30 जून 2012

जेल डायरी: अरूण फरेरा

जेल ऊँची दीवारों के भीतर की सिर्फ एक जगह का नाम नहीं है. उसके कई संस्करण हैं. दीवारों के बाहर और भीतर होना एक अलग अहसास से भर देता है. आज़ादी के विलोम में यहाँ सबकुछ मौजूद है. अथाह झूठ के पुलिंदो से ग्रसित ज़ेहन की अनसुनी और अनकही कहानियों वाली कई रातें और कई दिन. अरुण फरेरा कों मई 2007 में माओवादी होने के आरोप में नागपुर से गिरफ्तार किया गया था. अखबारों में उनके गिरफ्तारी, नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए बयान की सच्ची-झूठी कहानियां पिछले 4 वर्षों तक आती रही. अदालती फैसलों के तहत जेल से उनका छूटना और फिर जेल की सलाखों में धकेल दिया जाना. इस माह ओपन पत्रिका में उनकी लम्बी जेल डायरी प्रकाशित हुई. जिसका हिन्दी अनुवाद अनिल ने किया है. इसे हम तीन किस्तों में यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. डायरी के साथ प्रकाशित जेल की स्थिति दर्शाते चित्र भी अरुण फरेरा ने खुद बनाए हैं.
नागपुर जेल की उच्च-सुरक्षित परिसीमा में स्थित अंडा बैरक बग़ैर खिड़कियों वाली कोठरियों का एक समूह है। अंडा के प्रवेश-द्वार से दूसरी अधिकतर अन्य कोठरियों में जाने के लिए लोहे के पाँच दरवाज़ों, [और पैदल] एक संकरा गलियारा पार करना होता है। अंडा के भीतर कई अलग अहाते हैं। हरेक अहाते में कुछ कोठरियाँ हैं, और हर पहली कोठरी दूसरी से सावधानीपूर्वक अलगाई गई है। कोठरियों में बहुत कम रोशनी होती है और आप यहाँ कोई पेड़ नहीं देख सकते। आप यहाँ से आसमान तक नहीं देख सकते हैं। मुख्य निगरानी टॉवर के ठीक ऊपर से अहाते में एक बड़ा भारी, ठोस अंडा हवा में लटकता रहता है। लेकिन इसमें (और अन्य अडों में) एक बड़ा फ़र्क़ है। इसे तोड़कर खोलना असंभव है। बल्कि, यह क़ैदियों (के हौसलों) को तोड़ने के लिए बनाया गया है।
अंडा वो जगह है जहाँ सबसे ज़्यादा बेलगाम क़ैदियों को, अनुशासनात्मक क़ायदों के उल्लंघन करने की सज़ा के लिए क़ैद किया जाता है। नागपुर जेल के अन्य हिस्से इतने ज़्यादा सख़्त नहीं है। अधिकतर क़ैदी पंखे और टीवी वाली बैरकों में रखे जाते हैं। बैरकों में, दिन के पहर काफ़ी इत्मिनान वाले, यहाँ तक कि आरामतलब भी हो सकते हैं। लेकिन अंडा में, कोठरी के दरवाज़े ही हवा के आने जाने का एकमात्र ज़रिया है, और ये भी कुछ ख़ास आरामदायक नहीं, क्योंकि ये किसी खुले प्रांगण में नहीं, एक ढंके-मुंदे गलियारे में खुलता है।
लेकिन अंडा के निर्मम, दमघोंटू माहौल से ज़्यादा मानव संपर्क की ग़ैरहाज़िरी सांस घोंटने वाली होती है। अंडा में, 15 घंटे या इससे ज़्यादा समय अपनी कोठरी में तन्हा गुज़ारना होता है। दिखाई देने वाले लोग सिर्फ़ सुरक्षाकर्मी और कभी कभार उस हिस्से में रह रहे अन्य क़ैदी होते हैं। अंडा में कुछेक हफ़्ते ही हौसलों की किरचें बिखेरने वाले हो सकते हैं। नागपुर जेल में क़ैदियों के बीच अंडा का ख़ौफ़ बख़ूबी ज्ञात है, और वे अंडा में निर्वासित होने की बजाय कठोर से कठोर पिटाई बर्दाश्त कर जाते हैं।
जबकि अधिकतर क़ैदी अंडा या इसके हमजोली, फांसी यार्ड (मौत की सज़ा पाए क़ैदियों के घर) में सिर्फ़ कुछ हफ़्ते रहते हैं, इन हिस्सों में मैंने चार साल आठ महीने बिताए। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं कोई साधारण क़ैदी नहीं था। पुलिस के दावे के अनुसार, मैं एक ‘ख़ूखार नक्सलवादी’, ‘माओवादी नेता’ था। 8 मई 2007 को मुझे गिरफ़्तार करने के बाद, सुबह-सुबह अख़बारों में यही विवरण प्रकाशित कराए गए थे।
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गर्मियों की एक चिलचिलाती दोपहरी में मुझे नागपुर रेलवे स्टेशन से गिरफ़्तार किया गया था। मैं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलने का इंतज़ार कर रहा था, जब तक़रीबन 15 आदमियों ने मुझे जकड़ लिया, कार में धकेला और रास्ते भर मुझे मारते-पीटते तेज़ी से कार कहीं दूर भगा ले गए। वे मुझे एक इमारत के एक कमरे में ले गए, मेरे अपहरणकर्ताओं ने बाद में बताया कि यह नागपुर जिमख़ाना था। मेरे हाथ बांधने के लिए उन्होंने मेरे बेल्ट का इस्तेमाल किया और मेरी आँखों पर पट्टी बांध दी गई, ताकि इस प्रक्रिया में शामिल पुलिस अधिकारी अनचीन्हे ही बने रहें। उनकी बातचीत से मालूम हो रहा था कि नागपुर पुलिस के नक्सल-विरोधी दस्ते ने मुझे हिरासत में लिया है। हमले कभी नहीं थमे। पूरे दिन मुझे बेल्ट, घूंसों और जूते से पीटा जाता रहा। आगे की पूछताछ मेरा इंतज़ार जो कर रही थी।
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नब्बे के दशक की शुरुआत में मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सामाजिक सक्रियता से मेरा पहला वास्ता पड़ा। जहाँ मैंने अधिकारविहीन लोगों के लिए गाँवों में शिविर और कुछ कल्याणकारी परियोजनाओं का आयोजन किया था। 1992-93 के धार्मिक दंगों ने मुझे झकझोर कर रख दिया। हज़ारों मुसलमान ख़ुद अपने शहर से बेदख़ल कर दिए गए थे। हमने कुछ सहायता शिविर संचालित की थी। राज्य की क्रूर उपेक्षा ने शिवसेना द्वारा सामूहिक हत्याकांडों को बग़ैर किसी रोक-टोक के अंजाम होने दिया था। मैं जल्द ही, लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज बनाने के उद्देश्य में लगे एक छात्र संगठन, विद्यार्थी प्रगति संगठन से जुड़ गया था। ग्रामीण इलाक़ों में हमने बेदख़ल कर दिए गए लोगों को उनके हक़-अधिकारों को वापस दिलाने में मदद के लिए कई अभियान संगठित किए। नाशिक में, वन विभाग की ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ आदिवासी ख़ुद को संगठित कर रहे थे। दाभोल में, ग्रामीण एनरॉन उर्जा परियोजना का प्रतिरोध कर रहे थे। गुजरात के उमरगाँव में, मछलियाँ पालने वाले लोग एक दैत्याकार पत्तन से अपने भयानक विस्थापन के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे थे। इन संघर्षों को काफ़ी क़रीब से देखने समझने से मुझे भान हुआ कि ग़रीबों को राहत दिलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उन्हें सत्ता और न्याय के तोड़े-मरोड़े संबंधों के बारे में सवाल करने और उनके अधिकारों की दावेदारी में संगठित करने में मदद करना है।
हालाँकि, 9/11 के पश्चात, जन-आंदोलनों को ग्रहण करने के तौर-तरीक़ों में एक तब्दीली आई। तथाकथित आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध ने राज्य की नीतियों का बुनियादी अभिप्राय सुरक्षा को बना दिया था। भारत में, असुविधाजनक सवालों को दबाने के लिए विशेष क़ानून अपनाए जाने लगे। संगठनों पर पाबंदियाँ लगा दी गईं, मतों का अपराधीकरण कर दिया गया और सामाजिक आंदोलनों पर ‘आतंकी’ का ठप्पा लगाया जाने लगा। हममें से जो लोग ग्रामीण इलाक़ों में आदिवासियों या शोषितों को संगठित करने के लिए काम करते रहे उन्हें ‘माओवादी’ ठहराया जाने लगा था।
2005 में, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषित किया कि माओवादी “भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा” हैं। कईयों को ‘मुठभेड़’ में मार या ‘ग़ायब’ कर दिया गया, जबकि अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। छत्तीसगढ़, झारखंड या महाराष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाक़ों में सभी ग़ैर-पार्टी (नॉन पार्टीज़न) राजनीतिक गतिविधियों पर ‘माओवाद’ का ठप्पा लगाया गया, और तदनुसार निपटा जाने लगा। मेरी हिरासत के पहले, अंबेडकरवादी आंदोलन को नक्सलवादी राजनीति के ज़रिए भड़काने के आरोप में नागपुर में कई दलित कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था। इन सबका मतलब यह था कि मैं अपनी गिरफ़्तारी के लिए पूरी तरह से बिना किसी तैयारी के नहीं था।
