत्ति की भी वारिस होती है, अपने पति की अथवा अपने बेटे की. लेकिन महिलाओं को मुश्किलात का सामना करना पड़ता है क्योंकि चीज़ें हमेशा ठीक-ठीक नहीं चलतीं. जब किसी महिला के पति मारे जाते हैं तो उसे दुबारा शादी करने में अक्सरहां दिक्कत झेलनी पड़ती है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को ढूंढना बहुत मुश्किल होता है जो उसके पहले शादी से हुए बच्चों की जिम्मेदारी वहन करने को तैयार हो.
कावो: अक्सर ऐसा कहा जाता है कि कश्मीर में सैन्य संघर्ष के उदय के साथ ही महिलाओं पर खास तौर से प्रतिकूल इस्लामी प्रतिक्रियाएं हुई है, और इसके बाद से जीवन उनके लिए और अधिक रूढ़ हो गया है. क्या वाकई ऐसा है? अगर है तो महिलाएं इससे कैसे निबट रही है और क्या करने की ज़रूरत है?
परवीना: अगर आप मुझसे पूछे तो मैं बुरका पहनती हूं. लेकिन अपने बच्चे को खोने के बाद मैंने सारे जन-प्रदर्शनों और जुलूसों में शिरकत की है. मुझे कोर्ट, जेल और प्रताड़ना केंद्रों में जाना पड़ता था. मेरा पूरा जीवन की पलट गया, और ऐसी स्थिति में बुरके की परवाह कौन करेगा.
कावो: क्या आप समस्याओं के बारे में बता सकतीं हैं, यदि कोई हो तो, जिसे आपने अपने संघर्ष के दौरान एक महिला होने की वजह से महसूस किया?
परवीना: मेरे परिवार को बहुत झेलना पड़ा है. मेरे पति एक व्यवसाय करते थे लेकिन बीमार होने के बाद से अब वह काम नहीं कर सकते. मेरे कुछ बच्चे पढ़ाई पूरी नहीं कर सके. मेरी एक बेटी को दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी. मेरा एक बेटा मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का काम करता है. सो, निजी तौर पर मैंने बहुत झेला है.
कावो: अपनी आवाज़ को सुनाने और संगठित होने में आपका किस तरह की दिक्कतों से साबका होता है?
परवीना: व्यक्तिगत रूप से, अपने परिवार के प्रति मैं बहुत चिंतित हूं क्योंकि मेरे से उनकी बहुत उम्मीदें बंधीं हैं, मौजूदा स्थिति मेरे लिए एक आघात की तरह है. राज्य के प्राधिकार अथवा सरकार के प्रति न तो मेरे मन में बहुत सम्मान है और न ही मैं उनमें यकीन करती हूं अथवा किसी फ़ायदे के लिए उनसे संपर्क साधती हूं. 1994 के बाद से हमने यह तय किया कि हम उनके पास नहीं जाएंगे क्योंकि हमारी पीड़ाओं के लिए वे ही जिम्मेदार हैं. हम राजनीतिक दलों से भी संपर्क नहीं करते हैं. श्रीनगर में सहानुभूति रखने वाले प्रेस/मीडिया है जो हमारी मदद करते हैं.
कावो: क्या आपको लगता है कि समाज को सामान्य तौर पर तथा कश्मीर के समाज को खास तौर पर बदलने में और मौजूदा संघर्ष की प्रकृति को बदलने में महिलाओं की कोई विशेष भूमिका होनी चाहिए?
परवीना: एक मिसाल लीजिए कि जब महिलाएं प्रतिरोध करने बाहर निकलती है तो यह पुरूषों को भी सुरक्षा देता है. यदि अगली क़तार में महिलाएं होती हैं तो शक्ति का इस्तेमाल करने में सैन्य बल अधिक चौकस रहते हैं. अगर आगे-आगे लड़के रहे तो उसे आसानी से पुलिस पकड़ लेगी. इसलिए कश्मीर की महिलाएं इस भूमिका में हैं. जब किसी को पकड़ा जाता है तो वे इसका विरोध करती है और उनकी खोज में जेल जाती हैं.
