- अनिल चमड़िया हिन्दी के पत्रकार है पत्र्करिता में मूल्यों की अडाई देश में चल रहे सामाजिक परिवर्तनों की लडाई और सत्ता के द्वारा मीडिया में चल रहे प्रोपोगेन्डा को इन्होंने समय समय पर अपनी लेखनी के माध्यम से उजागर किया है। वर्तमान में नक्सल्वादी आन्दोलन को किस तरह से राज्य और केन्द्र सरकार पेश कर रही है और उसके क्या पेंच हैं।तथा छ्त्तीसगढ की स्थिति पर अनिल चमडिया का ये विश्लेषण:-
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कई अवसरों पर नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बताया है। खतरे के ग्राफ को स्थापित करने के लिये नक्सलवादी गतिविधियों के ११८ जिलों में फैलने की जानकारी दी जाती है।लेकिन इसी बात को गृहमंत्री कई मौकों पर एक दूसरे प्रभाव के साथ पेश करते हैं।उनके अनुसार नक्सलवादी समस्या को बढ़ा चढ़ा कर नहीं उछाला जाना चाहिये। नक्सलवाद देश के साढ़े छ: लाख गाँवों के महज ३ प्रतिशत हिस्से तक ही सीमित है।इस तरह नक्सलवाद ११८ जिलों के आँकड़ों के आइने में बहुत बड़ी समस्या दिखने लगती है तो वहीं कुल गाँवों के संख्या के आलोक में कोई खास नहीं लगती।इस उदाहरण को केवल यही सीमित कर नहीं देखें।यह तो हुई पहली बात।इसे शासन शैली की खासियत के रूप में देखें।दूसरे इसे दुनिया भर में आँकड़ों के साथ सत्ता और उसके तंत्र द्वारा खेले जाने वाले खेलों के बतौर एक नमूना देखें।तीसरा इसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के बीच इस मसले पर भिन्न नज़रिये के रूप में कतई नहीं देखें।
इसी तरह देश के विभिन्न प्रदेशों में विभन्न पार्टियों की सरकरों के दृष्टिकोण में मतभेद इस आधार पर नहीं देखे जा सकते कि वहाँ अलग- अलग राजनीतिक पार्टियों की सरकारें हैं।छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार है, इसलिये काँग्रेस की केन्द्र सरकार उस प्रदेश सरकार को नक्सलवादी विरोधी अभियान के नाम पर मदद पहुँचाने के लिये बाध्य है।यह छत्तीसगढ़ में बैठा ऎसा जागरुक व्यक्ति ही सोच सकता है जो पड़ोसी राज्य आँध्र-प्रदेश की तरफ नहीं झाँकना चाहता।छत्तीसगढ़ के गॄहमंत्री रामविचार नेताम ने ७ अप्रैल २००७ को यह बयान दिया कि छत्तीसगढ़ में स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर की नियुक्ति केन्द्र के निर्देश पर की गई है और उन्हें पुलिस वालों की तरह सुविधाएँ दी जा रही हैं।
दरअसल देश में केन्द्र और राज्य सरकारों का ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों का मन नक्सलवादी गतिविधियों के प्रति एक जैसा ही बन चुका है।नक्सलवादी गतिविधियों को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में रख कर विचार करने पर ज़ोर दिया जाता है।केवल उसके हिंसा के पक्ष को ही विमर्श के केन्द्र में रखा जाता है।नतीजतन नक्सलवादियों के खिलाफ़ अभियान के नाम पर कॊई भी तरीका स्वीकार करने में हिचक नहीं दिखाई देता है।दुनिया भर के सामने छत्तीसगढ़ को एक ऎसे उदाहरण के रूप में पेश होते देखा जा सकता है, जहाँ लोकतांत्रिक होने के सारे मानदंड ध्वस्त किये जा रहे हैं।वहाँ सरकारी और विरोधी दल मिलकर बिहार की निजी सेनाओं के तरह सलवा जुडुम चलाते हैं।निर्वाचित विधानसभा की गोपनीय बैठक होती है, लेकिन वास्तव में देखें तो नक्सलवादियों के खिलाफ़ कोई अभियान लोकतांत्रिक अधिकारों और मानवाधिकारों के लिये लड़ने वाले लोगों के खिलाफ़ तक जाता है।यानि पहले चरण में तमाम कानून एवं व्यवस्था की धज्जियाँ उडा़ते हुये नक्सलियों को मारने की स्वीकृति हासिल की जाती है और दूसरे चरण में वे निशाना बनते हैं जो लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करते हैं।छत्तीसगढ़ में तो तीसरा चरण भी स्थापित किया गया जहाँ साहित्य पढ़ने, सोचने विचारने और स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका के लिये अपने पेशों को अंजाम देने वालों पर भी अंकुश लगा दिया है।हर पेशे का आदमी सहमा सहमा दिखता है।वह अपने हर ग्राहक को भय की दृष्टि से देखता है।छत्तीसगढ़ के लिये इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या होगी कि पूरी दुनिया में जिस डॉ बिनायक सेन को जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनकी सेवा के लिये सम्मानित किया जा रहा है, उन्हें १४ मई २००७ से जेल के इतने पहरे में रखा गया है कि उनका वजन १५ किलोग्राम से भी अधिक घट गया है। डॉ सेन को ग्लोबल हेल्थ कॉउन्सिल ने २९ मई २००८ को अमेरिका वासिंगटन शहर में जोनाथन मान पुरस्कार देने का फैसला किया।इससे पहले उनके जेल में बंदी के दौरान ही भारतीय सामाजिक विज्ञान अकादमी की ओर से २००७ आर.आर. कैथान स्वर्ण पदक देने का फैसला किया गया।