इस परिकल्पनात्मक स्थिति के अवलोकन के बावजूद, मैं [राज्य] के हमले का निशाना बन जाने—गिरफ़्तारी, यातनाओं, गढ़े सबूतों के आधार पर झूठे मामलों में फंसाए जाने, और कई सालों के लिए जेल में बंद कर दिए जाने के लिए सचमुच तैयार नहीं था।
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आधी रात को, हिरासत में लिए जाने के 11 घंटों बाद, मुझे पुलिस थाने ले जाया गया और बताया गया कि ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम, 2004 के मुझे अंतर्गत गिरफ़्तार किया गया है, जो कि उन लोगों पर लगाया जाता है जिनके बारे में राज्य मानता है कि वे आतंकवादी हैं। वह रात मैंने पुलिस थाने की एक गीली, अंधेरी कोठरी में गुज़ारी। एक गंध मारता काला कंबल मेरा बिस्तर था। इसका रंग बमुश्किल ही बता पाता था कि यह कितना गंदा है। ज़मीन पर एक छेद था, जो चारों तरफ़ पान की पीकों और अपनी तीखी बदबू से पहचाना जा सकता था कि यह मूत्रालय है। अंततः मुझे भोजन परोसा गया: दाल, रोटी और गालियाँ। [दिन के] मुक्कों से दुखते जबड़े से प्लास्टिक थैली में खाना खाना आसान नहीं था। लेकिन दिन के ख़ौफ़ों के बाद ये तक़लीफ़ें अपेक्षाकृत महत्वहीन थीं, और इन्होंने मुझे ख़ुद को अपने क़रीब खींचने का छोटा सा मौक़ा दिया। मैंने सड़े बिस्तर और गीली बदबू को नज़रअंदाज़ करने का प्रबंध किया और झपकी लेने लगा।
कुछ ही घंटों के भीतर, मैं अन्य पाली के पूछताछ के लिए जग गया। वह अधिकारी पहले-पहल तो कुछ नरमाई से पेश आया लेकिन वे जो चाहते थे उसके जवाब लेने की कोशिश में जल्दी ही लात-घूंसों की बौछार शुरू कर दी। वे मुझसे हथियारों और विस्फोटकों के ठिकानों और माओवादियों के साथ मेरे संबंधों की जानकारियाँ चाह रहे थे। अपनी मांगों के लिए मुझे और भेद्य बनाने के लिए उन्होंने [कुचलने वाली] मध्ययुगीन यातना तकनीकी के एक नवीनतम संस्करण का इस्तेमाल करते हुए मेरे समूचे शरीर को पूरी तरह मरोड़ दिया। मेरे हाथ बहुत ऊँचाई पर एक खिड़की से बाँध दिए गए, और मुझे ज़मीन से सटाने के लिए दो पुलिसवाले मेरे ऐंठे हुए तलवों पर चढ़ गए। इसका हिसाब-किताब दिखाई दे जाने वाले किन्हीं घावों के बग़ैर अधिकतम दर्द पहुँचाना था। उनके सावधानियाँ बरतने के बावजूद, मेरे कान से ख़ून रिसने लगा और मेरे जबड़े फूलने लगे।
शाम में, मुझे काले नक़ाब पहनाकर ज़मीन पर उकड़ूँ बैठाकर मेरे पीछे कई अधिकारियों ने खड़े होकर प्रेस के लिए तस्वीरे खिंचाई। अगले दिन, बाद में मुझे मालूम हुआ कि, ये तस्वीरें देश के विभिन्न अख़बारों के पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनीं। प्रेस से कहा गया कि मैं नक्सलवादियों के एक अति-वामपंथी धड़े का प्रचार और संचार प्रमुख था।
फिर मुझे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। जैसा कि क़ानून के सारे विद्यार्थी जानते हैं कि [क़ानूनी प्रक्रिया में] यह चरण क़ैदी को हिरासत में दी गई यातनाओं की शिकायत का एक मौक़ा देने के लिए होता है—जिसे कि मैं बड़ी आसानी से स्थापित कर सकता था क्योंकि मेरा चेहरा सूजा हुआ था, कान से ख़ून रिस रहा था और तलवों में ऐसे घाव हो गए थे कि चलना असंभव लग रहा था। लेकिन अदालत में, मुझे अपने वकील से पता चला कि, पुलिस ने पहले ही मेरी गिरफ़्तारी की गढ़ी गई कहानी में उन ज़ख़्मों के बारे में झूठ गढ़ लिए थे। उनके संस्करण के मुताबिक़, मैं एक ख़तरनाक आतंकवादी था और गिरफ़्तारी से बचने की कोशिश में पुलिस से काफ़ी लड़ाई लड़ी। उन्होंने दावा किया कि मुझे दबोचने के लिए उनके पास ताक़त के इस्तेमाल के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अजीब था कि मुझे बंदी बनाने वालों में से किसी को हाथापाई के दौरान कोई नुक़सान नहीं हुआ था।
हैरानी की एक मात्र यही बात नहीं थी। अदालत में, पुलिस ने कहा कि मुझे तीन अन्य लोगों—एक स्थानीय पत्रकार धनेन्द्र भुरले, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के गोंदिया जिला-अध्यक्ष नरेश बंसोड़; और आंध्रप्रदेश के निवासी अशोक रेड्डी के साथ गिरफ़्तार किया है। पुलिस का दावा था कि उन्होंने हमारे पास से एक पिस्टल और ज़िंदा कारतूर बरामद किए हैं। उन्होंने कहा कि हम नागपुर के दीक्षाभूमि के स्मारक को उड़ाने की योजना की साज़िश रच रहे थे। पुलिस अगर लोगों को इस बात से सहमत कर लेती थी कि हमारी योजना इस पवित्र स्थल पर हमले की थी तो वह दलितों को वामपंथियों से कोई ताल्लुक नहीं रखने के लिए सहमत कर लेगी।
लेकिन महज आरोप काफ़ी नहीं थे। उन्हें अपने दावों के समर्थन में सबूत की ज़रूरत थी। पुलिस ने अदालत से कहा कि पूछताछ के लिए उन्हें 12 दिनों के लिए हमारी हिरासत की ज़रूरत है। उस पत्रकार को और मुझे नागपुर के सीताबर्डी पुलिस थाने में रखा गया था, जबकि दो अन्य लोगों को धंतोली थाने ले जाया गया। हर सुबह, हमें लगातार चलने वाली पूछताछ के लिए पुलिस जिमख़ाने ले जाया जाता था, जो देर रात तक चलती थी। पहले, वे अपने तैयार किए हुए एक इक़बालिए बयान पर दस्तख़त करने के लिए हम पर दबाव डालते रहे। जब वे इसमें नाकाम हो गए तो उन्होंने अदालत को वैज्ञानिक तौर पर संदेहास्पद पद्धति नार्को एनालिसिस, लाई डिटेक्टर, और ब्रेन मैपिंग की अनुमति के लिए राजी कर लिया, जिसके बारे में उन्हें उम्मीद थी कि यह उनके आरोपों के लिए सुरक्षा-कवच का काम करेगा। तो, हलांकि, मैं क़ानूनन उनकी हिरासत में नहीं था लेकिन पुलिस इन फ़ोरेंसिक परीक्षणों के बहाने मुझसे अभी भी यातनादेह पूछताछ कर रही थी। हमें मुंबई स्थित राज्य फ़ोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला ले जाने की तैयारियाँ की जाने लगीं।
उसके पहले, नागपुर केंद्रीय कारागार में हमें औपचारिक तौर से दाख़िल किया गया। मुझे अहाते के एक छोटे संकरे दरवाज़े पर रोका गया जिसे 54 महीनों के लिए मेरा घर होना था। प्रक्रिया के अनुसार, पहली बार प्रवेश कर रहे क़ैदियों को दरवाज़े पर तैनात अफ़सर (गेट ऑफ़िसर) के सामने पेश किया जाता है। परंपरा, और संभवतः प्रशिक्षण, की अपेक्षा होती है कि यहाँ तक कि सबसे मृदुल-स्वभाव के अफ़सर को भी नए प्रवेशकों, जिन्हें जेल की बोली में ‘नया अहमद’ कहते हैं, से निपटने में जितना ज़्यादा हो सके उतना ज़्यादा हमलावर होना चाहिए। यह दरवाज़े पर तैनात अफ़सर का काम होता है कि वह नए आने वाले लोगों को दब्बूपने, बुद्धिहीनता और चापलूसी के संक्षिप्त गुर सिखाए।
अफ़सर को यह पूछताछ भी करनी होती है कि पुलिस हिरासत में यातनाओं के कारण नए क़ैदी कहीं चोटों से तो नहीं पीड़ित हैं, और अगर ऐसा है तो उसके बयान दर्ज़ करना होता है। मेरे मामले में, मेरे कानों से ख़ून रिस रहा था, थोबड़े सूजे हुए थे और पाँव ज़ख़्मी थे। लेकिन हक़ीक़त में, जिस किसी ने शिकायत करने की कोशिश की, अफ़सर ने उसे धमकाया। रिवाज़ के मुताबिक़, सारे ज़ख़्मों को यह कहकर दर्ज़ किया जाता है कि वे क़ैदी के गिरफ़्तार होने से पहले उसके शरीर में मौजूद थे। जेल में नए प्रवेशकों की तलाशी का एक स्टैंडर्ड प्रोटोकॉल होता है। मुझसे मेरे भीतरी कपड़े तक उतरवा लिए गए और जड़ती अमलदार (तलाशी का प्रभारी आदमी) को तलाशी देने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करने के लिए अन्य नए प्रवेशकों के साथ बैठने का आदेश दिया गया। हमारे सारे सामान की छानबीन की गई और फिर हमारे द्वारा उन्हें विनम्रता पूर्वक दुबारा उठाने के लिए गंदे रास्ते पर फेंक दिया गया। बिस्किट और बीड़ी जैसी ख़तरनाक चीज़ों से कर्मचारियों ने ख़ुद अपनी जेबें गरम कर लीं।

26 जून 2012

टीएमटीडी आयोग की सुनवाई एक ढकोसला है!


