30 सितंबर 2013

मोदी के दिल्‍ली रैली की हकीकत.

विकास रैली की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट

अभिषेक श्रीवास्तव

हाल ही में एक बुजुंर्ग पत्रकार मित्र ने मशहूर शायर मीर की लखनऊ यात्रा पर एक किस्सा सुनाया था। हुआ यों कि मीर चारबाग स्टेनशन पर उतरे, तो उन्हें पान की तलब लगी हुई थी। वे एक ठीहे पर गए और बोले, ”ज़रा एक पान लगाइएगा।” पनवाड़ी ने उन्हें ऊपर से नीचे तक ग़ौर से देखा, फिर बोला, ”हमारे यहां तो जूते लगाए जाते हैं हुज़ूर।” दरअसल, यह बोलचाल की भाषा का फ़र्क था। लखनऊ में पान बनाया जाता है। लगाने और बनाने के इस फ़र्क को समझे बगैर दिल्ली से आया मीर जैसा अदीब भी गच्चा खा जाता है। ग़ालिब, जो इस फ़र्क को बखूबी समझते थे, बावजूद खुद दिल्ली में ही अपनी आबरू का सबब पूछते रहे। दिल्ली और दिल्ली के बाहर के पानी का यही फ़र्क है, जिसे समझे बग़ैर ग़यासुद्दीन तुग़लक से दिल्ली हमेशा के लिए दूर हो गई। गर्ज़ ये, कि इतिहास के चलन को जाने-समझे बग़ैर दिल्ली में कदम रखना या दिल्ली से बाहर जाना, दोनों ही ख़तरनाक हो सकता है। क्या नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात कोई जाकर समझा सकता है? चौंकिए मत, समझाता हूं…।

अगर आपने राजनीतिक जनसभाएं देखी हैं, तो ज़रा आज की संज्ञाओं का भारीपन तौलिए और मीडिया के जिमि जि़प कैमरों के दिखाए टीवी दृश्यों से मुक्ता होकर ज़रा ठहर कर सोचिए: जगह दिल्ली, मौका राजधानी में विपक्षी पार्टी भाजपा की पहली चुनावी जनसभा और वक्ता इस देश के अगले प्रधानमंत्री का इकलौता घोषित प्रत्याशी नरेंद्र मोदी। सब कुछ बड़ा-बड़ा। कटआउट तक सौ फुट ऊंचा। दावा भी पांच लाख लोगों के आने का था। छोटे-छोटे शहरों में रैली होती है तो रात से ही कार्यकर्ता जमे रहते हैं और घोषित समय पर तो पहुंचने की सोचना ही मूर्खता होती है। मुख्य सड़कें जाम हो जाती हैं, प्रवेश द्वार पर धक्का-मुक्की तो आम बात होती है। दिल्ली में आज ऐसा कुछ नहीं हुआ। न कोई सड़क जाम, न ही कोई झड़प, न अव्यवस्था।। क्या इसका श्रेय जापानी पार्क में मौजूद करीब तीन हज़ार दिल्ली पुलिसबल, हज़ार एसआइएस निजी सिक्योरिटी और हज़ार के आसपास आरएएफ के बलों को दिया जाय, जिन्होंने कथित तौर पर पांच लाख सुनने आने वालों को अनुशासित रखा? दो शून्य‍ का फ़र्क बहुत होता है। अगर हम भाजपा कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों, मीडिया को अलग रख दें तो भी सौ श्रोताओं पर एक सुरक्षाबल का हिसाब पड़ता है। ज़ाहिर है, पांच लाख की दाल में कुछ काला ज़रूर है।

आयोजन स्थल पर जो कोई भी सवेरे से मौजूद रहा होगा, वह इस काले को नंगी आंखों से देख सकता था। मोदी की जनसभा का घोषित समय 10 बजे सवेरे था, जबकि वक्ता की लोकप्रियता और रैली में अपेक्षित भीड़ को देखते हुए मैं सवेरे सवा सात बजे जापानी पार्क पहुंच चुका था। उस वक्त ईएसआई अस्पताल के बगल वाले रोहिणी थाने के बाहर पुलिसवालों की हाजि़री लग रही थी। सभी प्रवेश द्वार बंद थे। न नेता थे, न कार्यकर्ता और न ही कोई जनता। रोहिणी पश्चिम मेट्रो स्टेशन वाली सड़क से पहले तक अंदाज़ा ही नहीं लगता था कि कुछ होने वाला है। अचानक मेट्रो स्टेशन वाली सड़क पर बैनर-पोस्टर एक लाइन से लगे दिखे, जिससे रात भर की तैयारी का अंदाज़ा हुआ। बहरहाल, आठ बजे के आसपास निजी सुरक्षा एजेंसी एसआइएस के करीब हज़ार जवान पहुंचे और उनकी हाजि़री हुई। नौ बजे तक ट्रैक सूट पहने कुछ कार्यकर्ता आने शुरू हुए। गेट नंबर 11, जहां से मीडिया को प्रवेश करना था, वहां नौ बजे तक काफी पत्रकार पहुंच चुके थे। गेट नंबर 1 से 4 तक अभी बंद ही थे। सबसे ज्यादा चहल-पहल मीडिया वाले प्रवेश द्वार पर ही थी। दिलचस्प यह था कि तीन स्तरों के सुरक्षा घेरे का प्रत्यक्ष दायित्व तो दिल्ली पुलिस के पास था, लेकिन कोई मामला फंसने पर उसे भाजपा के कार्यकर्ता को भेज दिया जा रहा था। तीसरे स्तर के सुरक्षा द्वार पर भी भाजपा की कार्यकर्ता और एक स्था्नीय नेतानुमा शख्स। दिल्ली पुलिस को निर्देशित कर रहे थे।

यह अजीब था, लेकिन दिलचस्प। साढ़े नौ बजे पंडाल में बज रहे फिल्मी गीत ”आरंभ है प्रचंड” (गुलाल) और ”अब तो हमरी बारी रे” (चक्रव्यूबह) अनुराग कश्यप व प्रकाश झा ब्रांड बॉलीवुड को उसका अक्स दिखा रहे थे। इसके बाद ”महंगाई डायन” (पीपली लाइव) की बारी आई और भाजपा के सांस्कृतिक पिंजड़े में आमिर खान की आत्मा तड़पने लगी। जनता हालांकि यह सब सुनने के लिए नदारद थी। सिर्फ मीडिया के जिमी जि़प कैमरे हवा में टंगे घूम रहे थे। अचानक मिठाई और नाश्ते के डिब्बे बंटने शुरू हुए। कुछ कार्यकर्ता मीडिया वालों का नाम-पता जाने किस काम से नोट कर रहे थे। फिर पौने दस बजे के करीब अचानक एक परिचित चेहरा दर्शक दीर्घा में दिखाई दिया। यह अधिवक्ता प्रशांत भूषण को चैंबर में घुसकर पीटने वाली भगत सिंह क्रांति सेना का सरदार नेता था। उसकी पूरी टीम ने कुछ ही देर में अपना प्रचार कार्य शुरू कर दिया। ”नमो नम:” लिखी हुई लाल रंग की टोपियां और टीशर्ट बांटे जाने लगे। कुछ ताऊनुमा बूढ़े लोगों को केसरिया पगड़ी बांधी जा रही थी। कुछ लड़के भाजपा का मफलर बांट रहे थे। जनसभा के घोषित समय दस बजे के आसपास पंडाल में भाजपा कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवकों और मीडिया की चहल-पहल बढ़ गई। सारी कुर्सियां और दरी अब भी जनता की बाट जोह रही थीं और टीवी वाले जाने कौन सी जानकारी देने के लिए पीटीसी मारे जा रहे थे।

सवा दस बजे एक पत्रकार मित्र के माध्यम से सूचना आई कि नरेंद्र मोदी 15 मिनट पहले फ्लाइट से दिल्ली के लिए चले हैं। यह पारंपरिक आईएसटी (इंडियन स्ट्रे चेबल टाइम) के अनुकूल था, लेकिन आम लोगों का अब तक रैली में नहीं पहुंचना कुछ सवाल खड़े कर रहा था। साढ़े दस बजे के आसपास माइक से एक महिला की आवाज़़ निकली। उसने सबका स्वागत किया और एक कवि को मंच पर बुलाया। ”भारत माता की जय” के साथ कवि की बेढंगी कविता शुरू हुई। फिर एक और कवि आया जिसने छंदबद्ध गाना शुरू किया। कराची और लाहौर को भारत में मिला लेने के आह्वान वाली पंक्तियों पर अपने पीछे लाइनें दुहराने की उसकी अपील नाकाम रही क्यों कि कार्यकर्ता अपने प्रचार कार्य में लगे थे और दुहराने वाली जनता अब भी नदारद थी।

पौने ग्यारह बजे की स्थिति यह थी कि आयोजन स्थल पर बमुश्किल दस से बारह हज़ार लोग मौजूद रहे होंगे। एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर ने (नाम लेने की ज़रूरत नहीं) बताया कि कुल सात हज़ार के आसपास सुरक्षाबल (सरकारी और निजी), 500 के आसपास मीडिया, तीन हज़ार के आसपास कार्यकर्ता और स्वयंसेवक व छिटपुट और लोग होंगे। ”लोग नहीं आए अब तक?”, मैंने पूछा। वो मुस्कराकर बोला, ”सरजी संडे है। हफ्ते भर नौकरी करने के बाद किसे पड़ी है। टीवी में देख रहे होंगे।” फिर उसने अपने दो सिपाहियों को चिल्लाकर कहा, ”खा ले बिजेंदर, मैं तुम दोनों को भूखे नहीं मरने दूंगा।” ग्यारह बज चुके थे और पंडाल के भीतर तकरीबन सारे मीडिया वाले और पुलिसकर्मी भाजपा के दिए नाश्ते। के डिब्बों को साफ करने में जुटे थे। मंच से कवि की आवाज़ आ रही थी, ”मोदी मोदी मोदी मोदी”। उसने 14 बार मोदी कहा। मंच के नीचे पेडेस्ट़ल पंखों और विशाल साउंड सिस्टम के दिल दहलाने वाले मिश्रित शोर का शर्मनाक सन्नाटा पसरा था और हरी दरी के नीचे की दलदली ज़मीन कुछ और धसक चुकी थी।

कुछ देर बाद हम निराश होकर निकल लिए। मोदी सवा बारह के आसपास आए और दिल्ली में हो रही जोरदार बारिश के बीच एक बजे की लाइव घोषणा यह थी कि रैली में पांच लाख लोग जुट चुके हैं। मोदी ने कहा कि ऐसी रिकॉर्ड रैली आज तक दिल्ली में नहीं हुई। इस वक्त मोबाइल पर उनका लाइव भाषण देखते हुए हम बिना फंसे रिंग रोड पार कर चुके थे। पंजाबी बाग से रोहिणी के बीच रास्ते में गाजि़याबाद से रैली में आती बैनर, पोस्टर और झंडा बांधे कुल 13 बसें दिखीं। अधिकतर एक ही टूर और ट्रैवल्स की सफेद बसें थीं। निजी वाहनों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हरेक बस में औसतन 20-25 लोग थे। लाल बत्तियों पर लगी कतार को छोड़ दें तो पूरी रिंग रोड (जो हरियाणा को दिल्ली से जोड़ती है), रोहिणी से धौला कुआं वाली रोड (गुड़गांव वाली), कुतुब से बदरपुर की ओर जाती सड़क(जो फरीदाबाद को दिल्ली से जोड़ती है) और बाद में उत्तर प्रदेश से दिल्ली को जोड़ने वाली आउटर रिंग रोड खाली पड़ी हुई थी। और यह दिल्ली( की बारिश में था जबकि जाम एक सामान्य दृश्य होता है।

रैली में आखिर लाखों लोग आए कहां से? क्या सिर्फ 26 मेट्रो से? बसों और निजी वाहनों से तो जाम लग जाता, जबकि ग़ाजि़याबाद से रोहिणी और वहां से वापस रिंग रोड, आउटर रिंग रोड व भीतर की पंजाबी बाग वाली रोड को कुल 125 किलोमीटर हमने पूरा नापा। ग़ाजि़याबाद का जि़क्र इसलिए विशेष तौर पर किया जाना चाहिए क्योंकि राजनाथ सिंह यहां से सांसद हैं और पिछले दो दिनों से बड़े पैमाने पर यहां रैली की तैयारियां चल रही थीं। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि मोदी की जनसभा में जितने भी नेताओं के कटआउट आए थे, सब ग़ाजि़याबाद से आए थे जिन्हें एक ही कंपनी ”आज़ाद ऐड” ने बनाया था। सवेरे साढ़े आठ बजे तक ये कटआउट यहां ट्रकों में भरकर पहुंच चुके थे, हालांकि ग़ाजि़याबाद से श्रोता नहीं आए थे। वापस पहुंचने पर इंदिरापुरम, ग़ाजि़याबाद के स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता टीवी पर मोदी का रिपीट भाषण सुनते मिले।

बहरहाल, मोदी जब बोल चुके थे तो भाजपा कार्यालय के एक प्रतिनिधि ने फोन पर बताया कि रैली में आने वालों की कुल संख्या 50,000 के आसपास थी। अगर हम इसे भी एकबारगी सही मान लें, तो याद होगा कि इतने ही लोगों की रैली पिछले साल फरवरी में दिल्ली में कुछ मजदूर संगठनों ने की थी और समूचा मीडिया यातायात व्यवस्था और जनजीवन अस्तव्यस्त हो जाने की त्राहि-त्राहि मचाए हुए था। अजीब बात है कि बिना हेलमेट पहने और लाइसेंस के बतौर भारत का झंडा उठाए दर्जनों बाइकधारी नौजवानों के आज सड़क पर होने के बावजूद कुछ भी अस्तव्यस्त नहीं हुआ, लाखों लोग रोहिणी जैसी सुदूर जगह पर आ भी गए और चुपचाप चले भी गए। यह नरेंद्रभाई मोदी की रैली में ही हो सकता है। उत्तराखंड की बाढ़ में फंसे गुजरातियों को जिस तरह उन्होंने एक झटके में वहां से निकाल लिया था, हो सकता है कि ऐसा ही कोई जादू चलाकर उन्हों ने दिल्लीं की विकास रैली में लाखों लोगों को पैदा कर दिया हो। ऐसे चमत्कांर आंखों से दिखते कहां हैं, बस हो जाते हैं।