पूरा देश डॉ सेन की स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की प्रति जागरुकता को जानता है।वे वेल्लौर के नामी गिरामी क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज़ से डॉक्टर बनने के बाद किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के दरवाजे पर नहीं गये बल्कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके दल्लीराजहरा में शंकर गुहा नियोगी के पास आये और मज़दूरों द्वारा संचालित देश के पहले हस्पताल को स्थापित करने में मदद की। लेकिन इस तरह के कामों के महत्व को कोई पुलिस वाला महज यह कह कर उपहास उड़ाने की जरुरत कर लेता है कि नियोगी तो नक्सल्वादी थे।
दरअसल इस बात को समझने की जरुरत है कि नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित करके सत्ता तमाम तरह की निरंकुशताएँ स्थापित करने की छूट चाहती है।लोकतंत्र के लिये जो जगह बनी है उस पर इंच दर इंच सत्ता तंत्र कब्ज़ा करना चाहता है,इसीलिये छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा में लगे लोगों और संगठनों को बख़्सने का कोई भी मौका सत्ता तंत्र नहीं छोड़ रहा है।संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता पक्ष और विपक्ष में बँटी दिकती है,लेकिन यहाँ इस तरह के बँटवारे की रेखा लुप्त हो जाती है।ऎसे रुख के कारण न्यायालय भी अपनी भूमिका में दिखाई देना बंद कर देता है।आपातकाल में न्यायालयों से लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा की माँग मुश्किल हो गई थी।न्यायालयों ने समर्पण सा कर दिया था।इस वक्त छत्तीसगढ़ के संदर्भ में क्या देखा जा रहा है? डॉ सेन के मामले तो यह साफ दिखता है कि डॉ सेन के बहाने सरकार का मकसद मानवाधिकार विचारों को ही चेतावनी देना भर है।सरकारें यदि यह मान लें कि न्यायिक प्रक्रिया ऎसी है कि किसी को वर्षॊं तक जेल में रखा जा सकता है तो यहाँ लोकतंत्र पर सरकारी साजिश के अनुपात का अंदाज़ किया जा सकता है।लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि यदि न्यायालय सरकारी तंत्र के इन निरंकुश इरादों को समझ कर उसे ध्वस्त नहीं करे तो उसकी भूमिका की सक्रियता पर सवाल तो जरुर खड़े होते है।
हाल के वर्षों में ऎसे दर्जनों मामले सामने आये हैं जिसमें न्यायालय ने संघर्षशील लोगों को बरी किया लेकिन सरकार द्वारा उन्हें महीनों और वर्षों तक बंदी बना कर रखने में कामयाबी हासिल करने के बाद।जब इस तरह आर्थिक,राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को व्यक्त करने के अवसर कम होते जायेंगे तो क्या स्थिति बन सकती है!हर विरोध को नक्सलवादी कह कर उसे नकारने की छूट मिलती हो तो हर सत्तातंत्र यही करेगा और वह कर रहा है ।देश के सामने एक बड़ी चुनौती है कि वह राजनीतिक पार्टियों के चरित्र को वास्तविक अर्थों में कैसे लोकतांत्रिक बनाये।इस समय यह समझने की जरुरत है कि विकास और सुरक्षा की राजनीति के निहितार्थ क्या हैं?अमरीका को इराक में जनसंहार के हथियार दिख रहे थे ।अपने देश में भाजपा को विकास और सुरक्षा के लिये आतंकवाद दिखता है।वह गुजरात में नरेन्द्र मोदी की जीत को विकास और सुरक्षा की जीत के रूप में व्याख्यायित करता है।इसी तरह मनमोहन सिंह को विकास और सुरक्षा के लिये नक्सल्वादी चाहिये।इसीलिये वे नक्सलवाद को जिलों के संख्या के आधार पर सबसे बडॆ़ खतरे के रूप में दिखाते है और दूसरी तरफ़ गृहमंत्री ३ प्रतिशत गाँव में नक्सलवाद की समस्या दिखा कर भूमंडलीय विकास नीति में लगी जमात को आश्वस्त भी कर देते हैं।विकास और सुरक्षा वास्तव में अपनी मनचाही विकास की सुरक्षा है।
Those who do not abide by the rules of country should be treated as criminals. Government shows laniencey while dealing with such criminals on the name of Naxalite. They have not ethics as far as I know. They loot huge money by terorrising contractors, farmers, industrialists. There are many vote bank sycophants who neither oppose nor support and home minister both state and cabina come under same category. They are the one who are major obstacle in the development of rural India. Look at their money power. They have such sofisticated arms which are not manufactured in India.Such Deshdrohi's has should be brought under rule book. Those who support Naxalites are not human. Look at the pathetic scene of tribal womens whom these naxalites exploit in tribal areas. Its high time Manmohan singh and his sycophants get stop giving statements and reing in such goons.