कावो: कश्मीर के संघर्ष में महिलाओं की विशाल भागीदारी से क्या कश्मीर की आज़ादी के नज़रिए में कुछ बदलाव आएगा?
परवीना: महिलाओं की विशाल भागीदारी आंदोलन के लिए यकीनन बेहतर होगा, क्योंकि निजी तौर पर महिलाओं ने अधिक सहा है. पुरूषों के मुकाबले अपने बच्चों से वे अधिक जुड़ी होतीं हैं; वे अजन्में बच्चे को अपने गर्भ में नौ महीनों तक पालती है और उनको जन्म देतीं हैं. अपने बच्चों के प्रति महिलाएं अधिक सहृदय होती हैं और भावुक तौर पर उनसे अधिक जुड़ी होतीं हैं. यदि एक महिला के बेटे को गोली से उड़ाया जाता है या उसे ’गायब’ किया जाता है, तो वह बहुत ज़्यादा क्षति महसूस करती है. इसलिए मेरे सहित, कश्मीर की महिलाएं बेहतर समाज के लिए संघर्ष करती रहेंगी.
कावो: ऐसी अशांत स्थिति में शांति स्थापना के लिए महिलाओं के बारे में आपके क्या ख़याल हैं?
परवीना: कश्मीर में आज कोई शांति नहीं है, और शांति की इन लंबी बातचीतों के बावज़ूद यह कहीं मौजूद नहीं हैं. जब आधारभूत मसलों को हल किया जाएगा सिर्फ़ तभी जा कर कुछ शांति आ पाएगी और तभी मामला का भी निबटारा हो पाएगा, लेकिन उससे पहले नहीं. बांदीपुरा की एक महिला का उदाहरण ले लीजिए जिसका एक तीन साल का बच्चा शहीद हुआ और एक बेटा ’ग़ायब’ है और वह खुद बहुत बीमार महसूस कर रही है और लगातार एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टरों के पास दौड़ रही है. हमारी संस्था उसे श्रीनगर मेडिकल कॉलेज ले गई जहां उसका इलाज चल रहा है. वहां उसके लीवर का परीक्षण हुआ जिससे यह जाहिर हुआ कि उसमें चार धब्बे हैं. उस महिला ने डॉक्टर से कहा कि उसे कोई बीमारी नहीं है: ये चार धब्बे उनके चार बेटे हैं! कश्मीर में हमारे यहां एक किंवदंती है, जो एक ऐसी गाय के बारे में है जिसने अपने सात बछड़ों को खो दिया था. उसके लीवर में भी सात छेद थे. इस तरह ये घटनाएं समरूपी हैं. कश्मीर के लोग, ख़ास तौर से महिलाएं ऐसी मानसिक पीड़ा और दर्द में जी रही है. मूलभूत मसलों को हल करना होगा. भारतीय सैन्य कब्जे के कारण, जैसा कि इस मामले में हुआ, घोर व्यथा सहने वाली महिलाओं के पक्ष में हम खड़े रहते हैं. उसके तीन बेटों के मारे जाने और एक के ग़ायब होने के बाद उसने अपने पति को भी खो दिया जिसकी मौत कैंसर के कारण हुई. हम हर महीने उसके लिए 1000 रु की व्यवस्था करने की कोशिश करते हैं ताकि वह अपना ईलाज जारी रख सके.
कावो: इस तरह के घोर दमन के कारण भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ क्या महिलाओं का उग्र रूप से अधिक उभार होगा?
परवीना: ऐसे भयानक दमन से हम बेहद गुस्से में हैं कि वे बंदूक नहीं रख रखतीं, हम, कश्मीर की महिलाएं भारतीय सैन्य बलों पर निहत्थे आक्रमण करेंगे. -अनुवाद: दिलीप ख़ान