एक बरस बीत चुके हैं और सरकारी गठित समिति अपने गति से कार्यवाई चला रही है. ताड़मेटला के आसपास कई और घटनाएं इस बीच घटित हुई हैं. सलवा-जुडुम बंद हो चुका है और सलवा-जुडुम चालू भी है. देश के लिए लगातार 'सबसे बड़ा खतरा' ये आदिवासी बने हुए हैं. इस पूरे परिदृश्य को, जले हुए गांवों को और लोगों के जंगल में भाग जाने से खाली हुए गांवों को हमने अपनी आंखों से देखा है. माड़वी जोगी को अपनी कहानी बताते-बताते रोते हुए हमने सुना है. मोरपल्ली की एमला गुडे और माड़वी गुडे ने बताया था कि उनके साथ क्या हुआ. सरकार की कमेटी कुछ भी कह सकती है, मैं उस पर यकीन नहीं करने वाला. जबकि टी.एम.टी.डी. कमेटी जांच के अंतिम दौर में है… माओवादियों ने एक प्रेस विज्ञप्ति भेजी है जिसे यहां प्रकाशित किया जा रहा है. 


प्रेस विज्ञप्ति
25 जून 2012
चिंतलनार में मचाए गए सरकारी आतंक पर  टीएमटीडी आयोग की सुनवाई एक ढकोसला है!
क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने की मंशा से लुटेरे शासक वर्ग जनता पर भीषण दमन अभियान चला रहे हैं। इसी का हिस्सा है कि 2011 में 11 से 16 मार्च तक मोरपल्ली, तिम्मापुरम, ताड़िमेटला और पुलानपाड़ गांवों पर मुख्यमंत्री रमनसिंह के आदेश पर दंतेवाड़ा जिले के तत्कालीन एसएसपी कल्लूरी के निर्देश पर पुलिस, अर्धसैनिक और कोया कमाण्डो के संयुक्त बलों ने एक भारी हमला किया था।
10 मार्च की रात में चिंतलनार से निकले सरकारी सशस्त्र बलों ने 11 मार्च की सुबह मोरपल्ली गांव पर धावा बोल दिया। गांव में मौजूद सभी घरों में उन्होंने आग लगा दी। माड़िवी शूला की गोली मारकर हत्या कर दी। गांव में तबाही मचाकर चिंतलनार लौटने से पहले कई महिलाओं पर यौन अत्याचार भी किया था।
दोबारा 13 मार्च को पुल्लानपाड़ गांव पर हमला किया गया जिसमें सीआरपीएफ-कोबरा और जिला बल ने भी हिस्सा लिया। उसके बाद गांव तिम्मापुरम में भी उनका हमला चला था। तिम्मापुरम से पेद्दा बोड़िकेल जाते समय हमारी पीएलजीए ने उन पर जवाबी हमला किया जिसमें तीन कोया कमाण्डो मारे गए और सात घायल हो गए। रात को सरकारी बल फिर तिम्मापुरम लौट गए जहां उन्होंने आतंक का नंगा नाच किया। पूरे गांव को जलाकर राख कर दिया। पुल्लानपाड़ गांव के मन्नू यादव की हत्या कर उसकी लाश चिंतलनार ले गए थे।
16 मार्च को ताड़िमेटला गांव पर सरकारी बलों ने हमला किया जहां पर 218 घरों को जलाकर भारी तबाही मचाई थी।
इस तमाम घटनाक्रम को लेकर छत्तीसगढ़ प्रदेेश समेत देश भर में भी काफी हल्ला हुआ। आम जनता के साथ-साथ मानवाधिकार संगठनों, बुद्धिजीवियों और सभी जनवादियों ने इस पाशविक कार्रवाई की कड़ी निंदा की। दोषी अधिकारियों को सजा देने की मांग की। विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने भी इस मुद्दे को विधानसभा में उठाई थी। इस बर्बरतापूर्ण कार्रवाई और उसके बाद स्वामी अग्निवेश जैसे जाने-माने लोगों पर हुए हमलों को लेकर आदिवासियों के कुछ शुभचिंतकों ने देश की सर्वोच्च अदालत में जाकर इसकी जांच की मांग उठाई।
इस पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट के ओदश पर छत्तीसगढ़ सरकार ने 12 मई को एक जांच आयोग का गठन किया। बिलासपुर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति टीपी शर्मा को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। जस्टिस टीपी शर्मा रमनसिंह का वफादार हैं। कुख्यात छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून को नोटिफाई करने का ‘श्रेय’ भी उन्हीें को जाता है। इसमेें जरा भी शक नहीं है कि इस आयोग के गठन से चिंतलनार इलाके के पीड़ित आदिवासियों को न न्याय मिलेगा और दोषियों को न सजा मिलेगी। इस आयोग का नाम बहुत ही अजीबोगरीब तरीके से टीएमटीडी (ताड़िमेटला, मोरपल्ली, तिम्मापुरम और दोरनापाल) आयोग रखा गया है और आजकल इसकी सुनवाई के नाम पर जगदलपुर में एक नौटंकी चलने लगी है। इसका गठन महज एक ढोंग था और वर्तमान में जारी उसकी सुनवाई भी जनता को भरमाने का हथकण्डा ही है।
इस बीच सर्वोच्च न्यायालय के ही एक और आदेश पर ताड़िमेटला कांड पर सीबीआई की जांच भी बिठाई गई और उसकी भी जांच की प्रक्रिया चल रही है। इससे भी पीड़ित जनता को न्याय मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। आखिर सीबीआई भी उसी राजसत्ता का एक पुरजा है जिसने चिंतलनार क्षेत्र की जनता पर कहर बरपा था।
इतिहास गवाह है कि आज तक ऐसे जांचों से शोषित जनता को कभी न्याय नहीं मिला। चाहे 2002 में गुजरात में हुए मुसलमानों का कत्लेआम हो, 1984 वाले सिख विरोधी ‘दंगों’ का मामला, हर बार सीबीआई ने सत्ताधीशों का बचाव ही किया है। अभी-अभी कामरेड चेरुकूरी राजकुमार उर्फ आजाद की फर्जी मुठभेड़ को भी सीबीआई ने ‘असली’ करार देकर हत्यारों का बचाव किया।
अभी टीएमटीडी आयोग के सामने उपस्थित पुलिस के अधिकारी पूरी निर्लज्जता के साथ बयान दे रहे हैं कि घरों में आग नक्सलवादियों ने लगाई थी। आने वाले दिनों में यह आयोग भी इसी बयान से मिलता-जुलता कोई निष्कर्ष निकालेगा तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए हम तमाम जनता और जनवाद के प्रेमियों से अपील करते हैं कि टीएमटीडी आयोग वाली सरकारी जांच के इस ढकोसले का विरोध करें और चिंतलनार बर्बरकाण्ड के लिए जिम्मेदार मुख्यमंत्री रमनसिंह, तत्कालीन एसएसपी कल्लूरी समेत सभी नेता, पुलिस, अर्धसैनिक बलों के अधिकारियों और कोया कमाण्डों को कड़ी सजा देने की मांग करें।
गणेश उईके
सचिव,
दक्षिण रीजनल कमेटी - दण्डकारण्य 
भाकपा (माओवादी)

