मनीष शांडिल्य
मीडिया के साथ हमारे रिश्ते अनिवार्य हैं और अब तो प्रतिपल यह रिश्ता जुडा है हमसे इस सूचना विस्फोट के युग में एक एसएमएस ताजा तरीन खबरें उपलब्ध हो जाते है. मोबाइल टीवी तो अगला बडा कदम होगा इस क्षेत्र में मीडिया के साथ हम अपने रिश्तों को इन दो उदाहरणों से अच्छी तरह से समझ सकते हैं. इन दो उदाहरणों से हम यह समझ सकते हैं कि मीडिया किस तरह हमारे जीवन में रच-बस चुका है. पहला तो यह कि 'या ऐसा नहीं होता कि जिस दिन अखबार की छुट्टी हो, उस सुबह हम एक बार जरूर पूछ बैठते हैं कि आज अब तक अखबार 'यों नहीं आयाङ्क्ष दूसरा यह कि कुछ ज्यादा देर तक केबल लाइन ऑफ रहते ही या तो आप पडोसी से पूछ-ताछ कर लेते होंगे या फिर पडोसी आपसे केबल की खबर ले लेते होंगे. पर वर्तमान में यह रिश्ता सिव इन रिलेशनसिप के साथ एक हद तक लब एण्ड हेट रिलेशन में तब्दील हो चुका है. आज एक जागरूक दर्शक या पाठक समाचार देख पठ कर तीखी टिप्पणी किये बिना नहीं रहता. पर यह भी सच है कि टिप्पणी करने के लिए समाचार देखना-पढना जरूरी है.
व्यक्ति से आगे बढते हुए हम समाज की बात करें तो, देश की बात करें तो यह कहा जाता है कि पत्रकारिता देश और समाज का आईना होती है. एक ऐसा आईना जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि उसे हम सोने और चांदी में जड कर भी रखें तो वो झूठ नहीं बोलेगा. पर वर्तमान में यह आईना पूरी तसवीर प्रतिबिंबित नहीं करता. आज जब पत्रकारिता में ख्याति, पैसा और हैसियत सब है अर्थात जब इस आईने को सूचना विस्फोट के युग में सोने और चांदी में जड दिया गया है तब यह आईना झूठ नहीं तो कम-से कम अर्धसत्य दिखा रहा है. मीडिया ने समाचार को 'सचमार' में तब्दील कर दिया हैं. आज मीडिया कई बार ऐसे ढोंग करता है कि लोग उसके बहकावे में आ जाते है. ऐसा लगता है मीडिया बार-बार झूठ दिखाकर उसे सच में तब्दील करने की कोशिश कर रहा है. चाहे आरक्षण विरोधी आंदोलन का कवरेज हो, राम सेतु का मामला हो या फिर यूपी विधानसभा चुनाव का मतदान पूर्व सर्वेक्षण हो इन सब उदाहरणों में हम देख सकते हैं कि मीडिया किस का हित साधने का प्रयास कर रहा है, वह किसके साथ खडा है. आज सिनेमा, क्राइम, क्रिकेट और कामेडी के चार सी ही मीडिया (खासकर टीवी जगत) के चार खंभे हैं और कॉमन मैन का पांचवा 'सी' यहां कोई मायने रखता.
