31 मई 2008

'स्कीम जर्नलिज्म' के शिकंजे में पत्रकारिता

संजय कुमार प्रसाद हाल के वर्षों में अखबारों के बीच तेज हुई प्रतिस्पर्द्धा ने 'स्कीम जर्नलिज्म' को बढावा दिया है. वैसे तो नये आर्थिक परिदृश्य में प्रतिस्पर्द्धा कोई नयी बात नहीं है, लेकिन जिस तरह से इस प्रतिस्पर्द्धा ने उपहारों की नयी संस्कृति को बढावा दिया है, वह पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है. साबुन-सर्फ की शक्ल लेता अखबार भी कंटेंट से ज्यादा स्कीम के चलते सुर्खियों में रहता है. गंभीर बात यह है कि आकर्षक स्कीम ही प्रतिस्पर्द्धा की लडाई के मुख्य हथियार बनते जा रहे हैं और कंटेंट, एडिटोरियल वैल्यू और ऑबजेक्टिव जर्नलिज्म हाशिये पर चले गये हैं.
विज्ञापन बाजार में सिकंदर बनने की चाहत ने अखबारों के बीच ' सर्कुलेशन वार' को तेज किया है. विशेषकर हिंदी मीडिया के फैलते बाजार ने हिंदी प्रदेशों को अखबारी लडाई का ' बैटल ग्राउंड' बना दिया है. मजेदार बात यह है कि यह लडाई ' एग्रेसिव मार्केटिंग' और 'अट्रैक्टिव स्कीम' के सहारे लडी जा रही है. यह स्थिति समस्त हिंदी पट्टी में है.
आज स्थिति यह है कि एक अखबार स्कीम निकालता है, तो शेष सभी अखबार इस दौड में शामिल होते हैं और रातो-रात पाठकों को करोडपति बनाने का ख्वाब दिखाने लगते हैं. बेचारा बना पाठक मानसून में हो रही उपहारों की बरसात से अचंभित रहता है और समझ नहीं पाता कि वह अखबार पढने के लिए ले रहा है या उपहारों के लिए. इनाम की गारंटी ने मौसमी पाठकों की संख्या एकाएक बढा दी है. इनका खालिस रिश्ता उपहारों से होता है. अखबार वाले भी अपने सर्कुलेशन में हुए उछाल से गदगद हैं, लेकिन यह नहीं समझ पा रहें कि स्कीम खत्म होते ही ये मौसमी पाठक बरसाती मेढक साबित हो सकते हैं. ऐसे में आज यह सवाल है कि क्या ' स्कीम जर्नलिज्म' के सहारे यह लडाई लडी जा सकती हैङ्क्ष क्या कंटेंट का किला ध्वस्त कर नंबर वन की रेस में विजयी हुआ जा सकता है पत्रकारिता की आत्मा को मार कर मीडिया कब तक मृत शरीर की लडाई लडेगी यह एक विचारणीय विषय है.
यही नहीं, इस बात पर भी गंभीर मीमांसा करनी होगी कि उपहारों के नाम पर करोडों लुटानेवाले अखबार अपने कंटेंट के प्रति कितने संवेदनशील हैंङ्क्ष क्या पार्ट टाइमरों और स्ट्रिंगरों के जरिये यह लडाई लडी जा सकती हैङ्क्ष एक अखबार एग्रेसिव मार्केटिंग टीम बनाने की जितनी जोजहद करता है, क्या संपादकीय टीम के प्रति भी उतना ही संजीदा होता हैङ्क्ष एक बेहतर क्रियेटिव टीम बनाने की कितनी गंभीर कोशिश होती हैङ्क्ष करोडों न सही, लाखों रुपये भी एक पेशेवर टीम बनाने के लिए खर्च किया जाये और कंटेंट जर्नलिज्म को इस लडाई का कोर बिजनेस बनाया जाये, तो वह करोडों के उपहारों से ज्यादा लाभकारी साबित हो सकता है. उपहारों के जरिये कुछ दिनों के लिये सर्कुलेशन बढाया जा सकता है, लेकिन पाठकों के दिलों पर राज केवल और केवल बेहतर पत्रकारिता के जरिये ही संभव है.
(प्रभात खबर के मीडिया बहस से साभार )

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