ऐसे चमत्कारों का हालांकि खतरा बहुत होता है। उत्तराखंड वाले चमत्कार में ऐपको नाम की जनसंपर्क एजेंसी का भंडाफोड़ हो चुका है। दिल्ली् में किस एजेंसी को भाजपा ने यह रैली आयोजित करने के लिए नियुक्त़ किया, यह नहीं पता। देर-सवेर पता चल ही जाएगा। मेरी चिंता हालांकि यह बिल्कुकल नहीं है। मैं इस बात से चिंतित हूं कि मोदी जैसा कद्दावर शख्स दिल्ली में बोल गया और दिल्ली वाले नहीं आए। वजह क्या है? कहीं तुग़लक जैसी कोई समस्या तो इसके पीछे नहीं छुपी है? मोदी दिल्लीवालों को न समझें न सही, क्या? विजय गोयल आदि आयोजकों से भी कोई चूक हो गई? ठीक है, कि टीवी चैनलों के हवा में लटकते पचास फुटा कैमरों ने टीवी देख रहे लोगों को काम भर का भरमाया होगा, जैसा कि उसने अन्ना हज़ारे की गिरफ्तारी के समय किया था। अन्ना से याद आया- वह भी तो रोहिणी जेल का ही मामला था जहां दो-चार हज़ार लोगों को कैमरों ने एकाध लाख में बदल दिया था। इत्तेफाक कहें या बदकिस्मती, कि रोहिणी में ही इतिहास ने खुद को दुहराया है। मोदी चाहें तो किसी ज्योतिषी से रोहिणी पर शौक़ से शोध करवा सकते हैं। वैसे रोहिणी तो एक बहाना है, असल मामला दिल्ली के मिजाज़ का है जिसे भाजपा (प्रवृत्ति और विचार के स्तर पर इसे अन्ना आंदोलन भी पढ़ सकते हैं) समझ नहीं सकी है।

भाजपा और संघ के पैरोकार वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने आज तक एक ही बात ऐसी लिखी है जो याद रखने योग्य है। उन्हों ने कभी लिखा था कि इस देश का दक्षिणपंथ जनता की चेतना से बहुत पीछे की भाषा बोलता है और इस देश का वामपंथ जनता की चेतना से बहुत आगे की भाषा बोलता है। इसीलिए इस देश में दोनों नाकाम हैं। कहीं मोदी समेत भाजपा की दिक्कत यही तो नहीं? कहीं वे भी तो शायर मीर की तरह ”लगाने” और ”बनाने” का फर्क नहीं समझते? मुझे वास्तव में लगने लगा है कि किसी को जाकर नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को यह बात गंभीरता से समझानी चाहिए कि 29 सितंबर, 2013 को दिल्ली के जापानी पार्क में उनकी ”बनी” नहीं, ”लग” गई है। ग़ालिब तो शेर कह के निकल लिए, इस ”भारत मां के शेर” का संकट उनसे कहीं बड़ा है। दिल्ली वालों ने आज संडे को टीवी देखकर मोदी और भाजपा की आबरू का सरे दिल्ली में जनाज़ा ही निकाल दिया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं) Contact: guru.abhishek@gmail.com,  M. 08800114126

26 सितंबर 2013

फांसी की सजा क्यों ?

सुनील कुमार

16 दिसम्बर, 2012 के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। खासकर मध्यमवर्गीय महिलायें, जो ऑफिस, स्कूलों और कॉलेजों में जाती हैं, काफी संख्या में सड़क पर आकर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। वर्मा कमेटी को सुझाव देने में पक्ष-विपक्ष एकमत था कि बलात्कार की घटना में फांसी की सजा होनी चाहिए। यह मीडिया पर दिन-रात चर्चा का विषय बना हुआ था। लोगों के गुस्से पर सरकार ने लाठी के बल पर काबू किया। एक पुलिसकर्मी की मौत में झूठे बेगुनाह युवकों को फंसाया गया। लोगों के गुस्से को देखते हुए वर्मा कमिटी का गठन किया गया और वर्मा कमेटी ने बलात्कार कानून में काफी कुछ बदलाव किया और बलात्कार की परिभाषा को भी बदला। 10 सितम्बर, 2013 को जब इस केस का फैसला आना था, मीडिया में यह मुद्दा गर्म हो गया और मीडिया द्वारा लोगों का ओपीनियन (फैसला) दिखाया जाने लगा। मीडिया पार्क में, चौराहों पर, ऑफिस के बाहर जाकर लोगों की बाइट ले रही थी, जिसमें अधिकांश लोगों का मत था कि फांसी की सजा दी जानी चाहिये। कुछ का तो यह भी मानना था कि इन्हें बीच चौराहे पर फांसी दी जानी चाहिए जिससे कि लोगों में भय पैदा हो। पीड़ित परिवार के बार-बार बयान दिखाये जा रहे थे कि बलात्कारियों को फांसी की सजा हो ताकि उनको न्याय मिल पाये।
16 दिसम्बर के बाद जब लोग दिल्ली के इंडिया गेट और रायसिना हिल पर जमे हुए थे उसी 72 घंटे के दौरान देश में 150 बलात्कार की घटनाएं हुईं (दैनिक भास्कर, 25 दिसम्बर 2012)। इस घटना के बाद भी लगातार देश में बलात्कार की घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं। दिल्ली में ही एक छोटी बच्ची के साथ गैंग रेप हुआ। मुम्बई में एक फोटोग्राफर  लड़की के साथ गैंग रेप हुआ। ज्यादातर केसों में आरोपी 24 घंटे में पकड़ लिये गये और केस को सुलझा लिया गया। फिर भी उनको कई दिनों तक पुलिस रिमांड पर रखा गया। प्रभावशाली लोग, जो कि एक संगठित गिरोह की तरह काम करते हैं, जब किसी के साथ बलात्कार करते हैं तो उन पर केस दर्ज नहीं होता, और होता भी है तो उनको बचाव का पूरा समय दिया जाता है। आसाराम के केस में देखा जा सकता है कि एक नाबालिग लड़की से सोच-समझकर षड़यंत्रपूर्वक बलात्कार किया जाता है और केस दर्ज होने के बाद भी आसाराम को बचाव का पूरा समय दिया जाता है। पूछ-ताछ के लिये उनके दरवाजे पर पुलिस जाकर नोटिस देने के लिये घंटों इंतजार करती रहती है और आदरपूर्वक उनको नोटिस देकर आती है। विपक्ष की नेता, जो चिल्ला-चिल्ला कर बलात्कारियों की फांसी की मांग करती हैं, उन्हीं की पार्टी के लोग आसाराम को निर्दोष बताने में लगे हुए थे। म.प्र. के एक बीजेपी नेता ने तो यहां तक मांग कर दी कि लड़की के घर वालों पर केस दर्ज होना चाहिए क्योंकि वे आसाराम बापू को झूठे फंसा रहे हैं। पुलिस आसाराम को पकड़ती है और एक दिन की पुलिस के रिमांड में ही पूछ-ताछ पूरी कर लेती है! जो मीडिया 16 दिसम्बर के सामूहिक बलात्कार के केस की अदालती कार्रवाई को इतनी रूचि से दिखा रही है और पहले भी दिखा रही थी; उस मीडिया का (दो-तीन चैनल को छोड़कर) आसाराम केस में उतनी दिलचस्पी नहीं है। सामूहिक बलात्कार केस में फांसी की मांग करने वाली भीड़ में आसाराम के कई भक्त भी होंगे जो कि आसाराम को निर्दोष बता रहे थे।
10 दिसम्बर, 2013 को दोषियों (मुकेश (26), पवन (19), विनय (20) व अक्षय (28)) को फांसी की सजा देते हुए जज योगेश खन्ना ने कहा ‘‘अदालत ऐसे अपराधों की तरफ आंख नहीं मूंद सकता। इस हमले ने समाज की अंतरात्मा की आवाज को स्तब्ध कर दिया था। ये मामला सचमुच अपवाद का है और इसमें मृत्युदंड ही दिया जाना चाहिए।’’  क्या जज साहब की इन बातों से उन सभी महिलाओं को न्याय मिल जायेगा जो सामाजिक संरचना की भय से बालात्कार जैसी घटना को छुपाती हैं? क्या इस फांसी की सजा से जेल मंे बंद सोनी-सोरी को न्याय मिल गया, जिनके गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारी अंकित गर्ग को सजा देने के बदले राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया? मनोरमा और शोपिया के बलात्कारियों का क्या हुआ? गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा है कि ‘‘दामिनी और उसके परिवार को न्याय मिला है। न्यायदेवता ने एक नया उदाहरण रखा है कि इस तरह के अपराध करोगे तो इसके सिवा दूसरी सजा नहीं हो सकती है। मैं इसका स्वागत करता हूं।’’ गृहमंत्री जी उन महिलाओं को कब न्याय मिलेगा जो कि राष्ट्रीयता व अपनी जीविका के संसाधनों, जल-जंगल-जमीन के लिए संघर्ष कर रही हैं और आपके ‘बाहदूर सिपाही/अधिकारी’ उनके साथ बालात्कार करते आ रहे हैं? आपके ही पार्टी के राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन पर सूर्यनेल्ली नामक लड़की ने जो आरोप लगाये थे क्या उस लड़की को न्याय मिल गया? प्रियदर्शनी मट्टू, रूचिका गिरहोत्रा जैसे कांड का क्या हुआ? जनदबाव के कारण अगर कोई बड़ा बलात्कारी पकड़ा भी जाये तो आप ऐसे बलात्कारियों को तो जेल में अतिथि बनाकर रखते हैं, जैसा कि अभी-अभी आसाराम को घर का बना हुआ दलिया खिलाया। इससे आसाराम का मनोबल इतना बढ़ गया कि वे जेल में महिला वैद्य से इलाज कराने की मांग करने लगे।
दिल्ली सामूहिक बलात्कार के दोषियों को 9 माह में फांसी की सजा सुना दी गई क्योंकि इन दोषियांे में कोई भी अरबपति, राजनेता, नौकरशाह या शासक वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नहीं थे। ये सभी समाज के उस निचले पायदान से थे जिसको हम चलती-फिरती भाषा में ‘नाली के कीड़े’ की संज्ञा देते हैं। इन दोषियों को सजा देकर भारत का शासक वर्ग यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि भारत में न्याय जिन्दा है। वह लोगों की भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहा है, जैसा कि गृहमंत्री का बयान है। वहीं बचाव पक्ष के वकील ए.पी. सिंह ने इस फैसले को पक्षपातपूर्ण निर्णय बताया है और राजनीति से प्रेरित बताया। उन्होंने कहा है कि ‘‘अगर फांसी देने से बलात्कार रूक जाएगा तो हम इस फैसले के खिलाफ अपील नहीं करेंगे। गृह मंत्री ने इस मामले में दखल दिया है। अगर इस फैसले के बाद दो महीने के अंदर कोई बलात्कार या हत्या नहीं होती है तो हम अभियुक्त के लिए ऊपरी अदालत में नहीं जांएगे।’’
बलात्कार सामंती युग की बर्बरता है। किसी से बदला लेना हो, किसी को नीचा दिखाना हो तो उसके घर की महिलाओं के साथ बलात्कार करो। सामंती युग की इस बर्बरता को पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति और बढ़ावा देती है। गुजरात के दंगों में विशेष समुदाय के महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, उनके पेट को चीर कर भ्रूण को काट दिया गया- यह किस सभ्य समाज की निशानी है? हमें शासक वर्ग को सरलीकरण का रास्ता दिखाते हुए उसे और दमनकारी बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए। बलात्कार पुरुषवादी मानसिकता में है जो इस समाज के जड़ में निहित है। सत्ता के शीर्ष पर हों या कानून के रखवाले हों, उनकी सोच में यह रची-बसी है कि महिला उपभोग की वस्तु है। पंजाब के पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल द्वारा भारतीय महिला प्रशासनिक अधिकारी को एक पार्टी में छेड़ना हो या राजस्थान में महिला पुलिस का उसके सहकर्मियों द्वारा थाने में बलात्कार किया जाना बाप द्वारा अपनी बेटी का बलात्कार या भाई द्वारा बहन का बलात्कार। सभी इस पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाते हैं। भाजपा शासित गुजरात हो या सपा-बसपा शासित उत्तर प्रदेश या कांग्रेस शासित प्रदेश हो, हर राज्य में बलात्कार जैसा संगठित अपराध नौकरशाहों, सत्ताधीशों या उनके संरक्षण में पलने वाले लोगों द्वारा किया जाता है। अपने को सर्वहारा का हितैषी बताने वाली सीपीएम के राज्य बंगाल के सिंगूर में सीपीएम के कार्यकर्ताओं द्वारा सिंगूर आन्दोलन की नेत्री तापसी मलिक का बलात्कार, फिर उसकी हत्या हो या नन्दीग्राम में सीपीएम नेताओं, कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं के बलात्कार, सभी इसी श्रेणी में आते हैं।
बहुसंख्यक महिलाओं की मानसिकता भी पुरुषवादी सोच से कोई अलग नहीं है जैसा कि म.प्र. के सेमिनार में एक महिला वैज्ञानिक डॉ. अनिता शुक्ला द्वारा ये कहा जाना कि ‘‘लड़की आधी रात में ब्वाय फ्रेंड के साथ क्या कर रही थी, क्यों घूम रही थी।’’ यहां तक कि उन्होंने लड़की को आत्मसमर्पण कर देने की बात भी कह डाली। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा महिलाओं को अकेले न निकलने और कपड़े ठीक से पहनने की नसीहत दी जाती है। यहां तक की सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा करात द्वारा नन्दीग्राम बलात्कार में पीड़िता की मद्द करने के बजाय अपने पार्टी को बचाने वाला बयान दिया गया कि दस के साथ नहीं चार औरतों के साथ बलात्कार हुआ है।
बलात्कार के कारण के रूप में लड़कियों के भड़काऊ कपड़े पहनना, ब्वाय फ्रेंड या दोस्तों के साथ घूमना, लड़कों से हंस-हंस कर बात करना (जैसा कि हंसने पर केवल पुरुष का ही एकक्षत्र राज्य हो) इत्यादि माना जाता है। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि फांसी देने से बलात्कार कम होगा। 132 देशों में फांसी की सजा नहीं है। क्या वहां पर ज्यादा अपराध होते हैं? आंकड़े तो यह बताते हैं कि जिस देश में फांसी की सजा नहीं है वहां पर बलात्कार और अपराध के मामले मृत्यु की सजा देने वाले देशों से कम होते हैं।
हमारे देश में अलग-अलग वर्ग हैं। एक ही तरह के अपराध के लिए यहां सजा भी अलग-अलग होती है। 16 दिसम्बर की बलात्कार की घटना में फांसी की सजा प्राप्त विनय के पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने बीबीसी संवादाता से कहा ‘‘सजा तो जितने भी बलात्कारी हैं, सबको मिलनी चाहिए। जो भी सजा इन गरीब बच्चों को अदालत देगी वो सभी को मिलनी चाहिए। चाहे वे कोई बाबा हो या फिर नेता या अमीरों के बच्चें हों।’’ क्या यह वर्गीय समाज में मुमकिन है?
जब किसी अरबपति-खरबपति, माफिया सरगना, अफसरशाह, नेता या उसके परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य द्वारा ऐसी काली करतूत की जाती है तो पीड़िता के ही चरित्र पर सवाल उठाये जाते हैं। प्रताड़ित लड़की या महिला  का चरित्र ही गलत है, वह पैसा चाहती है, सुर्खियां बटोरने के लिए यह सब कर रही है, डॉक्टरी रिपोर्ट का इंतजार करो, मीडिया पर ध्यान मत दो, बेचारे को झूठा फंसा रही है, आदि, आदि कह कर लोगों को दिगभ्रमित किया जाता है ताकि आम जनता पीड़िता को ही दोषी मानने लगे।
जिस देश में लोगों के अपने मौलिक-कानूनी अधिकारों को पाने के लिये संघर्ष करना पड़ता है; शासक वर्ग जेलों-लाठियों-गोलियों के बल पर इन संघर्षों को क्रूर तरीके से दमन करता है क्या किसी की जान लेने का वैधानिक अधिकार देना शासक वर्ग को और क्रूर नहीं बनाता है? क्या किसी भी सभ्य-जनवादी-लोकतांत्रिक समाज में फांसी की सजा होनी चाहिए?
sunilkumar102@gmail.com