20 जून 2012

शौकत पर लश्कर का ठप्पा लगाने की फिराक में यूपी एटीएस


 -राजीव यादव
 आने वाले दिनों की खतरनाक आहटजेल की काल कोठरी या पुलिस प्रताड़ना से उसे डर नहीं लगता। उसे फिक्र हैं अपनी ग्यारह साल की बच्ची हाजरा का, जो सेरिब्रल पैरालिसिस से पूरी तरह से मानसिक और शारीरिक रुप से विकलांग है और फिक्र है अपने उस भाई वाहिद अली (25 वर्ष) का जो हर अनजान व्यक्ति की आहट सुनके डर जाता है। और उसकी इस हालत का जिम्मेवार वो अपनी खामोशी को मानता है। पर अब उसने अपनी खामोशी तोड़ने का फैसला किया है। इस पूरी दास्तान से यह बात हमारे सामने आएगी कि कैसे लश्कर-ए-तैयबा,  इंडियन मुजाहिदीन,  हूजी और न जाने किन-किन संगठनों के नाम पर बेगुनाह मुसलमानों को कभी एरिया कमाण्डर तो कभी मास्टर माइण्ड कहा जाता है, पर असल के मास्टर माइण्ड कौन हैं, ये अबूझा रह जाता है।
इस शख्स का नाम है- शौकत अली। उम्र- 45 वर्ष। पुत्र साबित अली।  गांव- श्रीनाथपुर, थाना कन्धई, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश। मैं जब इस शख्स से मिला तो मेरे दिमाग में एक खाका बनने लगा कि अगर इस शख्स ने अपनी खामोशी उन तमाम लोगों की तरह नहीं तोड़ी होती तो इसके बारे में हमें जो जानकारी मिलती या इसकी जो हालत होती वो बड़ी भयावह होती। शौकत पर यूपी एटीएस द्वारा आतंकवाद का ठप्पा लगाने से पहले ही उसकी जुबानी उसकी दास्तान को सुनने की कोशिश करते हैं।
शौकत उस दिन काफी परेशान हो गया। जब उसके भाई नासिर अली (40 वर्ष) को 11 जून 2012 को साढ़े दस बजे के तकरीबन जिला अस्पताल प्रतापगढ़ पहुंचने पर कुछ अनजान व्यक्तियों ने उससे पूछताछ की। नासिर जान गए कि वे एटीएस के लोग हैं। उन लागों ने इधर-उधर की बात करते हुए नासिर की पर्ची को जांचा। फिर उनका एक सहयोगी जो फोन पर था उसने पूछा कि इसे उठाना है,  तो पर्ची जांच चुके व्यक्ति ने कहा- अभी नहीं। नाशिर खुदा का शुक्र  कहते हुए कहते हैं कि उस दिन हमने लू के मारे अपने मुंह पर गमछा बांधा था, वे लोग पहचान नहीं पाए पर जब पर्ची देखा तो वे सन्तुष्ट हो गए, पर जब तक मैं अस्पताल में था वे वहीं रहे। जब मैं साइकिल से वहां से निकला तो वे पांचों अपने दो पहिया से वहां से निकल चले।
इसके पीछे की कहानी शौकत बताते हैं कि मैंने अपने मोबाइल नम्बर 08726692670 से 10 जून 2012 को दिन में 9 बजे के तकरीबन अपने मित्र मास्टर शमीम को फोन किया कि मैं कल 11 जून 2012 को अपने बेटे अब्दुल्ला अज्जाम को दिखाने के लिए जिला अस्पताल प्रतापगढ़ आउंगा। पर मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से नहीं जा सका। पर मेरे भाई अपने को दिखाने 11 जून 2012 को जब जिला अस्पताल गए तो उनसे हुई पूछताछ से यह बात स्पष्ट होती है कि मेरे मोबाइल को सर्विलांस पर लगाया गया है। ऐसे में जिस तरीके से उन लोगों ने भाई नासिर से कहा कि इसे नहीं उठाना है उससे यह भी स्पष्ट होता है कि वे मुझे उठाने की फिराक में थे। दरअसल मेरे भाई और मेरी शक्ल काफी मिलती जुलती है।
शौकत अली
 शौकत जब अपनी कहानी फ्लैश बैक से शुरु करते हैं तो उसमें कहीं ठहराव नहीं होता। ठहरती है तो बस उनकी जिन्दगी और एक संगठन जिसके इर्द-गिर्द उनके खिलाफ साजिशों दौर शुरु होता है। शौकत बीएससी करने के बाद एसआईएम जिसे अब सिमी कहा जाता है से जुड़े और फिर 1992 में बीएड करने के बाद 1995 से प्राइमरी अध्यापक के रुप में कार्य करने लगे।
2001 में एसआईएम के प्रतिबंधित होने के बाद देश के तमाम मुस्लिम नौजवानों की तरह शौकत भी खुफिया और बेनामी सादी वर्दियों के पूछताछ के आदी हो गए। और उन्हें लगने लगा कि जैसे वो उनके जीवन का हिस्सा हो गए हों। पर 2008 का दौर वे कभी नहीं भूलेंगे क्योंकि यह वह दौर था जब यूपी एटीएस की सादी वर्दियों के बूटों की आवाजें उनके दरवाजे गाहे-बगाहे कभी भी दस्तखत दे देती।
दरअसल,  2008 में शौकत के घर यूपी एटीएस की यह दस्तक इलाहाबाद के चक हिदायत उल्ला से आमिर महफूज की गिरफ्तारी के बाद शुरु हुई। 15 अगस्त 2008 के अमर उजाला प्रतापगढ़ के संस्करण में एक खबर छपी की इलाहाबाद से गिरफ्तार हुए आमिर महफूज को शौकत जाली नोट सप्लाई करता था। दरअसल इसके पीछे की कहानी कुछ और ही थी। 10-11 अगस्त 2008 में आमिर महफूज को घूरपुर (इलाहाबाद) के थाने वालों ने बुलाया कि तुम अपने बहनोई मौलाना अशफाक को बुलाओ तब तुम्हें छोड़ेगे। पुलिस वालों की अनुसार मौलाना अशफाक को लंबे समय से पुलिस खोज रही थी। इस बीच आमिर महफूज के घर वालों ने 12-13 अगस्त में डीएम-एसपी वगैरह को फैक्स कर दिया, जिसके बाद पुलिस ने कहानी बनाने के लिए 14 को उसे जाली नोटों के साथ गिरफ्तार करने का दावा किया।
शौकत को इस कहानी में लाने की वजह यह थी की मौलाना अशफाक जो मालेगांव के थे उससे शौकत के जरिए ही आमिर महफूज की बहन की शादी हुई थी। बहरहाल, खबर यह भी है कि आमिर महफूज पिछले दिनों छूट गया है और उसके जिस बहनोई को पुलिस बहुत खोजने का दावा कर रही थी लोग बताते हैं कि वो आज भी वहीं रहते हैं।
बहरहाल, यह कहानी शौकत की है। 2008 के स्वतंत्रता दिवस के दिन छपी इस खबर से ही शौकत को गुलामी की बेडि़या जकड़ने लगती हैं। इस बारे में शौकत से कोई सीधी पूछताछ नहीं की गई। बल्कि विकास क्षेत्र बेलखरनाथ धाम के जिस प्राथमिक विद्यालय नौहर हुसैनपुर में शौकत पढ़ाते थे के प्रधानाध्यापक राम प्रताप पटेल से एलआईयू के इस्पेक्टर ओपी पाण्डेय ने पूछतछ की। प्रधानाध्यापक से खास तौर पर आर्थिक स्थित, रहन-सहन, व्यवहार के बारे में पूछा गया। जब प्रधानाध्यापक ने कहा कि वो सामान्य रहन-सहन वाले व्यक्ति हैं और साइकिल से चलते हैं, मामूली मकान में रहते हैं तो एलआईयू इस्पेक्टर ने कहा कि आप सामान्य आदमी बता रहे हैं पर वो तो जाली नोट छापता है।
इन हालात में आस-पास के लोगों और स्कूल में अध्यापकों और छात्रों की निगाहों में शौकत अपने को दोषी मानने लगता है। हर नए चेहरे के सामने वह जवाब देने को तैयार हो उठता है। क्योंकि जब न तब कोई भी दरवाजे की कुंडी खटका देता और देर तक उससे पूछताछ के नाम पर एक लंबी खामोशी के लिए उसे तैयार कर चला जाता। भारतीय नागरिक से ज्यादा भारतीय मुसलमान होने के संकट से जूझ रहा शौकत देश की सुरक्षा के नाम पर जवाब दर जवाब देता रहा। पर उसे संदेह रहता था कि उसके हर जवाब से उसे किसी बड़ी साजिश में फसाने के सबूत गढ़े जा रहे हैं।
शौकत बताते हैं कि सितम्बर-अक्टूबर 2008 के तकरीबन एक दिन यूपीएटीएस के लोग मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे कहा कि प्रतापगढ़ की रानीगंज तहसील में एक आदमी तलहा अब्दाली रहता था। क्या तुम उसे जानते थे? मैंने अपनी जानकारी के अनुसार उन्हें बता दिया कि उससे मेरी मुलाकात को एक अरसा हो गया है। उससे पहली बार मेरी मुलाकात 98-99 के तकरीबन रानीगंज ईद मिलन समारोह में हुई थी। उसके बाद कभी कभार रानीगंज बाजार और प्रतापगढ़ शहर आते जाते उससे कभी-कभार मुलाकात हुई। उसके बाद लंबे समय से मेरी उससे कोई मुलाकात नहीं हुई। इसके बाद यूपीएटीएस के लोगों ने कहा कि हम तलहा को खोज रहे हैं अगर कोई जानकारी मिले तो हमें बताना। उन लोगों ने कहा कि तलहा प्रतापगढ़ के किसी स्कूल में अभी भी पढ़ाता है और साथ ही कहा कि वह तुम्हारे सम्पर्क में है। मैंने उनसे तलहा से किसी भी प्रकार के सम्पर्क और सम्बन्ध से इनकार कर दिया।
तलहा के बारे में पूछताछ का यह सिलसिला कईयों के साथ हुआ और हो भी रहा है। दरअसल, तलहा हो या फिर पिछले दिनों चर्चा में रहे यासीन भटकल उर्फ इमरान उर्फ शाहरुख और न जाने कौन-कौन ये सब खूफिया थ्योरी के क्रिएशन हैं। जिनको खूफिया खुद प्लांट करती है और उसके बाद उनके पीछे-पीछे अपनी जांच की फर्जी पटकथा रचती है। शौकत को फांसने की पटकथा भी इसी से मिलती-जुलती है।
प्रतापगढ़ की एसओजी में रहे हेमंत भूषण जब एटीएस में गए तो फरवरी-मार्च 2009 में फिर से वे तलहा की तफ्तीश में शौकत से मिले। शौकत बताते हैं कि वो कहते थे कि वे पूर्वांचल के एटीएस इन्चार्ज हो गए हैं। हेमन्त भूषण ने मुझसे कहा कि हमें लंबे समय से तलहा अब्दाली की तलाश है। क्या तुम्हारे पास उसका कोई फोटो है? मेरे मना करने के बाद कि मेरे पास उसका कोई फोटो नहीं है उन्होंने कहा कि वह देश की सुरक्षा के लिए एक खतरनाक व्यक्ति है। मुझसे उन्होंने पूछा कि कहां का रहने वाला था, तलहा अब्दाली? तो मैंने कहा कि उसने अपने बारे में बताया था कि वो बाराबंकी का रहने वाला है। इस बात पर हेमंत ने कहा कि नहीं वो सीतापुर का रहने वाला है। मैंने कहा कि मुझे नहीं मालूम। हेमन्त ने कहा कि आप को हमारा सहयोग करना चाहिए और कहीं से उसकी फोटो और जो भी जानकारी उपलब्ध हो सके उसे हमें बताएं। इसके बाद उनके साथ आए एक सिपाही से हेमन्त भूषण के सामने ही तय हुआ कि मैं अगले दिन रानीगंज क्षेत्र जाकर जिन लोगों से भी जानकारी प्राप्त हो सकती है, उन्हें प्राप्त कराऊं। उस दरम्यान 2009 लोकसभा चुनाव का दौर चल रहा था। मैंने रानीगंज पहुंचकर हेमन्त भूषण के सहयोगी एटीएस के सिपाही को फोन किया कि मैं रानीगंज आ गया हूं, आप आ जाइए। इस पर एटीएस के सिपाही ने नाराजगी जताते हुए कहा कि आप अकेले क्यों चले गए? साथ चलने की बात हुई थी जब। तो मैंने कहा कि यहां आकर जानकारी ही आपको इक्ट्ठा करनी थी तो मैंने सोचा कि मैं जब यहां आया हूं तो आपका भी यह काम कर दूं। इस पर उसने जानकारियों में कोई दिलचस्पी न दिखाते हुए कहा कि आप ही इक्ट्ठा कर लो। और आगे से साथ चलने को कहा जाय तो साथ ही चला करो।
