28 अक्तूबर 2010

शोध की राजनीति और शासक की रणनीति

-दिलीप ख़ान
फ़्रांस में जिस दिन सेवानिवृत्ति की न्यूनतम उम्र बढाने के सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग सड़क पर उतरे, उससे दो-एक दिन पहले अमेरिका, इंग्लैंड और फ़्रांस सहित अन्य दस यूरोपीय देशों में हुए सर्वे के हवाले से एक शोध पत्र प्रस्तुत हुआ. इस शोध पत्र में बताया गया कि सेवानिवृत्ति के साथ ही लोग मानसिक तौर पर भी ’सेवानिवृत्त’ हो जाते हैं, इसलिए बुजुर्ग, यदि अपने मस्तिष्क को चलायमान रखना चाहते हैं तो उन्हें अधिक उम्र तक काम करना चाहिए. इस शोध रिपोर्ट को यूरोप, और अमेरिका के कई अख़बारों ने प्रमुखता से छापा. ऐसी रिपोर्टों को लेकर अब यह साफ़ होता जा रहा है कि ये राजसत्ता के फ़ैसले को या तो एक मज़बूत पृष्ठभूमि देती हैं या फ़िर उनके फ़ैसले को वैज्ञानिकता का लबादा पहनाती हैं. फ़्रांस के संदर्भ में निकोलस सरकोजी के फ़ैसले को यह अकादमिक और वैज्ञानिक शोध-प्रणाली के जरिए समर्थन दे रही है. सरकोजी सरकार ने सेवामुक्ति के लिए न्यूनतम उम्र को ६० से बढ़ाकर ६२ करने की योजना बनाई है. युवा-वर्ग इसे बेरोजगारी की दर को और बढाने वाला कदम मान विरोध कर रहा है. सरकार का तर्क है कि देश में सक्रिय कामकाजी लोगों के मुक़ाबले सेवानिवृत्तों की संख्या लगातार बढ रही है और इससे देश पर ॠण का भार बढता जा रहा है. १९४५ में जब इस नियम को अपनाया गया था तो उस समय चार कामकाजी लोगों पर एक सेवानिवृत्त का अनुपात था. अब यह घटकर चार के मुक़ाबले डेढ रह गया है. सरकार ने दूसरा तथ्य यह दिया है कि उस समय की तुलना में फ़्रांस का एक औसत नागरिक अब १५ साल अधिक जीता है. इसका मतलब यह हुआ कि फ़्रांस सरकार काम करने की क्षमता के लिए किसी ख़ास उम्र को पैमाना नहीं बना रही है बल्कि यह लोगों के मृत्यु से १० साल या २० साल पहले सेवानिवृत्त होने के दलील को सामने रख रही है. इसीलिए सरकार ने २०१७ तक सेवानिवृत्ति के लिए न्यूनतम उम्र को बढाकर ६७ करने की योजना भी सामने रखी है. इससे पहले एक वैज्ञानिक शोध इस आशय का भी हुआ था कि काम करने की क्षमता उम्र बढने के साथ-साथ घटती जाती है. अब इन दोनों शोध में से लोग किसे ठीक माने, यह एक सवाल है, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट होने लगा है कि शोध की भी अपनी एक राजनीति है.
यह राजनीति राज्य की बात को मज़बूती प्रदान करने की है और उसे ऐसी शक्ति प्रदान करने की है जिसके बदौलत सरकार इसके विरोध में उठने वाली आवाज़ को कमज़ोर करने के लिए कोई भी क़दम उठा सके. निकोलस सरकोजी ने मौजूदा प्रदर्शनों को लेकर इस आशय की बात कहीं कि लोकतंत्र में लोगों के पास अपने को अभिव्यक्त करने का पूरा हक़ है लेकिन वे अधिक उत्तेजित और अनियंत्रित नहीं हो सकते...... और यह प्रदर्शन कुछ संख्या में अराजक तत्त्वों के इसमें शामिल होने का नतीजा हैं, उनसे पार पा लिया जाएगा. एक ऐसे समय में, जब दुनिया भर में सत्ता के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों को लगातार सीमित किया जा रहा है और ज़्यादातर मौक़ों पर शासनतंत्र उन्हें अनसुना करने की हरसंभव कोशिश करता है, लोग अपने विरोध को एक ’लोकतांत्रिक देश’ में कैसे व्यक्त करे, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है. हर प्रदर्शन को अराजक या फ़िर ’दिक्कत पैदा करने वाले समूह’ के रूप में स्थापित करने की नियोजित कोशिश हो रही है. इनसे पार पाने के लिए राज्य के पास कई तरीके मौजूद हैं. एक तरीका तो इन प्रदर्शनों पर चुप्पी साध लेना है. ’कुछ नहीं’ करना है. लेकिन अगर प्रदर्शन का दबाव अधिक हो तो यह तरीका कारगर नहीं होता; ऐसे में पार पाने के अन्य तरीकों पर राज्य को विचार करना पड़ता है. पार पाने की प्रक्रिया में राज्य जब उत्तेजित और अनियंत्रित होता है तो वह इसे लोकतंत्र स्थापना के लिए किए गए प्रयास का हिस्सा मानता है. इसका मतलब यह हुआ कि राजसत्ता की मशीनरी की उत्तेजना और प्रदर्शनकारी समूह की उत्तेजना में और उनके अभिव्यक्ति में समानता नहीं है. समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे पर स्थापित हुए फ़्रांस के महान लोकतंत्र में लोकतंत्र की परिभाषा में आ रहे क्रमिक बदलाव का यह अगला चरण है. फ़्रांस में लोकतंत्र स्थिति को बहाल करने के लिए सरकोजी ने दूसरे रास्ते पर भरोसा जताया है. दरअसल पूरी दुनिया में लोकतंत्र अब बहाल करने की वस्तु में परिवर्तित हो गई है. भीतरी लोकतंत्र लगातार खोखला हुआ है. लोकतंत्र बहाली के क्रम में अपनी बातों को सफ़लता से लोगों के बीच ले जाने के लिए राज्य सर्वे, शोध जैसे तमाम हथकंडों का सहारा लेता है. नए तरीके को विकसित करने के लिए आजकल ’क्राइसिस मैनेजमेंट’ जैसे कोर्स को प्रोत्साहित किया जा रहा है. मीडिया अकादमिक में संकटकालीन जनसंपर्क पढ़ाया जा रहा है. यह इस उम्मीद में पढ़ाया जा रहा है कि ऐसे जनसंपर्क सीखने के बाद प्रशिक्षु संकटमोचक में परिवर्तित हो जाए और मुश्किल हालात में किसी सरकारी संस्थान या किसी कॉरपोरेट कंपनी का वह संकट हर लें.
संपर्क: दिलीप, प्रथम तल्ला, C/2 ,पीपल वाला मोहल्ला, बादली एक्सटेंशन, दिल्ली-४२, मो. - +91 9555045077
E-mail - dilipk.media@gmail.com