25 सितंबर 2013

मैट्रो कर्मचारियों व मजदूरों की हालात

सुनील कुमार
दिल्ली के बस स्टॉपों, चौराहों व सार्वजनिक स्थानों पर दिल्ली सरकार की चमचमाती होर्डिंग दिख जाती है। इनमें दिल्ली मैट्रो को दिल्ली के विकास के साथ जोड़ा गया है जिसमें करीब 22 लाख यात्री प्रतिदिन यात्रा करते हैं। दिल्ली मैट्रो का रजिस्ट्रेशन 3 मई 1995 को कम्पनी अधिनियम 1956 के तहत हुआ था। दिल्ली मैट्रो में हम और आप इसलिए सफर करते हैं कि जल्दी से अपने गंतव्य स्थान तक पहुंच जायें। मेट्रो स्टेशन पर पहुंचते ही हमें चिलचिलाती धूप और कान को चीरती गाड़ियों की सायरन से राहत मिलती है। एक्सलेटर (स्वचालित सीढ़ियां) से हम ऊपर या नीचे जाते हैं। ऐसा महसूस होता है कि हम भारत में नहीं किसी यूरोपीयन देश में आ गये हैं। दिल्ली मेट्रो का भी कहना है कि वो वर्ल्ड श्रेणी की मैट्रो है। मैट्रो परिसर के अन्दर प्रवेश करने से लेकर बाहर निकलते समय तक हमारी हरेक गतिविधियों पर तीसरी आंख (सीसीटीवी) द्वारा नजर रखी जाती है। मैट्रो में जेबतराशी की घटनाएं होती रहती हैं लेकिन आज तक जेबतराशों पर यह तीसरी आंख द्वारा काबू नहीं पाया जा सका। किसी की अश्लील हरकत को ये तीसरी आंख कैद कर लेती है और ये कैद की हुई तस्वीरें मेट्रो अधिकारियों व सेक्स-धंधेबाजों के बीच सांठ-गांठ से सेक्स वीडियो बन कर नेट पर चला जाता है। शासन-प्रशासन कुछ भी नहीं करता; यह केवल एक खबर बन कर रह जाती है। मैट्रो के पास अपना सतर्कता (विजिलंेस) विभाग है लेकिन बहुत सारे केस होने के बावजूद आज तक इसका खुलासा नहीं हो पाया कि मैट्रो द्वारा ली गई तस्वीर बाजार में कैसे पहुंची और उसके लिए कौन जिम्मेदार है? ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए जन जागरण व सुरक्षा गॉर्ड की जरूरत है जबकि डीएमआरसी ने जन जागरण पर वर्ष 2011-12 में 228.30 लाख रू. की कटौती की। इसी तरह सुरक्षा में भी 156.16 लाख रू. की कटौती की। विज्ञापन पर वर्ष 2011-12 में वर्ष 2010-11 की तुलना में 12.91 लाख रू. ज्यादा खर्च किया है। वर्ष 2011-12 में डीएमआरसी की आय 641.75 करोड़ रू. बढ़कर 2247.77करोड़ रू. हो गया।
मैट्रो को चलाने के लिए कई विभाग होते हैं, जैसे- प्रोजेक्ट, आपरेशन, मेंटीनेंस, प्रॅापर्टी डेवलपमेंट, एचआर, विजिलेंस आदि। मैट्रो में प्रोजेक्ट और आपरेशन विभाग की मुख्य भूमिका होती है, जो मैट्रो लाईनों का निर्माण और मैट्रो के संचालन की जिम्मेदारी संभालते हैं।
प्रोजेक्ट विभाग में बड़े-बड़े डायरेक्टर जुड़े होते हैं जिनकी तनख्वाह लाखों में होती है। उसी प्रोजेक्ट विभाग में निर्माण कार्य में ठेका मजदूर होते हैं। ये मजदूर दैनिक वेतन भोगी होते हैं जो अपनी जान जोखिम में डालकर कभी 80-100 फीट जमीन के अन्दर, तो कभी 25-35 फीट ऊपर चढ़ कर मैट्रो लाईन का निर्माण करते हैं। निर्माण के दौरान बहुत सारे मजूदरों की मौत होती है। सितम्बर 2010 मंे दिल्ली उच्च न्यायालय में दाखिल किए गए एक शपथ-पत्र में दिल्ली मैट्रो रेल कॉरपोरेशन (डीएमआरसी) ने यह स्वीकार किया कि राजधानी के विभिन्न कार्य-स्थलों पर हुई दुर्घटनाओं में कुल 109 मजदूरों की मौत (जबकि वास्तविक संख्या इससे भी अधिक होगी) हुई है। इस आंकड़े को डीएमआरसी ने अपने वेबसाईट पर भी नहीं डाला है। 2010 के बाद और भी रफ्तार से मैट्रो के कार्य हो रहे हैं लेकिन मजदूरों की मौत का कोई आंकड़ा नहीं मालूम है। तीसरे चरण में चल रहे वर्क प्लेस (काम के स्थान) बादली मोड़ के पास मैं गया था जहां मैट्रो स्टेशन का काम चल रहा है। इस काम का ठेका जे. कुमार इण्टरप्राइजेज कम्पनी के पास है। जे. कुमार इण्टरप्राइजेज ने इस काम को पूरा कराने के लिए दूसरे ठेकेदारों को काम बांट रखा है। उन ठेकेदारों ने दूसरे-तीसरे ठेकेदारों को काम दे रखा है। इस तरह ठेकेदारों के कई लेअर (परत) हैं। मजदूरों का कहना है कि उनकी मजदूरी 5 ठेकेदारों के हाथों से गुजर कर आती है। यहां पर विभिन्न कामों में करीब 400 ठेका मजदूर काम करते हैं जिसमें 90 प्रतिशत बिहार से आये हुए प्रवासी मजदूर हैं।
म.प्र. के भिंड जिले के गुड्डेश, जिनकी उम्र 41 वर्ष हैं और बादली में किराये के कमरे में रहते हैं, इस साईट पर स्वीपर का काम करते हैं। 12 घंटे काम करने पर उन्हें 6500 रु. दिया जाता है। उनको किसी तरह का साप्ताहिक अवकाश तक नहीं दिया जाता है। वे किसी तरह गुजर-बसर कर कुछ पैसे घर पर भेजते हैं जिसमें उनकी पत्नी मां-बाप और चार बच्चों का किसी तरह गुजारा हो पाता है। यहां पर चौकीदारों की ड्यूटी 12 घंटे की होती है। 12 घंटे की ड्यूटी (कोई साप्ताहिक अवकाश के बगैर) पर 5000 से 6000 रु. दिया जाता है। गुरूचरण सिंह, जो कि चौकीदारी का काम करते हैं, सिरसपुर में किराये के कमरे में रहते हैं। इनके पास पहले अपना घर भारत नगर (दिल्ली) में था जिसको दिल्ली सरकार ने 335 घरों के साथ तोड़ दिया। उनको 12 घंटे का 6000 रू. मिलता है वो भी समय से नहीं। कभी कभी तो महीने के 30 तारीख तक तनख्वाह मिल पाती है। पहले महीने में तो 50-60 दिन काम करने के बाद ही पैसा मिलता है। उनकी बेटी ने 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी, क्योंकि वे आगे पढ़ा नहीं सकते थे।
यहां पर तीन ठेकेदारों को सरिया का काम दिया गया है। प्रभुदयाल, जो सिद्धार्थनगर, उ.प्र. से हैं और 2 माह से काम करते हैं, को 180 रू. प्रतिदिन के हिसाब से ही भुगतान किया जा रहा है। मैट्रो में दैनिक मजदूरी दिल्ली में आम जगह पर मिलने वाली मजदूरी से कम है। यहां पर कारीगर (मिस्त्री) को 300 रू. दिये जाते हैं जबकि दिल्ली में 400-500 रू. मिस्त्री की मजदूरी है। 12 अगस्त् को रहीबुल, हबुल, राजकुमार, इश्तकार गाटर चढ़ाने का काम कर रहे थे। गाटर फिसल कर गिर गया जिसमें तीन के सिर पर चोट आई व रहीबुल का दाहिना हाथ टूट गया है, जिसमें सरिया लगा हुआ है। उनका ईलाज ठेकेदार इसान अस्पताल, बादली से करा रहा है जो कि बहुत ही छोटा अस्पताल है। इस मजदूर को प्रतिदिन साइट (काम करने के स्थान) पर बुलाया जाता है, जहां वो पूरा दिन बैठा रहता है तब उसकी मजदूरी दी जाती है। अगर वह साइट पर न आये तो उस दिन की उसको मजदूरी नहीं मिलती है। अभी तक उसको कोई मुआवजा भी नहीं दिया गया है, न ही कोई एफ.आई.आर. दर्ज कराई गई है। रहीबुल को यह डर है कि हाथ ठीक होने के बाद उसको निकाल दिया जायेगा। टीपीएल, स्क्रोपयन वीकील सर्विस प्राइवेट लिमिटेड इत्यादि कम्पनियों का ठेका है। जे. कुमार इण्टरप्राइजेज द्वारा रोहणी सेक्टर 18 में मेट्रो का काम चल रहा है जहां कि सुरक्षा मानको का ध्यान नहीं रखा जाता है जिसके कारण 16 सितम्बर, 2013 को 14 फीट गड्ढे में तीन मजदूर मिट्टी गिरने से दब गये, इसमें एक मजदूर उमाशंकर की मौत हो गई और दो गंभीर रूप से घायल हो गये। वर्ल्ड श्रेणी की कहे जाने वाली मैट्रो इस मजदूर को गड्ढ़े से निकालने में तीन घंटा का समय लगाया। जुलाई-अगस्त महिने में भी बादली में एक मजदूर की मौत हो गई थी गाटर गिरने से यहा पर भी जे कुमार इण्टरप्रजेज का ही काम चल रहा है।
मेट्रो में अलग-अलग विभाग होता है। मुख्यतः मैट्रो ट्रेनों को संचालित करने का काम आपरेशन विभाग का होता है। इस विभाग में सीआरए (कस्टमर रिलेशनशिप असिस्टेंट) होता है जो कि कस्टमर का कूपन रिचॉर्ज करता है व कस्टमर की शिकायतों को सुनता है। इसकी ड्यूटी 8-8 घंटे की दो शिफ्ट में होती है। एस.सी. (स्टेशन कंट्रोलर) और टी.ओ. (ट्रेन आपॅरेटर) दोनों की ट्रेनिंग एक ही व्यक्ति की होती है जो कि तीन वर्ष पर या जरूरत के अनुसार बदली जाती है। इन्हीं को प्रमोशन करके एस.एम. (स्टेशन मैनेजर) बनाया जाता है। एस.एम. की ड्यूटी 8 घंटे की होती है और इनका शिफ्ट भी एक ही होता है। यानी केवल 8 घंटे ही स्टेशन मैनेजर होता है और इन 8 घंटों में दो स्टेशनों की जिम्मेदारी होती है, जबकि मैट्रो करीब 17 घंटे संचालित होती है। इन तीनों पदों के कर्मचारी स्थायी होते हैं।
इसके अलावा इसमें भारी संख्या में ठेकेदारों के दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी हैं। जे.एम.डी., वेदी एण्ड वेदी, ट्रीग, गु्रप 4, आशा इण्टरप्राइजेज जैसी बड़ी कम्पनियों के अलावा करीब डेढ़ दर्जन कम्पनियां कर्मचारी/मजदूर मुहैय्या कराती हैं। ठेका पाने के लिए इन कम्पनियों में होड़ रहती है। ये कम्पनियां डी.एम.आर.सी. के डायरेक्टरों/अधिकारियों को अलग- अलग तरीके से प्रभावित करके ठेका हासिल करती हैं। कम्पनियों द्वारा अधिकारियों पर किये गये खर्च मजदूरों/ कर्मचारियों से वसूले जाते हैं- जैसे कि टाम आपरेटरों को 50-60 हजार रू. लेकर नियुक्ति की जाती है। 25 हजार रू. तो सिक्युरिटी के नाम पर होता है जो कि काम से हटने के बाद वापस मिल जाता है। बाकी के पैसे दलालों द्वारा ठेकेदार व मैट्रो अधिकारियों के जेब में जाता है। वहीं हाऊस कीपर और सिक्युरिटी गार्ड से 5000 रू. वर्दी के नाम पर ले लिया जाता है।
टाम आपरेटर (काउंटर पर टोकन देने वाला), हाउस कीपिंग (सफाई कर्मचारी), सिक्युरिटी गार्ड मैट्रो परिचालन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। टाम आपरेटर 12वीं से अधिक पढे-लिखे होते हैं। उनकी ड्यूटी टाइम में थोड़ा देर होने से मैट्रो यात्रियों को परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। ये महीने में करीब 8500-9000 रू. वेतन पा जाते हैं।  अधिक यात्रियों की संख्या होने पर इनको लंच करने तक का समय नहीं मिलता है। इनकी ड्यूटी कागज में 8 घंटे की होती है लेकिन इनकी असली ड्यूटी 9 घंटे की हो जाती है। 15 मिनट से अधिक लेट होने पर इन पर 500 रू. की फाईन लग जाती है। अगर इनके हिसाब में 6 रू. से कम या अधिक पाया जाये या गलती से अपना पैसा भी पॉकेट में चला जाये तो इन पर मैट्रो की भाषा में हिडेन (चोरी) का आरोप लग जाता है। इनके ऊपर हमेशा ही नौकरी जाने का खतरा मंडराता रहता है। कई बार किसी कारण से पहुंचने में देर हो गयी, अगर दो-चार बार हिडेन का आरोप लगा या ठेकेदार बदल जाये तो इनकी नौकरी जाना लाजमी है।
एक महिला नागलोई मेट्रो स्टेशन पर 11 मई 2013 से कार्यरत थी। उनको कोई नोटिस/चेतावनी दिये बिना अचानक 24 अगस्त को निकाल दिया गया। 23 अगस्त को वो अपनी ड्यूटी से वापस आई तो उनके मोबाईल पर उनके सुपरवाईजर का मेसेज (संदेश) आया कि कल उनका ऑफ है और वे लक्ष्मी नगर जे.एम.डी. ऑफिस में चली जायें। जब वह महिला लक्ष्मी नगर जे.एम.डी. ऑफिस गई तो उनको लेटर दे दिया गया कि आपकी सेवा समाप्त की जा रही है। इस का कोई कारण नहीं बताया गया, न ही उनको नोटिस दिया गया और न ही कभी उनको किसी तरह की चेतावनी दी गई थी। 25 हजार सिक्युरिटी के पैसे के लिए बोले कि 10 दिन बाद मिल जायेगा। 10 दिन बाद भी उनका पैसा वापस नहीं आने पर फोन किया तो जवाब मिला कि कुछ दिन और रूकिये, आपको पैसा मिल जायेगा। उनकी जुलाई 2013 की तनख्वाह भी अभी (9 सितम्बर) तक नहीं मिली है। इस महिला का जेएमडी के द्वारा ईएसआई, पीएफ काट लिया जाता था लेकिन न तो इनको ईएसआई कार्ड मिला, न ही पीएफ नम्बर दिया गया था।
स्थायी मजदूरों को वेतन तथा छुट्टियां तो मिल जाती हैं लेकिन उनके ऊपर भी नौकरी जाने का खतरा हर समय मंडराता रहता है। अगस्त् 2013 में 16 सीआरए और एक ट्रेन आपरेटर को निलम्बित कर दिया गया है। ट्रेन आपरेटर की गलती बस ये थी कि उसने डीएमआरसी के बनाये नियम का पालन करना चाहा। डीएमआरसी का नियम है कि मैट्रो कैब (ड्राइबर का स्थान) के अन्दर ट्रेन ऑपरेटर के अलावा कोई नहीं होगा। इलेक्ट्रिकल डीजीएम (जो कि अपना पहचान पत्र भी नहीं दिखा रहे थे) कैब में यात्रा करना चाह रहे थे। ट्रेन आपरेटर ने उन्हें यात्रा करने से मना करा दिया। नियम पालन करने का ईनाम उनको नौकरी से निकाल कर दिया गया,  जिसके विरोध में 30 अगस्त, 2013 को मैट्रो ट्रेन आपरेटरों ने काली पट्टी बांध कर ट्रेन को चलाया। मैट्रो कर्मचारियांे/मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। अगर कोई यूनियन बनाने की कभी कोशिश करता है तो उसको निकाल दिया जाता है। हाउस कीपिंग (सफाई कर्मचारी) व गॉर्ड को न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता है, न ही उनके लिए कोई अवकाश है। डीएमआरसी ने 2011-12 की वार्षिक रिपोर्ट में लिखा है कि 31 मार्च, 2012 तक 6341 कर्मचारी तथा 579 अधिकारी डीएमआरसी में काम करते थे, यानी डीएमआरसी ठेका कर्मचारियों/मजदूरों को अपना नहीं मानता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के नियमों का खुला उल्लंघन है।
डीएमआरसी का प्रॉपर्टी डेवलपमेंट विभाग पार्किंग, विज्ञापन व मेट्रो स्टेशनों पर टी स्टाल, रेस्टोरेंट से भी कमाई करता है।
दिल्ली सरकार व डीएमआरसी मैट्रो पर अपनी पीठ थप-थपाते हुए फूले नहीं समाती है और शेखी बघारती है कि वे जनता को विश्वस्तरीय सुविधाएं दे रही हैं। उसी के कर्मचारीं/मजदूर किस हालत में काम कर रहे हैं, उनका किस तरह शोषण किया जा रहा है उससे डीएमआरसी आंखे बंद किये हुए है। डीएमआरसी के बनाये नियमों को ठेकेदार व अधिकारी नहीं मानते हैं जो कि डीएमआरसी के अध्यक्ष भी जानते हैं। फिर भी सरकार व डीएमआरसी आंखें मूंदे उन्हें मनमानी करने की पूरी छूट दे रखी है। डीएमआरसी कम्पनी अधिनियम 1956 के तहत पंजीकृत है फिर कम्पनी अधिनियम व अन्तर्राष्टीªय श्रम संगठन का उल्लंघन डीएमआरसी में क्यों हो रहा है?  मैट्रो एसएमएस जिस तरह से बाजार में आया उसके लिए कौन जिम्मेदार है, उस पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई? जन जागरण व सुरक्षा पर खर्च कम क्यों किये जा रहे हैं? क्या यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी डीएमआरसी को नहीं लेनी चाहिए? इन सभी सवालों का जबाब क्या हम मैट्रो में सफर करने वाले यात्री डीएमआरसी से मांग सकते है? यात्रियों का क्या यह फर्ज नहीं है कि वे अपनी सुरक्षा तथा कर्मचारियों/मजदूरों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायें? 