दरअसल, यहां जानकारियां इकट्ठा करने की फिराक में एटीएस नहीं थी वो शौकत को कर्ही अनजान जगह से उठाने की फिराक में थी। क्योंकि जिस दिन शौकत को एटीएस अकेले बुलाने का यह प्रपंच कर रही थी, उसी दिन इलाहबाद के आमिर महफूज के भाई आरिफ महफूज को भी इलाहाबाद में उठाया था। पर पूर्व निर्धारित पटकथा में शौकत के अकेले जाने की हरकत ने पुलिस को एक कदम पीछे हटने को मजबूर किया और उसने आरिफ महफूज को भी छोड़ दिया।
शौकत बताते हैं कि बाद में एटीएस अधिकारी हेमन्त भूषण का फोन आया कि मैं उनसे इलाहाबाद या लखनऊ आकर मिलू। पर मैंने मना कर दिया कि जब मैं आपसे बात कर लेता हूं और जिस वक्त भी आप कहते हैं तो ऐसे में मेरा कहीं दूसरी जगह आने का क्या मतलब है। हेमंत बार-बार मुझे घर से कहीं दूर बुलाने की कोशिश करता। पर मैंने एटीएस के बारे में जिस तरह सुन रखा था, वैसे में मैं कहीं दूसरी जगह अकेले में एटीएस वालों से मिलना मुनासिब नहीं समझता था।
एटीएस के हेमन्त भूषण से इस मुलाकात के दस-पन्द्रह दिन बाद ही शौकत की पत्नी फरीदा महजबीन द्वारा संचालित स्कूल शहपर पब्लिक स्कूल, आजादनगर प्रतापगढ़ में शौकत के नाम से एक कोरियर आया। इस कोरियर को भेजने वाले का नाम तलहा अब्दाली था और यह कोरियर इलाहाबाद से भेजा गया था। जिस पर बाराबंकी का पता लिखा था। शौकत बताते हैं कि इस कोरियर में एक उर्दू भाषा में लिखा पत्र था जो मेरे नाम से संबोधित था। जिसमें लिखा था कि मुझे लश्कर-ए-तैयबा का एरिया कमाण्डर बना दिया गया है, आपके स्कूल में असलहे छिपा दिए गए हैं। इस पत्र में एक महत्वपूर्ण बात के रुप में यह लिखा था कि खवातीन (महिला) की विंग भी कायम हो चुकी है। यह पत्र मिलने के साथ ही आप अपना काम शुरु कर दीजिए।
इस पत्र के मिलने के बाद शौकत और उसका पूरा परिवार डर व दहशत में आ गया। दूसरे ही दिन शौकत ने जिलाधिकारी और एसपी को एक पत्र के माध्यम से इस पत्र के बारे में सूचित करते हुए इस पत्र की फोटो कापी नत्थी कर उन्हें प्रेषित कर दिया। इसके बाद शौकत को लगा कि एटीएस भी तलहा के बारे में पूछताछ कर रही है और उसके नाम से ही पत्र आया है तो ऐसे में एटीएस को सूचित कर देना चाहिए। शौकत ने एटीएस अधिकारी हेमंत भूषण को फोन किया और कोरियर आए पत्र का पूरा ब्योरा दिया। हेमन्त ने आकर शौकत से उस खत की मूल प्रति ले ली और कहा कि क्या जरुरत थी एसपी-डीएम को बताने की, मुझसे पहले बताया होता। चलो अब तो बता ही दिया, लेकिन अब जो भी हो पहले मुझे बताना। शौकत ने इसके बारे में एलआईयू को भी सूचित कर दिया था।
शौकत से इस पत्र के बारे में आईबी ने भी पूछताछ की। पर लंबे समय तक जब प्रशासनिक हल्के से को कोई जानकारी नहीं मिली तो उसने सूचना अधिकार के तहत एसपी कार्यालय से जानकारी मांगी। इतने गंभीर सवाल पर प्रतापगढ़ का एसपी कार्यालय शौकत को सूचना से वंचित रखा।
शौकत बताते हैं कि हेमन्त का मुझे लगातार फोन आता कि मुझसे डीआईजी साहब बात करना चाहते हैं, मैं आकर उनसे मिल लूं। मैंने हेमन्त से कहा कि आप तो जानते ही हैं कि मेरी आठ साल की बच्ची हाजरा जो सेरिब्रल पालिसी से पूरी तरह से मानसिक और शारीरिक रुप से विकलांग है और उसकी देख-रेख के चलते मैं कहीं जा नहीं पाता हूं। ऐसे में जो भी बात करनी है आप मुझसे फोन पर बात कर लें। मैं कहीं नहीं आ पाउंगा। हेमन्त का बार-बार जोर रहता कि मैं घर से दूर कहीं उससे मुलाकात करुं।
यूपी एटीएस की इस आपराधिक पूछताछ में शौकत ने भाई वाहिद अली (25 वर्ष) को एक खतरनाक बीमारी की चपेट में जाते देखा। वो घर आने-जाने वाले व्यक्ति और अनजान व्यक्ति से डरने लगा। वो इस डर में कपड़े निकाल कर फेकना और इस तरह की तमाम पागलपन की हरकतें करने लगा है। जिसका इलाज उसने नूर मंजिल लाल बाग, लखनऊ में साइक्रेटिक के डाक्टर एस नायडू से करवाया। आज वो फिर से हो रही इस पूछताछ से परेशान हो रहा है। इस पूरी पूछताछ ने शौकत के पूरे पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया है।
पर एटीएस कहां रुकने वाली थी। अक्टूबर 2009 में एटीएस अधिकारी हेमन्त भूषण 26/11 की बाम्बे की घटना का टेलीफोनिक टेप लेकर शौकत के विद्यालय नवहर हुसैनपुर आए। शौकत को टेप सुनाकर हेमंत ने पूछा कि क्या यह आवाज तलहा अब्दाली की है। तो शौकत ने कहा कि मेरी याददाश्त की हद तक तलहा अब्दाली की आवाज नहीं लगती। इस पर हेमन्त भूषण ने मुझसे कहा कि आजकल वो इंडिया से बाहर है, हो सकता है उसकी आवाज बदल गई हो। तो मैंने उनसे साफ कहा कि मैं आवाज पहचानने में असमर्थ हूं।
28 फरवरी 2012 को कुछ लोग आजमगढ़ एटीएस कहकर शौकत से मिले। शौकत बताते हैं कि वो लोग बीआरसी शीतलागंज जहां पर मेरा विभागीय प्रशिक्षण चल रहा था वहां आए पहले आकर उन्होंने मुझसे सिमी के बारे में और उनके लोगों के बारे में पूछताछ की। उसके बाद उन लोगों ने तलहा के बारे में पूछताछ की कि वह प्रतापगढ़ कब आया कब तक रहा। वहां पर किन-किन लोगों से उसके सम्बन्ध और रहे। रानीगंज के अब्दुल कादिर अंसारी के बारे में तफसील से पूछताछ की और उसके घर के लोकेशन के बारे में पूछा। जो व्यक्ति मुझसे प्रमुख रुप से बात कर रहा था उस व्यक्ति का नाम अश्वनी था, जो घंटो की बातचीत में कुछ बात करने के बाद फोन पर दूर हट कर बात करने लगता। उनका प्रयास था कि मैं उनके साथ चलूं। लेकिन मैंने उनके साथ चलने के उनके प्रस्ताव को टाल दिया।
शौकत बताते हैं कि 12 मई 2012 को लखनऊ एटीएस के नाम पर कुछ लोग फिर उसके घर आए। उन्होंने बताया कि वे रानीगंज से होकर आए हैं। जहां तलहा अब्दाली रहता था। उन्होंने बहुत सारे नाम पूछ-पूछकर मुझसे उनके बारे में जानना चाहा। जो नाम मुझे याद है वो कुछ इस तरह के थे- शाहबाज (भदोही), अब्दुल कयूम (लखीमपुर खीरी), खालिद (आजमगढ़), इस्माल, रियाज भटकल आदि। इन बातों में एक खास बात यह रही की उन्होंने शहबाज के बारे में पूछते हुए कहा कि शहबाज लश्कर वाला और फिर उन्होंने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा कि आप भी तो लश्कर के ही हैं न? उन्होंने मुझसे पूछा कि आप को मालूम है, तलहा पकड़ा गया? जब मैंने कहा कि नहीं तो उन लोगों ने कहा हम ही ने पकड़ा है, कोई बच नहीं पाएगा। मुझसे मेरी फोटो मांगी जब मैंने कहा कि नहीं है तो उन लोगों ने मोबाइल से मेरी फोटो खींची। उन लोगों ने मेरे पूरे परिवार की डिटेल ली। जाते-जाते कहा कि जरुरत पड़ी तो आपको लखनऊ एटीएस आॅफिस बुलाया जाएगा।
अब शतरंज की इस आतंकी बिसात पर शौकत एटीएस का एक मोहरा है, जिसे वो कभी भी चल देना चाहती है। इसी तरह सीतापुर के रहने वाले शकील से भी लंबे समय तक पूछताछ कर उस पर आतंकवाद का आरोप लगा दिया। यहां गौर करने की बात है कि शकील को फरवरी में गिरफ्तार किया और उसी दरम्यान शौकत पर भी एटीएस का शिकंजा फिर से मजबूत हुआ। दूसरे कि शकील को 12 मई 2012 को दिल्ली एटीएस ने दुबग्गा लखनऊ से उठाया और उसी दिन यूपी एटीएस जो शकील की गिरफ्तारी से पल्ला झाड़ रही है वो शौकत के घर गई। अब सवाल तलहा अब्दाली का है कि आखिर वो कौन है तो इसका जवाब भी एटीएस के हेमंत ने शौकत को फरवरी-मार्च 2009 के तकरीबन ही दे दिया था। जब हेमंत ने शौकत से पूछा कि तलहा कहां का है तो उसने बताया कि बाराबंकी का तो हेमंत ने कहा कि नहीं सीतापुर। अब हो न हो यह पूरी खूफिया थ्योरी बशीर पर आकर टिकती है। बशीर, शकील का बहनोई है और उसे 5 फरवरी 2012 को उन्नाव से उठाया गया था, जो बाराबंकी का रहने वाला है और सीतापुर में लंबे समय तक रहा है।
यहां अहम सवाल यह है कि अगर तलहा अब्दाली हो या फिर कोई और जब वह गिरफ्तार कर लिया गया तो शौकत से किस तरह की पूछताछ? शौकत कहते हैं कि मैं चाहता हूं की सरकार सालों-साल से चल रही मेरी इस पूछताछ की जांच करवाए। इसने मेरे पूरे परिवार को तबाह कर दिया। मैंने देश की सुरक्षा के सवाल पर उनकी हर स्तर पर मदद की। पर आज मैं जब स्कूल में अपने बच्चों के सामने खड़ा होता हूं तो नजर नहीं मिला पाता हूं। क्योंकि जब न तब एटीएस के लोग मेरे स्कूल में आ धमकते हैं। मैंने इस चुप्पी में अपने भाई के पागलपन को देखा है कि किस तरह वो हर नई आहट से डर जाता है।
शौकत की इस दास्तान को सुनते-सुनते रात के दस बज गए। हमने उनसे कहा कि इतनी रात कहां जाएंगे। तो शौकत का जवाब था, बेटी परेशान होगी, मेरी पत्नी को भी पैरों से दिक्कत है?