20 अक्तूबर 2010

गरीब की रपट मे गरीबी

चन्द्रिका
अमेरिका की सरकार को मेलघाट (महाराष्ट्र) के भूख से मर रहे बच्चोँ के बारे मेँ शायद जानकारी न हो और न ही अमेरिका की सरकारी संस्था नेशनल इंटेलीजेंस काउंसिल के बारे मेँ मेलघाट के लोगोँ को कोई जानकारी हो जहाँ देश मे भुखमरी के कारण रोज बडे पैमाने पर लोगोँ की मौत हो रही है और अधिकाँस बच्चे कुपोषण का शिकार हैँ. अमेरिका की इस संस्था ने अभी हाल मेँ “ग्लोबल गवर्नेंस 2025” नाम से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमे कहा गया है कि भारत दुनियाँ की तीसरी सबसे बडी ताकत है और दुनियाँ की 8 फीसदी ताकत केवल भारत के पास है, इस रिपोर्ट मेँ अमेरिका ने खुद को पहले स्थान पर रखा है और चीन को दूसरे स्थान पर रखा गया है. दुनिया के शक्तिशाली देश अपने शक्ति प्रदर्शन के लिये इस तरह की बौद्धिक कसरत लगातार करते हैँ और वर्चस्वशीलता की रिपोर्टे प्रस्तुत करते रहते है. इस तौर पर कुछ ऐसे आधार बनाकर वे अकादमिक व सरकारी सर्वेक्षण करवाते हैँ जिसमे वे खुद को अव्वल घोषित कर सकेँ और इन सर्वेक्षणोँ को लगातार प्रचारित किया जाता है. अपने शक्तिशाली जनमाध्यमोँ द्वारा दुनिया मेँ इन खबरोँ को पहुँचाना उनके लिये काफी आसान होता है. यही खबरेँ दुनियाँ के लोगोँ मे उस मानसिकता की निर्मिति और विकास करती हैँ जहाँ एक देश के प्रति अन्य देश के लोगोँ और साशको के लिये सबसे बडी ताकत का एहसास व भय लगातार बना रहता है. यह सांसकृतिक साम्राज्य को बनाये रखने का एक तरीका है, हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स से आगे का तरीका. दुनियाँ मेँ गरीबी, भुखमरी, जीवन स्तर, राष्ट्रीय शक्ति को लेकर पत्रिकाओँ व सँस्थाओँ के द्वारा प्रति वर्ष सैकडोँ रिपोर्टेँ प्रस्तुत की जाती हैँ. ये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दोनोँ तरह की होती हैँ पर आखिर इनके तथ्यात्मक आधार मे इतना अंतराल क्योँ होता है. 2005 से लेकर अब तक भारत मे गरीबी पर कई रिपोर्टे प्रस्तुत की गयी है. चर्चित अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट मे देश के गरीबो की तादात 78 प्रतिशत थी, तो सुरेश तेन्दुलकर की रिपोर्ट मे 37.2 प्रतिशत, एन.सी. सक्सेना ने गरीबी का जो आंकडा रखा वह 50 प्रतिशत था और विश्व बैंक ने भारत मे 42 प्रतिशत गरीबो को प्रस्तुत किया जो 26 अफ्रीकी देशो के गरीबो की संख्या से एक करोड ज्यादा था. निश्चित तौर पर ये अंतराल इसलिये आये क्योँकि गरीबी रेखा का जो मानक है सभी ने अलग-अलग रखा है. सरकार ने गरीबी जीवन रेखा का जो पैमाना 1970 मे तय किया था यदि उसके आधार पर कोई रिपोर्ट तैयार की जायेगी तो सेनगुप्ता के 78 प्रतिशत गरीब 30 प्रतिशत भी नहीँ बचेंगे परंतु मूल सवाल जीवन स्तर का है, उस वास्तविकता का जिसे देश को महाशक्ति के रूप मे प्रचारित करते हुए देश की सरकार छुपा लेती है. यू.एन.डी.पी. यूनाइटेड नेशंस डेवलप्मेंट प्रोग्राम ने 2009 मे दुनिया के 184 देशो की एक सूची प्रस्तुत की थी जिसमे यह देखा गया कि भारत के लोगो का जीवन स्तर लगातार गिरता जा रहा है जहाँ 2006 मे दुनिया के देशो मे 126वाँ था वही क्रमशः 2008 मे 128वाँ व 2009 मे 134वाँ हो गया है जो कि हमारे पडोसी और कमजोर कहे जाने वाले देश भूटान, नेपाल, श्रीलंका से भी कम है. हमारे देश मे बडी स्ंख्या है जो खाद्य पूर्ति के आभाव मे मर रही है ऐसे मे जीवन स्तर का घटना स्वाभाविक है. दरअसल लोगो के पास अपने जीवन स्तर ठीक रखने के लिये जिन आर्थिक आधारो की जरूरत है और ये आर्थिक आधार इन्हे रोजगार से मिल सकते है परंतु सरकार ऐसा कोई ठोस मसौदा अभी तक तैयार नही कर पा रही है जिससे बहुसंख्या के लिये जिन क्षेत्रो मे रोजगार उपलब्ध है उन्हे सहूलियत हो. बजाय इसके औद्योगिक क्षेत्रो के लाभ पहुंचाने वाले व रोजगार के अवसर कम करने वाले क्षेत्रो की तरफ ही ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. भारत का 58 फीसदी रोजगार कृषि से जुडा हुआ है और महज 8 फीसदी रोजगार प्रसाशन, आई.टी. क्षेत्र, चिकित्सा के क्षेत्रो से ऐसे मे कृषि के क्षेत्र मे सरकार की विमुखता देश मे जीवन स्तर के गिरावट का ही संकेत देती है. इसके बावजूद गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालो या फिर भूमिहीनो जो कि कृषि से सम्बद्ध नही है उनकी स्थिति को सुधारा जा सकता है यदि देश मे खाद्यानो की वितरण प्रणाली को ठीक कर दिया जाय पर न्यायपालिका के आदेश को लेकर अभी विधायिका व अन्य देश के प्रमुख नेताओ ने जिस तरह की टिप्पणि की उससे यही लगता है कि देश की सरकार शक्तिशाली होने का गौरव और देश मे भुखमरी दोनो को साथ मे रखना चाहती है. देश मे 550 टन से लेकर 600 टन के बीच खाद्यान का भण्डारण हो चुका है जिसमे 50 फीसदी हिस्सा दो साल पुराना है. जबकि सरकार के पास भंडारण क्षमता इसकी आधी है इसके बावजूद गरीबो को अनाज न वितरित करना यही सन्देश देता है कि सरकार विकास की एकमुखी तस्वीर से ही देश की तस्वीर बनाना चाहती है. निश्चित तौर पर देश मे गरीबी व गरीबो को लेकर जो रिपोर्ट राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय आधार पर प्रस्तुत की जाती है उसका सम्बन्ध यथार्थ की जमीन पर नही बल्कि एक ऐसे आधार के साथ किया जाता है जिससे निहित स्वार्थो का प्रचार किया जा सके.

17 अक्तूबर 2010

जिलों में नहीं, ज़ेहन में बस रहा माओवाद:

चन्द्रिका

जो आवाजें आ रही हैं पार्श्‍व से वे ’दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के रंगमंच पर खेले जा रहे नाटकों की हैं. उनकी धुने सरकार और कार्पोरेट के पूरे तंत्र ने मिलकर तैयार की हैं जिसमे भय का संगीत सुनायी पड़ता है और पूरा माओवादी आंदोलन महज एक खौफनाक आवाज बनकर हमारे कानों तक पहुंच रहा है. आतंकी गतिविधियों और आदोलनों के फर्क को मिटा दिया गया है. जबकि संसदीय लोकतंत्र के इस नाटक के खिलाफ हर बोलने वाला माओवादी है तो क्या हर चुप रहने वाला सरकारी? लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में ऐसा नहीं होना था पर यह हो रहा है क्या हमे लोकतंत्र की परिभाषायें फिर से नहीं तलासनी चाहिये एक ऐसी संरचना की तलास हमे कर ही लेनी चाहिये जिस पर आने वाली पीढ़ीयां जिंदा रह सके विभेद के साथ नहीं बल्कि समता-समानता के लोकतांत्रिक मूल्य के साथ. असली आज़ादी का फल चखने के लिये एक पौधा हमे रोप देना चाहिये. लिहाजा सवाल अब भी वहीं नहीं ठहरे हैं जहाँ सत्तर के दशक में नक्सलवाड़ी आंदोलन थे, वे आगे बढ़ चुके हैं. सरकारी आंकड़ों से कहीं भिन्न, माओवादी अब जिलों में नहीं लोगों के ज़ेहन में बसते हैं. मैंने प्रधानमंत्री को कई बार माओवादी होते देखा है तारीखें याद नहीं पर उनकी उक्तियों पर गौर करें जब उन्होंने विक्तोर ह्यूगो के एक कथन को उदारीकरण के संदर्भ में कहा था कि
कोई भी ताकत उस विचार को आने से नहीं रोक सकती जिसका वक्त आ गया हो. दरअसल, यदि इसी बात को आज माओवाद के संदर्भ में कहा जाय तो वे यकीन नहीं करेंगे क्योंकि राजनीति आस्था विहीन नहीं हो सकती मनमोहन सिंह का जितना यकीन संसदीय लोकतंत्र में है, आदिवासी व दमित समाज जो सशस्त्र संघर्ष कर रहे हैं उन्हें भी उतना ही यकीन है माओवाद में. शायद वे माओ से बेहतर रूप में परिचित न हो, शायद रूसी क्रांति के बारे में कोई पोथी उन्होंने न पढ़ी हो, मार्क्स उनके लिये एक दाढ़ी वाले बाबा की तरह हो सकते हैं और लेनिन महज फोटो में बना एक उद्दीप्यमान चेहरा जो पार्टी के वरिष्ट पदाधिकारियों द्वारा किसी अवसर पर शहर से जंगल में उन्हें मिल जाती हो, पर अपने हक की लड़ाई में वे इनके विचारों का ही विस्तार हैं. भले ही देश का नाम बदल गया हो पर विचार किसी देश के गुलाम नहीं होते परिस्थितियां उन्हें हवाओं में बिखेर देती हैं और उन लोगों की सांसों में बस जाते हैं जो जीने के लिये सांस लेने की जरूरत महसूस करते हैं और जिनके लिये वादियों में साजिस और जहर की घुटन भरी होती है. अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए वे संरचना को बदलने के ख्वाब बुनते हैं अखबार उनके लिये रोज-बरोज लिखे जाने वाले झूठ का दस्तावेज बन जाता है जिससे शहरों का मध्यम वर्ग अपने बच्चों की गंदगी साफ करता है. देश की सुरक्षा के लिये तैनात पुलिस उन्हें असुरक्षित बना देती है और फिर जमीन उनकी, लोग उनके, पर देश नाम की चिड़िया दिल्ली के सुवरबाड़े में बैठे सफेद पोश देश द्रोहीयों की होती है. बस देश के मायने थोड़ा उलट कर समझिये, देश का मतलब नक्शे में टंगी सीमा रेखा से नहीं वहाँ की जनता, वहाँ के लोंगों से आंकिये. सिलीगुड़ी का नक्सलवाड़ी गाँव, गाँव न रह कर एक विचार और एक आंदोलन बन गया और आज देश में उसी का विस्तार ही माओवादी आंदोलन की जमीन है. यह संसदीय लोकतंत्र के संरचना की कमजोर होती कार्यप्रणाली का परिणाम था.

