मी्डिया बहस में नारायण दत्त जी के विचार, नरायण दत्त वरिष्ठ पत्रकार हैं
पत्रकार कितनी ही बार अपनी नैतिकता से गिर जाते हैं. यह बात १९२० वाले दशक में भी महसूस की जाने लगी थी. यह वह जमाना था, जिसे आज हम हिंदी की मिशनरी पत्रकारिता का स्वर्ण युग कहते हैं. जब गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णु पराडकर, माखनलाल चतुर्वेदी, अंबिकाप्रसाद वाजपेयी, इंद्र वाचस्पति जैसे दिग्गज संपादक हिंदी पत्रकारिता की अगुवाई कर रहे थे.
हिंदी पत्रकारों को पेशेवराना तौर पर संगठित करने का प्रयत्न भी तभी आरंभ हुआ था. संपादक समिति के नाम से एक संगठन खडा करने की कोशिश की जा रही थी और पराडकरजी के मार्गदर्शन में बनारसीदास चतुर्वेदी इसके लिए आंदोलन कर रहे थे. उस समय पत्रकार शब्द चलन में नहीं आया था और जिन्हें आज हम पत्रकार कहते हैं, वे सब तक संपादक कहलाते थे.संपादक समिति क्या काम करे, कौन सी जिम्मेवारियां निभाये, इस संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री पराडकर ने १९२५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन में वृंदावन अधिवेशन के अवसर पर आयोजित संपादक सम्मेलन अर्थात पत्रकार सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था- '' मैं चाहता हूं कि इंडियन मेडिकल कौंसिल के समान यह समिति संपादन-कला को उत्तेजन देने का प्रबंध करे. संपादकों के साधारण धर्मों का निर्धारण कर उनका पालन सबसे करावे, विरुद्धाचरण को दंड भी दे. वकील, डॉक्टर तथा सब पेशों के लोगों के आचरण का एक आदर्श होता है. क्या संपादक ही उच्छृंखल होकर संसार का अनिष्ट करते रहेंगेङ्क्ष हमें स्वयं ही मिल कर अपना आदर्श ठहराना होगा.''
श्री पराडकर ने जिसे संपादकों का साधारण धर्म कहा उसे हम आज के मुहावरे में पत्रकारों की आचार संहिता कहते हैं. इस प्रकार हम देखते हैं कि आज से ८० साल पहले ही यह बात अनुभव की जाने लगी थी कि पत्रकार विरादरी को मिल कर अपनी एक आचार-संहिता बनानी चाहिए, उसका उल्लंघन करने वाले को दंडित करना चाहिए और इस काम के लिए इंडियन मेडिकल कौंसिल जैसा एक स्वायत पेशेवराना संगठन होना चाहिए. मेडिकल कौंसिल की तरह बार कौंसिल का भी उदाहरण लिया जा सकता है. मेडिकल कौंसिल और बार कौंसिल अपने पेशे के सदस्यों को पेशेवराना आचार दोषों से मुक्त रखने और दोषी पाये जाने वाले सदस्यों को दंडित करने में कहां तक कृत्तकार्य हुए हैं, इस बारे में, मेरे खयाल से, बहस की गुंजाइश है. इन पेशों के सदस्यों के पेशेवराना आचरण पर उंगली न उठायी जा सके ऐसी स्थिति आज भी नहीं है.
इसलिए यह स्पष्ट है कि एक नया तंत्र खडा करना जरूरी है और यह तंत्र समूचे मीडिया का अपना स्थापित किया हुआ तंत्र होना चाहिए. उसकी बात मानना सबके लिए लाजमी होना चाहिए और जो न माने उसके लिए दंड की कारगर व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसे तंत्र की स्थापना करना और समूचे मीडिया से उसकी बात मनवाना आसान काम नहीं. इस जटिलता से पार पाने के लिए लीक से हट कर सोचना और नयी राह बनाने की हिम्मत दिखाना जरूरी है. इसलिए मेरी विनम्र राय में सवाल सिर्फ यह नहीं है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे, उतना ही विकट सवाल यह भी है कि बिल्ली के गले में घंटी कैसे बंधेङ्क्ष मैथिलीशरण गुप्त के सीधे-सादे शब्दों में आप सबको मेरा निमंत्रण है,' आओ, विचारें आज मिल कर समस्यायें सभी.' सभी में मीडियाकर्मी ही नहीं, पाठक-दर्शक-श्रोता सब बराबरी के अधिकार और उत्तरदायित्व के साथ समाविष्ट हैं.
साभार : माधवराव सप्रे स्मृति समाचारपत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित 'आंचलिक पत्रकार' पत्रिका से.
उम्मीद है आप जैसे ही कुछ लोग होंगे पत्रकार बिरादरी मे होगे जो जागेगे ओर आत्म विश्लेषण करके कही एक लाइन खीचेगे ......
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