31 अक्तूबर 2008

लडते हैं मरते नहीं हैं दख़ल - भित्ति पत्रिका से

महत्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा २०० के आस-पास लोग एक पहाडी़ पर रहते खाते पीते हैं कभी-कभी लडते भी हैं पर मरते नहीं हैं मरना यानि संख्या का कम होना जो आया कभी नहीं गया पचटीला की एक पहाडी़ है . जिसके पाँच टीले है जिस वजह से श्हर से मुंह भी चुपा सा हुआ है यहाँ लोग लिखते हैं यहाँ कि हर रात हर सुबह किसी न किसी राष्ट्रीय पत्रिका की कहानी बन ही जाती है .फिदेल ने कल क्या किया देश को पता हो या न हो कैन्टीन में शाम की चाय के वक्त पता चल ही जाता है . हा दुनियाँ में जो घटित हुआ सो तो हो गया . पर होना क्या चाहिये यह यहाँ के लोग तय करते हैं पर मुश्किल कि वह होता नहीं . भला सोचो हिटलर और मार्क्स आपस में मिले तो गले लगें और फ़िर बात करें ..............खैर मौका मिले तो आइये कभी , बिता के जाइये लेकिन ये झूठ है कि आने के बाद आप जायेंगे . दीवाल पर एक पत्रिका निकलती है सो उसके अंश यहाँ लगा रहा हूँ देखिये.....
रागदरबारी :-

कुछ नया घटित होने वाला था कि बस होने ही वाला था कोई आसमान से तारा टूटने वाला था सब उसकी तर्फ निगाह लगाये बैठे थे जैसे युगों की रोसनि आने वालि थि विश्वविद्यालय कि गाडी़ दाहिने ट्रैक पर मनमाने ढंग से चल रही थी जो आज सही था वह कल गलत हो रहा था परसों फिर सहि हो रहा था सब गड्डम गड्ड कितने बार धक्के लगे गिरि पडी़ पर ट्रैक नहीं बदला मानों ड्राइवर ने दाहिने से चलने की जिद थाम लि हो पर यह जिद भी ऎसि नहीं कि मदिरा पान के नसे मेम यह सब कुछ खलासी के इसारे पर चल रहा था कई बार तो गाडी़ बीच से चलती लगता सही रास्ता अख्तियार कर लेगी पर तब तक खलासी का इसारा होता और फिर ड्राइवर दाहिने पर मोड़ देता ऎसे वक्त में कैटीन ही एक जगह थी जहाँ बैठ लोग ड्राइवएर के पागलपन के किस्से सुना सुनाया करते थे कहाँ कहाँ के किस्से निकल जाते जितने मुहं उतनी बातें नही बल्कि जितने दांत उतनी बातें होयी थी किस्सागोई के इस चर्चे में नयी बात निकल कर आयी जो पीएच. डी . के एडमिसन हुए बिना ही शांतिकुटी से राग भाई खोज लाये थे यह पूरी तरह से ओरल हिस्ट्री थी जिस पर आस्था के साथ विश्वास किया जा सकता था पर तर्क नहीं विश्वविद्यालय तर्कों पर नहीं चलता राग भाई ने जेब से एक पुर्ची निकाली और पढ़ना शुरुउ किया ये उनके सिनाप्सिस का विषय था जिसका शोध अभी बाकी था .