तंत्र की विखण्डित संरचना

जिस देश में लोकतंत्र लागू हुए ६० साल बीत चुके हैं उसे अब तक लोकतांत्रिक हो जाना था या फिर लोकतांत्रिक होने के वे रास्ते दिखने ही थे जिस पर चलते हुए समता युक्त समाज का निर्माण किया जा सके. संसदीय लोकतंत्र के सामने आज यह बड़ा संकट है कि वह अपनी संरचना के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को कैसे स्थापित करे जबकि धर्मों का श्रेष्ठताबोध, रंगभेद, जातियाँ कम-ओ-बेस उसी रूप में मौजूद हैं. भारत जैसे देश में धर्म और जातियाँ संसदीय लोकतंत्र के पहिये के रूप में काम कर रही हैं. समय-समय पर समाज को चलाने के लिये जो तंत्र विकसित किये गये उस तंत्र की संरचना ने अपने अंतर्गत मूल्यों का विकास किया मसलन राजशाही ने राजाज्ञा को ही सबसे बड़ा मूल्य माना, लोकतंत्र के मूल्य समता, समानता और बंधुत्व के रूप में विकसित हुए पर पुरानी संरचनाओं (जाति, धर्म, विभेद) के न टूटने से ये महज़ सुंदर शब्द बनकर रह गये. क्या संविधान की पुस्तकों में धर्मनिरपेक्ष लिखने से कोई संरचना मुक्त हो सकती है जबकि इन विभेदों को समाप्त करने के लिये और लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिये संसदीय लोकतंत्र लागू होने के बाद किसी तरह की कोई सांस्कृतिक परियोजना नहीं चलायी जाय. उसका कोई स्वरूप सत्ता ने अभी तक निर्मित नहीं किया और ऐसा भी नहीं कि उनके निर्मिति का विचार पीछे छूट गया बल्कि यह तंत्र के एजेंडे मे ही शामिल नहीं है. जनचेतना में जो विभेद स्थापित थे, रचे बसे हुए थे यह तंत्र उसी में जोड़तोड़ करते हुए उनका ही इश्तेमाल करता रहा लिहाजा यह उन्हें बचाने के लिये प्रतिबद्ध और जिम्मेदार भी हुआ. इस स्थिति को माओवादीयों ने बेहतर तौर पर समझा और आज वे जिन क्षेत्रों में जिस ढांचागत स्वरूप के साथ काम कर रहे हैं सास्कृतिक रूप से इन विभेदों के खिलाफ संघर्ष भी साथ में चला रहे हैं.

संसदीय लोकतंत्र को अपनाने वाले किसी भी देश में यह बात अहमियत रखती है कि वह किन प्रक्रियाओं के तहत स्थापित हुआ है. एक तंत्र से दूसरे तंत्र की स्थापना के बीच किस तरह के संघर्ष रहे हैं. भारत में संसदीय लोकतंत्र एक आयातित तंत्र के रूप में रहा है जो व्यापक जन संघर्षों से नहीं बल्कि सत्तासीन वर्ग के हितों के टकराव से पैदा हुआ. अतः सामंती मूल्यों और लोकतंत्र की संरचना के साथ आये मूल्यों (जो कि व्यापारी वर्ग के हित में थे) के मिश्रण के रूप में यह भारतीय समाज में स्थापित हुआ. जिस मिश्रण को भारतीय लोकतंत्र अभी तक ढो रहा है. पिछड़े मूल्यों का बोध लोगों के भीतर इस तौर पर जुड़ा हुआ है कि संरचना के संस्थान लोकतांत्रिक कार्यपद्धति नहीं अपना सकते. संसद से लेकर न्यायपालिका तक जो लोग कार्यरत है, जब वे इस धर्म, जाति के आधार पर विभेदीकृत समाज से संस्थान में जाते हैं तो वह क्या है जो उन्हें उनकी कुर्सीयों पर निरपेक्ष बना देगा. शायद निरपेक्षता तंत्र का सबसे बड़ा और कोरा झूठ है जो संविधान की मोटी पुस्तक में दर्ज कर दिया गया और पूरा तंत्र सापेक्षता के साथ कार्य करता रहा. किसी भी तरह के बोध का निर्माण सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर होता है लिहाजा जातीय बोध और धर्म बोध से तबतक छुटकारा नहीं पाया जा सकता जबतक जाति और धर्म विहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया न अपनायी जाय, उसके लिये सांस्कृतिक तौर पर लोगों के चेतना का विकास न किया जाय. इसके लिये कोई ठोस कार्य नीति नहीं अपनायी गयी. यह पिछड़े मूल्यों से ग्रस्त समाज में ऐसी किसी भी पार्टी से संभव नहीं था जो संसद तक पहुंचना या उसमे बने रहना चाहती थी क्योंकि यह रूढिगत समाज के भावनाओं के खिलाफ था, भले ही वह अलोकतांत्रिक था और वोट की राजनीति इन्हीं भावनाओं के आधार पर होनी थी. यह समाज में व्यक्तियों के मूल्यों के साथ का संघर्ष था जिसे उनके भविष्य हितों और समाज की बेहतरी के लिये किया जाना था, जिन्हें लोकतंत्र के उन मूल्यों के लिये किया जाना था जो २३० वर्ष पूर्व फ्रांसीसी क्रांति का नारा बन दुनिया में जगह बना रहे थे. एक हद तक वामपंथी पार्टियों ने यह कार्य करने का प्रयास किया भी जो बाद में संसद तक पहुंची. अंततः माओवादियों ने ही इस संघर्ष को चलाया भले ही वह सीमित क्षेत्रों में रहा हो.

वह एक तारीख थी १९४७ की, महज एक तारीख जिसे आज़ादी दिवस के रूप में घोषित किया गया और यहीं से शुरू होनी थी देश के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया. अपने शुरुआती वर्षों से ही यह प्रक्रिया टूटने लगी जब उत्तर-पूर्व में राष्ट्रीयता की आवाज मुखर होनी शुरू हुई. १९५८ में ही मणिपुर में आफ्सपा लगा दिया गया और समय के साथ इसके क्षेत्र का विस्तार होता गया यानि लोकतांत्रीकरण के बजाय कानूनी व संरचना के स्तर पर अलोकतांत्रीकरण की यह पहली प्रक्रिया थी जहाँ देश के भीतर एक ऐसे अलोकतांत्रिक कानून की जरूरत पड़ गयी कि संदेह के आधार पर सरकार ने अपनी ही जनता पर गोली चलाने का अधिकार सेना को दे दिया, जो बाद के वर्षों में और भी कठोर हुआ और आज इनकी स्थितियाँ हमारे सामने है राष्ट्रीयता की वह आवाज और भी बृहद व मुखर हुई संगठनों ने अपने दायरे व संख्या दोनों में बृद्धि कर ली और वह एक से बढ़कर तीस से ऊपर हो चुके हैं.

जब देश का मतलब उत्तर प्रदेश व बिहार हो जाय या हिन्दी भाषी राज्य ही देश देश के निर्माण व उजाड़ की प्रक्रिया को तय करने लगें तो यह एक ऐसे राष्ट्र के लिये मुश्किल होता है जहाँ भाषा, संस्कृति व कई राष्ट्रीयताओं की मौजूदगी हों. जहाँ हिन्दी प्रदेश के प्रतिनिधियों द्वारा बनायी गयी योजनायें और कानूनों को उन सबको ढोना पड़े, और अन्य उपेक्षाओं के साथ उत्तर-पूर्व सिर्फ सहयोग करे. यह ढोना उत्तर-पूर्व का सत्ता धारी वर्ग तो कर सकता था और उसने अभी तक किया भी पर वहाँ के लोग इसके लिये तैयार नहीं थे उन्होंने विकल्प के रूप में अलग राष्ट्रीयता की मांग शुरु की जो कि आज़ादी की पूर्व स्थितियों में अलग राष्ट्र के रूप में था भी. यह सांस्कृतिक, व देश के नक्शे में स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर उठनी शुरु हुई जो संवेग के साथ अभी जारी है.

नर्मदा बचाओ आंदोलन से लेकर इरोम शर्मीला के लम्बे आमरण अनशन के परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि संसदीय लोकतंत्र में गांधी का रास्ता चुक गया है. उसके असर फिल्मी पर्दों पर तो दिख सकते हैं पर वास्तविक जिंदगी में नहीं, भारतीय सत्ता फिल्मी दुनिया का अभिनय नहीं कर रही है बल्कि वह एक तंत्र है और तंत्र की एक विचारधारा भी होती है. यदि इरोम शर्मीला का रास्ता कारगर साबित होता तो शायद मणिपुर में माओवादी अपना हस्तक्षेप न कर पाते जो कि उन्होंने सशस्त्र संगठन पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के साथ मिलकर किया और आज मणिपुर में उनकी स्थिति मजबूत हुई है.

देश के जो अन्य हिस्से थे उनकी अलग समस्यायें थी वे देश के नक्शे में ऐसी जगह पर स्थित थे जहाँ उनके लिये अलग राष्ट्र की मांग करना मुश्किल था पर सवाल अलग राष्ट्र का था भी नहीं सवाल था व्यवस्था के लोकतांत्रीकरण का जो व्यक्ति को व्यापक आज़ादी समता-समानता के साथ दे सके. इस व्यवस्था में एक बड़ा वर्ग था जो वंचना का शिकार होने वाला था इस बात का आंकलन वामपंथी ताकतों ने किया और वे ही कर सकते थे क्योंकि संरचना का एक विकल्प उनके पास मौजूद था जिसे देश के मुताबिक ढालना था. आज़ादी के बीस वर्षों बाद जिसकी शुरुआत ही हुई, और सिलीगुड़ी के एक गाँव की घटना लोगों के जेहन में विकल्प के विचार की तरह आ गयी तमाम खामियों के बावजूद माओवादी आज उसी का एक विस्तृत रूप हैं.