20 अगस्त 2011

क्या है भारतीय होने का मतलब

- देवाशीष प्रसून

कौन है भारतीय और क्या है भारतीय होने का मतलबसवाल अहम है और जवाब परेशान करने वाला। दो घटनाओं का ज़िक्र करना चाहूंगा। पहली तब की है, जब मैं आठवीं कक्षा में था। एक शिक्षक थे। वह बार-बार विद्यार्थियों को असल भारतीय होने की दुहाई देते थे। कहते थे अगर तुम असल भारतीय हो तो तुम्हें कर्मठ, ईमानदार, नेक और सच्चा होना चाहिए। गो कि जो कामचोर, बेईमान, बुरा और झूठा है, वह भारत का नागरिक तो हो सकता है, पर उसे असल भारतीय नहीं कहा जा सकता। बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह सोच एक राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा थी, लेकिन असल भारतीय होने का क्या मतलब है, यह गुत्थी अब तक अनसुलझी है। दूसरी घटना पिछले महीने की है, मैं एक मित्र से बात कर रहा था। बातों-बातों में भारतीयता को परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी। मोटे तौर पर जो बात सामने आई वह यह थी कि जो भारत में रहता है, वह भारतीय है। यही कारण है कि भारतीय होने का डोमेन या फलक बड़ा है, जिसमें संस्कृतियों का वैविध्य शामिल है, भाषाओं की बहुलता का भी समावेश है और जहां एक नहीं; धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर कई पहचान हैं।

जाहिर-सी बात है, जहाँ हम रहते हैं, वह जगह धीरे-धीरे हमारी पहचान का हिस्सा भी बन जाती हैं। इलाहाबाद की कोई लड़की लखनऊ चली जाती है, तो भले उसका कोई अच्छा और प्यारा-सा नाम हो, लेकिन उसे जानने-पहचाने वालों की नजरों में उस लड़की का एक बड़ा परिचय यह भी रहता है कि फलां लड़की इलाहाबाद की है। कई बार आप जाहिर न करे कि आप मन में किसी की छवि कैसे बनाते हैं, पर अवचेतन में उस व्यक्ति का इलाका उसकी पहचान का एक घटक जरूर होता है। कुछ समय पहले तक कुछ इलाकों में बहुओं को उसके शहर, जवार आदि के नाम से ही बुलाया जाता रहा है और आज भी कई जगहों पर परंपरा बरकरार है। यही कारण था कि ब्याह के बाद मिथिला से अवध आई सीता को मैथिली कहने वाले लोगों की कमी नहीं है। ऐसा सिर्फ औरतों के साथ ही नहीं होता, पुरुषों के लिए भी उसका इलाका उसकी पहचान का बड़ा आधार बनता है। आपने दाग देहलवी, फ़िराक़ गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी, साहिर लुधियानवी जैसे कई अज़ीम शायरों के नाम के साथ उस शहर का तखल्लुस लगाते सुना होगा, जहां के वो हैं।
दरअसल, आप जहां रहते है, वहां की एक खास रहन-सहन का आप हिस्सा होते हैं। आप अपने इलाके में रचे-बसे खास तरह के संस्कारों को आत्मसात करते हैं। खास तरह की भाषा बोलते हैं और बातचीत का लहजा भी खास होता है। आपकी मान्यताओं में भी आपके क्षेत्र की झलक दिख सकती है। कहना यह है कि वह ठौर जहां से आप आते हैं, जहां आपका पालन-पोषण हुआ और आपकी मुकम्मल शख्सियत तैयार हुई, वहां की छाप जाने-अनजाने में आपकी पहचान का हिस्सा बन जाती हैं। पहचान का मतलब है, वो खास बात जो किसी एक को दूसरे से अलग बताती हो। भारतीयता अगर एक पहचान है तो भारतीयों में ऐसी क्या खास बात है, जो उसे दूसरों से अलग करती है?