कहा जाता है कि विश्वविद्यालय की अवधारणा कुछ भले मानुस द्वारा १९७५ में हुए नागपुर के विश्वहिन्दी सम्मेलन में रखी गयी थी पर शोध इस बात किओ खन्डित करते हुए इसके इतिहास को द्वापर युग से प्रतिस्थापित करता है कुछ लोगों के मुंह से ब्रेड पकौडा़ गिर गया दरबारी भाई चाय की एक और चुस्की मार लिये और अपनी मूँछ विहीन होठ को पोछकर ध्यान से सुनने लगे खैर उनके लिये कुछ भी अब अद्भुत लगना बंद हो गया था क्योकि उन्हें पंचटीला में डायनाशोरॊम का निवास नामक शीर्षक से किया गया शोढ याद था शायद उससे आगे का यह शोध था राग भाई ने कहना जारी रखा था यह द्वापर युग की बात है जब नारद जी धरती पर उतरे थे विष्णु की बातों का खयाल रखते हुए उन्हों ने एक सुनसान जगह ढूढ़ ली थी रात के तकरीबन १० बज रहे थे उनके पास न तो अम्बेजडर थी न ही पुस्पक विमान बस हवा में उतर गये थे उन्हें सरस्वती ने धरती पर शिक्षा की स्थिति का जायजा लेने के लिये भेजा था कहा जाता है कि तब यू. जी. सी. नही थी सरस्वती डायरेक्ट उपर से ही सब कुछ डील करती थी बाद में जब जनसंख्या बढी़ फेलोसिप का मामला आया विश्वविद्यालयों में घोटाले होने लगे तो यू.जी.सी की अवधारणा रखी गयी.एकांत ढूंढ़ते हुए जब नारद पंचटीला की पहाडी़ पर उतरे जिस जगह उनके चरण पहली बार पडे़ थे कहा जाता है अभी रजिस्ट्रार आफिस के रूप में वहाँ का भवन बनाया ग्या है . कहा तो यह भी जाता है कि नारद की आत्मा अभी भी रात में १०-११ बजे के बीच यहाँ भटका करती है और एक्वागार्ड तक जाते-जाते गायब हो जाती है दरबारी भाई पूछ पडे़ कि एक्वागार्ड तक ही क्यों ? राग भाई ने अपने मुंह पर उंगली रखते हुए चुप रहने का इशारा किया दरबारी भाई चुप ....नारद जब अवतरित हुए तो कोई भवन नहीं था सब कुछ वीसी आवास की तरह शंत था उन्हें प्यास लगी थी और नारद देर तक प्यास से व्याकुल यहाँ खडे़ रहे फिर यही वह जगह हैं जहाँ खडे़ होकर उन्होंने सरस्वती को फोन मिलाया था पर एयरटेल की सिम सो नेटवर्क का भारी प्राबलम सारे दुनियाँ के शिक्षा विदों का फोन मिलाया सब स्विच आफ उन्हें पता नहीं था कि दिन का टीचर रात में विश्वविद्यालय में का एक अधिकारी होता है और अधिकारी अपना फोन चालू नहीं करते फौरन उन्होंने सरस्वती को फोन लगाया बोला माते बडी़ बिडम्बना है ऎसी जगह उतरा हूँ जहाँ सब कुछ वीरान है, चारो तरफ शांति छायी हुई है सामने पहाडि़यों के नाम पर कुछ टीले है(तब पंचटीला की पहाडि़याँ बहुत छोटी थी और उनकी लम्बाई में बृद्धि हो रही थी) नेटवर्क से पता चल पा रहा है कि यह एशिया का जम्बूदीपे भारत खण्डे नामक कोई प्रान्त है. पूरा आसमान यहाँ से साफ दिखाई पड़ रहा है आप किधर बैठी हो मै .....आवाज कट रही है माते. नारद मुनि थोडा़ खिसक जाते हैं और वहाँ खडे़ हो जाते है जहाँ अभी इंटरनेट का टावर लगा हुआ है अब आवाज साफ आने लगी थी नारद मुनि अपना बोलना जारी रखे ....माते पूरा आसमान साफ है बस पहाडी़ के उस पार से बादल की एक लकीर बनी हुई है लगता है शुक्राचार्य इधर से गुजरा है जरूर हमारे फिराक में आया होगा. पर माते प्यास के मारे उदर में त्राहि त्राहि मची हुई है .