भारतीय राजनीति में मायावती, लालू या अन्य दलित नेताओं का आना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अलोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर हुआ जहाँ दमित जातीयों की बहुसंख्या ने जातीय आधार पर एकजुटता बनायी पर इसने जातीय विभेद को और बढ़ाया ही है पुराने समाजों के जातीय बटवारे का यह महज एक समीकरण था जो बाद में और भी विद्रूप हुआ जब ब्रहमणवादी शक्तियों के साथ इनके गठजोड़ हुए. माओवादियों के साथ दलित और आदिवासियों का आना उस रूप में नहीं रहा कि पंडित संख बजायेगा, हांथी सूढ़ उठायेगा बल्कि उनके साथ दलित व आदिवासियों के आने का आधार वर्गीय और लोकतांत्रिक था जिसमे जमीन उसकी जो जोते का स्वर था. यह जातीय आधार पर गोलबंदी नहीं बल्कि वर्गीय आधार पर दमित अस्मिताओं को खड़ा करना था. दलित और आदिवासियों की आबादी भूमिहीनों की आबादी थी जो निःसंदेह उनके वर्ग मित्र बने. बिहार जैसे राज्यों में यह लड़ाई इसी आधार पर एक हद तक जातीय रूप में दिखायी पड़ी जहाँ भुमिहारों के पास जमीनों का बड़ा हिस्सा था उसके बटवारे के लिये जब दलित वर्ग खड़ा हुआ तो भुमिहारों ने इसे जातीय रुख में बदलने का प्रयास रणवीर सेनायें बनाकर की. पर यह एक वर्गीय लड़ाई के रूप में ही रही. यह दमित वर्ग के द्वारा लड़ा जाने वाला एक भूमिसुधार आंदोलन भी रहा, जो संसदीय राजनीति (पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को एक हद तक छोड़ दिया जाय तो) करने में असफल रही और माओवादीयों ने अपनी लड़ाई का आधार ही यही बनाया जिसमे उन्होंने पन्द्रह सालों में ही अपनी सीमित शक्ति के बल पर ३ लाख एकड़ से ज्यादा जंगल की जमीनों को भूमिहीनों में बांटा. यह सशत्र संघर्ष के बगैर संभव नहीं था. आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों के तेंदू पत्तों के मूल्य दर में ३३ गुने से ज्यादा बृद्धि करवायी. यह संसद जाने का रास्ता नहीं था बल्कि आदिवासी और दलितों के रोजमर्रा के जीवन और श्रम के शोषण से जुड़ा मसला था जिसे किसी संसदीय पार्टी ने नहीं उठाया.

सोनिया गांधी ने जिस ग्राम अदालत के लिये १४०० करोण रूपये देने की घोषणा की है ताकि देश की अदालतों में लम्बित पड़े २.५ करोड़ मामले निपटाये जा सकें उसके स्वरूप और कार्यपद्धति को माओवादी अपने शुरुआती दिनों से ही वहाँ लागू कर रहे हैं जिन क्षेत्रों में उनकी सक्रिय उपस्थिति रही है, पर फर्क यह है कि सोनिया गांधी इन हजारो करोड़ रूपयों का उपयोग मामले को निपटाने के लिये कर रही हैं और माओवादी इसे अपने कार्यपद्धति और क्षेत्र का एक हिस्सा मानते रहे हैं. इस रूप में देखा जाय तो कई ऐसे कार्य हैं जिन्हें संरचना के लोकतांत्रीकरण के लिये सरकार को करना चाहिये था पर उसने नहीं किया और शायद माओवादीयों से सीख लेकर अब सरकार उनमे से कुछ योजनायों के पीछे घिसटने को तैयार भी है, पर जनविरोधी नौकरशाही के ढांचे का उसके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है. जातीय उत्पीड़न से लेकर महिला उत्पीड़न जैसी कई प्रवृत्तियाँ ऐसी रही हैं जो उन क्षेत्रों में कम हुई जहाँ माओवादियों का हस्तक्षेप बढ़ा. आज सरकार का जो भय है निश्चित तौर पर वह हथियार बंद लड़ाकूओं से नहीं है बल्कि उस संरचना के भ्रूण से है जो जन संघर्षों के साथ निर्मित हो रहा है.

माओवादी और आदिवासी

जब भी यह कहा जाता है कि आदिवासी मारे जा रहे हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता व अन्य सामाजिक संगठनों के लोगों की आवाजें सरकार के खिलाफ निश्चित तौर पर बुलंद हो जाती है और आम जनमानस की भी यही धारणा बन चुकी है पर माओवादियों का मारा जाना सहज है, मीडिया के लिये भी, मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिये भी और उन लोगों के लिये भी जो इन जंगलों से दूर हैं यानि हम सबके लिये. दरअसल इस पूरी प्रक्रिया में माओवादी अछूत की तरह हैं. बीते जमाने के वे अछूत जिन पर किसी तरह की प्रताड़ना, प्रताड़ना के दायरे से बाहर थी. जवानों का मारा जाना दुखद है, आदिवासियों का मारा जाना भी दुखद है पर अगर आदिवासी ही माओवादी हों तो, जो कि है भी आदिवासियों का सशस्त्रीकरण व राजनीतिकरण ही उनका माओवादी होना है, पर माओवादियों पर जब भी बात होती है तो वह इस रूप में कि वे देश के भूभाग से कहीं बाहर की कोई प्रजाति हैं, जबकि ग्रीनहंट में मारे गये व पिछले कुछ वर्षों में चलाये गये तमाम अभियानों में जिन माओवादियों को निशाना बनाया गया है उनमे अधिकांस आदिवासी ही हैं. तो क्या अन्ततः आदिवासियों का ही कत्लेआम हो रहा है? यह एक कठिन सवाल है जिसके उत्तर एक घटना को केन्द्र में रखकर नहीं तलाशे जा सकते बल्कि पिछले ६० वर्षों के इतिहास का पन्ना हमे पलटना ही पड़ेगा यदि इतना पीछे न भी जायें तो १९९० के बाद जो आर्थिक सुधार हुए उन सुधारों की खामियां हमे जरूर पहचानना पड़ेगा. अब सवाल आदिवासियों के मारे जाने का नहीं, माओवादियों के मारे जाने का नहीं बल्कि आदिवासियों के माओवादी बनने की प्रक्रिया का है. क्योंकि माओवादियों का मारा जाना उन आदिवासियों का मारा जाना है जिन्होंने शस्त्र उठा लिये हैं, जिन्होंने अपने क्षेत्र में अपनी सरकारें बना ली हैं, भारत सरकार से अलग, जिन्हें उन लाखों आदिवासियों का समर्थन प्राप्त है जो जंगलों में रहते है और मूलभूत सुविधाओं से वंचित रह गये हैं. यह अलग सरकार का चुनाव, अलग संरचना का निर्माण, ठीक वैसा ही है जैसा कि हम संसद को चुनते हैं, जैसा हमारे सांसदों को हमारा समर्थन प्राप्त है, दोनों की प्रणालियां कार्य करने के तरीके में फर्क हो सकता है पर शायद इसमे कोई फर्क नहीं दिखता कि सरकार वही चला रहा है जिसका जनता समर्थन कर रही है, दन्डकारण्य में भी और दिल्ली में भी बावजूद इसके कि सरकार चलाने के तौर तरीके अलग-अलग हैं, मसलन पानी पीने के लिये वे तालाब खोदते हैं, कुंए खोदते हैं, तो हमारी सरकार एक और बोतलबंद पानी की कम्पनी खोल देती है.

ऐसे में समस्या एक सम्प्रभु राष्ट्र में दो समानांतर सरकारों के होने का है, जो एक दूसरे को अमान्य घोषित कर रही हैं और शायद संघर्ष भी इसी बात का है. यह राज्य के वैद्यता की लड़ाई बन गयी है वहाँ के आदिवासी भारत सरकार को वैद्य मानने से इनकार कर रहे हैं और भारत सरकार उनके द्वारा बनाई जनताना सरकार को और खतरा इसी बात का है जिसे सरकार सबसे बड़ा मान रही है कि यदि यही भ्रूण अलग-अलग हिस्सों में निर्मित होता गया, लोग सरकार से असंतुष्ट हो अपनी सरकारें बनाते गये, अपनी संरचना बनाते गये तो यह भारत राष्ट्र और संसदीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिये खतरा होगा. संसदीय लोकतंत्र के लिये माओवादियों के शस्त्र उठाने से ज्यादा खतरा उस संरचना से है जो वे निर्मित करते जा रहे हैं या जिसे उन्होंने मुक्त क्षेत्र में निर्मित कर रखा है.