न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत

अंजनी कुमार
8 जून 2012... सेशन कोर्ट, इलाहाबाद। सुबह 11 बजे से न्याय के इंतज़ार में हम लोग खड़े थे। सीमा आज़ाद और विश्वविजय कोर्ट में हाजि़र नहीं थे। वकील ने बताया कि जज साहब दोपहर बाद ही बैठेंगे, वह अभी भी 'न्याय' को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं। हम लोगों के लिए इस व्यस्तता को जान पाना व देख पाना संभव नहीं था। कमरा न. 23 के आसपास गहमागहमी बनी हुई थी। तेज धूप और उमस में छाया की तलाश में हम आसपास टहल रहे थे, बैठ रहे थे और बीच-बीच में कोर्ट रूम में झांक आ रहे थे कि जज साहब बैठे या नहीं। सीमा की मां, बहन, भाई, भांजा व भांजी और कई रिश्तेदार व पड़ोसी इस बोझिल इंतज़ार को एक उम्मीद के सहारे गुज़ारने में लगे थे। मैंने अपने दोस्त विश्वविजय के चचेरे भाई और वकील के साथ बातचीत और इलाहाबाद विश्वविद्यालय को देख आने में गुज़ार दिया।

विश्‍वविजय और सीमा आज़ाद
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उस लॉन में जहां हम लोगों ने पहला स्टडी सर्किल शुरू किया था, वहां बैठना मानो एक शुरूआत करने जैसा था। 1993 में बीए की पढ़ाई करते हुए विकल्प छात्र मंच और बाद में इंकलाबी छात्र सभा को बनाने का सफ़र यहीं से हमने शुरू किया था। विश्वविजय रिश्ते में भवदीय था लेकिन छात्र जीवन और राजनीति में हमसफ़र। हम आपस में बहुत लड़ते थे। इस लड़ने में हम लोगों के कई हमसफ़र थे। हम जितना लड़ते, हमारे स्टडी सर्किल और संगठन का विस्तार और उद्देश्यों की एकजुटता उतनी ही बढ़ती गई। 1996 के अंत में मैं गोरखपुर चला गया। इलाहाबाद से प्रस्थान करने तक विश्वविजय शाकाहारी से मांसाहारी हो चुका था, खासकर मछली बनाने में माहिर हो चुका था। वह एक अच्छा कवि बन चुका था और प्रेम की धुन में वह रंग और कूची से प्रकृति को सादे कागज़ पर उतारने लगा था। उसके बात करने में व्यंग्‍य और विट का पुट तेजी से बढ़ रहा था। 1997 में गांव के और वहां के छात्र जीवन के अध्ययन व इंकलाबी छात्र सभा के सांगठनिक विस्तार के लिए मैं पूर्वांचल के विशाल जनपद देवरिया चला गया। बरहज, लार, सलेमपुर, गौरीबाजार, चौरीचौरा, खुखुन्दु आदि कस्बों व गांवों पर वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की गहरी पकड़ बढ़ती जा रही थी। दो बार लगभग 35 किमी का लंबा दायरा चुनकर रास्ते के गांवों का अध्ययन किया। इसमें न केवल गांव की जातीय व जमीन की संरचना एक हद तक साफ हुई, साथ ही अपने जातीय व वर्गीय पूर्वाग्रह भी खुल कर सामने आए। इस बीच विश्वविजय से मुलाकात कम ही हुई। इंकलाबी छात्र सभा के गोरखपुर सम्मेलन में विश्वविजय से मुलाकात के दौरान वह पहले से कहीं अधिक परिपक्व और मज़बूत लगा। वह छात्र मोर्चे में पड़ रही दरार से चिंतित था। 1999 में मैं बीमार पड़ा। महीने भर के लिए इलाहाबाद आया। उस समय तक इंकलाबी छात्र सभा की इलाहाबाद इकाई में दरार पड़ चुकी थी। आपसी विभाजन के चलते साथियों के बीच का रिश्ता काफी तंग हो चुका था। इन सात सालों में हम सभी दोस्तों के बीच जो बात मुख्य थी वह सामाजिक सरोकारों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना थी और लोगों को पंगु बनाने की नीति के प्रति गहरी नफ़रत थी। सन 2000 में ऑपरेशन के लिए दिल्ली आना पड़ा और फिर यहीं का होकर रह गया। इस बीच विश्वविजय से बहुत कम मुलाकात हुई। दो बार गांव में और दो बार इलाहाबाद। मेरा इंकलाबी छात्र सभा से रिश्ता टूट चुका था। विश्वविजय इस मोर्चे पर डटा रहा। वह इस बीच गांवों के हालात के अध्ययन के लिए इलाहाबाद के आसपास गया। उसने मुलाकात के समय फूलपुर के किसानों और शंकरगढ़ के दलित व आदिवासी लोगों के जीवन के बारे में काफी कुछ बताया। बाद के दिनों में विश्वविजय से सबसे अधिक मुलाकात और बात नैनी जेल में हुई। हम दोनों के बीच लगभग बीस सालों के बातचीत के सिलसिले में परिवार का मुद्दा हालचाल जानने के उद्देश्य से आता था। लेकिन इस 8 जून को यह सिलसिला भी टूट गया।
शाम पांच बजे 'न्याय की इबारत' सुनने के बाद सारी बेचैनी को समेटे हुए कोर्ट से बाहर आने से पहले विश्वविजय से गले मिला और कहा- 'जल्दी ही जेल में मिलने आऊंगा।' वह काफी शांत था। व्यंग्‍य और विट की भाषा कभी न छोड़ने वाला विश्वविजय मेरा हाथ पकड़े हुए भवदीय रिश्ते की भाषा में लौट आया। मानो लगा कि हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए हों- गांव से आए हुए दो नवयुवकों और हम दोनों को गाइड करने, भोजन बनाकर खिलाने वाले मेरे अपने बड़े भाई के सान्निध्‍य में। मेरे बड़े भाई हम दोनों के इलाहाबाद आने के बाद एक साल में ही नौकरी लेकर इलाहाबाद से चले गए। और फिर भाईपने से मुक्त हम दोनों अलग-अलग इकाई थे। और इस तरह हम एक जुदा, स्वतंत्र और एक मक़सद की जि़ंदगी जीते हुए आगे बढ़ते गए। हमारा समापवर्तक जो बन गया था, उससे हमारा परिवार भी चिंतित था। पर, उस कोर्ट में हम 1992 की चौहद्दी पर लौट गए थे। विश्वविजय कोर्ट में जिम्मेदारी दे रहा था- ''अम्मा बाबूजी को संभालना...हां...ख्याल रखना...।' मैं कोर्ट से बाहर आ चुका था।
लौटते समय मेरा दोस्त संयोगवश मुझे उन्हीं गलियों से लेकर गया जहां मेरे गुरु और हम लोगों के प्रोफेसर रहते थे, जहां हमने इतिहास और इतिहास की जि़म्मेदारियों को पढ़ा और समझा था। यहीं मैंने लिखना सीखा, यहीं अनगढ़ कविता को विश्वविजय ने रूप देना सीखा। हम उन्हीं गलियों से गुज़र रहे थे- अल्लापुर लेबर चौराहे से- मज़दूरों और नौकरी का फॉर्म भरते व शाम गुज़ारते हज़ारों युवा छात्रों की विशाल मंडी से। इन रास्तों से गुज़रना खुद से जिरह करने जैसा था। सिर्फ सीमा और विश्वविजय के साथ कोर्ट में न्यायाधीश के द्वारा किए व्यवहार से, उसके 'न्याय' से जूझना नहीं था। हम जो पिछले बीस साल गुज़ार आए हैं, जिसमें हमारे लाखों संगी हैं और लाखों लोग जुड़ते जा रहे हैं, उनकी जि़ंदगी से जिरह करने जैसा।
