25 मई 2008

खबर बनाम खबर : खबरों का वर्ग संघर्ष


मीडिया बहस की चौथी कडी़ में
रेयाज-उल-हक
खबरें एक दूसरे के मुकाबिल रख दी गयी हैं. और जैसा कि हमेशा होता है, उनमें से कुछ खबरें दूसरी खबरों पर शासन करती हैं. भूख से मौतों की खबरें पोलियोरोधी टीकाकरण अभियान की शुरुआत करते डीएम की खबर द्वारा शासित होती है. विस्थापन और व्यापक बेरोजगारी की खबरें भारी तकनीक आधारित (और उसी अनुपात में कम रोजगार पैदा करनेवाले) उद्योगों की स्थापना की खबरों के पीछे गुम कर दी जाती हैं. बागबानी और विकलांगों को साइकिल बांटने की खबरें जनता के व्यापकतम संघर्षों की खबरों की कीमत पर जगह पाती हैं.
अपनी सुविधा के लिए इसे खबरों का वर्ग संघर्ष कहा जा सकता है.
प्रायः अब किसी भी घटना के बारे में असली जानकारी मास मीडिया से नहीं मिलती. जो वहां पढाया-दिखाया जाता है, उससे घटना की बहुत सतही (और बहुत बार गलत भी) जानकारी मिलती है. जो लोग वास्तविकता का पता लगाना चाहते हैं, वे दूसरे तरीके इस्तेमाल करते हैं. फैक्ट फाइंडिंग टीमें और निजी ई-मेल इसका एक जरिया हैं. अभी ब्लॉगिंग भी एक विकल्प के रूप में सामने आया है. विदेशों में यह अधिक सशक्त रूप में स्थापित हुआ है.
इतनी अधिक खबरें रोज छपती हैं, लेकिन उनमें वास्तविक खबरें बहुत कम होती हैं. अधिकतर वे होती हैं जो विज्ञापन की संभावनाओं को ध्यान में रख कर बनायी गयी होती हैं. कहां से विज्ञापन मिल सकता है, यह ध्यान रखा जाता है. जिस खबर से विज्ञापन का घाटा होता है, वह नहीं छपती या कम से कम उस रूप में नहीं छपती.
इधर अखबारों को सुंदर बनाने का आग्रह चला है. इसका मतलब है ज्यादा और बडी तसवीरें हों, मैटर कम हो और पेज हल्का लगे. अब एक सुंदर अखबार में विस्थापितों, अकाल के मारे हुओं, भुखमरी के शिकार लोगों की विद्रूपता दिखाती तसवीरें तो बेजायका ही लगेंगी. अस्थि पंजर दिखाते शरीरों की सुबह-सुबह मौजूदगी चाय का स्वाद बिगाड सकती है. वे अखबार की सुंदरता भंग करेंगी. खबरें छोटी रहेंगी तो उनमें विश्लेषण की गुंजाइश नहीं रहेगी. केवल तथ्यों और आंकडों पर जोर रहेगा. इस तरह घटनाओं को उनकी प्रक्रियागत निरंतरता और संदर्भों से काट दिया जाता है. हर घटना सिर्फ एक घटना बन जाती है. कहने की जरूरत नहीं कि यह कितना खतरनाक है. यह वैसा ही है कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं के कारणों पर चर्चा न करके सिर्फ उनकी एक-एक आत्महत्या की खबर अलग-थलग रूप में छापते रहा जाये, मानो वे सारे के सारे मनोरोगी हो गये हों और अपनी जान देने पर तुल गये हों.
अखबारों में विचारहीनता का दुराग्रह बढा है. विचारों के लिए स्पेस कम हुआ है. यह अब सिर्फ संपादकीय पन्ने तक सिमट गया है (हां, कुछ में ऑप एड पेज भी आते हैं) और संपादकीय पन्ने पर भी कार्टूनों, अध्यात्म, चुटकुलों के लिए जगहें आरक्षित कर दी गयी हैं. इसके अलावा ये पन्ने खिसकते हुए काफी पीछे चले गये हैं.
यह अच्छी बात है कि अखबार देखने में सुंदर लगें, लेकिन अखबारों का मुख्य काम सुंदर लगना है या खबर देनाङ्क्ष अगर वे खबर ही नहीं देंगे तो फिर वे किस काम केङ्क्ष यही बात अन्य माध्यमों पर भी लागू होती है.
फूहडपन, सतहीपन और गैर जिम्मेवारी की आपाधापी है. इसमें जो लोग गंभीरता से और जनता के पक्ष में काम करना चाहते हैं, उनके लिए भी दिक्कतें हैं. उन्हें स्पेस नहीं मिलता. कहने के लिए तो सबके लिए मौका बराबर है, लेकिन प्रसार माध्यमों में बडी पूंजी का निरंतर बढता प्रभाव और मीडिया घरानों का बढता एकाधिकार इन दावों को निरर्थक बना रहा है. मल्टी एडिशन अखबार हालात को और बदतर बना रहे हैं. ये सब मिल कर छोटे और कम पूंजीवाले या फिर वैकल्पिक माध्यमों के हिस्से की भी सारी जगहें और मौके हथिया रहे हैं. आनेवाले दिनों में हालात और खराब ही होंगे.

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