फिर, सवाल घूम-फिर कर वही है कि भारतीय होने का क्या मतलब है भारत लाखों वर्ग मील में फैला वो भूखंड है, पर यहां एक तरह के लोग नहीं रहते। कुछ लोग आर्य नस्ल से ताल्लुक रखने का दावा करते हैं तो कुछ द्रविड। इनके अलावा आदिवासियों की भी अच्छी संख्या है। असलियत तो यह भी है कि सदियों से साथ रहते कई नस्लों आपस में इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचाना भी नहीं जा सकता। उत्तर में हिमालय में रहने वालों की अलग संस्कृति है तो सिंधु और गंगा के मैदानी इलाकों में कई तरह के लोग रहते हैं। दक्षिण भारत में अलग रहन-सहन है और पूर्वी व उत्तर पूर्वी भारत की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें। भाषाओं की बात करें तो 29 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें बोलने वाले दस लाख से अधिक भारतीय हैं। 60 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें कम से कम लाख लोग तो बोलते ही हैं। यही नहीं, इनसे इतर 122 वो भाषाएं जिसे बोलने वालों की संख्या कम से कम दस हजार है। यानी भाषा के आधार पर भारतीयता की कोई एक पहचान नहीं बनती है। ज्यादातर हिंदू मान्यताओं को मानने वाले भारतीयों की बड़ी के बावजूद हिंदू होना भी भारतीय होना नहीं है, क्योंकि मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध व जनजातीय मान्यताओं में आस्था रखने वाले भी भारतीय हैं। इनके अलावा लाखों नास्तिक लोगों से भी भारतीय होने की पहचान जुड़ी है।

तो फिर हमें उन मूल्यों व गुणों को तलाशना होगा जो कमोबेश सभी भारतीय में विद्यमान है। चरित्र का ऐसा गढ़न जो राष्ट्रीय नीतियों, बाज़ार और संस्कृति में होते फेरबदल के साथ लगभग सभी लोगों में आया हो। एक खास सामाजिक मूल्य की खोज, जिसका होना किसी के भारतीय होने को परिभाषित कर सके। भारत को अगर हम तीन अलग कालखंडों में बांटकर देखें तो बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है कि भारतीयता का विकास कैसे हुआ है।

अंग्रेजों के भारत में आने से पहले भारत कई छोटी-छोटी हुकुमतों में बंटा था और सबकी अपनी-अपनी पहचान थी। क्षेत्र, धर्म, भाषा और नस्ल के आधार पर इन छोटी हुकुमतों और इनमें रहने वाले लोगों को पहचाना जाता रहा होगा। उस समय भारत का आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में विकास नहीं हुआ था। फिर भी, एक खास बात थी जो उस वक्त के लोगों का एक पहचान निर्मित करती थी, वो था समाज का तानाबाना। समाज में उपस्थित सत्ता संबंध और परंपराएं। लेनदेन के पारंपरिक तरीके और विवाह संस्था। समाज की ये सारी चीजें राजा और उसकी शासन व्यवस्था के मुकाबिले अधिक स्थिर थी। सुनील खिलनानी द आइडिया ऑव इंडिया नामक किताब में लिखते हैं कि भारत में औपनिवेशिक सत्ता के जड़ जमाने से पहले राज्य की अवधारणा नहीं थी, उपमहाद्वीप में नाना प्रकार की संस्कृतियां और अर्थ-व्यवस्थाएं उपलब्ध थीं। भारतीय समाज व्यवस्था ने एक ऐसा ढांचा विकसित कर लिया था, जिसके लिए पूरे भारत में एक राज-सत्ता का बनना कोई मायने नहीं रखता था। खिलनानी का मानना है कि ऐसी स्थिति समाज में पैवस्त जातियों के मजबूत जड़ों के कारण थी। कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों के शासन से ठीक पहले भारतीय होने का मतलब यहां के बाशिंदे होने के साथ धर्म व जाति में अगाध श्रद्धा का होना और परंपराओं से अपना जीवन संचालित करना भर था।