18 सितंबर 2013

नया बाप कमीना और हिंदुस्तान ज़िंदाबाद है!

-दिलीप ख़ान

(बिनलाल उर्फ़ बिलाल से बातचीत यानी शहर ये दिल्ली है!)

वह कोई पौने पांच फुट का था और जब उससे मेरी मुलाक़ात हुई तो रात के साढ़े ग्यारह से ज़्यादा बज रहे थे। हम उसके सोने वाली जगह पर खड़े थे, लेकिन शायद उसके 'बिस्तर' से दस-बीस कदम इधर-उधर! रोड के डिवाइडर पर खड़े होकर देखने से गाड़ियां कुछ ज़्यादा ही डरावनी लग रही थीं। सायं-सायं करती हुई कारें दोनों तरफ़ से गुजर रही थीं। शायद लोग अपने घर पहुंचने की जल्दी में थे। चलती सड़क में बिना जाम के भी गाड़ियों के हॉर्न ये बता रहे थे कि वो शहर पर अपने दिन भर की थकान छोड़कर गाढ़ी नींद लेने की बेताबी में हैं। कभी-कभी देर रात अपने दफ़्तर से मैं इसी रास्ते घर लौटता हूं। इन्हें पहले भी सड़क पर सोते देखा था। एक उचटे से अफ़सोस और सहानुभूति से देखने का ठीक से मौक़ा भी नहीं मिल पाता कि गाड़ी हमेशा आगे बढ़ जाती! लेकिन इस बार स्टोरी पर काम करने के दौरान इनसे मिलना था। हम दिल्ली में प्रवासियों के मुद्दे पर अपने चैनल के लिए रिपोर्ट कर रहे थे और उसी में एक कड़ी के तौर पर बेघर भी शामिल थे।  

यह आईएसबीटी से राजघाट के बीच की जगह है। फ्लाईओवर से ठीक पहले। यहां तीन टुकड़ों में अलग-अलग जगह डिवाइडर को लोगों ने अपना 'बेडस्पेस' बना लिया है। हमने पहले ही यह तय कर लिया था कि अगर शूटिंग से किसी को परेशानी हो तो हम कैमरा वहीं बंद कर देंगे। थोड़ा सचेत भी थे कि नशे की हालत में कोई कैमरे को क्षति न पहुंचा दे। लिहाजा हमारे एक उत्साही सहकर्मी, जोकि सिर्फ़ रात की इस शूटिंग के लिए अपना काम ख़त्म होने के बाद भी रुक गए थे, कैमरापर्सन के आस-पास चिपककर चल रहे थे। तो कुल जमा हम तीन लोग थे। कैमरापर्सन स्म्रुति, सहकर्मी करमवीर और मैं। जायज़ा लेने के बहाने मैं इधर-उधर दो-एक लोगों से ऐसे ही बात करने लगा। ज़्यादातर लोग दिन भर की थकान और नशे के हल्के डोज के तले नींद में समा रहे थे। मैंने देखा करमवीर के साथ वही लड़का खड़ा है। लंबाई लगभग पौने पांच फुट। 

धीरे-धीरे मैं भी वहां पहुंचा और गप्प को लोक लिया। दो-एक मिनट में ही वो सामान्य होकर बात करने लगा। लेकिन, बीच-बीच में वो अपनी लुंगी के एक खूंट को उठाकर मुंह में भर रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वो 'माल' पी रहा है। उस पूरे इलाके में हर नशेरी को स्मैकिया और चरसी मान लेने का एक नज़रिया है दिल्ली के भीतर। सो, मैंने भी वही समझते हुए पूछा, 'कौन सा माल है?' लड़का बताया-ट्यूबमाल। 

करमवीर वहां से दस कदम आगे बढ़कर स्म्रुति के साथ हो लिए। मैंने उससे 'ट्यूबमाल' देखने की इच्छा जाहिर की। वह पहले हिचकिचाया और मीडियावाला समझकर थोड़ा डरा भी, लेकिन बातचीत के दौरान फिर सामान्य हो गया। उसने लुंगी के नीचे जो जींस पहन रखी थी वह पैरों के पास पांच-छह तह मुड़ी हुई थी और उस मुड़े हुए हिस्से में से एक नया ट्यूब सैंपल की तरह मेरे हाथ में थमा दिया। वहां से सौ मीटर आगे-पीछे की स्ट्रीट लाइट नहीं जल रही थी, लिहाजा मैंने गाड़ियों की आती-जाती रौशनी की बजाय अपने मोबाइल के पास ले जाकर उसे देखा। वह पंक्चर बनाने के दौरान ट्यूब को चिपकाने में इस्तेमाल होने वाला लिक्विड था। ब्रांड का नाम था- ओमनी। क़ीमत 15 रुपए। मैंने पूछा, 'रोज़ पीते हो?'  बांग्ला उच्चारण के साथ वह जो हिंदी बोल रहा था उसमें मुझे उसने बताया कि हर दूसरे दिन वह एक ट्यूब पी जाता है। 

फिर थोड़ी देर बाद उसने मुझे ये भी बताया कि आज चूंकि उसने रात में खाना नहीं खाया इसलिए माल पी लेने से नींद अच्छी आएगी। मुझे एकबारगी ग़ुस्सा आया..लेकिन मैं उसे बेहद संजीदगी से समझाने की कोशिश करने लगा कि 15 रुपए ख़र्च करके अगर वो माल ख़रीद सकता है तो इतने ही पैसे में खाना क्यों नहीं खाता। मैं उसे उसके स्वास्थ्य, बेहतर जीवन के संभावित रास्ते सहित कई मसलों पर समझाता रहा और इस दौरान वो अपने चेहरे पर स्थाई मुस्कुराहट के साथ मेरी बात सुनता रहा। बीच-बीच में सहमति में वो अपना सिर हिला देता था। इस दरम्यांन उसने अपना जो नाम बताया उसे मैंने 'बिनलाल' सुना। 

