दलित राजनीति की शुरूआत दलित आंदोलनों से हुई। जो आज मायावती की राजनीति तक पहुंच चुकी है वर्तमान समय में दलित चेतना का जो भी उभार हुआ है उसमे संगोष्ठीयों के विमर्श से लेकर ग्रास्रूट के जुझारूपन तक का योगदान है पर आज दलित राजनीति बडे भट्काव की स्थिति से गुजर रही है एक तो दलित कई गुटों में बट कर लछविहीन रास्ते पर चल पडे हैं दूसरे अम्बेडकर के रास्ते को कई तरह से तोड तोड के पेश किया जा रहा है। मायावती से लेकर आर पी आई और अन्य दलित गुटों की अम्बेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति को आज प्रत्यच्छतः देखा जा सकता है। जिस कारण अम्बेडकर का कई बार मूल्यांकन होने के बावजूद बार बार मूल्यांकन करने की जरूरत है क्योंकि अम्बेड्कर की नजरों में दलित राजनीति से केवल इतनी ही उम्मीद नही थी कि वह दलितों को संगठित करेगी और अन्याय से संघर्ष के लिये उन्हें प्रेरित करेगी बल्कि अम्बेड्कर का सपना देश में एक नई राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक व्यवस्था को प्रतिस्थापित करने का था। जो शोषण और असमानता के विरूद्ध हो जहाँ समानता स्व्तंत्रता और भाईचारा हो जो बहुजन हिताय हो पर आज की जो परिस्थितियाँ है उससे प्रतीत होता है कि दलित राजनीति आदर्श व मूल्यविहीन हो गयी है और वर्तमान व्यवस्था में अपनी जगह बनाने के लिये किसी से भी जोड तोड कर रही है चाहे वह भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी ही क्यों न हो वर्तमान में दलित संगठनों व दलित पार्टीयों ने जातिविहीन समाज बनाने के बजाय जातिगत उभार पैदा किये हैं। भले ही इनके पीछे कुछ अलग परिस्थितियाँ जिम्मेदार हों। कांशी राम की बसपा और आज की बसपा के चरित्र को देखना होगा और उसमे आये बदलाव के कारणो की भी पड्ताल करनी होगी। महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और आज उसकी स्थिति को भी समझने की जरूरत है ।
अम्बेड्कर के बाद जब कांशीराम दलित राजनीति के नायक के रूप में सामने आये तो उन्होंने पेरियार,बुद्ध, शाहू महराज, अम्बेड्कर, साबित्रीबाई फुले, बिजली पासी, झलकारी बाई जैसे की विभूतियों को दलित नायकों के रूप में प्रस्तुत किया।और वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा नहीं चलेगा का नारा दिया।यह कह कर उन्होंने सवर्ण पार्टी कांग्रेव्स जो सत्ता में थी उसको ललकारा और ८५% पर १५% के शासन को खत्म करने की बात उठाई।दलित चेतना के इस उभार ने कांग्रेस को गिराने और एक नये विकल्प की तलास की ओर अग्र्सित किया पर बसपा या कंशीराम यह विकल्प नहीं दे सके जिसका फायदा उठाया साम्प्रदायिक पार्टीयों ने भाजपा जैसी पार्टी का उभार तभी संभव हो सका और यही दौर था जब महाराष्ट्र में कई ऎसे साम्प्रदायिक दलों का उभार भी हुआ।जो जनता बहुजन के पछ में जानी थी वह हिन्दूवादी ताकतों के हाँथ में चली गयी।और अन्ततः वे सत्तासीन भी हुए। पर जब बहुजन पार्टी एक स्थिति में आयी तो उसने किसी भी तरह सत्ता पाने का रास्ता खोजा और बहुजन हिताय को भूलकर वह इन्ही के साथ मिल गयी। उत्तर प्रदेश में बसपा जितनी बार भी सत्ता में आयी उसे इन्ही साम्प्रदायिक पार्टीयों का दामन थामना पडा।और इस बार की भी स्थिति कुछ भिन्न नही है एक बडे सवर्ण वर्ग के साथ मिलकर ही आज भी पार्टी सत्ता में आयी है और कुर्मी सभा ब्रहमण सभा जैसी सभायें करके जातिगत उभारों को बढावा दे रही है अभी हाल में मायावती ने ब्रहमणों के आरछ्ण की बात भी कह दी है इसके पीछे क्या कारण है ?क्या मायावती को आरछ्ण के आधार नही पता है या वे किसी तरह से सत्ता में रहना चाहती हैं।इससे स्पष्ट है कि बसपा जैसी पार्टीयों से सामाजिक असमानता तो दूर की बात है जातिगत उभार ही लाया जा सकता है।और यह भी स्पष्ट है कि वर्ग विहीन और जातिविहीन समाज के लियेदलितों को एक नया रास्ता तलासना होगा।जो वर्तमान में चल रहे अलोकतांत्रिक लोकतंत्र का रास्ता नहीं होगा। इस अंक में प्रमुखतः दलित विचारकॊं की टिप्पणियाँ है और नेपाल के बदलते परिद्रिष्य पर रिपोर्ट और आलेख हम प्रकाशित कर रहे है।पत्रिका में भेजे गये कुछ आलेखों को हम सम्मलित नहीं कर सके हैं हम इन्हें अन्य किसी अंक में सम्मलित करेंगे। इस अंक के संपादन के लिये हमने विभिन्न वेब साइटों से भी समाग्री का सहयोग लिया है जिसके लिये हम इनके आभारी हैं।
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