अंग्रेजों ने जब भारत में अपना पैर जमाया तो सबसे बड़ा काम यह किया कि भारत को राष्ट्र के रूप में विकसित किया। पहली बार यहां के लोगों का सामना सदियों से सर्वशक्तिमान रहे जातीय समाज व्यवस्था से अधिक मजबूत राज्य सत्ता से हुआ। अंग्रेजों ने एक पूरे तंत्र का निर्माण किया, जिसमें न्यायालय, पुलिस व्यवस्था, स्कूल-कॉलेज, प्रशासनिक ढ़ांचा और समेकित अर्थव्यवस्था शामिल थी। इसने धर्म और जाति से इतर भी यहां लोगों की पहचान गढ़ने का काम किया। व्यवस्था जब पश्चिमी समाज से आयातित थी तो इसमें कौन शक कि नई भारतीयता पर पश्चिमी समाज का छाप न हो, लेकिन इसका एक सकारात्मक पक्ष भी था। आधुनिकीकरण का एक दौर चला और कुछ लोगों को यूरोपीय ज्ञान को पढ़ने-समझने का मौका मिला। लोकतांत्रिक व समतामूलक समाज के सपने देखे जाने लगे और लोगों की अधिकारों के प्रति सजगता बढ़ी। भारत में जातीयता की शिकंजे कुछ कमजोर हुए, जिनसे देश में गिने-चुने लोगों की ही भले एक नए भारतीयता ने जन्म लिया। कमोबेश यही भारतीयता अब तक कायम है, अंतर बस इतना है कि धीरे-धीरे जातीय बंधनों के तार ढीले होते जा रहे हैं, समाज रूढ़ियों को नकारने लगा है। आज बतौर भारतीय अदिक विवेकी और संवेदनशील हो रहे हैं, लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि समाज अब अमेरीकी संस्कृति के अंधानुकरण में फंसता जा रहा है। बड़े पैमाने पर आज भी भारतीय मानस अंग्रेजों द्वारा बोई गुलाम संस्कृति से मुक्त नहीं हो पाया है। निष्कर्षतभारतीय होने का मतलब सामंती और जातीवादी मूल्यों से मुक्त होने की प्रक्रिया में लगा, एक विकासशील समाज का हिस्सा है। पुरातनपंथी बंधन अभी टूटे नहीं है, लेकिन कमजोर तो हुए हैं। उन्नति के पथ पर आगे बढ़ते हुए भी आज का भारतीय अपने से इतर संस्कृति की नक़ल करने के भाव से उबर नहीं पाया है।

बहरहाल, पहचान निर्मिति के समाजशास्त्र को दूसरे तरीके भी समझा जा सकता है। इसे 'स्व' और 'अन्य' में बांटकर भी समझा जा सकता है। 'स्व' का मतलब मैं और मेरे अलावा बाकी सब 'अन्य'। भारतीय होने का मतलब है कि वह अंग्रेज या अमेरीकी या रूसी नहीं है। याने भारतीय 'स्व' में वे सारे गुण होंगे, जो उसे दूसरे देशों के लिए 'अन्य' बनाएंगे। इसमें काबिल-ए-गौर है कि भारत के संदर्भ में बाकी 'अन्य' में से एक ऐसा एक 'अन्य' होता है, जिससे या तो वह प्रेरणा ग्रहण करता है या बैर निभाता है। दोनों ही स्थितियों में 'स्व' याने भारतीयता का चरित्र प्रभावित होता है। अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय 'स्व' का 'अन्य' कोई नहीं था। भले ही बाहरी दुनिया के साथ कारोबार होते रहे हो, वृहतर समाज पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा था। ऐसे में भारतीयों का 'अन्य' परलोक या ईश्वर से संबंधित था, तभी तो धर्म और जातियां इतनी हावी थी। अंग्रेजों के समय 'अन्य' अंग्रेज बने। फलतअंग्रेजी सभ्यता का भारतीयता पर गजब का प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के जाने के बाद याने भारत के स्वाधीन होने के बाद भारत के 'स्व' में कई 'अन्य' आए और उनका प्रभाव भारतीयता पर स्पष्ट दिखता है। मसलन, शुरूआती दौर में भारतीयता ने रूस से प्रेरणा ग्रहण की, तो इसका अमेरीका विरोधी चरित्र उभरा। फिर एक समय आया जब भारत पाकिस्तान से दुश्मनी निभा रहा था, उस वक्त के भारतीय अपनी तुलना पाकिस्तान से करते हैं। उदारीकरण के बाद भारत का प्रेरक 'अन्य' अमेरीका बना, इसलिए भारतीय  'स्व' में अमेरीका के प्रति सद्भाव झलकता है।