सरस्वती ने सुझव दिया नारद यह धरती है यहाँ अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है पर भारत खंडे क्षेत्र में जहाँ के नेटवर्क से तुम बात कर रहे हो वहाँ तुम्हें कोई समस्या नहीं होगी जनेऊ बाहर निकाल लो और अपनी चुटिया में कंघी करके लहराते चले जाओ पूरा ब्रहमणॊं का ही राज है रही बात पानी की तो तुम तत्काल शक्ति का प्र्योग करो और पहाडी़ के उस पार आते बादल को पानी में बदल कर ......इतने में फोन कट गया नारद को पता नहीं था रोमिंग का चार्ज . पर उन्हें बात समझ में आ गयी थी और वे टहलते हुए वहाँ पहुचे जहा व्र्तमान में वी.सी. आफिस बनी है यहीं पर खडे़ होकर अपनी शक्ति का प्रयोग किया था नारद ने पर बादल पानी में नहीं बदला फ़िर से प्रयास किया नाकाम रहे और छलांग लगाकर बादल तक पहुंच गये देखा तो सब कुछ धोखा था यह बादल नहीं धुंवा था जिसमें से गंध आ रही थी श्रोत को पकड़ धुएं के सहारे नाराद पहाडी़ के उस पार पहुंचे जहाँ से धुँवा उठ रहा था देखा तो अद्भुत दृष्य था देवों के देव महादेव शिव पहाडी़ के इस पार बैठकर सिगरेट पी रहे थे.तब धूम्रपान पर किसी भी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं था और खुलेआम नाशा किया जा सकता था पर शिव की इस आदत के खिलाफ विश्णु ने याचिका दायर की थी जिसका जिक्र ऋगवेद के पंचवें अध्याय में मिलता है. इतिहास्कारों का मानना है कि पृथवी लोक पर डाली गयी यह पहली याचिका थी इतिहासकारों का यह भी मानना है कि सभी देवों में शिव ही थे जो सभी तरह के नशीले द्रव्यों का पान किया करते थे पर बडे़ बुजुर्ग होने के नाते कोई देवता उन्हें कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटाता था यह भी माना जाता है कि वर्धा को ड्राई सिटि बनाने का काम विष्णु की उस याचिका ने किया था. शिव के मुह से बदब्म्म आने के कारण अक्सर विष्णु नजदीक से बात नही किया करते थे जिस बात को लेकर पार्वती और लक्षमी में तू-तू मै-मै हो गयी थी. इन सब बातिओं से परेशान होकर विष्णु क्षीर सागर चले गये थे कहा जाता है कि विष्णु पुरुषवादी मानसिकता के थे और दिन भर लक्षमी से पाँव दबवाते थे तब कहीं भी स्त्री अध्ययन जैसा कोई कोर्स नहीं खुला था पर नारी चेतना को लेकर सरस्वती काफी सजग थी और लक्ष्मी की ये हालत देख ही स्त्री अध्ययन की अवधारणा उनके विचार में आयी थी .वर्धा के ड्राई सिटि बनने के बाद शिव कैलास पर्वत चले गये माना जाता है कि वे आज भी वहीं कहीं निवास करते हैं पर उन पर अभी हाल मेम आरोप लगाया गया है कि हिमालय के ग्लेशियर उन्हीं की धूम्रपान की वजह से पिगल रहे है. अगले अंक में जारी.........