आंकडे व सर्वेक्षण भी यहीं कहते हें. सीएमएस मीडिया लैब ने २००७ में छह राष्ट्रीय समाचार चैनलों के कुल समाचार समय का प्रतिशत निकला. आंकडे चौकाने वाले थे. राष्ट्रीय समाचार चैनलों से सबसे ज्यादा समय खेल(क्रिकेट) पर खर्च किया. कुल समाचार समय में खेल पर १७.३७ प्रतिशत खर्च हुआ. उसमें बाद मनोरंजन पर १६.१५ प्रतिशत अपराध पर ११.८३ प्रतिशत राजनीति पर १०.०९ प्रतिशत समय समाचार चैनलों ने खर्च किया. पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि जैसे मुों में किसी पर भी कुल समय का एक प्रतिशत तक भी खर्च नहीं किया गया. गंभीर खबरों पर चटपटे समाचारों के भारी पडने पर एक पुरानी इतावली फिल्म बरबस याद आती है. जिसमें दिखाया गया था कि ईश्वर ने संत को कैमरा दिया और उसे शैतान ले भागा. ज्यादातर चैनलों व अखबारों की प्राथमिकता देखकर अब यह बिना किसी संकोच से कहा जा सकता है कि आज समाचार एक उत्पाद हैं. वर्तमान मीडिया समूह मूल्य, मानदंड और आदर्शों को टॉग कर अपने उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रख कर अपनी संपादकीय नीति तय कर रहे है. वर्तमान युग उदारीकरण का युग है, जिसमें पूंजी वर्चस्व के मोहन रूप के कारण जड और प्रतिगामी मूल्यों को वरीयता दी जा रही है पर अगर समाचार को अब उत्पाद बना दिया गया है तो यह शायद भविष्य में एक हथियार का रूप भी ले सकता है. एक ऐसा हथियार जिसका प्रयोग पाठक दर्शक जनहित में कर सकेंगे. दर्शकों पाठकों के सचेत ग्राहक बनते ही वो उत्पाद की गुणवत्ता के सवाल पर कंज्यूमर कोर्ट तक पहुंचेंगे और तब हर हाल में सिर्फ लाभ कमाने वाले मीडिया मालिक बगलें झांकने लगेंगे. वर्तमान स्थिति का सबसे बुरा प्रभाव ग्रामीण रिपोर्टिंग पर पडा है. जिस तरह भारतीय फिल्मों से गांव गायब हुआ, उसी तरह आज मीडिया से (खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ) गांव गायब है और इसमें आज भी दो मत नही है कि भारत आज भी गांवों का देश है. ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि मीडिया बहुसंख्यकों की अवाज है. बहुत हद तक भारत में जाति ही वर्ग है और वर्तमान में मीडिया में संपन्न वर्ग का वर्चस्व है. इस कारण समाचारों का भी खास वर्ग चरित्र है. उसमें गरीब, किसान, भूमिहीन बस सनसनी फैलाने भर के लिए रह गये है. लोकतंत्र में मीडिया जबरदस्त प्रहरी की भूमिका निभाता है. वह जनरूचि व लोककल्याणी मुद्दों से जुडी सूचनाओं को प्रकट करती है. मीडिया को वापस इसी भूमिका में आना होगा. तब वह हर आदमी का दोस्त, रहनुमा और आत्मीय बन पायेगा. जरूरत एक न्यूज चैनल और एक एनटरटेनमेंट चेैनल के बीच फर्क करने की है. अखबार में छपने वाली तसवीरों और चटपटे पत्रिकाओं में छपने वाली तसवीरों में अंतर तो होना चाहिए. आज जरूरत इस बात की है कि मीडिया को भी सही-गलत बताने वाला कोई हो, उसके काम में हस्तक्षेप करने वाला कोई हो. परंतु वर्तमान में अभि व्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई देकर मीडिया संस्थान आज अपने ऊपर किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को नकारते ही है. चाहे वो सरकारी हस्तक्षेप की बात हो या मीडिया परिषद बनाने का सुझाव. आज जरूरत मीडिया में भी आरक्षण की है क्योंकि आज यहां ऊंची जातियों का दबदबा है. इन सब उपायों से मीडिया के साख को बचाने की जरूरत है ताकि मीडिया रूपी आईना फिर से सच दिखाए. झूठ या अर्धसत्य नही. (प्रभात खबर के मीडिया बहस से साभार)
सच की भी सीमाये होती है ...एक लकीर जिसे कितना लांघना है ये मीडिया को ही तय करना पड़ेगा....कुछ अधपके सच जिन्हें पका कर दिखाया जाता है ....क्यों उन पर चैनल माफ़ी नही मांगते......
जवाब देंहटाएंमीडिया किसी का भी हित साधने का प्रयास कर रहा हो, वह किसी के भी साथ खडा हो, आम आदमी का तो न वह हित देखता है और न ही ख़ुद को उस से जोड़ता है. उस की अपनी दुनिया है. उस की अपनी प्राथमिकताएं हैं. इन्हीं प्राथमिकताओं के रंग में रंग कर वह ख़बर पेश करता है. जो ख़बर जनता तक आती है वह ख़बर नहीं एक कहानी होती है.
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