'स्व' और 'अन्य' के आधार पर परिभाषित भारतीयता भी उसी ओर इशारा करती है, जहां हम पहले निष्कर्ष पर पहुंचे थे। लेकिन संपूर्णता में अगर कहे तो कई पिछड़ी संस्कृतियों के अवशेषों के बावजूद कुछ तो है, जो भारतीय होने को सम्मान का विषय बनाती है। यह वही बात है जो आठवीं कक्षा में मेरे शिक्षक सिखाया करते थे। मैं इसे यों कहूंगा कि भारतीय होने में जितनी भी खामी है, वह एक तरह का भटकाव है और हमेशा ही सकारात्मक धारा मौजूद रही है, जो आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और समतामूलक भारतीयता के निर्माण के लिए प्रयासरत रही है। उसी धारा के बदौलत कई भारतीय मिल जाएंगे जो मानवीय जीवन का आदर्श स्थापित कर रहे हैं।


संपर्क
08955026515
prasoonjee@gmail.com

अहा! ज़िंदगी (अगस्त 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। 
इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें- 
अहा! ज़िंदगी, 
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग, 
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 

18 अगस्त 2011

भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय महिलाओं की ’भारतीयता’

-इलीना सेन, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में स्त्री अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर.
इन दिनों सामान्य बातचीत और आम सामाजिक जीवन में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का महत्व बहुत अधिक हो गया है. निम्न साक्षरता और कम शिक्षा स्तर वाले इस देश में सूचना प्रौद्योगिकी तक तेज पहुंच (रिपोर्ट बताती है कि प्रति १००० लोगों पर संडास की तुलना में मोबाइल फ़ोन अधिक हैं) और स्वस्थ मनोरंजन के साधनों तक पहुंच की कमी के बीच, इस बात से हमें हैरान नहीं होना चाहिए. इसमें एक तरफ़ तो बॉलीवुड से थोक के भाव में निकलने वाली फ़िल्मों और धारावाहिकों में स्त्री शरीर को अंधाधुंध तरीके से वस्तु की तरह नुमाया किया जाता है, दूसरी तरफ़ दोपहर बाद और देर शाम के सोप ओपेरा में महिला किरदारों कोअत्यधिक पारंपरिकपरिधानों में प्रस्तुत किया जाता है. इसमें चटक लाल सिंदूर की रेखा महिलाओं के ललाट से लेकर बीच खोपड़ी तक खिंची रहती है. महिला किरदारों की इस छवि को आम तौर पर अत्यधिक अधीन, दूसरों पर निर्भर और आत्मविश्वास की पूर्ण कमी से लिपटे लबादे में प्रस्तुत किया जाता है. इन कार्यक्रमों के निर्माता यह कहते फिरते हैं कि स्त्रीत्व कीभारतीयपरंपरा को सहेजने के प्रति उनका यह अंशदान है. कुछ इस तरह गोया हिमालय की अडिग गौरव को वे सहेज रहे हो. भूमंडलीकरण की वजह से हुए परिवर्तनों की दिशाहीन तरीके से कोरा नकल मारते दसियों लाख लोग इसके प्रति आश्वस्त हो जाते हैं.