१९८० से लेकर अब तक भारत सरकार द्वारा अलग-अलग तरीके से कई प्रयास किये जा चुके हैं, विकास की योजनायें चलाकर, सैन्य अभियान चलाकर, शांति अभियान सलवा-जुडुम के जरिये और अब ग्रीन हंट आपरेशन. ये अभियान एक तरफ तो विफल हुए हैं, दूसरी तरफ आदिवासी और भी सशस्त्रीकृत हुए हैं. भारतीय सेना जितने विकसित तकनीक के शस्त्रों का प्रयोग करती है उनसे छीनकर ये भी अपने को समृद्ध बनाते गये हैं. आखिर इन अभियानों की विफलताओं के क्या कारण रहे हैं, क्या नये अभियान चलाने से पूर्व, इन विफल अभियानों का ठीक-ठीक मूल्यांकन किया गया, शायद नहीं यदि किया गया होता तो आदिवासियों का सशस्त्रीकरण और न बढ़ता जो सलवा जुड़ुम जैसे बर्बर अभियानों के बाद और भी बढ़ा. इन कार्यवाहियों ने आदिवासियों को और भी असुरक्षित बनाया व सुरक्षित होने के लिये और भी ज्यादा शस्त्रीकृत होने पर मजबूर किया. उन पर की गयी क्रूरताओं ने उनमे और भी ज्यादा असंतोष पैदा किये, अपने ऊपर हुए जुल्मों से वे और भी उग्र हुए. इसी उग्रता को सरकार ने उग्रवादी करार दिया. क्या उनका उग्र होना नाजायज था, जबकि उन्होंने किसी माओवादी को खाना खिलाया हो, रास्ता बताया हो, इसके लिये उन्हें पीटा जाय और उनके घर जलाये जाय. यही वे कार्यपद्धतियाँ रही हैं जिन्होंने आदिवासियों के मन में सरकार के प्रति असंतोष पैदा किये और माओवादियों से उनकी निकटता बनती गयी. क्योंकि माओवादी उनके जीन की मूलभूत चीजों, रोजगार और तेंदू पत्ता की कीमतों, उनके खेती की जमीनों व अन्य संसाधनों को मुहैया कराने व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये एक संरचना, संघर्ष के साथ विकसित करते गये. उनके लिये एक अलग ढांचा विकसित किया जो सरकार के ढांचे से अलग जंगल की परिस्थितियों के अनुकूल था. न्यायिक व्यवस्था, सुरक्षा समिति, कृषक समिति आदि. इस ढांचे ने आदिवासियों में माओवादियों के प्रति विश्वास पैदा किया, माओवादी और आदिवासी पानी में मछली इसी तरह हुए, जिसे वे स्वीकार करते हैं. जिसमे सरकार विफल रही क्योंकि सरकार जिस तरह का विकास चाहती थी उसके पैमाने अलग थे और आदिवासियों को उनकी परिस्थिति के मुताबिक अस्वीकर थे. टाटा और एस्सार के लिये लाखों आदिवासियों को अपने घर से विस्थापित होना अस्वीकार था और सरकार विकास के नाम पर यही कर रही थी. आदिवासी समाज का विकास निश्चित तौर पर इन कम्पनियों की स्थापना से नहीं होना है, बल्कि यह उनके शोषण की एक और कुंजी ही बनेगी, उनके जिंदगी में और भी खलल बढ़ेगा. वर्षों पूर्व की उनकी संस्कृति को यह नष्टित ही करेगी और इन सबके लिये आदिवासी समाज तैयार नहीं है.

आदिवासियों का विश्वास जीतने के बजाय उन पर क्रूर कार्यवाहियां की जा रही हैं, जिस दिन दांतेवाड़ा में ७६ जवानों को मारा गया उसके एक दिन पहले ही दांतेवाड़ा के अंतर्गत स्थित तोंगपाल थाना के सिदुरवाड़ा गांव में २६ आदिवासी महिलाओं को जगदल पुर से आये कोबरा बटालियन के २०० जवानों द्वारा पीटा गया, जिसमे महिलाओं के हाथ तक टूट गये, जबकि इन महिलाओं का दोष यह था कि जब कुछ ग्रामीड़ों को नक्सली समर्थक बताकर जवान ले जाने लगे तो इसका इन महिलाओं ने विरोध किया.क्या इन कार्यप्रणालियों से सरकार आदिवासियों में विश्वास पैदा कर सकती है, दमित बनाकर वह उन पर शासन जरूर कर सकती है पर यह गैरलोकतांत्रिक संरचन का ही हिस्सा होगा बल्कि यह आदिवासियों को सरकार के खिलाफ ही खड़ा करेगा. वहीं दूसरी तरफ माओवादी आदिवासियों में इस विश्वास को इस हद तक अर्जित किये कि उन्होंने जिस मुक्त क्षेत्र का निर्माण किया उसकी सुरक्षा के लिये आदिवासी शस्त्र लेकर अवैतनिक कार्य करने लगे जैसे यह उनके अपने राज्य उनके अपने जमीन व जमीन की रक्षा का मसला हो निश्चित तौर पर यह एक सामुदायिक चेतना के तहत ही संभव था भारत सरकार रक्षा बजट पर सार्वाधिक खर्च करती है और आज भी यह स्थिति नहीं है कि वह अवैतनिक सेवा देश की जनता से ले सके कारण कि जनता को यह महसूस होना ही चाहिये कि देश उसका अपना उतना ही है जितना किसी नेता का जितना प्रधानमंत्री का जितना व्यवसायियों का पर क्या उन्हें यह महसूस हो पाता है, क्या न्यायिक व्यवस्था में उन्हें बराबरी का न्याय मिल पता है. शायद नहीं, लिहाजा यह मामला सरकार की कार्यपद्धति के साथ उसकी संरचना से निर्मित हो रहा है जहाँ सरकार एक बड़े वर्ग को बेहतर संरचना देने में असफल हुई है.

ग्रीनहंट जैसे ऑपरेशन या वायुसेना का प्रयोग से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं दिखता सिवाय इसके कि बड़ी और बड़ी संख्या में आदिवासियों का कत्लेआम ही होगा, और प्रतिरोध के तौर पर सेना के जवानों के भी क्षत-विक्षत होने की संभावना बनती है. इस तरह की दमनपूर्ण कार्यवाहियों के बजाय सरकार को आदिवासियों की मूल समस्या को उनकी जमीनी हकीकत के मुताबिक चिन्हित करना होगा और वहाँ पर विकास की उन योजनाओं को चलाना होगा जो आदिवासियों के जीवन से सीधे तौर पर जुड़ी हुई हैं मसलन वहाँ की स्वास्थ सेवाओं को बहाल करना होगा, स्कूल को सेना का कैम्प बनाने के बजाय वहाँ शिक्षकों की नियुक्ति कर शिक्षा का बेहतर प्रबन्ध करना होगा ताकि वह विश्वास आदिवासियों में अर्जित किया जा सके जो कि माओवादियों ने अर्जित किया है.

अतिवाद का कुप्रचार

परिवर्तन सबसे पहले स्वप्न में आता है. रात की नींद के सपनों में नहीं, जीवन के बेहतरी की लालसा के स्वप्न में, और कहीं अपने भीतर एक बना बनाया ढांचा टूटता है, अपने समय के मूल्य ढहते हुए दिखते हैं. यह ढांचा पहले आदमी के विचार से टूटता है फिर व्यवहार से फिर वह आदमी के दायरे को ही तोड़कर, संरचना के दायरे को तोड़ने की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है. वे हर बार आतिवादी ठहरा दिये गये होंगे जिन्होंने समय के मूल्यों को तोड़ा होगा क्योंकि किसी भी समय में व्यवस्था के संरचना की एक सीमा रही है, उसके एक मूल्य रहे हैं उसी के भीतर सोचने की इजाजत होती है, पर दुनिया में हर बार संरचना और सत्ता के बाहर की सोच पैदा हुई. यह परिस्थिति की देन मात्र नहीं थी बल्कि चिंतन की व्यापकता थी जो व्यापक आज़ादी के लिये हर समय विद्रोह करती रही और अपने समय में समय के आगे का विचार पैदा होते रहे. किसी भी समय का अतिवाद यही होता है जो समय की संरचना से विद्रोह करता है, एक नये संरचना की तलाश करता है लिहाज़ा हर दौर में नये समाज बनाने के सपने रहे हैं और हर समय में वे लोग जो अपने समय की संरचना को नकारने का साहस रखते हों. जबकि इतिहास से वे नयी संरचना को बिम्बित करने में असफल भी होते हैं फिर भी उम्मीद और मूल्यों ने उनके विचारों को आगे बाढ़ाया और भविष्य के समाज उन्हीं के विचारों की निर्मिति रहे हैं. शायद दुनिया का अंत किसी प्रलय या दैवीय शक्ति से नहीं, बल्कि उस दिन होगा जब ये नकार के साहस ख़त्म हो जायेंगे. जो जैसा है उसी रूप में स्वीकार्य होगा तो बदलाव की प्रक्रियायें रुक जायेंगी और दुनिया की सारी घड़ियां और कलेंडर अर्थ विहीन हो जायेंगे. समय का ठहराव यही होगा कि नये चिंतनकर्म समाप्त हो जायें और सब सत्ता के आगे नतमस्तक दिखेंगे, पर मानवीय प्रवृत्तियां इन्हें अस्वीकार करती रही हैं कि इंसान है तो सोचना जारी रहेगा.

राजशाही जब खारिज की गयी, जो कि एक समय तक ईश्वर प्रदत्त मानी जाती थी, तो यह तय हुआ कि अब राजाओं को जनता चुनेगी तो संसदीय लोकतंत्र की स्थापना, सैद्धांतिक तौर पर लोगों द्वारा ईश्वर के लिये खारिजनामा ही था, क्योंकि राजा उसके प्रतिनिधि होते थे और राजा को खा़रिज करना इश्वर को खारिज करने से कहीं कम न था बल्कि वह एक प्रत्यक्ष भय था. इस नयी व्यवस्था के बारे में प्रस्फुटित होने वाले विचार जरूरी नहीं कि वे केवल लिंकन के ही रहे हों पर ये विचार राजशाही के लिये अतिवादी ही थे. राजशाही के समय का यही अतिवाद आज हमारे समय के लोकतंत्र में परिणित हुआ. अतिवाद हमेशा समय सापेक्ष रहा है पर वह भविष्य की संरचना के निर्माण का भ्रूण विचार भी रहा जिसे ऐतिहासिक अवलोकन से समझा जा सकता है.

ज्योतिबाफुले, सावित्रीबाई फुले, या भगतसिंह जैसे कितने नाम हैं जो लोग अपने समय के अतिवादी ही थे. इन्हें आज का माओवादी भी कह सकते हैं चूंकि ये संरचना प्रक्रिया में विद्रोह कर रहे थे एक दमनकारी व शोषणयुक्त प्रथा का अंत करने में जुटे थे. भविष्य में जब समाज के मूल्यबोध बदले तो इन्हें सम्मानित किया गया, क्या नेपाल में ऐसा नहीं हुआ. सत्तावर्ग ने इन शब्दों के मायने ही आरक्षित कर लिये हैं. किसी भी समय का अतिवाद, उस समय के सत्तावर्ग के लिये अपराधी और भविष्य के समाज का निर्माता होता है बशर्ते वह उन मूल्यों के लिये हो जो मानवीयता और आज़ादी के दायरे को व्यापक बनाये.