जवाब देंहटाएंचिरंजीव भाई,
जवाब देंहटाएंशायद आप कोई NRI हैं या किसी मेट्रॊ में बैठे कोई निहायत बेवकूफ़ जिसे समाज में क्या हो रहा है,उसकी रत्ती भर खबर नहीं है।अफ़सोस।आप शर्म किजिए ,बिना कुछ जाने बुझे आप कहते है कि सरकारें नक्सलियों के प्रति नरम है और वोट की राजनीति के लिये चापलूस भी।शायद आपका पढ़ने-लिखने से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है,इसलिये आप अखबार भी नहीं पढ़ते होंगे।अगर पढ़ते होते तो आपको मालूम होता सरकार के नज़र में नक्सली इंसान नहीं होते। रोज़ अखबारों में कहीं न कहीं नक्सलियों की मुठभेड़ी मौत की खबर जरूर छपती है।याद रहे,हमारा देश एक कल्याण्कारी राज्य है और न्याय-व्यव्स्था सुधारवादी...अतएव सरकार का कर्तव्य है कि वह अगर कोई अपराधी है भी तो उसमें सुधार के प्रयास करे,न कि उनकी ह्त्या करते फिरे...
बहरहाल जिस आलेख पर आपकी टिप्पणी आयी है...वहाँ इन बातों की कोई प्रासंगिकता नहीं है।बात जब डॉ सेन की हो रही हो तो आप बस जान लें कि जब उन्होंने छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा हो रहे मानवाधिकार का उल्लंघन का पर्दाफ़ाश किया तो खिसियाई बिल्ली बनी छ.ग. सरकार अब तक डॉ सेन को बिना किसी सबूत और ग्वाह हिरासत में रख कर परेशान कर रही है। और न्यायिक कार्यवाही में सिर्फ़ टाल-मटोल की प्रक्रिया चल रही है।पुलिस के पास कुछ है ही नहीं जो डॉ सेन को मिथ्या ही सही नक्सली सिद्ध कर सके। आप पूछिये छ.ग. के गरीब आदिवासियों से कि डॉ सेन कौन हैं...तब आपको पता चलेगा कि कैसे कोई व्यक्ति निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा कर सकता है! एक m.b.b.s. टॉपर और बिना फी के गरीब मज़दूरों का इलाज करने वाले डॉ सेन को पैसों के ग़ुलाम(जो अनुपयोगी होने पर अपने माता-पिता को भी छोड़ देते हैं) संदेह के निगाह से देखेंगे जरूर।
अंत में फिर कहूँगा चिरंजीव जी...पढ़िए...और पॉप कल्चर और फ़ैशन पत्रिकाओ के अलावा कुछ दैनिक अखबारॊं को भी पढ़ें...और उन अखबारों में हो रही सरकारी ह्त्याओं पर ध्यान दें।
ये चिरंजीवी साहब वाकई अंग्रेजीदा हैं और कट्टर हिंदूवादी तो अवश्य हैं इसीलिये उन्हॆ खुद से ज्यादा देशप्रेमी और कोई दिखाई नही देता. अच्छा, ऐसे लोगों के पुरखों का संबंध हिटलर के वंशजों से होता है. और मेरा तो दावा है कि इन साहब ने यह पूरा लेख ही नही पढ़ा होगा, वर्ना इतनी अनर्गल टिप्पणी करने से पहले जरा भी सहज बुद्धि अप्लाई करते तो इनकी बातों का जवाब खुद ही मिल गया होता. इन्होंने तो ब्लागवाणी पर पोस्ट के बारे मे देखा होगा और नक्सल शब्द देखकर फटाफट ऊल्टी कर दिया.
जवाब देंहटाएंऐसे लोगों की वाहियात बातों का जवाब देने का मतलब इनके प्रपंच मे फँसना. बगैर किसी तथ्य के कोई सार्थक बातचीत संभव ही नही हो सकती.
चिरंजीवी साहब की टिप्पणी तो प्रोपोगेण्डा का एक हिस्सा है. या हो सकता है कि देशप्रेमी की आड़ मे यह व्यक्ति साम्राज्यवादी देश का कोई खुफ़िया एजेंट हो.