लगभग छह महीने पहले गौतम नवलखा ने सीमा आज़ाद का एक प्रोफाइल बनाकर भेजने को कहा। मैंने लिखा और भेज दिया। उसे उस मित्र ने कहां छापा, पता नहीं। मैं इस उम्मीद में बना रहा कि आगे विश्वविजय और सीमा का प्रोफाइल लिखने की ज़रूरत नहीं होगी। कई मित्रों ने कहा कि लिखकर भेज दो, पर एक उम्मीद थी सो नहीं लिखा। लिखना जिरह करने जैसा है। इस जिरह की जरूरत लगने लगी है। यह जानना और बताना ज़रूरी लगने लगा है कि सीमा और विश्वविजय के जीवन का मसला सिर्फ मानवाधिकार और उसके संगठन से जुड़कर चलना नहीं रहा है। सीमा एक पत्रिका की संपादक थी और उससे सैकड़ों लोग जुड़े हुए थे। विश्वविजय छात्र व जनवाद के मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहा। और कम से कम इलाहाबाद के लोगों के लिए कोई छुपी और रहस्यपूर्ण, षडयंत्रकारी बात नहीं थी यह। यह एक ऐसा खुला मामला था जिसे सारे लोग जानते थे और कार्यक्रमों के हिस्सेदार थे। सीमा आज़ाद का यह प्रोफाइल अपने दोस्तों के लिए एक रिमाइंडर की तरह है:

6 फरवरी 2010 की सुबह इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर रीवांचल टेªन से उतरते ही सीमा व उनके पति विश्वविजय को माओवादी होने व राज्य के खिलाफ षडयंत्र रचने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दोनों के ऊपर यूएपीए- 2005 के तहत मुकदमा ठोक दिया गया। इसके बाद कोर्ट में एक के बाद एक ज़मानत की अर्जी पेश की गई, पर हर बार यह अर्जी खारिज कर दी गई। ज़ाहिरा तौर पर ज़मानत न देने के पीछे सीमा आज़ाद के खतरनाक होने का तमगा ही राज्य के सामने अधिक चमक रहा होगा। आज जब लोकतंत्र पूंजी, कब्ज़े व लूट की चेरी बन जाने के लिए आतुर है, तब खतरनाक होने के अर्थ भी बदलता गया है। मसलन, अपने प्रधानमंत्री महोदय को युवाओं का रेडिकलाइजेशन डराता है। इसके लिए राज्य मशीनरियों को सतर्क रहने के लिए वे हिदायत देते हैं। सीमा आज़ाद उस दौर में रेडिकल बनीं जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री नहीं हुआ करते थे। तब उन्होंने विश्व बैंक के तहखानों से निकल कर इस देश के वित्त मंत्री का पद संभाला था। साम्राज्यवादियों के इशारे पर उन्होंने खुद की बांह मरोड़ लेने की बात कही थी। इसके बाद तो पूरे देश के शरीर को ही मरोड़ने का सिलसिला चल उठा। उस समय सीमा आज़ाद का नाम सीमा श्रीवास्तव हुआ करता था। उसने इलाहाबाद से बीए की पढ़ाई की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एमए किया। 1995 तक ब्रह्मांड की गतिविधियों में ही उसकी ज्यादा रुचि बनी रही। बृहस्पति के चांद जो लड़ी की तरह दिखते हैं उसे वह टेलीस्कोप से घंटों देखती रहती थी। देर रात तक ग्रहों व तारों की तलाश में वह पिता से कितनी ही बार डांट खा चुकी थी। उस समय तक देश पर उदारीकरण की अर्थनीति का राजनीति व आम जीवन पर असर खुलकर दिखने लगा था। सीमा ने ब्रह्मांड की गतिकी को जेडी बरनाल की पुस्तक हिस्टरी ऑफ साइंस के माध्‍यम से समाज की गतिकी के साथ जोड़कर देखना शुरू किया। समसामयिक विज्ञान व दर्शन में आई हुई रुकावट में उसने अपने समाज की गति के सामने बांध दिए गए बंधों को समझना शुरू किया। 1995-96 में छात्र व महिला मोर्चे पर उसकी गतिविधियां बढ़ने लगीं। जूलियस फ्यूचिक की पुस्तक 'फांसी के तख्ते से' को पढ़कर वह सन्नाटे में आ गई थी। उसे पहली बार लगा कि समाज की गति पर बनाई गई भीषण रुकावटें वहीं तक सीमित नहीं हैं। ये रुकावटें तो मनुष्य के जीवन की गति पर लगा दी जाती हैं। सीमा श्रीवास्तव नारी मुक्ति संगठन के मोर्चे पर 2001 तक सक्रिय रहीं जबकि इंकलाबी छात्र मोर्चा के साथ बनी घनिष्ठता 2004 तक चली। सीमा ने प्रेम विवाह किया और फिर घर छोड़ दिया। नाम के पीछे लगी जाति को हटाकर आज़ाद लिखना शुरू किया। यह एक नई सीमा का जन्म था- सीमा आज़ाद। उसने पैसे जुटाकर बाइक खरीदी। समाचार खोजने के लिए वह लोगों के बीच गई। लोगों की जिंदगी को खबर का हिस्सा बनाने की जद्दोजेहद में लग गई। उसकी खबरें इलाहाबाद से निकलने वाले अखबारों में प्रमुखता से छपती थीं। वह इलाहाबाद शहर के सबसे चर्चित व्यक्तित्वों में गिनी जाने लगी थी। वह मानवाधिकार, दमन-उत्पीड़न, राजनीतिक-सामाजिक जनांदोलनों, किसान-मजदूरों के प्रदर्शनों का अभिन्न हिस्सा होती गई। उसने जन मुद्दों पर जोर देने व समाज और विचार से लैस पत्रकारिता की ज़रूरत के मद्देनज़र 'दस्तक-नए समय की पत्रिका' निकालनी शुरू की। पत्रिका को आंदोलन का हिस्सा बनाया। उसने हज़ारों किसानों को उजाड़ देने वाली गंगा एक्सप्रेस वे परियोजना के खिलाफ पत्रिका की ओर से गहन सर्वेक्षण किया। इस परियोजना से होने वाले नुकसान को बताने के लिए इसी सर्वेक्षण को पुस्तिका के रूप में छाप कर लोगों के बीच वितरित किया। आज़मगढ़ में मुस्लिम युवाओं को मनमाना गिरफ्तार कर आतंक मचाने वाले एसटीएफ व पुलिस की बरजोरी के खिलाफ दस्तक में ही एक लंबी रिपोर्ट छापी। सीमा की सक्रियता मानवाधिकार के मुद्दों पर बढ़ती गई। वह पीयूसीएल- उत्तर प्रदेश के मोर्चे में शामिल हो गई। उसे यहां सचिव पद की जि़म्मेदारी दी गई। सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी के समय तक उत्तर प्रदेश में युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी सामने थी जो मुखर होकर मानवाधिकारों का मुद्दा उठा रही थी। पतित राजनीति, लूट करने वाली अर्थव्यवस्था, बढ़ती सामाजिक असुरक्षा, दंगा कराने की राजनीति और अल्पसंख्यकों व दलितों के वोट और उसी पर चोट करने की सरकारी नीति के खिलाफ बढ़ती सुगबुगाहट राज्य व केंद्र दोनों के लिए खतरा दिख रही थी। इस सुगबुगाहट में एक नाम सीमा आज़ाद का था। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से किताब खरीद कर लौट रही सीमा को देश की सुरक्षा के लिए खतरा घोषित कर उनके पति के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। जब देश प्रेम व देश द्रोह का अर्थ ही बदल दिया गया हो तब यह गिरफ्तारी एक प्रहसन के सिवा और क्या हो सकती है!
 