उन्हें उग्रवादी घोषित कर दिया जायेगा, आसानी से अराजक कह दिया जायेगा जो आवाज़ उठाते हैं कि घोषित करने वालों की बनी बनायी व्यवस्थायें, भले ही वह एक व्यापक समुदाय के लिये निर्मम और अमानवीय हो पर उनके लिये सुविधा भोगी है, के खिलाफ आवाज़ उठाना, उनकी व्यवस्थित जिंदगी व उनके जैसे भविष्य में आने वालों की जिंदगी में खलल पैदा करती है. मसलन आप असन्तुष्ट रहें पर इसे व्यक्त न करें, व्यक्त भी करें तो उसकी भी एक सीमा हो, उसके तौर-तरीके उन्होंने बना रखें हैं. इसके बाहर यदि आप उग्र हुए, गुस्सा आया तो यह उग्रवादी होना है. इस प्रवृत्ति को आपसी बात-चीत, छोटे संस्थानों से लेकर देश की बड़ी व्यवस्थाओं तक देखा जा सकता है जहाँ असंतुष्ट होना, असहमति उनके बने बनाये ढांचे से बाहर दर्ज करना, अराजक और उग्रवादी होना है और इन शब्दों के बोध जनमानस में अपराधिकृत कर दिये गये हैं.

अभिषेक मुखर्जी जिसकी बंगाल पुलिस द्वारा हाल में ही हत्या कर दी गयी क्या यह सोचने पर विवश नहीं करता कि आखिर वे क्या कारण हैं कि १३ भाषाओं का जानकार और जादवपुर विश्वविद्यालय का एक प्रखर छात्र देश की उच्च पदाधिकारी बनने की सीढ़ीयां चढ़ते-चढ़ते लौट आता है और लालगढ़ के जंगलों में आदिवासियों की लड़ाई लड़ने चला जाता है, क्या यह सचमुच युवाओं का भटकाव है जो गुमराह हो रहे हैं, जिसे सरकार बार-बार दोहराती रहती है या व्यवस्था की कमजोरी और सीमा की पहचान कर विकल्प की तलाश. अनुराधा गांधी, कोबाद गांधी, साकेत राजन, तपस चक्रवर्ती, शायद देश और दुनिया के बड़े नौकरशाह बन सकते थे, पर वर्षों बरस तक लगातार जंगलों की उस लड़ाई का हिस्सा बने रहे जिसे सरकार अतिवाद की लड़ाई मानती है और ये उसे अधिकार की. शायद समाज में जब तक अतिवाद और अतिवादि रहेंगे, स्वभाव में जब तक उग्रता बची रहेगी तमाम दुष्प्रचारों के बावजूद नये समाज निर्माण की उम्मीदें कायम रहेंगी.