बढ़ता महिला यौन शोषण:- चरणजीत म. गा. अं. हि. वि. वि. से

हम इक्कीसवीं शदी के आधुनिक युग में जी रहे हैं एक महाश्क्ति के रूप में भारत अपने को साबित कर रहा है. यह युग सूचना की क्रांति और लोकतंत्र के मूल्यों का देश है जहाँ स्वतंत्रता और स्वेक्षा पूर्वक जीवन जीने का हक सबको हासिल है स्त्रीयों के शोषण अन्याय दुर्व्यवहार को ऎतिहासिक रूप से ही देखा जाता है और आज के समाज में इन्से मुक्त हो जाने की बात कही जाती है कि आज महिलाये स्वतंत्र हैं पर वास्तविकतायें कुछ और ही कहती हैं आज के समय में म्हिला यौन शोषण में गाँवों से लेकर शहरों तक बृद्धि हुई है. स्थिति ये है कि मैट्रों शहरों मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास जैसे शहरों में दिनों में भी महिलायेणं अपने आपको असुरक्षित महसूस करती हैं स्त्रियाँ अपने कामों के लिये जब घर से निकलती हैं तो सड़क, बस स्टैन्ड, रेलवे स्टेशन, अस्पताल पुलिस स्टेशन, बस रेलगाडी़ में तो असुरक्षित महसूस ही करती हैं पर इससे कम असुरक्षा उन्हें घरों में नहीं होती है.कम मामले सामने आने के बावजूद हर रोज अखबारों में ५-१० मामले खबरों में दिख ही जाते हैं. जिस तरह से फूलन देवी का मामला सामने अया और उन पर फिल्म बनने के बाद लोगों ने उन्हें जाना, भवरी बायी जो उच्च जातीयों कीजातीय हिंसा और यौन उत्पीणन का शिकार बनी उस तरह के कितने ऎसे मामले है जो घरों गाँवों में दबा दिये जाते हैं या महिला खुद ही झेल लेती है. महानगरों में टी.वी. रिपोर्टर वकील डाक्टर जैसी सशक्त महिलायें भी जो समाज में अग्रणी भूमिका निभाती हैं अपने आपको असुरक्षित महसूस करती हैं.महानगरों में भाग्दौड़ की जिंदगी ने जो असंवेदन शीलता भर दी है उसकी एक बानगी देखी जा सकती है कि बंगलौर में आयशा नम की एक पत्रकार बताती हैं कि बंगलौर एक हाइटेक सिटि के रूप में देखा जाता है आधुनिकता का पर्याय भी माना जाता है पर स्थिति ये है कि केवल रात में ही नहीं बल्कि दिन में भी सड़क चकती महिलाओं के साथ अभद्रपूर्ण व्यवाहार किया जाता है २९ अक्टूबर ०७ को याद करते हुए वह बताती हैं कि इस दिन वे ट्रैफिक में फंसने के कारण आटॊ से उतर कर पैदल चलने लगी तभी मोटर्सायकिल से सवार कुछ लड़के आये और गाडी़ उनके सामने खडी़ कर दी एक ने मुझे धक्का दिया फ़िर जब उन्होंने बाइक को धका देने का प्रयास किया तो एक लड़के ने भद्दी गाली दी पर लोग खडे़ होकर अगल-बगकल देखते रहे कोई सामने नहीं आया जब मैने एफ. आइ. आर. की बात कही तो तो वे लड़के हंसने लगे क्योंकि उन्हें पता था कि पुलिस क्या करती है. फिर मैने पीछे बैठे लड़के को मारा तो वह भी मुझे मारा और ये सारी घटनाये लोग तमासाबीन होकर देखते रहे कोई सामने नहीं आया स्थितियाँ इतनी विपरीत हैं कि महिला सड़कों पर अकेले नहीं चल सकती अतः उसे अपने भाई माँ बाप के साये में ही चलना पड़ता है जहाँ वह गुलामी का एक सुकूं महसूस करती है. चन्डीगढ़ जैसे शहरों की स्थिति ये है कि वहाँ कुंवारी लड़कियाँ जब अपने घरों से निकलती हैं तो अपने गले में मंगलसूत्र डालकर निकलती हैं क्योंकि शादीशुदा होने का भ्रम बनाना चाहती है यह है आजादी का मतलब है आज के समाज में महिलाओं की.