अब बारी उसकी थी। बिनलाल ने बताया कि मंगलवार को वह ख़रीदकर नहीं खाता और नियम के मुताबिक़ बगल वाले हनुमान मंदिर में ही पेट भर आता है, लेकिन आज वो लेट हो गया और मंदिर का सारा खाना ख़त्म हो गया। लिहाजा रात के इस पहर माल से ही वो काम चलाएगा। फिर बड़ी चमक के साथ मुझसे पूछा कि अगर मुझे पुड़िया (चरस) चाहिए तो आगे से मैं लेफ़्ट ले लूं और 100 मीटर अंदर जाने पर पांच-छह सौ रुपए में मुझे वो मिल जाएगी। मैंने इनकार किया और अपना बैग टटोला, जिसमें कुछ नहीं था, सिवाय आधे डब्बे बिस्कुट के, उसने बड़े प्यार से उसे लुंगी में बांध लिया। 
बिनलाल ने बताया कि वो कलकत्ते का है और काफ़ी कम उम्र में ही दिल्ली आ गया था। उसकी नज़र में कलकत्ता बेहद घटिया शहर है जबकि दिल्ली के भीतर दम है। आगे वह मुंबई जाना चाहता है क्योंकि सारे हीरो-हीरोइन उसी शहर में रहते हैं। बोला, 'मुंबई तो एक बार जाकर रहूंगा....स्स्साला वहां की ज़िंदगी ही कुछ और है।' फिर अचानक अपने शरीर को लेकर सचेत हो गया और सफाई देने लगा कि मैं कहीं ये न समझूं कि आज खाना नहीं खाया तो अपने शरीर के साथ वो रोज़ाना ऐसे ही जुल्म करता है। फिर भी मेरी नज़र में सहमति का भाव नहीं देखते हुए उसने कहा कि वो हर दूसरे दिन नॉन वेज खाता है और वो भी अपने पैसों से। अब चौंकने की बारी मेरी थी क्योंकि थोड़ी देर पहले उसने मुझसे कहा था कि वो कूड़ा बीनने का काम करता है और इससे रोज़ाना उसकी कमाई सौ रुपए तक की हो जाती है। ऐसे में वो दो वक़्त खाना और उसमें भी नियमित अंतराल पर नॉन वेज के साथ-साथ नशे की सामग्रियां और बाकी ज़रूरत की चीज़ें कैसे मैनेज करता है! 
इसके बाद जो उसने मुझे बताया वो सुनकर मैं सन्न रह गया। बिनलाल ने कहा, 'आगे जो आप पुल देख रहे हैं वहां से राइट लेने पर मार्केट है, जहां पर हम बीस रुपए में नॉनवेज थाली खाते है, दमभर।' मैंने क़ीमत पर हैरत जताई। तो बिनलाल ने भेद खोला। उस इलाके में जो मुर्गे-मुर्गियां मर जाते हैं उसी से यह 20 रुपए में दमभर वाली थाली तैयार होती है! लेकिन बिनलाल की ज़्यादा रुचि माछ-भात में रहती है। विकल्प रहने पर वो माछ-भात पर ही हाथ आजमाता है। 
चूंकि मैं स्टोरी प्रवासियों पर कर रहा था, तो बीच-बीच में अपनी ज़रूरत की चीज़ भी उससे पूछने की कोशिश करने लगा। मैंने उसके परिवार के बारे में पूछा और साथ में यह सवाल भी चिपका दिया कि वो घर कितने अंतराल पर जाता है। बिनलाल ने कहा कि तीन साल पहले एक बार गया था जब उसकी उम्र 15 साल थी। घर में मन नहीं लगता और घरवाले उसको प्यार नहीं करते। बिनलाल ने माना कि उसका दिल दिल्ली में इसलिए लगता है क्योंकि घर में बिनलाल के लिए जगह नहीं है। मैं कई बार स्टोरी में घुसता और फिर उस लाइन से बाहर निकल जाता। लड़के से मैंने कहा कि क्यों नहीं वह अपने शहर में मेहनत करता है, कम कमाई के बावजूद अपने समाज में रहने का उसे एहसास होगा। 

वो बोला कि घर जाना उसके लिए आसान नहीं है। थोड़ी चुप्पी के बाद बिनलाल ने मुझसे कहा, 'आपको एक बात मैं सच-सच बताऊं, मेरा घर कलकत्ता नहीं बांग्लादेश है। मेरा बाप मर गया तो मां ने दूसरी शादी कर ली और नया बाप मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं करता...इसलिए मैं ढाका नहीं जाऊंगा।' तो बिनलाल बांग्लादेश से आया है, मेरी दिलचस्पी थोड़ी और बढ़ी। मैंने पूछा कि क्या वहां पर विधवा महिलाओं की शादी इतना आम है...और चूंकि वह नाम से हिंदू साउंड कर रहा था इसलिए मेरे मन में ये भी बात आई कि हो सकता है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक होने के नाते इसके भारत आने की कोई और कहानी हो।  

लेकिन बांग्लादेश वाला राज खोलने के बाद बिनलाल थोड़ा रक्षात्मक हो गया और कहने लगा कि बांग्लादेश से कहीं ज़्यादा प्यार वो हिंदुस्तान को करता है और लगे हाथों इसे दर्शाने के लिए बिना किसी आग्रह के तीन-चार बार 'भारत माता की जय' और 'हिंदुस्तान ज़िंदाबाद' के नारे लगा दिए। उसने आगे मेरी जिज्ञासाओं को विराम देते हुए कहा कि वो हिंदू नहीं मुसलमान है। अगला सवाल मैंने दागा, 'फिर नाम तुम्हारा बिनलाल कैसे है?' उसने इतनी बातचीत के बाद भी अपने नाम के गफ़लत को देखते हुए ज़ोर से ठहाका लगाया, 'अरे भई बिनलाल नहीं बीलाल (बिलाल)।' 

अच्छा! तो कहानी ये है कि बिलाल 8 साल की उम्र में बांग्लादेश से भारत आ गया और फिर कलकत्ते के रास्ते दिल्ली। बिलाल ने बताया कि दिल्ली में सैंकड़ों की तादाद में उनके जैसे लोग हैं जो बांग्लादेशी हैं, मजबूर है, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे वाले हैं और अलग-अलग कारणों से अपने मुल्क़ नहीं लौटना चाहते हैं। सीमा पार करने में ज़्यादा दिक़्क़त अब तक नहीं आई...शायद अब बड़ा होने के बाद उसे परेशानी आए, लेकिन बिलाल मानता है कि अगर कभी बांग्लादेश जाने की उसने कोशिश की भी, और दोनों में से किसी देश की पुलिस या सेना ने उसे धड़ लिया तो जेल में समय गुजारना बहुत पीड़ादायक नहीं होगा! 

मैंने पूछा, 'अब शादी-वादी का इरादा है क्या?' बिलाल थोड़ा शर्माते हुए कहा, 'अरे भाई, नहीं..' फिर थोड़ी सांस लेकर अपनी बात में एक वाक्य और जोरा, 'लेकिन जब चाहूंगा शादी कर लूंगा...चांदनी चौक में मेरी ही तरह कई लड़कियां हैं..जो खुले में सोती है, कूड़ा बीनती है, उनमें से कोई सही बंदी ढूंढ़ लिया तो कर सकता हूं,.लेकिन दिक़्क़त ये है कि वो 'धंधा' करती है।' बिलाल को फिर भी, 'धंधे' से कोई ख़ास परेशानी नहीं है..बस मन मिलने की बात पर लाकर उसने मुझे छोड़ दिया। स्म्रुति और करमवीर ने सामने से आवाज़ मारी..मैं वहीं दस कदम दूर उन दोनों के पास पहुंचा और बमुश्किल तीन-चार मिनट में ही जब वापस लौटा, बिलाल के पास, तो वह कहीं ग़ायब हो गया था। लोगों की कतार में पता नहीं कहां दुबककर सो गया। हमने उसे ढूंढा-हेरा लेकिन वो नहीं दिखा। जाते-जाते जो उसने कहा था वो मेरी कानों में गूंज रहा था, "मां मेरी बहुत अच्छी है, नया बाप ही कमीना है। वो अगर मुझे प्यार करता तो मैं यहां दिल्ली के इस फुटपाथ पर नहीं होता भाई।'

13 सितंबर 2013

नियमगिरि: जीत की जंग

अभिषेक श्रीवास्‍तव  

भाग-2 daiuh dh Nkao esa

डोंगरियों की दुश्‍मन कंपनी वेदांता का लांजीगढ़ में मुख्‍य गेट 
जब 15 अगस्त को देश भर में मनाई जा रही आज़ादी की सालगिरह का जश्न भी राजुलगुड़ा की चुप्पी को नहीं तोड़ सका, तो हम चल दिए कंपनी की ओर लांजीगढ़। भवानीपटना हाइवे पर लांजीगढ़ नाम का कस्बा यहां से कोई 20 किलोमीटर दूर है। लांजीगढ़ कालाहांडी जिले में पड़ता है। स्कूलों में झंडारोहण का कार्यक्रम खत्म ही हुआ था और हाइवे पर दौड़ रही हर टाटा मैजिक और मोटरसाइकिलों पर भारत का तिरंगा लहरा रहा था। नीली सरकारी निकर में कुछ बच्चे थे, जो तुरंत स्कूल से निकले थे और जाने क्या सोचकर सड़क पर हर गाड़ी को देखते ही हवा में मुट्ठियां लहराकर ‘‘हमारा देश प्यारा है’’ का नारा दे रहे थे। लांजीगढ़ के आसपास का माहौल वहां की आबादी के विशेष देशभक्त होने का पता दे रहा था। हम वेदांता अलुमिनियम लिमिटेड के गेट नंबर दो पर एक पल को रुके, और फिर जहां तक बढ़े वहां तक सड़क के किनारे गड़े छोटे-छोटे खंबों पर वेदांता लिखा देखते रहे। एक विशाल कनवेयर बेल्ट से हमारा सामना हुआ। इसी से बॉक्साइट रिफाइनरी तक लाया जाना है। इस बेल्ट का दूसरा सिरा पहाड़ों के भीतर कहां तक गया है, बाहर से देखकर इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। लांजीगढ़ का बाज़ार बहुत छोटा है। इससे कुछ ही आगे लांजीगढ़ गांव पड़ता है जहां नियमगिरि सुरक्षा समिति के संयोजक कुमटी मांझी रहते हैं। वे घर पर अपने दो पोतों के साथ मिले।

नियमगिरि आंदोलन में कुमटी मांझी एक परिचित चेहरा हैं। आज से कुछ साल पहले जब इस आंदोलन में राजनीतिक संगठनों के साथ एनजीओ की समान भागीदारी थी, तब ऐक्शन एड नाम की संस्था मांझी समेत कुछ और आदिवासियों को लेकर लंदन गई थी। वहां नियमगिरि पर हुई एक बैठक में अचानक वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी आ गए थे, जिस पर कहते हैं कि इन लोगों ने काफी रोष जताया था। मांझी इस घटना का जिक्र करते ही उदास हो जाते हैं, ‘‘हम दो बार लंदन गए थे। एक बार 2003 में दो दिन के लिए और फिर 2004 में तीन दिन के लिए।’’ वे बताते हैं कि उन लोगों को वहां कहा गया था कि वे आंदोलन को छोड़ दें, विरोध करना छोड़ दें। वे कहते हैं, ‘‘उनके कहने से आंदोलन खत्म थोड़े हो जाएगा। अब तो सब ग्रामसभा ने वेदांता को खारिज कर दिया है, तो कंपनी को भागना ही पड़ेगा।’’अगर कंपनी नहीं भागी तो? ‘‘हम मार कर भगाएंगे’’, यह कहते ही वे हंस पड़ते हैं। क्या पूरा लांजीगढ़ गांव कंपनी के विरोध में है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि शुरू में जिन लोगों को कंपनी ने यहां पैसे देकर खरीद लिया था, वो सब बियर और मुर्गा खा पी कर पैसा उड़ा दिए हैं।  आज की तारीख में उन्हें कंपनी से पैसा मिलना बंद हो गया है और वे सब खाली हैं। ऐसे में उनकी मजबूरी है कि वे आंदोलन के साथ आएं।

यहां कस्बे में वेदांता का एक स्कूल भी चलता है। एक मुफ्त अस्पताल भी है। कुमटी मांझी के नाती-पोते पहले वेदांता के स्कूल में ही पढ़ते थे। उन्हें इसे लेकर कोई वैचारिक विरोध नहीं है, ‘‘पहले हम नाती-पोते को वहां पढ़ाते थे लेकिन उसका पैसा इतना ज्यादा है कि वहां से नाम कटवा दिए। अब वहां दलालों के बच्चे पढ़ते हैं।’’ कुमटी मांझी के दो बेटे हैं। एक यहीं खेती-बाड़ी के काम में लगा है और दूसरा बेटा राज्य सरकार की पुलिस में एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) है। वे सारी बातचीत में छोटे बेटे का जिक्र नहीं करते। बाद में हमने आंदोलन के ही एक नेता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुस्कराते हुए टका सा जवाब दिया, ‘‘ये अंदर की बात है।’’