14 अक्तूबर 2010

बर्मा में आम चुनावः कसौटी पर लोकतंत्र

अवनीश

आगामी 7 नवंबर को बर्मा में आम चुनाव होने हैं। बर्मा में शंाति की स्थापना और विकास को गति देने के लिए सैन्य परिषद -स्टेट पीस एण्ड डेवलपमेंट काउंसिल द्वारा घोषित सात चरणों के रोडमैप का यह पांचवा चरण है। यदि यह चुनाव सैन्य परिषद की अपेक्षाओं के अनुरूप संपन्न हो जाते हैं तो रोड मैप के छठेें और सातवें चरणों के तहत क्रमशः चुने गए जनप्रतिनिधियों की सभा बुलाई जाएगी और आधुनिक व लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण की रूपरेखा तैयार की जाएगी। पीपुल्स असेंबली के दोनों सदनंों- हाउस आफ नेशनलटीज और हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव्स के लिए हो रहे आम चुनाव नए संविधान के अनुसार हो रहे हैं। इस संविधान का अनुमोदन बर्मा की जनता ने 2008 में कराए गए एक जनमत संग्रह मंे किया था। 
बर्मा में बहुदलीय आम चुनाव दो दशकों बाद हो रहे हैं। गौरतलब है कि दो दशक पूर्व बर्मा में जनरल ने विन की बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी का सत्ता पर कब्जा था। यह पार्टी बर्मा में बर्मीज शैली के समाजवादी राज्य की स्थापना का इरादा रखती थी। यह समाजवाद दरअसल कम्यूनिज्म और बौद्ध धर्म के मिश्रण का स्थानीय विचार था। इस लक्ष्य को पाने के लिए ने विन ने देश के भीतर एक दलीय शासन प्रणाली लागू कर रखी थी। लेकिन 1988 में एकदलीय शासन प्रणाली के विरोध में हुए जबर्दस्त छात्र आंदोलन (8888 विद्रोह) के कारण बीएसपीपी का पतन हो गया। इसके तुरंत बाद सेना ने यह कहते हुए सत्ता हथिया ली कि वे बर्मा में बहुदलीय आम चुनाव कराएंगे। सैन्य परिषद- स्टेट लॉ एण्ड ऑर्डर रिस्टोरेशन काउंसिल ने मई 1989 में बर्मा की पीपुल्स असेंबली के आम चुनावों के लिए आदेश भी दिया। इन चुनावों के लिए 27 मई 1990 की तारीख तय की गई।
बर्मा दशकों से राजनीतिक अशांति और सैन्य तानाशाही का शिकार रहा है। 1989 में हुई चुनावों की घोषणा के पूर्व तक बर्मा में केवल तीन बार 1951-52, 1956, और 1960 में बहुदलीय चुनाव हुए थे। 8888 विद्रोह के बाद हुए 1990 के चुनावों में बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी की नई अवतार नेशनल यूनिटि पार्टी और चंद दिनांे पहले गठित हुई नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी समेत 16 दलों ने भाग लिया। अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के अनुसार चुनाव बिना किसी धांधली के साफ सुथरे ढंग से निपट गए थे। चुनाव मंें आधुनिक बर्मीज आर्मी के निर्माता आंग सान की बेटी आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को जबर्दस्त सफलता मिली। एनएलडी 59 प्रतिशत मतों के साथ पीपुल्स असेंबली की 492 सीटों मंे से 392 सीटें जीतने में सफल रही। एसएलओआरसी की चहेती नेशनल यूनिटि पार्टी को इन चुनावों में मा़त्र 10 सीटें मिली थी। नेशनल यूनिटि पार्टी की विफलता से चकित और आहत बर्मा की सैन्य परिषद ने इस चुनाव परिणाम को मानने से इनकार कर दिया। नतीजतन पीपुल्स असेंबली का गठन नहीं किया जा सका। हार की प्रतिक्रिया में सैन्य परिषद ने एनएलडी समेत सभी पार्टिर्यों को प्रतिबंधित कर दिया और आंग सान सू की को उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया।
दो महीने पूर्व जब आम चुनावों की घोषणा हुई तो अंतराष्ट्रीय स्तर पर इसे संशय और संभावना, दोनो ही रूपों में देखा गया। हालांकि चीन और आसियान के कुछ मुल्कों ने चुनावों को लोकतांत्रिक सुधारों की प्रक्रिया में सैन्य परिषद द्वारा उठाया गया एक सकारात्मक कदम माना। चीन ने अंतराष्ट्रीय समुदाय से सैन्य परिषद के रचनात्मक सहयोग की अपील भी की। लेकिन अमरीका और यूरोपीय यूनियन ने इन चुनावों के विश्वसनीय होने का भारोसा नहीं रही है। उन्हे यह अशंका भी रही है कि सेना चुनावों में विरोधी पार्टियों के शामिल होने से रोक सकती है। अमरीकी विदेशी मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कहा था कि बर्मा की सैन्य परिषद स्वतंत्र और खुली चुनावी प्रक्रिया में बाधा पहुंचा रही है। सैन्य परिषद का यही रवैया रहा तो बर्मा के आम चुनाव वैधानिक नहीं होंगे और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए महत्वहीन होंगे। लोकतांत्रिक चुनावों के मसले पर भारत ने तटस्थता भरा कूटनीतिक रवैया अपनाया। सैन्य परिषद प्रमुख जनरल थान श्वे की यात्रा के दौरान भारत ने बर्मा में लोकतंत्र की बहाली के मुद्दे पर चुप्पी ओढ़ रखी थी। हालांकि राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह चुनाव सैन्य परिषद के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होंगे। संभवतः आम चुनाव के बाद सैन्य परिषद के समक्ष ताकतवर विपक्ष खड़ा हो सके।
आगामी आम चुनावों की नामांकन प्रक्रिया गत् 30 अगस्त को समाप्त हो गई। नामांकन पूरा होने के बाद उभर रहे परिदृश्य से ऐसा लगने लगा है कि अमरीका और यूरोप द्वारा जहिर की गई चिंता गलत नहीं थी! लोकतांत्रिक सुधारों के नाम पर कराए जा रहे ये चुनाव सैन्य परिषद का स्वांग लग रहे हैं। कठोर नियमों के जरिए राजनीतिक दलों की भागीदारी को बाधित किया गया और नए संविधान के जरिए पीपुल्स असेंबली का ढंाचा सैन्य परिषद के अनुकूल बना दिया गया। देखने मंे यह भी आया है कि सेना के ही अधिकारी वर्दी उतार कर चुनावांें में भाग ले रहे हैं। नामांकन के पहले सेना में उच्च स्तर पर दो बार फेरबदल हो चुके हैं। प्रधान मंत्री थीन सीन और सेना में तीसरे नंबर के जनरल थुरा श्वे मान समेत कई आला अफसर सेना छोड़कर सैन्य परिषद समर्थित राजनीतिक दलों में शामिल हो चुके हैं। नए संविधान के अनुसार पीपुल्स असेंबली ऊपरी सदन हाउस आफ नेशनलटीज के 224 सदस्यों में से 56 सदस्यों को सैन्य प्रमुख को नामित करना है। इसी प्रकार निचले सदन हाउस आफ रिप्रेजेंटेटिव्स 440 सदस्यों में से 110 सदस्यों का मनोनयन भी सैन्य प्रमुख को ही करना है। इन चुनावों में सेना ने अपने कई प्रॉक्सी पार्टिर्यो कों भी खड़ा कर रखा है, जिनमें यूनियन सॉलिडैरिटी एण्ड डेवलपमंेट पार्टी और नेशनल यूनिटि पार्टी प्रमुख हैं। चुनाव के बाद वाह््य और आंतरिक सुरक्षा तथा न्याय से जुड़े मंत्रालयों को भी सैन्य परिषद अपने ही पास रखने वाली है। एक तिहाई सीटों के आरक्षण, सैन्य अधिकारियांे की चुनावों में भागीदारी और प्रॉक्सी पार्टियों की उपस्थिति के बाद इन चुनावों के जरिए बर्मा में लोकतंत्र स्थापना की बात बेमानी ही लगती है। लोकतंत्र में प्राप्त होने वाले जिस न्यूनतम स्थान के महत्तम उपयोग की बात अक्सर की जाती है, उसकी उम्मीद भी यहां नहीं है। दरअसल इन चुनावों के जरिए एक ऐसे संसद के गठन की तैयारी हो रही है, जिसमें बहुमत सेना का होगा।
बर्मा में हो रहे आम चुनाव में लागू कानूनों को अमरीका और फिलिपिन्स ने मजाक करार दिया था। इन नियमों की थोड़ी चर्चा करते हैं। मुल्क के नए संविधान के अनुच्छेद 59एफ के अनुसार ऐसे व्यक्ति आम चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकते, जिनका विवाह किसी विदेशी नागरिक से हुआ हो। मौजूदा संविधान राजनीतिक कैदियों को चुनाव लड़ने व वोट देने की इजाजत भी नहीें देता। चूंकि आंग सान सू की ने अमरीकी नागरिक डा माइकल ऐरिस से विवाह किया था और दो दशकों के सैन्य शासन के दौरान अधितर समय वह नजरबंद ही रही थी। लिहाजा माना जा रहा था कि ये नियम आंग सान सू की को चुनावों में भाग लेने से रोकने के लिए बनाए गए हैं। लेकिन इन नियमों के कारण बर्मा के जेलो में बंद 2000 राजनीतिक कार्यकर्ताओं चुनाव में भाग लेने से वंचित कर दिया गया। आम चुनावों में भाग लेने के लिए पंजीकरण के नियमों को भी बहुत सख्त कर दिया गया। चुनाव आयोग ने केवल ऐसे ही दलों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी, जिनकी सदस्य संख्या कम से कम 1000 रही हो। उम्मीदवारों के नामांकन की राशि भी 500 डॉलर तय की गई थी । बर्मा में यह राशि साधारण आदमी के कई महीने की आमदनी के बराबर है। इसलिए चुनाव में शामिल कई पार्टियां बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवारों को खड़ा नही कर पाईं। सैन्य परिषद समर्थित यूएसडीपी और एनयूपी ने जहां क्रमशः 1000 और 900 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, वहीं एनएलडी से अलग हुई नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स 500 उम्मीदवारों को ही मैदान में उतार सकी है। लेकिन एक ऐसा नियम जो वाकई में इन चुनाव को मजाक करार देता है वह केन्द्रीय चुनाव आयोग के गठन से संबधित है। दअसल 6 महीने पहले चुनाव आयोग से जुड़े नियमों की घोषणा हुई थी। इन नियमों के मुताबिक 17 सदस्यीय चुनाव आयोग के सभी सदस्यों की नियुक्ति सैन्य परिषद द्वारा की जानी है। इन सदस्यों का सैन्य परिषद के प्रति वफादार होना बहुत जरूरी है। और तो और चुनावो के बाद आने वाले परिणामों पर अंतिम निर्णय आयोग नहीं बल्कि सैन्य परिषद ही देगी। इन तथ्यों का लब्बोलुआब यह कि सैन्य परिषद ने चुनावों की देख-रेख के लिए एक कठपुतली चुनाव आयोग का गठन किया है, जिसका काम सैन्य परिषद के निर्णयों को अमली जामा पहनाने भर का है। आगमी चुनावों के लिए नामांकन कर चुके उम्मीदवारों की वैधता का फैसला चुनाव आयोग को ही करना है। कई पर्यवेक्षकों के अनुसार चुनाव लड़ने की अनुमति ऐसे उम्मीदवारों को ही दी जानी है, जो सैन्य परिषद के लिए किसी भी प्रकार से खतरनाक नहीं हो। चुनाव आयोग का जैसा ढांचा है, उसके बाद यह आशंका गलत भी नहीं लगती। इन चुनावों को पारदर्शी और समावेशी बनाने के लिए बेहतर होता की चुनाव आयोग मंें विपक्षी पार्टियों और जनजातीय अल्पसंख्यकों द्वारा नामित अथवा चयनित सदस्यों को भी शामिल किया गया होता, लेकिन एक हठी सैन्यतं़त्र के आगे अंतर्राष्ट्रीय लोकतांत्रिक शक्तियां भी यह मांग नहीं रख सकीं।
अंाग सान सू की दो दशकों से बर्मा में लोकतां़ित्रक सुधारों की मांग कर रहे आंदोलनकारियों, मानवाधिकार संगठनों और वैश्विक शक्तियों की धुरी रही हैं। लेकिन चंद दिनो बाद होने वाले आम चुनावों में न आंग सान सू की हांेगी और ना उनकी पार्टी नेशनल लीग फॅार डेमोक्रेसी। बर्मा की सैन्य परिषद ने चुनावों का बायकाट कर रही आंग सान सू की पार्टी नेशनल लीग फॅार डेमोक्रेसी को भंग कर दिया है। नवंबर में होने वाले चुनावों के लिए पंजीयन ने करा पाने के कारण एनएलडी के साथ ही 9 अन्य पार्टियांे को भी भंग कर दिया गया है। ऐसा माना जा रहा है कि एनएलडी और आंग सान सू की के चुनावों में न होने से इन चुनावों की वैधता को गहरा आघात लगेगा। यह आशंका लाजिमि भी है। दरअसल बर्मा के वर्तमान संविधान और चुनावों में भाग लेने के लिए बनाए गए कानून के बाद यह तो तय है कि सेना पीपुल्स असंेबली में मजबूत विपक्ष अथवा विरोधी पार्टियों की सरकार नहीं बनने देना चाहती है। यदि इन चुनावो को बाद विरोधाी पार्टियों की सरकार बनती भी है तो भी वास्तविक सत्ता सेना के ही हाथ में रहने वाली है। ऐसी किसी भी सरकार को आपतकाल का हवाला देकर बर्खास्त करने का अधिकार भी सैन्य परिषद के पास होगा। आशय यह कि सैन्य परिषद बर्मा में एक नियंत्रित और आनुशासित लोकतंत्र स्थापित करना चाहती है, जिसे संभालने की जिम्मेदारी एक ऋढ़विहीन सरकार के कंधों पर होगी। इन चुनावों में आंग सान सू की का विरोध भी इसी मुद्दे पर रहा है। सू की और उनकी पार्टी की शुरू से ही मांग करती रही है नवंबर में होने वाले आम चुनावोें को अंतराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में कराया जाय; चुनावों में भाग लेने के लिए जेलों मंे बंद राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किया जाय और संविधान में परिवर्तन कर सैना के अधिकारों को कम किया जाय। एनएलडी राजनीतिक दलों के पंजीयन के कठोर नियमों का विरोध भी करती रही। लेकिन सेना प्रमुख ने राजनीतिक कैदियों के रिहाई का आश्वासन देने के आलावा आंग सान सू की किसी भी मांग को तवज्जो नहीं दी। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के रिहाई के मामले में भी सैन्य प्रमुख ने केवल आश्वासन ही दिया है, इनकी रिहाई की कोई समयसीमा नहीं तय की गई है। यही वजह रही कि नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी ने इन चुनावो के बहिष्कार का निर्णय लिया था। एनएलडी द्वारा चुनावों का बहिष्कार किए जाने के कारण इनके विश्वसनीय न होने की आशंकाएं पुख्ता हुई है। हांलाकि कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि एनएलडी के इस कदम से बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के प्रयासों को धक्का लगा है। चुनावों का बहिष्कार करके दरअसल एनएलडी ने सैन्य परिषद के काम को और हल्का कर दिया हैः अब वह नई असेंबली को मनचाहे ढंग से संचालित कर सकेगी। इस आशंका का खमियाजा एनएलडी को भी भुगतना पड़ा। चुनावों के बहिष्कार को सैन्य परिषद के हित में मानते हुए एनएलडी के एक धड़े ने अलग होकर नई पार्टी ‘नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स’ बना ली। एनडीएफ बनाने वालों में एनएलडी के पुराने नेता टिन ओ भी शामिल है, जिन्हे सैन्य परिषद ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की राजनीतिक कार्यकर्ताओं को रिहा किए जाने की अपील के एवज में रिहा किया था। एनडीएफ का मानना है कि एनएलडी चुनावों का बहिष्कार कर सैन्य परिषद का सहयोग कर रही है। सैन्य परिषद समर्थित दलों के हारने और विपक्षी पार्टियों के असेंबली में ताकतवर उपस्थिति की स्थिति में यह विचार सही भी हो सकता है। लेकिन पिछले दो दशकों में बर्मा केे जैसे अनुभव रहे हैं और वर्तमान चुनावों के कानून व संविधान जिस प्रकार सेना के पक्ष में झुके हुए हैं, उन्हे देखते हुए एनडीएफ की आशंका निराधार लगती है। दरअसल इन चुनावों को मौजूदा कानूनों और संविधान के तहत सहमति दे देना सैन्य तंत्र के शासन को शाश्वत सहमति देने जैसे होगा।
2008 में हुए बौद्ध भिक्षुओं के विद्रोह के बर्बर दमन के बाद सैन्य परिषद पर बर्मा में लोकतांत्रिक सुधारों का भारी दबाव रहा है। दशकों की अस्थिरता और विलगाव ने बर्मा की आर्थिक हालत जर्जर कर दी है। पिछले वर्ष आए तुफान नरगिस ने इन मुश्किलों को और बढ़ा दिया। यही कारण रहे हैं कि सैन्य परिषद को बर्मा में लोकतांत्रिक सुधारों के लिए चुनावों की घोषणा करनी पड़ी है। लेकिन सैन्य परिषद इस मौके का इस्तेमाल कपट के रूप में कर रहा है। दरअसल यह एक ऐसा सैन्य तंत्र है, जो अंतराष्ट्रीय शक्तियों के अंतर्विरोधों का बखूबी इस्तेमाल करने में सक्षम है। इसके समक्ष संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून भी अपनी बेबसी जाहिर कर चुके है। पिछले वर्ष यांगून में बान की मून को आंग सान सू की से मिलेने से रोक दिए जाने की यादें अभी भी हमारे जहन में ताजा है। अमरीका, यूरोपीय यूनियन और आसियान के कुछ मुल्क बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत हैं, जब तक चीन को बर्मा से गैस और तेल मिल रहा है, इनकी कवायदें सफल नहीं रहने वाली है। चीन बर्मा पर लोकतांत्रिक सुधारों के लिए दबाव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, लेकिन उसकी मित्रता वहां की आंदेालनकारी शक्तियों के साथ कम और सैन्य शासकों के साथ अधिक है। बर्मा पर दबाव बनाने के लिए भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जाती रही है, लेकिन चीन के बर्मा में व्यापारिक विस्तार के बाद भारत भी मोल-भाव वाली स्थिति में आ गया है। ऐसे हालात में बर्मा एक ऐसे मुल्क के रूप में दिखता है जो पड़ोसी मुल्कों के स्वार्थ और अंातराष्ट्रीय शक्तियों के अंतर्विरोध के बीच फंस गया है। इसलिए फिलहाल बर्मा में लोकतंत्र के लिए लड रही एनएलडी जैसी ताकतें ही बचती हैं, जिनसे परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है। इसलिए अवश्यकता है कि उनका समर्थन किया जाय।

