मीडिया बहस की दूसरी कडी़ में वर्तिका नंदा के बिचार, महिला पत्रकारों को लेकर क्या हैं हम प्रकाशित कर रहे हैं:-
मेरा मानना है कि जिंदगी रोडवेज की बस नहीं है, जिसमें सवार होते ही औरत अपनी सीट का हक जमाने लगे. जिंदगी संसद में ३३ प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा भी नहीं है. जहां उसे अपने तयशुदा विशिष्ट जगह की तलाश हो. जिंदगी और वह भी खासतौर पर मीडिया से जुडी जिंदगी तो शायद बराबरी का मामला है. हां, कभी-कभी औरत होने के कुछ विशेष अधिकार जरूर मांगे जा सकते हैं, लेकिन उन्हीं को रोटी का मूल अधिकार कतई नहीं बनाया जा सकता. जिस तरह खाना अकेले अचार या चटनी से रोज नहीं खाया जा सकता, उसी तरह से जिंदगी भी अकेले मांगों का बैनर लटकाये नहीं चलायी जा सकती. यहां दो शर्तें अहम हैं- एक, अंदर की औरत के साथ समझौता न हो और दूसरे, औरत होने के स्वभाव की मौलिक नरमाहट और उजास, पत्रकारिता में आने पर भी न सूखे.
टेलीविजन की दुनिया में दो खास किस्म की औरतों से वास्ता पडता है. एक, जो सिर्फ अपने अधिकारों के लिए जीतीं हैं, जो तरक्की के लिए यह भूल जाती हैं कि वे औरत हैं और औरत का जामा पहने, औरत होने के तमाम हथकंडे इस्तेमाल कर किसी मुकाम पर पहुंचना चाहती हैं. दूसरी वे जो इस अनूठी प्रजाति को करीब से देख कर भी खुद को समेटे रखती हैं. इनके लिए सफलता से ज्यादा इनका औरत होना और 'औरतपन' को बचाये रखना जरूरी होता है. इनके लिए सफलता की राह धूल भरी पगडंडियों से होकर गुजरती है.
दूसरी जमात में ऐसी बहुत-सी महिलाएं जेहन में आती हैं, जिन्होंने अपना रास्ता खुद बनाया. अपनी शर्तें खुद तय कीं और अपनी लक्ष्मण रेखा भी खुद बनायीं और ऐसा करते हुए अपने अंदर की औरत को जिंदा भी रखा. इनके लिए रास्ता लंबा रहा लेकिन नतीजे सुखद रहे.
मैं मीडिया में महिला शोषण की बातें अ'सर सुनती रही हूं. हां मीडिया में कई बार महिलाओं का शोषण होता है लेकिन मौजूदा कहानी देखें तो औरत के हाथों मर्दों का शोषण कई गुना बढा है. कोई भी उन लडकों की बात नहीं करता जो पत्रकारिता संस्थानों से लेकर टीवी में एंकर की नौकरी तक में आम तौर पर इसलिए नकार दिये गये 'योंकि वे या तो आकर्षक नहीं होते या फिर उनके आकर्षण से किसी प्रबंधक या इनपुट एडिटर को सीधे फायदा नहीं होना होता. पहली श्रेणी में अ'सर वही महिलाएं जीतती दिखती हैं जो सिगरेट और जाम हाथ से इसलिए छोडना नहीं चाहतीं कि इनके बिना कहीं वे आउटडेटेड दिखने लगें, जिनके लिए किसी 'हद' की कोई 'हद' नहीं होती और न ही जिन्हें इस बात से कोई फर्क पडता है कि यह सब मीडिया को एक बिखरा कलेवर दे रहा है जो चमकदार तो है लेकिन बदबूदार भी.
लेकिन दो वाक्यों के बीच का आखिरी सच यही है कि बरसों बाद जब न्यूज मीडिया का इतिहास सुनहले पन्ने पर लिखा जायेगा तो उसमें वही नाम शामिल होंगे, जो बिना उलझे अपने रास्ते पर निशान छोड आगे बढते गये. मीडिया की भी यही जीत होगी और औरत की भी. .:-प्रभात खबर की बहस में लिया गया हंस से साभार का अंश
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जवाब देंहटाएं"मेरा मानना है कि जिंदगी रोडवेज की बस नहीं है, जिसमें सवार होते ही औरत अपनी सीट का हक जमाने लगे. जिंदगी संसद में ३३ प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा भी नहीं है. जहां उसे अपने तयशुदा विशिष्ट जगह की तलाश हो. "
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही और सही से सहमति क्यों नही हो ? लेकिन सुन्दरता की तलाश खड़े लोगों को गाली देने की वजाय
सुंदर लड़कियों को कोसना अच्छा नही लगा .
कुछ महीनों पहले किसी हिन्दी पत्रिका ने सभी खबरिया पत्रकारों की रचनायो का एक भारी भरकम खास अंक निकाला था ,सबका निचोड़ यही था जो आपने कहा है......बस फर्क इतना है की एक औरत होकर आपने लिखा है...
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