इन कपटी सुरक्षा को हासिल करने के प्रयास पूरी तरह परिणामहीन नहीं होते. निर्धन शहरी झोपड़पट्टियों में टीवी और फ़िल्म के किसी किरदार की तरह एक युवती के पहनावे और व्यवहार को आज कोई भी देख सकता है. हालांकि इन्हीं झोपड़पट्टियों में कोई भी व्यक्ति वे सारी चीज़ें भी देख सकता हैं जो भारतीय महिलाओं की भारतीय बिरासत की वास्तविक स्थितियों को बयां करते हैं. पानी भरने के लिए सामुदायिक जल स्रोत के पास कतारबद्ध होने, पानी से भरे कई बरतनों को लादकर घर तक लाने, बीपीएल से मिलने वाले राशन की उपलब्धता और बकाया भुगतानों की जांच करने, बच्चों की देखभाल करने से लेकर बेहद कम दर मे बाहरी घरों में असुरक्षित-सा काम करने जैसे रोजमर्रा के जीवन का अंग बनी कठोर शारीरिक मेहनत के अतिरिक्त महिलाओं को अपने पतियों द्वारा छोड़े जाने से लेकर रोज़-रोज़ अपने शराबी पतियों से शारीरिक मार का भी सामना करना पड़ता है. पिछले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था की रोज़गारविहीन वृद्धि (भूमंडलीकरण का एक उत्पाद) का कई विश्लेषकों ने दस्तावेज़ीकरण किया है. २००९-१० के संबंध में नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े यह दिखाते हैं कि मज़दूर भागीदारी ४२ फ़ीसदी से घटकर ३९ फ़ीसदी पर गई है. इससे यह साबित होता है कि शाइनिंग इंडिया की जीडीपी की चमत्कारिक उपलब्धि सेवा और वित्तीय सेक्टर पर आधारित है. ग़रीबी, अनिश्चितता और बिखरे परिवारों से भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों इलाके इक्कीसवीं सदी में भी अटे पड़े हैं. भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा मातृत्व और शिशु मृत्यु दर वाले देशों में से एक है. बाल कुपोषण लगातार चोटी पर बरकरार है अल्पपोषित महिलाएं मुसलसल अल्पवज़नी बच्चों को जन्म दे रही हैं. जीवन की घोर अनिश्चितताओं और पारिवारिक जिम्मेवारियों, जिनसे महिलाएं तकरीबन नहीं बच पातीं, की वजह से संपत्तिविहीन घरों से वे मेट्रोपोलिटन का रुख करती हैं. आगामी संतति के लिए इन महिलाओं के जीवन और संघर्षों को बैबी हलदार जैसी महिलाओं ने अपनी लेखनी से सुरक्षित किया है. और निश्चित तौर पर इन महिलाओं की मेहनत और पसीनों के बगैर कुलांचे भरता भारतीय मध्यवर्ग उस स्थिति में नहीं होता जहां आज वह खड़ा है. दिल्ली जैसे तमाम बड़े शहर इसके गवाह हैं. वैश्विक यातायात की संभावना बनने के बाद मंदी और संकट की इस घड़ी में कुछ महिलाएं समृद्ध खाड़ी देशों अथवा अन्य विदेशी देशों में काम की तलाश में रहती हैं. वे वहां पर धनाढ्य भारतवंशियों और विदेशियों के पास घरेलू देखरेख का काम देखती हैं. समय-समय पर इन महिलाओं की दयनीय जीवन और खस्ताहाल स्थितियों की कहानियां लोगों के बीच उजागर होती रहती हैं. इन महिलाओं की पीड़ा उसी रूप में घर पहुंचती रहती है जिस तरह रिज़ाना नफ़ीक की दारुण कथा हमारे बीच पहुंची थी. हालांकि वह भारतीय नहीं