10 अक्तूबर 2010

गड़चिरौली में माओवादियों के हमले की पृष्ठभूमि

चन्द्रिका
गड़चिरौली जिले में माओवादियों द्वारा सुरक्षा बलों पर सिलसिलेवार किया गया हमला राष्ट्रमण्डल खेलों की गूंजती आवाज़ में दबाया जा सकता है. क्योंकि स्वर्णपदकों को देश के स्वाभिमान के साथ जोड़ा जा रहा है और राष्ट्रमण्डल खेलों का भ्रष्टाचार इन पदक प्राप्तियों के साथ दब जायेगा. यदि यह भ्रष्टाचार न भी दबा तो कुछ छोटे-मोटे कर्मचारी अपनी नौकरी को बलिदान कर देंगे. देश की सत्तासीन सरकार इन पदकों पर इतरा सकती है, साथ में देश के शहरों में बैठे लोग भी पदक प्राप्ति से गौरवांवित महसूस कर सकते हैं. जबकि दूसरी तरफ गड़्चिरौली में माओवादियों द्वारा ४ जवानों को मारे जाने के बाद, वहाँ के एक थाने पर हमला व उसके बाद शव लेने पहुंचे दस्ते पर किया गया हमला, यह एक सिलसिला है जो ऑपरेसन ग्रीनहंट में केन्द्र द्वारा लगाये गये सुरक्षा बलों को माओवादियों द्वारा विरोध के तौर पर झेलना पड़ रहा है और उन्हें अपनी जाने गवानी पड़ रही हैं. देश की संरचना में मौत की अहमियत को पदों के साथ ही जोड़कर देखा जाता है, लिहाजा सुरक्षा बलों और आदिवासियों, दोनों की मौत सरकार के लिये हर बार कम अहमियत रखती है.
बेरोजगारी के दौर में देश का युवा वर्ग सुरक्षा बलों की नौकरी में रोजगार के लिये आता है और आदिवासी अपने हक-हुकूक व जंगल जो उनके निवास स्थान हैं को छीने जाने व सरकार की संरचना में अपनी शून्यता की स्थिति के कारण माओवादी बनते हैं. ऐसे में अहम फर्क स्थानीयता का होता है जिसकी स्थितियों से सुरक्षा बल नावाकिफ होते हैं पर इन सभी पहलुओं को ताक पर रखते हुए गड़चिरौली जिले में सुरक्षा बलों की तादात दिनों-दिन बढ़ाई जा रही है, इस अंदेशे में कि माओवाद सुरक्षा बलों की ताकत से दब जायेगा. जबकि स्थितियाँ उसके उलट होती जा रही हैं एक तरफ देश में सबसे बड़े खेल का आयोजन चल रहा है तो दूसरी तरफ देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित युद्ध का. माओवादियों द्वारा किये गये ये हमले किसी वीरान जंगल में नहीं बल्कि स्थानीय बाजार में हुए हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय मदद के बिना यह सम्भव नहीं था.

माओवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन के नाम पर गड़चिरौली में सैन्य बलों को बढ़ाकर सरकार ने स्थानीय लोगों में सुरक्षा के बजाय दहशत को ही बढ़ाया है. लिहाजा माओवादियों की स्थानीय स्वीकार्यता और भी बढ़ी है. इस स्वीकार्यता की पृष्ठभूमि महज यह नहीं है कि माओवादी आदिवासियों के स्थानीय शोषण के साथ खडे हुए हैं बल्कि सेना और सरकार की कार्यवायियों ने लोगों को माओवादियों के निकट जाने की स्थिति भी पैदा की है. महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा चुनाव में गड़चिरौली को अतिसंवेदनशील जिला होने के कारण बड़ी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था और जब कुछ गाँव के आदिवासियों ने सामूहिक तौर पर वोट देने से इंकार कर दिया तो सुरक्षा बलों द्वारा इन आदिवासी लोगों की पिटाई की गयी और जबरन वोट डलवाये गये. एक तौर पर सुरक्षा बल इन आदिवासियों के बीच में बाहरी हैं जो अलग-अलग राज्यों से आये हुए हैं और ऐसे में इस तरह के सुलूक निश्चिततौर पर आदिवासियों के मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ आक्रोश पैदा करेगा. यह आक्रोश प्रतिशोध के तौर पर जब विकल्प की तलाश करता है तो माओवादीयों से उनकी निकटता और मजबूत होती है.
गड़चिरौली जिले के अहेरी तहसील में जब ४ सुरक्षा बलों को माओवादियों ने उड़ाया, उसके बाद भी यही स्थिति बनी. शवों को लेने पहुंचे सुरक्षा बलों ने इस घटना के लिये दोषी बताते हुए बाजार में खरीदी करने आये लोगों, छोटे व्यवसायियों की पिटाई की, मानो जवानों को उड़ाने में पूरा का पूरा बाजार ही शामिल रहा हो. जबकि स्थानीय लोगों ने मानवीय बर्ताव करते हुए सुरक्षा बलों के ५०० मीटर दूरी में बिखरे शवों को इकट्ठा करने में भी मदद की थी, बावजूद इसके स्थानीय लोगों की सुरक्षा बलों द्वारा की गयी पिटाई, स्थानीय लोगों से अपने श्रेष्ठता व ताकत का प्रदर्शन ही था. दरअसल यही वे स्थितियाँ हैं जो केन्द्र में हजार किलोमीटर की दूरी पर बैठी सरकार को नहीं दिखाई पड़ती और वह इन जिलों में सैनिक शासन लगाने पर आमादा दिखती है. गड़चिरौली या देश के अन्य जिले जहाँ पर माओवादियों की स्थिति मजबूत है वहाँ सरकार लगातार सुरक्षाबलों को बढ़ाती जा रही है. जबकि स्थानीय आधार पर कम-ओ-बेस इसी तरह के समीकरण बन रहे हैं जहाँ सुरक्षाबल जनता से अलगाव की स्थिति में बाहरी के रूप में होते हैं और वहाँ के लोगों के अंदर सुरक्षा के बजाय एक दहसत ही पैदा करते हैं. ऐसे में स्थानीय लोगों की मदद से माओवादी अपने खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन को असफल बनाने में ज्यादा कारगर हो रहे हैं. जबकि सरकार लगातार इसे देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा मानते हुए उच्च स्तरीय बैठकें कर रही है और मावोवादियों से वार्ता करने या कोई अन्य शान्ति प्रक्रिया चलाने के बजाय सुरक्षा बलों की बढ़ोत्तरी और दिन ब दिन हो रही मौत को ही कारगर तरीका मान रही है.