दुनियाँ मेम यौनशोषण का ग्राफ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है.नाबालिग लड़कियों से लेकर उम्रदराज महिलायें तक इस शोषण में आती जा रही हैं युनिसेफ के एक सर्वेक्षन से पता चलता है कि सिर्फ एशिया में हर साल दस लाख युवतियाँ यौनशोषण की दलदल मेम धकेली जा रही हैं. जिसमे थाईलैन्ड जैसे देश का नाम अग्रणी रूप से सामने है जहाँ हर साल दस हजार लड़कियाँ यौनव्यापार में ढकेली जाती है. इसमे सिर्फ आर्थिक कार्ण ही नही है बल्कि कुछ अन्य सामाजिक कारण भी है जिनके कारण इतनी बडी़ संख्या में महिलायें यौन शोषण मेम ढकेलि जाती हैं यह घटनायेम तथाकथित विकसित देशों मेम भी इससे कम गति की नही है और वहाँ का ग्राफ एक गंभीर रूप लेता जा रहा है. यह एक बडे़ उद्योग के रूप में पनप चुका है और पूंजीवादी समाज की जरूरत बन चुका है.विश्व भर मे महिला शोषण का बढ़ता ग्राफ चिता का विषय है इसके साथ-साथ यौनशोषण से अन्य समस्यायें भी उभर रही हैं और यह व्यापकता मेम आ रहीं है दिशियों को दन्डित करने के लिये कानून भी बनाये गये है ढेर सारे महिला संगठन भी काम कर रहे हैं पर यह समस्या न तो कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही है न्याय व्यवस्था खोखली साबित हो रही है ऎसी स्थितुइ मेम समाज को अन्य सम्स्याओं से हटकर इस समस्या पर गंभीरता से बात करने और सोचने की जरूरत है.साधारणतया समाज इसी दृष्टिकोण से इन समस्याओं का वर्णन करता है कि स्त्रियों द्वारा इस तरह के पहनावे प्र्योग में लाये जाते हैं जिससे मानसिक रूप से यह पुरूषों को आकर्षित करता है या यह कहा जाता है कि महिलायें अकेले न घूमेम कार्यालयो मेम अकेले नौकरी करना या अन्य इस तरह के आम बातेम है जो पुरुष मानसिकता से ग्रसित होकर कही जाती हैं अब सवाल यह उठता है कि क्या उपरोक्त कारण पुरुषों को ये वैद्यता देते हैं कि वे महिलाओं के साथ छेड़खानी करें या उपरोक्त कारणों मेम स्त्री क्या कोई अपराध कर रही है . यहाँ साफ पता चलता है कि समस्या महिलाओं की नही है बल्कि पुरुष के पित्रसत्तात्मक मानसिकता का है . अतः ऎसी स्थिति में पुरुषों को इस मानसिकता से बाहर आकर महिला की समाज मेम बराबर की हिस्सेदारी और भागीदारी की लडा़ई में सामिल होना चाहिये जहाँ एक बेहतर समाज की संकल्पना की जा सके और महिलाओं के संघर्षों मे साथ रहते हुए हमे उनके लडा़ई के पक्ष मेम खडा़ होना चाहिये.


लोकतंत्र का एक कुरुप चेहरा:- कमला थोकचोम म. गा. अं. हि. वि. वि.