है, फिर भी उसकी कहानी दुबई और बैंकॉक हवाई अड्डे के जरिए काम करने के लिए सीमापार पहुंचने को हाथ-पैर मारती दसियों लाख भारतीय युवतियों में से किसी की भी हो सकती है, जो इस उम्मीद में उड़ान भरती है कि वे अपने परिवार वालों को कुछ पैसे घर भेज सके. रिज़ाना नफ़ीक एक श्रीलंकाई युवती थी, जोकि घरेलू नौकरानी का काम करने के उद्देश्य से सऊदी अरब गई थी. २००५ में १७ वर्ष की उम्र में नफ़ीक पर अपने सऊदी मालिक के नवजात शिशु की हत्या करने का आरोप लगाया गया. इस घटना को बच्चे के माता-पिता में से किसी ने भी नहीं देखा था, तो भी तथाकथितस्वीकारोक्तिके बाद उस पर मुकदमा चलाया गया, उसे पीटा गया, दोषी क़रार दिया गया और अंततः सऊदी अधिकारियों द्वारा उसे बख्शीश में मौत की सजा सुनाई गई. वह आज भी सऊदी की जेल में उस दिन की बाट जोह रही है जब सार्वजनिक तौर पर उसका सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा.इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दिखने वाली चमकदार परंपरा से लिपटी भारतीय महिलाओं की दुनिया और हमारे देश की अधिसंख्य महिलाओं की दुनिया निश्चित तौर पर दो अलग-अलग छोर हैं. कठोर मेहनत करने वाली महिलाएं इसमें एक छोर पर भूमंडलीकरण के उबलते बरतन में पिघल रही है. पारंपरिक जीवनयापन की सुरक्षा, समुदाय और पारिवारिक सौहार्द्रता के बग़ैर भूमंडलीकरण से पैदा हुई स्थिति में हरे-थके घुड़सवार सेना की तरह वे इसमें शामिल हो गई हैं और भूमंडलीकरण से जन्में नए अवसरों का लाभ उठाने की कोशिश में शिद्दत से लगी हुई हैं. इस प्रक्रिया में उनकी पितृसत्तात्मक हिंसा से, लंबे समय में जम चुकी कानून व्यवस्था की हिंसा से और जातीय तथा वर्गीय स्थिति की वजह से होने वाली हिंसा से मुठभेड़ होती है. जब बाज़ार की ताक़त आधे कपड़े पहने महिलाओं को जूते बेचते दिखाती है तो वे पितृसत्ता में गहरे स्तर तक जड़ जमाए हुए महिला शरीर के प्रति घृणा को भुना रही होती है. जिस समय व्यावसायिक फ़िल्मों और टेलीविज़न के जरिए महिलाओं को अपने हाल पर स्थिर रखने वाली परंपरा की तगड़ी खुराक भारतीय दर्शकों की थाल में परोसी जाती है, उसी वक़्त यही पितृसत्ता उन्हें एक वैचारिक पिंजरे में कैद कर देना चाहती है, जोकि अब तक ऐतिहासिक तौर पर पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक मूल्यों को हस्तांतरित करने में सहायक साबित हुई है. इस नकलीभारतीयतामें कुछ भी खास भारतीय नहीं हैं. दूसरे सांस्कृतिक मुहावरे में इसी प्रक्रिया को दूसरी भाषा में बताया जा सकता है. भारतीय महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय के साथ इस मामले को जोड़कर देखने वाले हम जैसे लोग इसे इस रूप में लेते हैं कि भारतीय होने के लिए इसकी किस दुनिया और किस सच्चाई के साथ पहचान की जाती है. --- (हिंदी अनुवाद: दिलीप ख़ान)