बहरहाल, कालाहांडी में जिन गांवों में पल्लीसभा हुई थी, उनमें दो ऐसे गांव हैं जो सड़क मार्ग से सीधे जुड़े हैं। वहां तक चारपहिया गाड़ी पहुंच सकती है। ऐसे ही एक गांव फुलडोमेर में हम पहुंचे जो लांजीगढ़ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर होगा। इस गांव में वेदांता ने एक नल लगवाया है जिससे लगातार पानी बहता है। यहां कंपनी ने औरतों को पत्ते सिलने के लिए सिलाई मशीन दी थी और छतों पर सोलर पैनल लगवाया था। सिलाई मशीनों का आलम ये है कि गांव में घुसते ही आपको टूटी-फूटी अवस्था में ये मशीनें बिखरी दिख जाएंगी। कहीं-कहीं सोलर पैनल भी टूटे हुए पड़े थे। दिन के उजाले में जब सारे पुरुष काम पर गए होते हैं, इस गांव के घरों की छत पर गरीबी और पिछड़ेपन के निशान भैंस के सूखते मांस में देखे जा सकते हैं। कुछ औरतें हैं, जो घरों में महदूद किसी से बात नहीं करना चाहतीं। एकाध बच्चे हैं, जिनके निकर और शर्ट इस बात का पता देते हैं कि उन पर शहर का रंग चढ़ चुका है। लेकिन यही वह गांव है जिसने सातवीं पल्लीसभा में सबसे ज्यादा 49 वोटरों की मौजूदगी दर्ज कराई (कुल 65 वोटरों में से) और खम्बेसी गांव से यहां आ रहे आदिवासियों के एक समूह को रास्ते में आईआरबी के जवानों द्वारा रोके जाने पर अपना गुस्सा भी जताया था। पल्लीसभा के दिन वहां मौजूद ‘‘डाउन टु अर्थ’’ पत्रिका के संवाददाता सयांतन बेहरा लिखते हैं कि जैसे ही सभा के बीच यह खबर आई कि कुछ लोगों को जवानों ने यहां आने से रोक दिया है, करीब पचास डोंगरिया कोंध बीच में से ही उठकर निकल लिए। इंडियन रिजर्व बटालियन के एक जवान को कुल्हाड़ी दिखाते हुए एक आदिवासी ने कहा, ‘‘तुम्हारे पास बंदूक है तो मेरे पास टांगिया है।’’ प्रशासन ने मामले को गरमाता देख उस समूह को वहां आने दिया, लेकिन तब तक पल्लीसभा की कार्यवाही पूरी हो चुकी थी।

फुलडोमेर से करीब दो किलोमीटर नीचे उतरते ही एक और रास्ता घने जंगलों की ओर कटता है। यह रास्ता कम है, लीक ज्यादा है। झुरमुटों के अंत में एक साफ मैदानखुलता है जहां दो झोपड़ियां दिखती हैं। कहने को ये दो हैं, लेकिन परिवार सिर्फ एक। यह इजिरुपा गांव है, जहां से नियमगिरि का शिखर महज डेढ़ किलोमीटर दूर है। इस गांव में एक ही परिवार है। इस परिवार में चार लोग हैं। और इससे बड़ी विडम्बना क्या कहेंगे कि चार लोगों के इस इकलौते परिवार वाले गांव में भी वेदांता के प्रोजेक्ट पर राज्य सरकार ने पल्लीसभा रखी थी। जिंदगी में इससे पहले कभी भी परिवार के मुखिया अस्सी पार लाबण्या गौड़ा ने इतनी गाड़ियां, इतने पत्रकार, इतना पुलिस बल, सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बल नहीं देखे। फुलडोमेर के बाद आठवीं पल्लीसभा यहीं हुई थी और चार वोटरों वाले इस गांव ने कंपनी को खारिज कर दिया था। ध्यान देने वाली बात है कि यह गांव आदिवासी गांव नहीं है। गौड़ा यहां ओबीसी में आते हैं। जिन 12 गांवों को पल्लीसभा के लिए चुना गया था, उनमें यही इकलौता गैर-आदिवासी गांव था। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 2010 में राहुल गांधी आदिवासियों की लड़ाई का हरकारा बनकर जब नियमगिरि का दौरा करने आए थे तो वे इसी गैर-आदिवासी गांव में रुके थे और उन्होंने मशहूर बयान दिया था, ‘‘दिल्ली में आपकी लड़ाई मैं लड़ूंगा।’’ यहां राहुल गांधी के लिए एक अस्थायी शौचालय प्रशासन ने बनवाया था। एक ट्यूबवेल भी खोदा गया था जो अब मिट्टी से पट चुका है। इन कड़ियों को जोड़ना हो तो सबसे दिलचस्प तथ्य यह जानने को है कि गौड़ा का पोता आज लांजीगढ़ के आईटीआई में पढ़ाई कर रहा है ताकि विस्थापन के बाद शहर में आजीविका का एक ठौर तो बन सके। इन तथ्यों के जो भी अर्थ निकलें, लेकिन इजिरुपा ने तो कंपनी को ना कह ही दिया है।

सिर्फ एक परिवार वाले गांव इजिरुपा का ग्रामसभा के लिए चयन अपने आप में सरकारी भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन उदाहरण है। दरअसल, ग्रामसभा के लिए गांवों के चयन की प्रक्रिया में ही राज्य सरकार ने घपला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अप्रैल के अपने फैसले में कहा था कि नियमगिरि में खनन से पहले यहां के समस्त आदिवासियों से राय ली जाए कि कहीं वेदांता का यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिक, सामुदायिक, निजी अधिकारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा। नियमगिरि की गोद में ऐसे कुल 112 गांव हैं जिनकी राय ली जानी थी। आदिवासी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी इसी पक्ष में थे, लेकिन ओडिशा सरकार ने सिर्फ 12 गांव चुने। ये वे 12 गांव थे जिन्हें वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में जमा किए अपने हलफनामे में सीधे तौर पर प्रभावित बताया था। इन्हीं में इजिरुपा भी था, जहां राहुल गांधी आकर जा चुके थे। नियमगिरि सुरक्षा समिति के सदस्य और इस इलाके में मजबूत संगठन अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के भालचंद्र षड़ंगी कहते हैं, ‘‘प्रशासन और कंपनी को पूरी उम्मीद थी कि शुरुआती छह गांवों को तो वे ‘मैनिपुलेट’ कर ही लेंगे और उसके बाद जो मूवमेंट के असर वाले बाकी छह गांव होंगे उनमें भी ‘सेंटिमेंट’ का असर हो सकेगा। पासा उलटा पड़ गया।’’ नियमगिरि सुरक्षा समिति के लोकप्रिय नेता लिंगराज आज़ाद कहते हैं, ‘‘सरकार को यहां की ग्राउंड रियलिटी का पता ही नहीं है। यहां पैसा नहीं चलता है। आप आदिवासियों को खरीद नहीं सकते।’’ स्थानीय पत्रकार हालांकि इस ‘‘पासा पलटने’’ को कांग्रेस बनाम बीजेडी की राजनीति के रूप में देखते हैं।

डोंगरियों-झरनियोंकी दुनिया

हमें 16 अगस्त की सुबह‘‘ऊपर’’ जाना था और हमें भी अंगद ने यही बताया था कि वहां पैसा, मोबाइल, एटीएम, संपर्क, कुछ नहीं चलता। यह ‘‘ऊपर’’ उत्तराखंड या हिमाचल वाले ऊपर से गुणात्मक तौर पर भिन्न है। यहां इसका मतलब हैं डोंगर यानी पहाड़ के गांवों में जाना, जहां एक बार जाने के बाद आप तभी नीचे आते हैं जब आपको इरादतन नीचे आना होता है। हमें चूंकि 19 तारीख की आखिरी ग्रामसभा में शरीक होना था जो जरपा नाम के डोंगरियों के गांव में होनी थी, लिहाजा एक बार ऊपर जाकर 19 से पहले नीचे आने की कोई तुक नहीं बनती थी। इसका मतलब यह था कि हमें कम से कम तीन रातें और चार दिन डोंगरिया कोंध आदिवासियों के साथ उन्हीं के गांवों में बिताने थे। झारखंड-छत्तीसगढ़ आदि के पहाड़ों पर बसे गांवों में तो साप्ताहिक हाट बाज़ार भी लगने की परंपरा है, यहां हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐसी हिदायत के बाद हमने अपनी समझ से कुछ बिस्कुट, चाय की पत्ती, चीनी, नींबू और मैगी के पैकेट रख लिए। बटुए और मोबाइल को स्थायी रूप से अपने झोले में डाल दिया और तड़के निकल पड़े ‘‘ऊपर’’, जहां हमारा पहला पड़ाव था बातुड़ी गांव। राजुलगुड़ा से करीब दस किलोमीटर ऊपर की ओर बसे कुल 22 घरों के इस गांव में छठवीं पल्लीसभा हुई थी जहां के कुल 40 में से उपस्थित 31 वोटरों ने वेदांता की परियोजना को खारिज कर दिया था।

बातुड़ी डोंगरिया कोंध का गांव है, लेकिन यहां आबादी का पहनावा मिश्रित है। अपने पारंपरिक एक सूत के सफेद कपड़े में लिपटी आदिवासी औरतों के अलावा साड़ी पहनी और सिंदूर लगाए औरतें भी यहां दिख जाएंगी। नौजवान भी पारंपरिक पहनावे में कम ही दिखे। गांव में एक सोलर पैनल लगा है जिससे बिजली के दो खंबे चलते हैं। कुल 22 घर हैं और समूचे गांव में सिर्फ चार बुजुर्ग। यहां आकर आपको पहली बार और पहली ही नज़र में डोंगरिया आदिवासी गांवों की एक विशिष्टता पता चलती है। वो यह, कि यहां इंसानों से ज्यादा आबादी पालतू जानवरों की होती है। कुत्ता, बिल्ली, बकरी, सुअर, मुर्गा-मुर्गी, गाय, भैंस सब आबादी के बीच इस तरह घुलमिल कर रहते हैं कि शाम को जब पूरा गांव दो तरफ बने घरों के बीच की पगडंडी पर नुमाया होता है तो एकबारगी इनके बीच फर्क करना मुश्किल हो जाता है। बातुड़ी जिंदा प्राणियों का एक ऐसा जिंदा समाजवाद पेश करता है जिससे मनुष्यता के नाते एकबारगी जुगुप्सा होती है तो अगले ही पल आप खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं और इसका पता नहीं लगता। बारिश हो जाने पर हालांकि जुगुप्सा का भाव सारी उदारता पर भारी पड़ जाता है। उस शाम जम कर पानी बरसा था और हम एक बरसाती में खटिया डाले सकुचाती लड़कियों की तस्वीरें उतार रहे थे, कि अचानक किसी के मोबाइल से मैथिली गीत बजा। ‘‘यहां भी मोबाइल!’’ पहली प्रतिक्रिया यही थी। हमारे पीछे तीन नौजवान कैमरे की व्यूस्क्रीन में ताकझांक करते पाए गए। एक हिंदी बेहतर समझता था। वह मुस्करा दिया। उसका नाम मंटू मासू था। फिर उड़िया और कुई मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी में बातचीत का सिलसिला चल निकला।

इस गांव में पांच लड़के मुनिगुड़ा तक लकड़ी बेचने जाते हैं। जिस सखुआ की लकड़ी को शहरों में इमारतसाज़ी के लिए आदर्श माना जाता है, वह यहां इफरात में है। एक साइकिल लकड़ी के बदले इन्हें सिर्फ 200 रुपये मिलते हैं। एक साइकिल का मतलब साइकिल के त्रिकोणीय ढांचे में जितने भी लकड़ी के टुकड़े समा सकें, सब! रोज़ सुबह चार बजे मंटू अपने चार साथियों को लेकर यहां से 25 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा के बाजार तक साइकिल ढलकाता हुआ ले जाता है और दिन में 10 बजे तक लौट आता है। इन पांच में से तीन युवकों के पास मोबाइल हैं और इनका भी उपयोग मूल्य नीचे की ही तरह बदल चुका है। इस पर गाने सुने जाते हैं और वीडियो देखे जाते हैं। मनोरंजन की पूरी दुनिया 100 रुपये के चिप में आती है जिसका मतलब इन्हें समझ नहीं आता, लेकिन इस वीराने में शाम उसके भरोसे कट जाती है। एक घर में साउंड बॉक्स भी है। टीवी यहां नहीं है। मोबाइल सोलर पैनल से चार्ज होता है। ये नौजवान भी नियमगिरि के अलावा बहुत कुछ अपनी परंपरा के बारे में नहीं जानते हैं। कुछ विरोधाभासी बातें भी इनसे संवाद कर के समझ में आती हैं। मसलन, ये मुर्गे-मुर्गियों को तो बेचते नहीं क्योंकि साल में एक बार पड़ने वाले उत्सव में ही इनकी बलि चढ़ाने की परंपरा है, लेकिन इन्हें मुर्गों का दाम जरूर मालूम है। मंटू बताता है, ‘‘एक मुर्गा 500 रुपये के बराबर है।’’ यानी लकड़ी बेचकर मौद्रिक चेतना यहां पर्याप्त आ चुकी है।

रात में गांव की कुंवारी लड़कियां मिलकर हमारे लिए बड़े स्नेह से भात और बांस के मशरूम की सब्ज़ी पकाती हैं। साउंड बॉक्स वाले घर में हमारे सोने की व्यवस्था है। भोजन के काफी बाद तक हिंदी के गाने बजते रहते हैं। सवेरे उठने पर गांव पुरुषों से खाली मिलता है। धीरे-धीरे औरतें भी काम पर चली जाती हैं और हम निकल पड़ते हैं अपने दूसरे पड़ाव केसरपाड़ी गांव की ओर, जहां हुई दूसरी ग्रामसभा में कुल 36 वोटरों के बीच उपस्थित 33 ने वेदांता को खारिज कर दिया था। इन 33 में से 23 महिलाएं और 10 पुरुष थे। बातुड़ी से केसरपाड़ी का रास्ता बेहद खतरनाक है क्योंकि एक पहाड़ से नीचे उतर कर तकरीबन सीधी चढ़ाई पर दूसरे पहाड़़ के पार जाना होता है। यह दूरी छह किलोमीटर के आसपास है। अपेक्षाकृत साफ-सुथरे से दिखने वाले इस गांव में भरी दोपहर आबादी के नाम पर सिर्फ दो औरतें और एकाध बच्चे दिखते हैं। गांव से मुनिगुड़ा का एक सीधा रास्ता है जो 15 किलोमीटर दूर है। गांव की शुरुआत में नीले रंग का एक मकान है। इस पर ताला लगा है। अंगद बताते हैं कि यह एक ईसाई मिशनरी का मकान है जो यहां धर्म परिवर्तन के वास्ते काफी पहले आया था लेकिन अपनी पहल में नाकाम रहने के बाद गांव छोड़कर चला गया। अब इसमें मूवमेंट के लोग आकर रहते हैं। इस गांव में कुल 16 घर हैं।