मणिपुर एक राजकीय देश था.२१ सितम्बर सन १९४९ को मणिपुर को उस समय के राजा बुद्धचन्द्र को इम्फाल में बुलाकर भारत ने एक समझौता किया . और इस समझौते के बाद १५ अक्टूबर १९४९ को मणिपुअर को भारत के संघ में सामिल कर लिया गया इसके साथ ही मणिपुर भारत का एक राज्य बना लिया गया. आज भी हर साल १५ अक्टूबर को मणिपुअर का काला दिवस के रूप में वहाँ की जनता के द्वारा मनाया जाता है यह वह दिन था जब कहा जाय कि मणिपुर प्र भारत ने कब्जा कर लिया.और कई लोग पूरे महीने काली पट्टी बांधकर चलते हैंआखिर ऎसा क्यों है कि लोग इस दिन को काले दिवस के रूप मेम याद करते हैं कई सालों तक हम इसका मतलब नहीं समझते थे.पर हर दिन घटनें वाली घटनायें देखकर ऎसा लगा कि इतिहास में यह वह मोड़ था जब लोकतंत्र की आड़ मेम मणिपुर को कब्जे में लिया गया. तब से अब तक मणिपुर की जनता दिनों दिन अत्याचारों को सहते हुए आ रही है. और यह कम होने के बजाय दिनों दिन बढ़ रहा है. भारत में अग्रेजों के सत्ता छोड़ने के बाद १९५८ में ही राज्य पर आफ़्सपा नामक एक गैरलोकतांत्रिक कानून लगादिया ग्या है जिसके आड़ में वहाँ के लोगों को मारा जा रहा है वहाँ की महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटनायें आम हो गयी हैं . और न जाने कितनी औरते विधवा हो गयी हैं कितने बच्चे अनाथ हो गये कितने माँ बाप बेसहारा हो गये हैं मणिपुर में जिंदगी की अहमियत को आफ़्सपा ने खत्म कर दिया है. स्थिति ये है कि किसी भी व्यक्ति को पकड़ कर इन्काउंटर कर दिया जाता है और उसके हाँथ में बंदूक थमा कर उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है यह एक आम बात हो गयी है जिसे वहाँ का हर इंसान जानता है और सहमा हुआ सा जीता है कि कब उसकी बारी आ जाय राष्ट्रीय मीडिया चंद खबरों को ही अब तक अहमियत दिया है उसमे से एक है मनोरमा हत्या कांड कुमारी थांजम मनोरमा चनु जो कि ३२ वर्षीय महिला थी ११ जुलाई २००४ को बामोन कंपू इम्फाल इस्ट से रात दस बजे १७ असम राइफल्स के जवानों ने उन्हें उठा लिया गलत तरीके से अरेस्ट मेमो दिखाया गया और बिना किसी महिला पुलिस या बिना किसी नजदीकी थाने की सहयाता के वे उसे पकड़ कर ले गये उसे घर मे घर वालों के सामने देर तक पीटा गया और दूसरे दिन घर से तीन किमी की दूरी पर उसकी लास राजमार्ग पर पायी गयी घर वालों ने लास लेने से इनकार कर दिया और न्याय न मिलने तक लास को अपने घर लाने से मना कर दिया. ऎसी स्थिति में उसकी लास कुछ दिन के बाद म्युनिसपल्टी के लोगों द्वारा जला दी गयी. मनोरमा के मरने के ठीक ४ दिन बाद महिलाओं ने निरवस्त्र होकर असम राइफल्स के गेट पर प्रदर्शन किया और नारा दिया इंडियन आर्मी रेप अस गो बैक इंडियन आर्मी यह उनका एक प्रतिरोध था कि अपनी बेटियों पर हो रहे अत्याचार को वे सह नही सकती. पवित्रता का ढोंग रचने वाले देश को एक चेहरा दिखाया. इस साल की २२ जुलाई को भी हजारॊं विरोधियों ने इसका विरोध किया और कई नारे दिये काला कानून हटाओ, उत्तर भारत से आफ्सपा को भगाओ, कांगला को आर्मी से मुक्त करो कांगला एक ऎतिहासिक जगह है मनोरमा केस की जाँच रिपोर्ट को प्रकाशित करो, २४ जुलाई को पांच कारयकर्ताओं ने मुख्यमंत्री के गेट पर खुद को जलाने की कोशिश की इसके पश्चात २६ जुलाई को मणिपुर छात्र संघ के छात्र छात्राओं को राज भवन के गेट पर आफ्सपा के जवानों ने पीता, कितनी ऎसी घटनायें बीत चुकी हैं जिनका जिक्र चंद हर्फों में नही किया जा सकता एक दिन वह भी याद करना जरूरी अगता है जब देश का प्रधान मंत्री लाल किले पर तिरंगा फहरा रहा था और बिसन पुर मणिपुर मेम पेबम चितरंजन नाम का ३२ वर्षीय एक युवक १५ अगस्त को अपने को यह कहते हुए जला लिया कि इस कानून में मरने से अच्छा है मसाल जी तरह जलकर मरना तकि भारतीय लोकतंत्र पने लोकतांत्रिक चेहरे को देख सके इसी साल २१ जुलाई को मनोरमा काश्राद्ध कर्म मनाया गया पर इसके बावजूद पूरा देश शान्त हैं हमे नहीं पता हम कब नहीं रहेंगे कब अपने घर से निकलेंगे और माँ इंतजार में खडी़ खडी़ बूढी हो जायेगी और हम नहीं लौटेंगे.