सीमा और विश्वविजय को देश के खिलाफ षडयंत्र के अभियोग में दस-दस साल का कठोर कारावास और दस-दस हज़ार रुपये का दंड और देशद्रोह के मामले में दोनों को आजीवन कारावास और बीस-बीस हज़ार रुपये का दंड दिया गया। प्रतिबंधित साहित्य रखने के जुर्म में अलग से सजा। यूएपीए की धाराओं 34ए, 18ए, 20ए, 38 और आईपीसी के तहत कुल 45 साल का कठोर कारावास और आजीवन कारावास की सज़ा दोनों को दी गई। दोनों को ही बराबर और एक ही सज़ा दी गई। इन धाराओं और प्रावधानों पर पिछले दसियों साल से बहस चल रही है। ऐसा लग रहा है कि न्याय की बैसाखी पर मौत की इबारत लिख दी गई है। जो बच जा रहा है उनके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, पर ईश्वर पर भरोसा करने वाले लोग इसे भगवान की महिमा कहते हैं।

8 जून को कोर्ट में सीमा के पिताजी नहीं आए। वे निराशा और उम्मीद के ज्वार-भाटे में खाली पेट डूब उतरा रहे थे। उस रात वह घर किस तकलीफ से गुज़रा होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। विश्वविजय के अम्मा और बाबूजी केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा पर थे। शायद कोई महिमा हो जाय। मैं खुद पिछली सुनवाइयों को सुनने और न्यायाधीश के रिस्‍पॉन्‍स से इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि सेशन कोर्ट इतिहास रचने वाला है। मैं अपनी आकांक्षाओं में डूबा हुआ इतिहास रचना के चारित्रिक गुण को ही भूल गया। यह भूलना न तो सायास था और न ही अनायास। बस एक आकांक्षा थी, एक सहज तार्किक इच्छा थी, कि सीमा-विश्वविजय को अब बाहर आ जाना चाहिए और कि यह न्यायाधीश थोड़ा ढंग से सुन और गुन रहा है। हम जेलों में बंद उन लाखों लोगों को भूल ही गए जिन्हें देशद्रोह के आरोप में बेल पर भी नहीं छोड़ा गया है। हम भूल ही गए कि अब तक हज़ारों लोगों को इन्हीं आरोपों के तहत गोली मार दी गई और उसे जेनुइन इनकाउंटर बता दिया गया। हम मनोरमा देवी से लेकर सोनी सोरी तक इतिहास को भूल ही गए। हम भूल ही गए कि देश और देश का भी चारित्रिक गुण होता है। हम भूल ही गए कि शासकों का अपना चरित्र होता है। हम भूल ही गए संसद में बैठे चेहरों का राज़, हम भूल ही गए भूत बंगले की कहानी, हम भूल ही गए गुजरात और बिहार, हम भूल ही गए पाश और फैज़ की नज्‍़म... हम भवदीय आकांक्षाओं में डूबे हुए लोग न्याय की बैसाखी पर उम्मीद की एक किरण फूट पड़ने का इंतजार कर रहे थे...।
यह लिखते हुए इंकलाबी छात्र सभा के हमसफ़र साथी कृपाशंकर- जो कानपुर जेल में है और जिससे मिले हुए सालों गुज़र गए और अब तक मिल पाना संभव नहीं हो पाया- की याद ताज़ा हो आई। वह किस हालात में है, नहीं जानता पर सीमा और विश्वविजय के सामाजिक जीवन को मिला दिया जाय तो उसका प्रोफाइल बनकर तैयार हो जाएगा। गणित, विज्ञान, दर्शन और उतावलेपन का धनी यह मेरा दोस्त जेल की सींखचों में कैसे बंद जीवन जी रहा है, इसे याद कर मन तड़प उठता है। सन 2000 में ऑपरेशन कराने के बाद मैं देहरादून एक साल के लिए रहा। उस समय वह रेलवे की नौकरी में चला गया था। 2002 के आसपास वह मुझसे दिल्ली में मिला और बताया कि उसने नौकरी छोड़ दी है। उसने मुझे बधाई दी। उस समय मैं जनप्रतिरोध का संपादन कर रहा था और एआईपीआरएफ के लिए जनसंगठनों का मोर्चा बनाकर किसान व मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ धरना-प्रदर्शन में भागीदार हो रहा था। इराक पर हमले के लिए खिलाफ व्यापक संयुक्त मोर्चे में काम करते हुए मैं दिल्ली वाला बन रहा था। और उसने अपने बारे में बताया कि वह किसान मोर्चे पर काम करने का निर्णय ले रहा है और कि वह जल्दी ही नौकरी छोड़ देगा। इस साथी से मुलाकात कर इस बीच के गुज़रे समय के बारे में उससे ज़रूर पूछना है। हालांकि यह पूछना एक औपचारिकता ही होगी। आज के दौर में जनसरोकार और इतिहास की जि़म्मेवारियों में हिस्सेदार होने का एक ही अर्थ है: जनांदोलनों के साथ जुड़ाव और जन के साथ संघर्ष। जिस देश की अर्थव्यवस्था पर सूदखोरों और सट्टेबाजों की इस कदर पकड़ बन चुकी हो कि प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक देश के भविष्य के बारे में सट्टेबाजों की तरह अनुमान लगाने लगे हों, वहां लोगों के सामने दो ही तरह का भविष्य बच रहा है- एक: जिस हद तक हो इस देश को लूट लिया जाय (जिसका परिदृश्य खुलेआम है)। दो: जन के साथ हिस्सेदार हो लूट और कत्लेआम से खुद को और देश को बचा लिया जाय (इस परिदृश्य पर देशद्रोह, नक्सलवाद, माओवाद, आतंकवाद की छाया है)।
यह विकल्प नहीं है। यह अस्तित्व का विभाजन है, जिसे मध्यवर्ग विकल्प के तौर पर देख रहा है और चुन रहा है। यह इसी रूप में हमारे सामने है। आइए, जनांदोलनों और जनसंघर्षों के हिस्सेदार लोगों के पक्ष में अपनी एकजुटता बनाएं और जेलों में बंद साथियों को न्याय की बैसाखियों पर लिखी मौत की इबारत से मुक्त कराने के लिए अपनी एकजुटता ज़ाहिर करें और उनकी रिहाई के लिए जनसमितियों का निर्माण करें।
 लेखक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जनपथ से साभार