आदिवासी इलाकों में मिशनरियों का काम नया नहीं है। खासकर ओड़िशा के इस इलाके में साठ के दशक में ही ऑस्ट्रेलियाई मिशनरियों का आगमन हो गया था। रायगढ़ा के करीब बिसमकटक में बाकायदे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी अब भी कार्यरत हैं। लांजीगढ़ रोड पर एक मिशनरी ने कुष्ठ आश्रम बना रखा है लेकिन उसका आसपास के इलाकों में खास असर नहीं है। हिंदू धर्म प्रचारकों का काम यहां न के बराबर है। अब तक हिंदू प्रतीक के रूप में हमें इकलौती चीज़ अगर कोई दिखी है तो वो है ‘‘जय हनुमान’’ खैनी, जिसे बिना चूके यहां के मर्द-औरत सब बड़े चाव से खाते हैं। सबकी लुंगी या लुगदी में खैनी का लाल पाउच खोंसा हुआ दिख जाएगा। शहर जाने वाले मर्द सबके लिए यह खैनी लेकर आते हैं। कुछ देर इस गांव में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित सिरकेपाड़ी गांव की ओर, जिसे 19 की ग्रामसभा के लिए हमारा बेस कैम्प होना था।

लगातार चालू इस सफर में अब तक अंगद की तबियत काफी बिगड़ चुकी थी। उसे लगातार हिचकियां आ रही थीं और वह जो कुछ खा रहा था, सब उलट दे रहा था। उसे ते़ज़ बुखार हो चला था। सिरकेपाड़ी पहुंचते ही उसने हिम्मत छोड़ दी। उसका शरीर टूट चुका था। यह लड़का पिछली ग्यारह ग्रामसभाओं में लगातार तैनात रहा था लेकिन आखिरी ग्रामसभा में जश्न मनाना इसकी सेहत को गवारा नहीं था। यह तय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्त को जो लोग शहर से आएंगे, उन्हीं की गाड़ी से लौटती में अंगद को भिजवा दिया जाएगा। दरअसल, 19 की ग्रामसभा जरपा में होनी थी जहां करीब सात किलोमीटर चलकर दुर्गम रास्तों से सिरकेपाड़ी से ही पहुंचा जा सकता था। सिरकेपाड़ी तक चारपहिया वाहनों के आने का रास्ता बना हुआ है, इसलिए पत्रकार से लेकर न्यायाधीश और सुरक्षाबल तक सबको इसी गांव से होकर गुजरना था। अंगद पर दवाओं का असर अब नहीं हो रहा था। तेज़ बारिश, कंपकंपाती हवाओं और अंगद की दहलाती हिचकियों के बीच खुले ओसारे में 17 अगस्त की रात यहां गुजारने के बाद हमें शहर से आने वाली पहली गाड़ी का बेसब्री से इंतज़ार था ताकि किसी तरह अंगद को रवाना किया जा सके।

‘‘एथिक्स’’ की एक रात

यह संयोग नहीं था कि अगले 12 घंटे में सारा जमावड़ा एक बार फिर सिरकेपाड़ी में ही होने जा रहा था। इस गांव में महीना भर पहले सबसे पहली पल्लीसभा हुई थी। अब तक 11 गांवों ने जो वेदांता को ना कहा था, उसकी शुरुआत यहीं से हुई थी। यह इकलौता गांव था जिसने अपनी भाषा कुई में ग्रामसभा आयोजित किए जाने का दबाव प्रशासन पर डाला था, जिसके बाद यह नज़ीर बन गया और अब तक की हर ग्रामसभा में कुई भाषा का एक अनुवादक मौजूद रहा था। लिहा़ज़ा, डोंगरियों का यह मोबाइलरहित गांव मूवमेंट के हर चेहरे को पहचानता था। ऐसे ही कुछ चेहरों का आगमन 18 की सुबह 11 बजे के आसपास यहां हुआ। एक जीप रुकी जिसमें से ढपली-नगाड़े और चावल-आलू व सब्जियां लिए हुए एक सांस्कृतिक टीम उतरी। इसमें अधिकतर किशोर उम्र की लड़कियां थीं, जिन्होंने आते-आते अनपेक्षित रूप से सबसे पहले हमारा पैर छुआ। अब तक हम हाथ मिलाते आ रहे थे, जिंदाबाद कहते आ रहे थे। बेशक, यह सांस्कृतिक टीम कुछ ज्यादा ‘‘विकसित’’ और ‘‘सभ्य’’ रही होगी। उनकी गाड़ी से वापसी में अंगद नीचे चला गया और हमने चैन की सांस ली। इसके बाद इस गांव में जो कुछ हुआ, वह इतिहास है।

दिल ढल चुका था, कार्यकर्ताओं की कई टीमें आ चुकी थीं, कि एक स्कॉर्पियो अचानक गांव के बाहर आकर रुकी। उसमें से एक कैमरामैन, एक असिस्टेंट और शर्ट-पैंट पहने एक आधुनिक दिखने वाली महिला उतरी। पता चला कि यह एनडीटीवी की टीम थी। यहां पहले से पहुंच चुके एआईकेएमएस के नेता भालचंद्र षड़ंगी से उस महिला ने हाथ मिलाया और पूछा, ‘‘आप लाल सलाम नहीं बोलते?’’ षड़ंगी ने सकुचाते हुए
जवाब दिया, ‘‘अपने साथियों के बीच बोलते हैं। आप तो बाहर की हैं...।’’ एक व्यंग्य भरी मुस्कराहट के साथ महिला ने हमारी तरफ इशारा करते हुए प्राथमिक विद्यालय के किसी मास्टर द्वारा उपस्थिति जांचने के अंदाज़ में उंगली उठाकर पूछा, ‘‘आर देयर एनीओज़? जर्नलिस्ट्स? ऐक्टिविस्ट्स?’’ हमारी ओर से जवाब नहीं आने पर उसने दोबारा वही सवाल किया। मैंने हाथ उठाकर जवाब दिया ‘‘जर्नलिस्ट्स’’, और ऐसा लगा कि वो संतुष्ट हो गई हो। वहां हम कुल पांच पत्रकार थे- मेरे अलावा एक मेरे हमनाम साथी और दूरदर्शन के दो पत्रकार, जो कुछ देर पहले ही पहुंचे थे। इसके अलावा हमारे साथ उड़िया पत्रिका ‘‘समदृष्टि’’ के एक पत्रकार तरुण भी थे। साथ में दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र सौरभ भी थाजो वहां की जनसुनवाइयों का दस्तावेजीकरण करने के लिए महीने भर से डेरा डाले हुए था। इन दोनों का परिचित एक संभ्रांत नौजवान पेरिस से वहां पहुंचा था, जिसका कहना था कि वह एफडीआई के खिलाफ भारत में चल रहे आंदोलनों पर शोध के सिलसिले में आया हुआ है।

एनडीटीवी के आने से गांव की रंगत बदल चुकी थी। पूरे गांव में अचानक अफरातफरी का माहौल बन गया था। ऐसा लग रहा था गोया कैमरामैन को कुछ अजूबे हाथ लग गए हों और वो एक के बाद एक झोपड़ियों के घुस-घुस कर शूट करते जा रहा था। उधर दिल्ली से आई रिपोर्टर, जिनका नाम आंचल वोहरा था, सांस्कृतिक टीम से बार-बार अनुरोध कर रही थीं कि उनके सामने एक बार आदिवासी नृत्य का प्रदर्शन किया जाए ताकि वे शूट कर सकें। कुछ देर पहले ही टीम ने अपना रिहर्सल पूरा किया था और वह बिल्कुल इसे दुहराने के मूड में नहीं थी। कैमरे की महिमा और कुछ नेताओं का ज़ोर था कि दोबारा इस रिहर्सल को पेश करने की सहमति बन गई। शाम धुंधला रही थी और झीनी-झीनी बारिश के साथ ठंडी हवा चलनी शुरू हो गई थी। किसी खाद्य इंस्पेक्टर कीतरह अंग्रेज़ी में पूरे गांव का मुआयना करने के बाद आंचल हमारी ओर आईं और सबसे औपचारिक परिचय हुआ। ‘‘वाइ डोंट वी हैव द बॉनफायर हियर?’’ और देखते ही देखते सिरकेपाड़ी गांव पिकनिक के लिए तैयार हो गया। अंधेरे में अलाव जला दिया गया और कैमरों के सामने सांस्कृतिक टीम ने एक बार फिर ढपली की ताल पर आग के इर्द-गिर्द नाचना शुरू कर दिया। कैमरों को यही चाहिए था, सो मिल गया। पूरा गांव सहमा सा इस मंज़र का गवाह बना हुआ था और रिपोर्टर एक के बाद एक पीस टु कैमरा दागे जा रही थी, ‘‘वी आर हियर इन सिरकेपाड़ी विलेज एंड टुनाइट इज़ दि रन अप टु द फाइनल मैच बींग हेल्ड टुमॉरो...।’’

इस रन अप मैच का छक्का अभी बाकी था। खाने का वक्त हुआ और सबको बुलाया गया। मैडम ने पूछा, ‘‘क्या हम इन गरीब लोगों का पीडीएस का चावल खाएंगे?’’ भालचंद्र जी ने मुस्करा कर हां में जवाब दिया। फिर आंचल ने कहा, ‘‘तब तो हमारे सिर पर इनका कर्ज चढ़ जाएगा।’’ ‘‘बेशक!’’, भालचंद्र ने कहा, ‘‘तो कर्ज उतार दीजिएगा इनके पक्ष में लिखकर।’’ छूटते ही मैडम ने जवाब दिया, ‘‘नो, नो... इनके पक्ष में लिखना तो अनएथिकल हो जाएगा।’’ मुझे असहता सी महसूस हुई, सो मैंने बीच में टोका, ‘‘अनएथिकल क्यों?’’‘‘मतलब, ये जो कहेंगे मैं तो उसे ही दिखाऊंगी’’, उन्होंने बात को संभाला। शायद उन्हें अब तक नहीं पता चला था कि वे जो कहेंगे, वह उनके समेत किसी की भी समझ में नहीं आने वालाक्योंकि उनकी भाषा अलग है।

आदिवासियों के पक्ष में खबर दिखाना एनडीटीवी के लिए ‘‘अनएथिकल’’ क्यों था, इसका आशय खंगालने की बहुत जरूरत नहीं पड़ी। अगले ही दिन यानी 19 अगस्त को जब आखिरी ग्रामसभा में हुई जीत का जश्न कुदरत मना रही थी और आदिवासियों के नियम राजा मुसल्सल बरसे जा रहे थे, दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित लीला होटल में एनडीटीवी के मालिक डॉ. प्रणय रॉय और वेदांता के मालिक अनिल अग्रवाल एक मंच से कन्या शिशु को बचाने के लिए एक साझा प्रचार अभियान का उद्घाटन कर रहे थे। ‘‘एनडीटीवी वेदांताः आवर गर्ल्स आवर प्राइड’’ नाम के इस अभियान का ब्रांड एम्बेसडर फिल्म अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को घोषित किया गया है और दोनों कंपनियों की यह भागीदारी वेदांता के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी कार्यक्रम ‘‘खुशी’’ का एक विस्तार है। बहरहाल, एनडीटीवी की रिपोर्टर ने इकलौता ‘‘एथिकल’’ काम यह किया कि अपने सिर पर आदिवासियों का कर्ज नहीं चढ़ने दिया। उन्होंने 18 की रात और 19 की सुबह दोनों वक्त गांव का बना खाना नहीं खाया। उनके पास मेरीगोल्ड बिस्कुट की पर्याप्त रसद जो थी।
चासी मुलिया के सबक

स्थानीय अखबारों पर नज़र दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि पिछले कुछ महीनों के दौरान अचानक कोरापुट जिले से चासी मुलिया आदिवासी संघ (किसानों, बंधुआ मजदूरों और आदिवासियों के संघ) के सदस्यों के सामूहिक आत्मसमर्पण संबंधी खबरों में काफी तेज़ी आई है। मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक जनवरी 2013 के बाद संघ के 1600 से ज्यादा सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया है। ये सभी कोरापुट जिले के नारायणपटना ब्लॉक के निवासी हैं। संघ के मुखिया नचिकालिंगा के सिर पर ईनाम है। उनके नाम के ‘‘मोस्ट वॉन्टेड’’ पोस्टर भुवनेश्वर में लगे हैं। पिछले साल 24 मार्च को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने कोरापुट के टोयापुट गांव से एक विधायक झिना हिकोका को अगवा कर लिया था और उनकी रिहाई के बदले चासी मुलिया के 25 सदस्यों को रिहा करने की मांग कर डाली थी। इसके बाद अचानक यह संदेश गया था कि चासी मुलिया को माओवादियों का समर्थन है। उसके बाद से आत्मसमर्पणों का सिलसिला शुरू हुआ, जिससे आम धारणा बनी कि यहां माओवादियों का आधार सरक रहा है। नियमगिरि आंदोलन के नेता इसी परिघटना के पीछे माओवादियों द्वारा ग्रामसभाओं के बहिष्कार के आह्वान का हवाला देते हैं, जो अपनी तात्कालिकता में भले सच हो लेकिन करीबी अतीत में चली प्रक्रिया से बेमेल है।