23 अक्तूबर 2008

मनसे की राजनीति वर्तमान संसदवादी गलियारे की एक खिड़की है:-


दिनों दिन विस्फोटों की संख्या बढ़ती जा रही है आतंकवादियों के नाम पर मुस्लिमों को पकडा़ जा रहा है सिमी के कार्यकर्ताओं को पकडा़ जा रहा है जिस पर पिछले छः साल से प्रतिबंध लगा है जब्कि अब तक सिमि पर एक भी जुर्म साबित नहीं हो पाया है उडी़सा में हिन्दूओं द्वारा इसाईयों पर हमले केरल की सबसे पुरानी चर्च में तोड़-फोड़ पिछले दो माह से महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रांतवाद और भाषावाद के आधार पर उत्तर भारतीयों की पिटाई, राज ठाकरे की गिरफ्तारी और उसके फलस्वरूप महाराष्ट्र में उग्र प्रदर्शन ये महज कुछ घटनायें नहीं है जो मनमाने तरीके से पूरे देश में घट रही हैं बल्कि यह चुनाव के नजदीकी के संकेत हैं दरासल यह संसदीय पार्टियों की राजनीति का एक हिस्सा है जिसका चुनाव के पूर्व घटित होना जरूरी है ताकि हाल में आयी आर्थिक मंदी बढ़्ती महंगायी न्युक्लियर डील के पेंच पर से जनता का ध्यान हटाया जा सके इस तरह के मसले में जन भावनाओं को भड़काकर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां उसे वोट बैंक में बदलने में कामयाब हो सकती है इसके अलावा उनके पास अब वोट लेने का और कोई चारा नहीं बचा है क्योंकि किसानों की कर्ज माफी जैसे दिखावे छठे वेतन आयोग के लागू होने का सच इस कमर तोड़ मंहगाई में खो चुका है और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में किसान आत्महत्यायें और बढी़ हैं
पिछले दो महीने से लगातार उत्तर भारतीयों पर जारी हमले जिसे राज ठाकरे के उग्र भाषणों के जरिरे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर भड़काने का प्रयास किया गया उसी का यह परिणाम था कि रेलवे विभाग द्वारा आयोजित परीक्षा में मुंबई आये उत्तर भारतीयों पर मनसे के कार्यकर्ताऒं द्वारा उत्तर भारतीयों की पीटा गया और इसके पश्चात राज ठाकरे की नाटकीयता पूर्वक देर रात कुछ मअमूली धाराऒं के तहत गिरफ्तारी हुई जिसके बाद उन्हें जमानत भी मिल गयी और दो महीने तक उनके भाषण और मीडिया से मिलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया सवाल उठता है कि क्या यह मामला उतना ही सरल है जितना दिख रहा है पिछले दो महीने से जब राज ठाकरे इस तरह के भड़काऊ भाषण दे रहे थे और उनके कार्यकर्ता मुंबई में जगह-जगह उपद्रव कर रहे थे तब सरकार ने क्यों नहीं चेता क्या वह किसी बडी़ घटना घटित होने के फिराक में थी राज्ठाकरे की यह बयान बाजी कि सरकार की हिम्मत हो तो पकड़ कर दिखाये इस बात का संकेत करती कि प्रांतवाद और भाषावाद की राजनीति करने वाले राज ठाकरे को राज्य सरकार की कमजोर ताकत का पता था या फिर राज्य सरकार की मिली भगत से सब कुछ चल रहा था चुनाव की नजदीकी के बढ़ते इसके पीछे