25 मई 2008

मीडिया बहस की चौथी कडी़ में

अपने ही अंतर्विरोधों का शिकार मीडिया:-
रेयाज-उल-हक
देश में पिछले दो दशकों के बीच प्रसार माध्यमों का जितना प्रसार हुआ है, वह वास्तव में चौंधिया देनेवाला है. यह प्रसार देश में विदेशी पूंजी के लिए रास्ते खोलने और देश की अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकृत होने के साथ साथ जुडा हुआ है. विदेशी उत्पादकों को बाजार चाहिए और उपभोक्ता सामग्री का बाजार-जीवनयापन के लिए जरूरी सामग्री से इतर उत्पादों का बाजार-तब बनता है, जब उसके बारे में लोगों को बताया जाये, उसके प्रति भरोसा जगाया जाये और उसकी लालसा पैदा की जाये. यह काम मास मीडिया करता है. ऐसा करने के लिए मीडिया को एक जनपक्षी चरित्र भी रखना पडता है, ताकि लोग उस पर भरोसा करें. लेकिन, काम वह अंततः बाजार के एक दस्ते का ही करता है. विज्ञापन के साथ-साथ प्रचार सामग्री आती है और छपती है. कुछ समय पहले अंगरेजी के एक बडे दैनिक ने तो बाजाप्ता यह घोषणा तक कर दी कि वह पैसे लेकर लोगों की खबरें छापेगा. तह में जाने, क्रॉस चेक करने और घटनाओं-प्रक्रियाओं के अंतर्संबंधों की अब कोई परवाह नहीं की जाती. खबरें प्लांट की जाती हैं. मीडिया को अनुकूलित करने पर सत्ता तंत्र का एक बडा हिस्सा काम करता है. देश का पूरा शासन तंत्र जिस नवउदारवाद के आगे दंडवत है, इस तंत्र के एक हिस्से के बतौर मीडिया भी इसमें शामिल है. अगर, कहीं कोई अपने सुर अलग रखना चाहे, तो सत्ता के पास उसके 'बेसुरेपन' को सुधारने के अनेक उपाय हैं. पत्रकार खरीद लिये जा सकते हैं. जो नहीं बिकते उन पर अनेक तरीकों से दबाव बनाया जाता है. हाल में पत्रकारों की गिरफ्तारियों के मामले बढे हैं. इफ्तिखार गिलानी, प्रशांत राही, लचित बोरदोलाई, गोविंदन कुट्टी, सरोज महांती और हाल में गिरफ्तार मिल्ली गजट के पत्रकार नदीम अहमद कुछ बडे नाम हैं. इनके अलावा अनेक और होंगे जो खबरों का हिस्सा नहीं बन पाये होंगे.
अखबारों पर विज्ञापनों के जरिये दबाव बनाया जाता है. कई जगह विज्ञापन अब एक अधिक केंद्रीकृत तंत्र द्वारा जारी किये जाने लगे हैं. ऐसे में अखबारों पर दबाव और बढा है. जो अखबार तिस पर भी अनुकूलित नहीं होते, उन पर मुकदमे दायर किये जाते हैं.
जैसा कि आम तौर पर होता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल खडा किया जाता है. लेकिन, सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उतना नहीं है. किसी भी समाज व्यवस्था और शासन व्यवस्था में कभी भी बिना शर्त और निरपेक्ष स्वतंत्रता नहीं रहती. वह शर्तों के अधीन ही होती है. शर्तें और स्वतंत्रता की सीमा शासक और सत्ता तंत्र तय करता है. सवाल यह है कि एक अंतर्विरोधी चरित्र के साथ मीडिया कैसे जीवित रह सकता है. वह जन पक्षधर दिखना चाहता है, लेकिन अपनी अंतर्वस्तु में वह ठीक इसके विपरीत है. सवाल इस अंतर्विरोध का है. अगर, आप जन पक्षधर दिखना चाहते हैं तो आपको वैसा होना होगा. आपकी विश्वसनीयता भी तभी बनी रह सकती है. इसका कोई विकल्प नहीं है.

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