असल में चासी मुलिया आदिवासी संघ ओड़िशा में कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है, इसलिए इसके सदस्यों की गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण का मुद्दा चौंकाने वाला है। पुलिस मानती है कि चासी मुलिया माओवादी पार्टी का जनसंगठन है और माओवादी इसी के सहारे कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा जिले के कुछ हिस्सों में अपनी राजनीतिक गतिविधियों को आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि रायगढ़ा के सात गांवों में पल्लीसभा हुई है, इसलिए यहां सीआरपीएफ और पुलिस को भारी संख्या में उतारना सरकारी नज़रिये का ही स्वाभाविक परिणाम था। दूसरी ओर संघ के मुखिया नचिकालिंगा जो आजकल भूमिगत हैं, माओवादियों के साथ अपने रिश्ते की बात को खुले तौर पर नकारते हैं। पिछले साल ‘‘तहलका’’ को एक गुप्त स्थान से दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने यह कहा था। इस पृष्ठभूमि में यह पड़ताल करना आवश्यक हो जाता है कि क्या चासी मुलिया आदिवासी हितों के लिए काम करने वाला एक स्वतंत्र संगठन है या फिर इसके माओवादियों से वाकई कुछ रिश्ते हैं। इसी आलोक में हम जान पाएंगे कि चासी मुलिया के प्रति नियमगिरि आंदोलन के नेतृत्व का उभयपक्षी नजरिया नियमगिरि के भविष्य में कौन सी राजनीतिक इबारत लिख रहा है।

चासी मुलिया आदिवासी संघ का जन्म आंध्र प्रदेश के किसान संगठन राइतु कुली संगम (आरसीएस) से हुआ था जिसे माओवादी समर्थक नेताओं ने विजयानगरम में गठित किया था। आरसीएस की एक शाखा 1995 में ओड़िशा के कोरापुट जिले के बंधुगांव ब्लॉक में भास्कर राव ने शुरू की। शुरुआत में बंधुगांव और नारायणपटना ब्लॉक के किसानों और बंधुआ मजदूरों का इसे काफी समर्थन हासिल हुआ। भाकपा (माले-कानू सान्याल गुट) (यह खुद को भाकपा (माले) ही कहता है) के कुछ अहम नेता जैसे गणपत पात्रा आरसीएस के साथ काफी करीबी से जुड़े रहे हैं। आरसीएस-कोरापुट ने भाकपा(माले) के नेताओं के सहयोग से ही यहां जल, जंगल और जमीन का आंदोलन चलाया था। जब आंध्र प्रदेश में भाकपा(माओवादी) और उसके जनसंगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया था, उसके ठीक बाद 17 अगस्त, 2005 को आरसीएस को भी वहां प्रतिबंधित कर दिया गया। ओड़िशा में भी आरसीएस को ऐसे ही प्रतिबंध का अंदेशा था, सो उसने 2006 में अपना नाम बदल कर चासी मुलिया आदिवासी संघ रख लिया। संघ ने 2006 से 2008 के बीच खासकर नारायणपटना और बंधुगांव ब्लॉकों में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर गरीब आदिवासियों में बांटने का काफी काम किया, शराबबंदी के लिए रैलियां कीं और भ्रष्ट सरकारी अफसरों के खिलाफ अभियान चलाया। 2008 आते-आते संघ की नेता कांेडागिरि पैदम्मा को दरकिनार कर के बंधुगांव के अर्जुन केंद्रक्का और नारायणपटना के नचिकालिंगा ने संगठन की कमान संभाल ली, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि संगठन के भीतर अपने आप दो धड़े भी बन गए। अर्जुन केंद्रक्का बड़े जमींदारों से भूदान के पक्ष में थे जबकि नचिकालिंगा उनसे जमीनें छीनने में विश्वास रखते थे। इस तरह दोनों धड़ों के बीच मतभेद बढ़ते गए। इसकी परिणति इस रूप में हुई कि केंद्रक्का ने 2009 के चुनाव में खड़े होने का मन बना लिया और संसदीय लोकतंत्र. में अपनी आस्था जता दी। नचिकालिंगा ने इसका विरोध किया। माना जाता है कि इसकी दो वजहें रहीं। पहली यह कि नचिकालिंगा माओवादी विचारधारा से प्रभावित थे। दूसरी वजह यह थी कि वे खुद भाकपा(माले) के टिकट पर कोरापुट की लक्ष्मीपुर संसदीय सीट से लड़ना चाहते थे। हुआ यह कि अर्जुन केंद्रक्का को भाकपा(माले) से टिकट मिल गया, हालांकि वे बीजू जनता दल के झिना हिकोका से हार गए। इसके बाद चासी मुलिया के दो फाड़ हो गए। वरिष्ठ नेताओं और सलाहकारों ने भी अपना-अपना पक्ष तय कर लिया। मसलन, कोंडागिरि पैदम्मा ने अर्जुन धड़े को चुना तो भाकपा(माले) के पात्रा ने नचिकालिंगा के गुट में आस्था जताई।

यही वह समय था जब कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में माओवादियों का एक जत्था बाहर से आया और यहां की राजनीति में उसने पैठ बनानी शुरू की। 20 नवंबर, 2009 को नारायणपटना पुलिस थाने पर नचिकालिंगा ने सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के दमन के खिलाफ धावा बोला और गोलीबारी हुई जिसमें संघ के दो नेताओं की मौत हो गई, कई ज़ख्मी हुए और पुलिस ने 37 को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद से नचिकालिंगा भूमिगत हैं। इसी मौके का लाभ माओवादियों ने इस गुट में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में उठाया।एक सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज अनालिसिस (आईडीएसए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक माओवादियों ने नचिकालिंगा को अपने साये तले पुलिस से संरक्षण दे दिया और बदले में समूचे गुट को अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बात को लिंगराज प्रधान भी मानते हैं कि दक्षिणी ओड़िशा के इस इलाके में चासी मुलिया के नेतृत्व में चल रहे जमीन के आंदोलनों को माओवादियों ने ‘‘हाइजैक’’ कर लिया। नचिकालिंगा ने हमेशा माओवादियों के साथ अपने रिश्ते को नकारा है, लेकिन नियमगिरि आंदोलन के नेता इस बात की पुष्टि करते हैं। इसके अलावा, चुनाव हारकर सरकारी मशीनरी के विश्वासपात्र बन चुके अर्जुन केंद्रक्का की 9 अगस्त, 2010 को भाकपा(माओवादी) की श्रीकाकुलम इकाई द्वारा की गई हत्या भी इस बात को साबित करती है कि चासी मुलिया (नचिकालिंगा) में माओवादियों की पैठ बन चुकी थी। इस हत्या के बाद संघ की बंधुगांव इकाई निष्क्रिय हो गई और माओवादियों की मदद से नचिकालिंगा गुट ने वहां और नारायणपटना ब्लॉक में 6000 एकड़ ज़मीनें कब्जाईं।

इस साल चासी मुलिया से काडरों के बड़े पैमाने पर हो रहे आत्मसमर्पण एकबारगी यह संकेत देते हैं कि इस इलाके में माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ रही है, लेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि यह नचिकालिंगा गुट और भाकपा(माओवादी) की एक रणनीति भी हो सकती है। कुछ स्थानीय लोगों के मुताबिक नचिकालिंगा ने अगर संसदीय राजनीति की राह पकड़ ली, तब भी माओवादियों के अभियान पर यहां कोई खास असर नहीं पड़ने वाला क्योंकि उन्होंने मिनो हिकोका के रूप में चासी मुलिया संघ में नेतृत्व की दूसरी कतार पहले से तैयार की हुई है। इसके अलावा एक उभरता हुआ गुट सब्यसाची पंडा का है जिन्होंने पिछले दिनों भाकपा(माओवादी) को छोड़ कर उड़ीसा माओवादी पार्टी बना ली है। प्रधान इसे लेकर हालांकि चिंतित नहीं दिखते, ‘‘यह तो सरवाइवल के लिए बना समूह है। पंडा या तो सरेंडर कर देंगे या फिर एनकाउंटर में मारे जाएंगे। उनका इस इलाके की राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला।’’

इस पूरी कहानी में सबसे दिलचस्प बात यह है कि सारी लड़ाई आदिवासियों, किसानों और बंधुआ मजदूरों के हितों के लिए जमीन कब्जाने से शुरू हुई थी। विडंबना यह है कि नचिकालिंगा खुद एक बंधुआ मजदूर था जिसके मालिक के घर में आज सीमा सुरक्षा बल की चौकी बनी हुई है। यह लड़ाई महज चार साल के भीतर माओवादियों के कब्जे में चुकी है और मोटे तौर पर तीन जिलों कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में उनका असर पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। मजेदार यह है कि जमीन की बिल्कुल समान लड़ाई नियमगिरि की तलहटी वाले गांवों में चल रही है जहां माले का न्यू डेमोक्रेसी धड़ा और खुद लिबरेशन भी अलग-अलग इलाकों में सक्रिय हैं। लड़ाई का मुद्दा एक है और जमीन कब्जाने की रणनीति भी समान, लेकिन इलाके अलग-अलग हैं और ‘‘मोस्ट वांटेड’’ संगठन चासी मुलिया के प्रति माले के धड़ों का नजरिया भी अलग-अलग है। लिंगराज प्रधान इसे ‘‘पर्सनालिटी कल्ट’’ का संकट बताते हैं जहां नेतृत्व संगठन से बड़ा हो जाता है। इस जटिल इंकलाबी राजनीति के आलोक में नियमगिरि का आंदोलन, जो आज की तारीख में वैश्विक प्रचार हासिल कर चुका है, माओवाद से अछूता रह जाए (या रह गया हो) यह संभव नहीं दिखता। लिंगराज प्रधान इसे ‘‘रूल आउट’’ नहीं करते, ‘‘हमारे नेता आज़ाद के पास माओवादियों के फोन आते हैं। वे कहते हैं कि तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’’ फिर वे कहते हैं, ‘‘दरअसल, अभी तक नियमगिरि में प्रतिरोध का सिलसिला सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के सहारे और छिटपुट आंदोलनों के बल पर ही चलता रहा है जो गंदमारदन जैसी भीषण शक्ल नहीं ले सका है और अपेक्षाकृत सौम्य है, इसमें कामयाबी भी मिलती ही रही है, इसीलिए माओवादियों को यहां घुसने की स्पेस नहीं बन पा रही है। जनवादी राजनीति की यही कामयाबी है।’’

जहां बड़े आंदोलन होते हैं, वहां अफवाहें भी बड़ी होती हैं। कहते हैं कि नियमगिरि के कुछ डोंगरिया गांवों में राइफलें भी हैं। यह बात गलत हो या सही, इससे फर्क नहीं पड़ता। असल फर्क यह समझने से पड़ता है कि नियमगिरि की लड़ाई किसी कोने में अलग से नहीं लड़ी जा रही है। यह कोई पवित्र गाय नहीं है जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर ही बड़ी पूंजी के खिलाफ जीत हासिल की जा सके। सवाल यहां भी जल, जंगल और जमीन का ही है। विरोधाभास यहां भी लोकल बनाम ग्लोबल का है और अब तक तो कोई ऐसी नज़ीर इस देश में पेश नहीं हुई जहां न्यायिक सक्रियता के चलते बड़ी पूंजी की स्थायी वापसी संभव हुई हो।

नियम की तासीर

ऐसा नहीं कि आंदोलन के नेताओं लिंगराज आज़ाद या लोदो सिकाका को जन्नत की हकीकत नहीं मालूम। संजय काक की फिल्म में लोदो सिकाका की एक बाइट हैः ‘‘सरकार हमें माहबादी (माओवादी) कहती है। अगर हमारा नेता लिंगराजा माहबादी है, तो हम भी माहबादी हैं।’’ यह चेतना का उन्नत स्तर ही है जो दुनिया की दुर्लभ आदिवासी प्रजाति डोंगरिया कोंध के एक सदस्य से ऐसी बात कहलवा रहा है। संघर्षों से चेतना बढ़ेगी तो कल को माओवादी पोस्टरों के मायने भी समझमें आएंगे और मोबाइल पर बजता गीत-संगीत भी। अभी तो दोनों ही आकर्षण का विषय हैं और इनसे निकल रहा बदलाव नियमगिरि की फिज़ा में साफ दिख रहा है। लड़के दहेज ले रहे हैं, औरतें सिंदूर लगा रही हैं, बच्चियां अपने स्कूली शिक्षकों के कहने पर तीन नथ पहनना छोड़ रही हैं तो सभ्य दिखने के लिए आदिवासी बच्चे अपने लंबे बाल कटवा रहे हैं।इन छवियों के बीच मुझे अस्पताल में पड़े साथी और नियमगिरि के जंगलों में अपने मार्गदर्शक अंगद की कही एक बात फिर से याद रही है, ‘‘हम लोग सड़क और स्कूली शिक्षा का विरोध इसीलिए करते हैं क्योंकि उससे आंदोलन कमज़ोर होता है।’’ इससे दो कदम आगे उनके नेता आज़ाद की बात याद आती है जो उन्होंने अपने साक्षात्कार में कही थी, ‘‘विकास का मतलब अगर बाल कटवाना होता है तो पहले मनमोहन सिंह की चुटिया काटो।’’ सख्त वाम राजनीति के चश्मे से देखने पर ग्रामसभाओं में वेदांता की हार ऊपर-ऊपर भले ही ग़ालिब का खयाली फाहा जान पड़ती हो, लेकिन नियमगिरि की तासीर पर्याप्त गर्म है। यही डोंगरियों के नियम राजा का असली मर्म है।