कुछ और ही पेंच हैं जिसके कारण राज्य सरकार ने झारखण्ड कोर्ट के आदेश के बाद देर रात राज ठाकरे को कुछ मामूली धाराओं के तहत गिरफ्तार ्करने को मजबूर हुई और चंद बयान बाजियाँ देना भी उसकी मजबूरी थी इस आपसी राजनीतिक मसले को समझना जरूरी है कि आगामी चुनाव में शिवसेना का कमजोर होता जनाधार फिर से शिवसेना के रूप में पाया जाना मुश्किल था अतः मनसे शिवसेना के एक नये रूप में आयी जहाँ बाला साहेब ठाकरे का चेहरा बदल कर एक युवा व्यक्ति राज ठाकरे का हो गया है जो कि पहले शिवसेना में ही थे शिव सेना के प्रभाव में आया जन मान्स अब धीरे-धीरे विमुख हो रहा था क्योंकि शिव सेना के पास कोई ठोस आधार नहीं था जिस पर वह खडी़ होकर राजनीति कर सके और अपना जन मत जुटा सके अब जबकि राज ठाकरे ने मनसे के रूप में प्रांतवाद और भाषावाद को आधार बनाकर चुनाव के पहले जल्द से जल्द अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये जुटे हैं ऎसे में घट रही ये घटनायें अंततः कांग्रेस को ही मजबूत करेगी क्योंकि प्रान्तवाद के जरिये जन मान्स को ज्यादा दिन तक नहीं बांधा जा सकता इसका एक पक्ष और है जिसका फायदा यूपी बिहार की क्षेत्रीय पार्टियाँ हिंसा हुए लोगों के साथ हमदर्दी जताकर उठायेंगी उनके लिये भी यह एक मसाला ही है जो नजदीकी चुनाव में मुद्दों के अकाल मेम मिल जा रहा है साथ में जिस रोजगार के सवाल को लेकर राजठाकरे जनता को गुमराह कर रहे हैं वह सवाल वर्तमान सत्ता व्यवस्था की समस्या है जिसका किसी भी पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है वह जनसंख्या बढोत्तरी और रोजगार की कमी व रोजगार गारंटी जैसी असफल योजनायें चलाकर सिर्फ गुमराह कर सकती है वर्तमान सत्ता व्यवस्था के सामने सबको रोजगार सबको शिक्षा दे पाना संभव नहीं रह ग्या है पर वह प्रांतवाद भाषावाद क्षेत्रवाद को आधार बनाकर विट की राजनीति कर सकती है महाराष्ट्र मेम ही नहीं वरन पूरे राष्ट्र में एक बडा़ युवा वर्ग जिसे न शिक्षा मिल पा रही है न ही रोजगार ऎसे में उसकी उर्जा को आस्था भावना क्षेत्रवाद भाषावाद प्रान्त्वाद के आधार पर विभाजित करके ही संसदीय पार्टीयां इस शक्ति को काबू में रख सकती हैं या अपने साथ ले सकती हैं वर्ना इन पार्टीयों को सबसे बडा़ भय यह है कि ये युवा वैकल्पिक व्यवस्था की लडा़ई लड़ रहे आंदोलनों के साथ न चले जायें जो कि उन सबके लिये सबसे बडा़ खतरा हैं इन पार्टियों को पता है कि आस्था अमूर्त विकास आतंकवाद जैसे कुछ ऎसे टूल हैं चुनाव के पहले जिनका इश्तेमाल कर जनता को गुमराह किया जा सकता है और संसदीय राजनीति से मोह भंग होने की स्थिति को रोकने का प्रयास किया जा सकता है जिसे आमजन को समझने की जरूरत है और क्षेत्र भाषा व आस्था से हटकर समानता मानवता और वर्ग विहीन समाज के लिये संघर्ष करने की जरूरत है.